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श्री जय तिहुअण स्तोत्र अने गौतमाष्टक ।
( ७१ ) जं पासिवि उवयारु करइ तुह नाह समग्गह । सुच्चिय किलकल्लाणु जेण जिण तुम्ह पसीयह, किं अनि तं चैव देव मा मह वीरह || २६ || तुह पत्थण नहु होइ विहलु जिण बाणउ किं पुरा, हउं दुक्खिय निरु सत्तचत्त दुक्कहु उस्सुयमण । तं मन्नउ निमिसेण एउ एउ वि जइ लब्भइ, सच्चं जं क्खियवसेण किं उंबरु पच्चइ ॥ २७ ॥ तिहुअणसामित्र पासनाह मई अपु पयासिउ, किज्जउ जं नियरूवसरिसु न
उ बहु जंपिउ । अन्नु न जिय जग तुह समो वि दक्खिण्ण- दयासउ, जइ अवगण्णसि तुह जि श्रहह कह होसु हयासउ ॥ २८ ॥ जइ तुह रूविण किवि पेयपाइण बेलविउ, तु वि जाणुं जिण पास तुम्हि छउँ अंगीकरिउ । इय मह इच्छिउ जं न होइ सा तुह ओहावखु, रक्खंतह नियकित्ति य जुञ्जइ भवहीर ॥ २६ ॥ एह महारिय जत देव इहु न्हवण महूसउ, जं ऋण लियगुणगहण तुम्ह मुणिजणणिसिद्धउ | एम पसीह सुपासनाह थंभणयपुरट्ठिय, इय मुणिवरु सिरिअभयदेउ विण्णव दिय ॥ ३० ॥ ॥ इति श्रीस्तम्भनकतीर्थराजश्रीपार्श्वनाथस्तवनम् ॥
श्रीगौतमाष्टकम् ।
श्रीइन्द्रभूर्ति वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतम गोत्ररत्नम् । स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ १ ॥ श्रीवर्द्धमानात् त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्त्तमात्रेण कृतानि