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________________ पदवी प्रदान माटे श्री संघनो आग्रह, मुनिवर्ये देखाडेली पोतानी लघुता. ५९ आशरे बसो गामना प्रतिनिधिओए एकठा थइ मुनिवर्यने विनति करी के, “महात्मन् ! आप जेवा ज्ञानी, प्रखर वक्ता, अने संयमशील महापुरुषो आ भारतभूमिमां विचरी रह्या छो, तेथी जैन शासन जयवंतु वर्ते छे. अनार्य जेवा क्षेत्रने आपे आर्यक्षेत्र जेवू बनावी दीधुं छे. धर्मथी अजाण कर्णाटक देशनो आपे उद्धार को छे, अने तेथी आपना अमे अनुगृहीत छीए. परिश्रम लइ आपना उपदेशनो लाभ आपी तथा जाहेर लेक्चरो आपीने आपे आ देशना हिंसक हजारो स्त्री-पुरुषोने मांस-मदिरानो त्याग कराव्यो छे. वळी वधारे आनंदनी वात ए छे के, आपने सुपात्र बे शिष्यो थया छे; तेथी आपने अमारी नम्र विनति छ के, आप श्री संघ समक्ष पंन्यास पदवी स्वीकारो, अने त्यार पछी थोडा ज दिवसोमां आचार्य पदवी स्वीकारवा कृपा करो. आ महान् पदवी आपनार तथा लेनार बन्नेने शिरे केटली जवाबदारी रहे छे ए अमो समजीए छीए; परंतु आपना समागमथी अमोने खात्री थइ छ के, ए महान् पदवीने आप पूरेपूरा लायक छो." मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे जवाब आपतां कडं के, " भव्यो ! मारा जेवा साधारण मुनिमां श्रीसंघे आटली योग्यता जोई ए पूज्य श्रीसंघनी गुणग्राहिता छे. मारे हजु संयम माटे विशेष केळवावानी जरुर छे. हुं मानुं हुंके, मुनिधर्मने यथास्थित पाळनारा प्राचीन के अर्वाचीन मुनिवर्योना चारित्रनी अपेक्षाए हजु हुं
SR No.002455
Book TitleSubhashit Shloak Tatha Stotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavvijay
PublisherBhupatrai Jadavji Shah
Publication Year1935
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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