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(१८९ ) अवगुण ढंके गुण लहे, न वदे निठुर वान । मानस रूपे देवता, निर्मल गुणनी खान ॥१३४३॥ घर नहि तो मठ बनाया, धंधा नहि तो फेरी । बेटा नहि तो चेला मुंडा, ऐसी माया गेरी ॥१३४४ ॥ ओछे नरके उदरमें, न रहे मोटी बात। आध सेर के पात्रमें, कैसे सेर समात ॥१३४५ ॥ समकित श्रद्धा अंक हे, और अंक सब शून्य । । अंक जतन कर राखिये, शून्य शून्य दस गुण ॥ १३४६ ॥ हितकर मूढ रीझाइये, अति हित पंडित लोक । अर्ध दगध जड जीवको, विधव रिझावत जोग ॥ १३४७ ॥ नयन श्रवण अरु नासिका, कर नहि करत करो। सुत वनिता परिवार को, अचरज कीसो रह्यो ॥ १३४८ ॥ जब तक तेरे पुन्यका, और पता नहि करार । तब लग गुणा माफ हे, अवगुण करो हजार ॥ १३४९ ॥ पापी दृष्टि जीवने, धर्म वचन न सुहाय । के ऊंचे के लडपडे के उठके घर जाय ॥१३५० ॥ नारी कपटकी कोथली नारी कपटकी खान । जे नारीके वस पड्या, ते न तो संसार ॥१३५१॥ धर्म करत संसार सुख, धर्म करत नव निध । धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥१३५२ ॥