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श्री गौतमस्वामीनो रास.
जो अष्टापद शैल. वंदे चंढी चवीस जिण । श्रातम लब्धि वसेण, चरम सरीरी सोइ मुनि ॥ इय देखणा निसुणेइ, गोयम गणहर संचलियो । तापस पन्नर सए, जो मुनि दीठो भावतो ए ॥ २५ ॥ तप सोसियनिय अंग, अम्ह संगति न ऊपजे ए । किम चढसे दृढकाय, गज जिम दीसे गाजतो ए ॥ गिरु एणे अभिमान, तापस जो मन चिंतवे ए । तो मुनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकर किरण ||२६|| कंचण मणि निष्पन्न, दंड कलस ध्वज वड सहिय । खवि परमाणंद, जिणहर भरहेसर महिय ।।
निय निय काय प्रमाण, चिहुं दिसि संठिय जिगह बिंब | पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ||२७|| वयर सामीनो जीव, तिर्यकजृंभक देव तिहां । प्रतिबोधे पुंडरीक, कंडरीक अध्ययन भणी ॥ वलता गोयम सामि, सवि तापस प्रतिबोध करे । लेह आपण साथ, चाले जिम जूथाधिपति ॥ २८ ॥ खीर खांड घृत आणी, श्रमीय वूठ अंगुठ ठवे । गोयम एकण पात्र करावे पार सवे ॥ पंच सयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे । साचा गुरु संयोग, कवल ते केवलरूप हुआ || २६ ॥ पंच सयां जिणनाइ, समवसरण प्राकार त्रय । पेखवी केवल नाण, उप्पन्नो उज्जोय करे ||