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ओर
से
अन विश्व भारती की
समीक्षा मेंट . नियुक्तिपंचक
[ आचार्य भद्रबाहु ति रचित दशवैकल्कि. उत्तराध्य, आवारांग, सूत्र तोग, दशाश्रुतस्कंध की नियुक्तियों
के मूलपाठ. पाठान्तर पादटिप्पण, अनुवाद, विस्तृत भूमिका तथा विविध परिशिष्टों से समलंकृत ]
(खण्ड-३)
वाचना प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
संपादिका डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा
अनुवादक मुनि दुलहराज
जैन विश्व भारती, लाडनूं
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समर्पण
पुडा वि पारिस गमा आपापहाणे जण जस्स नि । सन्चप्पओगे पवरात्तवस्स, भिक्खुस्स तस्रः प्पणिहाणण्व्वं ।।
जिल्लामा प्रशारण पष्ट पर होकर भी अपप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।
विनोदि
आगमदुद्धभेत. तई मुलद्धं णवणीयमच्छ रुज्झाय-सज्झाण रयस्स. निच्छ, जयरस तस्स पणिहानपुव्वं ।
जिसने आगन रोहन कर-कर, माया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत सद्ध्यान लीनचिर चिन्तन, ज्याचार्य को मिल भाव मे।,
वाहिया जेण सुयरस धार.. गण मतो मम्म मासे वि। जो हे ओ स्स टायगत्स. कालुस्स तल्स पगिहाणपुटतं ।
जिसने श्रुत की हार जहाई सफल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, लालपणी को विमल मन से ।
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ग्रंथानुक्रम
१५-१२९
११३
१२१ १८.
प्रकाशकीय संकेत--निर्देशिका नियुक्तिसाहित्य : एक पर्यवेक्षण दशवैकालिक नियुक्ति
. विषयानुक्रम • गाथाओं का समीकरण •नियुक्ति-गाथाएं
- हिन्दी अनुवाद उत्तराध्ययन नियुक्ति
• विषयानुक्रम .गाधाओं का समीकरण • नियुक्ति-गाथाएं
• हिन्दी अनुवाद आचारांग नियुक्ति
विषयानुक्रम • गाथाओं का समीकरण • नियुक्ति-गाथाएं
• हिन्दी अनुवाद सूत्रकृतांग नियुक्ति
• विषयानुक्रम • गाथाओं का समीकरण • नियुक्ति-गाथाएं
• हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतरकन्ध नियुक्ति
• विषयानुक्रम • नियुक्ति की गाथाएं
• हिन्दी अनुवाद परिशिष्ट १ भाष्य-गाथाओं का समीकरण
, दशवकालिक भाष्य .उत्तराध्यमन भाष्य
२४५ २८७
३२३
३८७ ३८२ ४०७
४२५ ४२६
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२. पदानुक्रम ३. एकार्थक
४देशी शब्द
५. निक्षिप्रा शब्द
६ कल
७ परिभाषाएं
८ का सुभाषित
९ उपना और पृष्टान्त
१० दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य
१६. अन्य ग्रंथी से तुलना
१२. विशेषनामानुक्रम १३ वर्गीकृत विशेष नुव १४ वर्गीकृत विषयानुक्रम
१५. प्रयुक्त ग्रंथ सू
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प्रकाशकीय
आगम-सम्पादन का कार्य दुरूह ही नहीं, श्रमसाध्य, समय-सापेक्ष, बौद्धिक जागरूकता एवं अन्तःप्रज्ञा के जागरग का प्रतीक है। तेरापंथ के नवम आचार्य एवं जैन विश्व भारती संस्थान के प्रथम अनुशारता गुरुदेव श्री तुलसी ने ४५ वर्ष पहले शोध के क्षेत्र में भगीरथ प्रयत्न किया था, जिसके सारथी बने वर्तमान आचार्य श्री महाप्रज्ञ । इस्ट ज्ञानयज्ञ में उन्होंने अपने धर्म-परिवार के अनेक साधु-साध्वियों को नियुक्त किया, फलस्वरूप बत्तीस आगमों का मूल पाठ सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुका है। भगवती
भाष्य, आचारांग-भाष्य और व्यवहारभाष्य जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का कार्य भी पूर्ण हुआ है। एकार्थक कोश, निश, देवीरोश, भिशु आग्म-विषय कोश तथा जैन आगम वनस्पतिकोश भी प्रकाशित होकर सामने आ चुके हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'नियुक्तिपंचक' इसी श्रृंखला की एक कड़ी है, जिसे सम्पादित किया है समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने । नियुक्ति आगमों की प्रथम व्याख्या है अत: व्याख्याग्रंथों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। ऐ आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्मित हैं। इनमें आगमों के महत्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गयी है। निर्मुक्तिपंचक में दशवकालिक, उत्तराधयन, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं दशांश्रुतत्कंध-इन पांच नियुक्तियों का समाहार है। नियुक्तियों का हस्तप्रतियों से समालोचनात्मक रूप से पाउ-संपादन प्रथम बार प्रकाशित हो रहा है, यह संस्था के लिए गौरव का विषय है। ग्रन्थ में दिए गए पद-टिप्पण नियुक्तियों की गाथा-संख्या निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
इस ग्रंथ में पाठ-संपादन तथा पाठ-विमर्श का वैशिष्ट्य तो मुखर है ही साथ ही साथ ग्रंथ में १४ महत्त्वपू परिशिष्ट भी संदृब्ध हैं। गाथाओं का हिन्दी अनुबाद होने से ग्रंध की महत्ता और अधिक बढ़ गयी है। हिन्दी अनुवाद में मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी की श्रमनिष्ठा बोल रही है। ग्रंथ की बृहद् व्याख्यात्मक भूमिका नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण' नियुक्तियों के अनेक गंभीर विषयों को स्पष्ट करने वाली है।
शोध कार्य धैर्य, परिश्रम, निष्ठा, जागरूकता एवं सातत्य मांगता है। समणीश्री कुसुमप्रज्ञाजी ने इन सभी गुणों को मन से जीया है। यही वजह है कि ग्रन्थ की सम्पूर्ण संयोजना में उनकी प्रतिभा और साधनग मुखर हुई है। समणी कुसुमप्रज्ञाजी लगभग २० वर्षों से शोधकार्य में संलग्न हैं। इससे पूर्व वे व्यवहार भाष्य एवं एकार्थक क्रोश का संपादन कर चुकी हैं। नियुक्तिपंचक' का सम्पादन नारी गति का गैरव है। आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महान ने नारी जाति को विद्या और अनुसंधान के क्षेत्र में जो साहस, बुद्धि-वैभव एवं आत्म-विश्वास दिया है, युगों-युगों तक उनका कर्तृत्व इतिहास में अमिट रहेगा।
ग्रंथ की प्रेरणा और दिशा निर्देशन का प्राण तत्त्व है— श्रद्धेय गुरुदेव तुलसी एवं आचार्य श्री
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१२
निर्युक्तिपंचक
महाप्रज्ञ । ग्रन्थ की पूर्णाहुति में मुनि श्री दुल्हराजजी का अविस्मरणीय योगदान रहा है। उनके अनथक श्रम मार्गदर्शन एवं सम्पादन कौशल ने ही ग्रन्थ को प्रकाशन तक पहुंचा है।
जैन विश्व भारती आगम साहित्य प्रकाशन की श्रृंखला में 'निर्युक्तिपंचक' जैसे ग्रंथरत्न को प्रकाशित कर विद्वत् पाठकों एवं सत्य-संधित्सुओं को यह ग्रन्थ सौंपते हुए गौरव की अनुभूति कर रही हैं। सम्पूर्ण नियुक्ति साहित्य को पांच खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है, जिसमें यह तीसरा खण्ड ८५० पृष्ठों में राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित हो रहा है। प्रथम खण्ड प्रकाशनाधीन है। विद्ववर्ग में यह ग्रन्थ समादृत होगा, इसी अशा और विश्वास के साथ सबके प्रति विनम्र आभार ज्ञापन |
श्रीचन्द बैंगानी जैरिती लाडनूं
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संकेत-निर्देशिका
चूर्णि
आ.
अचू
आनि
दशकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि । पू अनु. अनुवादक
चूपा चूर्णि के पाठान्तर
जंबू जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति अनुद्वाचू अनुयोगद्वार चूर्णि
जंबूटी जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका आयारो
जयध. जयधवला आवासू आचारांग सूत्र (संपा. शूकिंग)
जिचू दशवकालिक जिनसचूर्णि अाचारांग चूर्णि
जी जीवाजीचाभिगम आटी. आचारांग टीका
जीचू जीतकल्प चूर्णि आटीमा. आचारांगटीका के नठान्तर
जीतभा जीतकल्पभाष्य आधारागनियुक्ति
जैन आगम... जैन आगम-साहित्य में भारतीय आवचू आवश्यक चूर्णि
समाज आवनि आवश्यकनियुक्ति
जैन पुराणों... चैन पुराणों का सांस्कृतिक आवमटी आवश्यकनियुक्ति मलनगरि टीका
अध्ययन अबहाटी आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीय टीका जैन स्ला .. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास उत्तराध्ययन सूत्र
ज्ञा. ज्ञाताधर्मकथा उद्धृत गाथा
टीका उचू उत्तराध्ययन चूर्णि
टीका के पाठान्तर उनि उत्तराध्ययननियुक्ति
तत्त्वार्थसूत्र उशांटी उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका
तंदुलवैचारिक उसुटी उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका
तुलना ओनि ओघनियुक्ति
तृतीय संस्करण ओनिटी ओधनियुक्ति टीका
दचू दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि ओनिद्रोटी ओधनियुक्ति द्रोणाचार्य टीका दनि दशाश्रुतस्कंध निथुक्ति कमा. कषायपाहुड़
दशवैकालिक सूत्र कौटि कौटिलीय अर्थशास्त्र
दशअचू दशवकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि गाथा
दशजिचू दशवकालिक जिनदासचूर्णि गुणस्थान
दशनि दशवैकालिकनियुक्ति गोजी गोम्मटसार (जीवकाण्ड) दशहाटी दशवकालिक हारिभद्रीय टीका गौतमधर्मसूत्राणि
दश्रुनि दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति चंदा चंदावेज्झय प्रकीर्णक
दसवे. दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि चर्स चतुर्थ संस्करण
द्राष्टव्य
उगा
टीपा
त.
| तंदुल
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1
:
१४
द्विच्
द्विसं
घ.
नंदीचू
नंदीमटी
नंदीहाटी
निगा
निचू
निभा
पंसं
पंकभा
पंचभा
पंव.
प
पद्म
परि
मिनि
च
पिनिटी
पृ.
प्रचू
प्र.
प्रसं
बृभा
बृभापीटी
भ
भआ
भटी
भा
भाग.
भागा
भू
म
मज्झिम
मनु
||mp
द्वितीय चूला
द्वितीय संस्करण
धवला
नंदीचूर्णि
नंदी मलयगिरि टीका
नंदी हारिभद्रीय टीका
नियुक्ति गाथा
निशीथ चूर्णि
निशीथ भाष्य
पंचम संस्करण
पंचकल्पभाष्य
पंचकल्प भाष्य
पंचवस्तु
पण्णवणा, पत्र
पद्मपुराण
परिशिष्ट
पिंड नियुक्ति पिंड निर्मुक्तिटीका
पृष्ठ
प्रथमचूला
प्रधान
प्रथम संस्करण
बृहत्कल्प भाष्य
बृहत्कल्पभाष्य पीठिका टीका
भगवती
भगवती आराधना
भगवती टीका
भाष्य, भाष्यकार
भागवत
भाष्यगाथा
भूमिका
मलयगिरि टीका
मज्झिमनिकाय
मनुस्मृति
मनो
मभा.
महापु
मूला
रावा.
वा. प्र.
वि.
विभा
विभाकोटी
विभामहेटी
व्यभा
व्या.
शांटी
शांटीपा
षट्.
षड्
षड्टी.
पसं
सं
संपा
सम
समटी
समप्र.
सू.
सूचू. १
सूचू. २.
सूटी
सूनि
स्थाटी
हरि
हाटी
हाटी
मनोनुशासनम्
महाभारत
महापुराण
भूलाचार
तत्त्वार्थ राजवार्तिक
वाचना प्रमुख
विक्रम संवत्
विशेषावश्यकभाष्य
विशेषावश्यक कोट्याचार्य टीका
विशेषावश्यक मलधारी हेमचन्द्र
टीका
व्यवहार भाष्य
व्याख्याकार
उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका
उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका के
पाठान्तर
षट्खंडाग
नियुक्ति पंचक
षड्दर्शनसमुच्चय
षड्दर्शनसमुच्चय टीका
षष्ठ संस्करण
संख्या
संपादक, संपादन, संपादित
समवाओ
समवायांग टीका
समवाओं प्रकीर्णक
सूयगडो
सूत्रकृतांग चूर्णि भाग १
सूत्रकृतांग चूर्णि भाग २
सूत्रकृतांग टीका
सूत्रकृतांग नियुक्ति
स्थानांग टीका
हरिवंशपुराण
दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका
हारिभद्रीय टीका
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
--
+--
के
१. नियुक्ति का स्वरूप
१७ | सूत्रकृतांगनियुक्ति २. नियुक्ति का प्रयोजन
१८ | १२. दशाश्रुतस्कंध एवं उसकी नियुक्ति ३. नियुक्तियों की संख्या
.नामकरण ४. नियुक्ति-रचना का क्रम
- रचनाकार ५. आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति
• अध्ययन एवं विषय-वस्तु ६. दशकालिक सूत्र एवं उसकी
• दशा तस्कंधनियुक्ति • रचनाकार का परिचय
१३. नियुक्तियों की गाथा-संख्या: एक रग्ना का उद्देश्य
अनुचिंतन नामकरवर
१४. नियुक्ति में निक्षेप-पद्धति • नियूह। -
१५, नियुक्तिपंचक का रचना-वैशिष्ट्य के रचनाकाल
१६. छंद-विमर्श भाषा-शैली
१७. निर्जरा की तरतमता के स्थान • अध्ययन एवं विषयवस्तु
१८. भावनाएं • दशकालिकनियुक्ति
दर्शनभावना ७. दशकाता की एक नन निति' .
. ज्ञानभावना ८. उत्तराध्ययन सूत्र एवं उसकी नियुक्ति ३१
चारित्रभावना • नामकरण
तोभावना गरिव
• वैराग्य भावना • रचनाकाला
१९. प्रणिधि/प्रणिधान • अध्ययन एवं विशयरतु
२०. साधना के बाधक तत्त्व • उत्तराध्ययननिर्मुक्ति
२१. त्रिवर्ग ९. आचारांग सूत्र एवं उसकी नियुक्ति ३७ • धर्म
रचनाकार रचनाकाल • भाषा एवं रचना-शैली
२२. वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां • अध्यय-। एवं विषयवस्तु
.वर्णसंकर जातियां • आचारांगनियुक्ति
.वर्णान्तर के संयोग से उत्पन्न १०. महापरिज्ञा अध्ययन एवं उसकी नियुक्ति ४३ | जातियां महापरिज्ञा शब्द..
२३. स्थावरकाय ११. सूत्रकृतांग एवं उसकी नियुक्ति
स्थावरकाय में जीवत्व-सिद्धि •||मकरण
• पृथ्वीफाय रचनाकार एवं रचनाकाल
• अप्काय • अध्ययन एवं विषयवस्तु
• तेजस्काय
.काम
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.. Anirnme
१०८ ११० ११२
११५
११७
• वायुकाय
.बनस्पतिकाय २४. भिक्षु का स्वरूप २५. भिक्षाचर्या २६. दिशा
• द्रव्य दिशा
क्षेत्र दिशा • ताप दिशा • प्रज्ञापक दिशा • भाव दिशा
• दिशाएं और गस्तुशास्त्र २७. करण
• तिथि के अनुसार करण- चक्र . करण निकालने की विधि .करण का समाप्ति काल जानने की
विधि २८. काव्य
• गद्यकाव्य • पद्यकाव्य
गेयकाच्य • चौर्णकाध
२९. यातायातपथ ३०. धार्मिक संस्कृति ३१. दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तथ्य
३२. सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक १०० स्थितियां
३३. इतिहास ३४. विज्ञान ३५. स्वास्थ्य विज्ञान ३६. परवर्ती एवं अन्य ग्रंथों पर प्रभाव ३७. आगम-संपादन का इतिहास
३८. नियुक्ति-संपादन का इतिहास १०५ ।
३९. पाठ-संपादन ४०. नियुक्तियों का अनुवाद ४१. प्रयुक्त प्रति-परिचय
• दशवकालिक नियुक्ति • उत्तराध्ययन नियुक्ति • आचारांग नियुक्ति • सूत्रकृतांग नियुक्ति
• दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४२. कृतज्ञता-ज्ञापन
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्वेताम्बर पररा में महार-वा: अज भी ग्यारह अंगों के रूप में सुरक्षित है। दिगम्बर-परम्पर. के अनुसार उन आगन संधों का कालान्तर में लेप हो गया इसलिए नियुक्ति-साहित्य की विशाल श्रुत राशि केवल श्वेताम्र पारा में ही मार नियुक्ति का स्वरूप
जैन आगनों से या ग्रंथ तुटत चार प्रकार के है नियुतिः. भाग्य. निरीक न्विन्ति प्राचीनतग पाद्ध व्याल्य है । भद्रबाहु ने आवश्यकनियुवित्त (गा ८८) में नियुजित का निरुक्त इस प्रकार किया है-'निज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती' जिसके द्वारा सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय होता है, वह नियुक्ति है। निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निर्णय करना तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना निविर का उद्देश्य है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्रिया. करक भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा पाब्द की व्याख्या करना या अर्थ प्रकट करना निरुक्ति/नियुकित है। जर्मन विद्वान शान्टियर के अनुसार नियुक्तिम प्रधान रह से संबन्धिरः ग्रंथ के इंडेक्स का कार्य करती हैं तथा सभी विस्तार घटनावलियों का संक्षा मे उल्लेख करती हैं। व्याख्या के सदर्भ में अनुगम दो प्रकार का होता है -सूत्र-अनुगन और नियुक्ति-अनुगम : नियुक्ति-अनुगम तीन प्रकार का होता
है
१ निक्षेपनियुक्ति-अनुगम २. उपोद्घानियुक्ति-अनुगम ३ सूत्रशिकनियुक्ति-अनुगम।'
प्रत्येक शब्द के कई अर्थ होते हैं। उन्में कौन सा अर्थ प्रासंगिक है, इसका नान निक्षेपनियुक्ति-अनुगम से कराया जाता है। उपोद्घातनियुक्ति-आनुगन में छलतीस प्रकार से कान या विषय की मनांस की जाती है। तत्प्प्रचार सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति-अनगम के द्वारा नियुक्तिकार सूत्रात शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। नियुक्तिकार मूलग्रंथ के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न कर केवल विशेष शब्दों की ही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
१ (क) विभा १०८६: जं निच्या जूता सुत्ते अत्धा भीए वन'या ।
तेणेयं निकुत्ती. निगुत्त्याभिहाणाओ। (ख) सुटी ५.१ योजनं युक्ति: अर्थवटा निश्चयेनधिक्येन वा युक्तिनियनित: सम्यगर्थप्रकटनम ।
नियुक्ताना वा सूत्रेाजे परस्परसम्बद्वानाम भाविभावन मुक्तशब्दमोगान्निक्तिः । (ग आवनही प. १०० सूत्रामा वरपर निजन संबंधनं नियंतितः । घि अभिटी न. ४; नि आधिज्ये योजनं मुक्तिः सूत्रार्थयोयोमो नित्यमवरिथल एवास्ते वाच्य वाचकत्तयेत्यर्थ
अधिका योस्न नियुक्तिस्त्र्यते नियता नचिता वा योजनेति । २. आव्हाटी ग ३६३। } Uttaridhyayana sutra. preface,page 50.51 । ४. विमा ९७२. कन्टुत्ती तेविगमा, मनोव्यपगत्तवक्ला। ५ भिा ९७३, ५:५४
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नियमिपाक भाग्य साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं, उनमें नियंकि का दस स्थान है। प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ कराया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुजित्त के साथ सूत्र की ब्यारम्य' की जाती है तथ तीसरी व्याख्य! मैं निरवशेष—सवांगीण व्याख्या की जाती है। यहां निज्जुत्तिमीसओ का दुः२ः अर्थ ह भी संभव है कि दूसरी व्याख्या में शिष्य को सूत्रात अर्थ का अध्ययन कराय जाता है, जिसे अधरम कहा जाता है। विशेषाश्यक भाग्य की प्रस्त गाथा भवती २५/९७ में भी प्राप्त है, परन्तु भगवती में यह कालान्तर में प्रक्षिप्त हुई है, ऐसा प्रतीत होता है। नियुक्ति का प्रयोजन
एक प्रश्न सहज उपस्थित होता है कि जब प्रत्येक सूत्र के साथ अर्थागम रांबद्ध है तब निर अलग से निथुकिा लिगने की आयश्यकता क्यों पड़ी इस प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार रच; कहते हैं--'तह विय इच्छावेइ विभासि सत्तारवाही' अवनि ८८)। सत्र में अर्थ नियुक्त होने पर भी मदति की विविध प्रकार से पार करके ो २.१ ६ लि. निरा की रचना के जा रही है। इसी गाथा की व्याख्या करते हुए विशेषावश्यक भाष्रकार कहते हैं कि श्रुतपरिमटी में ही अर्थ सिद्ध है अत. अभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले निर्युक्तमा आचार्य को अतओं पर अनुग्रह करने के लिए। कह श्रुत्तरिटी ही अर्थ प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है। उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैगे म.-चित्रकार अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को कहा है या शनका अथवा अंगुलि के साधन मे उसकी व्याख्या करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध करने के लिए सूत्रबद्ध अर्थो को निमित्तकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। जिन् भद्रगणि. क्षमाश्रमग ने 'इच्छायेइ' पान्द का दूसरा अर्थ या बाया कि मंदबुद्धि शिष्य ही सूत्र क सम्यग अर्थ नहीं समझने के कारण गुरु को प्रेरित कर सूत्र व्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करवाता है। आचार्य हरिभद्र ने में की व्याया की
निष्कर्षतः हा जा सकता है कि निर्मुक्तियां जैन अगमों के विशेष शब्दों में प्यार। रतुत करने एवं अर्थ-निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रन है। नियुक्तियों की संख्या
नियुक्तियों की संख्या के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि नंदी सूत्र में ज्हा प्रत्येक आगग का परिचय प्रार है, वहां ग्यारह अंगों के परिचय-प्रसंग में प्रत्येक अंग पर असंख्य
१. विमः ५६६: तुत्ताधे बलू महतो, बीओ नितिमीसो भागो।
त: निरलस्सो. स वि हो आओगे . २ विभा १७८८.तो सूपरिवरि इच्छवेड तर्मगम्छमण । नि वि तदत्ये. तु
दगुग्गहहुए। ३. विभा १५८९; लयलिशिय पि मंलो गद पास:तानता।
पार य पहलधुं. सुबह तह मि | ४ मा १०५६ इटार विमसिउं में, सुबारिवाडि न सुटा बुल्झामि ।
नाति ई वा सीसो, गुरमिच्छाविद चोत्तुं जे ।। ५ आवहाटी१८४५।
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निर्युक्त साहित्य एक पर्यवेक्षण नियुक्ति होने की उरलेली है। संस्पेय शब्द के दो दर्गों में सगझा जा सकता है। प्रत्येक अंग पर अनेक निर्यगत्तयं लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिर्वी नित्य की । -मा निशिचत नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि रे निर्णय मय थीं? इसके सम्मान में एक मंभान यह की जा सका है कि सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियटयां लिली होंगी। इन निर्मुक्तिों को मात्र ऊर्धार म माहा : सशता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और आर्य में परस्पर नियोजन को निर्गनित कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जत्तीओ' क यह अर्थ अधिक संत लगता है कि सूत्रागन र स्वयं सूत्रकार में ऊर्थागम लिख, वे ही उस्त समय नियुक्तिमा लाहलाती थी। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांर और सूत्रकृतांग के परिचय में नदीकर ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की पाझरूपता होने के मा आ आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ पाउ जुड़ गया। अभी बनान में जो नियुक्ति साहित्य उसाल है, उनके साथ गंदी सूत्र में वर्णित नियुक्ति का कोई संबंध नहीं लगर ।
आवश्यकनियुक्ति में आचार्य द्रबाहु ने १. निर्मुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। उनका क्रम इस प्रकार है- १. आवश्यक २. दशकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६ वाश्रुतस्कंध १५ बृहत्कल्प ८ व्यबहर ९ सूर्यग्रज्ञप्ति १० ऋभिभाषित । हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्ररतत्र आदि की नियत का भी उल्लेख क्रिया है। वर्तमान में इन देस निर्युषित्तयों में केवल : नियुक्तियां ही प्रार हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस मन्तयां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन अनिवाक्यसी रचना ही कर सके। दूसरा संभावित विकता यह भी २५ है कि अन्य अग साहित्य की गांति फुछ नियुत्तियां भी काल के अंतराल लन्त होगीं। इस संदा में डा समारगलजस का मंत्व्य है-- लगता है सर्यप्रज्ञप्ति में जैन अचार-मदि के प्रतिकूल मुह उपर तथा ऋष्भिाषित में नारद, मलि गोशाक आदि जैन परम्पर के लिए विवादास्पद व्यनित्ये क उल्लेख देखकर आचार्थ भद्रबाह ने प्रतिज्ञा करने पर भी इस पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथा यह भी संभव है कि इन देन ग्रंथों ५. नियुक्ति लिखी गयी हैं पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से कतर रस गया हो. फलत: उपेक्षा के करण कालक्रम से ये दिलुप्त हो गयी हों। ___इसके अतिरिक्त पडनियुक्ति, ओघनिकित, पंचकल्पनियुक्ति और निशीनिमुक्ति अदि का स्वतंत्र अस्तित्व मिलर है। डा. धाटने के अनुसार ये ब्रमशः दशकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुकि बृहत्कल्पनेर्युषित्त और अचार नियुक्ति की पूरफ नियुक्तियं हैं। इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह कि ओघनियुक्ति, पिडनियुक्ति और निशीनियुक्ति की स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यक नियुकि
१ नदी ८६९१। २. नि ८ ८५. अवरनगर सहित उत्रज्जामाबारे । सूरगड़ें निनांगे या तह. दहा च ।
कबरला य
निरमोव परमागगररा। नरियागकं इसिभ लियाण च ।। ३. अवज्ञाटी ६४ऋमि पेताना च देशप्रस्तादी नियुक्ति . ४. सागर जैन नियाभरती. भाग १7 २.५
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निर्मुवित्तपंचक दशवैकालिकनियुक्ति और आचारांगनिमुक्ति का पूरक कैसे माना जा सकता है? इन नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तिल, . इस तिपय में कुल निदओं पर विचार करना आवश्यक लगता है
१ यद्यपि आचार्य मलयगिरि पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का अंग मानते हुए कहते हैं कि दशवैकालिकनियुक्ति की रदना चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने की। दशवकालिक के पिंडैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर बहुत विस्तृत नियुक्ति की रवना हो जाने के कारण इसको असर स्वतंत्र शास्त्र के रूप में मिडनियुक्ति गम दे दिया गया। इसका हेतु बताते हुर आवार्य मनयगिरि कहते हैं कि इसीलिए पिंडनियुक्ति के आदि में मंगलाचरण नहीं किया गया क्योंकि पशबैकालिक के प्रारम्भ में मंगल चरण कर दिया गया था। लेकिन इस संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है। छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कारपूर्वक नहीं हुआ है। मंगलाचरण की पर पर लगभग विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास की है। दूसरी बात, मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख कही नहीं मिलता अत स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनिमुक्ति का पूरक नहीं माना ज सकता है। तीसरी बात, दशवकालिकनियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा केवल झारिन्द्रीय टीका में मिलती है। स्थविर आत्यसिंहकर दशवैकलिका की चूर्णि में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है। इससे भी स्पष्ट है कि मंगलाचरण की गाथा बाद में जोड़ यी है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि विष्ट्य-सम्प की दृष्टि से पिडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का पूरक मान लिया गया ।
२ दशवकालिकनियुक्ति में द्रव्यैषा के प्रसंग में कह गया है कि यहां पिंडनियुक्ति कहनी चाहिए।' यदि निनिकित दर वैकलिकनियुक्ति की पूरक होती तो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।
३. दशवकालिकनियुक्ति में नियुक्तजार ने लगभा अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है। अन्य अध्ययनों की भांति पांचवें अध्ययन में भी पिंड' और 'एषणा'—इन दो शब्दों की व्याख्यः की है। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकल्किनियुक्ति की पूरक होती तो अलग से निर्युक्तकार यहां गाथाएं नही लिखते तथा पिड शब्द के निक्षेप भी पिडनियुक्ति में पुनरक्त नहीं करते।।
. ओघनियुक्ति और पंडनक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अंतर्गत मानते हैं। इस बात से स्पष्ट होता है कि आचार्य भद्रबाह द्वारा इसकी स्वतंत्र रचना की गयी होगी। अघनियुक्ति की द्रोणाचार्य टीका में भी उल्लेख मिलता है कि साधुओं के हित के लिए चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने नवम पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से इसका नियूहग किया।
५. ओघनियुक्ति को आवश्यकनियुवित्त का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि मावश्यकनिर्मुक्ति की अस्वाध्यायनियुक्ति क पूरा प्रकरण औधनियुक्ति में है। यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती।
६ निशीथ आवारांग की पंचन चूला के रूप में प्रसिद्ध है किन्तु आज इसका स्वतंत्र अस्तित्व
१. पिनिटी प. २ दशनि २१८/४; भाटरसुवगारित्ता, एत्थ दटेसणाएँ अहिंगरो। सीए पुग्ण अत्यजती. उसय पिउनिन्जुत्ती।' ३. ओनिद्रोटी ५.३.४
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निर्मुचित साहित्य : एक पर्यवेक्षण मिलता है। आचार गनिमुक्ति की अंतिग गाथा में नियुकिकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पंचमला—निशीथ की नियुक्ति मैं आगे कहूंगा। निशीथ चूर्णिकार ने भी अपनी मंगलाचरण की गाथा में कहा है भणिया विमुनिचूला अहुणावसरो निसीहचूलाए' उनके इस कथन से इस ग्रंथ का पृथक अस्तित्व स्वतः सिद्ध है अन्यथा वे ऐता उल्लेख न कर उपचारांगनिन्त्ति के साथ ही इसकी रचना कर देते।
७. इस संदर्भ में एक संभावना यह भी की जा सकती है कि आधाराण की चार चूलाओं की नियुक्ति अत्यंत संदिपन शैली में है किन्तु निशीनि त्यत विस्तृत है। इसकी रचना-शैली भी अरनिनित्य से भिन्न है अत: बहुत संभव है कि भारबाह द्वितीय में इसे विस्तार देकर इसका स्वतंत्र महत्त्व नजि दिया हो। आ. भद्रबहू कहां दस नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं. वहां नहीच क नानोल्ड नहीं है। या चिंता का प्रारम्भिक बन्दु है : अभी इस बारे में और अधिक गहन चिंतन की आवश्यक है।
८. पाल्पनिर्यक्ति को भी बृहत्कल्पनियुक्ति की पूरक नियुक्ति नहीं माना जा सकता। ऐसा अधिक संभव लगत है कि आचार्य भनक हुने 'कप्प' शब्द से पंचताप और बृहत्कल इन दोनों नियुक्तियों का समावेश कर दिया हो।
किसी सन्तंत्र विषय पर लिली गई क्ति को भी मूल नियुक्ति को अलग कर उसे स्वतंत्र नाम दिया गया है , जैसे—आवश्कनियुवित्त एक विशाल रचना है। उसने छह अध्ययनों की नियुक्तियों का भी उल्ला अलग नाम से स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। नीचे कुछ नाम तथा उनका समावेशः किस नियुक्ति में हो सकता है, यह उल्लेख किया गया है१ सामाइवनिरी
आवरानि (क्ति २. लोगररज्जोगनिज्जुत्ती आवश्यकनियुक्ति ३. गमोकलारनिज्जुत्ती आवश्यकनियुक्ति ॐ. परिलायनिजूनी आवश्यकनियुक्ति ५५. चवखणनिती आवश्यकनियुक्ति ६ उसज्झा-ज्जत्ती
आवश्यकनियुक्ति ७. समोसरगनती अवश्यकनियुक्ति ८ कानिज्गुनी
बृहरकल्प तथा दाशुतरक धनि वित्त ९ पदोसष्णाकप्पनिज्जुत्ती दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति इसके अतिरिक्त जिन आगमों पर नियुक्त्यि लिखी गई हैं, उनके अलग अलग अध्ययनों के आधार पर भी निथुक्ति के अलग-अलग न भ निल्ते है। जैसे—अचारांगनिर्गुक्ति में सत्यपरिग्णानिज्जती. महापरिगण,निज्जुत्ती और धुनिज्जुलै आदि।
सर्तमान में सूर्यप्रज्ञप्ति तथ ऋषिभाषित (र लिखी गगी निथुक्तिया और आराधनानियुक्ति अनुपलब्ध है। संस्कृतनिमुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां मिलती हैं किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हो
। झप्पनिजुनी
जुतम्
के अंतर्गत मन in is strictru—ा दोनों युक्तियों के लिए प्रति है।
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२२
नियुक्तिपंचक पायी है। गाधाओं तथा पाठ का बहुत अंतर मिलता है। इसमें ८४ आगमों के संबंध में उल्लेख है अतः विद्वान लोग इसे परवती एवं अगर मानते हैं। सरदारशहर के गधैया उस्तलिखित भंडार में महेशनियुक्ति की प्रति भी मिलती है किन्तु यह खोज का विषय है कि यह किस ग्रंथ पर कब और किसके द्वारा लिखी गई
इन निक्तियों के अतिरिक्त गोविंद आचार्यकृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख भी अनेक स्थलों पर मिलता है। गोविंदनियुक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व-सिद्धि का प्रयत्न किया है क्योंकि अप्काय में जीवत्व सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि ने उल्लेख मिलता है कि 'जं च निजुत्तीए आउक्कायजीवलक्खणं जं च अज्जगोविंदेहिं भणियं गाहा। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि उन्होंने आचारांग के प्रथम अध्ययन के आधार पर निर्मुक्ति लिखी होगी । आचार्य भद्रबाहु द्वारा उल्लिखित नियुक्तियों के अतिरिक्त अन्य नियुक्तियों की निश्चित संख्या के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा
सकता ।
वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों में कुछ नियुक्तियां स्वतंत्र रूप से मिलती है, जैसे- आधारांग, सूत्रकृतांग की नियुक्तियां। कुछ नियुक्तियों के आंशिक अंश पर छोटे भाष्य मिलते हैं, जैसे-पर दोनों का स्वतंत्र दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की नियुक्ति । कुछ नियुक्तियों पर बृहद् भाषा अस्तित्व मिलता है, जैसे- आवश्यक नियुक्ति, पिंड नियुक्ति ओधनियुक्ति आदि। कुछ नियुक्तिया ऐसी हैं, जो भाग्य के साथ मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गयी हैं, जिनको आज पृथक करना अत्यंत कठिन है, जैसे-निशीय, व्यवहार, बुहत्कल्प आदि की नियुक्तियां । बृहत्कल्पभाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि इसी बात का उल्लेख करते हैं।
निर्युक्ति- रचना का क्रम
आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा का क्रम इस रूप में प्रस्तुत किया है? — १. आवश्यक २ दशवैकालिक ३ उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५ सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित ।
पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिनत है कि भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में जिस क्रम से ग्रंथों की नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है, उसी क्रम से नियुक्तियों की रचना हुई है। इस कथन की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं..
१ आजारांगनियुक्ति गा. १७७ में 'लोगो भणिओ' का उल्लेख है। इससे आवश्यक नियुक्ति (गा. १०५७, १०५८) में चतुर्विंशतिस्तव के लोगस्स पाठ की व्याख्या की ओर संकेत है।
२. ' आयारे अंगम् य पुब्बुद्दिट्टो उल्लेख आचारांग निर्मुक्ति (गा. ५ ) में है । दशवैकालिक के
१५५०३ वृधा ५४३ १४५२ मा ४२० । २. नि ३ पृ. २६००
३ बृभापीटी पृ २ सूत्ररपर्शिकाने युक्तिर्भाष्य को ग्रंथो जातः ।
४. अवनि ८४ ८५ ।
गणधर
"
२. १४ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्षुल्लिकाचार अध्ययन की निमुक्ति (१५४-६१) में आचार तथा उराराध्ययन के चतुरंगीय अध्ययन की निमुक्ति (गा. १४४-५८) में अंग का विशद वर्णन मिलता है। इससे स्पष्ट है कि आचारांग से पूर्व दशबैकालिक और उत्तराध्ययननिकेत की रचना हो चुकी थी।
३. उत्तराध्मयननियुक्ति में 'विणओ पुवुद्दिट्टो' (गा.२९) का उल्लेख दशवैकालिक की विनयसमाधि की नियुक्ति (गण २८६-३०३) की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि दशवकालिक के बाद उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई।
४ 'कामा पुबुद्दिट्टा' (उनि २००) का उद्धरण दशबैकालिकनियुक्ति (गा. १३७-४१) में वर्णित काम शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन से पूर्व दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई।
५. सूत्रकृतांगनियुक्ति (गा. १८३) में 'आयार सुतं भणिय उल्लेख से स्पष्ट है कि दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना उससे पूर्व हो गयी थी क्योंकि आचार का वर्णन दशनि १५४.६१ में तथा श्रुत का वर्णन उनि २९ में है।
६. आवश्यनियुक्ति में वर्णित निबवाद की कुछ गाथाएं शब्दश: उत्तराध्ययननियुक्ति में मिलती हैं। ७ उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित काही व्याख्या काही मुछ मन मूरमृतांगनियुक्ति में भी
मिलती हैं।
८. सूत्रकृतांगनियुक्ति में 'गयो पुबुद्दिट्टो' (गा० १२७) का उल्लेख उत्तराध्ययननियुक्ति (गा० २३४-४०) में वर्णित ग्रंथ शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति से पूर्व उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई।
९. आचारांगनियुक्ति (गा. ३३६) में वर्णित 'जह वक्कं तह भासा' का उल्लेख दशवैकालिक की 'वक्कसुद्धि' अध्ययन की नियुक्ति की ओर संकेत करता है।
१२. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति (गा. २९) में 'धम्मो पुबुद्दिट्टो' का उल्लेख दशवैकालिकनियुक्ति (गा. ३६-४०) में वर्णित धर्म शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि सूत्रकृतांग.नियुक्ति की रचना बाद में हुई।
११ 'जो होति मोक्खो, सा उ विमुत्ति पगतं' आचारांगनियुक्ति (गा.३६५) का यह उल्लेख उत्तराध्ययननिमुक्ति में वर्णित मोक्ष की व्याख्या की ओर संकेत करता है।
उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि नियुक्तियों की रचना का कम वही है, जिस कम से उन्होंने नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। नियुक्तियों के कर्तृत्व एवं उसके रचनाकाल के बारे में हम विस्तार से अगले खंड में चर्चा करेंगे। आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति ___आचार्य भद्रबाहु द्वार लिखित नियुक्तिये के अतिरिक्त गोविंद आचार्य कृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। आवश्यकचूणि में दर्शनप्रभावक ग्रंथ के रूप में गोविंदनियुक्ति का उल्लेख हुआ है। निशीथ चूर्णि में उनका परिचय इस प्रकार मिलता है.
६.निभा ३६५६, चू. पृ. २६० ।
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नियुक्तिपत्रक
गोविंद' नामक बौद्ध भिक्षु था। एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में वह अठारह बार पराजित हुआ। पराजय से दुःखी होकर उसने चिन्तन किया कि जब तक मैं इनके सिद्धांत को नही जानूंगा, तब तक इन्हें नहीं जीत सकता। इसलिए हराने की इच्छा से ज्ञान प्राप्ति के लिए उसी आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया। सामायिक आदि का अध्ययन करते हुए उसे सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उसे व्रत - दीक्षा दी। दीक्षित होने पर गोविंद भिक्षु ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बता दिया। उनके दीक्षित होने का उद्देश्य सम्यक नहीं था अतः उन्हें ज्ञान स्तेन कहा गया।
२४
बृहत्कल्पभाष्य में उनका उल्लेख ज्ञान - स्तेन के रूप में नहीं है। वे हेतुशास्त्र युक्त गोविंदनियुक्ति लिखने तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए दीक्षित हुए- ऐसा भाष्यकार तथा टीकाकार मलयगिरि का मंतव्य है। निशीथभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में भी अन्यत्र ऐसा ही उल्लेख मिलता है।' व्यवहारभाष्य में मिथ्यात्वी के रूप में उनका उल्लेख मिलता है। वहां चार प्रकार के मिथ्यावियों के उदाहरण हैं, उनमें गोविंद आचार्य पूर्व गृहीत आग्रह के कारण मिथ्यात्वी थे।'
नंदी
सूत्र
में
नंदी हुए । सूत्र की स्थति के अनुसार ये आर्य स्कन्दिल की चौथी पीढी में इन्हें विपुल अनुयोगधारक क्षांति, दया से युक्त तथा उत्कृष्ट प्ररूपक के रूप किया हैप्रस्तुत गोविंदाणं पि नमो अणुओगे विजलधारणिंदाणं । निच्चं खंतिदयाणं, परूवणा दुल्लभिंदाणं । ।
गोविंदनिर्युक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व - सिद्धि का प्रयत्न किया है।' यह नियुक्ति दवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन छन्जीवचा के आधार पर लिखी भी अथवा आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र - परिजा पर इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिक नियुक्ति में मात्र इतना उल्लेख है— गोविंदवायगो वि य जह परपक्वं नियत्तेइ ।
यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा के आधार पर लिखी गयी प्रतीत होती है। इसके कुछ हेतु इस प्रकार हैं
१ अप्काय में जीवत्व-सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि में उल्लेख है- 'जं च निज्जुत्तीए आउक्कायजीवलक्खणं जं च अज्जगोविंदेहिं भणियं गाहा" इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचारांग के आधार पर उन्होंने नियुक्ति लिखी होगी ।
२. आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने इन स्थावरकायों की अस्तित्व-सिद्धि के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है, जबकि दशवैकालिक में केवल इनकी अहिंसा का विवेक है। आधारांगनियुक्ति में भी
१. आचार्य हरिभद्र ने गोविंद के स्थान पर गन्द्राचकक प्रयोग किया है (दहाटी ५३१ ते अगतो. अपणा वा गोविंदवाचकवत् । हेतुशास्त्राच गोविंदप्रभृतीना ।
२ नि ३ पृ. ३७ भावतेणी चितावहरता
३. वृक्षः ५४७३८. १४५५ द्यम
४ (क)
५५७३ ५ ९६: हेतुसत्यगोविदनिज्जुतादियट्ठा र सपज्जति
(ख) पंकणा ४२०, गोविंदच्यो पागे. दंसणसत्यहेतुगट्ठा वा ।
५ व्या २०१४ महिने होति गोविंदो ।
६ निघू ३ . २६०: पच्छा तेण एगिंदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुती कथा ।
१७ आचू २७ ।
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निर्युक्त साहित्य - एक पर्यवेक्षण स्थावरकाय-सिद्धि की कुछ गाधाएं हैं। संभव है आचार्य भद्रबाहु ने गोविंदनियुक्ति से कुछ गाथाएं ली हों क्योंकि गोविंदाचार्य भद्रबाहु द्वितीय में पूर्ण के है। दर बैकालिक का न पूर्णिया में भी गोविद आचार्य के नमोहन पूर्वज यह माथ। मिल -- भणियं च गोविंदवायगेहिं
काये वि हु अझप्पं, सरीरबाया समन्नियं चैव ।
काय-मणसंपउत्त, अज्झप्पं किंचिदाहसु।। आष स्वतंत्र रूप से गोविंदनियुक्ति गमक कई ग्रंथ नहीं मिलता फिर भी प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विद आचार्य ने नियुक्ति लिखी थी. जो अज अनुपलब्ध है। दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी नियुक्ति
___ दशधैलालिक सूत्र सामाधार का प्रारको का कराने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। उत्कालिक सूत्रों में दशकालिक का प्रधम्म स्थान है आचारप्रधान ग्रंथ होने से नियुक्तिकार के अनुसार इसका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है। दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार इसमें सधु के आधार एवं भिक्षायर्या का वर्णन है।' यह आगम-पुरुष की रचना है, इसलिए इसकी गणना आगम ग्रंथों के अंतर्गत होती है।
जैन परम्परा में यह अत्यंत प्रसिद्ध आगम ग्रंथ है। इसके महत्व को इस बात से आंका जा सकता है कि इसके निर्दृहण के पश्चात् दशवैकालिक के बाद उत्तराध्यापन पढ़ा जाने लगा। इससे पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्यन् सूत्र बढ़ा जाता था। दशवैकालिक की रचना से पूर्व साधुओं को आचारांग के अंतर्गत शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन को अर्थत: जाने बिना महाव्रतों की विभागत: उपस्थापना अर्थात छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जाता था किन्तु दशवैकालिक की रचना के बाद इसके चौथे अध्ययन (षड्जीवनिकाय) को अर्थत: जानने के बाद महाव्रतों की विभागत. उपस्थापन दी जाने लगी। प्राचीन काल में आचारांग के दूसरे अध्ययन 'लोक-विजय' के पांचवें उद्देशकगत आमगंध (२/१०८) सूत्र को पढ़े बिना कोई भी स्वतंत्र रूप से भिक्षा के लिए नहीं जा सकता था। किन्तु दशकालिक के निषूह के पश्चात् पांचवें अध्ययन 'पिँडैषणा'को पढ़ने के बाद भभु पिंडकलली होने लगा। दशवकालिक ग्रंथ की उपयोगिता इस बात से जानी जा सकती है कि मुनि मनक के दिवंमत होने पर आचार्य शव्यंभव ने इसको यथावत् रखा जाए या नहीं, इस विषय में संघ के सम्मुख विचार-विमर्श किया। संघ ने एकमत से निर्णय लिया कि यह आगम भव्य जीवों के लिए बहुत कल्याणकारी है। भविष्य में भी मनक जैसे अनेक जीचों की आराधना
१. दशनिघू १०१, दशअचू पृ. ५३ । २. धवला १/१/१ पृ. ९७. कया. जयध्वाला भा. १ १ १०२. अंगपार चूलिका गा. २४ . ३. व्यथा १५३३: आयारस्स उ उवार, उत्तरडगा आसि पवितु।
दसवेयालियउवार, दयण कि ते न होती ।। ४. ध्यभा १५३१: पुत्विं सत्वरित अधीतपडित होउवगा।
एहिं भी गिया, किस उन उमड़वा ।। ५. ज्या १५३२: बितियनिक बाधेरे, पंचमउहेत आगामि ,
सुत्तकि पिंडकप्पी, इक पुण सिंडेसगा एलो ।।
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नियुक्तिया
में निमित्तभूत बनेगा अब यह अविच्छिन्न रहना चाहिए। आज भी शैक्ष साधु-साध्वियों के अचार का प्राथमिक बोध देने हेतु सर्वप्रथम इसी आगम ग्रंथ को कंठस्थ कराया जाता है।
रचनाकार का परिचय
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दवैकालिक के निर्धूहग कर्ता आचार्य शय्यंभव हैं। वे राजगृह नगरी के यज्ञवादी ब्राह्मण थे। अनेक विद्याओं के पारगामी विद्वान् थे। आर्य प्रभव को अपने योग्य उत्तराधिकारी की खोज करनी थी। उन्होंने ज्ञानबल से इय्यंभव ब्राह्मण को इसके योग्य देखा। उनको प्रतिबोध देने हेतु अध्चार्य प्रभव ने दो साधुओं को यज्ञशाला में भेज'। साधुओं ने कहा – 'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते ।' ऐसा कहकर वे साधु वहा से चले गए। शय्यंभव ने सोचा कि अवश्य इनकी बात में कोई तत्त्व निहित है। उन्होंने अपने अध्यापक से तत्त्व का अर्थ पूछा : अध्यानक ने शय्यंभव को बताया के आर्हत धर्म तत्त्व है। शय्यंभव खोजते खोजते मुनि के पाल पहुंचे और धर्म के यधार्थ स्वरूप को समझकर प्रब्रजित हो गए
रचना का उद्देश्य
जब शय्यभ्व आचार्य प्रभव के पास दीक्षित हुए, उस समय उनकी पत्नी गर्भवती थी । कालान्तर में उनके पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसका नाम मनक रखा गया। जब वह अाठ वर्ष का हुआ तब मां की अनुमति लेकर ता की खोज में निकल पड़ा। रास्ते में उसे अधार्य शय्यंभव मिले। परिचय पूछने पर आचार्य को ज्ञात हुआ कि यह उनका अपना पुत्र है। उन्होंने उसे अपने पास दीक्षित कर लिया पर अपना वास्तविक परिचय नहीं बतायण आचार्य शय्यंभव ने अपने ज्ञानबल से जान्न के इसक आयुष्य बहुत कम है तब उन्होंने उसकी सम्यग् आराधना हेतु पूर्वे की विशाल ज्ञानराशि से दशवैकालिक का निर्ऋहण किया। वैसे भी चतुर्दशपूर्वी किसी निमित्त के उपस्थित होने पर पूर्वी से ग्रंथ का निर्धूहण करते ही हैं।
नामकरण
निर्युक्तिकार ने इसके लिये दो नामों का उल्लेख किया है— दसकालिक, दशवैकालिक । उनके अनुसार दसकालिक नाम संख्या और काल के निर्देशानुसार किया गया है। अचार्य शांभव ने मनक के लिए दस अध्ययनों का विकाल में निर्यूहण किया इसलिए इसका नाम दशकालिक पड़ा । *
आगम का स्वाध्याय-काल दिन और रात का प्रथम व अंतिम प्रहर होता है। स्वाध्याय- काल के बिना भी इसका अध्ययन-अध्यापन किया जाता है इसलिए भी इसे दशवैकालिक कहा जा सकता है। इसका दसवां अध्ययन वैतालिक छंद में है अत: स्थविर अगस्त्यसिंह के अनुसार इसका एक नाम 'दसवैतालिक' भी है। आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार शय्यंभव ने मन के लिए इसकी रचना की। मनक के स्वर्गरथ होने के बाद जहां से उन्होंने इसका निर्ऋहण किया, वहीं वे अन्तर्निविष्ट करना चाहते थे अतः संभव है स्वयं उन्होंने इसका कोई नामकरण न किया हो नर जब इसको स्थिर रूप दिया गया तब आगमकार ने ही इसका
१ दर्शाने ३४९ दशअ पृ. २७१ ।
२. दशचू पृ. ४. ५ चरिमेोदसी असं निज्जूहति बोसी व कारणे
३ दर्शन ७ ।
४ दशनि १४ ।
५. दशअबू ५.३ दसभं 'लालितेहिं 'थनितमज्यणनिति दसवेलनियें ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नामकरण किया हो।' निर्युहण
दशबैक लिक आचार्य शय्यंभव की स्वतंत्र रचना नहीं अपितु निर्मूढ कृति है। नियुक्तिकार के अनुसार आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन). अर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिंडैषणा (पंचम अध्ययन) सत्यप्रवाद पूर्व से वाक्यशुद्धि (राप्तम अध्ययन ) त] शेष अध्ययनों (१, २, ३, ६. ८. ९, १०) क नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से निहण हुआ।' निपेत्तकार दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि शय्यंभव ने मना को अनुगृहीत करने के लिए सम्पूर्ण दश वैकालिक का नियूहण द्वारांगी गणिपिटक से फिसा ' निगम्तर माहिन्या में इसके कर्तृत्व के विषय में 'आरातीयैराचार्यनिर्मूढं' मात्र इतना उल्लेख मिलता है। महानिशीथ के अनुसार महावीर गौतन से कहते हैं- "मेरे बाद निकट भविष्य में द्वादशानी के ज्ञाता आर्य शम्भव होंगे। ये अपने पुत्र के लिए दशकालिक का निर्माण करेंगे। वह सूत्र संसार-तारक और मोक्षमार्गप्रदर्शक होगा। इसे पढ़कर दुष्णम काल के अंत में होने वाला दुःप्रत ममिक्र साधु आराधक होगा!"
तेराप्य के चतुर्थ आदर्य जयाचार्य का अभिनत है कि चतुर्दशपूर्व की व्ही रचना आगम के अंतर्गत आती है, जो केवलज्ञानी के वचनों की साक्षी से की जाए।' अतः जयाचार्य ने प्रपनोसर चबोध में यह कल्पना की है कि पूर्षों के आधार पर रचित दशकालिक का कलेवर बहुत बहत् था। शव्यंभव ने उसको लघु बना दिया। रचनाकाल
दीर-निर्बाग के छत्तीसवें वर्ष में अचार्य शांभव का जन्म हुआ। ६४ वें वर्ष में टे दीक्षित हुए। दीक्षा के आठ वर्ष कद उन्होंने इसका नियूंहग किया अत: वर-निर्वाण ले ७२ वर्ष बाद उन्होंने इस ग्रंथ क, नहण किया। विंटरनित्स को अनुसार वीर-निर्माण के ९८ वर्ष बाद इसकी रचना हुई। इतन्। निश्चित है कि वीर-निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही इस ग्रंथ का निर्ग्रहण हो चुका था : भाषा-शैली
सूत्रात्मक शैली में गुंफित इस ग्रंथ में धर्म और अध्यात्म के अनेक रहस्यों का उद्घाटन हुआ है। यह गद्य और पद्य मिश्रित रचना है फिर भी इसमें पद्यभाग अधिक है। बीच-बीच में अनेक उपमाओं के प्रयोग से इसकी भाषा व्यचक एवं प्राजल हो गयी है। अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री भाषा का सम्गिलित प्रयोग इस ग्रंथ में मिलता है। अध्ययन एवं विषयवस्तु
__ दशवैकालिक सूत्र में दस अध्ययन तथा दो यूलाएं हैं। ग्रंथ के अवशिष्ट अर्थ का एंग्रह करने के लिए चूला का वहीं स्थान है, जो स्थान मुकुट में मणि का है। निथुक्तिकार ते चूलिका को उत्तरतंत्र
१. दसवै लिक : एक समीक्षात्मक सिन न.१ २ दशी १५, १६। ३. दशनि १.५। ४ प्रश्नोतर तत्वबो २०/८३२।
५. प्रश्नोतर तत्वबोध १९/८२२, ८२३ । ६. दशअचू ६ सेसत्थमंगहत्थ उड-मणिस्थाणीयाणि
यो चूर अयण'ण।
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PinciplundiPTRHIELHIR
AHUtmiponri.III
नियुक्तिपंचक और संग्रहणी कहा है। परिशिष्ट की भांति प्राचीनकाल में ग्रंथ के साथ चूलिका जोड़ दी जाती थी, जो सूत्र के अर्थ की सग्रहणी के रूप में होती थी। संग्रहणी का ॐ है शास्त्र में वर्णित और अनर्णित अर्थ का संक्षिप्त संग्रज । आचार्य शीलांक के अनुसार पूलिका का अर्थ अग्न है। अन्य का अर्थ उत्तरभार है। अध्ययनों तथा चूलिकाओं के नाम तथा उन पर कितनी-कित्नी नियुक्ति-गाधाएं लिखी गई, इसका उल्लेख इस प्रकार हैअध्ययन निर्मुक्तिमाथाएं
अध्ययन नियुक्तिगाथाएं १. द्रुमपुष्पिका' -१२६ ।।
७ वयशुद्धि २४५-६८ २ श्रामण्यपूर्वक १२७-५२
८. आचार-प्रणिधि २६९-८५ ३ क्षुल्लिकाचारकथा १५३-८८
२. विनय-समाधि २८६. ३०४ ४. षड्जीवनिका १८९-२१७
१०. सभिक्षु
३०५-३३ ५. पिंडैषणा २१७/१-२२१/
१ १. रतिवाक्या (प्रचू.) ३३४-४४ ६. महावारकथा २२२-४४ - २. विविक्तचर्या (हिचू.) ३४५-४९
नियंक्तिकर ने अध्ययनों के नामों का उल्लेख नहीं किया लेकिन अध्ययन त विषयवस्त का वर्णन किया है। उनके अनुसार दशकालिक के प्रथम अध्ययन में जिन-शासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा. दूसरे में संयम में धृति, तीसरे में आत्म-संयम में हेतुभूत लघु आचार कथा, चौधे में जीव-संयम. शंचवें में तत्र और रंयम में गुणकारक भिक्षा की दिशोधि, छठे अध्ययन में संयमी व्यक्तियों द्वारा आचरणीय नहती आचर-कथा, सातवें अध्ययन में वचन-विभक्ति (भाषा-विवेक), आठवें अध्ययन में अचार-प्राणधि, नौवें अध्ययन में विनय तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्षु का स्वरूप प्रतिमदित है। प्रथम चूलिका में संयम में विपद प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय तथा दूसरी चूलिका में अत्यधिक प्रसाद गुणा —अप्रतिबद्ध पर्या तथा संघम में रत रहने से होने वाली गुणवृद्धि का वर्णन
दशवकालिकनियुक्ति
दशवकालिकनियुक्ति में ३४९ रथाएं हैं। इसमें नियुक्तिकार ने प्रथ्म अध्ययन के विस्तृत व्याख्या की है। पूरे नियुक्ति साहित्य का विहंगावलोकन करने पर ज्ञात होता है कि केवल दर वैकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथन गाथा के प्रत्येक शब्द की नियुक्तिकार ने विस्तृत व्याख्या की है। अन्यथा नियुक्तिकार
किसी विशेष शब्द की ही व्याख्या करते हैं। प्रथम अध्ययन की पांच गाथाओं पर १२६ गाथाएं लिखी है. जिसमें मुख्य रूप से धर्म, मंगल, त्प, हेतु, उदाहरण आदि का वर्णन किया गया है। यद्यपि उदाहरण और हेतु के भेद-प्रभेदों का विस्तार नूल पाठ से सीधा संबंधित नहीं है पर न्याय-दर्शन के क्षेत्र में यह वर्णन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। हेतु. आहरण अदि के भेद-भेदों को नियुक्तिकार ने कथाओं के माधान से स्पष्ट किया है। ये कथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण
१. दशनि ३३४। २ दशहटी प. २६२। ३. तत्वाश्रुतसारी वृत्ति (ग ) में
प्रथम अध्यान का गान वृक्ष-तुम मिलता है। ४. निकित में इसका दूसरा नाम 'माणात
भी मिलत है। विशनि २१७)
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नियुक्ति साहित्य : एक पविक्षण
प्रथग अध्ययन की नियुक्ति में निर्मुचित्तकार ने अनेक जिज्ञासाओं को उपस्थित करके साधु की शिक्षाचर्या को समाहित किया है। अंत में न्यार के दस अवयवों का नामोल्लेख एवं उनकी व्याख्या प्रस्तुत क है। दूसरे अध्ययन की नियुवित्त में श्वमग का स्वरूप, पूर्व के १३ निक्षेप तथा माम के पोद-प्रभेदों का वर्णन है। पद के शेद-प्रभेदों का वर्णन काव्य व साहित्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। हसरे अध्ययन की नियुक्ति में मूलगाठ में आप किसी ३ब्द की व्याख्या न करके अध्ययन के नाम में आए शुल्लक आचार एवं कथा --इन टीन ) के निक्षेप एवं व्याल्या प्रस्तुत है। कथा के भेद-प्रभेदों का नियोंकेतकार ने सर्वागीण निरूपात किया है।
बौथे अध्ययन की नियुक्ति में घटकाय का वर्णन करके नियुक्तिकार ने जीव के अस्तित्व एवं पुनर्जन्म को सिद्ध करने में अनेक हेर प्रस्तुत किए हैं। यह सारा वर्णन दर्शन के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आत्मा के संबंध में इतना तर्कसंगरा और यौक्तिक वर्णन नियुक्तिकर से पूर्व नही मिलता। दशवकालिक का पंच्च अध्ययन बहुत बड़ा है लेकिन इसकी नियुक्ति बहुत छोट है। निर्युक्टिकार ने पिंड एवं एषगा इन दो शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की है। छठे अध्ययन का एक नाम धर्मार्थकाम भी है अत. निक्टिकार ने धर्म, ॐ और काम का विरत वर्णन किय है। सातवें उाक्मशुद्धि अध्ययन में भाषा के भेद उभेदों एवं शुद्धि का वर्णन किया गया है। अंत में भाषा-विवेक पर मार्मिक सूक्तियां भी मिलती हैं।
आठवें अध्ययन में प्रणिधि के भेद प्रभेदों का विस्तृत वर्णन है। नवें अध्ययन में बिनय के भेद-प्रभेदों एवं समाधि का विवेचन है। दसवें भवतु अध्ययन में भिक्षु के स्वरूम, लक्षण, उसमें एकार्यक एवं भिक्षु की कसौटिय का बन है। नियुक्तिकार ने भिक्षु को स्वर्ण की उपमा दी है। इसमें स्वर्ण के आठ गुण एवं चार कसौटियों का उल्लेख है।
प्रथम चूलिका की नियुक्ति में चूड़ा के निक्षेप एवं प्रथम चूड़ा का नाम रतिवाक्या की सार्थकता पर विचार किया गया है। द्वितीय चूलिका की नियुक्ति में साधु की प्रशस्त चर्या पर विचार हुआ है। अंत में मुनि मनक के समाधिमरण और उसके स्वर्गस्थ होने पर आचार्य शय्यंभव द्वारा इसके निर्ग्रहण का उद्देश्य स्ट किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से इस नियुक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशवैकालिक की एक नयी नियुक्ति
आचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित निक्ति के अतिरिका एक अन्य नियुक्ति की प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के ग्रंथ- भंडार में निली। इसमें दागबलिक की अति संक्षिप्त नियुक्ति है। हरतप्रति के अधार पर लेखक के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती लेकिन पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुरार यह नियुक्ति किसी अन्य आचार द्वारा रचित होनी चाहिए।
इस निर्मुक्ति में कुल ९ गाधाएं हैं, जिनमें कार गाथाएं मूल दशकालिकनियुक्ति की हैं तथा छह गाथाएं स्वतंत्र हैं। प्रारम्भिक चार गाथाओं में कर्ता, रचना का उद्देश्य तथा रचनाकाल का उल्लेख है। अंतिम छह गाथाओं में धूलिका की रचना के पीछे क्या इतिहाः रहा, इसका उल्लेख मिलता है। हारिभद्रीय टीका में बिना नामोल्लेख के यह घटना संक्षेप में निर्दिष्ट मात्र है। प्रस्तुत निरीके के अंत १ पशहाटी : २७८. २७२ .
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नियुक्ति पंचक
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में उल्लेख है—'इति दशवैकालिकनिर्युक्तिः समाप्ताः ।' यह प्रति सं० १४४२ कार्तिक शुक्ला शुकवार को नागेन्द्र गच्छ के आचार्य गुणमेरुविजयची के लिए लिखी गयी. ऐसा उल्लेख उक्त प्रति के अंत में मिलता है। प्रति में पाठ की दृष्टि से कुछ स्थानों पर अशुद्धियां थीं, उनको हमने ठीक कर दिया है। १. ऐज्जंभवं गणधरं, जिणपडिनादंसणेणं पडिबुद्धं । मगपियरं दसकालियस्स निज्जूहगं वंदे | २. मणगं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा । वेयालियाए ठविया, तम्हा दसकालिय नाम ।। ३. छहि मासेहिं अहीयं अज्झयणमिणं अमणगेणं ।
समाही ।।
४. आनंदअंसुपायं कासी
छम्मासा परिमाओ, अह कालगओ सेभव: य वियारणा
तहिं
थेरा ।
सभद्दस्य पुच्छा, कहणा ५ तुम्हारिलो वि मुणिवरो, जइ ता साहु तुमं चिय धीर ६. दतअज्झयणं समर्थ, लहुआउयं च नाउं ७. स्याओ दो चूला, आणीया
संघे ।।
छलिज्जति । समल्लीणा ।।
एवं !
अड्डाए मणगसीसस्स ।। जक्खिणीए अज्जाए । भवियजणविबोहडाए । ।
सीमंधरपासओ,
८. खुल्लोलण दीहम्मि य, अहं च काराविओ उ अज्जाए । रमणीए कालगओ, अज्जा संवेगमुन्ना ।। ९. कहाण संजाये, रिसिहिंता पाविया मए पावे | तो देवया विणीया, सीगंधरसामिणा पसे । : १०. सीमंधरेण भणियं अज्जे ! सुल्लो गओ महःकप्पे ।
मा जूरिसि अप्पाणं, धम्मम्मि निच्चला
होसु ।।
चूलिका की रचना का इतिहास बहुत रोचक है। स्यूलिभद्र एक प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। उनकी यक्षा आदि सात बहिनों ने भी दीक्षा ली थी। श्रीयक उनका छोटा भाई था। वह शरीर से बहुत कोमल था, भूख को सहन करने की शक्ति नहीं थी अत: वह उपवास भी नहीं कर सकता था ।
एक बार पर्युषण पर्व पर यक्षा की प्रेरणा से श्रीयक मुनि ने उपवास किया। दिन तो सुखपूर्वक बीत गया लेकिन रात्रि को भयंकर वेदना की अनुभूति हुई । भयंकर वेदना से मुनि श्रीय्क दिवंगत हो गये। भाई के स्वर्गवास से यक्षा को बहुत आघात लगा । मुनि की मृत्यु का निमित्त स्वयं को मानकर वह दुःखी रहने लगी और संघ के समक्ष स्वयं को प्रायश्चित्त के लिए प्रस्तुत किया। संघ ने साध्वी यक्षा के निर्दोष घोषित कर दिया लेकिन उसने अन्न ग्रहण करना बंद कर दिया। संघ ने कायोत्सर्ग किया।
१.१३ । २. दर्शने १४ ।
मोहपिसाएण धीरिमा कं सेज्जं भवसूरिविरइयं
३ दशनि ३४८ ।
४. दशनि ३८९ ।
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रिक्त साहित्य . एक पर्यवेक्षः।
शासन देवी प्रकट हुई। संघ ने कहा अप इसे सीनधरत्वामी के पास ले जगाएं। उस समय शासन देवता साध्वी पक्ष को सीनधर स्वामी के बस ले गए। सीमंधर र तामी ने यक्षा को प्रतिबोधित किया और कल तुग इसके लिए दोषी नहीं हो। तुम्हारा भाई नहाकल्प में देश बन। है अतः तुम दुखी न रहकर धर्म में दृढ़ बनो। उस समय सीमंधर स्वामी ने रक्षा को कर चूलिकाओं की गवना ई। इनमें दो चूलिकाएं दशकालिक के साथ तथा दो आगरा। (तीसरी और चौथी चूल.) के साथ जोड़ दी गई।'
प्रस्तुत नियुक्ति का कल-निधरण तथा वर्ग का उल्लेख करना कठिन है। लेकिन अत्यत संक्षेप में इसके द्वारा दशबैक लिऊ की रचना क इतिहास जात हो जाता है। संभावग की जा सकती है कि प्रस्तुत नियुक्ति दशवैका लकनियुक्ति के बाद रची गयी क्योंकि इसकी बार गाथाओं को इस निथुक्ति में अक्षरशः लिया गया है। प्रार्थी काल की यह पद्धत रही के किस रा को सुरक्षित रखने के लिए उसे पद्यबद्ध कर देते थे जिससे नौखिक और मैंहस्थ पर पर में सुविधा रहती थी। उत्तराध्ययन सूत्र एवं उसकी नियुक्ति
उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध आकार प्रधान आगम है। उपमाओं की बलता के कारण हिटरनित्स ने इत्ते शमण काव्य की मारि में रखा है। इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। बाल शान्टियर, द गैरिगो, विंटरनिस तथा हर्मन लेकोबी आदि विद्वानों ने इसे आगम की सूची में ४१ वां जगम माना है। दिगम्बर साहित्य में अंगबाध के १४ प्रकारों में सातवां दशवकालिक और आठव उत्तराध्ययन का स्थान है। नंदीसूत्र में कालिक सूत्रों की गणना में प्रथम स्थान उत्तर ध्यन का है। वर्तमान में इसकी गणना मूल सूत्रों में की जाती है। इसको भूल सूत्र क्यों माना गण इस बारे में विद्वानों में अनेक मतभेद हैं। पाश्चात्य विद्वान् शान्टियर' एवं प्रो. पटवर्धन के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा जाता है। किन्तु यह तर्क युक्तिसंगत नही लगता क्योंकि दशवैकालिक मूलसूत्रों के अंतर्गत है पर वह आचार्य शय्यंभव द्वारा निर्मूढ़ है। डें शूबिंग ने साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इले मूलसूत्र कहा। यह समाधान भी तर्क की कसौटी पर सही नहीं उतरता क्योंकि अनुयोगद्वार और नंदी में अन्य विषयों का प्रतिपादन है। प्रो. विंटरनित्स के अनुसार इस मूलसूत्र पर अनेकविध व्याख्या-साहित्य लिखा गया इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया। यह मान्यता भी तर्कसंगत नहीं लग ती क्योंकि आवश्यक सूत्र पर सबसे अधिक व्याख्या साहित्य मिलता है। एक मान्यता यही प्रसिद्ध हैं कि आत्मा के चार मूल गुण हैं— ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तत्र । नंदी में मुख्यत: ज्ञान का, अनयोगद्वार में दर्शन का. दशवकालिक में चरित्र का तथा उत्तराध्ययन में तप का वर्णन है अत. ये चारों मूल सूत्र है।
चूर्णिकाल में श्रुतपुरुष के मूल स्थान में अचारंग, और सूत्रकृतांग का स्थान था। उत्तरकालीन श्रुत्पुरुष की मूलत्यापन्में दशवैमालिक और उत्तरध्यय- आ गई। इन्हें मूलसूत्र मानने का सही सर्वाधिक संभावित हेतु है, ऐसा आवाश्री तुलसी का मंतव्य है। भूलत: इनमें मुनि के मूल गुणों
१ परिशिष्ट पर्व ५/८४..। २. The utaradhyayana stotra, prelace parte 32.
३ The Dasavekalika sutra: a study. Page i6. ४. A Histroy of Indian literature vo2. Page 466. ५ दस्..... भूमिका ५।
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३२
नियुक्तिपंधक महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है अत: ये मूलसूत्र कहलाते हैं। ___ मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों को बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किन्तु उत्तराध्ययन को सभी ने एकरवर से मुलसत्र माना है। प्रो बेडर ने उत्तराध्ययन. आवश्यक और दशकालिक. ..इन तीनों को भूलसूत्र के रूप में स्वीकृत किया है। विंटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त डिनियुक्ति को भी ग्रहण किया है। डॉ शूब्रिग मिडनियुक्ति, ओपनियुक्ति सहित पांच ग्रंथों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं। प्रो. हीरालाल कापडिया ने इनके अतिरिक्त दशदैकालिक की चूलिकाओं को भी मूलसूत्र में परिगणित किया है । तेरापंथ की मान्यता के अनुसार दशवकालिक, उत्तराध्यधन, नंदी और अनुयोगद्वार--- ये चार सूत्र मूलसूत्र के अंतर्गत हैं। मूलसूत्र का निभाजन विकग की ११ वी १२ वीं शताब्दी के बाद हुआ, ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूर्णि एवं टीका में ऐसः कोई उल्लेख नहीं मिलतः है। आचार्य तुलर्म के अनलार मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की जगैदहवीं शताब्दी मे होना चाहिए। नामकरण
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है.-१. उार २. अध्र' ३. और सुत्र । उत्तर शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं—प्रधान, जबाब और पर्ती : आचार्य हरिभद्र के अनुसार उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है। प्रो. जेकोबी, बेबर और शान्टियर इसी अर्थ से सहमत हैं। उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में भी होता है, जैसे-उत्तरकांड, उत्तररामायण आदि। जैन परम्परा मे यह मान्यता बहुत प्रसिद्ध है कि महादीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन एण्य-पाप के तथा छत्तीस अपुट्ठवागरणाई अर्थात् बिना पूछे हत्तीस अध्ययनों के उत्तर दिए अत: विद्वानों का मानना है कि यह 'छत्तीस अपुट्टवागरणाई शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्प] में अन्य कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसके छत्तीस अध्ययन हों। इस कथन की पुष्टि में उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जाता है
इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्युए।
छत्तीसं उत्तरज्माए, भवसिद्धीय सम्मए।। यहाँ परिनिन्दुए' शब्द संदेहास्पद है। शान्त्याचार्य ने परिनिव्वुए शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत किया है अतः इस दृष्टि से इसे महावीर का अंतिम उपदेश नहीं माना जा सकता।
नियुक्तिकार के अनुसार उत्तर शब्द क्रम के अर्थ में प्रयुक्त है। उत्तराध्ययन आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अत: इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। प्रो. लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है। चूर्णिकार ने उत्तर के आधार पर इसके अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है--१. स-उत्तरपहला अध्ययन २. निरुत्तर-छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर-निरुत्तर–बीच के सारे अध्ययन ।
१. A History of the canonical literature of the Jainas,Page 44, 45. २. उनि ३; कमउत्तरेप पगयं आयारस्सेब उवरिमाई तु। तम्हा उ उत्तरा खल. अज्झयणा होति नायव्वा ।। ३. उगांटी प. ५, आरत्तत्तु दशवकालिकोत्तरकालं पश्यंत इति ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
दिगम्बर आचार्यों ने भी उतर पाब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है। काषायपाहुड़ के चूर्णिकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है।' अंगपण्णति में उत्तर के दो अर्थ हैं—१. किस ग्रंथ के पश्चात् पढ़ा जाने वाला २ प्रश्नों का उत्तर देने वाला। उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग पारे च्छेद, प्रकार और अध्याय के अर्थ में हुआ है।
__ सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है जिसने शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो। जैसे पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। उत्तर ध्ययन में सूत्ररूपता का अभाव है, विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्म रामजी ने अनेक उद्धरणों से इसे सूत्रग्रंथ सिद्ध करने का प्रयत्न किस है किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रंथ में घटित नहीं होते है। जाल शर्गेन्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शन ग्रंध तथा व्याकरण आदि अंघों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिठा संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रर्यालत ध। जैनों ने भी परम्परा से सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया। कर्तृत्व
नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं, अपितु संकलित ग्रंथ है। उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है'
१. अंगप्रभव—दूसरा अध्ययन (परीषहप्रविभक्ति) २ जिन्भाषित-दसवां अध्ययन (दुनपत्रक) ३. प्रत्येकबुद्ध-भाषित—आठवां अध्ययन (कापिलीय) ४. संबाद-समुत्थित—नयां और तेईसवां अध्ययन (नमिप्रव्रज्या, केशिगौतमीय)
नंदी में उत्तरायणाई यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम पलोक तथा नियुक्ति में भी 'उत्तरज्झाए' ऐसा बहुववनात्मक नाम मिलता है। चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्यगगों का एक श्रुतस्कंध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से रह फालित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककातक ग्रंथ नहीं। उत्तराध्ययन की भाषा-शैली की भिन्नता देखकर भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है। ये सब का रचे गए. इनका ब्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसके प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किन्तु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रमाण नहीं है। इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं और कई अर्गचीन। आचार्य तुलसी के अभिमत से उत्तराध्ययन के अध्ययन ई०. पू० ६०० से ईस्वी सन् ४०० अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक विचार-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं । वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवर्धिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया। इनका प्रबंधन
१. कपा. भा.१ चू. प्र. ११० उत्तरमिदि च उत्तरज्झे २ अगप्पणत्ति ३/२५.२६ ।
पणेदि। ३. उनि ४; अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेबद्द संदाया।
४ नदी ७८।
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३४
नियुक्तिपंचक एक काल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ अत: यह संकलन सूत्र है, एक कर्तक नहीं। इसके कुछ अंश बाद में स्थविरों द्वारा जोडे गए हैं। इसका प्रबल प्रमाला है केशिगौतमीय अध्ययन । दूसरी बात सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन में जो प्रश्नोत्तर हैं. वे अंगसूत्रों की प्रश्नोत्तर शैली से बिल्कुल भिन्न हैं।
गर्ल शान्टियर का अभिमत है कि यह प्रारम्भ में नूल रूप से बौद्ध ग्रंथ धम्मपद और सुत्तनिपात के समान था। संभवत: इसमें सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाले अध्ययन नहीं थे। केवल संन्यासी जीवन की आचार-शैली और धार्मिक कथाएं ही संकलित थीं। कालान्तर में इसका स्वतंत्र महत्त्व स्थापित करने हेतु यह अनुभव किया गया कि इसमें धार्मिक, सैद्धान्तिक. दार्शनिक विषयों का सनावेश किया जाः। अत: परवर्तीकाल में इसमें सैद्धान्तिक, दानिक अदि विषय जोड दिए गए। निष्कर्ष की भाषा में यह कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन में परिवर्तन एव परिवर्धन का कम महावीर-निर्वाण से प्रारम्भ होकर वल्लभी-वाचना के समय तक चलता रहा। रचनाकाल
उत्तराध्ययन का उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में आदर के साथ उल्लिखित है। इससे सार है कि संघभेद होने से पूर्व ही यह एक ग्रंथ के रूप में प्रतिभित के चुका था। अन्यथा दिगम्बर परम्परा में इसका उल्लेरू नहीं मिलता।
दशवकालिक की रचना के बाद यह दशकालिक के बाद पढा जने ला इस बात से स्पष्ट है कि रत्तराभ्ययन की रचना दशकालिक से पतं हो चुकी थी। दशवकालिक के कर्ता शव्यंभवसूरि हैं, जिनका समय वीर-निवण के ७५ वर्ष बाद मना जाता है। इस प्रकार उत्तराध्ययन की प्राचीनता एक ओर महावीर-निर्वाग तक जा पहुंचती है तो दूसरी ओर ऐसे भी उल्लेख हैं, जिससे उत्तराध्ययन के अध्ययनों की परवर्तिता सिद्ध होती है। इस सूत्र में वर्णित जातिगद, दासप्रथाः, यज्ञ एवं तीर्थस्थान आदि के वर्णन प्रान्ता के द्योतक हैं। अध्ययन एवं विषयवस्तु
उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन तथा १६३८ श्लोक हैं। इसके प्रत्येक अध्ययन अपने आप में परिपूर्ण हैं। इनमें आपत्त में भी कोई संबंध परिलक्षित नहीं होता। रूमवायांग में उत्तराध्ययन के जिन ३६ अध्ययनों का नामोल्लेख मिलत है, वे नियुक्ति में उपलब्ध अध्ययनों के नामों से कुछ भिन्न हैं। यहां उत्तराध्यसन उसकी निमुक्ति तथा समवाओ में आए अध्ययनों के नामों क चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है। साथ ही किस अध्ययन पर कितनी निर्मुक्ति-माथाएं लिखी गयी इसका भी संकेत दिया जा रहा है
उत्तराध्ययन नियुक्तिकार समनाओ नियुक्तिगाथाएं १. विन्यश्रुत विनयश्रुत . २. परीषहाविभक्ति परीष्ह
परीषह ३. चतुरंगीय चतुरंगीय चातुरंगीय १४२-१७२/१५ ४.असंस्कृत
असंस्कृत असंस्कृत १७३-९९
१. दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणादि भूमिका पृ २४ |
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हित्य : एक पविक्षण
नियुक्तिकार अकाममरण निग्रंथीय
नियुक्तिगाथाएं २००-२९ २३०-३७ २३८-२४२/१
कापिलीय -निनन्या
द्रुगपत्रक
बहुश्रुतपूज्य हरिकेश त्रिसभूति इष्टुकारीय
२५३-७२ २७३-३०२ ३८३.१८ ३११-२१ ३२२-५२
सभिक्षु
उत्तराध्ययन ५. अकानमरणीय ६. क्षुल्लकनिथीय ७. उरभ्रीय ८. कापिनीय २. नमिप्रव्रज्या १० द्रुमपत्रक ११. बहुश्रुतपूजा १२. हरिकेशीय १३. चित्रसंभूतीय १४. इषुकारीय १५. सभिक्षुक १६. ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान १७. पापश्नमणीय १८. संजयीय १९. मृगापुत्रीय २०. महानिग्रंथीय २१. समुद्रपालीय २२. रधनेमीय २३. केशिमौतमीय २४. प्रवचनमाता २५. यज्ञीय २६. सामाचारी २७. खलुंकीय २८. मोक्षमार्गगति २९. सम्पक्त्वपराक्रम ३०. तपोमार्गगति ३१. चरणविधि ३२. प्रमादस्थान ३३. कर्मप्रकृति ३४ लेश्याध्ययन ३५. अनगारमार्गगति ३६. जीवाजीदविभक्ति
समाधिस्थन पापनमय संजय मगचरिका निन्थता समुद्रपालीय रथनेमीय केशिगौतमीय समिति यज्ञीय सामाचारी खलुंकीय मोक्षगति अप्रमाद
समवाओ अकाममरणीय पुरुषविचा और भ्रीय कापिलीट नमिप्रव्रज्या दुभत्रक बहुश्रुतपूजा हरिकेशीय चित्रराभूत इषुकारीय सभिक्षुक समाधिस्थान पापश्रमणीय संजयीय मृगचारिका अनाथप्रव्रज्या समुद्रपालीय रथनेमीय गौतमकेशीय समिति यज्ञीय सामाचारी खलुकीय मोक्षमार्गगति अप्रमाद तपोमार्ग चरणविधि प्रमादस्थान कर्मप्रकृति लेश्याथ्ययन अनगारमार्ग जीवाजीवविभक्ति
३६७-७२ ३७३-७९ ३८०-८४ ३८५-९८ ३९९-४१५ ४१६-२२ ४२३-३६ ४३७-४ ४४५-५१ ४५२-५६ ४५७-५६ ४७७-८१ ४८२-९०
४९८-५०४ ५०५-५०८
तप
चरण प्रमादस्थान कर्मप्रकृति लेश्या अनगारमार्ग जीवाजीवविभक्ति
५१४-२१ ५२२-२८ ५२९-४० ५४१-४३ ५४४-५४
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नियुक्तिपंचक गिमित के मुसार उत्तराध्या के अध्ययनों की संक्षिप्त विषय-वस्तु इस प्रकार है१ विनय
१३. निदान. . भोग-संकल्प २५. ब्राह्मण के गुण २. परीषड
१४. अनिदान—भेग-असंकल्प २६. सानाचारी ३. चार दुर्लभ अंग १५. भिक्षु के गुण
२७. अशठता ४. प्रमाद-अप्रमाद १६. ब्रह्मचर्य की गुप्तियां २८. मोक्षगति ५. मरण-विभक्ति १७. पाप-वर्जन
२९. आवश्यक में अप्रमाद ६ विद्या और अचरण १८. भोग और ऋद्धि का परित्याग ३०. तप ७. रसगृद्धि का परित्याग १९. अपरिकर्म
३६. चारित्र ८ अलाभ २०. अनाथता
३२ प्रमादस्थान ९. संयम में निष्कपता २१. विचित्रच्या
३३ कर्म १८. अनुशासन की उपमा २२. चरण की स्थिरता ३४. लेश्या ११. बहुश्रुत-पूजा २३. धर्स
३५. भिलुगुण १२ तप:ऋद्धि २४. समितियां
३६. जीव-अजीव विवेचन। उत्तराध्ययननियुक्ति
उत्तराध्ययन नियुक्ति में ५५४ गाथाएं हैं। इस नियुक्ति की रचना-शैली अन्य नियुक्तियों से भिन्न है। इसके प्राय: सभी अध्ययनों में निक्षेपपरक तथा अध्ययन के नाम से संबंधित गाथाएं एक समान हैं। निक्षेप के आधार पर नियुक्तिकार ने संयोग शब्द के विभिन्न प्रकार एवं उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। जैसे अणुओं का स्कंधों से संयोग, एंचास्तिकाय के प्रदेशों का संयोग, इन्द्रिय-मन और पदार्थों का संयोग, वर्णों का शब्दों के साथ संयोग तथा आत्मा के साथ विविध भागे का संयोग आदि । यद्यपि इस विस्तृत व्याख्या से उत्तराध्यन की गाथा समझने में कोई सहायता नहीं मिलती लेकिन इस व्याख्या से पुद्गल और जीव से संबंधित संसार के जितने भी संयोग हैं, उन सबका वैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञान हो जाता है।
प्रथम अध्ययन में अविनीत को गलि–दुष्ट घोड़े की तथा विनीट को आकीर्ण—जातिमान् अश्व की उपमा दी है अत: गलि और आकीर्ण के एकार्थक भी कोशविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इस नियुक्ति में उत्तर, करण, अंग, निग्रंथ आदि शब्दों के निक्षेप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। दूसरे परीषह अध्ययन की नियुक्ति में १३ द्वारों में परीषह का सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक वर्णन मिलता है। अकाममरणीय अध्ययन में मरण के भेदों का सर्वांगीण विवेचन प्राप्त होता है। आगे के अध्ययन में नुख्यत: निक्षेपपरक गाथाएं अधिक हैं।
कथा की दृष्टि से यह नियुक्ति अत्यन्त समृद्ध है। प्रसंगवश लगभग ६८ से ऊपर कथाओं का उल्लेख नियुक्तिकार ने किया है। केवल परीषह प्रविभक्ति अध्ययन में २५ कथाओं का संकेत है। चार प्रत्येकबुद्ध कथाओं की तुलना वैदिक एवं बौद्ध साहित्य से की जा सकती है। अन्य नियुक्तियों की भांति इसमें कथाएं संक्षिप्त नहीं, अपितु विस्तार से दी गयी हैं। रचना-शैली की दृष्टि से यह अन्य नियुक्तियों से भिन्न है।
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निर्मुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
आचारांग सूत्र और उसकी नियुक्ति
आचारांग सूत्र अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी सूत्रात्मक शैली में अध्यात्म के अनेक रहस्य छिपे पड़े हैं। वैदिक वाङ्मय में जिस प्रकार वेदों का स्थान सर्वोपरि है वैसे ही जैन आगम ग्रंथों में आचारांग का सर्वोच्च स्थान है। नियुक्तिकार के अनुसार आचारांग सभी अंगों का सार है।' इसका अपर नाम वेद भी मिलता है। टीकाकार आचार्य बीलांक इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ करते हुए कहते हैं कि इससे हेयोपादेय पदार्थों का ज्ञान होता है, इसलिए यह वेद है।' इसके अध्ययनों को ब्रह्मचर्य कहा गया है।* स्थानांग और समवऱ्यांग' में भी 'णवतंभचेरा पण्णत्ता' उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम श्रुतस्कंध का 'नेवब्रह्मचर्य' नान भी आचारांग नाम जितना ही प्रसिद्ध था इसीलिए नियुक्तिकार ने 'ब्रह्म और चर्य (चरण) शब्द की तम्बी व्याख्या की है। नियुक्तिकार ने आचारांग के दस पर्यायवाची नामों का किया है। नाम आयार ( आचार) के हैं पर आचार प्रधान ग्रंथ होने से उपचार से इनको आचारांग के पर्यायवाची भी मान लिया गया है। व्यवहार भाष्य में आचारांग का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गय है कि प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित श्रमण की उपस्थापन की जाती थी तथा इसके अध्ययन से ही श्रमण स्वतंत्र रूप से भिक्ष करने की योग्यता प्राप्त कर सकता था।" नियुक्तिकार के अनुसार इस ग्रंथ के अध्ययन से क्षांति आदि श्रमणधर्म ज्ञरा होते है अतः आचार्य को आचारधर होना आवश्यक है।
रचनाकार
आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध पंचम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा प्रणीत है क्योंकि ग्रथ के प्रारम्भ में वे कहते हैं--- सुयं मे आउस' इसका तात्पर्य है कि मूल अर्थरूप वाणी भगवान् महावीर की है और बाद में गणधरों ने सूत्र रूप में इसे ग्रथित किया। द्वितीय श्रुतस्कंध के बारे में अनेक मत प्रचलित है पर इतना निश्चित है कि आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध भाषा-शैली और विषय की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कंध जितना प्राचीन नहीं है। नियुक्तिकार के अनुसार स्थविरों ने शिष्यों पर अनुग्रह कर उनका हित-सम्पादन करने हेतु आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से आचाराग्र ( आधारचूला ) का निर्यूहण किया। चूर्णिकार ने रथवेर शब्द का अर्थ गणधर तथा वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्ववित् किया है।" कुछ विद्वान् स्थविर शब्द का प्रयोग आचार्य भद्रबाहु के लिए मानते हैं। नियुक्तिकार ने यह भी उल्लेख किया है कि कौन से अध्ययन से कौन सी चूला निर्यूढ है । उनके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्ययन लोकविजय के पांचवें उद्देशक और आठवें अध्ययन विमोक्ष के दूसरे उद्देशक से प्रथम चूलिका के पिंडेपणा, शय्य वस्त्रैषणा मात्रैष्णा तथः अवग्रहप्रतिमा आदि उद्देशक निर्यूह हैं। पांचवें अध्ययन लोकसार के थे उद्देशक से ई तथा छठे अध्ययन (धुत) के पांचवें उद्देशक से भाषाजात का निर्ऋहण किया गया। सातवें अध्ययन नहापरिज्ञा से
१ आनि १६ ।
२. आणि ११ ।
३. आटी पृ ४: विदन्त्यस्माद्धेोपादेति वेदः ।
४ अनि ११ ।
५. ठपं ९/२, सभ ९/३ ।
३७
६. आनि ७ ।
७. व्यभा १५३१, १५.३२ । ८. आनि १५ ।
९ अनि
१० आचू पृ ३२६ अटी पृ. २९३ ।
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नियुक्तिपंचक दूसरी चूल समारतका प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा ने तीसरी चूला भावना तथ छठे धुत अध्ययन के दूसरे और चौथे उद्देशक ले चौथी निमुक्ति चूल निएद्ध है। पंचम चूला आचार प्रकल्प—निशीथ का निहग प्रत्याख्याना तृतीय वस्तु के आचार नमक कीसवें प्राभृत् से हुआ। इस प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से चारचूला का संग्रहण हुआ है।
तिहासिक माता के अनुसार आचार दूला का तांतरों और पैथी चूला स्थूलिभद्र की बहिन साध्वी यक्ष महविदेह क्षेत्र से सीधरस्वामी के पास से लाई थी। साध्वी यक्षा ने वहां से चार चूलाएं ग्रहण की थीं, उनमें दो दशबैकल्कि के स तथा दो आधारांग के साथ जोड़ी गयीं। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार आचराग प्रथम श्रुतरकंध मे गद्य के मध्य आने वाले पद्य उस समय के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों से उद्धृत किए गए हैं। रचनाकाल
आचारागनियुक्ति के अनुसार तीर्थ-प्रर्तन के समय सर्वप्रथम आचारांग की रचना हुई, उसके बाद अन्य अंगों की । चर्णिकार जिनदासगगी भी इस नत से सहमत है। एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए चूर्णिकर कहते है कि आचारांग में स्थित होने पर ही शेष अंों का अध्ययन किया जाता है इसीलिए इसका प्रथम स्थान रखा है। नी चूर्णि के अनुसार पहले एर्दगत की देशना हुई इसलिए इनका नाम पूर्व पड़ा। बाद में गगधरें ने आच रांग के प्रथन क्रम में व्यवस्थित किया। अचार्य मलयगिरि ने भी स्थापना क्रम की दृष्टि से गचारांग को प्रथम अंग मना है = कि रचना के कम से।' मतान्तर प्रस्तुत करते हुए नंदी के चूर्णिकार कहते हैं कि तीर्थकारों ने पहले पूर्वो की देशन की और गणधरों ने भी पूर्वगत सूत्र को ही सर्वप्रथम ग्रथित किया : ___आचारांगनियुक्ति और नंदयूर्णि की विसंगति का परिहार करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि संभव है नियुक्तिकार ने अंगों के नि,हण की प्रक्रिया का यह क्रम मान्य किया हो कि सर्वप्रथम आचारांग का निर्वृहण और स्थापन होता है तत्पश्चात् सूत्रकृत आदि अंगों का। इस संभावना को स्वीकार कर लेने पर दोनों धाराओं की बाह्य दूरी रहने पर भी आंतरिक दूरी सनाप्त हो जाती है।
वस्तुत: आचारांग को प्रथम स्थान देने का कारण नियुक्ति में यह बताया है कि इसमें मोक्ष का उपाय वर्णित है तथा इसे प्रवचन का सार कहा गया है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी यह आगम प्राचीन प्रतीत होता है।
१. आनि ३०८-११. पंकमा २३ २ परिवाट पर्व ९/९७, ९८। ३. The sacred books of the east,
vo. xx ii introductionm p.48 , अनि । . अचू १३ सत्ग रत्र आयारस्स इत्थं पदम
5"वखंति, ततो सेसगाणं एक्कारसण्ह अंगाणं।
६. आचू पृ ४: तत्थ ठते सेसाणि आणि अहिज्जह
ते सो पदम कते। ७ नदीचूर्ण पृ. ७५ ८ गंदीनटी ८. २१६: म्यापनामधिकृत्य प्रधमङ्गम् । २. गंदीपि पृ. ७५ । १०. अ'चारांगभष्टम, भूमिका प्र. १७ । ११. आनि ९।
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निर्मुक्ति साहित्य : एक पविक्षण भाषा एवं रचना-शैली
आदार सूत्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निरुद्ध ग्रंथ है। भाषा की दृष्टि से यह य अन्य आपमें से बिलक्षण है। इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कंध की भाषा में भी पर्याप्त अंतर है। प्रथम श्रुतस्क की भाषा सूत्रात्मक, सुगठित एवं अंग-मार्य से युक्त है। कोमा में उपलब्ध आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध गद्यबहुल अधिक है, पद्यभाग बहुत कम है। पासात्य विद्वान् शूबिंग के अनुसार इसमें पद्य बहुत थे किन्तु कालान्तर में लुप्त हो गए। अनेक खंडित पद्य तो आज भी इसमें मिलते हैं। जैसे—एयं कुसलम्स दंसणं, माई पमाई पुणरेड गभं आदि।
आचारांग का प्रथग श्रुतस्कंध ॥ शैली में निबद्ध आगग ग्रंथ है। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार जो ऊर्थबहुल, महन् अर्थ, हेतु-पिपात-उपसर्ग से श्रीर, विराम सहित तथा बहुपाद आदि लक्षणों से युक्त हो, वह चौर्णशैली क ग्रंथ मान जारः है। इसमें ये सभी लक्षण पटित होते हैं। जो गद्य, नद्य निश्रित हो, वह भी चौर्ण कहलाता है। इस दृष्टि से भी यह आगम शैली में निबद्ध गाना जा सकता है। इसके अनेक सूक्त गत-प्रत्यागत शैली में निबद्ध हैं। उन सूक्तों की व्याख्या विभिन्न नयों से की जा सकती है। यह संक्षिप्त शैली में निबद्ध किन्तु गूढ, अर्ध को अभिव्यक्त करने वाला आगम ग्रंथ है। इसमें अनेक स्थलों पर लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इसका दूसरा श्रुतस्पं विस्त नली में लिखा गया है। अध्ययन एवं विषयवस्तु
आचारांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में नौ अध्ययन तथा द्वितीय में पांच चूलाएं हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययन के नामों के क्रम में कुछ भिन्नता पाई जाती है। वह इस प्रकार
आचासंगनियुक्ति सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त लोगसार
स्थानांग सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त आवंती धूत दिमोह उवहाणसुस गहापरिन्गा
समवायांग सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त आवंती धुत विमोहायण उदहाणसुय महापरिणा
आवश्यकसंग्रहणी सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिणज सम्मत लोगसार धुय विमोह महापरिणा उवहाणसुय
महापरिण्णा विमोक्ख उवहाणसुय
६ दशनि १५० २ आनि ६.१२ ३. वाण ९/२। ४. सम ९/३।
५. अक्ष्यकसंग्रहगी हाई प ६६७ ६६१ । ६ प अध्ययन क नूल नाम लोगसार' है पर अदागपद (अदिषद)
के आधार पर इसका एक नाम आवती भी है। किन्तु नियुक्तिकर ने 'लोसार' को औष, नाम मान है (अनि २३९)।
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४०
नियुक्तिपंचक समवाओ के वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है कि बस्तुतः महापरिज्ञ. अध्ययन सातवां ही है लेकिन उसका विच्छेद हो गया इसलिए इतकी अंतिम कम में रखा है।
प्रथम श्रुतस्कंध का पद परिमाग नियुक्तिकार के समय तक अठारह हजार था। लेकिन कालान्तर में इसका लोप होता गय! अत: आज यह बहुत कम परिमाग में मिलता है। प्रथम श्रुटस्कंध के ५१ उद्देशक हैं। प्रारम्भ में आवारांग केवल नौ अन तक सीमित था लेकिन बाद में इसमें बूलिकाएं और जोड़ दी गयीं। चार चूल्गएं जुड़ने से इसका पद-परिमाण १८ हजार से बहु हो गया तथा पांचहीं चूला निशर जुड़ने से बहुतर हो गया।'
नंदी, समवाय आदि में जहां भी आचारांग के अध्ययन और उद्देशकों का वर्णन है, वहां केवल २५ अध्ययन और ८५ उद्देशकों का वर्णन मिलता है। निशीथ छब्बीसवें अध्ययन के रूप में अपना अस्तित्व रखता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में निशीथ का स्वतंत्र अस्तित्व था लेकिन बाद में विषय-साम्य और इसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए इसे आवारांग के साथ जोड़ दिया। इसका दूसरा नाम आचारप्रकल्प भी प्रसिद्ध है। द्वितीय श्रुसस्कंन की जांच चूलाओं के नाम नियुक्तिकार ने इस प्रकार बतलाये हैं।
जावोग्गह पडिमाओ, पढमा सत्तेक्कगा बिइयचूला ।
भावण विमुत्ति आयारपकप्पा तिन्नि इति पंच।। प्रथम चूला के सात अध्ययन इस प्रकार हैं
१. पिंडैषणा २. शय्या ३. ई- ४. भाषाणात ५. वस्त्रैषणा ६. पात्रैषग’ ७. अवग्रहप्रतिमा ।' द्वितीय चूलः के नाम सप्तकका है। उसके सात अध्ययन इस प्रकार हैं
१. स्थान-सप्तकका, २. निधीधिला (निशीधिला) सपौकका, ३. उच्चार-प्रस्रवण-सप्तकका, ४. पाब्द-सप्तकका, ५. रूप-सप्तैकका, ६. परकिया-सप्तकका, ७. अन्योन्यक्रिया-सप्तकका
चूर्णिकार ने रूप सप्तैकका को चौथा तथा शब्द-सप्तकका को पांचवां अध्ययन माना है। तीसरी चूला का भावना तथा चौथी धूला का विमुक्ति नामक एक ही अध्ययन है। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के ९ तथा द्वितीय के ७+७+१+१=२५ । कुल मिलाकर आचारांग के २५ अध्ययन और ८५ उद्देशक हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध की विषयवस्तु का नियुक्तिकार में संक्षेप में उल्लेख किया
१. शस्त्रपरिज्ञा--जीव-संयम का निरूपण । २. लोकविजय-कर्मबंध एवं कर्ममक्ति की प्रक्रिया का अवबोध। ३. शीतोष्णीय-सूख-दुःख की तितिक्षा का अवबोध । ४. सम्यक्त्व- सम्यक्त्व की दृढ़ता का निरूपण। ५. लोकतार-रत्नत्रय से युक्त होने की प्रक्रिया ।
१. समटी. .६७। २ आनि ११. कपा. भा. १ च पृ. ८५; आयारंगे अट्ठारहपदसहस्साणि। : सर ५१/१, आनि ३६७। . आने ११। - नदी ८१. सम. ८५/१।
६. अनि ३११ । ७. अनि ३१७ । ८. विस्तृत वर्णन हेतु देखें आनि ३१८-४२। ९. अनि ३६७. ३६८। १०. आगि ३३.३४।
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निर्मुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
६. धुत — निस्संगता का अवबोध ।
७ महापरिज्ञः -- गोह से उद्भूत परीवह और उपसर्गों को सहने की विधि |
८ विमोक्ष निर्माण अर्थात् अंतक्रिया की अराधना ।
९. उपधानश्रुत आह अध्ययन मे प्रतिपादित अर्थो का महावीर द्वारा अनुपालन | सनवायांग एवं नंद के अनुसार इम ग्रथ में अन-निर्ग्रन्थों के लिए ज्ञानादि पांच आधार शिक्षाविधे, विनय, विनय का फल, ग्रहण- असेवन रूप शिक्षा, भाषा-विवेक, चरणव्रतादि, करणपिंडविशुद्धि तथा संयम- यात्रा के निर्वाह हेतु अहार के विवेक का वर्णन है। इन सब बातों का नंदी सूत्रकार ने पांच आधार में समावेश कर दिया है।
आचार्य उम्पति ने में प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया
१. षड्जीवनिकाय की यतना।
२. लौकिक संतान का गौरव त्यम् ।
३. शीत-उष्ण आदि परीयों पर विजय |
8
दृढ़ श्रका |
५. संसार से उद्वेग ।
६. कर्मों को क्षीण करने का उपाय |
७. वैयावृत्त्य का उद्योग |
८. तप का अनुष्ठान ।
९ स्त्रीसंग का त्याग।
१०. विधि पूर्वक भिक्षा का ग्रहण ।
११. स्त्री, पशु, क्लीन आदि से रहित शय्या । १२. गति - शुद्धि ।
१४. वस्त्र की एष्णा- गट ।
१५. पात्र की एषणा-पद्धति ।
१६. अवग्रह-शृद्धि ।
१७. स्थान- शुद्धि ।
१८ निषद्या. शुद्धि !
१९. व्युत्सर्ग- शुद्धि ।
२०. शब्दासक्ति परित्याग :
२९. रूपासक्ति परित्याग |
२२ परक्रिया - वर्जन ।
२३. अन्योन्यकिय वर्जन । २४. पंच महाव्रतलों में दृढ़ता ।
२५. सर्वसंगों से विमुक्तता ।
४१
१३. भाषा - शुद्धि |
आचारांग में केवल आचार का ही वर्णन नहीं अपितु अध्यात्म प्रधान दर्शन का विशद विवेचन हुआ है । सूत्रकृतांग की भांति इसमें तर्क की प्रधानता नही अपितु आत्मानुभूति के स्वर अधिक हैं । आचारांग निर्युक्ति
आचारांगनियुक्ति की रचना का क्रम चौथा है लेकिन विषय निरूपण की दृष्टि से इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । उत्तराध्ययननियुक्ति में निक्षेपों के वर्णन में प्रायः एकरूपता है, इससे पाठक को कोई नया ज्ञान प्राप्त नहीं होता लेकिन आवारांगनियुक्ति इसकी अपवाद है। इसमें चरण, दिशा, ब्रह्म गुण, मूल, कर्न, सम्यक् आदि शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रतिपादन हुआ
है ।
प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा की नियुक्ति में शस्त्र और परिज्ञा का विवेचन निःशस्त्रीकरण की
१. ८९, नंदी ८१ ।
२. प्रशमरतिप्रकरण ११४- १७ ।
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नियुक्तिपंचक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अनुभव स्जा के १६ भेदों का उल्लेख मनोविज्ञान की मौलिक मनोवृत्तियों के साथ तुलनीय है साथ ही पनवविज्ञान के क्षेत्र में नी दृष्टियां उद्घाटित करने वाला है। दिशा के भेद-प्रभेदों एवं उसके उद्भव का इतना विस्तृत वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। भौगोलिक दृष्टि से यह पूरा वर्णन अनेक नर रहस्यों के स्रोलने वाला है। जातिस्मृति उत्पन्न होने के कारणों का उल्लेख परामनोवैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन में पृथ्वी आदि षड्जीवनिकायों के निक्षेप प्ररूपणा. लक्षण. परिमाण उपभोर, शस्त्र. वेदना, व्ध और उसकी निवृत्ति आदि ९ द्वारों का विस्तृत वर्णन किया है। इनमें प्ररूपणा, लक्षण. परिमाण. उपभोग, वेदना आदि का वर्णन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अरे भूमिका में हम इस बारे में विस्तृत चर्च करेंगे। षड्जीवनिकाय का जितना कमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन आई रागनियुक्ति में हुआ है, उतना अन्य ग्रंथों में नहीं मिलता। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह वर्गन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
द्वितीय उद्देशक में लोक और विजय के निक्षेप के ८३चात् मूलसूत्र में आए 'जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलढाणे से गुणे सूक्त में आर गुण, मूल और ठाण—इन तीन शब्दों क निक्षेप के माध्यम से विस्तृत वर्णन हुआ है। संसार का मूल है कर्म, उसकी उत्पत्ति कमाय से होती है। नियुक्तिकार ने दस प्रकार के निक्षेपों के माध्यम से कर्म का विशद विवेचन किया है।
तीसरे शीतोष्णीय अध्ययन में पीत और उष्ण की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है तथा बाईस परीषहों में कितने शीत परीषह और कितने उष्ण इसका उल्लेख किया है। चौथे सम्यक्त्व अध्ययन में गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाओं का वर्णन तात्विक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक दृष्टि से गुणश्रेणी-विकार का प्राचीनतम वर्णन आचारांगनिर्युक्त में मिलता है। अहिंसा का सार्वभौम एवं सार्वकालिक महत्व बताने के बाद निर्मुक्तिकार ने रोहगुप्त की कथा का संकेत किया है, जिसमें अनेक भिक्षुओं से समस्यापूर्ति करवाई गयी है। नियुक्तिकार ने आसक्त और अनासक्त के कर्मबंध की प्रकिया को बहुत सुंदर एवं व्यावहारिक रूपक से समझाया है।
पांचवें लोकसार नामक अध्ययन की प्रारम्भिक नियुक्ति-गाथाओं में उद्देशकों की विषय-वस्तु का निरूपण है। नियुक्तिकार के अनुसार आदानपद से इस अध्ययन का नाम आवंति तथा गौण नाम लोकसार बताया गया है। प्रसंगवश नियुक्त्तिकार ने अनेक दृष्टियों से लोक में सारभूत वस्तुओं का वर्णन किया है। प्रश्नोत्तर के माध्यम से नियुक्तिकार कहते हैं कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का तार संयम तथा संयम का सार निर्वाण है।
छठे धुत अध्ययन की नियुक्ति में द्रव्यधुत और भावधुत का वर्णन है। सातवें महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति में अध्ययनों की विषय-वस्तु के साथ महा और परिण्णा शब्द के निक्षेपों का उल्लेख है। आठवें विमोक्ष अध्ययन की नियुक्ति में निक्षेप के माध्यम से विनोक्ष का प्रतिपादन है। नियुक्तिकार ने भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और प्रायोपशमन को भाव-विमोक्ष के अंतर्गत माना है। प्रायोपगमन मरण के अंतर्गत आर्य वज्र, आर्य समुद्र तथा व्यापातिम मरण के अंतर्गत आचार्य तोसलि का उदाहरण दिया है। नियुक्तिकर ने बारह वर्ष की संलेखना का सुंदर कम वर्णित किया है, जो साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति में बताया गया है कि जब जो तीर्थकर होते हैं, दे अपने तीर्थ में उपधानश्रुत अध्ययन में अपने तप:कर्म का वर्णन करते हैं। सभी तीर्थंकरों का तप:कर्म निरुपसर्ग तथा वर्धमान का तप:कर्म सोपसर्ग रहा।
द्वितीय श्रुतस्कंध का नाम आधार भी प्रसिद्ध है अत: नियुक्तिकार ने 'अग्ग' शब्द की निक्षेप के माध्यम से विस्तृत चर्चा की है। प्रारम्भ में आय रो के व्रथम श्रुतस्कंध के कौन से अध्ययन से कौन सी चूला निट है, इसका उल्लेख किया गया है। प्रथम चूला में पिंड. शय्या, ईमां, वस्त्र, पात्र. अवग्रह आदि के बारे में चर्च है। द्वितीय चला सप्तैकक में रूप पर आदि के निक्षेप हैं। तीसरी बला भावना की नियुक्ति में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि भावना का विस्तृत विवेचन है।
चौथी विमुक्ति चूला में बिमुक्ति अध्ययन के पांच अधिकारों की चर्चा करते हुए देशविमुक्त और सर्वविमुक्त का उल्लेख किया गया है। अंत में पायर्व निशीथ चूला का वर्णन आगे लिया जाएगा, ऐसी नियुक्तिकार ने प्रतिज्ञा की है। महापरिज्ञा अध्ययन एवं उसकी नियुक्ति
दिगम्बर परम्पर के अनुसार वीर-निर्वाग ६८३ वर्ष के बाद आचारांगधर का विच्छेद हो गया। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आन्दरांग का पूर्ण रूप से विच्छेद नहीं हुआ लेकिन १८ हजार पद-परिनाण वाला वह आचारांग वर्तमान में बहुत अल्प पद-परिमाण में रह गया। इसमें अनेक संडित पद्य मिलते हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कालान्तर में 'आयारधर' आचार्यों के अभाव अथवा विस्मृति वश इसका काफी अंशः लुप्त हो गया।
वर्तमान में इसका सातवां महापरिज्ञः अध्ययन विलुप्त है । निर्मुचित्त', चूर्णि एवं टीका' के अनुसार आचारांग का सातवां अध्ययन महागरिजा है जड़कि ठाणं और, समवाओ में नौवां तथा नंदी टीका एवं आवश्यक संग्रहणी में इसे आठवां अध्ययन माना है। सगवाओ के वृत्तिकार ने स्पष्ट करते हुए लिखः है कि महापरिहा अध्ययन वस्तुतः सातवां अध्ययन था लेकिन उसका विच्छेद हो गया इसलिए इसको अंत में रखा गया है। शूब्रिग और जेकोबी ने इसे सातवां अध्ययन नानः है।
विद्वानों के अनुसार इस अध्ययन की नियुक्ति लुप्त हो गयी अथवा नियुक्तिकार के समय तक यह अध्ययन लुप्त हो गया, जिससे इसकी नियुक्ति नहीं लिखी जा सकी. किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार के समय तक महापरिज्ञा का अस्तित्व था। टीकाकार ने दोनों श्रुतस्कंधों के पश्चात् २६४-७० की सात गाथाएं दी हैं लेकिन प्रायः सभी हस्तप्रतियों में इस अध्ययन की अठारह नियुक्ति-थाएं मिलती हैं। ये गाथाएं अभी तक प्रकाश में नहीं आई थीं इसीलिए विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं हो सका।
यह निश्चित है कि चूर्णिकार और टीकाकार के समक्ष इस अध्ययन की नियुक्तिगाथाएं नहीं थीं
१. अनि ३१ २ अचू पृ७। ३. आटी प्र. १७३। ४. ठाणं ९/२। ५. सम, ९/३।
६. नंदीहाटी प्र. ७६। ७ आवश्यकसंग्रहणी टी प ६६७.६६६ । ८. समटी. 7 ६७। ९ Acaranga sutra, preface page 261 १०. Sacred books of the east, Vo 22, page 49।
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निर्युक्तिपंचक इसीलिए उन्होंने इन गाथाओं की व्याख्या नहीं की। फिर भी महापरिज्ञा के विच्छेद का प्रामाणिक समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार आचार्य वज्र ने महापरिज्ञा से गगन गामिनी विद्या सीखी। प्रभावक वरित्र में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। यह संभावना की जा सकती है कि आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् तथा आचार्य शीलांक से पूर्व इस अध्ययन का विच्छेद हो गया क्योंकि आचार्य शीलांक ने स्पष्ट रूप से मन के विच्छेद का उल्लेख किया है।' लगभग वीर - निर्वाण की
छठी शताब्दी के बाद महापरिज्ञा का लोप हो गया ।
पूर्णिकार के अनुसार महापरिज्ञा अध्ययन अयोग्य को नहीं पढ़ाया जाता था । " पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि अध्ययन-अध्यापन में अधिकारी की अपेक्षा रहने से इसका वाचन कम हो गया और धीरे-धीरे इसका लोप हो गया। इसके अतिरिक्त इसमें नाना मोहजन्य दोषों का वर्णन होने से सर्वसाधारण के लिए पठनीय नहीं रहा अतः कालकवलित हो गया।" आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार नियुक्ति में वर्णित विषय-वस्तु के आधार पर ज्ञात होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में महान् परिज्ञा का निरूपण था। कालान्तर में सभी शिष्यों को उसका ज्ञान देना उचित प्रतीत नहीं हुआ इसलिए इस अध्ययन का पाठ विस्मृत हो गया। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार यह अध्ययन साधु जीवन का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता था, जिसका दर्णन आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार से हुआ है। संभव है इसी कारण से इस अध्ययन को अलग कर दिया क्योंकि यह अध्ययन पुनरुक्त दोष वाला हो गया था गणाधिपति तुलसी भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि नियुक्तिकार के अनुसार आधारचूला की प्रथम चूला के सात अध्ययन (सप्तेकक) महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से निर्यूढ हैं। इस उल्लेख के आधार पर सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि जो विषय महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों (सप्तैककों) में हैं, वे ही विषय महापरिज्ञा अध्ययन में रहे होंगे। ऐसी संभावना की जा सकती है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों के प्रचलन के बाद उसकी आवश्यकता न रही हो फलतः वह असमनुज्ञात और क्रमश: विच्छिन्न हो गया हो । "
आचारांग सूत्र की चिंतामणि टीका में भी महापरिज्ञा अध्ययन के बारे में श्रुतानुश्रुत परम्परा का उल्लेख है। टीकाकार ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है— 'इस महापरिज्ञा अध्ययन में जल, स्थल, आकाश और पाताल में विहार करने वाली विद्या परकायाप्रवेश विद्या तथा सिंह, व्याघ्र आदि का शरीर धारण कर रूप-परिवर्तन करने की विद्या का वर्णन था। इस विषय में गुरु परम्परा से यह घटना प्रसिद्ध है कि एक आचार्य अपने शिष्य को महापरिज्ञा अध्ययन पढ़ा रहे थे। शौचक्रिया की बाधा होने पर आचार्य
१. आवनि ७६९: नेणुद्धरिया विज्जा आगाससमा महापरिणाओ । वंदामि अजवर अपच्छिम जो सुयधरागं ।। २. प्रभावकचरित महापरिज्ञाध्य्यनादाचारं गगन्तरस्थितात् । श्रीवजेता विद्यः तदा गगनगामिनी ।।
पृ. १७३: अधुना सप्तमाध्ययनस्थ महापरिज्ञाख्यस्यावतरः. तच्च व्यवच्छिन्नमिति ।
३. आटी
४. आचू पृ. २४४; महापरिष्णा न पढिज्जइ असमणुष्णाया । ५. श्रमण १२५७; आचारांग सूत्र : एक परिचय |
६. आचारांगभाष्य्म्, पृ. ३५१; नियुक्तिवर्णित विषयजस्त्वाधारेण ज्ञायते तस्मिन् महती परिज्ञा निति आसीत् । कालान्तरे सर्वशिष्येभ्यः तत्त्याप्रदानं नोचितं प्रतीतम् । तेन तरयाध्ययन पाटः विस्मृतिं नीतः ।
a ācāránga sørta, perface page s० । ८. अचारागभाष्यम् भूमिका नृ. १९ ।
९. आचारांग चिंतामणि टीका पृ ३६३-६५ ।
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नियुक्ति साहित्म : एक पर्यवेक्षण शौचार्थ बाहर चले गए। शिष्य ने बनतावशा महागरिज्ञा में वर्णित विद्या के आधार पर सिंह का । धारण किया। शिष्य वापिस मूल रूप में आने की विद्या से अपरिचित था इसलिए वह असली रूप में नहीं आ सका। आचार्य जत्व वापिस आए तब शिष्य को सिंह रूप में देखा । आचार्य ने उसे पाविस मुनि रूप में परिवर्तित कर दिया। इस घटना को देख आचार्य ने विच र किया कि पंचम कल में इस अध्यायन के गठन-पालन से लाभ नहीं, अनर्थ होने की संभावना अधिक है अत: उसी समय से इसका वाचन गित भर दिया। बाद में इसका संकलन ही नहीं हुआ और कालान्तर में इसका विच्छेद हो गया। टीकाकार ने अंत में उल्लेख किया है कि यह बात उन्हें अपने आचार्य से ज्ञात हुई। महापरिज्ञा शब्द का अर्थ एवं उसमें वर्णित विषयवस्तु
___ गहापरिज्ञा में दो शब्द हैं—महा-परिज्ञा'। नियुक्तिकार ने महा शब्द के दो अर्थ किए हैं? प्रधान या विशेष २. परगाण में बृहद् । यहां महा शब्द प्रधान अर्थ का द्योतक है। नियुक्तिकार ने परिज्ञा शब्द के भी दे भेद किए है—१. ज्ञ परिज्ञ २. प्रत्याख्यान परना। मूलगुण और उत्तरगुण के अधार पर भावपरिका के वेद-प्रभेद किर! गए हैं। मूलतः परिज्ञा शब्द ज्ञान और आचरण का समन्वित साप है। निर्मुवित्तकार ने गह परिज्ञा अध्ययन के लात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महापरिज्ञा अध्ययन में वर्णित विषय-वस्तु के जानने के निम्न साधन हमारे समक्ष हैं
१. नियुक्तिकार ने प्रारम्भिक गाथाओं में जहां सभी अध्ययन के विषयों का संक्षेप मे वर्णन किया है, वहां महापरिज्ञा अध्ययन के लिए कहा है कि इसमें मोजजन्य परीषह और उपसर्गों का वर्णन है।'' चूर्णिकार और टीक कार ने भी इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन उपसर्ग को जानकर कर्म प्रत्याख्यान परिज्ञा से कर्म क्षीण करने चाहिए। मोह से उत्पन्न परीषह स्त्री के प्रति आसक्ति से उत्पन्न स्त्रतरे की
ओर संकेत देता है। स्वयं नियुक्तिकार ने सबसे अंतिम गाथा में कहा है कि देवी, मानुषी और तिर्थच स्त्री के प्रति आसक्ति का मन, वचन और काया से परित्याग कर देना चाहिए, यही नहःपरिजः अध्ययन का सार है।
२. आचारांगनियुक्ति के अनुसार सप्तकक पूलिका के सात उद्देशक महापरिज्ञा अध्ययन से निर्मूढ हैं अत: इस अध्ययन के आधार पर भी महापरिज्ञा की विषय-वस्तु का सामान्य ज्ञान हो सकता है।'
३. प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार इस अध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुणों को भलीभांति जानकर तंत्र-मंत्र तथा आकाशगामिनी ऋद्धि का प्रयोग न करने का तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय का त्याग कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रमण करने का विधान है।
४. इस अध्ययन की विषय-वस्तु गनने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन महापरिज्ञः अध्ययन की निक्ति है। इसकी प्रारम्भिक ग्यारह गाथाओं में इसके उद्देशकों में वर्णित विषय-वस्तु का उल्लेख
१. आनि २६४: पाहण्णे महसदे, परिमाप व होई .नाया। २. आनि २६५; तेसि महास. खा. पाहणणगं तु निप्पण्णो। ३ अनि २६७, २६८। ४. आनि ३६७। ५ अनि ३४: मोहसमुत्था परीसहस्सागा।
आयू गृ २४४, आटी पृ १९३३ । ७ आनि २७० । ८ आनि ३१०: सत्तेवगण सावि निवाई
महापरिणा। ५ प्रशनरतिप्रकरण । ११५ टी. पृ ७७ :
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निर्युक्तिपंचक
मिलता है।
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि इसमें साधु-जीवन की कठोर चर्या का उल्लेख था, यह नियुक्ति गाथाओं में वर्णित विषय वस्तु से स्पष्ट है । लगता है इतनी कठोर धर्या का पालन असंभव समझकर धीरे-धीरे पठन-पाठन कम होने से इसका लोप हो गया। श्रुति - परम्परा के अनुसार इस अध्ययन में चमत्कार और ऋद्धि सिद्धि का वर्णन थ। संभव है योनिप्राभृत की भांति काललब्धि के अनुसार इसकी वाचना का परिणाम अच्छा नहीं रहा इसलिए समय एवं बहुश्रुत आचार्यों ने इसकी वाचना देनी बंद कर दी हो। किन्तु यह बात नियुक्ति - गाथाओं के आधार पर प्रामाणिक नहीं लगती । यह भी संभव है कि आचार्यों ने वज्रस्वानी की गगनगामिनी विद्या वाली बटना के आधार पर इस अध्ययन की विषय वस्तु के बारे में यह कल्पना की हो। यह भी संभावना की जा सकती है कि उस समय महापरिज्ञा नाम का कोई स्वतंत्र ग्रंथ रहा होगा जिसमें चमत्कार एवं व्यद्धि-सिद्धि प्राप्त करने की विविध विद्याओं का वर्णन होगा। कालान्तर में वह ग्रंथ लुप्त हो गया और नाम साम्य के कारण आचारांग के इस अध्ययन के साथ यह बात जुड़ गई हो। फिर भी इस विषय में अनुसंधान की आवश्यकता है कि महापरिज्ञा अध्ययन लुप्त क्यों हुआ तथा उसकी विषय-वस्तु क्या थी? सूत्रकृतांग एवं उसकी नियुक्ति
सूत्रकृतांग दूसरा अंग अगम है। यह अचारप्रधान और दार्शनिक ग्रंथ है। चूर्णिकार ने इसकी गणना चरण-करणानुयोग में तथा आचार्य शीलांक ने इसे द्रव्यानुयोग के अंतर्गत माना है। इसमें स्वमत की प्रस्थापना के साथ परमत का खंडन भी किया गया है अतः इस ग्रंथ के अध्ययन से तत्कालीन प्रचलित विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं का सहज ज्ञान किया जा सकता । इस ग्रंथ की तुलना बौद्ध ग्रंथ अभिधम्मपिटक से की जा सकती है। नियुक्तिकार ने इसको भगवान् विशेषण से अभिहित किया है, जो इसकी विशेषता का स्वयंभू प्रमाण है।
सूत्रकृत में दो शब्द हैं— सूत्र और कृत सूत्र शब्द की व्याख्या करते हुए निर्मुक्तिकार ने श्रुतज्ञानसूत्र के चार भेद किए हैं – १. संज्ञासूत्र २ संग्रहसूत्र ३ वृत्तनिबद्ध ४ और जातिनिबद्ध । सूत्रकृतांग में चारों प्रकार के सूत्रों का उल्लेख है पर मुख्य्त्यः वृनिबद्ध का प्रयोग अधिक हुआ है क्योंकि यह वृत्तछंद में निबद्ध है। कृत शब्द के संदर्भ में करण की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने श्रुत के मूलकरण का अर्थ त्रिविध योग और शुभ-अशुभ ध्यान किया है।' नियुक्तिकार के अनुसार इस सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सूत्रित हैं और कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं। ये सभी अर्थ युक्तियुक्त हैं तथा आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त प्रसिद्ध और अनादि हैं।
१ देखें अनि २५३-२०० तक की गाधाओं का अनुवाद | गा. २५३-६३ तक की भिक स्याह गाथाएं प्रकाशित टीका में उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन २६४-७० तक की सात गावा दोनों श्रुतकंधों की टीका के अंत में दी गयी हैं। टीकाकार ने 'अविवृता निर्युक्तिरेषा महापरिज्ञाया: ' मात्र इतना ही उल्लेख किया है प्रकाशित टीक में चालू
संख्ण क्रम में उन गथााओं को नहीं रोड़ा गया है। २५३ से २७० तक की नहापरिक्षा अध्ययन की निर्मुक्ति गाथाएं सभी आदर्शो में 'मेलती हैं।
२. नि ।
३. भूमि ३
८. सूनि १६
५. सूनि २१ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नामकरण
नियुक्तिकर भद्रबाहु ने सूत्रकृतांग के तीन गुनिष्पन्न नाम बताए हैं- सानाई (सूत्रात सुत+5 (सूत्रकृत) सूचगड (सूचार) । टीकाकार शीलगंक ने इन तीनों नामों की सार्थकता पर विचार किया है। यह अर्थ रूप में तीर्थंकरों द्वारा लत जायन्न है तथा गणधरों द्वारा कृत-प्रधित है अत: इसका नाम सूतगड है। इत्तों सूत्र के अनुसार तब मोय किया जाता है अतः इसका नाम सूत्रकृत है। इसमें स्तममा और परसमण की सून' की अतः इसका नाता सूधाकृत है। आचार्य तुलसी ने इन तीनों गामों के अरे में अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सूर!, सुत्त और सूट. ये तीनों सूत्र के ही प्रकृत रू। हैं। आकारभेद होने के कारण हीन गुणात्मता नागों की परिकल्पन' की गयी है। सनी अंग मौलिक का से भगवः-: महावी' द्वारा प्रस्तुत तथा गणधर द्वारा ग्रंथ मुग में प्रपति हैं फिर फेवन प्रस्तुत आगन का नाग तृतकृत गयों। प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है। प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थपर्श आधार पसरा है क्योंकि प्रस्तुरा आगम में रतसमय और परसमय की तुलनात्मक सूचना के संदर्भ में आधार के प्रस्था:-'। की गयी है. इसलिए इसका संबंध सूचना ! है।'
सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या करते र नियुकिाकर कहते हैं कि तीर्थंक में के गल—मातृकापद को सुनकर मणधरों ने योग और शुभ अवसायों से इस सूत्र की रचना की है इसलिाः यह सूत्रकृत कहलाया।' प्रकारान्तर से सूत्रकृत का निरुक्त करते हुए नियुक्तिकार कहते है कि अक्षरण से नतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों क परिशाटन इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई अत: यह सूत्रकृत है। टीकाकर इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते हैं, वैसे-वैले कर्म-निर्जरा होती है, जैसे-जैसे कर्म-निरा दी है, वैसे वैसे सूत्ररचना का उद्यम होता है।
इसके प्रथम श्रुरास्वाध में सोलाई अध्ययन हैं अत: इसका एक नाग गाथाषोडशक (गाहासोलस") भी प्रसिद्ध है। व्यवहार में इस आगम का नाम प्रकृत में सूयगडंग तथा संस्कृत में सूत्रकृतांना अधिक प्रचलित है। दिगम्बर परम्परा में शौरसैनी भाषा में सुयड, सूदग्रड और सूदयद—रो टीन नाम मिलते हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल
नियुक्तिकार ने सूत्रकृतांग के रचनाकार का नामोल्लेख नहीं किया है लेकिन ग्णधारी २'ब्द का प्रयोग गणधर की ओर संकेत करता है। सूत्रकृतांग के रचनाकर की कार्गिक अवस्था विशेष का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं—'रचनाकार गगधरों के कर्मों की स्थिति = उपन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मो का अभाव विपाक मंद था। बंधन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभव ले बंध करते हुए निकाचित तण नित्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्य स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को अल्प स्थिति वाली करते हुए, बंधने वाली उत्तर प्रकृतिय का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाली
? |
१ जून २' २. सू सूरतमन्ना यातीय पत: कृतं नया
गरेरित तक सूत्रकृमिति सूत्रावरण सम्वाददोधः बियतेऽस्मन्निर तथा सूचीकृतमिति स्वरसमगार्थाच्नं सूचा सास्मिन कृतेति।
३ नूगो भाग १. भूमिका
राति १८ ।
सूनि २० । ६. सूटी पृ. ५'
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नियुक्तिपंचक कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करते हुए. आयुष्य कर्म की अनुदीरणा करते हुए. पुंवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधर में इस सूत्र की रचना की। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्स के अनुसार भाषा की दृष्टि से सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कंध अधिक प्राचीन है। दूसरा श्रुतस्कंध परिशिष्ट' के रूप में बाद में संकलित किया गया है। यह मान्यता भी प्रचलित है कि प्रथम श्रुतत्कंध के विषयों का ही द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार हुआ है। विषय-निरूपण एवं भाषा-शैली की दृष्टि से इसका समय महावीर के समकालीन कहा जा सकता है। उस सनय प्राकृत जनभाषा थी अत: नियुक्तिकार कहते हैं कि तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की तथा अनेक योगों के धारक गणधरों ने अपने वचनयोग से जीव के स्वाभाविक गुण अर्थात् प्राकृत भाषा में इसको निरूपित किया। अध्ययन एवं विषय-वस्तु
सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम अध्ययन के १६ तथा द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं। इसके प्रथम अध्ययन के चार, दूसरे अध्ययन के तीन, तीसरे अध्ययन के चार तथा चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो उद्देशक हैं। शेष ग्यारह अध्ययनों तथा दूसरे श्रुतत्कंध के सात अध्ययनों के एक एक उद्देशक हैं। इस प्रकार दोनों श्रुतस्कंधों के कुल मिलाकर २३ अध्ययन तथा तेतीस उद्देशक हैं। इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना अर्थात् ३६ हजार श्लोक प्रमाण. था लेकिन वर्तमान में इसका काफी भाग लुप्त हो गया। सूत्रकृतांग का अधिकांश भाग पद्य में है किन्तु कुछ भाग गद्य में भी है।
नंदी के अनुसार इसमें लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय तथा स्वसमय-परसमय का निरूपण है। समवाओ के अनसार इसमें स्वसमय परसमय तथा जीव आदि नौ पदार्थों की सचना है। इसके अतिरिक्त इसमें १८ क्रियावादी. ८४ अक्रियावादी अज्ञानबादी तथा ३२ विनयवादी दर्शनों अर्थात् ३६३ मतवादों का उल्लेख है।
सूत्रकृतांगनियुक्त (२४-२८) में इसले प्रत्येक अध्ययन की विषय-वस्तु का संक्षेप में निरूपण किया है। उसके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्यनों के अधिकार इस प्रकार हैं
१ स्वसमय और परसमय का निरूपण। २. स्वसमय का बोध। ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना। ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन। ५. उपसर्गभीरु तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात । ६. जैसे महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय के उपाय कहे, वैसा प्रयत्न करना। ७. निःशील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्नों की सेवा करने वाला शीलवान् । ८. दो प्रकार के वीर्य को जानकर पंडितवीर्य में यत्न करना। ९. यथावस्थित धर्म का कथन।
१. सूनि १३, २. History of Indian Literature, Vo2, Page 4211 ३ सूनि १९
४. सूनि २२ ५ नंदी ८२। ६ समप्र. ९०।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
१०. समाधि का प्रतिपादन । ११. सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का निरूपण। १२. क्रियावाद, अक्रियावाद आदि ३६३ तत्वों का निराकरण । १३. कुमार्ग का निरूपण। १४. शिष्यों के गुण और दोषों का कधन तथा नित्य गुरुकुलवास में रहने का उपदेश । १५ पूर्व उपन्यस्त आदानीय पद का संकलन । १६. पूर्वोक्त अध्ययनों में अभिहित सभी अर्थों का संक्षिप्त कथन ।
तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कायाकल्प्य छेदोपस्थापना और व्यवहार धक्रिया का निरूपण किया गया है। आचार्य वीरसेन ने इसके अतिरिक्त स्वसमय और परसमय के प्रतिपादन का उल्लेख भी किया है। कषायपाहुड़ की चूर्णि के अनुसार सूत्रकृतांग में स्वसनय, परसमय, स्त्रीविलोकन, क्लीवता, अस्फुटत्व, मन की बात को स्पष्ट न कहना, काम का आवेश, बिलास, आस्फोलन सुख तथा पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री लक्षणों का प्ररूप ॥ है।' सूत्रकृतांग नियुक्ति
नियुक्ति-रचना के कम में पांचवां स्थान सत्रकृतांग निथुक्ति का है। आकार में यह अत्यंत लघुकाय है। इसमें सूत्रकृतांग में आए शब्दों की व्याख्या न करके नियुक्तिकार ने अध्ययनगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है। नियुक्ति के प्रारम्भ में सूत्रकृतांग ग्रंथ के नाम के आधार पर सूत्र एवं कृत. करपा शब्द की व्याख्या की गयी है। कालकरण की व्याख्या ज्योति की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इस नियुक्ति में मुख्य रूप से समय, उपसर्ग, स्त्री, पुरुष, नरक, स्तुति. पील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग आदि शब्दों कः निक्षेप के माध्यम से विशद विवेचन हुआ है। इसमें समय, वीर्य, मार्ग आदि शब्दों की व्याख्य’ अनेक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रहस्यों को प्रकट करने वाली है।
सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में अनेक वादों का वर्णन है पर नियुक्तिकार ने पंचभूतवाद और अकारकवाद—इन दो वादों के खंडन में अपने हेतु प्रस्तुत किए हैं। पांचवें अध्ययन में पन्द्रह परमाधार्मिक देवों के कार्यों का वर्णन रोमांध पैदा करने वाल. है।
द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम पोंडरीक अध्ययन की नियुक्ति में संसार में विविध क्षेत्रों की सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं की गणना करा दी गयी है। आहारपरिज्ञा नामक तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में आहार-अनाहार से संबन्धित सैद्धान्तिक विवेचन हुआ है। नियुक्तिकार का शैलीगत वैशिष्ट्य है कि वे कथा का विस्तार नहीं करते लेकिन छठे अध्ययन में आर्द्रककुमार की विस्तृत कथा दी है। अंतिम अध्ययन की नियुक्ति में नालंदा में हुई गौतम और पाश्वपित्यीय श्रमणः उदक की चर्चा का संकेत है। दशाश्रुतस्कंध एवं उसकी नियुक्ति
छेदसूत्रों में प्रथम स्थान दशाश्रुतस्कंध कः आता है। इनको छेदसूत्र क्यों कहा गया इस बारे में
१. सूनि २४-२८ । २. तत्त्वार्य राजवार्तिक १/२० पृ. ७३ ।
३ षटझंडागम धवला भाग १ पृ. ९९ । ४. कया. चू. भाग १ पृ. ११२ ।
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नियुक्तिपंचक विद्वानों ने एक कलाना यह की है कि इनमें छेद प्रायश्चित्त से संबंधित वर्णन है अत: इनका नाम छेदसूत्र पड़ गया पर वर्तमान में उनलब्ध छेदसूत्रों की विषय-वस्तु देखते हुए यह बात काल्पनिक और निराधार प्रतीत होती है। निशीथभाष्य में छेदसूत्रों को उत्तमभुत कहा गया है। निशीथ चूर्णिकार इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इन्में ब्रायश्चित्त-विधि ला वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि हेती है, इसलिए छेदसूत्र उत्तगश्रुत हैं। इसके अतिरिक्त ये पूर्वो से निर्मूढ हुए इसलिए भी आमम-साहित्य में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान । छेदसत्रों में मख्यतः उत्सर्ग अपवाद. दोष और प्रयश्चित्त_इन चार विषयों का वर्णन है। दाश्रुतर कंध उत्सर्गप्रधान छेदसूत्र है, इसमें मुख्यत: मुनि के सामान्य आचार का वर्णन हुआ है।
स्वसूत्राको संख्या के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जीतकल्प चूणि में केदसूत्रों के रूप में इन ग्रंथों का उल्लेख मिलता है—१ कल्प २. व्यवहार ३. कल्पिकाकल्पिक ४. क्षुल्लकल्प ५. महाकल्प, ६ निशीथ आदि। चूर्णिकार ने दशश्रुतस्कंध का उल्लेख नही किया अत: आदि शब्द से यहां संभवत: दपाश्रुतस्कंध ग्रंथ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाभल्ल एवं क्षुल्लकल्प आदि ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं। फिर भी चूर्णि के इस उल्लेख से यह नि:संदेह कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्तसूत्र थे और इनकी गणना छेदसूत्रों में होती थी। सानावारी शतक आगमाधिकार में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रंथों के नामों का उल्लेख मिलता है—दशाश्रुतत्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीध, जीतकल्प और महानिशीथ ।। पंडित कैलार चन्द्र शास्त्री ने जैन धर्म पुस्तक में जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प (अनुपलब्ध) को छेदसूत्रों के अंतर्गत भाना है। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्स ने विस्तार से छेदसूत्रों की संख्या एवं उनके प्रणयन के क्रम की च की है। हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने के बाद जीतकल्प केदसूत्रों में गिना जाने लगा।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ में छेदसूत्रों के अंतर्गत इन सूत्रों की परिंगणना की गयी है—१. दशाश्रुतस्कंध, २. बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. निशीथ ५. महानिशीथ ६. पंचकल्प अथवा जीतकल्प । तेर पंथ की परम्परा में छेदसूत्रों के अंतर्गत चार ग्रंथों को अंतर्निविष्ट किया है—१ दशाश्रुतस्कंध २ बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. निशीथ । दिगम्बर साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथइन तीन ग्रंथों का ही उल्लेख है। वहाँ दशाश्रुतस्कंध का उल्लेख नहीं है।
चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कंध को प्रमुख रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुख स्थान देने का संभवतः यही कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय और अनाचरणीय तथ्यों का कृमबद्ध वर्णन है। शेष तीन सूत्र इसी के उपजीवी हैं। छेदसूत्रों के नामकरण के बारे में विस्तृत वर्णन देखें,व्यवहारभाष्य, भूमिका पृ. ३४।
पंचकल्प भाष्य के अनुसार कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार—इन तीनों को एक श्रुतस्कंध मानते थे तथा कुछ आचार्य दशाश्रुत को प्रथम तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के
१. निभा १८४ भाग ४ चू. प.२५३; केरसुयमुराम्सु। २ जीचू ए.१. कम-ववहार-कैप्पियाकपिण्य-चुल्क म
महाकप्परान-निसीहाइएस् छेदसुतेशु अइनित्थरेण पच्छित्त भगिय। ३ सामाचारी शतक, आगमाधिकार।
४ जैनधई २५९।।
History of Indian Literature,Vo2 page 446। ६ A History of the Canonical---Page 371 ७. जैन सा....... भाग २ पृ. १७३ । ८ दचू . २; इमं पुण छेदसुत्तपमुहभूतं ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण का में स्वीकृत करते थे। नामकरण
स्थानांग गूत्र में दशश्रुतरमध का दूसरा नाम जायर दस भी मिलता है। आयादा और दशा तस्कंध—ये दोनों ही नाम ग्रंथ की विषय-वस्तु को सार्थक करते हैं। दश श्रुतों. अध्ययनों का स्कंध अर्थात् समूह को दशश्रुतस्कंध कहा गया है। जिसमें दश प्रकार के आचार का वर्णन के. बह आयारदशा है। यहां दशा शब्द अवस्था का वाम नहीं अपितु संख्या का होता है. ऐसा निक्तिकार ने स्पष्ट किया है। निक्षेग के माध्यम से दशा की व्याख्या करते हुए भावदशा के दो प्रकार बताए गए हैं—आयुविमाकदशा और अध्ययनशा । आधुनिपाकदशा के दस तथा अध्ययन दशा के दो प्रकार सत्ताए हैं—छेटी अध्ययनदशा के लिए दसाश्रुतस्कंध के दस अध्ययनों की ओर संकेत किया है तथा बड़ी अध्ययन दशा ज्ञाताधर्मकथा को माना है। नियुक्तिकार कहते हैं कि जिस प्रकार वस्त्र की विभृशा के लिए उसकी दा किनारी ही है, वैसे ही ये दशाएं हैं। रचनाकार
छेदसूत्रों के रचनाकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाह थे। पंचकल्पभाग्य तया दशावतरक नियुक्ति की प्रथम गाथा में भद्रबाहु को वंदना करते हुए कहा गया है कि दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कला और सबजार – इन तीन छेदसूत्रों के कर्ता प्राचीनगोत्री आचार्य भद्रबाहु हैं । चतुर्दशापूर्धी आवश्यकता होने पर पूर्वो में सूत्रों का नि!हण करते हैं अत: धृति, स्मृति एवं संहनन आदि की क्षीणात देखकर आचार्य भद्रबाहु ने पूर्वी से छेदसूत्रों का निर्मूहण किया। निशीध का निर्मूहण नौवें पूर्व के प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय आरवस्तु से हुआ। अध्ययन एवं विषयवस्तु
दशाश्रुतस्कंध के दश अध्ययनों के नाम नियुक्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं.--१ असमाधि २ सबलत्व ३. अनाशातना ४. गशिगुण ५. मन:समाधि ६. श्रावकप्रतिमः ७. भिक्षप्रतिमा ८ कल्प (पज्जोसवणाकप्प) ९. मोह १०. निदान । ठाणं सूत्र में संख्या के साथ अध्ययनों के नामों का उल्लेख
१. बीस असमाधिस्थान ६. ग्यारह उपासकप्रतिमा २ इक्कीस बलदोष ७ बारह भिक्षुपतिमा ३. तेतीस आशातना ८ पर्युषण्णकल्प ४ अण्टविध गणिसंपदा ९ तीस मोहनीयस्थान
५. दश चित्तस्माधिरान १७.आजारिस्थान । दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
छेदसूत्रों पर यह स्वतंत्र रूप से नियुक्ति मिलती है। अन्य छेदसूत्रों पर लिखी गयी निझुक्तियां
१. पंकभा. २५। २. पणं १५/१५. ३ ५। ४. दनि ५।
६. आनि ११। ७ दनि ८. ८. ग १०/११५ ।
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नियुक्तिपंचक भाष्य के साथ मिल गयीं है। आकार में यह सबसे छोटी नियुक्ति है पर संक्षिप्त शैली में आचार विषयक अनेक विषयों का वर्णन इसमें हुआ है। नियुक्ति के प्रारम्भ में दशा शब्द की विस्तृत व्याख्या की गयी
नियुक्तिकार ने समाधि, स्थान, शबल, आशातना, गणी, संपदा, चित्त, उपासक, प्रतिमा आदि शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या की है। उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में उपासकों के भेदों का वर्णन है, साथ ही उपासक और श्रावक में क्या अंतर है, इसका तात्विक विवेचन किया गया है। नियुक्तिकार ने प्रसंगवशा अनेक प्रकार की प्रतिमाओं का भी उल्लेग्न किया है। एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करने वाले मुनि के गुण विशिष्ट साधुत्व के पैरामीटर हैं।
आठवीं पज्जासजणा दशा में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। नियुक्तिकार ने साधु के विहार-कल्प, वर्षावात स्थापित करने एवं विहार न करने के कारणों का विस्तार से वर्णन किया है तथा जघन्य, नाम और उत्कृष्ट वर्षावास के विकल्प भी प्रस्तुत किए हैं। द्रव्य स्थापना में आहार, विगय, मात्रक आदि सात द्वारों की विस्तृत विवेचना की गयी है।
नर्युषण का मूल अर्थ है—कषाय का उपशमन । पर्युषणाकाल में यदि मुनि को अधिकरण या कषाय का वेग आ जाए तो सांवत्सरिक उपशमन करना चाहिए। अधिकरण के प्रसंग में नियुक्तिकार ने दुरूतक, प्रद्योत एवं द्रमक के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। कषाय के अंतर्गत कोध आदि कषायों के चार-चार भेदों का उल्लेख किया है—क्रोध, मान, माया और लोभ के दोषों को बताने के लिए नियुक्तिकार ने मरुक, अत्वकारीभट्टा, पांडुरा तथा आचार्य मंगु की कथाओं का निर्देश किया है। अंत में संयम-क्षेत्र की विशेषता तथा वर्षा में भिक्षा की अपवादिक विधि का उल्लेख किया गया है।
नौ, दशा की नियुक्ति में नोह के निक्षेप तथा कर्न शब्द के एकार्थकों का उल्लेख है। निर्मुक्तिकार ने महामोहनीय कर्मबंध के कारणों का वर्जन करने की प्रेरणा दी है क्योंकि इनसे अशुभ कर्म का बंध होता है, जो दु:ख का कारण बनते हैं।
दसवीं निदानस्थान दशा का दूसरा नाम आजातिस्थान भी है। इसमें जाति, आजाति और प्रत्याजाति की परिभाषाओं के साथ मोक्षगमन के योग्य साधु की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। नियुक्तिकार ने निक्षेप के माध्यम से बंध का विस्तृत वर्णन किया है तथा अंत में संतार-समुद्र से तरने के पांव उपाय बताए हैं। कहा जा सकता है कि यह नियुक्ति आचार विषयक अनेक विषयों का स्पष्टीकरण करने वाली है। नियुक्तियों की गाथा-संख्या : एक अनुचिंतन
प्रस्तुत ग्रंथ में संपादित पांचों नियुक्तियों की उपलब्धि के तीन स्रोत प्राप्त होते हैं—१. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां। २ चूर्णि में प्रकाशित नियुक्ति-गाथाएं ३. टीका में प्रकाशित निर्युक्त-गाधाएं ।' दशवकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की जितनी भी हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई, उनमें भाष्य और नियुक्ति की गाधाएं भी साथ में लिखी हुई थी अत: उनके आधार पर गाथाओं का सही निर्णय करना संभव नहीं था। चूर्णि और टीका की गाथा-संख्या में भी पर्याप्त अंतर है। दशवकालिक की प्रकाशित
१ दशाश्रुतरकंध की टीका अभी प्रकाशित नहीं हुई है।
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निर्युक्ति साहित्य एक पर्यवेक्षण
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टीका में ३७२ नियुक्ति - गाथाएं हैं, जबकि प्रकाशित अगस्त्य सिंहचूर्णि में मात्र २७१ निर्मुक्ति - गाथाएं ही हैं। जिनदासचूर्णि में गाथाओ का केवल संकेत मात्र है अत उसमें गाथाओं के व्यवस्थित क्रमांक नही हैं। हमारे द्वारा संपादित दशवैकालिकनियुक्ति में ३४९ गाथाएं है | गाथा - संख्या में इतना अंतर कैसे आया तथा व्याख्याकारों में इतना मतभेद कैसे रहा? यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। गाधा भाष्य की होनी चाहिए या निर्मुक्ति की यह निर्णय प्रायः प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार को आधर मानकर किया गया है। अनेक भाष्य गाथाओं को तर्कसंगत प्रमाण देकर नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है तथा अनेक नियुक्तिओं को भाष्यगाथा के रूप में भी सिद्ध किया है।
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कुछ नियुक्ति गायाएं भी मूलसूत्र के साथ मिल गयी हैं, जैसे - वयक्क..... ( दशनि २४४) गाथा दशवैकालिक के छठे अध्ययन में भी मिलती है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गा २४९ ) की 'जहा लाभो तहा लोभो गाथा कालान्तर में उत्तराध्ययन सूत्र के साथ जुड़ गई। सम्मिश्रण का एक कारण स्मृति - दोष भी रहा होगा क्योंकि मूलसूत्र के साथ नियुक्ति भी कंठस्थ होने से कही-कहीं गाथाओं में विपर्यय हो गया । व्याख्याग्रंथों की गाथाओं का मूलसूत्र के साथ तथा नियुक्ति की गाधाओं का भाग्य के साथ सम्मिश्रण इतना सहज हो गया है कि उनका पृथक्करण करना अत्यंत जटिल कार्य है !
गाथाओं में अंतर रहने का एक कारण यह भी बना कि अनेक स्थलों पर पूर्णिकार ने गाथा को सरल समझकर उसका उल्लेख नही किया। जिनदासचूर्णि में अनेक स्थलो पर तिष्णि गाहाओ भाणियव्वाओ, सुगमं चैव का उल्लेख मिलता है। कहीं-कहीं गाथा की व्याख्या होने पर भी उसका संकेत नहीं दिया गया है। संभव है लिपिकर्ताओं द्वारा संकेत लिखना छूट गया हो ।
दशवैकालिकनियुक्ति एवं उसके भाष्य की गाथाओं का सही सही निर्णय करना अत्यंत कठिन कार्य था क्योंकि हरिभद्र द्वारा मान्य कुछ भाष्य गाथाओं को स्थविर अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में निर्युक्ति-गाथा माना है। इसके अतिरिक्त हरिभद्र की प्रकाशित टीका में जिन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है, वह भी अनेक स्थलों पर सम्यक् प्रतीत नहीं होता। अनेक नियुक्ति गाथाओं के आगे भी 'भाष्यम्' का उल्लेख है तथा कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं को भी नियुक्ति गाधा के कम में जोड़ दिया है । हरिभद्र ने अपनी टीका में भाष्य गाथा के लिए 'आह' भाष्यकार: ' ऐसा संकेत प्रायः नहीं दिया है। नियुक्ति - त गाथा के संपादन - काल में अनेक चिंतन के बिंदु उभरकर सामने आए, जिनके आधार पर हमने गाथाओं बारे में निर्णय लिया है कि यह प्राचीन होनी चाहिए या प्रक्षिप्त भाव्यगाथा होगी चाहिए अथवा निर्युक्तिगाथा । यद्यपि गहन चिंतन-मनन के बाद भाष्य और नियुक्ति की गाथाओं का पृथककरण किया गया है फिर भी इसे अंतिम प्रमाण नही कहा जा सकता । प्रकाशित होने पर अनेक गाथाओं के बारे में स्पष्ट अनुभूति हुई कि ये गाथाएं प्रक्षिप्त होनी चाहिए। लेकिन प्रकाशित होने के बाद उनके कम में अंतर करना संभव नहीं था अतः यहां कुछ गाथाओं के बारे में दिमर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, साथ ही गाथा - संख्या के निर्धारण में प्रयुक्त मुख्य बिंदुओं को भी प्रस्तुत किया जा रहा है—
१. किसी गाथा के लिए जहां चूर्णिकार ने 'एत्थ निज्जुत्तिगाहा' का उल्लेख किया है, वहां
१. उ ८/१७ ।
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नियुक्तिपंचक टीकाकार ने 'एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:' का संकेत दिया है। ऐसी विवादास्पद गाथाओं को हमने लू प्रसंग, णैर्वापर्य एवं पूर्ण की प्राचीनता—इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए नियुक्तिगाध के कम में रखा है। उदाहरणार्थ देखें गा. दरनि २२० । इसी प्रकार दशनि गा. ३४५ के लिए। दोनों चू िकारों ने इमा उवग्घातनिज्जुतिपदमगाहा तथा टीकाकार ने 'एतदेवाह भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। इस या को भी हमने नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है।
दशकालिका में कुल मालाएं ऐसी हैं जिनको हमने भाष्यगाथा के क्रम में रहा है। ये गाथाएं प्रकाशित टीका में निर्युक्त-गाथः के क्रम में हैं, किन्तु चूर्णि में इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता। हमने हेतु पुररसर उनको भाष्यगाथा सिद्ध किया है। देखें.....८९/१. ९५/३, ९६/२. १७/१. १२०/१, १२३/१, १५१/१, २१९/१, २१८/१ गाथाओं के टिप्पण। ये गाथाएं केवल व्याख्यारूए हैं,इनको मूल कम में न रखने से भी चालू विष्य-अस्तु में कोई अंतर नहीं अतः । उदाहरणार्थ गा. ९७/१ भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि पा के उत्तर में 'गुरुराह अतएव' ला उल्लेख किया है। भाष्यकार ही नियुक्तिकार के बारे में ऐसा कह सकते हैं अन्यथा नियुक्तिकार यदि इस शब्दावलि के कहें तो मूल सूत्र के साथ इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता. दूसरी बात इस गाथ' की विषय-वस्तु अगली गथा में प्रतिपादित है अतः यह भाष्यगाथा होनी चाहिए।
२. कही-कहीं टीका की मुद्रित प्रति में प्याओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है किन्तु चूर्णि में वे गाधाएं स्पष्ट रूप रो नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं। छंद, विषय-वस्तु और रचना-ौली की दृष्टि से भी थे नियुक्ति-गाथा की कसौटी पर खरी उतरती हैं। हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है कि ये नियुक्ति की गाथाएं हैं अथवा भाष्य की? लगता है मुद्रित टीका में संपादक ने स्वयं ही गाथाओं के आगे 'भाष्यम् का उल्लेख कर दिया है अत: उसको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । दशवैकालिकनियुक्ति में अनेक भाष्य गाथाओं को हमने सप्रमाण एवं सतर्क नियुक्ति गाथ: के क्रम में रखा है। देखें दशनि ना. ९०, ९१, १२६, १९७, २०१-२०६, २०९, २१०, २१६ । उत्तराधम्यननियुक्ति २०३-२७ तक की गाथारों के लिए टीकाकार ने वैकल्पिक रूप से भाष्यगाथा का उल्लेख लिया है। यद्यपि ये भगष्य-गाथाएं अधिक संभाषित हैं पर हमने इनको नियुक्ति-गाथा के कम में रखा है। उनि गा. २२७ में 'सगलनिउणे पयत्थे जिणचउदसपुवि भासंति का उल्लेख भी स्पष्ट करता है कि ये गाया। बाद में किसी आचार्य द्वारा रचित हैं। अन्यथा चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु अपने बारे में ऐसा उल्लेख नहीं करते। हमने इनको नियुक्तिगाधा के कम में रखा है।
३. दशावकालिकनियुकिा में कहीं-कहीं द्वारगाथाओं में उल्लिखित द्वार के आधार पर भी हमने गाथाओं का निर्णय किया है। जैसे—दशनि गा १३, १४, १८ ये तीन गाथाएं चूर्गि में निर्दिष्ट नहीं हैं। ६ दलसुखभाई मालवणिया ने इन्हें हरिभद्रकृत माना है किन्तु इन्हें हरिभद्र की रचना नहीं माना जा सकता क्योंकि हरिभद्र ने १३ वीं गाथा के प्रारम्भ में 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति' का तथा १४ वीं के प्रारम्भ में 'चाह नियुक्तिकार:' का उल्लेख किया है। यदि वे स्वयं रचना करते तो ऐसा उल्लेख नहीं करते। ये दोनों नियुक्ति की गाथाएं हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि १२ वी द्वारगाथा के जत्तो' द्वार की व्याख्या वाली गाथाएं जत्व चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण हैं तब 'जेण' और 'जावंति द्वार का रराष्टीकरण करने वाली गाथाएं भी नियुक्तिकार द्वारा रथित होनी चाहिए। पूर्णोि में निर्दिष्ट न होने पर भी हमने इनको नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है।
४. दशकालिकनियुक्ति की अनेक गाथाएं चूर्णि में गाया रूप में निर्दिष्ट नहीं हैं किन्तु उनका भावार्थ चूर्णि में मिलता है। ऐसी गाथाओं के बारे में दो विक: प उभरकर सामने आते हैं. .
(क) पूर्णि की व्याख्या के आधार पर बाद के आचार्यों में गाथा की रचना कर दी हो। (ख) अथवा लिपिकार द्वारा चूर्गि में गाथा का संकेत छूट गया हो।
उदाहरण स्वरूण गा, ४०, ४२ से ४५ इन पंचों गाथाओं का चूर्णि में भावार्थ एवं व्याख्यः है पर गाथा का संकेत नहीं है किन्तु ये गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए क्योंकि इनमें सूत्रगत शब्दों की व्याख्या है। इसके अतिरिक्त अगस्त्यसिंह पूर्णि पृ. ११ पर २० वीं गाथा की व्याख्या में कहा है कि संयम और तप नियुक्ति विशेष से कहे जाएंगे। इन गाथाओं में धर्म, संपन एवं तप की व्याख्या है। गा. ३९ में लौकिक धर्म का निरूपण है अत: लोकोत्तर धर्म की व्याख्या करने वाली ४७ वी गाथा भी नियुक्ति की होनी चाहिए। इसी प्रकार ५० से ८५ तक की ३६ गाथाओं का भी चूणि में 'भावार्थ है पर गाथाएं नहीं हैं । हमने विषय की संबद्धता एवं टीकाकार की व्याख्या के आधार पर इनको नियुक्तिनाथा के क्रम में रखा है।
५. कही-कहीं किसी गाथा की व्याख्या चूणि एवं टीका दोनों में नहीं मिलती लेकिन हस्तप्रतियों में वह गाथा मिलती है। ऐसी गाथाओं को हनने प्राय: नियुक्तिगाथा के क्रम में नही जोड़ा है क्योंकि हरत आदर्शो में लिपिकारों द्वारा प्रसंगवश नियुक्ति-गाथा के साथ अन्य अनेक गाथाएं भी लिख दी गयी हैं। जैसे—देखें गा. दशनि २२१/१. २६४/१, उनि २८/१. दनि ३३/१.२.४४/१, ६४/१ आदि । लेकिन कहीं-कही व्याख्याकारों द्वारा व्याख्यात न होने पर भी आदर्शगत गाथा को अपना-शैली एवं विषय की संबद्धता की दृष्टि से नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। जैसे—दशनि १४५५, २८५, उनि ४८, ३२०, आनि २२४, दनि २३ आदि । कही-कहीं कोई गाथा एक ही प्रति में मिली है तो भी विषय की संबद्धता के आधार पर उसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ दिया है। जैसे. -दशनि गा ३३९ केवल ब प्रति में मिलती है।
६. कहीं-कही भाष्य या अन्य व्याख्याग्रंथों की गाधाएं भी नियुक्ति गाथाओं के साथ मिल गयी हैं। लिपिकर्ताओं द्वारा स्मृति के लिए हासिए ने प्रसंगवश विषय से संबद्ध गाथाएं लिख दी गधीं जो बाद में मूलग्रंथ के साथ मिल गयीं। अनेक स्थलों पर ऐसी गाथाओं को हमने नियुक्ति के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। जैसे दशनि २/१, १५७/१। इसी प्रकार दशनि २५/१, २ ये दोनों गाथाएं विशेषावश्यक भाग्य की हैं किन्तु टीका में इनके लिए 'आह नियुक्तिकार:' का उल्लेख है। इरा उल्लेख से संभव लगता है कि हरिभद्र के समय तक ये गाथाएं नियुक्तिमाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गयी थी लेकिन हमने इनको नियुक्त्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। चूर्णि में भी ये गायाएं नियुक्त्तिगाथा के रूप में निर्दिष्ट नहीं हैं।
७. कहीं-कहीं चूर्णि में माथा का उल्लेख एवं व्याख्या नहीं है लेकिन टीकाकर ने उन गाथाओं को 'आह नियुक्तिकार:' 'अधुना नियुक्तिकारों, नियुक्तिकृदाह', 'चोक्तं नियुक्तिकारेण' आदि उल्लेखपूर्वक नियुक्त्तिगाथा रूप में स्वीकृत किया है। संभव है कि टीक कार के समय तक ये गाथाएं नियुक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थी अत: टीकाकार को प्रमाण मानकर हमने ऐसी गाथाओं को
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नियुक्तिपंचक निर्युनित्त-गाथा के क्रम में रखा है। जैसे -दशनि मा. १-७. ११. १०६-१३, उनि गा. ६५, सूनि गा. ५१.५३ आदि।
उहीं फहीं टीकाकार ने गाथा के संबंध में कुछ निर्देश न भी दिया हो तो भी कुछ गाथाओं को केवल प्रकाशित टीला और हस्तप्रतियों के आधार पर निर्मुक्ति के क्रम में स्वीकार किया है जैसे दशनि गा. ९३ । गा. २३ विषय की दृष्टि से गा. ९४ से संबद्ध है। इसको नियुक्ति-गाधा के क्रम में नहीं रखने से विष्णयक्रम में असंबद्धता का अनुभव होता है। कहीं-कहीं स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि चूर्गिकार द्वारा गाथा का संकेत छूट गया है अथवा गाथा को सरल समझकर उसकी व्याख्या नहीं की गयी है। जैसे दशनि १४५. ३०९ | लेकिन कहीं-कहीं हस्तप्रतियों और टीका में संकेतित तथा चूर्णि में अनुल्लिखित और अध्याख्यात गाथाओं को विषय-वस्तु की असंबद्धतः और व्याख्यापरकता के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में नहीं भी जोड़ा है जैसे दशनि गा २४०/१, ३०७/१, ३१५/१।।
८. चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित गाथा को भी कहीं-कहीं हमने नियुक्ति के क्रम में नहीं रखा है। इसका कारण है विषय-वस्तु एवं भम्बा-शैली की भिन्नता । जैसे—दशनि गा. २११/१ को आचार्य हरिभद्र ने 'वृद्धास्तु व्याचक्षते' उल्लेखपूर्वक उद्धृत गाथा के रूप में रखा है। यह गाथा चूर्णिकार द्वारा रचित है अथवा काय के प्रसंग में पहेली के रूप में बाद के किसी आवार्य द्वारा जोड़ी गयी है। इसे मूल क्रमांक में न रखने पर भी चालू विषय-वस्तु के क्रम में कोई अंतर नही आता है।
९. दशकालिकनियुक्ति की कुछ गाथाओं का संकेत जिनदास चूर्णि में है किन्तु अगस्त्यसिंह चूर्णि में नहीं है। ऐसी गाथाओं को जिनदास चर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में रखा है। जैसे गा. २६-३० इन पांच गाथाओं के बारे में अगस्त्यसिंह चूर्णि में कोई उल्लेख नहीं हैं लेकिन आचार्य जिनदास ने 'अज्झप्पस्साणयणं गाहाओ पंच भाणियच्याओ' का उल्लेख किया है।
१० कहीं-कहीं अन्य नियुक्तियों की भाष्ण-शैली के आधार पर भी नियुक्ति-गाथा का निर्धारण किया है। जैसे दशवैकलिकनिर्यक्ति की २४ वी गाथा चर्णि में उपलब्ध होने पर भी मनि पण्यविजयजी ने इसे उपसंहारात्मक एवं संपूर्ति रूम मानकर नियुक्ति-गाथा के क्रम में नहीं रखा है लेकिन हमने उत्तराध्ययन नियुक्ति (गा.२७) की भाषा-शैली के आधार पर इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है।
११. दशवैकालिकनियुक्ति की ३३ वीं गाथा अगस्त्यसिंह चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में नहीं है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि चूर्णि में पुष्प के एकार्थक शब्दों के आधार पर हरिभद्र ने इसे पद्यबद्ध कर दिया। पर यह संभव नहीं लगता क्योंकि यदि वे स्वयं इस गाथा को बनाते तो 'पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनाया ऐसा उल्लेख नहीं करते। इसके नियुक्ति-गाश होने का दूसरा हेतु यह भी है कि प्रथम अध्ययन का नाम दुमपुफियं है अत: दुग शब्द के एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक यहां प्रासंगिक हैं। सभी हतप्रतियों में भी यह गाथः मिलती है।
१२. टीकाकार ने जिस गाधा को भिन्नकर्तकी के रूप में स्वीकार किया है, उसे भः विषय की संबद्धता एवं पूर्ण के आधार पर नियुक्त्ति-गाथा के कम में रखा है. जैसे दशनि मा. १८५ ।
१३ कहीं-कहीं एक ही कथा का भाव पुनरुक्ति के साथ दो गाथाओं में मिलता है। वहां यह संभव लगता है कि चूर्णि की कथा के आधार पर कथा की स्पष्टता के लिए बाद में गाथा जोड़ दी गयी क्योंकि
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नियुक्तिकार कथा का संकेत मात्र करते हैं। जैसे—दशनि १६३/१ गाथा में उल्लिखित कथा को १६४ वी गाथा से भी समझा जा सकता है। चूर्णि में भी १६३/१ गाथा का संकेल नहीं है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के कम में नहीं जोड़ा है। अनेक स्थलों पर पुनकित के आधार पर भी गाथा का निर्धारण किया गया है।
___गा. ४१६/9 में प्रतिपादित विषय की एनरक्ति अगली गाथाओं में हुई है। दोनों चूर्णियों में भी इस गाथा का संकेत नहीं है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के कम में नहीं रखा।
१४. दशवकालिक की प्रथम चूलिका की चूर्णि में दो गाधाएं (३३७,३३८) मिलती हैं किन्तु टीका में उसके स्थान पर एक ही गाथा मिलती है। व्यास्था की दृष्टि से टीकाकार ने चर्णि में आई म.थाओं की ही व्याख्या की है अत: हमने चूर्णि के आधार पर टीका बाली गाथा को पादटिप्पण, में देकर उसे नियुक्ति क्रम में संलग्न नहीं किया है।
१५. उत्तराध्ययननियुक्ति में कथाओं के विस्तार वाली गाथाओं का प्राय: चूर्णि में संकेत नहीं है। अधिक संभव लगता है कि वे गाथाएं कथा को स्पष्ट करने के लिए बाद में जोड़ी गयी हों। लेकिन हमने कथानक की सुरक्षा एवं ऐतिहासिक दृष्टि से उन गाथाओं को नियुक्त्ति-गाधा के क्रम में जोड़ा है, जैसेउनि ३५६-६६ ।
इसी प्रकार आषाढभूति की कथा (उनि १२४-४१) में १८ गाथ्यएं स्पष्टतया बाद में जोडी गयी प्रतीत होती है क्योंकि २२ परीषहों की प्राय: कथाएं १ या २ गाथाओं में निर्दिष्ट हैं। ये गाथाएं भाषा-शैली एवं छंद की दृष्टि से भी अतिरिक्त प्रतीत होती हैं। लेकिन हमने इनको नियुक्ति-गाथा के क्रमांक में जोड़ा है।
१६. कुछ गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा के क्रम में होने के बावजूद स्पष्ट रूप से प्रक्षिप्त लगती हैं। जैसे पांचालराज नग्गति इंद्रकेतु को देखकर प्रतिबुद्ध हुए लेकिन उनके बारे में चन्द्रमा की हानि-वृद्धि तथा महानदी की पूर्णता और रिक्तता का उदाहरण बताने वाली गाथा टीका में मिलती है। संभव है कि अनित्यता को दर्शाने वाली यह गाथा बाद में जोड़ी गयी हो.देखें उनि २६२/१। उसी प्रकार उनि गा. ४७८/१.२ ये दोनों गाथाएं भी आवश्यकनियुक्ति या उत्तराध्ययन सूत्र से लिपिकारों या अन्य आचार्यो द्वारा बाद में जोड़ी गयी हैं।
१७.कहीं-कहीं संग्रह गाथाओं को भी नियुक्तिकार ने अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है। भगवती एवं पण्णवणा आदि ग्रंथों की कुछ संग्रहणी गाथाओं का नियुक्तियों में समावेश है। उन गाथाओं को हमने नियुक्ति-गाथा के क्रम में संलग्न किया है, जैसे—उनि गा. ४१९-२१।।
१८. कहीं-कहीं प्रसंगवश अतिरिक्त गाथाएं भी नियुक्ति का अंग बन गयी हैं। जैसे—अचेल परीषह के अंतर्गत आर्यरक्षित की कथा में उनि गा. ९५. ९६ अप्रासंगिक या बाद में प्रक्षिप्त सी लगती हैं। चूर्णि और टीका में इन दोनों गाथाओं से सबन्धित कथा का उल्लेख नहीं है। ये गाथाएं दनि गा ९५, ९६ की संवादी हैं। इन गाथाओं से संबंधित कथाएं निशीथ पूर्णि में विस्तार से मिलती हैं।
१९. उत्तराध्ययन के अकाममरणीय अध्ययन की नियुक्ति में २०३ से २२७ तक की गाथाएं प्रक्षिप्त अथवा बाद के किसी अचार्य द्वारा रचित होनी चाहिए क्योंकि आगे के अध्ययनों में नियुक्तिकार ने किसी
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नियुक्तिपंचक्र भी विषय की इतनी विस्तृत व्याख्या नहीं की है तथा गाथा २१९ में २२८ जी गाथा के विषय का ही पुनरावर्तन हुआ है।
२०. मंगलाचरण की कुछ माया बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं। इसका प्रमाण है आचारांगनियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा। यह माया केवल टीका एवं हस्तप्रतियों में मिलती है। चूर्णकार ने इस गाथा का न कोई संकेत दिया है और न ही व्याख्या प्रस्तुत की है। तीसरी गाथा के बारे में चूर्णिकार ने 'एसा बितियगाहा' का उन्लेख किया है। वैसे भी मंगलाचरण की परम्परा बहुत जाद की है अत: बहुत संभव है कि गह गाधः ताद के आचार्यों या द्वितीय भद्रबाहु द्वारा जोड़ी गयी हो। लेकिन वर्तमान में रह गाथ नियुक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है अत: हमने इसको नियुक्त्ति-गाथा के क्रम में जोड़ा है।
२१. आधारांगनियुक्ति की अनेक गाथाओं का चूर्णि में कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है क्योंकि वह संक्षिप्त शैली में लिखी गयी है अत: अनेक स्थानों पर 'णवगाहा कंठ्या' अथवा 'निज्जुत्तिगाहाओ पडियसिद्धाओ' मात्र इतना ही उल्लेख है। इसलिए ऐसा अधिक संभव लगता है कि संक्षिप्तता के कारण चूर्णिकार ने अनेक सरल गयाओं के न संकेत दिए और न व्याख्य' ही की। पर हमने उनको निर्यक्ति-गाथा के क्रम में रखा है।
२२. उद्देशकाधिकार तथा अध्ययनगत विषय या शब्द की व्याख्या करने वाली गाथाओं के क्रम में कहीं-कहीं चूर्णि एवं टीका में कम-व्यत्यय है। आचारांग एवं सूत्रकृतांग निर्युक्ति के अंतर्गत चूर्णि में पहले उद्देशकों की विषय-वस्तु निरूपण करने वाली गाथाएं है तथा बाद में अध्ययन से संबंधित गाथाएं हैं। टीका में इससे उल्टा कम मिलता है। औचित्य की दृष्टि से हमने चूर्णि का क्रम स्वीकृत किया है, देखें सूनि . २९-३२ तथा ३६-४१। ऐसा अधिक संभव लगता है कि टीकाकार ने व्याख्या की सुविधा के लिए क्रम-व्यत्यय कर दिया हो। आचारांगनियुक्ति में एक स्थल पर टीका क. क्रम स्वीकार किया है लेकिन वहां भी चूर्णि का क्रन सम्यग् लगता है, देखें आनि गा. ३२९-३५ ।
__ गाथाओं के क्रम-व्यत्यय वाले स्थल में विषय की संबद्धता के आधार पर भी गाथा के क्रम का निर्धारण किया है, जैसे—अनि २९७ का संकेत चूर्णि में गा. ३८३ के बाद है पर औचित्य की दृष्टि से टीकः और हस्तप्रतियों का क्रम ठीक प्रतीत हुआ अत: हमने उसी क्रम को स्वीकृत किया है।
२३. आचारांगनियुक्ति की गा. १९७ को हमने नियुक्ति के मूल क्रमांक में जोड़ा है पर वस्तुतः यह बाद में उपसंहार रूप में किसी आचार्य द्वारा प्रक्षिप्त की गयी है। इसका कारण यह है कि १९७ वीं गाथा में द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन है जबकि उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन तो आनि गा. १७३ में पहले ही किया जा चुका है अत: यह पुनरुक्त सी प्रतीत होती है। टीकाकार ने इस गाथा के लिए नियुक्तिकारो गाथयाचष्टे' का उल्लेख किया है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है।
आचारांगनिमुक्ति में २२८ से २३५ तक की गाथाएं भी बाद में जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं क्योंकि गा. २२७ के अंतिम चरण में स्पष्ट उल्लेख है कि 'सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती' अर्थात् यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। ऐसा उल्लेख करने के पश्चात् कथापरक इन सात गाथाओं का उल्लेख अप्रासंगिक सा
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण लगता है। कथा से संबंधित इन गाथाओं को नही रखने से विषय-वस्तु की दृष्टि से कोई अंतर नहीं आता। चूर्णि में भी ये ग्यारं निर्दिष्ट एवं व्याख्यात नहीं हैं।
आचारांगनियुक्ति गा २७९ , बाद में किसी आचार्य या लिपिकार द्वारा प्रसंगवश जोड़ ई गयी प्रतीत होती है। चालू प्रसंग में मोक्ष का वर्णन है अतः बंध का स्वरूप प्रकट करने वाली यह था स्मृति के लिए आदर्शों में लिखी गयी होगी, जो कालान्तर में हस्त-ग़दर्शो में मूल के साथ जुड़ गयी। इस मया को नियुक्ति के कमांक में न जोड़ने पर भी चालू विषय- पस्तु में कोई व्यवधान नहीं आता। इस गया क. पूर्ति और ही दोनों पक्षण रामों में पाया नहीं है। ३१८-२० तक की तीन गाथाएं भी भाषा-शैली की दृष्टि से भिन्न प्रतीत होती है अत: बाद में प्रक्षिप्त होनी चाहिए।
इसी प्रकार सूत्रकृतांगनियुक्ति गा. १५२ को यपि हगने नियुक्ति-गाथा के कगांफ में जोड़ा है लेकिन ये बाद में प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं क्योंकि टीक में यह मूल कमांक में न होकर टिपा में दी गई है। इसके अतिरिक्त यह गा. १४९७ की संवादी है अतः पुन रक्त सी प्रतीत होती है।
२४. सूत्रकृतौगनियुक्ति में ११-१३ ये तीन गाथाएं प्रकाशित चूर्णि में उद्धृत गाथा के रूप में हैं लेकिन ये निमुक्त्तिगाथाएं होती चाहिए क्योंकि दसवीं गायः दो उत्तरार्ध में 'ओहेण नामतो पुण भवति एक्कारसक्करणा' का उल्लेख है अतः ग्यारह करणे के नामोल्नेल वली ये तीनों गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए। दूसरा विकल्प यह भी संभव है के करण के प्रसंग में उत्तरध्ययननियुक्ति में ये गाथाएं आ चुकी हैं अतः पुनरुक्ति भय से इन गाधाओं को सूत्रकृतांगनियुक्ति में सम्मिलित न किया हो।
२५. प्रकाशित चूणि में कहीं-कहीं गाथा की व्याख्या एवं गाथा-संख्या मिलती है पर गाथा नहीं मिलती। संपादक मुनि पुण्यविजयजी ने गाथा न होने पर भी व्याख्या के आधार पर गाथा-संख्या का कमांक लगा दिया है। टीका और आदर्श में गाथा न मिलने के कारण ऐसे संबभर्मों में हमने गाथा का कमांक नहीं लगाया है, देखें सूनि गा. २२ का टिप्पण।।
२६. सूनि गा. १६३-६५ तक की तीन गाधाएं भी बहुत संभव है कि बाद में जोड़ी गयी हों क्योंकि भूल कथ्य गा. १६२ में आ गया है। लेकिन टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए नियुक्तिऋदर्शयितुमाह का उल्लेख किया है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उनके समय तक ये गाधार नियुक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्धि पा चुकी थी। वर्तमान में ये नियुक्ति का अंग बन गयी हैं अतः हमने इनको नियुक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ दिया है।
२७. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के पज्जोसवणाकप्प की नियुक्ति का पूरा प्रकरण निशीथभाष्य में भी मिलता है। निशीथभाष्य में कहीं-कहीं बीच में अतिरिक्त गाथाएं भी हैं। दनि मा. ८८ का संकेत दूर्ण में न होने पर भी व्याख्या उपलब्ध है। हस्तप्रतियों में भी यह गाथा नहीं है परन्तु भाष-शैली एवं विषय-वस्तु से संबद्ध होने के कारण निशीथभाष्य (३१३५ ) में प्राप्त इस गाथा को हमने नियुक्त के कमांक में जोड़ा है। संभव है लिपिकारों द्वारा मूल प्रति में किसी कारणवश इसका संकेत छूट गया हो ।
कुछ अतिरिक्त गाथाएं,जो हमें बालू कग में विषय-वस्तु के प्रतिकूल या व्याख्यापरक लगी, उनको
१. मुनि पुष्यविजय की संपादित चूर्णि में २० का क्रमांक है।
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नियुक्तिपंचक हमने नियुक्ति के कम में नहीं जोड़ा है, जैसे—दनि ८२/३ (निभा ३१६९), १०४/५ (निभा ३१९२) ।
यद्यमि गाथा-संख्या का निर्धारण पाठ-संपादन से भी जटिल कार्य है किन्तु हमने कुछ बिंदुओं के आधार पर गाथाओं के पौधिर्य एवं उनके प्रक्षेत्र के बारे में विमर्श प्रस्तुत किया है। भविष्य में इस दिशा में चिंतन की दिशाएं खुली है, इस संदर्भ में और भी चिंतन किया जा सकता है। नियुक्ति में निक्षेप-पद्धति
निक्षेप व्याख्यान-अर्थ-निर्धारण की एक विशिष्ट पद्धति रही है। न्यास और स्थापन. इसके पर्यायवाची शब्द हैं। निक्षेप शब्द का निरुक्त करते हुए जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण करते हैं कि शब्द में नियत एवं निश्चित अर्थ का न्यास करना निक्षेप है। जीतकल्यभाग्य के अनुसार जिस वचन-पद्धति में अधिक क्षेप/विकल्प हों, वह निक्षेप है।' अनुयोगदारचूर्णि में अर्थ की भिन्नता के विज्ञान को निक्षेप कहा है। धवलाकार के अनुसार संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय में स्थित वस्तु को उनसे हटाकर निश्चय में स्थापित करना निक्षेप है। आचार्य तुलसी.ने शब्दों में विशेषण के द्वारः प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करने को निक्षेप कहा है।
भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में निक्षेप जैन आचार्यों की मलिक देन है। पांडित्य प्रदर्शित करने का यह महत्त्वपूर्ण उपक्रम रहा है। इस पद्धति से गुरु अपने शिक्षण को अधिक समृद्ध बनाता है। वह शब्दों का अर्थों में तथा अर्थो का शब्दों में न्यास करता है अत: किसी भी वाक्य या शब्द का अर्थ करते समय वक्ता का अभिप्राय क्या है तथा कौन-सा अर्थ किस परिस्थिति में संगत है, यह निश्चय करने में निक्षेप की उपयोगिता है। निक्षेप के बिना व्यवहार की सम्यग् योजना नहीं हो सकती क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनंत पर्यायात्मक है। उन अनंत पर्यायों को जानने के लिए शब्द बहुत सीमित हैं। एक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है अत: पाठक या श्रोता विवक्षित अर्थ को पकड़ नहीं पाता। अनिर्णय की इस स्थिति का निराकरण निक्षेप-पद्धति के द्वारा किया जा सकता है।
निक्षेपों के माध्यम से यह ज्ञान किया जा सकता है कि अमुक-अमुक शब्द उस समय किन-किन अर्थों में प्रयुक्त होता था। जैसे समाधि शब्द का अर्थ आज चित्तसमधि या प्रसन्नता के लिए किया जाता है लेकिन सूत्रकृतांग निर्युक्त में किए गए निक्षेपों के माध्यम से विविध संदर्भो में समाधि के विभिन्न अर्थों को समझा जा सकता है। जैसें मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो इंद्रियों की तुष्टि होती, उसे समाधि कहा जाता था। परस्पर अविरुद्ध दो या अधिक द्रव्यों के सन्मिश्रण से जो रत की पुष्टि होती. उसे भी समधि कह जाता था। जिस द्रव्य के खाने या पीने से शक्ति या सुख प्राप्त होता,उसे समाधि प्राब्द से अभिहित किया जाता था। तराजू के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों पलड़े समान हों, उसे भी समाधि की संज्ञा दी जाती थी। जिस क्षेत्र अथवा काल में रहने से चित्त को शांति मिलती, उसे समाधि कहा जाता तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में स्थिति को भी समाधि कहा जाता था। १ विभा ९१२।
निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः। २ जीतभा ८०९: त्रिव पेरणे तु भणितो अतिउक्लेको त निक्लेवो। ५. जैनसिद्धान्तदीपिका १०/४:शब्देष विशेषण३ अनुवाचू निक्खेव अत्यभेदन्यास।
बलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपयनशक्तेनिक्षेपण ४. धग्ला: सशविपर्यये अनध्यवसाये या स्थितस्तेभ्योऽपसार्य निक्षेपः।
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निक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण इस प्रकार समाधि शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता था। कहा जा सकता है कि निक्षेपों के माध्यम से हम उस शब्द का इतिहास जान सकते हैं। धवला में निक्षेप की उपयोगिता के चार कोण तताए हैं
१. पर्यापार्थिक दृष्टि बाला अव्युत्पन्न श्रोता है तो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिए
निक्षेप करना चाहिए। २. द्रव्यार्थिक दृष्टि वाले श्रीता के लिए प्रकृत अर्थ का निरूपण करने के लिए निक्षेप करना
चाहिए। ३. व्युत्पन्न होने पर भी यदि संदिग्ध है तो उसके संदेह का निरकरण करने के लिए निक्षेप
करना चाहिए। ४ यदि श्रोत विपरस्त है. से तत्वार्थ-विनिश्चय के लिए निक्षेप करना चाहिए।
निक्षेप वस्तुत: अनुयोग का ही एक प्रकर है. जिसके अंतर्गत उपक्रम, अनुगम और नय का भी समावेश किया गया है। उपोद्घातनियुक्ति में १२ प्रकार से किसी भी विषय की व्याख्या की जाती है, उसमें निक्षेप को प्रथम स्थान प्राप्त है । यद्यपि निक्षेप अतिप्राचीन व्याख्या पद्धति है क्योंकि भगवती जैसे आग ऐथ में इस पद्धति का उपयोग हा है पर निर्याक्तकार ने शाब्दिक ज्ञान कराने हेतु इस पोत का बहुलता से उपयोग किया है। एक ही प्राकृत शब्द के कई संस्कृत रूप संभव है अत: निक्षेप-पद्धति के द्वारा नियुक्तिकार उस शब्द के सभी अप्रासंगिक अर्थों का ज्ञान कराकर प्रासंगिक अर्थ का ज्ञान कराते
सामान्यतया आवश्यकता के अनुसार अनेक निक्षेप किए जा सकते है लेकिन इसके चार भेद प्रसिद्ध हैं—१. नाम २ स्थापना ३. द्रव्य ४. भाव। अनुयोगद्वार में मुख्यत: चार प्रकार के निक्षेपों की चर्चा है पर नियुक्ति-साहित्य में उत्तर, समय, स्थान आदि शब्दों के उत्कृष्टत: १५ निक्षेप भी किए गए हैं। शान्त्याचार्य के अनुसार इन घर निक्षेपों में सभी निक्षेपों का समावेश हो जाता है। इनसे अधिक निक्षेप करने के दो प्रयोजन हैं
१ शिक्षार्थी की बुद्धि को व्युत्पन्न करना। २. सब वस्तुओं के सामान्य-विशेष और उभयात्मक अर्थ का प्रतिपादन करना।
चार निक्षेप में प्रथम दो---नाम और स्थापना का उपयोग एवं व्याख्या बहुत सीमित है किन्तु द्रव्य और भाव निक्षेप की विस्तृत व्याख्या मिलती है।
सामान्यतया शब्द किसी व्यक्ति या वस्तु का वाचक होता है। प्राब्द के इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही नाम निक्षेप की कल्पना की गयी। नाम निक्षेप जाति, गुण, द्रव्य और किया से निरपेक्ष होता है। यह निक्षेप शुद्ध भाषात्मक पक्ष है। कल्पना के माध्यम से किसी आकार में वस्तु का आरोप करना स्थापना निक्षेप है। ये दोनों निक्षेप वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। वस्तु की त्रैकालिक स्थिति को प्रकट करने वाला द्रव्य निक्षेप है अत: इसकी परिधि बहुत व्यापक है। भाव निक्षेप जैन साधना-पद्धति का
१. धवला १/१. १. १/३०.३६; अवगतनिवारणलं. परदस्स गझवणानिमित्तं च । संसयविष्टासाटुं. तच्चत्ध्वधारणहूं च।। २. बृभा १४९: निक्शेवेगट्ठ-निरुत्त-विहि पवित्तीय केण वा कस्स । तद्दार-भेय-लक्खपण, तदरिहपरिसा य सतत्यो।। ३. आनि ४: जत्ध य ज जाणेज्जा, निक्लेवं निविलवे निरवसेस । जत्थ वि प ण जाणेज्जा, चउक्कग निक्खिवे तत्थ।।
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नियुक्तिपंचक बोधक है। वरतु के यथार्थ रवरूप का बोध इसी के द्वारा होता है। कोई भी शब्द या ज्ञान तब तक केवल द्रव्य तक सीमित है, जब तक उसमें उपयोग की चेतना या तन्मयता नहीं जुड़ती। भाव निक्षेप में भाषा और भाव की संगति होती है।
संसार का सारा व्यवहार निक्षेप-पद्धति से चलता है। बच्चा जब जन्म लेता है,तब वह केवल नाम निक्षेप के जगत् में जीता है। थोड़ा बड़ा होने पर वह उसमें कल्पना द्वारा किसी वस्तु की स्थापना करता है, जैसे—प्लास्टिक की गुड़िया में मां या बहिन की स्थापना। धीरे-धीरे वह त्रैकालिक ज्ञान करने में सक्षम हो जाता है और बाद में बुद्धि की सूक्ष्मता और समझ विकसित होने पर वह भावनिक्षेप द्वारा व्यवहार चलाता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पर्याय के आधार पर नाम आदि चार निक्षेपों की एक ही वस्तु में अवस्थिति स्वीकार की है। अर्थात् वस्तु का अपना अभिधान नाम निक्षेप है। वस्तु का आकार स्थापना निक्षेप है। वस्तु भूत और भावी पर्याय का कारण है जवह द्रव्य निक्षेप है। कार्य रूप में विद्यमान वस्तु भावनिक्षेप है। निक्षेप अनेकान्त का व्यावहारिक प्रयोग है, जैसे अतीत में कोई धनी था, उसे वर्तमान में भी सेट कहा जाता है, यह असत्य बात हो सकती है लेकिन द्रव्य निक्षेप द्वारा यह भी संभव है।
निक्षेप न्याय शास्त्र तथा भाषा-विज्ञान के अंतर्गत अर्थ विकासविज्ञान (सेमेनेटिक्स) का महत्त्वपूर्ण अंग है। नियुक्तिकार ने ही अपनी व्याख्या-पद्धति में इसे अपनाया, परवर्ती व्याख्याकारों ने इस पर इतना ध्यान क्यों नहीं दिया, यह एक खोज का विषय है। अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित नियुक्ति की निक्षेप-पद्धति से प्रभावित रहे हैं. यह स्पष्ट है। कुछ विद्वान् अनुयोगद्वार को नियुक्ति से पूर्व की रचना मानते हैं।
नियुक्ति-साहित्य के अंतर्गत निक्षेप-पद्धति के बारे में यह एक चिंतन का विषय है कि प्रायः शब्दों का एक समान निक्षेप करने से क्या नियुक्ति की महत्ता कम नहीं हुई? जैसे उत्तराध्ययननियुक्ति में प्राय: सभी अध्ययनों के प्रारम्भ में निक्षेपपरक दो-तीन गाथाएं हैं, जो सभी अध्ययनों की समान हैं। इन गाधाओं के स्थान पर यदि मूलसूत्र के महत्त्वपूर्ण शब्दों या विषयों की व्याख्या होती तो इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता। गहराई से विमर्श करने पर प्रतीत होता है कि यह व्याख्या की विशिष्ट एवं वैज्ञानिक पद्धति रही। शब्द का सर्वांगीण ज्ञान कराने हेतु इसका प्रयोग किया जाता था, जिससे मंदबुद्धि शिष्य भी शब्द एवं अर्थ का सर्वतोमुखी ज्ञान करने में सक्षम हो सके।
नियुक्तिकार ने निक्षेप के माध्यम से तात्कालीन सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का भी निर्देश किया है जैसे सुत—सूत्र शब्द के निक्षेप में उस समय होने वाले अण्डज, पोंडज आदि विविध सूत्रों का ज्ञान कराया है। ब्रह्म शब्द के निक्षेप में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख है। इसी प्रकार कर्म, गुण, समय, अग्र, अंग, संयोग, धर्म, स्थान, करण आदि शब्दों के निक्षेप अनेक नई जानकारियां प्रस्तुत करते हैं। निक्षेप पद्धति से नियुक्तिकार ने केवल शब्द
१. विभा ७३; जं वत्थुमत्यि लोए, चउपजाप्यं तयं सव्वं । २. विभा ६०: अश्वा ब्युभिहाणं, गाम ठवण य ज तदगार।
कारणया से दळ, कज्जावन्नं तयं भावो ।।
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निर्मुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण और अर्थ के बीच होने वाली विसंगति का ही निराकरण नहीं किया बल्कि निक्षेपों के भेद-प्रभेदों से एक शब्दकोश भी तैयार कर दिया है। नियुक्ति-साहित्य से यदि निक्षिप्त गाथाओं को निकाल दिया जाए तो पीछे आधा भाग भी नहीं बचेगा। यदि नियुक्ति-साहित्य के निक्षिप्त शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की जाए तो एक बृहद् शोधग्रंथ प्रस्तुत किया जा सकता है। यहां हम केवल वीर्य, सम्यक् और शुद्धि—इन तीन शब्दों की निक्षेपपरक संक्षिप्त माया प्रस्तुत कर रहे हैं....
वीर्य
नाम
स्थापना
काल
भाव
सचित्त
अचित्त
1मश्र
द्विपद
चतुष्पद”
अपद
आहारवीर्य
आवरणवीर्य
प्रहरणवीर्य
रसीर्य
विपाकवीर्य क्षेत्रवीर्य:- जिस क्षेत्र की जो शक्ति होती है, वह क्षेत्रवीर्य कहलाती है। अथवा जिस क्षेत्र में वीर्य की
व्याख्या की जाती है, वह भी क्षेत्रवीर्य है। जैसे देवकुरु आदि क्षेत्र में सभी पदार्थ उस क्षेत्र के प्रभाव से उत्तम वीर्य वाले होते हैं। अथवा दुर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्र में वीर्य अत्यधिक उल्लसित
होता है, वह क्षेत्रवीर्य है। कालवीर्य-जिस काल में जो शक्ति होती है, वह कालवीर्य है। जैसे एकान्त सुषमा--प्रथम आरा कालवीर्य
है। विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति होती है। उदाहरणार्थ वैद्यक शास्त्र में कहा गया है—वर्षाकाल में लवण, शरद में जल, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, बसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़ अमृत के समान है। इसी प्रकार हरीतकी
हरड़ के भी काल के साथ विविध प्रयोग है। ग्रीष्म ऋतु में हरड़े के साथ बराबर गुड, वर्षाकाल में नमक, शरद् ऋतु में शक्कर, हेमन्त में सोंठ. शिशिर में पीपल तथा बसन्त
ऋतु में मधु का सेवन करने से पुरुषों के समस्त रोग दूर हो जाते हैं। भावदीर्य--वीर्यशक्ति वाले जीव में वीर्य संबंधी अनेक लब्धियां होती हैं। भाववीर्य के मुख्यत. तीन प्रकार
हैं—१. शारीरिक बल २. इंद्रिय दल ३ आध्यात्मिक बल। शारीरिक बल—इसके अंतर्गत मनोवीर्य, वाकवीर्य, कायवीर्य और आनापानवीर्य आदि का समावेश होता
है। यह संभव और संभाव्य.--दो प्रकार का होता है। संभव वीर्य , जैसे—तीर्थंकर और अनुत्तरविमान के देवों का मनोद्रव्य अत्यंत पटु और शक्तिशाली होता है। वचनबल में तीर्थकरों की वाणी योजनगामिनी होती है तथा कायबल में चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव
१. वीर्य की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें—नि ९१-९७: सूचू १ पृ १६३-६५, सूटी पृ ११०-१२ ।
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नियुक्तिपंचक आदि का बल जानना चाहिए। संभाव्य वीर्य में आज जो ग्रहण करने में पटु नहीं है,
उसकी बुद्धि का परिकर्भ होने पर वह ग्रहण-पटु हो जाता है। इंद्रिय बल-पांच इंद्रियों का अपने-अपने विषय के ग्रहण का सामर्थ्य इंद्रिय-बल है। आध्यात्मिक जल --भावनात्मक वैतन्य जगाने वाले तत्व आध्यात्मिक वीर्य हैं। नियुक्तिकार के अनुसार
आध्यात्मिक वीर्य के ९ प्रकार हैं, जो व्यक्तित्व-विकास के महत्त्वपूर्ण सूत्र हैंउद्यम वीर्य- ज्ञानोपार्जन एवं तपस्या आदि के अनुष्ठान में किया जाने वाला प्रयत्न । धृति वीर्य-संचम में स्थिरता, चित्त की उपशान्त अवस्था। धीरता वीर्य –काष्टों को सहने की शक्ति। शीडीर्य वीर्य त्याग की उत्कट भावनः, आपत्ति में अखिन्न रहना तथा विषम परिस्थिति में भी प्रसन्नता
से कार्य को पूरा करना। क्षमा वीर्य—दूसरों द्वारा अपमानित होने पर भी सम रहना। गाम्भीर्य वीर्य -चामत्कारिक अनष्ठान करके भी अहंभाव नहीं लाना। उपयोग वीर्य.. पाना का व्यापार करना। योग वीर्य- मन, वचन और काया की अकुशल प्रवृत्ति का निरोध तथा कुशल योग का प्रवर्तन । तपो वीर्य--बारह प्रकार के तप से स्वयं को भावित करना तथा सतरह प्रकार के संयम में रत रहना।
नियुक्तिकार ने प्रकारान्तर से भावबीर्य के तीन भेद किए हैं—१. पंडितवीर्य २. बालवीर्य ३. बाल-पंडितवीर्य । अयबा अगारवीर्य और अनगारवीर्य ये दो भेद भी किए जा सकते हैं।
__ निशीथ पीठिका में पांच प्रकार के वीर्य का उल्लेख मिलता है.-१. भववीर्य २. गुणवीर्य ३. चारित्रवीर्य ४ समाधिवीर्य ५. आत्मवीर्य । भववीर्य – चारों गतियों से संबंधित विशेष सामर्थ्य भववीर्य कहलाता है, जैसे- यंत्र, असि, कुंभी, चक,
कंडु, भट्टी तथा शूल आदि से भेदे जाते हुए महावेदना के उदय में भी नारकी जीवों का अस्तित्व विलीन नहीं होता। अश्वों में दौड़ने की शक्ति तथा पशुउरों में शीत, उष्ण आदि सहन करने का सहज सामर्थ्य होता है। मनुष्यों में सब प्रकार के चारित्र स्वीकार करने का सामर्थ्य होता है। देवों में पांच पर्याप्तियां पूर्ण होते ही यथेप्सित रूप विकुर्वणा करने की शक्ति होती है। वज्र-प्रहार होने पर भयंकर वेदना की उदीरणा मे भी उनका
विलय नहीं होता, यह सारा भववीर्य है। गुणवीर्य – तिक्त, कटु, कषाय, मधुर आदि औषधियों में जो रोगापनयन की शक्ति होती है, वह
गुणवीर्य है। नियुक्तिकार के अनुसार इसे द्रव्यवीर्य के अंतर्गत रसवीर्य और विपाकवीर्य
में रखा जा सकता है। चारित्रवीर्य--सम्पूर्ण कर्मक्षय करने का सामर्थ्य तथा क्षीराव आदि लब्धि उत्पन्न करने की शक्ति। समाधिवीर्य—मन में ऐसी समाधि उत्पन्न करना, जिससे कैवल्य की उत्पति हो अथवा सर्वार्थसिद्धि
१. सूनि ९७।
२. निभा ४७,
पृ. २६. २७ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पविक्षण
देवलोक में उत्पत्ति हो। इसके अतिरिक्त मन के अप्रशस्त समाधान से सातवी नारकी का
आयुष्य बंध करना भी समाधिदीर्य है। आत्मवीर्य—आत्मवीर्य दो प्रकार का है-.१. वियोगात्मबीर्य २. अवियोगात्मवीर्य संसारी जीवों के मन
आदि योग वियोगात्मवीर्य हैं। अविणेगात्मवीर्य उपयोग कहलाता है, वह असंख्य आत्म- प्रदेशों
से युक्त है। प्रकारान्तर से निशीय भाष्यकार ने वीर्य के पांच भेद किए हैं
१. बालवीर्य-असंयत का वीर्य | २. पंडितवीर्य- संयत क' बीर्य, संयमवीर्य या पंडिसवीर्य । ३. निरवीर्य-श्रावक का वीर्य, इसे संयमासंयम ठीर्य भी कहते हैं। ४. करणवीर्य उत्थान कर्म, बल एवं शक्ति का प्रयोग करना अथवः मन. ववन एवं काया की
प्रवृत्ति करना। ५. लब्धिवीर्य—जो संसारी जीव अपर्याप्तक अथवा खड़े रहने आदि की शक्ति से राक्त होते हैं. वह
लब्धिदीर्न है : यो भगवान् महातीर में विशाग की लधि को एक देश से पलित कर दिया था। चूर्णिकार के अनुसार इन पंच प्रकार के वीर्य से सर्बानुपाती वीर्य त्याप्ति होता है। निशीथभाष्य में वीर्य के जो भेद हैं, उनमें गुणवीर्य के छोडकर शेष सभी भेद निर्युवित्तकार
द्वारा निर्दिष्ट भावबीर्य के अंतर्गत रखे जा सकते हैं। सम्यक्
सम्यक् का अर्थ है सही लगनः । सात कारणों से कोई भी चीज सम्बक—अच्छी बनती है।' कृत – किसी अपूर्व या विशिष्ट वस्तु का निर्माण, जैसे..-रथ आदि का निर्माण। संस्कृत—जीर्ण-शीर्ण वस्तु को संस्कारित करना। संयुक्त.. दो द्रव्यों का संयोग, जे मन के लिए प्रीतिकर हो, जैसे-दूध और शर्करा का संयोग । प्रयुक्त—जिसका प्रयोग लभ अथवा समाधि के लिए हो । त्यक्त.. जिसको छोड़ना मानसिक प्रसन्नता का कारण हो, जैसे---शिर पर रखे भार को उतारना। भिन्न- जिन द्रव्यों का अलग होनः मानसिक समाधि का हेतु हो, जैसे -दही का पान टूटने पर कौवे
का प्रसन्न होना। छिन्न—अतिरिक्त वस्तु को अलग करना, जैसे—अधिक मांस को काटना। ये सब शारीरिक या
मानसिक समाधि के हेतु हों तो सन्यक हैं, अन्यथा अलम्यक हैं। शुद्धि
दर्शन के क्षेत्र में शौचवादी परम्परा का अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ज्ञात्ताधर्मकथा में इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त है। जैन दर्शन बाह्य शुद्धि को धर्म के साथ नहीं जोड़ता अत. भावशुद्धि को अधिक महत्व दिया गया है। दशकालिकनियुक्ति में निक्षेप के माध्यम से
शुद्धि का व्यवहारिक और सैद्धान्तिक विवेचन किया है। वहां द्रव्यशुद्धि के तीन भेद हैं. - १. नेभा ४८. पीठिका पृ. २६, २७ ।
२. आनि २१८. टी. पृ. ११७ ।
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Tum. Junामम
निर्गुक्तिपंचक १. तद्रव्य शुद्धि २. देशद्रव्य शुद्धि ३. प्राधान्यद्रव्य शुद्धि । जो वस्तु किसी अन्य द्रव्य से असंयुक्त रहकर शुद्ध रहती है, वह तद्व्य शुद्धि है, जैसे—दूध, दही आदि, इनमें दूसरी वस्तुओं का मिश्रग विकृति चैदा कर देता है। आदेशद्रव्य शुद्धि के दो प्रकार हैं—अन्य आदेशशुद्धि और अनन्य आदेशशुद्धि । शुद्ध कबडे वाले व्यक्ति की शुद्धि अन्य आदेशद्रव्य शुद्धि है क्योंकि इसमें अन्य द्रव्य के साथ शुद्धि जुड़ी हुई हैं। जिल्ने अन्य द्रव्य की अपेक्षा न हो, वह अनन्य अदेशद्रव्य शुद्धि है,जैसे पुद्ध दांतों गला व्यक्ति । अपने आने अभिप्राय के अनुसार जिसको जो अनकल लगे. वह प्राधान्ण्द्रव्य शद्धि है। प्रायः शक्ल वर्ण. मधुर रस. सुरभि गंध और मृदु स्पर्श उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते हैं। इसी प्रकार भावशुद्धि के भी तद्रव्य एति आदि हनोद है।
कहा जा सकता है कि निक्षेप-पद्धति के प्रयोग से नियुक्ति की शैली एवं अर्ध-कथन में एक नयी गरिमा प्रकट हो गयी है। आगमिक भाषा में इसे विभज्यवादी शैली कहा जा सकता है। नियुक्तिपंचक का रचना-वैशिष्ट्य ...
किसी भी शास्त्र की विशेषता उसकी भाषा-शैली, विषय-वस्तु तथा मौलिकता के आधार पर निर्धारित की जाती है। आगनों की पल भाषा अर्थसपी है रनिनित-साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है। नियुक्ति की भाषा प्राय: सरल और सरस है पर कहींकहीं अत्यन्त संक्षिप्त शैली में होने के कारण इसकी भाषा जटिल हो गयी है। दार्शनिक विषयों के विवेचन में भी इसकी भाषा लालणिक एवं गूढ बन गयी है अत: व्याख्या साहित्य के बिना निर्मुझिायों को समझना अत्यन्त कठिन है। परवर्ती व्याख्याकारों ने मूल आगम के साथ गियुक्ति-माथाओं की भी विस्तृत व्याख्या की है। प्राकृत भाषा में निबद्ध होने पर भी नियुक्तियों में संस्कृत से प्रभावित प्रयोग भी मिलते हैं
ददति गुरुराह अत एव (दशनि ९७४१)
प्रसंगवश शब्दों के एकार्थक लिखना निक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है। अनेक महत्म्पूर्ण एवं नए एकार्थकों का प्रयोग नियुक्ति-साहित्य में हुआ है, जो सामान्य कोश -साहित्य में नहीं मिलते। नियुक्तिकार ने सूत्रगत अध्ययन के नाम पर भी एकार्थक लिखे हैं, जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । द्रुमपुनिका के रह एकार्थक हैं (दनि ३४)। टीकाकार ने इनको एकार्थक माग है पर चूर्णिकार ने इनको अधिकार माना है क्योंकि इनमें मुनि की माधुकरी वृत्ति के विभिन्न दृष्टांतों से समझाण गया है। नियुक्तिगत एकार्थकों का संकलन परिशिष्ट सं. ३ में कर दिया गया है।
विभिन्न भाषी शिष्यों को ध्यान में रखते हुए तथा शिष्यों की शब्द-संपदा बढ़ाने के लिए नियुकिकार ने अनेक देशी शब्दों का प्रयोग किया है। निथुक्तिपंचकगत देशी शब्दों का साथ संकलन हमने परिशिष्ट सं. ४ में कर दिया है।
सूक्तियों के प्रयोग से भाषा में सरसता और प्रभावकता उत्पन्न हो जाती है। नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक मार्मिक सूक्तियों का प्रयोग किया है, जिससे भाषः मार्मिक एवं व्यंजक हो गयी है। षड्जीवनिकाय-वध के कारण के प्रसंग में श्लोकार्ध कितनी मार्मिक सूक्ति के रूप में प्रकट हुआ हैसात गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरेंति-अर्थात् अपने सुख की गवेषणा में व्यक्ति दूसरों को दुःख पहुंचाता है। परिशिष्ट सं. ८ में नियुक्तिगत सूक्तियों का संकलन किया गया है।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण
प्रसंगवश नियुक्तिकार ने व्याकरण संबंधी विमर्श भी प्रस्तुत किए हैं। अनेक रथलों पर अवयवों का अर्थ-संकेत भी हुआ है। संक्षेप में सु और क्रु का ऊर्य-बोध द्रष्टव्य है-सु त्ति पसंसा सुद्धे, कु त्ति दुगुंछा अपरिसुद्धे (सूनि ८८)। इसी प्रकार 'अलं' अव्यय के तीन अर्थों का संकेत किया गया है-१. पर्याप्तिभाव-सामर्थ्य, २. अलंकृत करना ३. प्रतिजेध।।
पज्जत्तीभावे खलु, पढमो बितिओ भवे अलंकारे।
ततिओ वि य पडिसेहे, अलसद्दो होइ नायब्यो ।।(सूनि २०३) इसी प्रकार 'सकार' निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त है।
निदेसपसंसाए अत्थीभावे य होति तु सकारो। (दशनि ३०६) नियुक्ति-साहित्य में अनेक नए अवयवों का प्रयोग भी हुआ है जैसे निश्चय अर्ध में र अवयव का प्रयोग । (दशनि १२३/१०)
__भाषा की दृष्टि से अनेक स्थलों पर विभक्तिरहित तथा विभक्तिव्यत्यय के प्रयोग भी मिलते हैं। अलाणिक मकार भी अनेक स्थलों पर प्रयुक्त है, जैसे-अक्खरसंजोगमादीओ (उनि ४५)।
नियुक्तिकार ने ययनित एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप-पद्धति से विस्तृत एव सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की है। यह उनकी व्याख्या की एक विशिष्ट शैली रही है, जिसके माध्यम से शब्दों के अनेक अर्थ बताकर प्रस्तुत प्रकरण में उस शब्द का क्या अर्थ है, यह भी स्पष्ट किया है। पाश्चात्य विद्वान् एल्फ्सडोर्फ ने लिखा है कि जैन आचार्यों ने भारतीय वैदुष्य के क्षेत्र में निक्षेप-पद्धति का सबसे अधिक मौलिक योगदान दिया है। एक प्राकृत शब्द के अनेक संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। जैसे 'आसायणा' शब्द के संस्कृत रूप आसादना प्राप्त करना और आशातना-गुरु के प्रति अधिनय—ये दोनों बनते हैं। नियुक्तिकार ने इन दोनों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी प्रकार शीत और उष्ण शब्द की व्याख्या भी अनेक कोणों से की गयी है। ऐसी व्याख्यः किसी भी कोश-साहित्य में नहीं मिलती। नियुक्तिकार ने सूत्रगत प्रत्येक शब्द की व्याख्या या विमर्श प्रस्तुत न करके केवल कुछ विशिष्ट शब्दों की ही निक्षेपपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक पारिभाषिक एवं विशिष्ट शब्द है पर नियुक्तिकार ने प्रथम गाथा के प्रथम शब्द 'संजोग' की लगभग चौंतीस गाथाओं में व्याख्या प्रस्तुत की है।
नियुक्तिकार का यह शैलीगत वैशिष्ट्य है कि किसी भी विषय का विस्तृत वर्णन करने से पूर्व एक गाधा में प्रकृत विषयों का द्वार के रूप में निर्देश दे देते हैं, जिसे द्वारगाथा कहा जाता है। उसके बाद एक-एक द्वार की व्याख्या करते हैं। जैसे आनि गा. २ में ९ द्वारों का संकेत है। इन द्वारों की व्याख्या आगे ६० गाथाओं (आनि गा. ३-६२) में की गयी है। इसी प्रकार आनि गा. ६८ द्वारगाथा है, जिसमें ९ द्वार निर्दिष्ट हैं। इन द्वारों की आगे ३६ गाथाओं (आनि ६९-१०५) में व्याख्या की गयी है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में २२ परीणहों से संबंधित कथाओं के संकेत दो अनुष्टुप् गाथाओं (उनि ८८, ८९) में दिए हैं। बाद में प्रत्येक कथा की विस्तृत जानकारी ५१ गाथाओं (उनि ९०-१४१) में दी गयी है। इसी प्रकार मरणविभक्ति अध्ययन की नियुक्ति (उनि २०३, २०४ ) में मरण के बारे में ९ द्वारों का संकेत है, जिसकी व्याख्या २५ गाथाओं (उनि २०५-२९) में हुई है। १. दनि १५-१९ ।
२. उनि ३०-६४।
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नियुक्तिपंचक नियुक्तिकार ने अनेक सूत्रगत अध्ययनों के अपर नामों का रथा कहीं-कहीं उन अध्ययनों के नामों की सार्थकता पर भी प्रकाश डाला है। जैसे सूत्रकृतांग के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम यमकीय है। लेकिन नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के आदानीय नाम की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इस अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदि पद है इसलिए इस अध्ययन का अपर नाम आदानीय है। चूर्णिकार ने इस अध्ययन का नाम संकलिका तथा वृत्तिकार ने संकलिका और यमकीय-इन दो नामों का उल्लेख किया है।
उपमाओं एवं उदाहरणों से विषय का स्पष्टीकरण नियुक्तिकार की शैलीगत विशेषता है। देश और काल के अनुरूप उपमाओं से यह साहित्य समृद्ध है, जिससे गंभीर विषय भी सरस, सरल एवं वेधक बन गए हैं। दश बैकालिक नियुक्ति में भिक्षु को अनेक उपमाओं से उपमिद किया है। उसमें अधिकांश उपमाएं प्राणिजगत् से संबंधित हैं। नियुक्तिगत उपमाओं का संकलन परि सं. 6 में समाविष्ट है।
न्याय और दर्शन जैसे गहन विषय को सरलता से समझाने के लिए नियुक्तिकार ने अनेक कथाओं का प्रयोग किया है। कुछ कथाएं सामाजिक परिवेश को प्रस्तुत करने वाली हैं तो कुछ राज्य-व्यवस्था एवं राजनीति से संबंधित हैं। कुछ मथाएं साध्वाचार से संबंधित हैं तो कुछ लोक-व्यवहार के साथ जुड़ी हुई हैं। अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का संकेत भी निर्युक्तिकार ने किया है।
आषाढ़भूति की कथा को निथुक्तिकार ने रूपक के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। पृथ्वीकाय आदि स्थावरकायों ने कथा के माध्यम से अपने बारे में सुंदर अभिव्यक्ति दी है। आचारांग नियुक्ति की सकुंडल वो वयणं न व ति--इल बाद की पूर्ति करने वाली कथा उस समय की सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। उत्तराध्ययन नियुक्ति की अनेक कथाएं कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत और जातक कथा में भी मिलती हैंउत्तराध्ययननियुक्ति महाभारत
जातक १. हरिकेशबल x
मातंग (सं. ४६७) २. चित्र-संभूत
चित्त-संभूत (सं. ४९८) ३. भृगु पुरोहित
शांति पर्व, अ.१७५, २७७ हस्तिपाल (सं. ५०९) ४. नमि-राजर्षि शांति पर्व, अ. १९७८, २७६ महाजन (सं. ५३९)
x
नहाभारत में जैसे अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर के रूप में तत्त्व का निरूपण है, वैसे ही नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर शैली को अपनाया है। नियुक्ति में प्रश्न और उत्तर दोनों ही बहुत संक्षिप्त शैली में हैं। जैसे
अंगाणं किं सारो, आयारो तस्स किं हवति सारो। अणुयोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो।। (आनि १६)
१. सूनि १३३।
२ सूचू १
२३८. सूटी पृ १६८।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
६. ९
इस एक गाथा में तीन प्रश्नोत्तरों का समाहार हो गया है। माधुकरी भिक्षा के प्रसंग में दशवैकालिक नियुक्ति में भी अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरों का समाहार है। उत्तराध्ययननियुक्ति गा. ६९ में नौ प्रश्नों का समाहार संक्षिप्त शैली का उदाहरण है। कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने ऐसे सैद्धान्तिक प्रश्नों का संकलन किया है. जिनके उत्तर एक समान हों। आचारांगनियुक्ति में एक ही गाथा में चार प्रश्नों का समाहार है, पर उनके उत्तर एक समान हैं। जैसे—
• एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का निष्क्रमण होता है ?
• एक समय में पृथ्वीकाय में कितने जीवों का प्रवेश होता है ?
• एक समय में पृथ्वीका में परिणत जीव कितने हैं?
• उनकी कायस्थिति कितनी है ?
इन चारों प्रश्नों का उत्तर है— असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण। कहीं-कहीं पहेली के रूप भी प्रश्न उपस्थित किए गए हैं।
नियुक्तिकार ने व्याख्या में संक्षेप और विस्तार- इन दोनों शैलियों को अपनाया है। एक ओर सूत्रकृतांग के 'वीरत्थुई' जैसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन पर मात्र तीन नियुक्ति गाथाएं लिखी हैं तो दूसरी ओर 'उत्तराध्ययननियुक्ति में संजोग' शब्द पर लगभग ३४ गाथाएं हैं। अनेक स्थलों पर तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषयों को बिना व्याख्यात किए ही छोड़ दिया है। जैसे— दशाश्रुतस्कंध में आचार विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण विषय हैं, लेकिन इसकी नियुक्ति अत्यंत संक्षिप्त है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन मूल सूत्र में करीब २००० गाथाएं हैं, जबकि उसकी निर्युक्ति गाथाएं ५५४ ही हैं, जिनमें १०० से ऊपर गाथाए केवल निक्षेपपरक हैं। सब अध्ययनों की निक्षेपपरक गाथाएं प्राय: एक समान हैं। प्रत्येक अध्ययन का एक ही भाषा में निक्षेप किसी मंदबुद्धि छात्र के लिए तो उपयोगी हो सकता है पर व्युत्पन्न छात्र के लिए इसकी कोई उपयोगिता प्रतीत नहीं होती।
संक्षिप्त शैली के उदाहरण के रूप निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसमें एक ही गाथा में चार दर्शनों का उल्लेख बहुत कुशलता से किया गया है—
अस्थि त्ति किरियवादी वदंति मत्थि त्ति अकिरियवादी य । अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता desवादी | | ( सून ११८ )
नियुक्तियों की रचना - शैली लगभग एक समान है। नियुक्तिकार ने जिस ग्रंथ पर नियुक्ति लिखी है, उस ग्रंथ के नाम की सार्थकता और मूलस्रोत पर विचार करके उसके अध्ययनों की संख्या एवं उनके नाम प्रस्तुत किए हैं। उसके पश्चात् समस्त ग्रंथ के अध्ययनों का संक्षिप्त विषयानुक्रम सूचित किया है। फिर प्रत्येक अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या करके अध्ययनगत महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की है। मूलतः नियुक्तिकार ने अध्ययनगत नाम के शब्दों की व्याख्या अधिक की है, जैसे-दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम एवं द्वितीय अध्ययन के अलावा अध्ययन के नामगत शब्दों की ही व्याख्या अधिक है। मूलसूत्र की गाथा में आए शब्दों की व्याख्या कम है । दशवैकालिक के छठे अध्ययन का मूल नाम 'महायारकहा' प्रसिद्ध है लेकिन इसका दूसरा नाम 'धम्मत्थकाम' भी मिलता है। नियुक्तिकार ने
१. दशनि २४ - १०४
२. आनि १० ।
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नियुक्तिपंचक धर्म, अर्थ और काम की ब्णख्या बाईस गाथाओं में की है तथा अंत में धर्मार्थकाम को मुनि का विशेषण बताते हुए कहा है कि धर्म का फल मोक्ष है। साधु मोक्ष की कामना करते हैं अत: वे धर्मार्थकाम कहलाते
__आचार विषयक ग्रंध होने के कारण नियुक्ति साहित्य में काव्य की भांति अलंकारों का प्रयोग नहीं है। फिर भी स्वाभाविक रूप से पाब्दालंकार और अर्थालंकार-इन दोनों अलंकारों का प्रयोग नियुक्तियों में देखने को मिलता है। अन्त्यानुप्रास के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है--
तण्हाइओ अपीओ (उनि ९१)। • जलमाल कद्दमाल (सूगि १६२)। रूपक अलंकार के प्रयोग भी यत्र तत्र देखने को मिलते हैं• अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवति सीतो (आनि २०७)। नियुक्तिकार ने उपभा एवं दृष्टात अलंकार का बहुलता से प्रयोग किया हैसो हीरति असहीणेहि सारही इय तुरंगेहिं (दशनि २७४) । जह खलु झुसिरं....... (आनि २३५) । • मन्नामि उच्छुफुल्ल व निष्फलं तस्स सामण्णं (दशनि २७७)। • सो बालतवरसी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुणति (दशनि २७६) ।
- निद्दहति य कम्माई,सुक्कतिणाई जहा अग्गी (दशनि २८३)। छंद-विमर्श
छंदशास्त्र में मुख्यत: तीन प्रकार के छंद प्रसिद्ध हैं—१. गणबंद २. मात्रिक छंद ३ अक्षरछंद। नियुक्तियां पद्यबद्ध रवना है अत: ये मात्रिक छंद के अंतर्गत आर्याछंद में निबद्ध हैं। आर्या के अतिरिक्त कही कहीं भागधिका, स्कंधक, दैतालिक, इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप् आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है। आर्या छंद की अनेक उपजातियां हैं। जैसे--पथ्या, विपुता, चपला, रीति. उगीति आदि। नियुक्तिपंचक में यत्र तत्र आर्या की इन उपजातियों का प्रयोग भी मिलता है।
नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य विषय-प्रतिपादन था. किसी काव्य की रचना करना नहीं अत: उन्होंने छंदों पर ज्यादा ध्यान न देकर भावों के प्रतिपादन पर अधिक बल दिया है। छंद की दृष्टि से पश्चिमी विद्वान् डॉ. ल्यूमन ने दशवकालिक का तथा एल्पसडोर्फ ने उत्तराध्ययन का अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। उन्होंने छंद तकनीक को उपकरण के रूप में काम में लिया। जेकोबी ने रुंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का निर्धारण किया। उनके अनुसार आर्या छंद में निबद्ध साहित्य अर्वाचीन तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं।
हमने पाउ-संणदन में छंद की दृष्टि से पाठभेदों पर विमर्श किया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ में आई हैं क्योंकि छंद की पति-गति आदि की अवगति के बिना गाथाओं के पाठ का शुद्ध संपादन संभव नहीं था। छंद की दृष्टि से संभाव्य पाठ का उल्लेख हमने पादटिप्पण में कर दिया है। उदाहरणार्थ उनि १४० का प्रतियों में 'राईसरिसवमित्ताणि' पाठ मिलता है।
१. दशनि २४१।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण यह गाथा अनुष्टुप् छंद में निबद्ध है। अनुष्टुप् के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं किन्तु यह नौ वर्ण हैं अत: सरिसव के स्थान पर सस्तव' पळ अधिक संगत लगता है। 'सस्सव' पाठ से मौलिक अर्थ का हास भी नहीं होता क्योंकि सांग के लिए सस्तव और सरिसब दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार 'अगणी निब्बेय मुगारे (उनि ८८) में नौ वर्ग होते हैं. जिसमें पांचवां वर्ण दीर्घ है, जबकि अनुष्टुप् में पांचवां वर्ण ह्रस्व होना चाहिए। यहां 'अग्गी निब्वेय मुग्गरे पाठ छंद की दृष्टि से सन्धक प्रतीत होता है। हस्तन्नतियों में पाठ न मिलने के कारण परिवर्तन का निर्देश हमने मूलपाठ में न करके टिचण ने कर दिया है। मूल पाठ में परिवर्तन न करने का एक मुख्य कारण यह रहा कि बिना ब्रमण परिवर्तन करने से ग्रंथ की मौलिकता और रचनाकर के प्रति न्याय नहीं होता। दूसरा कारण यह भी है कि वेदों में सात, नौ और दस वर्षों के अनुष्टुप् चरण को मिलते है अतः यह भी संभव है कि स्वयं रचनाकार ने ही ऐसे प्रयोग किए हों। नियुक्ति-साहित्य में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जैसेदोमासकए कज्ज (उनि २४९) में सात ही वर्ण है।
छंद की दृष्टि से नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर दीर्घ मात्रा का ह्रस्वीकरण एवं हस्त मात्रा का दीर्धीकरण भी किया है, जैसे
___ कम्मे नोकम्मे या उनि ६७) यहां अकार का आकार हुआ है। ते होती पोंडरीगा उ (सूनि १४८) यहां इकार का ईकार हुआ है। सरिराई (आनि २४०) यहां ईकार का इकार हुआ है।
कहीं कहीं वर्णो का द्वित्व भी हुआ है, जैसे—सच्चित्त आदि ।
अनेक स्थलों पर छंद के कारण विभक्ति एवं वचन में व्यत्यय भी मिलता है। कहीं कहीं टीकाकार ने इसका उल्लेख भी किया है। छंद की दृष्टि से नियुक्ति में अनेक स्थलो पर निवित्तिक प्रयोग भी मिलते हैं। छंबानुलोम के कारण अनेक स्थलों पर इ, जे. मो, च, य आदि पादपूर्ति रूप अवयवों का प्रयोग भी हुआ है।
प्राकृत साहित्य में अलाक्षणिक मकार के प्रयोग तो अनेक मिलते हैं लेकिन नियुक्तिकार ने छंद की दृष्टि से अलाक्षणिक बिंदु का प्रयोग भी किया है।
मज्जाउज्ज' (उनि १४५) कहीं कहीं मात्रा कम करने के लिए बिंदु का लोप भी हुआ है— अरई अचेल इत्थी' (उनि ७६) कसाय वेदणं (उनि ५३)
कहीं कहीं नियुक्तिकार ने छंदों का मिश्रण भी किया है। एक ही गाथा में अनुष्टुप् और आर्या-- दोनों का प्रयोग हुआ है। जैसे तीन चरण आर्या के और एक चरण अनुष्टुप् का। इसी प्रकार कहीं तीन अनुष्टुप् के तथा एक चरग आर्या का, जैसे—आनि ३६४ में प्रथम चरण अनुष्टुप् तथा शेष तीन चरण आर्या में हैं।
१. वैदिक ग्रंथों में जिस घर में एक अक्षर कम या अधिक पाताल १७/२)। होता है, उसे क्रमश: निचित और भूरिक कहा जाता है २. अशांटी प. १४२; मज्जाउज बिदोरला मणिकत्वात्। तथा जिसमें दो अक्षर कम य अधिक हो उसे दिरात ३. उशांटी प. ७६; अचेल ति प्राकृतत्वाद् बिंदुलोप.। और स्वराज्य कहते हैं ( शौनकत प्रातिशाख्य ४. उशांटी प. ३४: कसाय वेदनं प्राकृतत्वाद् बिंदलोपः।
उचर रि प्राकृतत्वद विद्युतीय
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नियुक्ति पंचक
छंदानुलोम से अनेक स्थलों पर सप्तमी विभक्त बोधक ए प्रत्यय का इ भी स्वीकृत किया है। विशेषतः उत्तराध्ययननियुक्ति में ऐसा अधिक हुआ है, जैसे- महुराए > महुराइ, अट्टमे > अट्टम । छंद की दृष्टि से मात्रा को ह्रस्व करने के लिए हमने " चिह्न का प्रयोग भी किया है, जैसे- दव्वेसणाएँ आदि ।
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अनेक स्थलों पर भावों के अनुरूप भी छंद का उपयोग हुआ है, जैसे- उत्तराध्ययन नियुक्ति में आपणढभूति की कथा के अंतर्गत अनुष्टुप और मागधिका छंद का प्रयोग तथा आचारांग नियुक्ति में रोहगुप्त मंत्री द्वारा दी गयी समस्या पूर्ति की कथा में इंद्रवज्रा छंद का प्रयोग
गाठ संपादन में हमने छंद ध्यान में रखा है किन्तु मूल विषय का प्रतिपादन, उसकी मौलिकता और सहज प्रवाह नष्ट न हो वह भी ध्यान में रखा है।
यद्यपि निर्बुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक विषयों की व्याख्या की है लेकिन यहां पांचों नियुक्तियों में वर्णित कुछ विशेष विषयों की प्रस्तुति की जा रही हैं
१. निर्जर की तरतमता के स्थान
२. भावनाएं
३ प्रणिधि/त्रणिधान
४. साधना के बाधक तत्त्व ५ त्रिवर्ग
६. वर्ण व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां ७. स्थावरकाय
८ भिक्षु का स्वरूप
९. भिक्षाचर्या
१०. दिशाएं
११. करण
१२. काव्य
१३. यातायात पथ
निर्जरा की तरतमता के स्थान
आचारांग के सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में गुणश्रेणी - विकास की दश अवस्थाओं का वर्णन है। इन अवस्थाओं में पूर्व अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है। गुणश्रेणी - विकास की दश अवस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं
१. सम्यक्त्व - उत्पत्ति— उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति ।
२. श्रावक - अप्रत्याख्यानावरण कणाय के क्षयोपशम से आंशिक विरति का उदय ।
३. विरत — प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सर्वविरति का उदय ।
४. अनंतकश - अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का क्षय ।
५. दर्शनमोहक्षपक – दर्शनमोह की सम्यक्त्व मोहनीय आदि तीन प्रकृतियों का क्षय ।
६. उपशमक – चारित्र मोह की प्रकृतियों के उपशम का प्रारम्भ ।
७. उपशांत मोह — मोह का पूर्णतः उपशम
८. क्षपक—– वारित्र मोह की प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ ।
९. क्षीणमोह – चारित्र मोह का सम्पूर्ण क्षय ।
१०. जिन — कैवल्य-प्राप्ति ।
१ आणि २२३, २२४ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
भगवती तथा पण्णजमा जैसे सैद्धांतिक ग्रंथों में इन अवस्थाओं का उल्लेख न मिलने से यह स्पष्ट है कि इन दश अवस्थाओं की अवधारणा बाद में विकसित हुई। दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। अ उमास्वाति ने नौवें अध्याय में इन अवस्थाओं का उल्लेख किया
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गुगश्रेणी-विकास की इन दश अवस्थाओं का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भद्रबाहू ने किया, इस कथन की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि आत्मा की निर्मलता या निर्जरा की तरतमता का ज्ञान या तो तीर्थंकर अपने अतिशायी ज्ञान से जान सकते हैं अथवा चतुर्दशपूर्वी अपने श्रुतज्ञान के वैशिष्ट्य से। निर्जरा की तरतमता सामान्यज्ञानी के लिए जान ना असंभव है अत: कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी विकास की दश अवस्थाएं आचार्य भद्रबाहु की मौलिक देन है। सम्यक्त्व की उपलब्धि अनंत निर्जरा का कारण है अत: आचारांग की सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में इन अवस्थाओं का वर्णन प्रासंगिक लगता
गुजरदार्थ सूत्रमार ने निको महत्पूर्ण समयकर स्वर के अंतर्गत तप के प्रसंग में निर्जरा का तारतम्य बताने वाली इन अवस्थाओं का समाहार किया है। वहां यह वर्णन प्रासंगिक जैसा नहीं लगता।
__ आचार्य उमास्वाति ने प्रथम अवस्था सम्यक्त्व-उत्पत्ति के स्थान पर सम्यग्दृष्टि तथा चौथी अवस्था अनंतकर्माश के स्थान पर अनंतवियोजक नाम का उल्लेख किया है। परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ अंतर के साथ इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। नामों के सूक्ष्म अंतर को निम्न चार्ट के माध्यम से जाना जा सकता है..
श्वेताम्बर परम्परा शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति सम्यक्त्व
सम्यक् २. श्रावक देशविरति
दरविरति ३. विरत सम्पूर्ण विरति
सर्वविरति ४. संयोजना-विनाश अनंतानुबंधी विसंयोग अनंतविसंयोग ५. दर्शनमोहक्षपक दर्शनमोहक्षपक
दर्शनक्षपक ६. उपशमक उपशमक
शम ७. उपशांत उपशांत
शांत
१. तत्त्वार्थसूत्र ९/४७; सम्यग्दृष्टि श्रावकविरतानंतांडकोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोहजिना:
कमोऽसंख्येयगुणनिर्जरा। २. कर्मप्रकृति (उदयकरण) ना. ३९४, ३९५;
सम्त्तुप्पा सावय, विरए संयोजगाविणासे य। दसणमोहक्लवगे, कसाय-उवसामगुवसते।।
नवगे य लीगमोहे, जिणे य दुविहे हने असंखगुणा। उदयो तबिवरीओ, कालो संख्लेजगुणसेढी।। ३. पंचसंग्रह, बंधवार मा. ३१४, ३६५
सम्मत्तदेससंपुन्नविरइउप्पत्ति अणविसंजोगे। दंसणखवणे मोहस्स. समणे उवसंत खवगे या
वीणाइतिगे असंखमुणियसेदिदलिप जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसह कालो उ संखसे।। ४. शतक, पंचम कर्म ग'. ८२;
सन्मदरसवदिरई, अगविसंजोयदंसलवगे य। मोहसमसंतखबगे, खीण-सजोगियर गुणसेदी।।
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क्षीण
नियुक्तिपंचक शिवशर्मकृत्त कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ ८. क्षपक क्षपक
क्षपक ९. क्षीणमोह
क्षीणमोह १८. द्विविध जिन गायोगी केतनी
एयोगी (केवली) (सयोगी एवं अयोगी) अयोगी केवली
अयोगी (केवली) (ई. सन् पांचवीं शती) ई. सन् आठवीं शती) (विक्रम की पांचवीं शती)
दिगम्बर परम्परा स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा षट्खंडागम, गोम्मटसार (जीवकाण्ड) १. मिथ्यादृष्टि
१. सम्यक्त्व-उत्पत्ति २. सद्वृष्टि
२ श्रावक ३. अणुव्रतधारी
३. विरत ४. ज्ञानी महाव्रती
४. अनंतकशि ५ प्रथमकषायचतुष्कवियोजक ५. दर्शनमोहक्षपक ६. दर्शनमोहत्रिक क्षपक
६. कवायउपशमक ७ उपशामक
७. उपशांत ८. क्षपक
८ क्षपक ९. क्षीणमोह
९. क्षीणमोह १०. सणेगी (नाथ)
१०. जिन ११. अयोगी (नाथ) __ (ई. सन् पांचवीं शती)
(विक्रम की पांचवीं शती) उमास्वाति के बाद लगभग सभी आचार्यों ने जिन के सयोगी और अयोगी-ये दो भेद करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है। स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशांत अवस्था का उल्लेख नहीं है। उन्होंने सम्यग्दृष्टि से पूर्व की अवस्था मिथ्यादृष्टि को माना है तथा जिन के स्थान पर नाथ का प्रयोग करके उसके सयोगी और अयोगी-ये दो भेद किए हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार शुभचन्द्र ने उपशांत अवस्था की व्याख्या की है।
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९/१०६-१८;
मिच्छादो सद्धिी, असंलगुणकन्मनिज्जरा होदि। तत्तो अणुबरधारी, ततो य महत्वई पागी।। पढमकसायरउण्ह, विजोजओ तह य खवणसीलो य। दंसणमोहतियस्स य तत्तो उवसमग चत्तारि।
खवगः ६ खीणभोहो, सलोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरि उवरिं, असंक्षगुणकम्भणिज्जरया।। २. (क) षट्खंडागम, वेदनाखंड, गा. ७, ८ पृ. ६२७ । (ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. ६६, ६७;
सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे अणतकम्मसे। दसणमोहक्खबगे, कसायउवसामगे य उवसंते।।
लबगे य सीगमोहे, जिणेसु दत्वा असंखगुणिदकमा । तश्चिवरीया काला, संखेवकमा होति।। ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. ५२।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं में नौ की तो पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाएं हैं, जिनमें पूर्ववर्ती अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है लेकिन सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था का उल्लेख नहीं हुआ है। स्वामीकुमार ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मिथ्यात्वी की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की अरख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। उनके अनुसार यह संभावना की जा सकती है कि सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था निथ्यादृष्टि है क्योंकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। यहां एक प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि क्या मिथ्यादृष्टि के भी निर्जरा संभव है? इस प्रपन के समाधान में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्वी की मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भाव है अत: वह जो कुछ सही जानता या देखता है. वह निर्जरा का कारण है। यदि मिथ्यादृष्टि आत्मिक उज्ज्वलता या निर्जरा का हेतु नहीं होती तो गुणस्थान-सिद्धान्त में प्रथम तीन भेदों को स्थान नहीं मिलता 1 आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु दिए हैं : लेकिन कुछ परम्पराएं मिथ्मादृष्टि को निर्जरा का हेतु नहीं मानतीं।
___ आचार ग. के काकार अवार्य शालाक ने सम्यक्त्व-उत्पत्ति से पूर्व की कुछ अन्य अवस्थाओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार मिथ्यावृष्टि जीव. जिनके देशोन कोटाकोटि कर्म बाकी रहे हैं तथा जो ग्रंधिभेद के समीप पहुंच गए है, वे निर्जरा की दृष्टि तुल्य होते हैं। मिथ्यादृष्टि के बाद की निम्न पांच अवस्थाएं टीकाकार ने बताई हैं, जिनमें कमश: पूर्ववर्ती की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है
१. धर्मपृच्छा के इच्छुक २. धर्मपृच्छा में संलग्न ३ धर्म के स्वीकार करने के इच्छुक ४. धर्मक्रिया में संलग्न ५. पूर्वप्रतिपन्न धार्मिक
नियुक्तिकार ने काल की दृष्टि से भी निर्जरा की तारतमता का संकेत दिया है किन्तु काल की दृष्टि से इसमें कम विपरीत हो जाता है । टीकाकार शीलांक इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक अयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है उतने कर्म एक सयोगी केवली उससे संख्येय गणा अधिक काल में खपाता है। इसी प्रकार सयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म क्षीणमोह उससे संख्येय गुणा अधिक काल में खपाता है। काल की संख्धेय गुणा वृद्धि प्रतिलोम कम से चलती है।
इन दशा अवस्थाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार का मुख्य उद्देश्य निर्जरा की तरतमत' बताने वाली तथा मोक्ष के सम्मुख ले जाने वाली अवस्थाओं का वर्णन करना था न कि विकास की भूमिका पर ऋमिक आरोहण करने वाली भूमिकाओं का वर्णन करना। यह सत्य है कि हर पूर्व अवस्था की अपेक्षा उत्तर अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा है पर ये अवस्थाएं कमिक ही आएं, यह आवश्यक नहीं है। स्पष्टत: कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व-प्राप्ति मोक्ष का प्रथम सोपान है और जिन १ कार्तिकेयानुनेक्षा ९/१०६ ।
३ आनि २२३; तत्विवरीतो काले,संखेजगुणाए सेढीए। २ आचरांगटीक पृ. ११८।
४. आचारांग टीका प्र. ११८ ।
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नियुक्तिपंचक होने के बाद व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है फिर उसके लिए कुछ भी करणीम शेष नहीं रहता।
विद्वानों ने इन दश अवस्थाओं को गुणस्थान-विकास की पूर्वभूमिका के रूप में स्वीकार किया है। डॉ. सागरमलजी जैन ने विस्तार से इस संदर्भ में चिन्तन किया है। लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से यदि गुणस्थानों के साथ इन अवस्थाओं की तुलना करें तो संगति नहीं बैठती। प्रथम तीन गुणस्थानों का इन दश अवस्थाओं में कहीं भी समाहार नहीं है। गुणस्थान-विकास की दृष्टि से विरत के बाद अनंतवियोजक की स्थिति आए. यह आवश्यक नहीं है। यह स्थिति अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात् चौथे गुणस्थान में भी प्राप्त हो सकती है। चौथे गुणस्थान में गुणश्रेणी-विकास की प्रथम, चतुर्थ और पंचम—इन तीन अवस्थाओं का समावेश हो सकता है क्योंकि चौथे गुणस्थान में भी व्यक्ति अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय कर भायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। जबकि गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाओं में विरत के बाद अनंतवियोजक और दर्शनमोहक्षपक की स्थिति है। इन दश अवस्थाओं के आधार पर यह मानना पड़ेगा कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षपकश्रेणी लेता है अर्थात् छठी, सातवीं अवस्था में पहले चारित्रमोह का उपशम फिर आठवीं, नवीं अवस्था में चारित्र मोह की प्रकृतियों का क्षय करता है पर गुणस्थान सिद्धांत के अनुसार यह बात संगत नहीं बैठती। गणस्थान कमारोह के अनसार यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षायकश्रेणी ले। वहां दोनो विकल्प संभव हैं ,व्यक्ति पहले कषायों का उपशमन करता हुआ उपशम श्रेण. भी ले सकता है और क्षय करता हुआ क्षपकत्रेणी भी प्राप्त कर सकता है अत: कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी-विकास की ये अबस्थाएं गुणस्थान-सिद्धान्त की पूर्व भूमिकाएं नहीं हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट अवधारणा बन जाती है कि गुणस्थान एवं गुणश्रेणी विकास की अवस्थाएं—दन देनों का स्वतंत्र अस्तित्व था। उमास्वाति ने गुणस्थानों के अनेक नामों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उदाहरण के लिए कुछ नाम को प्रस्तुत किया जा सकता हैगुणस्थान-नाम
तत्त्वार्थसूत्र १. अविरत (चौथा गुणस्थान) तदविरतदेशविरत्तप्रमत्तसंयतानाम् । (९/३५) २. देशविरत (पांच्वं गुगल)
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्। (९/३५) ३. प्रमत्तसंयत (छठा गुण)
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्। (९/३५) ४. अप्रमत्तसंयत (सातवां गुण) आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय
धर्ममप्रमत्तसंयतस्य।
(९/३७) ५. बादरसम्पराय (आठवां, नवां गुण०) बादरसम्पराये सर्वे।
(९/१२) ६. सूचनसंपराय (दसवां गुण०) सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दशा । (९/१०) ७. उपशांतकषाय (ग्यारहवां मुण०) उपशांतक्षीणकषाययोश्च (९/३८)। ८. क्षीणकषाय (बारहदा गुप्त०)
उपशांतक्षीणकषाययोश्च (९/३८)। ९ केवली (तेरहवा, चौदहवां गुण०) परे केवलिनः (९/४०)
१. श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२: गुणस्थान सिजग्न्त का उद्भव और विकास।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
उमास्वाति ने इन नामों का उल्लेख संयत के विशेषण के रूप में किया है अत: इन नामों को देखकर यह कहा जा सकता है उमास्वाति के समय तक गुणस्थान-सिद्धांत पूर्ण रूप से विकसित नहीं था पर उसकी मान्यता बीज रूप में प्रचलित हो रही थी।
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं एवं गुणस्थान--इन दोनों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं निर्जरा की तरतमता बताने वाले स्थानों की और हमार, ध्यान आकृष्ट करती हैं। ये अवस्थाएं कमिक ही हों, यह आवश्यक नहीं है किन्तु गुणस्थानों में आत्मा की कमिक उज्ज्वलता का दिग्दर्शन है अत: वहां उत्तरोत्तर कृमिक अवस्थाओं का वर्णन है। भावनाएं
चित्त को अच्छे विचारों से बार-बार भावित करना भावना है। मस्तिष्कीय धुलाई में भावना का नहत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने मुनि के लिए 'भावियप्पा' विशेषण का प्रयोग किया है। आचार्य हरिभः के. अनः : ध्यान के योग चेतना का निर्माण करने वाली ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है।
प्रशस्त भावनाओं के रूप में अनित्य आदि बारह भावनाएं, पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं, मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएं जैन साधना-पद्धति में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। बारह भावनाओं पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई है।
उत्तराध्ययन सूत्र में कांदी, किल्विणिकी आदि अप्रशस्त भावनाओं का वर्णन मिलता है।' नियुक्तिकार ने प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, भैथुन. परिग्रह, कोध, मान, माया तथा लोभ आदि की भावना को अप्रशस्त भावभावना माना है। नियुक्तिकार ने प्रशस्त भावना के रूप में उत्तराध्ययन सूत्र में संकेत मात्र से निर्दिष्ट ज्ञान आदि भावनाओं का स्वरूप स्पष्ट किया है। उन्होंने इसमें वैराग्यभावना का और समावेश कर दिया है। दर्शन भावना
__ युगप्रधान आचार्य, केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि अतिशायी एवं ऋद्धिधारी भुनियों के अभिमुख जाना. वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन एवं स्तुति करना दर्शन भावना है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने ध्यान शतक में धर्मध्यान के साथ भावनाओं का संबंध जोड़ा है। उनके अनुसार जो अपने आप को शंका आदि दोषों से रहित तथा प्रशम स्थैर्य आदि गुणों से युक्त कर लेता है, उसकी दर्शन-विशुद्धि होने के कारण ध्यान में स्थिरचित्तता हो जाती है। ज्ञानभावना
आपको ज्ञान से भावित करना ज्ञानभावना है। जीव आदि नवतत्त्व, बंध, बंधहेतु,
१. दश ९/५०। २. आवहाटी २ पृ. ६२; भाव्यत इति भावना
ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः ।
४. उ. १९/९४; एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य ।
भावणाहि य सुद्धाहि. सम्म भावितु अप्पयं ।। ५. आनि ३५२-५४। ६. आवहाटी २ पृ.६७. गा.३२ ।
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नियुक्तिपंचक बंधन तथा बंधनफल—इनको अच्छी तरह जानना ज्ञान भावना है। वाचना, प्रच्छना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय में उपयुक्त रहना तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए नित्य गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। साधक को 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा' ग्रह भावना प्रतिपल करते रहना चाहिए।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार ज्ञान का नित्य अभ्यास, ज्ञान-प्राप्ति में चित्त की स्थिरता, सूत्र और अर्थ की विशुद्धि तथा ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ को जान लेना ज्ञानभावना है। इससे व्यक्ति का चित्त स्थिर हो जाता है और सहज हो ।.. प्रदेश होने लगा है। चारित्रभावना
अहिंसा आदि पांव महाव्रतों का निरतियार पालन करना चारित्र भावना है। नियुवित्तकार के अनुसार वैराग्य, अप्रमाद और एकत्व भावनाएं भी चारित्र भावना की अनुगत हैं। ध्यान शतक के अनुसार नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए कर्मों का निर्जरण तथा शुभ कर्मों का ग्रहण चारित्र भावना है। इस भावना से बिना प्रयत्न किए भी ध्यानावस्था प्राप्त होने लगती है। तपोभावना
विविध प्रकार के तप-अनुष्ठान में संलग्न रहना तपोभावना है। नियुक्तिकार ने तपोभावना को आत्मचिंतन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं कौन सी तपस्या करने में समर्थ हूँ? मैं किस द्रव्य के योग से कौन सा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस अवस्था में तप कर सकता हूं? इस चिंतन से स्वयं को जोड़ने वाला तपोभावना से भावित होता है।" वैराग्य भावना
अनित्य आदि बारह भावनाओं से स्वयं को भावित करना दैराग्य भावना है। ध्यान शतक के अनुसार जो जगत् के स्वभाव को जानता है, नित्संग (अनासक्त) है, अभय है, आशंसा से मुक्त है, वह वैराग्य भावना से भावित चित्त बाल्या होता है। ध्यान में सहज ही उसकी निश्छलता सध जाती है।" प्रणिधि/प्रणिधान
दशवैकालिकनियुक्ति के आठवें अध्ययन में वर्णित प्रणिधि का वर्णन आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रणिधि का एक अर्थ खजाना होता है लेकिन साधना की दृष्टि से प्रणिधि या प्रणिधान शब्द एकाग्रता या समाधि का वाचक है। साधना के क्षेत्र में एकाग्रता प्रयम सोपान है, जिसके माध्यम से साधक अपने लक्ष्य की और गति करता है। बिना प्रणिधान के मन, वचन और काया को समाहित नर्ह किया जा सकता। नियुक्तिकार में भाव प्रणिधि के दो भेद किए हैं—इंद्रिय-प्रणिधि और नोइंद्रिय-प्रणिधि।
बाब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श में राग-द्वेष नहीं करना प्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है। इसके विपरीत
१. आनि ३५७.५९। २. आवहाटी २ पृ. ६७ प ३१ । ३. आनि ३६०, ३६१। ४. आवहारी २ पृ. ६८ गा. ३३ |
१५. आनि ३६२। ६. अनि ३६३ ७. आवहाटी २ ८. दशनि २५०
६८ ॥T. ३४
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण उच्छृखल एवं शब्द आदि विषयों में मूच्छिंत इंद्रियां अप्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है।' दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाले व्यक्ति की स्थिति को उपमा के माध्यम से स्पष्ट करते हए नियुक्तिकार कहते हैं—'तप आदि करने पर भी जिसकी इंद्रियां दुष्प्रणिहित होती है, वह मोक्षमार्ग से वैसे ही भटक जाता है,जैसे उच्छृखल अश्व वाला सारथि ।' क्रोध, मान आदि चार कणायों का निरोध करना नोइंद्रिय प्रणिधि है।
बाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इंद्रिय और ऋषय का निरोध करना प्रणिधि हैं। प्रणिधान संयमी जीवन का मूल है लेकिन यदि माया या अहंकार के वशीभूत होकर साधक इंद्रिय या नोइंद्रिय का निग्रह करता है तो वह अप्रशस्त प्रणिधि है। अप्रशस्त प्रणिधि वाला मुनि कर्मों को बांध कर स्वयं भारी बन जाता है। जैसे कंटककीर्ण गडे में गिरने वाला व्यक्ति अपने अंगभंग कर लेता है.वैसे ही दप साधक अपने प्रव्रजित जीवन को खंडित कर लेता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करने वाला साधक अपने कर्मों को वैसे ही भस्म कर देता है,जैसे सूखे तिनकों को अग्नि ।' साधना के बाधक तत्त्व
आचार्य भद्रबाहु आधात्मिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि पुरुष थे। उनकी अध्यात्म-चेतना की रश्नियों का प्रकाश नियुक्ति-साहित्य पर भी पड़ा। नियुक्तियों में निरूपित आध्यात्मिक तत्व जीवन को नयी दिशा देने वाले हैं। निक्तिकार ने स्थान-स्थान पर कषाय के उपशमन की प्रेरणा दी है। उनके अनुसार ता करते हुए भी जिसके कषाय उत्कट हैं, वह बाल तपस्वी हस्ति-स्नान के समान व्यर्थ परिश्रम करता है तथा उसका श्रमण्य इक्षु-पुष्ण की भांति निष्फल होता
नियुक्तिकार ने अध्यात्म-विकास में बाधक १३ तत्त्वों की चर्चा की है—आलस्य, मोह, अवज्ञा, जड़तः, कोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल और कीडा। ये सभी हेतु अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले व्यक्ति के सामने बाधा बनकर उपस्थित होते हैं किन्तु इन कारणों के आलोक में स्वयं का निरीक्षण कर व्यक्ति अपनी अध्यात्म-साधना को प्रशस्त कर सकता है। महर्षि पतञ्जलि ने भी चित्त में विक्षेप पैदा करने वाले नौ कारणों का उल्लेख किया है—व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकता और अनवस्थितता। इन नौ हेतुओं को पतञ्जलि ने योगमल, योगप्रतिपक्ष और योगान्तराय के रूप में स्वीकार किया है।
आचार्य तुलसी ने 'मनोनुशासनम् में बाधक तत्त्वों का उल्लेख न करके समाधिस्थ व्यक्ति के सात विशेषणों का निर्देश दिया है। नियुक्तिकार द्वारा उल्लिखित तेरह बाधक तत्वों को यदि विलोम करके लिखा जाए तो मनोनुशासनम् में वर्णित सातों गुण इनमें समाहित हो जाते हैं। नियुक्ति की भाषा में इनको विघ्न रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है—१. रोग, २ शारीरिक अक्षमता, ३. अविनय, ४
१ दशनि २७१-२७३। २ दशनि २७४। ३. दशनि २७५ । ४. दशनि २७९-८३।
५. दशनि २७६, २७७ । ६. उनि १६३, १६४।। ७ पातञ्जलयोगदर्शन; १/३०। ८ मनो १/२; आरोग्यवान् दृढ़सहननो विनीतोऽकृतकलहो
रसाप्रतिबद्धोऽप्रमत्तोऽनल्सश्च ।।
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निर्मुक्तिपंचक कलह, ५ आसक्ति, ६. प्रमाद, ७. आलस्य :
मनुष्य जन्म की दुर्लभता के दश दृष्टान्त भी आध्यात्मिक चेतना को झकझोरने वाले हैं। ये दृष्टान्त न केवल जीवन की दुर्लभता का ज्ञान कराते हैं वरन् सार्धक एवं आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं। मूलत: ये दृष्टान्त आवश्यकनियुक्ति में उल्लिखित हैं लेकिन प्रासंगिक होने के कारण यहां भी इनकी पुनरुक्ति हुई है। त्रिवर्ग
उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने एवं उच्चतर आदर्शों को प्राप्त करने के लिए भारतीय मनीषियों ने चार पुरुषार्थों की कल्पना की, उन्हें चतुर्वर्ग भी कहा जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—ये चार पुरुषार्थ भारतीय संस्कृति के प्राण तस्व रहे हैं। यद्यपि निर्मुक्तिकार निवृत्तिपरक धर्म-परम्परा का वहन करने वाले आचार्य थे पर उन्होंने अपने साहित्य में धर्म और मोक्ष के साथ अर्थ और काम का भी विशद विवेचन किया है। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र के प्रारम्भ में धर्म, अर्थ और काम को नमस्कार किया है। ऐसा संभव लगता है कि नियुक्तिकार के समय तक भी त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम का ही प्रचलन रहा। मोक्ष को इसके साथ नहीं जोडा गया। मोक्ष को न जोडने का एक कारण यह भी रहा कि मोक्ष की प्राप्ति सबके लिए संभव नहीं थी। बाद के आचार्यों ने इनमें मोक्ष को जोड़कर चार पुरुषार्थों की प्रस्थापना की और इनको साध्य और साधन के रूप में प्रतिष्ठित किया। धर्म और अर्थ को साधन के रूप में तथा मोक्ष और काम को साध्य के रूप में अंगीकार किया। धर्म का साध्य है मोक्ष और अर्थ का साध्य है काम।
भारतीय मनीषियों ने धर्म को जीवन का नियामक सिद्धन्त, अर्थ के जीवन के भौतिक साधन का आधार, काम को जीवन की उचित कामनाओं की तृप्ति तथा मोक्ष को सर्व बंधनों से मुक्ति के रूप में स्वीकार किया। नियुक्तिकार ने त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम का व्यवस्थित विवेचन किया है तथा मोक्ष को धर्म का फल स्वीकार किया है। कुछ धार्मिक परम्पराओं में धर्म, अर्थ और काम को विरोधी तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया लेकिन नियुक्तिकार के अनुसार धर्म, अर्थ और काम -ये तीनों युगपद् विरोधी से लगते हैं परन्तु जिनेश्वर भगवान् के वचनों में अवतीर्ण होकर ये अविरोधी बन जाते हैं। आचार्य वात्स्यायन ने इसी बात को प्रकारान्तर से कहा—'धर्मानुकूलो अर्थकामी सेवेत' अर्थात् धर्म के अनुकूल अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार व्यक्ति भले ही ऐश्वर्य प्राप्त करे, धन संचय करे, उसका उपभोग करे पर वह धर्मानुकूल हो। त्रिवर्ग में से किसी एक का असंतुलित उपभोग; बड़ा दुःखदायी होता है। कहने का तात्पर्य है व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम.— इन तीनों का उपभोग इस प्रकार करे कि ये तीनों एक दूसरे से संबद्ध भी रहें और परस्पर विघ्नकारी भी न हों। भारतीय ऋषियों ने मोक्ष को परम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया है। नियुक्ति-साहित्य में मोक्ष का वर्णन विकीर्ण रूप में अनेक स्थानों पर मिलता है। यहां संक्षेप में नियुक्तिगत त्रिवर्ग-धर्म,
१ कामसूत्र १/१/१: धमकामेमो नमः २ दाने २४१। ३ दशनि २४०।
४. कौटि १/३/६/३:
धर्माविरोधेन काम सेवेत । न निःसुख: स्यात् । सनं डा त्रिवर्गमन्योन्यानुबन्धनम्। एको हत्यासेवितो धमर्थकमानामात्मानमितरौ छ पीडयति ।
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निर्मुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
अर्थ और काम का वर्णन किया जा रहा है-.
धर्म
दशकालिक की भांति नियुक्तिकार ने भी धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में स्वीकार किया है। ठाणं सूत्र में धर्म के तीन प्रकार मिलते हैं - १. श्रुतधर्म, २. चारित्रधर्म ३ अस्तिकाय धर्म । ' आचार्य भद्रबाहु धर्म का वर्णन अनेक स्थानों पर किया है पर उनके भेद-प्रभेदों के वर्णन में एकरूपता नहीं है। कहीं संक्षिप्त नय से तथा कहीं विस्तार से वर्णन हुआ है। आवश्यक नियुक्ति के चतुर्विंशतिस्तव में आए धर्म शब्द की व्याख्या में धर्म के दो भेद किए गए हैं— द्रव्य और भाव । नियुक्तिकार ने द्रव्यधर्म को अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित किया है
• द्रव्य का धर्म जैसे वस्तु का तिक्त आदि धर्म |
• अनुपयुक्त — उपयोग रहित व्यक्ति का धार्मिक अनुष्ठान (यहां अनुपयुक्त को द्रव्य कहा है ।) • द्रव्य ही धर्म जैसे धर्मास्तिकाय
·
·
गम्पधर्म आदि दशधर्म जैसे किसी देश में मातुल - दुहिता गम्य होती है ।
कुतीर्थिकों— एकान्तवादियों का धर्म ।
भावधर्म के श्रुत और चारित्र दो भेद हैं। श्रुतधर्म में स्वाध्याय आदि का तथा चारित्र धर्म में क्षमा आदि दश श्रमणधर्मों का समाहार होता है।
दशवैकालिकनियुक्ति में धर्म के मुख्यत: दो भेद किए हैं— अगारधर्म और अनरधर्म । अगारधर्म बारह प्रकार का तथा अनगारधर्म दश प्रकार का है। कुल मिलाकर धर्म के बाईस भेद हो जाते हैं। " दावैकालिक के प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में वर्णित धर्म के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से जाना जा सकता है—
"अस्तिकाय धर्म (धर्मास्तिकाय आदि )
लौकिक
गम्य पशु देश राज्य
धर्म
८१
प्रचारधर्म ( इंद्रिय विषय)
कुत्रावचनिक
पुरवर ग्राम गण गोष्ठी राज
श्रुतधर्म
भावधर्म
लोकोत्तर
चरित्र धर्म
१. दशनि ८८, १२० / २:
४. आवनि १०६४ ।
२. ठाणं ३/४१० ।
५. दशनि २२३-२५
३. आवनि १०६३, हाडी पृ. ५। ६. धर्म के विस्तृत वर्णन हेतु देखें, दशनि ३६-४० अचू पृ. १०, ११. हाटी प. २१-२३ ।
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८२
नमुक्तिपंचक
सूत्रकृतांग नियुक्ति (सूनि १००, १०५) के अनुसार धर्म के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं
ਮੈਂ
नामधर्म
स्थापनाधर्म
द्रव्यधर्म
भावधर्म
सचित्तधर्म
अचित्तधर्म
मिश्रधर्म
गृहस्थधर्म
लौकिकधर्म
लोकोत्तरधर्म
गृहस्थधर्म
अन्यतीर्थिकधर्म
ज्ञानधर्म
दर्शनधर्म
चारित्रधर्म
भति
श्रुत
अवधि
मन:पर्यव
केवल
औपशमिक
सास्वादन
क्षायोपशमिक
वेदक
क्षायिक
सामायिक छेदोपस्थापनीय
परिहारविशुद्ध सूक्ष्मसंपराय यथाख्यात
अर्थ
सांसारिक प्राणी के लिए भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री अर्थ से ही संभव है। महाभारत में कृषि, वाणिज्य और गो-पालन को अर्थ कहा गया है। क्योंकि इनके मूल में अर्थ-प्राप्ति का लक्ष्य रहता है। आचार्य वात्स्यायन अर्थ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि विद्या, भूमि, सुवर्ण, पशु, बर्तन, उपकरण, मित्र एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करना तथा उनकी वृद्धि करना अर्थ है। महाभारत में धर्म और काम को अर्थ का ही अंग माना है। कौटिलीय ने भी अर्थ को धर्म और काम का मूल माना है। समय के अनुसार अर्थ के विनिगय एवं उसके स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल में सिक्कों का अस्तित्व होते हुए भी वस्तुओं का विनिमय प्राय: वस्तुओं से होता था। आज वह रुपयों से होने लगा। नियुक्तिकार के समय अर्थ (सम्पत्ति) को छह रूपों में सुरक्षित रखा जाता था—धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद, कुम्य। धान्य-धान्य २४ प्रकार का होता है।" रत्न रत्न के भ. २४ प्रकार हैं। नियुक्तिकार ने चंदन, शंख, अगर, धर्म, दंत. केश के सौगंधिक
१. मभा शांतिपर्व १६७/११. १२।
३. मभ शांतिपर्व १६७/१४, २. कामसूत्र; १/२/८; विद्या-भूमि-हिरण्य-पशु-धान्य-भापडोपस्कर- कौटि. १/३/६/३ अर्थमूली हि धर्मकामादिति । मित्रादीनार्जनमर्जितस्य विवर्धनमः। ४ दशनि २२९, २३० निभा १०२९, १०३० ।
५. दशनि २३१. २३२, निभा १०३१।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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द्रव्य आदि को भी रत्नों के अंतर्गत माना है। कीमती होने के कारण संभवतः इनको रत्न के अंतर्गत रखा गया है 1
स्थावर — भूमि, घर और वन सम्पदा – ये तीन स्थावरसम्पत्ति के अंतर्गत आते हैं। आज की भाषा में इन्हें अचल सम्पत्ति कहा जा सकता है।
द्विपद—दो पहियों से चलने वाली गाड़ी एवं दास आदि । उस समय दास आदि को भी समृद्धि का प्रतीक माना जाता था क्योंकि दास खरीदे जाते थे ।
चतुष्पद— चतुष्पद के गाय आदि १४ प्रकार हैं।
कुप्य – सामान्य रूप से प्रतिदिन घर में काम आने वाले सभी उपकरण ।
इस प्रकार चौंसठ प्रकार से सम्पदा का संग्रह या विनिमय किया जाता था।
काम
आगमों में जिन दवा संज्ञाओं का उल्लेख है, उनमें मैथुन संज्ञा इसी का पर्याय है। विषय और इंद्रियों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाला मानसिक सुख काम है। महाभारत में अर्थ की समृद्धि से होने वाले आनंद को काम कहा गया है।' वात्स्यायन के अनुसार आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित कान त्वचा, आंख, जिहा और नाक आदि इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होना काम है। उन्होंने उसी प्रवृत्ति को काम माना है, जो धर्म के अनुकूल हो ।' आधुनिक विचारकों में फ्रामड़ ने इस मनोवृत्ति पर सूक्ष्मता से चिन्तन किया और इसे मौलिक वृत्ति के रूप में स्वीकार किया। संसार से विरक्त एवं निवृत्ति मार्ग पर प्रस्थित होते हुए भी नियुक्तिकार ने काम की जिन अवस्थाओं का वर्णन किया है, वह उनके बाहुश्रुत्य एवं अन्य ग्रंथों के गहन अध्ययन की ओर संकेत करता है । दशवैकालिकनियुक्ति में काम के दो भेद मिलते हैं - १. असंप्राप्त काम २ संप्राप्त काम ।
संप्राप्त काम का अर्थ है— प्रिय व्यक्ति के सामने रहने पर होने वाली मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाएं। असंप्राप्त काम का तात्पर्य है— प्रिय की अनुपस्थिति में होने वाली अवस्थाएं 1 असंप्राप्त काम की दश अवस्थाएं हैं
:
१. अर्थ -- किसी के रूप को सुनकर होने वाली आसक्ति ।
२. चिंता - बार - बार उली के गुणों का चिन्तन ।
३. श्रद्धा – प्रिय के प्रति पूर्ण समर्पणभाव, उससे मिलने की अभिलाषा ।
४. संस्मरण- वियोग में बार-बार उसी की स्मृति ।
५. विक्लवता — विद्योग होने पर आहार आदि में अरुचि होना, बैचेनी होना ।
६. लज्जा - परित्याग — गुरु-जनों के सामने भी बार बार उसी के नाम एवं गुणों का स्मरण । ७. प्रमाद--- सब कार्यों को छोड़कर उसी का चिन्तन तथा शब्दादि विषयों में अरुचि ।
१. दशनि २३३ ।
२. दशनि २३४ ।
३. दशनि २३५ ।
४. मभा, वनम ३७/८ ।
५. कानसूत्र; १/२/११; श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्राणानामात्मसंमुक्तेन मनसाधिष्ठिताना देषु स्वेषु विषमेष्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः काम......... आत्मसंयुक्तेन मनसा धर्मानुकूलेन प्रवृत्तिः कामः ।
६. दशनि २३७, २३८ ।
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नियुक्तिपंचक ८. उन्माद—कार्य और अकार्य का ज्ञान न रहना तथा निरर्थक बकदास करना। ९. तद्भाव—हर वस्तु में प्रिय का चिंतन करके उसका आलिंगन आदि करना । १०. मरण—उसकी याद में प्राण-परित्याग कर देना।
चूर्णिकार ने मरण को नौवीं तथा तद्भाव को दसवीं अवस्था स्वीकार किया है किन्तु टीकाकार हरिभद्र ने तद्भाव को नौवीं तथा मरण को दसवीं अवस्था के रूप में स्वीकार किया है। अवस्थाओं की दृष्टि से टीकाकार हरिभद्र का कम अधिक संगत लगता है।
बृहत्कल्प भाष्य में असंप्राप्त काम के दस लक्षणों का वर्णन कुछ अंतर के साथ मिलता है..... १. चिन्ता
६. सभी विषयों के प्रति चित्त में अरुचि २. प्रिय को देखने की इच्छा
७. मूर्छा ३. स्मृति में दीर्घ नि:श्वास छोड़ना ८. उन्माद ४. कामज्वर
९. बेभान होना ५ दाह का अनुभव
१०. मरण । उत्तराध्ययन की सुखबोधाटीका में इन अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन है। स्थानांग टीका में काम के अभिलाषा, चिंता, सततस्मरण, उत्कीर्तन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मृत्यु ये दश भेद मिलते हैं। वात्स्यायन ने कामसूत्र में काम के दस स्थान बताए हैं, उनमें शाब्दिक भिन्नता पर यदि ध्यान न दिया जाए तो अर्थ की दृष्टि से ये असंप्राप्त काम के संवादी हैं। १ आंखों में प्रेम की झलक।
६. लज्जा का भाग जाना। २. चित्त की आसक्ति।
७. अन्य विषयों में मन नहीं लगना। ३. संकल्प की उत्पत्ति।
८. उन्माद। ४. निद्रा का भाग जाना।
९. मूर्छा। ५. काम-भावना से दुर्बलता का अनुभव। १०. मृत्यु। नियुक्तिकार ने संप्राप्त काम के १४ भेदों का उल्लेख किया है - १. दृष्टिपात
८. नखनिपात २. दृष्टि सेवा (निरंतर उसी को देखना) ९. चुम्बन ३. संभाषण
१०. आलिंगन ४. प्रणय प्रकट करने के लिए मुस्कराना ११. आदान–गोद में बिठाना ५. गीत, नृत्य आदि करना
१२. करण—वस्त्र रहित करना ६. अवगूहन
१३. आसेवन ७. आपस में दांत मिलाना
१४. रतिक्रीड़ा
१. दशअचू पृ.१४२, हाटी प. १९४ । २. बृभा २२५८: चिंता य दमिच्छद, दीहं नीससइ तह जरो दाह
चित्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं ।। ३. उसुटी ५. ८५ । ४. स्याटी प. ४२३, ४२४ ।
५ कमसूत्र ५/६/२. ३: चक्षुःप्रीति: मन-संग:
संकल्पोत्पत्ति निद्राच्छेद: तनुता विषयेभ्यो व्यावृति: लज्जाप्रणाश. उन्माद: मूळ-मरण
मित्ति तेषां लिंगानि। ६. दशनि २३८, २३९ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
___ आचार्य बाभ्रवीय का कामसूत्र वर्तमान में अनुपलब्ध है लेकिन पंडित यशोधर एवं धात्रयायन ने अपने ग्रंथों में इनके उद्धरण दिए हैं। बाभ्रवीय के अनुसार प्रिय की सन्निकटता में काम के मुख्यत: आठ तथा विस्तार से ६४ अंग होते हैं। आठ अंग इस प्रकार हैं—१. आलिंगन २, चुम्ब-. ३. नखच्छेद ४. दशनच्छेद, ५५. सह शयन, ६. सीत्कार, ७. सम्भोग, ८. मुखसम्भोग।
दक्षसंहिता में संप्राप्त और असंप्राप्त—इन दोनों ही कामों का समाहार आठ अंगों में किया गया है...१. स्मरण, २. कीर्तन, ३. कीड़ा, ४. स्नेह युक्त दृष्टिक्षेप. ५. गुप्त संभाषण, ६ संकल्प, ७. प्रिय-प्राप्ति के लिए अध्यवसाय, ८. क्रियानिष्पत्ति।
मनुस्मृति में धर्म, अर्थ और काम की सर्वश्रेष्ठता के संबंध में अनेक मतों को प्रस्थापित कर अंत में त्रिवर्ग में तीनों को श्रेष्ठ माना है। भगवान् महावीर ने धर्म को शरण, गति और प्रतिष्ठा के रूप में स्वीकार किया है तथा इसे सर्वोच्च स्थान दिया है।' वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां
वैदिक ग्रंथों में वर्ण-व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके विभाजन के पीछे ऋषियों का चिन्तन था आचार और कर्म का विवेक लेकिन जब यह वर्ण-व्यवस्था अधिकार के साथ जुड़ गयी तब इसमें विकति का प्रवेश होने लगा। जाति या वर्ण के आधार पर व्यक्ति को पश से भी बदतर माना जाने लगा. यह मानवीय अधिकार का दुरुपयोग था। भगवान् महावीर ने जाति एवं वर्ण-व्यवस्था के विरोध में अपनी आवाज को बुलन्द किया और कर्म के आधार पर ब्राह्मण, अत्रिय आदि जातियों का निरूपण किया।
यद्यपि नियुक्तिकार ने 'मनुष्य जाति एक है। इस स्वर को बुलन्द किया है लेकिन वे अपने समकालीन तथा पूर्ववर्ती साहित्य एवं संस्कृति से बहुत प्रभावित भी रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण नियुक्ति-साहित्य में मिलते हैं। वर्ण-व्यवस्था का जो वर्णन आचारांगनियुक्ति में मिलता है, उसमें वैदिक परम्परा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णान्तर जाति के ऐसे भेदों का कोई उल्लेख जैन आगम-साहित्य में नहीं मिलता। ब्रह्म की व्याख्या में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है।
___ सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल पुरुष-सूक्त में वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति का संकेत मिलता है। यजुर्वेद के अनुसार सर्वप्रथम ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय, वैश्य और अंत में शूद की उत्पत्ति हुई । भावेद के अनुसार विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए।' उस विराट् पुरुष के सहस्र शिर, सहस्र आंखें तथा सहस्त्र पैर थे तथा वह भूत और भविष्य
१ दक्षलहिता; स्मरण कीर्तनं केलिः, प्रेक्षगं गुह्यशाप्रणम्। संकल्पोऽभवसायश्च, क्रियानिष्पत्तिरेव च।। २. मनु. २/२२४; धर्मार्थावुच्यते श्रेय: कामार्थी धर्म एव च । अर्थ एवेह दा श्रेयरित्रवर्ग इति तु स्थितिः।। ३. उ. २३/६८। ४. उ. २५/३१; कम्मुणा बंभागी होइ, कम्मुण होइ खत्तिो । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवद कम्मुणा।। ५. यजुर्वेद ३०.५; ब्रहाणे ब्राहाणं,मत्राय राजन्यं, मरुद्भ्यो देश्य, तपसे शूद्रम् ६. ऋग्वेद १०/१०/१२; ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्, बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद् वैश्य: पद्मणं शूद्रोऽजामत।।
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नियुक्तिपंचक
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था । वैदिक परम्परा की इस मान्यता का जैन पुराण साहित्य पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । महापुराण एवं पद्मपुराण के अनुसार ऋषभदेव ने भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की, ऊरुओं से देशाटन कर वैश्यों की रचना की क्योंकि वैश्य विभिन्न देशों की यात्रा कर व्यापार द्वारा आजीविका चलते थे । शूद्रों की रचना पैरों से की क्योंकि वे सदा नीच वृत्ति में तत्पर रहते थे। ऋषभ के पुत्र भरत न मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों का सृजन किया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चारों वर्णों की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर मैंने की है। इनका विनाश भी मेरे हाथ में है । नियुक्तिकार के अनुसार भगवान् ऋषभ के राज्यारूढ़ होने से पूर्व एक ही (क्षत्रिय) जाति थी। ऋषभ के राजा बनने के बाद फिर क्रमश: शूद्र, वैश्य और श्रावक धर्म का प्रवर्त्तन करने पर ब्राह्मणों की उत्त्पत्ति हुई। टीकाकार ने नियुक्तिकार की संवादी व्याख्या की है किन्तु चूर्णिकार का मत नियुक्तिकार से भिन्न है । उनके अनुसार ऋषभदेव के समय जो उनके आश्रित थे, वे क्षत्रिय कहलाए। बाद में अग्नि की खोज होने पर उन गृहपतियों में जो शिल्प और वाणिज्य का कर्म करने वाले थे, वे वैश्य कहलाए। भगवान् के दीक्षित होने पर भरत के राज्याभिषेक के बाद भगवान् के उपदेश से श्रावक धर्म की उत्पत्ति हुई। कर्मप्रय थे तथा 'मा हण' मा हण' रूप अहिंसा का उद्घोष करते थे अतः लोगों ने उनका नाम माहण— ब्राह्मण रख दिया। जो न भगवान् के आश्रित थे और न किसी प्रकार का शिल्प आदि करते थे, वे अश्रावक शोक एवं द्रोह स्वभाव से युक्त होने के कारण शूद्र कहलाए। शूद्र का युत्पत्तिमूलक अर्थ शू अर्थात् शोक स्वभाव युक्त तथा द्र अर्थात् द्रोह स्वभाव युक्त किया है। चूर्णिकार द्वारा किए गए क्रम-परिवर्तन में एक कारण यह संभव लगता है कि चूर्णिकार पर वैदिक परम्परा का प्रभाव पड़ा है। पद्मपुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के लिए नियुक्त क्रिया, वे क्षत्रिय कहलाए। जिनको वाणिज्य खेती एवं पशुपालन आदि के व्यवसाय में लगाया, वे वैश्य कहलाए। जो निम्न कर्म करते थे तथा शास्त्रों से दूर भागते थे, उन्हें शूद्र संज्ञा से अभिहित किया गया। महापुराण में भी इसका संवादी वर्णन है।" वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में मुख्य रूप से पांच सिद्धांत प्रचलित हैं - १. देवी सिद्धांत २. गुण सिद्धांत ३. कर्म सिद्धांत ४ वर्ण एवं रंग का सिद्धांत ५ जन्म का सिद्धांत |
वर्णसंकर जातियां
चार वर्णों के बाद अनेक जातियां तथा उपजातियां उत्पन्न हुईं। इसका कारण अनुलोम-प्रतिलोम विवाह थे। महापुराण के अनुसार वर्णसंकर उत्पन्न करने वाले दंड के पात्र होते थे। संयोग के आधार पर १६ जातियां उत्पन्न हुईं, जिनमें सात वर्ण तथा नौ वर्णान्तर कहलायीं ।" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, क्षत्रियसंकर" वैश्यसंकर और शूद्रसंकर ये सात वर्ण हैं। इन सात वर्णों में अंतिम तीन
१. ऋग्वेद १०/९०/१, २:
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।।
२. महापु. १६ / २४३-४६, पद्म ५/१९४.१९५ । ३ गीत ४ / १३: चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश.
४. आनि १९ ।
५. आचू पृ. ४.५ ।
।
६. पद्म ३/२५६-५८, हरि. ९ / ३९ । ७. महापु. १६/१८३ ।
८. विस्तार हेतु देखें प्राचीन भारतीय संस्कृति पृ. ३८४-९६ । ९. महापु_१६/२४८ ।
१०. अनि २० ।
११. ब्रहा तथा क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न ।
१२. ब्रह्म तथा वैश्य स्त्री से उत्पन्न ।
१३ क्षत्रिम और शूद्र स्त्री से उत्पन्न ।
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नियुक्ति साहित्य . एक पर्यवेक्षण अनंतर योग से उत्पन्न होते हैं इसलिए अंतिम वर्ण शूद्र का व्यपदेश होता है।'
नियुक्तिकार के अनुसार अम्बष्ठ आदि ९ वर्णान्तर जातियों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है -
मागध | सूत
। क्षत्त
। वैदेह | चाण्डाल
वर्णान्तर | अम्बष्ठ | उग्र | निषाद/ | अयोगव
परासर ब्राह्मण
ब्राहाण स्त्री | वैश्यः | शूद्र! | शूद्रा
वैश्या
पुरुष
वैश्य क्षत्रिय | शूद्र । वैश्य | शूद्र क्षत्रिया । ब्राह्मणी । क्षत्रिया | ब्राह्मणी| ब्राह्मणी
मनुस्मृति में वर्णान्तर के रथान पर वर्णसंकर शब्द का प्रयोग हुआ है। मनुस्मृतिकार ने वर्णसंकर संतान उत्पन्न होने के तीन कारण माने है.. व्यभिचार २. एक गोत्र में विवाह ३. यज्ञोपवीत संस्कार आदि छोड़ना। मनुस्मृति में चार वर्णों से उत्पन्न निम्न वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है
मागध' | सूत
। क्षत" | वैदेह
| चाण्डाल"
वर्णान्तर | अम्बष्ठ | उन' | निषाद'! | अयोगत्र'
पारणब सुरुष ब्राह्मण क्षत्रिय ब्राह्मण
वैश्ण
]
वैश्य क्षत्रिया
क्षत्रिय | शूद्र । वैश्य ब्रह्मपी क्षत्रिया ब्राह्मणी
शूद्र ब्राहाणी
वैश्या
शूद्रा
गौतमधर्म सूत्रकार ने विवाह के प्रसंग में अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, दौष्मन्त और पारशव को अनुलोम विवाहों से उत्पन्न वर्णसंकर जातियां मानी हैं तथा सूत, मागध, अयोगव, कृत, वैदेह और चाण्डाल-- इन छह को प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न वर्णसंकर जातियां स्वीकार की हैं। मनुस्मृति में कृत के स्थान पर क्षत्र/क्षत्त शब्द का प्रयोग मिलता है। गौतम सूत्र में इन वर्णसंकर जातियों की संख्या ग्यारह मिलती है। नियुक्तिकार और मनुस्मृतिकार ने निषाद और पारशव को एकार्थक माना है। जबकि गौतमसूत्र में इन दोनों को भिन्न माना है। गौतम सूत्र के अनुसार इनकी उत्पत्तिकम में भी कुछ
१. आनि २१।
१०. मनु १०/१२। २ अनि २२-२५ ।
११. मनु १०/११ ३ मनु १०/२४।
१२. मनु. १०/१२ ४. मनु. १०/८।
१३. अनुलोम विवाह क, अध है उच्च वर्ण के गुरुष का अपने से निम्न ५. मनु १०/१।
वर्ग की स्त्री से विवाह। मनु. १०/८।
१४. गौ. १/४/१४; अनुलोमा अनन्तरकान्तरट्यन्तरासु जाता:सवर्गाम्बन ७. (क) मनु. १०/१२।
निषाददौष्मन्तपारशवाः । (ख) मनुस्मृति में अयोगाव के स्थन पर १५. प्रतिलोम विवाह का अर्थ है पुरुष का आहने से उच्च वर्ण की स्त्री आयोगव का प्रयोग हुआ है।
से विवाह। ८. मनु. १०/११।
१६. रौ १/४/१५ प्रतिलोमस्तु सूतमागधायोगवकृतवैदेहकधण्हाला: । ९. मनु. १०/११।
१७ मनु. १०/२६ । १८. आचारांगानिमुक्ति में पारशव का परसर नाम मिलता है।
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imilia
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नियुक्तिपंचक
भिन्नता है. जो इस प्रकार है -
वर्णान्तर अम्बष्ठ उम्र सुरुः क्षत्रिय पप
निषाग | ब्राहाग
पारसपूत ] 1.12 अयोगव क्षत्रिय ब्राह्मण क्षत्रिय | दैश्य शुद्र
कृत विदेहक चाण्डाल वैश्य शूद्र शूद
स्त्री । वैयर। शूद्रा । वैश्या । शूद्रा भद्रा । ब्रह्माणी, क्षत्रिया नेण्यः । ब्राहारी भत्रिया ब्राह्मणी
इन जातियों का विस्तृत वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। जैन पुराणों में भी अनेक जातियों एवं उपजातियों का उल्लेख मिलता है।' वर्णान्तर के संयोग से उत्पन्न जातियां
नियुक्तिकार ने वन्तर से उतान्न चार जातियों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार उग्र पुरुष से क्षत्त स्त्री में उत्पन्न जाति श्वपाक, दैदेह पुरुष से सत्त स्त्री में उत्पन्न जाति वैणाव, निषाद पुरुष से अम्लष्ठ अथवा सूद्र स्त्री में उत्पन्न जाति बुक्कस तथा शूद्र पुरुष और निषाद स्त्री से उत्पन्न जाति कुक्कुरक कहलाती है। मनुस्मृति में वर्णसंकर जातियों के संयोग से उत्पन्न अनेक जातियों का उल्लेख है। उनकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है
वर्णशंकर
आवृत। आभीर धिग्वण" | पुक्कस कनकूटक। श्वपाक [ घेणार मैवेयक ब्राझाग । हाण ब्रह्मण | निशाद | शृद्र
| वैदेह अम्बष्ठी अयोगी
निषादी | संग अम्बष्ठी अयोगवी
क्षत
मार्गवरी निषाद अयोगही
स्त्री
मज्झिमनिकाय में बुक्कस और वैणाव आदि पांच जातियों को हीन माना है। वैदिक ग्रंथों में और भी अनेक वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है लेकिन यहां केवल नियुक्ति में आयी वर्णसंकर जातियों की तुलना के लिए ग्रंथान्तर के उद्धरण दिए हैं। चूर्णिकार ने इनको सच्छंदमतिविगप्पितं माना है अर्थात् वैदिक परम्परा में वर्ण एवं वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति के विषय में जो कुछ कहा गया है, वह स्वच्छंदमति की कल्पना है।" स्थावरकाय
चारांग सूत्र का प्रारम्भ अस्तित्व-बोध की जिज्ञासा से होता है। भगवान् महावीर स्पष्ट कहते हैं कि पांच स्थावर जीवों के अस्तित्व के साथ ही अन्य प्राणियों का अस्तित्व टिका हुआ है। जो लोक (स्थावर जीवों) के अस्तित्व को नकारता है, वह अपने अस्तित्व को नकारता है। स्थावर जीवों में
६ .१/४/१४ १५ । २. मभा. अनुशासन गई। ३ जैन पुराने का ....... ५२.५३ । ४. अन २६. २७। ५.७. मनु १०/१५ । ८.९ मनु१०/१८
१०.११. मनु १०/१२ । १२. मनु.१०/३३ १३. मा. १०/३४ मर्गव को दास और कैवर्त भी कहा जाता था। १४. भरिझम २/५/३! १५. आयू ६ १६. आप रो १/६६।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण जीवत्व-निरूपण का मुख्य आधार है—प्रत्यक्ष दर्शन । महावीर ने प्रत्यक्ष ज्ञान (केवल ज्ञान, केवल दर्शन ) के द्वारा इन अति सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व देखा। आचार्य सिद्धसेन कहते हैं-भगवन्! आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि में एक प्रमाण ही पर्याप्त है कि आपने षड्जीवनिकाय का निरूपण किया। समूचे भारतीय दर्शन में षड्जीवनिकाय का निरूपण महावीर की एक मौलिक प्रस्थापना है।
वैदिक धर्म में पृथ्वी, जल आदि को देववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। जैसे पृथ्वी देवता, जल देवता, अग्नि देवता आदि। कुछ दार्शनिकों ने इन्हें पंच भूतों के रूप में स्वीकार किया। इस संदर्भ में नहावार ने द्वादशांगी के प्रथम अंग आचारांग में अपना क्रान्त-स्वर मुखर करते हुए कहा-~-'पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि के आश्रित तो अनेक त्रस जीव हैं ही पर ये स्वयं जीव है। पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला उनके आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर पर्याप्त या अपर्याप्त अनेक जीवों की हिंसा करता है। सृष्टि-संतुलन की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि किसी भी काय के जीवों की हिंसा से सम्पूर्ण जीव-मंडल प्रभावित होता है।
ये स्थावर जीव मूक, अंध, बधिर प्राणी की भांति अपनी वेदना को व्यक्त करने में असमर्थ हैं पर इनकी वेदना को आत्मवत् स्वीकार करना चाहिए, यही अहिंसा की उत्कृष्टता है। जैसे कोई धतूरा मिश्रित द्रव पी ले तो मूर्छित होने के कारण उसमें रैतन्य या देदना के लक्षण स्पष्ट दिखाई नहीं पडते वैसे ही स्त्यानद्धि रूप सघन मर्जी के कारण इनमें चैतन्य स्पष्ट प्रतिभासित नहीं होता। ये जीव अमनस्क वेदना की अनुभूति करते हैं। नियुक्तिकार के अनुसार जैसे मनुष्यों के अंग-प्रत्यंगों का छेदन करने से उनको पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय के अंगोपांग न होने पर भी अंगोपांग के छेदन-भेदन तुल्य वेदना होती है। आयारो में पुनरावृत्ति का खतरा उठाकर भी पृथ्वी आदि के स्वरूप एवं अस्तित्व-सिद्धि का पृथक्-पृथक विस्तृत विवेचन किया गया है। महावीर कहते हैं कि व्यक्ति अपनी आसक्ति एवं अज्ञान के कारण सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाता। आचारागनियुक्ति में स्थावर जीव में जीवत्व-निरूपण के प्रसंग में पर्यावरण-संरक्षण एवं सृष्टि-संतुलन के महत्त्वपूर्ण सूत्र उपलब्ध होते हैं। यद्यपि नियुक्तिकार ने पर्यावरण जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन इस संदर्भ में जितनी गहराई से आचारांग सूत्र एवं उसकी नियुक्ति में चिंतन हुआ है, वैसा अन्य किसी प्राचीन ग्रंथ में मिलना दुर्लभ है। आचारांगनिर्मुक्ति में शस्त्र की उत्पत्ति एवं हिंसा के मनोवैज्ञानिक कारण प्रस्तुत हैं। उनके अनुसार दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया तथा अविरति—ये सबसे बड़े शस्त्र हैं। आज मनोवैज्ञानिक स्पष्ट रूप से इस बात की उद्घोषणा कर चुके हैं कि शस्त्र का निर्माण एवं युद्ध सर्वप्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में होता है फिर युद्धक्षेत्र में लड़ा जाता है।
आधुनिक जीव-वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार के जीवों की खोज की है किन्तु नियुक्तिकार ने जिस सूक्ष्मता से जीवों के भेदों का निरूपण किया है, वहां तक अभी विज्ञान की पहुंच नहीं हो सकी है। सभी स्थावरकाय के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद मिलते हैं। सूक्ष्म जीव समूचे लोक में तथा बादर जीव लोक
१. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ । २. आयारो १/२९. आनि १०२, १०३। ३. आयारो १/२८, २९ ।।
४. आनि ९७, ९८। ५. आनि ३६।
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नियुक्तिपंचक के एक भाग में व्याप्त रहते हैं। पृथ्वीकाय में बादर पृथ्वी के दो भेद मिलते हैं—पलक्ष्ण बादर पृथ्वी और खर बादर पृथ्वी। खर बादर पृथ्वी के बालुका, शर्करा आदि छत्तीस प्रकार हैं। वर्ग, गंध, रस और स्पर्श के भेद से पृथ्वीकाय आदि के अनेक भेद होते हैं। इसी के आधार पर पृथ्वीकाय की सात लाख योनियां होतो हैं । पृथ्वी के एक, दो या संख्येय जीव दृष्टिगोचर नहीं होते। पृथ्वी का असंख्येय जीवात्मक पिंड ही दृष्टिगत होता है। अर्थात् पृथ्वीकाय के जीव इसने सूक्ष्म हैं कि असंख्य जीवों के पिंड ही चर्म चक्षुओं के लिए ग्राह्य हो सकते हैं। अनंतकाय वनस्पति में बादर निगोद के अनंत जीवों के शरीरों का पिंड दृग्गोबर हो सकता है किन्तु सूक्ष्म निगोद ले अनंतानंत जीवों का संघात ही दृग्गोचर होता है।' गृथ्वीकाय जीवों की सूक्ष्मता को जैन आचार्यों ने एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। कोई चक्रवर्ती की दासी पृथ्वी या नमक के टुकड़े को वज्रमय शिलापुत्र से २१ बार पीसे तो भी कुछ जीव संघट्टित होते हैं, कुछ नहीं। कुछ जीन परितापित होते हैं, कुछ नहीं। कुछ जीव स्पृष्ट होते हैं, कुछ नहीं। वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि एक चम्मच मिट्टी में जितने सूक्ष्म जीव है, उतनी सम्पूर्ण विश्व की आबादी है। जूलियस हेक्सले ने अपनी पुस्तक 'पृथ्वी का पुनर्निर्माण में इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि एक पेंसिल की नोक से जितनी मिट्टी उठ सकती है, उसमें दो अरब से अधिक विषाणु होते हैं तथा पेंसिल की नोक के अग्र भाग पर स्थित मिट्टी में जीवों की संख्या विश्व के समस्त मनुष्यों की संख्या के बराबर है। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने पृथ्वीकाधिक जीवों को अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग बतलाई है।
पृथ्वीकाय जीवों के परिमाण को रूपक के माध्यम से समझाते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर यदि एक-एक पृथ्वीकायिक जीव को रखा जाए तो वे सारे जीव असंख्य लोकों में समाएंगे। दूसरा रूपक देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति प्रस्थ. कुइव आदि साधनों से सारे धान्य का परिमाण करता है वैसे ही लोक को कुडव बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण करे तो वे जीव असंख्येय लोकों को भर सकते हैं। साधारण वनस्पति के जीवों को प्रस्थ आदिसे माप कर अन्यत्र प्रक्षिप्त करे तो अनंत लोक भर जाएंगे। इसी प्रकार अन्य कायों के भेद एवं उनका परिमाण भी ज्ञातव्य है। स्थावरकाय में जीवत्व-सिद्धि
आचारांग सूत्र में वनस्पति में जीवत्व-सिद्धि के अनेक हेतु दिए हैं किन्तु अन्य पृथ्वी आदि स्थावर जीवों की जीवत्व-सिद्धि में तार्किक हेतू न देकर आज्ञागम्य करने का निर्देश किया है। नियुक्तिकार ने पृथ्वी आदि पांच स्थावरों में जीवत्व-सिद्धि के अनेक तार्किक एवं व्यावहारिक हेतु प्रस्तुत किए हैं ।स्थाबरकाय की जीवत्व-सिद्धि में दिए गए तर्क नियुक्तिकार की मौलिक देन है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से भी उन्होंने जीवत्व के अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं । पृथ्वीकाय आदि में उपयोग, योग, अध्यवसाय, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, अचक्षुदर्शन, लेश्या, संज्ञा, सूक्ष्म श्वास
१. आगि ७२-७६ । २ आनि ७७, ७८। ३ आनि ८२। ४. आनि १४३।
५. आनि ८७.८८,१४४ । ६. अपने क) १०८, १९८, १२७-३०.१६६ ।
अग्नि (ख) १९. १२०, १३४.१४५. १६८। ७. अपारो १/३८1
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नि:श्वास तथा कषाय आदि का अस्तित्व होता है।'
नियुक्तिकार ने प्रत्येक स्थावरकाय के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, हिंसा के शस्त्र, वेदना. वध और निवृत्ति—इन ९ द्वारों का वर्णन किया है। ये सभी द्वार आधुनिक जीवविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। बस जीत्रों में गति. आगति, भाषा आदि के स्पष्ट चिह्न दिखाई देने से उनके पैतन्य में कोई संदेह नहीं होता पर पृथ्दीकाय आदि जीवों में चैतन्य के व्यावहारिक लक्षण दिखाई नहीं गेते सातः उनकी लीवर. मागग नहीं होती। पृथ्वीकाय
पृथ्वीकाय में चैतन्य-सिद्धि का हेतु देते हुए कहा गया कि जैसे मानव शरीर में मस्सा आदि समानजातीय मासांकुर उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पृथ्वीकाय में समानजातीय वृद्धि होती है। खोदी हुई नमक की खान में नमक बढ़ता जाता है, समुद्र में मूंगा उत्पन्न होता है अत: पृथ्वी सजीद है। आधुनिक भूवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि शिलाखंड, पर्वत आदि में हानि-वृद्धि होती है। वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार केदारनाथ और बद्रीनाथ तीर्थस्थानों की ऊंचाई में पिछले ७० वर्षों में १०६ मीटर की वृद्धि हुई है तथा हिमालय की पर्वत-श्रृंखलाएं एक शताब्दी में १० सेमी. की गति से ऊंची हो रही हैं। इसी प्रकार इंडोनेशिया के द्वीप समूह की भूमि भी ऊपर उठ रही है। द्वीप की भूमि का उठाव एवं पर्वतों की वृद्धि से पृथ्वी की सजीवता सिद्ध होती है।
प्रश्न हो सकता है कि पृथ्वी इतनी कठोर है तो उसमें चैतन्य का लक्षण कैसे घटित हो सकता है, इसका उत्तर देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे शरीर में हड्डी कठोर होती है पर उसमें चेतना अनुगत होती है, वैसे ही कठोर होते हुए भी पृथ्वीकाय में चैतन्य है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु तथा एफ आर. एम. आदि विद्वानों ने अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि पत्थर, तांबा, लोहा आदि उत्तेजित किए जा सकते हैं तथा थोड़ी देर उत्तेजित होने के बाद इनमें थकान के चिह्न भी देखे जाते हैं। पर्वत आदि में क्लान्ति, चयापचय और मृत्यु-चैतन्य के ये तीनों लक्षण पाए जाते हैं। पृथ्वी का मानव-स्वभाव पर भी आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। भूवैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी में कोध, अहंकार, युद्ध, शांति, क्रूरता आदि स्वभाव होते हैं। उनके इस स्वभाव का प्रभाव मानव समुदाय पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। जूलियस हेक्सले का मानना है कि केलिफोर्निया प्रांत या साइबेरिया भेजने पर मनुष्य अपनी हिंसकवृत्ति भूलकर गाय या बकरी की भांति पालतू बन जाते हैं। डॉ. चार्ल्स कैला के अनुसार अमरिकी गृहयुद्ध का कारण भूमि है। अपकाय
पानी में जीव है इसे अनेक दार्शनिक स्वीकार करते थे पर पानी स्वयं जीव है, यह महावीर की नयी प्रस्थापना है। पानी में जीवत्व-सिद्धि का हेतु देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे तत्काल उत्पन्न (सप्ताह पर्यन्त) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही अप्काय के जीव तरल होते हुए भी सजीव होते है।
१. आनि ८४। २. आनि ६८। ३. षड्. टी पृ.२३८. भिक्षुन्यारकर्णका ७/११ ।
४. आनि ८५। ५. आनि ११८ ।
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नियुक्तिपंचक तैजस्काय
विज्ञान अभी तक तैजस्काय में जीवत्व के लक्षण नहीं खोज पाया है लेकिन भगवान् महावीर ने अपने ज्ञानचक्षुओं से इसमें पैतन्य के लक्षण देखे । नियुक्तिकार व्यावहारिक हेतुओं द्वारा तैजसकाय में जीवत्व के लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- जैसे रात्रि में खद्योत ज्योति करता है, वह उसके शरीर की शक्ति विशेष है। इसी प्रकार अंगारे में भी प्रकाश आदि की जो शक्ति है, वह तैजस्कायिक जीवों से आविर्भूत है। जैसे ज्वरित व्यक्ति की उष्मा सजीव शरीर में ही होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीवों में प्रकाश या उष्मा उनके शरीर की शक्ति-विशेष है। जैसे आहार करने पर मनुष्य के शरीर की वृद्धि होती है,वैसे ही ईधन आदि के द्वारा अग्नि बढ़ती जाती है अत: तेजस्काय सजीव है। जैसे मनुष्य ऑक्सीजन के आधार पर जीता है वैसे ही अग्नि भी ऑक्सीजन के आधार पर ही प्रज्वलित रहती है अन्यथा वह बुझ जाती है। वायुकाय
वायु इंद्रियंगम्य नहीं, केवल अनुभूतिगम्य है। इसके अस्तित्व को सिद्ध करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं— जैसे देवताओं का शरीर चक्षुग्राह्य नहीं होता, जैसे—अंजन, विद्या तथा मंत्र-पक्ति से मनुष्य अंतर्धान हो जाता है वैसे ही चक्षुग्राम न होने पर भी वायु का अस्तित्व है।' गाय, मनुष्य आदि की भांति किसी भी प्रेरणा के बिना ही वायु अनियमित रूप से इधर-उधर गति करती है, अत: वह सजीव
वनस्पतिकाय
आचारांग सूत्र में वनस्पति और मानव की बहुत सुंदर तुलना की गयी है संभवत: इसीलिए पुनरुक्ति के भय से नियुक्तिकार ने वनस्पति में जीवत्व-सिद्धि का कोई हेतु नहीं दिया । आयारों में वर्णित मनुष्य और वनस्पति की तुलना 'द्रष्टव्य है। मनुष्य
वनस्पति १ मनुष्य जन्मता है।
वनस्पति भी जन्मती है। २. मनुष्य बढ़ता है।
वनस्पति भी बढ़ती है। ३. मनुष्य वैतन्ययुक्त है।
वनस्पति भी चैतन्यमुक्त है। ४ मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है। वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होती है। ५५ मनुष्य आहार करता है।
वनस्पति भी आहार करती है। ६. मनुष्य अनित्य है।
वनस्पति भी अनित्य है। ७. मनुष्य अशाश्वत है।
वनस्पति भी अशाश्वत है। ८. मनुष्य उपचित और अपचित होता है। वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। ९. मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती
होता है।
१. आनि ११२। २. भिक्षुन्यायवर्णिका ७/१२ ।
३ आनि १६७। ४. जय.रो १/११३।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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चूर्णिकार के अनुसार वनस्पति में स्वप्न, दोहद, रोग आदि सभी लक्षण पाए जाते हैं। वनस्पति में जीवत्व के अनेक हेतु षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में है। पौधों में अनुभूति संवेदनशीलता और चेतना होती है, इसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य जगदीशचन्द्र वसु ने किया। उन्होंने यंत्र के माध्यम से पौधों की प्रतिक्रियाओं को ग्राफ पर उतारकर दिखलाया। उन्होंने देखा कि पौधों में हीनता और उच्चता के भाव भी होते हैं। उनमें हिंसक को देखकर भय सथ अपमान होने पर कोध संज्ञा जागृत होती है। आचार्य वसु ने पौधों को मदिरा निलाई पौधे पर मंदिर का वही असर हुआ, जो मानव पर होता है। पौधे ने अपनी मदहोशी ग्राफ पर अंकित कर दी। अमेरिका में यह खोज हो चुकी है कि पौधों की अपनी भाषा होती है।
अपनी सांकेतिक भाषा में आने वाले खतरों या कीड़े-मकोड़ों से बचने हेतु रसायन बनाते हैं तथा पड़ोसी पेड़ को सूचना देते हैं। अफ्रीका के घने जंगलों में कुछ ऐसे मासांहारी वृक्ष पाए जाते हैं, जिनकी शाखाओं पर ढालनुमा फूल लगते हैं तथा इन पर होने वाले कांटे दो फीट लम्बे होते हैं । जब कोई प्राणी भूल से उधर से गुजरता है तो ये अपनी कंटीली शाखाओं को फैलाकर प्राणी को घेर लेते हैं और अपने जहरीले कांटों से व्यक्ति का खून पी जाते हैं।
आधुनिक वनस्पति विज्ञान के जनक कार्ल दान लिनिअसं के अनुसार पौधे बोलने व कुछ सीमा तक गति करने के अलावा मानव से किसी भी अर्थ में कम नहीं होते। जापान का वैज्ञानिक हशीमोतो पौधों से बातचीत कर लेता था । वह पोलोग्राफ के चिह्नों को ध्वनि के रूप में रूपान्तरित करने में सफल हो गया था अतः उसने पौधों को एक से बीस तक की गिनती सिखा दी। जब पौधों से पूछा जाता कि दो और दो कितने होते हैं तो वह जिन ध्वनियों में उत्तर देता, उसे रेखाकृति में बदलने पर चार पृथक्पृथक् रेखाकृतियां उभर आतीं ।
नियुक्तिकार ने न केवल तर्क द्वारा स्थावर जीवों में जीवत्व - सिद्धि की है अपितु उनकी हिंसा न करने का भी निर्देश दिया है। उन्होंने बार-बार इस बात की उद्घोषणा की है कि व्यक्ति अपने सुख की खोज में इन पृथ्वी, अप् आदि जीवों की हिंसा करता है। स्थावरकाय में जीवत्व-निरूपण नियुक्तिकार की मौलिक एवं वैज्ञानिक देन है।
भिक्षु का स्वरूप
नियुक्तियां लगभग आचारपरक ग्रंथों पर लिखी गयीं अत: इनमें स्वतः आचार के अनेक विषयों का समावेश हो गया है। पंच आचार का सुंदर वर्णन दशवैकालिक नियुक्ति में मिलता है। इसी प्रकार पर्युषणाकल्प का वर्णन भी साध्वाचार की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुनि के वर्षावास स्थापित करने के अनेक विकल्प उस समय की आचार -परम्परा का दिग्दर्शन कराते हैं। उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित परीषद् का विवरण कर्मशास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकार ने लगभग ९ द्वारों के माध्यम से परीणहों का सर्वागीण वर्णन किया है। इसी प्रकार सामाचारी, विनय, समाधिमरण धज्जीवनिकाय आदि का वर्णन भी जैन आचार की
दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
१. आचू पृ. ३५: सुयण- दोहल- रोगादिल पञ्चभागिया । २. षड्दर्शनसमुच्चय टी. पृ. २४२-४५ । ३. आनि १४ ।
४. दशनि १५४-६१ :
५. दनि ५३-१२० t
६. उनि ६९-१४१1
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विस्तारभय से यहां केवल भिक्षु का स्वरूप एवं भिक्षाचर्या का ही वर्णन किया जा रहा है।
भारतीय परम्परा में भिक्षु / संन्यासी का स्थान सबसे ऊंचा रहा है। प्राय: सभी धर्मों के आचार्यों नेभिक्षु के स्वरूप का निर्णय किया है। वैदिक परम्परा में मनुस्मृति भगवद्गीता, महाभारत तथा उपनिषदों में अनेक स्थलों पर संन्यासी के गुणों एवं उसके स्वरूप का वर्णन मिलता है। बौद्ध परम्परा में 'धम्मपद' के अंतर्गत 'भिक्खुवग्ग' में भिक्षु के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जैन परम्परा में प्रायः सभी आगम भिक्षु / साधु को लक्ष्य करके लिखे गये हैं अतः स्फुट रूप से भिक्षु के गुणों एवं उसके करणीय-अकरणीय का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता है किन्तु दशवैकालिक में 'स भिक्खु तथा उत्तराध्ययनमें स- भिक्खुय' नामक स्वतंत्र अध्ययन हैं, जिनमें भिक्षु के स्वरूप, लक्षण, चर्या आदि का निरूपण किया गया है।
निर्युक्तिपंचक
दशवैकालिक नियुक्ति में 'स- भिक्तु' अध्ययन के नाम की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सकार तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है—१. निर्देश २ प्रशंसा और ३. अस्तिभाव ।
'स-भिक्खु' – इस शब्द में सकार का प्रयोग निर्देश और प्रशंसा के अर्थ में हुआ है । जो दशवैकालिक में वर्णित अनुष्ठेय कार्यों का पालन करता है, वह ( स ) भिक्षु है। यहां सकार निर्देश के अर्थ में प्रयुक्त है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो साधक / साधु इस आगम के पूर्ववर्ती नौ अध्ययनों में कथित आचार का पालन करता है तथा उसकी सम्यक् परिपालना और पुष्टि के लिए भिक्षा करता है, वह भिक्षु है। जो केवल उदरपूर्ति के लिए भिक्षाटन करता है; वह भिक्षु नहीं होता। 'स' और भिक्खु' (स- भिक्खु) इस यौगिक वाक्यांश में भिक्षु शब्द विशेष अर्थ में रूढ़ हो जाता है। इसके अनुसार भिक्षशील व्यक्ति भिक्षु नहीं, किन्तु अहिंसक जीवन निर्वाह के लिए शुद्ध एषणा करने वाला भिक्षु होता है ।' दशनैकालिक के दूसरे अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु के २० तथा दशवें अध्ययन की नियुक्ति में २८ पर्यायवाची नामों की चर्चा करके उन सबको भिन्न-भिन्न निरुक्तों से समझाया गया है। *
निर्मुक्तिकार ने द्रव्य और भाव भिक्षु स्वरूप द्वार भिखारी और भिक्षु में भेदरेखा स्पष्ट की है।" उनके अनुसार भिक्षु शब्द का एक निरक्त है...जो भेदन करता है, वह भिक्षु है । इस अर्थ में जो कुल्हाड़ी से वृक्ष का छेदन भेदन करता है, वह भी भिक्षु कहलाता है परन्तु वह द्रव्य भिक्षु है । भाव भिक्षु वह होता है, जो तपरूपी कुल्हाड़ी से युक्त होकर कर्मों का छेदन भेदन करता है।' जो भिक्षा मांगकर खाता है परन्तु स्त्री-सहित और आरंभी है, मिथ्यादृष्टि और हिंसक है, संचय करता है, सचित्तभोजी और उद्दिष्टभोजी है, अर्थ - अनर्थ पाप में प्रवृत्त होता है, वह द्रव्य भिक्षु है। यथार्थ भिक्षु वह होता है, जो भिक्षु के आधार का अक्षरश: पालन करता है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की वृद्धि करता रहता है।' आचारांगनियुक्ति में अनगार के स्वरूप को इस भाषा में प्रकट किया है— जो गुप्तियों से गुप्त समितियों से समित पतनाशील तथा सुविहित होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं।" आचारांग के अनुसार जो ऋतु होता है, मुक्तिपथ पर प्रस्थित होता है तथा अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता,
१. दशनि ३०६ ।
२. दशनि ३०७ ।
३. दशनि ३०३ / १ ।
४. दर्शन १३४ १३५ १२०-२२ ।
५. दर्शाने ३१४- १६ ।
६. दशनि ३११, ३१७ । १७. दशनि ३१२-३१४ |
८. आनि १०५ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण . . . . . .. वह अनगार कहलाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार जो निरभिमानी, विनीत, पापमलप्रक्षालक, दान्त, रागद्वेषरहित, शरीर के प्रति अनासक्त, अनेक परीषहों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध चारित्र-सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील और परदत्तभोजी होता है, वह भिक्षु है। उत्तराध्ययन के सभिक्खुप अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु की निम्न कसौटियां बताई गई हैं—जो राग-द्वेष, मन, वचन, काया क. अशुभ प्रवृत्ति, सावद्य योग गौरवत्रय, पाल्यत्रय, विकथः, आहार-भय आदि संज्ञाओं तथा कषाय और प्रभाद आदि का भेदन करता है, वह भिक्षु है।'
जैसे पीतल और सोना रंग से समान होने पर भी एक नहीं होते, वैसे ही केवल नाम और रूप की समानता तथा भिक्षा करने मात्र से भिक्षु नहीं हो सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के १७ मौलिक गुण निर्दिष्ट किए हैं, जो भिक्षुत्व के पैरामीटर कहे जा सकते हैं—संबेग, निर्वेद, विषय-विवेक, सुशीलसंसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि ।
दशवकालिकनियुक्ति में भिक्षु का स्वरूप बाईस उपमाओं से समझाया गया है। भिक्षु सर्प के समान एकदृष्टि, पर्वत के समान कष्टों में अप्रपित, अग्नि के समान तेजस्वी तथा अभेददृष्टि वाला, सागरसम गंभीर एवं ज्ञान-रत्नों से युक्त, नभ के समान स्वावलम्बी, वृक्ष के समान मान-अपमान में सम, भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान अप्रमत्त, पृथ्वी के समान सहिष्णु. कमल की भांति निर्लेप, सूर्य के समान तेजस्वी, पवन की भांति अप्रतिबद्धविहारी, विष की भांति सर्वरसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, वंजुल की तरह विषधातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की भाति सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की तरह उपयुक्त देश-कालचारी, नट की भांति प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी तथा कांच की तरह निर्मल हो।
___ भिक्षु की आंतरिक साधना को प्रकट करने वाला एक महत्त्वपूर्ण विशेषण है.-वोसठ्ठचत्तदेह !" शारीरिक क्रियाओं का त्याग करने वाला वोसट्टदेह तथा शरीर का परिकर्म—रनान-मर्दन, उबटन आदि नहीं करने वाला ‘चत्तदेह कहलाता है। ये दोनों शब्द भिक्षु की आंतरिक और बाह्य दोनों साधना के द्योतक हैं तथा 'इमं सरीरं अणिच्चं' की आत्मगत भावना को व्यक्त करते हैं।
भिक्षु वह होता है, जो निदान नहीं करता। निदान का अर्थ है भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना का विनिमय कर देना। भिक्षु भावी फलाशंसा से विरत होता है। वह अपनी साधना के बदले ऐहिक फल-प्राप्ति की कामना नहीं करता। उसका स्व होता है आत्मा, पदार्थ उसके लिए आदर्श नहीं होते। वे मात्र उपयोगिता की दृष्टि से गृहीत होते हैं।
पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा—ये दो महान् दोष हैं । वास्तविक भिक्षु इन दोनों से बचकर चलता है। उसका आलंबन सूत्र होता है—पत्तेयं पुण्णपावें । प्रत्येक प्राणी के अपना-अपना पृण्य और पाप तथा
६ आ १/३५: अगगारे उज्जुकडे नियागपडिवणे अभायं कुब्रमणे विवाहिए। ५. दर्गाने ३२३, ३२४ ।
६. दपनि १३२.१३३, अचू पृ.३६,३७ । ३ उनि ३७१. ३७२।
७. दश १०/१३। ४. दशनि ३२५ ।
८. दश १०/१३1
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५
नियुक्तिपंचक अपनी-अपनी क्षमता-अक्षमता होती है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर-निन्दा और आत्म-इलाधा से त्वच जाता है। जो इस मर्म को नहीं पहचानता, वह प्रवजित हो जाने पर और निक्षाजीबी भिक्षु हो जाने पर भी परनिन्दा और आत्म-श्लाघा से नहीं डब सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के आंतरिक और व्यावहारिक गुणों का सुन्दर निरूपण क्रिया है। भिक्षाचर्या
__ श्रमण संस्कृति में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गनिमार्ग के सात निशाचरी का गहरा संबंध है। 'भिक्खावित्ती सुहावहा', 'उपवासात् परं भैक्ष्यम्' ये सूक्त भिक्षावृत्ति के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाले हैं। माधुकरी भिक्षा उत्कृष्ट अहिंसक जीवन शैली का उदाहरण है। ग्यपि वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी माधुकरी भिक्षा का उल्लेख मिलता है पर प्रायोगिक रूप से भगवान् महावीर ने जिस प्रकार की असावा.—पापरहित भिक्षावृत्ति का उपदेश दिया, वह अद्भुत है। जो आजीविका के निमित्त दीन, कृपण, कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं, वास्तविक नहीं। अत: भिक्षाचर्या और भिखारीपन दोनों अलग-अलग हैं।
वैदिक परम्परा में भिक्षा के संदर्भ में अजगरी एवं कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। भागवत में ऋषभ की भिक्षावृत्ति को अजगरी वृत्ति के रूप में उल्लिखित किया है। मांगे बिना सहज रूप से जो मिले, उसमें संतुष्ट रहना अजगरी वृत्ति है। संभव है अनियतता और निश्चेष्टता के आधार पर इस भिक्षावृत्ति का नाम अजगरी वृत्ति पड़ा होगा। ऋषभ के लिए गो. मृग और काक आदि वृत्तियों का भी संकेत मिलता है। जैन आगम साहित्य में गोचरी और मृगचारिका (उ १९/८३.८४) का उल्लेख मिलता है। महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोती वृत्ति का संकेत मिलता है। इसे उच्छवृत्ति भी कहा जाता था। अनेषणीयशंकिता के आधार पर कापोती वृत्ति का उल्लेख उत्तराध्ययन में मिलता है। कबूतर की गांति साधु को एषणा आदि दोषों से शंकित रहना चाहिए।
दशवकालिक सूत्र का प्रथम अध्ययन माधुकरी भिक्षा के साथ प्रारम्भ होता है। वहां साधु की भिक्षा को भ्रमर से उपमित किया गया है। नियुक्तिकार ने सूत्र की गाथाओं के आधार पर अनेक प्रश्नोत्तरों के माध्यम से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। भ्रमर की उपमा साधु की भिक्षावृत्ति पर पूर्णतः लागू नहीं होती। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भ्रमर तो अदत्त ग्रहण करते हैं तथा असंयत्त होते हैं अत: इस उपमा को देने से श्रमण को असंयत मानना पड़ेगा। इस प्रश्न का समाधान देते हुए नियुक्तिकार स्पष्ट कहते हैं कि उपमा एकदेशीय होती है। जिस प्रकार चन्द्रमुखी दारिका कहने पर
१. (क) प्रमपद. पुष्फयग्ग ४/६: यवाण भमरो पुर्फ, वण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे।।
(ख) मभ.. उद्योगपर्व ३४/१७; यधा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसमा । २. दश ५/१/९२; अहो जिपोहि असावज्जा, वित्ती साहूण देसिय" । ३. दर्शाग ३१२। ४. भाग. ५/५/३२। ५. भाग ५/५/३४: एवं गं.-मा-ककर्यया व्रजस्तिष्ठन्नासीन:............ । ६ मभा शांतिपई २४३/२४: कुम्भधान्यैरुज्छशिल: कापोती चास्थितारतथः। यस्मिंश्चैते वसन्त्यहस्तिद राष्ट्रमभिवति। .७. उ. १९/३३; कवोल ला इम' दिती। ८. दशगे ११४११५ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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दारिका के मुख की चन्द्रमा की सौम्यता से तुलना की जाती है न कि कलंक आदि अन्य चीजों से । ' इसी प्रकार भ्रमर की उपमा देने के दो हेतु हैं— अनियतवृत्ति और अहिंसा का अनुपालन ।' दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी नियुक्ति के अनुसार भ्रमर की तुलना से साधु की भिक्षा की तुलना करने पर निम्न बातें फलित होती है—
१. जैसे भ्रमर अपने जीवन निर्वाह के लिए पुष्प आदि को म्लान या क्लान्त नहीं करता, वैसे ही मुनि दूसरों को कष्ट पहुंचाए बिना स्वयं की आवश्यकता पूर्ति करते हैं । '
२. जैसे मधुकर पुष्पों से सहज निष्पन्न रस को ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि गृहस्थों से सहजनिष्पन्न आहार को ग्रहण करते हैं।' सहज निष्पन्नता के संदर्भ में नियुक्तिकार ने पूर्वपक्ष के रूप में एक शंका उठाई है कि यदि कोई यह कहे कि गृहस्थ श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से सुविहित श्रमणों के लिए भोजन बनाते हैं अतः पाकोपजीवी होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं। शंका समाधान के रूप में इसका उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगों के लिए तृण नहीं बढ़ते तथा भ्रमरों के लिए शतशाखी पून नहीं फलते वैसे ही गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं पकाते ।" जैसे वृक्ष स्वभावतः फलते-फूलते है वैसे ही गृहस्थ
स्वभावतः पकाते एवं पकवाते हैं अतः भ्रमर की भांति मुनि सहज निष्पन्न आहार की गवेषणा करते हैं। दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महामारी में भी मुनि रात्रि भोजन नहीं करते। फिर भी गृहस्थ रत में भोजन बनाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्राम एवं नगर है, जहां न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन पकाते हैं अतः स्पष्ट है कि गृहस्थ स्वभावत: स्वयं के लिए तथा अपने परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं।"
३. जैसे भ्रमर अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है । "
४. जैसे मधुकर किसी एक वृक्ष या फूल पर ही आश्रित नहीं रहता, वैसे ही भ्रमण भी किसी एक गांव, घर या व्यक्ति पर आश्रित न रहकर अनियत रूप से सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करता है। " ५. जैसे भ्रमर दूसरे दिन के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता, वैसे ही भ्रमण भी आवश्यकता पूर्ति के लिए ग्रहण करता है, संचय के लिए नहीं। भ्रमर अदत्त भोजन ग्रहण करते हैं किन्तु श्रमण अदत्त की इच्छा भी नहीं करते।
साधु परकृत, परनिष्ठित ( परार्थ निष्पन्न ) तथा विगतधूम आहार की एषणा करते हैं । वे नवकोटि से परिशुद्ध तथा उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं ।
१. दशनि ९२ ।
२. दशनि ११६ ।
३. दशनि १९९, दश. १/२:
न य पुष्फे किलामेइ, सो य पीणेइ अप्ययं । दश १४
वयं च वित्तिं लक्ष्ामो न य कोइ उवहम्मई । ४. दश १/४; अशागडेसु रीयति, पुप्फेसु भमरा जहा । ५. दशनि २४, २५
६. दशनि ११७, १९८ ।
७. दशनि १००-१०३ २
८ दश. १/२: जहा दुस्स पुण्फेसु, भमरो आविय६ रसं । ९. दश. १८५
महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । गाणापिंडरा देता, तेण बुच्चेति साहुणो || १०. दश. १/३; दाणभत्तंसणे रमा दर्शनि ११४ । ११ दशनि १०४, १०५ ।
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नियुक्तिपंचक दशकालिक के प्रथम अध्ययन का नाम द्रुमपुष्पिका है। नियुक्तिकार ने दुमपुष्पिका, आहारएषगा, गोचर, त्वक, उच्छ आदि चौदह शब्दों को प्रथम अध्ययन के एकार्थक के रूप में प्रस्तुत किया है। टीकाकार ने एक अन्य मत का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार ये प्रथम अध्ययन के अर्थाधिकार हैं। ये नाम अधिकार और एकार्थक दोनों ही प्रतीत नहीं होते। वस्तुत: इन नामों में त्रिविध एषणाओं को रूपकों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। ये नाम भोजन के ग्रहण एवं उपभोग से संबंधित हैं। चूर्णिकार आचार्य जिनदास के अनुसार इन उपमाओं से मुनि की माधुकरी वृत्ति को उपमित किया गया है, इस दृष्टि से ये दशवकालिक के प्रथम अध्ययन के नाम हैं। द्रुमपुष्णिका में मुनि की माधुकरी भिक्षा का उल्लेख है। संभव है इसीलिए अर्थ की निकटता के कारण इन शब्दों को द्रुमपुष्पिका शब्द के एकार्थक के रूप में ग्रहण कर लिया गया। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार माधुकरी वृत्ति का मूलकेन्द्र द्रुम-पुष्प है। उसके बिना वह नहीं सधतीं। द्रुमपुष्प की इस अनिवार्यता के कारण 'द्रुमपुष्पिका' शब्द समूची माधुकरी वृत्ति का योग्यतम प्रतिनिधित्व करता है। द्रुनपुष्पिका के एकार्थक इस प्रकार हैं।... आहार-एषणा--तीनों एणणाओं से युक्त । गोचर-~-गोचर शब्द माधुकरी वृत्ति का द्योतक है। गाय की भांति अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा चरना,
आहार ग्रहण करना। दोनों चूर्णिकारों ने गोचर शब्द की व्याख्या भिन्न संदर्भ में की है। उन्होंने एक कथा के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जैसे बछड़ा घास डालने वाली कुलवधू के बनाव, श्रृंगार या रूप में आसक्त नहीं होता, उसकी दृष्टि अपने चारे पर रहती है. वैसे ही मुनि भिक्षा की दृष्टि से घरों में परिव्रजन करे पर रूप आदि को देखने में आसक्त
न हो । भिक्षा-शुद्धि के संदर्भ में तत्त्वार्थ राजवार्तिक में गोचरी का यही अर्थ सम्मत है।' त्वकत्वक की भांति असार भोजन करने का सचक। उंछ–अज्ञातपिंड का सूचक । मेष-अनाकुल रहकर शांति से एगणा करने का सूचक। जोंक—प्रद्विष्ट दायक को उपदेश से शांत करने का सूचक ।' चूर्णिकार जिनदास ने जोंक के रूपक को ।
अनैषणा में प्रवृत्त दायक को मृदुभाव से निवारण करने का सूचक माना है।' सर्प—आहार में प्रवृत्त मुनि की संयम के प्रति एक दृष्टि तथा अनासक्त होने का सूचक । व्रण-व्रण पर लेप करने की भांति अनासक्त भाव से भोजन करने का सूचक। अक्ष—गाड़ी के अक्ष पर स्नेह-लेपन की भांति संयम-भार निर्वहंग के लिए भोजन करने का सूचक । इषु-जैसे इणु–बाण लक्ष्यवेधक होता है, वैसे ही भिक्षु के लिए लक्ष्यप्राप्ति हेतु भोजन करने का सूचक । गोला—लाख के गोले का निर्माण अग्नि से न अति दूर और न अति निकट रहकर किया जाता है अत:
गोचर गत नुनि के मितभूमि में स्थित रहने का सूचक ।
१. दशजिचू पृ. ११, १२ रतेहिं उज्म्म कीरइ शिकताणि
भगणंति नामाणि तरस अझयगस्स। २. दसवेआलियं पृ. ४। ३. दशनि ३४. अचू प्र. ७.८।
४. दशनिबू पृ १२, दशअचू पृ.८। ५. रावा. ९/६ पृ. ५२७ । ६. ६शअचू पृ. ८। ७ पशजिचू पृ. १२॥
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नियुक्ति साहिला : एक परतेमण पुत्र—यह परिभोगैषणा की विशेषता का वाचक शब्द है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने पुत्र की व्याख्या में
ज्ञाताधर्मकथा की सुंसुमा कथा की ओर संकेत किया है, जिसमें पिता और पुत्रों ने परिस्थितिवश केवल जीवित रहने की आशंसा से अपनी पुत्री का मांस खाया था। संयुक्त निकाय में बुद्ध ने कथा के माध्यम से भिक्षुओं को बताया है कि किस दृष्टि से एवं किस उद्देश्य से भोजन करना
चाहिए।' उदग-तृषापनयन के लिए परिस्थितिवश दुर्गन्धयुक्त पानी पी लेना। यह अस्वादवृत्ति का सूचक है।'
दिगम्बर साहित्य में भी भिक्षावृत्ति के कुछ नाम मिलते हैं:-१ उदराग्निशमन २ अक्षम्रक्षण ३. गोचरी ४. श्वभ्रपुरण ५. भ्रामरी। ये सभी नाम द्रुभपुष्पिका के एकार्थक की भांति साधु की भिक्षाचरी के प्रतीक हैं। जैसे भंडार में आग लग जाने पर शुचि और अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह भिक्षु जठराग्नि को शांत करने के लिए भोजन करे। गाड़ी के चक्र में तैल लगाने की भांति शरीर की आवश्यकता-पूर्ति हेतु भोजन करे। जिस प्रकार गाय शब्द आदि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है,उसी प्रकार साधु भी आसक्त न होते हुए सामुदानिक रूप से आहार ग्रहण करे। श्वभ्रपूरण को गर्तपूरक भिक्षावृत्ति भी कहते हैं। जिस किसी प्रकार से पेट रूपी गड्डा भरने हेतु साधक सरस और नीरस आहार करे तथा भ्रमर की भांति फूलों को क्लांत किए बिना थोड़ा-थोड़ा
आहार अनेक घरों से ग्रहण करे।। ___माधुकरी भिक्षा जैन साधु की उत्कृष्ट अहिंसक जीवन-शैली का निदर्शन है। साधु अपने जीवन निर्वाह हेतु किसी भी प्रकार का आरम्भ समारन्भ न करता है, न करवाता है और न ही अनुमोदन करता है। नियुक्तिकार ने अनेक तार्किक हेतुओं से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट किया है।
१. एक आदमी अपने इकलौते पुत्र के साथ परिवार सहित प्रवास कर रहा था। चलते-चलते वे एक दुर्गम एव गहन जाल में पहुंचे। भोजन के बिना प्राणान्त की स्थिति आने लगी। पुत्र ने कहा-पिताश्री आप मुझे मारकर शरीर के पोष्ण
आप रहेंगे तो सारा परिबार सरक्षित रहेगा।' पिता ने विवशता में पत्र के मांस का भक्षण किया और परिवार सहित अरण्य के बाहर निकल गया। कथा के माध्यम से बुद्ध ने प्रेरणा देते हुए कहा कि जैसे पिता ने स्वाद अथवा बल, शक्ति, लावण्य वर्धन हेतु अपने पुत्र के मांस का भमण नहीं किया। केवल शरीर में चलने का सामर्थ्य आ सके इसलिए मांसभक्षण किया. वैसे ही संसार रूपी जंगल को पार करने के लिए परिमित और धर्मप्राप्त भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। स्वाद, सौन्दर्य या बलवर्धन हेतु नहीं। अधिक संभव लगता है कि परिभोषणा के संदर्भ में नियुक्तिकार ने बौद्ध साहित्य से यह रूपक ग्रहण किया हो। २. दशअचू प्र. ८; किसी वणिक ने परदेश में छह रत्नों को अर्जित किया। बीच में चोरों की अटवी होने से उन्हें सुरक्षित ले जाना संभव नहीं था। रत्नों की सुरक्षा के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने फटे-पुराने कपड़े पहनकर पत्थर के टुकड़ों को हाथ में ले लिया और मूल रत्नों को कहीं छिपा दिया। 'रत्न वणिक् जा रहा है। इस प्रकार बोलता हुआ वह पागलों की भांति आचरण करने लगा। चोर ने उसे तीन बार पकड़कर छोड दिया। उन्होने उसे पागल समझ लिया। चौथी बार वह अपने मूल रत्नों को लेकर भागने में सफल हो गया। रास्ते में उसे तीन प्यास की अनुभूति हुई। 'प्राण-रक्षा के लिए उसने मृत पशु-पक्षी वाली दुर्गन्धयुल्त छोटी तलाई का पानी पीय और रन सहित सकुशल अपने
घर पहुंच गया। इसी प्रकार मुनि को पांच म्हाव्रत रूपी रत्नों की विषय रूप चोरों से रक्षा के लिए आहार करना चाहिए। ३. रयणसार गा. १००; उदरग्गिसमणक्खमक्खग-गपरि-सम्भपूरणं भमरं । णाऊण तप्पयारे, निच्चेवं भुजए भिक्खू।। ४. रावा. ९/६ पृ. ५९७ ।
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नियुक्तिमंचक
दिशा ....... . . .. . . .. .
आगम-साहित्य में दिशा के बारे में बहुत विमर्श हुआ है। दिशाएं व्यक्ति के मानस को प्रभावित करती हैं इसीलिए बैठने, सोने या शुभकार्य करने में दिशा का ध्यान रखने की बात अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है। भगवान महावीर ने उत्तरपुरस्थिम-उत्तर पूर्व अर्थात् ईशाण कोण को सर्वश्रेष्ठ दिशा माना है तथा मांगलिक एवं शुभ कार्यों को इसी दिशा में सम्पन्न करने का निर्देश दिया है। ठाणं सूत्र में दिशा के तीन भेद मिलते हैं-१. ऊर्ध्व दिशा २. अध: दिशा ३. तिर्यक् दिशा। वहां उत्तर और पूर्व दिशा में प्रव्रज्या देने, आहार-मंडली में सम्मिलित करने, स्वाध्याय करने, आलोचना-प्रतिक्रमण करने तथा तप रूम प्रायश्चित्त करने का निर्देश है। आचारांगनियुक्ति में दिशा के बारे में बहुत विस्तृत एवं व्यवस्थित विवेचन मिलता है। नियुक्तिकार ने दिशा के सात निक्षेप किए हैं।—१. नाम दिशा २. स्थापना दिशा ३. द्रव्य दिशा ४. क्षेत्र दिशा ५. ताप दिशा ६. प्रज्ञापक दिशा ७. भाव दिशा। द्रव्य दिशा
जो दश दिशाओं के उत्थान का कारण है. वह द्रव्य दिशा है। यह जघन्यत: तेरह प्रदेशी और तेरह आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ तथा उत्कृष्टत: अनंत प्रदेशी और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होती है। 'तेरह प्रदेशों की स्थापना का कम इस प्रकार रहता है—मध्य में एक और चार विदिशाओं में एक-एक पांच प्रदेशावगाढ़ पांच परमाणु तथा चार दिशाओं में आयत रूप में स्थित दो-दो परमाणुइस प्रकार जचन्यत: तेरह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ तेरह प्रदेशी स्कन्ध दश दिशाओं के उत्थान के हेतु हैं, यही द्रव्य दिशा कहलाती है। तेरह प्रदेशों की स्थापना इस प्रकार है
| •
01| .
|. .10/ . कुछ आचार्य दश परमाणुओं को दश दिशाओं में स्थापित कर उन्हें दिशाओं के उत्थान का हेतु मानते थे लेकिन टीकाकार शीलांक ने इसका खंडन किया है क्योंकि दश दिशाओं का आकार चतुरन होता है और वह दश परमाणुओं से संभव नहीं है अत: तेरह परमाणु ही दश दिशाओं के उत्थान के कारण हैं, न्यून या अधिक नहीं। विशेषावश्यक भाष्य में अन्य मतों का उल्लेख भी मिलता है। क्षेत्रदिशा
तिर्यक् लोक के मध्य में मेरु के मध्यभाग में आठ रचक प्रदेश हैं। ये रुचक प्रदेश चार ऊपर तथा चार नीचे गोस्तन आकार वाले हैं। ये रुचक प्रदेश दिशाओं तथा विदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं।' १ सायं ३/३२०।
५. आटी पृ. ९. में पुन दंशप्रदेशिक यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाः २. ठाणं २/१६७, १६८।
परमाणउस्तै निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्वबगाढ़ें ३ आनि ४०।
जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागरिकल्पनातो द्रव्यदिमियमिति । ४. आनि ४१. विभा २६९८ महेटी प. ५३६, ६. विभ २६९९, २७०० टी ए. ५३६-५३८1
उक्कोसमणंतपएसियं च सा होइ दवदिसा। ७. ठागं १०/३०, आनि ४२ टी. पृ. ९ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्षेत्र दिशाओं के दश प्रकार हैं- ऐन्द्री २. आग्नेयी ३. याम्या ४. नैऋती ५. वारुणी ६. वायव्या ७. सोमा ८. ईगणी ९. विमल' १० रमा। इनमें ऐन्द्री (पूर्व), गम्या (दक्षिण). वारुण (पश्चिम) और सोमा (उत्तर)---ये चार महादिशाएं तथा आग्नेय, नैऋती. वायव्या और ईशाणी-ये चार विदिशाएं कहलाती हैं। ये चार दिशाओं के चार कोणों में होती हैं। बिमला को ऊर्ध्व तथा तमा को अध: दिशा कहा जाता है। रुचक प्रदेश के विजयद्वार से ऐन्द्री दिशा निकलती है अर्थात् जहां विजयद्वार है, वहां पूर्व दिशा होती है। उसके वाम पार्श्व से आग्नेयी फिर क्रमश: याम्या. नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या. से.मा और उत्तर दिशएं निकलती हैं। आचार्य मलयगिरि के अनुसार ये तिर्यक् दिशाएं रूवक प्रदेशों से निकलती हैं अत: इन्हें तिर्यदिशा कहा जाता है। हचक के ऊपने में विमला तथा नीचे तमा दिशा होती है। प्रकाशयुक्त होने के कारण ऊर्ध्व दिशा को दिमला तथा अंधकार युक्त होने के कारण अधोदिशः को तमा कहते हैं। मलयगिरि ने तमा के स्थान पर तामसी शब्द का प्रयोग किया है। पूर्वदिशा का स्वामी इंद्र है, इसलिए उसे ऐन्द्री कहा जाता है। इसी प्रकार अग्नि, यम, नैर्ऋत, वरुण, वायु, सोम और इंशाण आदि देव होने के कारण इन दिशाओं को क्रमश: आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वाचव्या, सोमः और ऐशाणी कहते हैं।
भगवती सूत्र में क्षेत्र दिशा आदि भेद न करके दिशा के पूर्व, पूर्वदक्षिण आदि दश भेद किए हैं। वहां प्रश्न उपस्थित किया गया है कि इन ऐन्द्री आदि दिशाओं की आदि क्या है? इनकी उत्पत्ति कहां से होती है? ये कितने प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं? अगे इनके कितने प्रदेश होते हैं? ये कहां पर्यवसित्त होती हैं तथा इनका संस्थान क्या है? इन प्रश्नों के समाधान में महावीर कहते हैं कि ऐन्द्री आदि चार दिशाएं मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से दो प्रदेशों से प्रारम्भ होकर दो-दो के कम से बढ़ती जाती हैं अर्थात् पूर्व आदि दिशाएं पहले दो प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं फिर चार-चार, छह-छह और आठ-आठ—इस प्रकार दो-दो के क्रम से इनके प्रदेशों में वृद्धि होती जाती है। लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा अलोक की अपेक्षा से अनंत प्रदेशात्मिका होती हैं। लोक की अपेक्षा से ये सादि और सपर्यवसित हैं किन्तु अलोक की अपेक्षा सादि और अपर्यवसित है। लोक के अनुसार इनका संस्थान मुरब जैसा तथा अलोक की अपेक्षा शकटोद्धि—शकट के आगे के भार जैसा है।
१. भ. १३/५१, ठ १०/३१, अनि ४३ । २. आवमटी प. ४३८, ४३९ । ३. आवमटी . ४३९; एताश्चाष्टावण रुचकात् प्रवाहात्यात टिग्दिश इति व्यहियन्ते ।
४. आवम्टी ४३८ । ५ भ.१३/५२।
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निर्युक्तिपंचक
चार विदिशाओं की आदि भी मेह पर्वत के रुचक प्रदेशों से होती है। इनकी आदि एक प्रदेश से होती है तथा आगे भी अलोक तक ये एक प्रदेश विस्तीर्ण ही होती हैं। इनके प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। सन्पूर्ग लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा सादि सपर्यवसित होती हैं। अलोक की अपेक्षा प्रायाहि अति होती हैं। एक प्रदेशात्मिका होने के कारण ये छिन्न मुक्तावलि के आकार वाली होती हैं। विमला और तमा का वर्णन भी दिशा और विदिशाओं की भांति ही है। अंतर केवल इतना है कि इनकी उत्पत्ति चार प्रदेशों से होती है। ये दोनों दिशाएं चतुरत दण्डाकार होती हैं अत: इनका संस्थान रुचक प्रदेशों जितना है। भगवती के अनुसार ऐन्द्री आदि चार महादिशाएं जीव के देश रूप तथा प्रदेश रूप हैं पर आग्नेयी आदि चार विदिशाएं एक प्रदेशात्मिका होने के कारण जीव रूप नहीं हैं क्योंकि जीव का अवगाह असंख्यात प्रदेशों में ही संभव है। नियुक्तिकार ने संक्षेप में भगवती सूत्र का संवादी वर्णन किया है।
संस्थान के बारे में चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित तथा बाह्य पार्श्व में अपर्यवसित अंतरहित होती हैं। बाह्य भाग में अलोकाकाश के कारण अपर्यवसित होती हैं। इन् सभी दिशाओं की आगमिक संज्ञा 'कडजुम्म' है।' भगवती सूत्र में चार महादिशाओं का लोक और अलोक की अपेक्षा से अलग-अलग संस्थान का उल्लेख किया है जबकि नियुक्तिकार ने इन्हें केवल शकटोद्धि — गाड़ी की उद्धि (ओढण) संस्थान वाला बताया है। विदिशाओं तथा ऊर्ध्व और अध दिशाओं के संस्थान भगवती सूत्र जैसे ही हैं।"
तापदिशा
१०२
सूर्य के आधार पर जिन दिशाओं का निर्धारण होता है, वे तापदिशाएं कहलाती हैं। आवश्यक नियुक्ति में तापदिशा के स्थान पर तमक्षेत्रविशा का उल्लेख मिलता है।" सूर्य की किरणों के स्पर्श से उत्पन्न प्रकाशात्मक परिताप से युक्त क्षेत्र तापक्षेत्र कहलाता है। उससे सम्बन्धित दिशाएं तापक्षेत्र दिशा कहलाती हैं। ये दिशाएं सूर्य के अधीन होने के कारण अनियत होती हैं ।' जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, उस क्षेत्र के लिए वह पूर्व दिशा है। जिस ओर सूर्य अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा है। उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा तथा उत्तर पार्व में उत्तर दिशा है।" ये चार तापदिशाएं कहलाती हैं। भरत, ऐरवट, पूर्वविदेह, अपरविदेह में निवासी मनुष्यों के उत्तर में मेरु तथा दक्षिण में लवण समुद्र है ।" प्रज्ञापक दिशा
कोई प्रज्ञानक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त अथवा सूत्रार्थ का कथन करता है, वह जिस और अभिमुख है, वह पूर्व दिशा है। उसकी पीठ के पीछे वाली पश्चिम दिशा
१. १. १३/५३ ।
२ । १३/५४ |
३.
१०/५,६ ।
४४४ ।
५ आनि ४५ ।
६. आनि ४६ ।
७. आवन ८०९ खेतदिस तावखेत्त पन्नवए ।
८. आमटी प. ४३९: तपनं तापः सूर्यकिरणस्पर्शज्जनित. प्रकाशात्मकः परितापः तदुपलक्षितं क्षेत्र तापक्षेत्रं तदेव दिक्, अथवा तापयतीति ताप:- सविता तदनुसारेण क्षेत्रात्मिका दिक् तापक्षैत्रदिक, सा च सूर्यायत्तत्वादनियता ।
९. अनि ४७, ४८, विभा २७०१ ।
१०. आनि ५०, आवमटी प. ४३९ ।
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१०३
नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण है। उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा तथा बाईं ओर उत्तर दिशा है। इन चार दिशाओं के अंतराल में चार विदिशाएं हैं। इन आठ दिशाओं के अंतराल में आठ अन्य दिशाएं हैं। इन सोलह तिर्यग् दिशाओं का पिण्ड शरीर की ऊंचाई के परिमाग वाला होता है। पैरों के नीचे अधो दिशा तथा मस्तक के ऊपर ऊध्दीदिशा है। ये अठारह प्रजापक दिशाएं हैं। इन प्रकल्पित अठारह दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं१ पूर्व २. पूर्व दक्षिण ३. दक्षिण ४. दक्षिण पश्चिम ५. पश्चिम ६. पश्चिम उत्तर ७. उत्तर ८. उत्तर पूर्व ९. सामुत्थानी १८. कपिला ११. खेलिज्जा १२. अभिधर्मा १३. पर्याधर्मा १४. सावित्री १५. प्रज्ञा (पूर्ण) १६. वृत्ति १७. अध: दिशा १८ ऊर्ध्व दिशा 1 आचारांगनियुक्ति (गा. ५७) में आए अण्णवित्ती अब्द को यदि प्रजापनी मानकर एक शब्द माना जाए तो प्रज्ञापक दिशा के केवल १७ नाम ही होते हैं। पण्णवित्ती को यदि दो शब्द माने तो प्रज्ञा और वृत्ति- ये दो संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। पांगवित्ती के स्थान पर यदि पुण्णवित्ती पाट को स्वीकार करें तो चूर्णा और वृत्ति—ये दो नान हो सकते हैं। चूंकि ये आठ नाम आचारांगनियुक्ति के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलते अत. केवल संभावना ही व्यक्त की जा सकती है. निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। दिशाओं के इन नामों के बारे में यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि ये नाम नक्षत्र विशेष से संबंधित रहे होंगे अथवा ज्योतिष की दृष्टि से इनका कोई विशेष महत्त्व रहा होगा। डॉ. सागरमलजी जैन का अभिमत है कि सामुत्थानी आदि आठ नाम सूर्य की सूर्योदय से सूर्यास्त तक की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं।
प्रज्ञापक दिशाओं में प्रारम्भिक सोलह तिर्यक लिगा शकटोद्धि संस्थान वाली हैं। ऊंची और नीची—ये दो दिशाएं सीधे और ओंधे मुंह रखे हुए शराषों के आकार वाली होती हैं। भावदिशा
जिससे या जिसमें पृथ्वी, नारक आदि के रूप में संसारी प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है. वह भावदिशा है। कर्मों के वशीभूत होकर जीव इन भाव दिशाओं में गमन एवं आगमन करते हैं। अठारह भाव दिशाएं इस प्रकार हैं१. पृथ्वी ७. अग्रबीज
१३. समूहिम मनुष्य २. जल ८. पर्वबीज
१४. कर्मभूमिज मनुष्य ३. अग्नि ९. दीन्द्रिय
१५. अकर्मभूमिज मनुष्य ४. वायु १०.त्रीन्द्रिय
१६. अन्तर्दीपज मनुष्य ५. मूल बीज ११.चतुरिन्द्रिय
१७. नारक ६. स्कन्ध बीज १२.तिर्यंच पंचेन्द्रिय
१८. देव
१ आनि ५१, ५२, विभा २७०२। २. आनि ५५-५८। ३. आनि ५९। ४.(क) आवमटी प.४३९:दिश्यते अयममुक संसारीति यया सा दिग् माव:-पृथिवीत्वादिलक्षण पर्यायः स एव दिग् भावदिक।
(ख) विभामहेटी पृ. ५३८; येणु पृथिव्यादिस्थानेषु कर्मपरतंत्रस्य जीवस्य गमागमौ संपोते सा भावदिगुच्यते : ५. आनि ६०, विभा २७०३, २७०४
पुढषि-जल-जलण-वाया, मूला खंध्या-पोरदीया य। बि-ति-चच-पदिदिय, तिरिय-नारगा-देवसंपाया।, संमच्छिम कम्माकम्मभूभगनरा तहंतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सर जं संसारी निययमेयाहि ।।
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निर्मुक्तिपंचक
आगमों में आसुरी दिशा का उल्लेख भी मिलता है। नारकीय दिशा आसुरिका दिशा कहलाती है। भवनपति तथा व्यन्तर देवों से सम्बन्धित दिशा को भी आसुरी या आसुरिका दिशा कहा जाता है । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार रौद्रकर्मकारी मनुष्य असुर होते हैं। वे अपनी आसुरी वृत्ति के कारण उस दिशा में जाते हैं. जहां क्रोध और रौद्र कर्म के परिणाम भुगतने की परिस्थितियां होती हैं। उत्तराध्ययन में हिंसक अस्त्यभाषी, लग तथा मांसाहार जैसे कर कर्म करने वाले को आसुरी दिशा में जाने वाला बतलाया है।' सूयगडो के अनुसार हिंसापरायण आत्मघाती, विजन में लूटने वाले व्यक्ति चिरकाल तक आसुरी ..नरकदिशा में रहते है।
१०४
बृहत्कल्पभाष्य और आवश्यक नियुक्ति की हारिभद्रीय टीका में शव के परिष्ठापन के प्रसंग में दिशाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। शव के परिष्ठापन के लिए दक्षिण-पश्चिमदिशा अर्थात् नैर्ऋती दिशा को श्रेष्ठ माना है। उसके अभाव में दक्षिण, उसके अभाव में पश्चिम, उसके अभाव में आग्नेयी ( दक्षिण पूर्व ). उसके अभाव में वायव्य ( पश्चिम उत्तर ) उसके अभाव में पूर्व उसके अभाव में उत्तर तथा उसके अभाव में उत्तरपूर्व दिशा का उपयोग करना चाहिए। किस दिशा में मृतक साधु का शव परिष्ठापित करने का क्या असर होता है, इसका वर्णन व्याख्या साहित्य में मिलता है । नैर्ऋत दिशा में शव का परिष्ठापन करने से अन्न-पान और वस्त्र का प्रचुर लाभ होता है और समूचे संघ में समाधि होती है। दक्षिण दिशा में परिष्ठापन करने से अन्न-पान का अभाव होता है। पश्चिम दिशा में उपकरणों की प्राप्ति दुर्लभ होती है, आग्नेयी दिशा में परिष्ठापित करने से साधुओं में परस्पर तू-तू, मैं-मैं होती है। वायव्य दिशा में साधुओं में परस्पर तथा गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिकों के साथ कलह होता है । पूर्वीदशा में परिष्ठापन गण-भेद एवं चारित्र भेद का कारण बनता है। उत्तरदिशा में करने से रोग तथा पूर्वउत्तर दिशा में परिष्ठापन करने से अन्य कोई साधु मृत्यु को प्राप्त होता है।" दिशाएं और वास्तुशास्त्र
वास्तुशास्त्र दिशाओं पर आधारित विद्या विशेष है, जिसमें दिशाओं के आधार पर गृह आदि का निर्माण एवं उसके प्रभाव पर विस्तार से चिंतन किया गया है। वास्तुशास्त्र में आठ दिशाओं का उल्लेख मिलता है—१. पूर्व २. पश्चिन ३. उत्तर ४. दक्षिण ५. ईशाणको ६. अग्निकोण ७. नैर्ऋतकोण ८. वायव्य कोण ! वास्तु विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वदिशा अग्नितत्त्व को इंगित करने वाली दिशा है। पश्चिम दिशा वायु तत्त्व को इंगित करती है। इसका स्वानी वरुण है। इस दिशा का प्रभाव अस्थिर एवं चंचल माना गया है । उत्तरदिशा में जल तत्त्व विद्यमान रहता है। इस दिशा का स्वामी कुबेर है। वास्तु शास्त्री चिंतन-मनन के लिए उत्तरदिशा को उत्तम मानते हैं क्योंकि यह दिशा ध्रुव तारे की भांति स्थिरता की द्योतक है। दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्त्व माना है, जिसका स्वामी यम है। ईशाण कोण को वास्तु शास्त्र में ईश्वर तुल्य महत्त्व दिया गया है क्योंकि यह उत्तर और पूर्व दो शुभ दिशाओं के मध्य है ।
१. सूरु १ पृ. १२० । २.३७/५-१० ।
३. सू. १/२/६३ ।
४. आवहाटी २ पृ. ९३, ९४ ।
५ मा ५५०५ ५५०६,
दिस अवरदक्खि दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुन्वा अवरुत्तरा म पुडा, उत्तर पुव्वुत्तरा चैव ।। समाही य भत्तपाणे, उपकरणे तुमतुमा य कलहो । दो गेलनं चरिमा पुर्ण कड्ढाए अ
वा
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षणः
१०५ वैशेषिक दर्शन में दिशा को द्रव्य रूप में स्वीकार किया है लेकिन नहावीर ने इसे आकाश विशेष के रूप में स्वीकार किया क्योंकि दिशाएं आकाश विशेष का ही एक भाग है। स्वरविज्ञान एवं ज्योतिष विद्या में दिशाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। दिशाओं के बारे में वैज्ञानिकों ने अपनी शोध प्रस्तुत की है कि दिशाओं के भी अपने विकिरण होते हैं, जो व्यक्ति के मानस को बहुत अंशों में प्रभावित करते है। भौगोलिक एवं दिशाओं की उत्पत्ति की दृष्टि से जैन आगम-साहित्य में जितनी सूक्ष्मता से चिंतन हुआ है. वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। दिशाओं का वर्णन नियुक्तिकार के बाहुश्रुत्य को प्रकट करने वाला है। करण
ज्योतिष्-शास्त्र में करण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सूत्रकृतांग और उत्तरःध्ययननियुक्ति में करण' का वर्णन मिलता है। वहां कालकरण के अंतर्गत ज्योतिष में प्रसिद्ध करण' के ग्यारह भेद मिलते हैं१. बब २. बालव ३. कौलव ४ स्त्रीविलेकन ५ गरादि ६. वणिज ७. विष्टि ८. शकुनि ९ चतुष्पाद १० नाग ११. किंस्तुघ्न । इनमें प्रथम सात चल तथा शेष् चार स्थिर करण हैं। तिथि के अनुसार करण-चक्र
एक तिथि में दो करण होते हैं अतः तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है। सर्य से चन्द्रमा की प्रति ६ अंश की दूरी एक करग का बोधक है क्योंकि तिथि १२ अश के अंतर पर होती है। चल करणों की एक माह में प्रत्येक की आठ बार आवृत्ति होती है। शकुनि अदि शेष चार स्थिर करण हैं. ये माह में केवल एक बार आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निर्षिचत होते हैं इसलिए ये ध्रुवकरण कहलाते हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड में सदा 'शकुनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्धभाग में 'चतुष्पादकरण' और दूसरे अर्धभाग में नागकरण होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अर्धभाग में 'किस्तुघ्नकरण' होता है।' शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के उत्तरार्ध से बव, बालव, कौलब आदि करणों की क्रमश: आवृत्ति होती है। इस प्रकार हर महीने में लगभग ६० करण होते हैं। करण निकालने की विधि
शुक्लपक्ष की तिथि को दो से गुणा करके उसमें दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे. वह दिन का करण होता है। रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण होता है। जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना है—४४२-८-२-६-७ शेष o=६ । अतः छठा करण वणिज होगा। रात्रि में एक बढ़ाने से इससे अगला करण विष्टि होगा। कृष्णपक्ष में २ को घटाया नहीं जाता. जैसे- कृष्णा दशमी में दो क; गुणा करने पर २० होते हैं सात का भाग देने पर छह अवशेष रहते हैं अत: उस दिन वणिज नामक दैवसिक करण होगा। करण का समाप्ति-काल जानने की विधि
तिथि के प्रारम्भिक काल व समाप्ति-काल के मध्य करण का समाप्ति काल होता है। तिथि के समाप्ति काल में से प्रारम्भिक काल घटाने पर तिथि का ठहराब घंटा मिनट में आ जाता है। इस
१. स्त्रीविलोकन का दूसरा नाम तैत्तिल भी मिलता है। २. उनि १९०. १९१, सूनि ११, १२. जंबू ७/१२३ ।
३. सूनि १३, उनि १९२। ४. उनि १९२/१. विभा ३३४९ टी पृ. ६३९ ।
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नियुक्ति पंचक
ठहराव का आधा समय तिथि के प्रारम्भिक काल में जोड़ने या समाप्ति काल में से घटाने पर करण कः समाप्ति काल आ जाता है।
जिन तिथियों में विष्टिकरण होता है, उन तिथियों को भद्रा तिथि कहा जाता है । भद्रातिथि में शुभकार्य वर्जित रहते हैं। विष्टि के अतिरिक्त शेष करण शुभ माने जाते हैं। ध्रुवकरण शुभ नहीं माने जाते । जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति में कौन सी तिथि को कौन सा करण होता है, इसका उल्लेख मिलता है। उसका चार्ट इस प्रकार हैं
कृष्णपक्ष
तिथि पूर्वार्द्धकरण उत्तरार्धकरण
१.
कौलव
२
गर
विष्टि
बालव
स्त्रीविलोकन वणिज
३.
mito wr
४.
५.
६.
७.
८
९.
१०.
११.
१२.
बालव
स्त्री विलोकन
वणिज
बव
कौलव
गर
विष्टि
बालव
स्त्रीविलोकन
वणिज
बव
कौलव
१३. गर १४. विष्टि
१५. चतुष्पाद
बव
कौलव
गर
विष्टि
बालव
१. जंबू ७/१२५ । २. दशनि १४६ ।
स्त्रीविलोकन
वणिज
शकुनि
नाग
तिथि
२
g wr
6.
८
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
पूर्वार्द्धकरण
किंस्तुघ्न
बालव स्त्रीविलोकन • वणिज
जन
कौलव
गर
विष्टि
बालच
शुक्लपक्ष
स्त्रीविलोकन
वणिज
बन
कौलव
गर
टिष्टि
उत्तरार्धकरण
बव कौलव
गर
विष्टि
बालव स्त्रीविलोकन
वणिज
बन
कौलव
गर
विष्टि
बालव
स्त्रीविलोकन
वणिज
नव
नियुक्तिकार ने यह प्रसंग ज्योतिष शास्त्र से प्रसंगवश लिया है। यद्यपि उन्होंने करण की विस्तृत व्याख्या नहीं की है लेकिन जितना वर्णन है, वह ज्योतिष विद्या की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
काव्य
निर्युक्तिकार को काव्य - साहित्य का भी गहरा ज्ञान था। समकालीन अनेक काव्य ग्रंथ उनके दृष्टिपथ से गुजरे, ऐसा प्रतीत होता है। 'पद' का वर्णन करते हुए प्रसंगवश उन्होंने काव्य के अनेक तत्त्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। निर्मुक्तिकार ने काव्य के अंतर्गत प्रति पद के चार भेद किए हैं— १. गद्यकाव्य २. मद्यकाव्य ३. रोयकाव्य ४. चौर्णकाव्य । ठाणं सूत्र में काव्य के चार भेदों में चौर्ण के स्थान पर कथम काव्य नाम मिलता है। कथ्य काव्य कथात्मक होता है।
मुख्यतः काव्य के दो ही प्रकार होते हैं-गद्य और पद्य । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार चौर्ण और गेय काव्य के स्वतंत्र प्रकार नहीं हैं अतः ये गद्य के ही अवान्तर भेद हैं। फिर भी स्वरूप की विशिष्टता
३ ठाणं ४ / ६४४
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण के कारण इन्हें स्वतंत्र स्थान दिया गया है। गेय काव्य संगीतात्मक होता है अत: इसे काव्य की श्रेणी में रखना औचित्य की दृष्टि से ठीक है। गद्यकाव्य
विश्वनाथ के अनुसार छंदत्वंधहीन शब्दार्थ गोडाको मद्य काम कहा जाता है। दमातेकालिकनिर्यक्ति में साहित्यिक दृष्टि से गद्यकाब्ध का स्वरूप प्रकट किया गया है। उसके अनुसार जो सूत्र आदि के विभाग से क्रमशः प्रथित, मधुर, हेतुमुक्त, पादविहीन..--चरण आदि से रहित, बिरामसंयुक्त, अंत में अपरिमित अर्थात् बृहद् आकार वाला तथा जिसका पाठ मृदु हो, वह गद्यकाव्य कहलाता है।' पद्यकाव्य
छंद की दृष्टि से पद्यकाव्य के तीन भेद अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं –सम, अर्धसम और विषम ।' अनुयोगद्वारसूत्र में पद्य के स्थान पर वृत्त शब्द का प्रयोग मिलता है। जिसके चारों वरण समान अक्षर, विरान और मात्रा वाले हों, वह समपद्य कहलाता है। टीकाकार ने मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जहां चारों पादों में समान अक्षर हों, वह समपद्य कहलाता है। जिसके प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में समान अक्षर, विराम और मात्रा हो, बह अर्धसभपद्य कहलाता है।' विषम पद्य का अर्थ है—सभी पादों में अक्षर, मात्रा और विराम विषम-असमान हों। गेयकाव्य
जो गाया जाता है, उसे गेम कहते हैं। आधुनिक काव्यशास्त्रियों ने गेयकाव्य की अनेक परिभाषाएं तथा अनेक भेद किए हैं। संगीत रत्नकर में दशांश लक्षणों से लक्षित स्वर सन्निवेश. पद, ताल एवं मार्ग इन चार अंगों से युक्त गान को गीत कहा है। नियुक्तिकार ने गेय काव्य के पांच भेद किए है"
१. तंत्रीसम-वाद्यों के तारों पर अंगुलि-संचार के साथ गाया जाने वाला गीत। २. वर्णसम—जहां दीर्घ अक्षर आने पर गीत का स्वर दीर्घ, ह्रस्व अक्षर आने पर हस्व, प्लुत
अक्षर आने पर प्लुत तथा सानुनासिक अक्षर आने पर गीत का स्वर
सानुनासिक हो, वह वर्णसम कहलाता है। ३ तालसम-ताल-वादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत । ४. ग्रहसम-वीणा आदि द्वारा गृहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाल. गीत। ५. लयसम--वाद्यों को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने
वाला गीत ।
१. साहित्यदर्पण ६/३३० ।।
७. दशअचू पृ.४० जस्स पहन ततिया बितिय चउत्था य पादा २. दशनि १४७।
समक्खर-विराम-मत्ता तं अद्धसमं । ३. दशनि १४८।
८ दरअचू प्र. ४०; जस्स चसारि वि पाद। विसमा तं विसमं। ४. कनुदः ३०७/१०।
९. संगीत-पतलाकार, टीका पृ. ३३ । ५. दणअचू पृ.४०; तत्व चउसु वि पादेसु समक्खर- १०. दशनि १४९। विराममत्तं समा
११. श-जलाका से तत्री क. स्पर्श किया जाता है और नखों ६ दशहाटी प.८८: अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र से तार को दबाया जाता है, तब जो एक भिन्न प्रकार का
देसु समान्यक्षरागि। स्वर उठता है, उसे 'लय' कहते हैं।
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१०८
ठाणं' और अनुयोगद्वार में रेयकाव्य के सात प्रकार मिलते हैं
ठाण
अनुयोगद्वार
अक्षरसम
पदसम
तालसम
लख्य
ग्रहसम
तंत्रीसम
तालसम्म
पादसम
लग
ग्रहसम
निःश्वसितोच्छ्वसितसम
निःश्वसितोच्छ्वसितसन संचारसम
संचारसम
अनुयोगद्वार में तंत्रीसम के स्थान पर अक्षरसम तथा पादसम के स्थान पर पदसम का उल्लेख है। स्वर के अनुकूल निर्मित गेमपद के अनुसार गाया जाने वाला गीत पादसम सांस लेने और छोड़ने के क्रम का अतिक्रमण न करते हुए गाया जाने वाला गीत निःश्वसितोच्छ्वसितसम तथा सितार आदि के साथ गाया जाने वाला गीत संचारतम कहलाता है।
चौर्णकाव्य
.
जो गद्य और पद्य मिश्रित होता है, वह चौर्णकाव्य कहलाता है। दिश्वनाथ ने चौर्ण को गद्यकाव्य का भेद माना है।' आचारांग का प्रथन श्रुतल्कंध चौर्णकाव्य में निबद्ध है। गद्यकाव्य की लगभग विशेषताएं इसमें घटित होती हैं। चौर्णकाव्य की निम्न विशेषताएं हैं"
• जो अर्थबहुल हो अर्थात् जिसमें एक-एक पद के अनेक अर्थ हों । जो अर्थ वाला हो, जो अनेक नयवादों की गंभीरता से महान् • जो हेतुमुक्त हो ।
महान्
0
• जो च, वा, ह आदि निपातों से
हो
नियुक्ति पंचक
I
युक्त I
•
जो प्र, परा से आदि उपसर्गों से युक्त हो ।
जो
बहुपाद अर्थात् जिसके चरणों का कोई निश्चित परिमाण न हो । जो अव्यवच्छिन्न — विरानरहित हो ।
•
B
जो गम शुद्ध हो अर्थात् जिसमें सदृश अक्षर वाले वाक्य हों।
&
जो नय शुद्ध हो अर्थात् जिसका अर्थ नैगम आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रतिपादित हो ।
यातायातपथ
५/८/१३ ।
२ अन्डा ३०७/८ ३ नाहित्यदर्पण ६/३३० ।
प्राचीनकाल में आज की भांति यातायात सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं लेकिन फिर भी नियुक्तिकार ने मार्ग शब्द की व्याख्या में द्रव्य मार्ग के अंतर्गत तत्कालीन यातायात के अनेक मार्गों का स्पष्ट संकेत किया है।" ये मार्ग उस समय की भौगालिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करने वाले हैं।
१. फलकं मार्ग - जहां कीचड़ अधिक होता या गढ़ों को पार करना होता, वहां उसे पार करने के लिए लकड़ी के फलक बिछा दिए जाते, उसे फलक मार्ग कहा जाता था । '
४. शनि १५० ।
५. सूनि १०८ । ६. सूच्. १ । १२३ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक सयवेक्षण
१०९ २. लतामार्ग – चूर्णिकार के अनुसार नदिरों में होने वाली लताओं का आलम्बन लेकर पार करने
का नार्ग। जैसे—यारुदत्त लता के सहारे नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे
पहुंचा था। जंगलों में पथिक भी लताओं को पकड़कर इधर से उधर चले जाते थे। ३. आंदोलनमार्ग – यह संभवत: झूलने वाला मार्ग रहा होगा। विशेषत: यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया
जाता था, जहां खाई आदि की गहराई झूलकर पार की जाती अथवा झूले के सहारे एक महाड से दूसरे पहाड़ पर जाने वाला मार्ग । कभी-कभी व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । वर्तमान में भी नदियों
को पार करने के लिए कहीं-कहीं ऐसे मार्ग मिलते हैं,जैसे हरिद्वार में लक्ष्मण-झूला। ४. बेत्रमार्ग - नदियों को पार करने में सहायक भार्ग । जहां नदियों में वेत्र-लताएं सधन होती, वहां
पधिक उन लताओं के सहारे एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था।' ५. रज्जुमार्ग - मोटे रस्सों के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने का मार्ग। यह पर्वत
जैसे अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। आज भी पहाड़ी स्थानों पर ऐसे मार्ग देखे जाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार गंगा आदि नदियों को पार करने में रज्जु मार्ग का सहारा लिया जाता था। पथिक एक किनारे पर रज्जु को वृक्ष से
बांध देते और उस लम्बे रज्जु के सहारे तैरते हुए दूसरे किनारे पहुंच जाते। ६. दवनमार्ग - दवन का अर्थ है-यान-वाहन । सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग
काम आता था। इस पथ पर हाथी, घोड़े, रथ. बैल आदि सहजतया आते-जाते थे।
ये नार्ग मुख्य रूप से शहरों को जोड़ने वाली सड़कों का कार्य करते थे। ७. बिलमार्ग -- गुफा के आकार वाले मार्ग, जिनको मूषिक पथ भी कहा जाता था। यह मार्ग
सामन्यतया पर्वतों पर होता था। पर्वतीय चट्टानों को काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं।" अंधकारयुक्त होने के कारण इनमें दीपक
लेकर प्रवेश करना पड़ता था।' ८. पाशमार्ग – चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है, जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से
बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था। सोने आदि की खदान में इसी के सहारे नीचे गहन अधंकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही बाहर आया जाता था। टीकाकार के अनुसार जिस मार्ग में पक्षियों को फंसाने के लिए पापा डाल दिए
जाते, वह पाशमार्ग कहलाता था।" ९. कीलकमार्ग --बह मार्ग, जहां स्थान-स्थान पर कीले गाड़े जाते थे। पथिक उन कील या खंभों की
२ टूटी ८ १३६
६. तू५१] १९४: रज्जुहि गगं उत्तरति । ७ राटी ५.१३१. दिलमागों यत्र त याकारे विलेन गम्यते । ८ रा १३. १९४, बिलंधीवहिं विराति ५. सू . १९४। १३ गूटी 7 १३१: पाशमार्ग पार कूट बागुरन्नन माग इत्यर्थः ।
५ सूटी
१३
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११०
नियुक्तिपंचक पहचान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। दिग्भ्रम न हो इस दृष्टि से ये मार्ग विशेष रूप से मरप्रदेश में बनाए जाते थे. जहां बालू के टीलों की अधिकता
होती थी। १०. अजमार्ग- इतना संकरा पथ, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछडे के चलने जितनी पगडंडी
मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषत: पहाड़ों पर होता था, जहां बकरों या भेडों पर यातायात किया जाता था। इसे मेंढपथ भी कहा जाता था। इन मार्गों पर दो व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे। टीकाकार के अनुसार चारुदत्त इसी मार्ग से स्वर्णभूमि पहुँना चूर्णिया ने इसे लोहे रहे जटिल पथ माना है. यह पध
स्वर्णभूमि में था। ११. पक्षिपथ- भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे होने वाला आकाशमार्गीय यातायात।
यह मार्ग सर्वसुलभ नहीं था। ऐसा संभव लगता है कि मांत्रिक या तांत्रिक लोग इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते थे। आज भी शतुर्मुर्ग का वाहन के रूप में उपयोग किया जाता है। पाणिनी का हंसपथ, महानिद्देस का शकुनपथ और कालिदास का खगपथ और सुरपय इसी पक्षिपथ के
वाचक हैं। १२, छत्रमार्ग- ऐसा मार्ग, जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है यह।
जंगल का मार्ग हो, जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। पशु छत्ते के डर से
इधर-उधर भाग जाते अथवा धूप से रक्षा के लिए इनका उपयोग किया जाता था। १३. जलमार्ग जहाज, नौका आदि से यातायात करने का मार्ग । इसे वारिपथ भी कहा जाता था। १४. आकाशमार्ग- चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग । इसे
दिवपय' भी कहा जाता था। प्राचीनकाल में रथ के लिए विशिष्ट मार्ग बनाए जाते थे, जो चौड़े और समतल होते थे। शकट संकरे मार्ग पर भी चल सकते थे। उत्पथ पर तीव्र गति से शकट चलाने पर वे भान हो जाते थे। जल को पार करने हेतु भस्त्रा का प्रयोग किया जाता था। चमड़े को सीकर उसमें हवा भर दी जाती थी, जो इनलप के चक्रों के समान पानी पर तैरती थी। भस्त्रासे रास्ता तय करने वाले को भास्त्रिक कहते थे। धार्मिक संस्कृति
आगम-साहित्य को पढ़ने से तत्कालीन देश, काल और संस्कृति का ज्ञान हो जाता है क्योंकि वे विस्तृत शैली में लिखे गए हैं। नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य सूत्र में आए पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था अत: उन्होंने सलक्ष्य इस विषय में कोई रुचि नहीं ली किन्तु प्रसंगवश धर्म, समाज, राजनीति,
१ सूटी पु. १३५: कीनकमार्ग यत्र आनुकोको मरका देविषये
कीलकाभिज्ञानेन गन्यते। २ सूटी पृ १३६
५. ही ५. १३१ जलमार्ग पत्र नवदिना सभ्यते। ६ सूच१५ १९४; आगासमग्गो चारण-विज्ञाहराणं । ७. शस्चू ५ ५२। ८ महाभाष्य ४/४/१६ ।
४ सूटी पृ. १३१: छत्रमार्गो यत्र छन्त्रमन्तरेण गंतुं न शक्यते ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण संस्कृति, इतिहास और विज्ञान आदि का वर्णन किया है। यहां हम नियुक्ति एवं उनके व्याख्या- साहित्य के आधार पर इन विषयों की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
नियुक्तिकार के समय धर्म का सर्वोपरि महत्त्व था। उसे उत्कृष्ट मंगल के रूप में स्वीकार किया जाता था। धर्म के नाम पर लोगों को भ्रमित भी किया जाता था। परिव्राजक लोग धार्मिक सिद्धांतों के नाम पर लोगों को ठगा करते थे। अंधविश्वास के आधार पर देवी-देवताओं की अंधपूजा की जाती थी। परिस्थितिवश मलोत्सर्ग पर डाले गए फूलों को देखकर हिंगुशिव की उत्पत्ति इसका प्रत्यक्ष निदर्शन है। कार्य विशेष की पूर्ति हेतु लोग मनुष्यों की बलि भी देते थे। कुछ संन्यासी या भिक्षु सप्त व्यसनों से आक्रान्त होते थे। ब्राह्मण यदि किसी भी को रोषपूर्तक या निरतः मार देता तो उसे प्राणदंड तक का प्रायश्चित्त दिया जाता था। साधु-साध्वियों को तत्त्व विषयक शंका होने पर श्रावक तथा राजा आदि उनको प्रतिबोध एवं प्रेरणा देते थे। यदि वाचना अधूरी रह जाती तो आगाढ योग में प्रतिपन्न शिष्यों का अध्यापन पूरा कराने हेतु कभी-कभी दिवंगत होकर भी आचार्य पुन: दिव्य प्रभाव से उस शरीर में प्रदेश कर वाफ्ना पूर्ण करते थे। शक्ति प्राप्त करने अथवा शंका-समाधान हेतु संघ आचार्य सहित देवता का कायोत्सर्ग करता था, जैसे—आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने गोष्ठामाहिल द्वार। शंका उपस्थित किए जाने पर कायोत्सर्ग का प्रयोग कर देवता का आह्वान किया।
साधु-संन्यासी एवं परिव्राजक धार्मिक वाद-विवादों में वृश्चिक, सर्प आदि विद्याओं तथा मायूरी, नाकुली आदि प्रतिपक्ष विद्याओं का प्रयोग करते थे। साधु लोग कभी-कभी ऐसी विद्याओं का प्रयोग भी कर लेते थे, जिससे दूसरों का अनिष्ट हो जाता था। चोर उन्नामिनी-अवनामिनी विद्या में प्रवीण होते थे। चोर आदि भी उपदेश देने पर सरलता से प्रतिबुद्ध होकर प्रजित हो जाते थे, जैसे- कपिल मुनि के द्वारा प्रतिबोध देने पर बलभद्र आदि पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध हो गए। छोटे से निमित्त को पाकर राजा लोग प्रतिबुद्ध हो जाते थे, जैसे- वृद्ध बैल को देखकर करकंडु, इंद्रकेतु की दुर्दशा देखकर दुर्मुख, कंकण की आवाज सुनकर नमि राजर्षि तथा आम्रवृक्ष की श्रीहीनता को देखकर गांधार राजा नम्गति प्रतिबुद्ध हो गए।२ अनशन से पूर्व बारह वर्ष की संलेखना का बहुत सुंदर कम आचारांगनियुक्ति में प्रतिपादित है।
प्रसंगवश नियुक्तिकार ने दैदिक कियाकाण्डी नान्यताओं का भी हेतु-पुरस्सर खंडन किया है। अग्नि में घी की आहूति डालने से सूर्यदेवता प्रसन्न होकर वर्षा करते हैं। इस मान्यता का खंडन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि होम करने से वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों होता है? यदि यह कहा जाए कि दुरिष्ट (बुरा नक्षत्र) या अविधिपूर्वक होम करने से दुर्भिक्ष होता है तो फिर जहां दुरिष्ट या अविधि से होम किया जाए वहीं दुर्भिक्ष होना चाहिए, सब जगह दुर्भिक्ष क्यों होता है? वर्षा का कारण
१. दशनि ८८, ८४. देखें कथा सं. २२ पृ. ४८३। २. दशनि ६३। ३. दशनि ७९ ४. दशनि ७९। ५. दनि १०५। ६. उनि १७२/२-५। ७. उनि १७२/४।
८. आचू च ६१: पसत्थदेवबले दुबलियपूसमित्तप्पमुहेग संघेण
देवयाए बलनिमित्तं का उस्सम्मो को। ९. उनि १७२/८.९। १०. उनि ११९ । ११ उनि २५१ १२. उनि २५८। १३. आनि २८८-९४ ।
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नियुक्तिपंचक इंद्र है तो क्या निर्घात, दिग्दाह आदि से इंद्र के कार्य में विघ्न नहीं होता? इन हेतुओं से यह मानना चाहिए कि स्वाभाविक रूप से ऋतु के अनुसार वर्षा होती है।' दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तथ्य
माधुकरी भिक्षा के प्रसंग में ईश्वरकर्तृत्व के बारे में पूर्वपक्ष के साथ उसका हेतु-पुरस्सर उत्तरपक्ष प्रस्तुत किया गया है। ब्रह्मा ने हर प्राणी को आजीविका दी है इसीलिए वृक्ष भी भ्रमरों के लिए फलते-फूलते हैं। वैदिकों के इस मंतव्य का नियुक्तिकार ने सैद्धान्तिक दृष्टि से तो खंडन किया ही साथ ही व्यावहारिक तर्क देते हुए कहा कि अनेक ऐसे वनखंड हैं,जहां न तो भ्रमर जाते हैं और न वहां निवास करते हैं फिर भी वनखंड में वृक्ष फलते-फूलते हैं अंत: फलना और फूलना वृक्षों का स्वभाव है।
दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की निर्मुक्ति में दश अवयवों की चर्चा तथा उदाहरण एवं हेतु के भेद-प्रभेदों का वर्णन न्याय-दर्शन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में तर्क, हेतु और उदाहरणों का प्रवेश नियुक्तिकाल में हुआ संभव लगता है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने 'आगम युग का जैन दर्शन ' पुस्तक में विस्तार से इनका वर्णन किया है।
चौथे अध्ययन की नियुक्ति में १४ द्वारों के द्वारा जीव की व्याख्या की गयी है, जिसमें आत्मा का अस्तित्व, पुनर्जन्म, आत्मा की परिणमनशीलता, आत्मा का देहव्यापित्व एवं आत्मकर्तृत्व आदि अनेक सिद्धांतों की चर्चा हुई है। दशवैकालिकनियुक्ति में सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के २० लक्षणों की चर्चा की गयी है। वहां सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के तीन भेद किए गए हैं.-१. ओफ्जीव २. भक्जीव ३. तद्भवजीव । आयुष्य कर्म के होने पर जीव जीता है, आयुष्य कर्म के क्षीण होने पर मृत या सिद्ध हो जाता है, वह ओघजीव है। जिस आयुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है अथवा उस भव से संक्रमण करता है, वह भवायु है। तभव आयु जीव दो प्रकार के होते हैं—तिर्यञ्चतद्भव आयु और मनुष्यतद्भव आयु क्योंकि तिर्यञ्च और मनुष्य ही मरकर पुनः तिर्थब्च और मनुष्य में उत्पन्न हो सकते हैं। संकुचित और विकसित होना जीव का मूल गुण है। वह अपने असंख्येय प्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है।
सूत्रकृतांग की 'आहारपरिण्णा' अध्ययन की नियुक्ति में आहार संबंधी सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक वर्णन हुआ है। जीव जन्म के समय पहले तैजस और कार्मण शरीर ले आद्वार ग्रहण करता है। बाद में जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र से आहार ग्रहण करता है।' आहार की दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव, देवता और नारकी जीवों के प्रक्षेप—कवल आहार नहीं होता।' केवली समुद्घात के समय जीव मंथान के प्रारम्भ और उपसंहार में (तीसरे और पांचवें समय में) तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अमाहारक रहते हैं। इस प्रकार समुद्घात की अपेक्षा केवली
१ दशनि २५/१-३; पद्यपि यह प्रसंग बाद मे जोड़ा गया है पर वर्तमान
* ये नियुक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्ध है। २. दशनि ९७। ३. दशनि १९३. १९४ । ४. दपनि १९९.२००।
५ दशनि १९५-९७। ६ आनि १८१। ७. सूनि १७८। ८. सूनि १७४।
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नियुक्ति साहित्य : एक पविक्षण तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अन्नाइरक रहते हैं। चौदहतां गुणस्थान भी अनाहारक होता है। इस अतिरिक्त अंतराल गति में विग्रह गति करने वाला जीव एक या दो समय अनाहारक रहता है।'
दशवकालिकनियुक्ति में वर्णित भाषः एवं उसके भेदों का वर्णन तथा सूत्रकृतांग नियुक्ति । परमाधार्मिक देवों के कार्यों का वर्णन सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति । उपासक और श्रावक का अंतर तारिक दृष्टि से नए तथ्यों के प्रकट करने वाला है।' सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थितियां .
सहित्य समाज का दर्पण होता है। किसी भी साहित्य के आलोक में तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान किया जा सकता है। नियुक्तिकार ने कथाओं के माध्यम से प्रसंगवश सभ्यता, संस्कृति । सामाजिक परम्पराओं के अनेक तथ्यों की ओर हरित किया है। सामाजिक दृष्टि से चार वर्गों की उत्पत्ति का इशिश अत्यंत मर्ण है: निमितकाली पकाशा में दासप्रथा का पूर्णरूपेण बहिष्कार नहीं हुआ था। व्यक्तियों का क्रय-विक्रय वलल. था। बलिप्रथा प्रचलित थी। परिपूर्ण कलश को लौकिक मंगल के रूप में माना जाता था। कन्याएं स्वयंवर भी करती थीं, जैसे—मथुरा के राजा जितशत्रु की पुत्री निति ने स्वयं दूसरे स्थान पर जाकर स्वयंवर किया। बहुपरनी प्रथा समृद्धि एवं गौरव का प्रतीक मानी जाती थी। राजा लोग अनेक रानिय रखते थे। गांधर्व विवाह भी प्रचलित थे।
गर्भधारण, गर्भपात एवं गर्भ के पोषण की विधियां प्रचलित थीं। साधु उन विधियों को गृहस्थ को नहीं बता सकता था। गर्भवती पत्नी को छोड़कर घर का प्रमुख व्यक्ति दीक्षित हो जाता था। पिता अपनी पुत्री के साथ अकरणीय कार्य कर लेता था और उस कार्य में कभी-कभी पत्नी अपने पति का सहयोग भी कर देती थी। दक्षिणापथ में मामा की बेटी गन्य मानी जाती थी अर्थात् उसके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया जा सकता था पर गोल्ल देश में यह संबंध निषिद्ध था। धन के लिए! बेटी अपनी मां की हत्या तक कर देती थी।" उजविद्या प्रकर्ष पर थी। चोरों द्वारा चुराई हुई वस्तु की पुनः प्राप्ति अशुभ मानी जाती थी।१६ इक्षुदंड के, शुभ शकुन माना जाता था।"
शिल्पी लोग अनेक कलात्मक चीजें बनाते थे। चित्रकला की दृष्टि से मिट्टी के मनोहारी पालन बनाए जाते थे। वस्त्र बुनते समय बुनाई में जुलाहा, हाथी, घोडे आदि के चित्र बना देता था, जिसे वातव्य कहा जाता था। वस्तु-विनिमय के साथ-साथ रुपयों द्वारा भी लेन-देन चलता था। भारतीय व्यापारी विदेशों में व्यापारार्थ जाते थे। सार्थवाह पुत्र अचल वाहनों को भरकर पारसकुल (ईरान)
१. सूनि १७६.९७७। २. दनि ३७-४०। ३. आनि १९ आचू. ए. ५। ४ दनि १०७, १०८, उनि २४७ । ५. दशनि ७९। ६. दशनि ४१. ७. उशांटी प. १४८-५०१ ८ उसटी प.१४२: राइगो अणेगाओ महादेवीओ,एगेगः वारए
रपणीए राइण वासभवणे आगच्छइ । ९. उसुटी प. १९०; ते गधन्धविवाहेण विवाहिया। १०. आनि २५४।
११. दशचू पृ. ४। १२. उनि १३५-३७। १३. दशअचू पृ. १०। १४. दशनि ५१। १५. दानि ८५। १६. दनि १६. दचू प. १२। १७. उसुटी प २३। १८ दशनि १४३ दी. ५.८५।' १९. दशनि १४३ टी प.८७i २० उशांटी प २०९ ।
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नियुक्तिपंचक गया।” चम्पा नगरी का बणिक पुत्र पालित नौकाओं में माल भरकर पिहुण्ड नगर पहुंचा। विदेशी लोग भारत में रत्न खरीदने आते थे। एक बार एक व्यापारी के पुत्रों ने विदेशी व्यापारियों को सारे रत्न बेय दिए । अन्य देशों से आए माल की कड़ी जांच की जाती थी।
कपड़ों के लिए पक्का रंग जलौक के माध्यम से तैयार किया जाता था। जलौक को जीवित व्यक्ति के शरीर पर छोड़ दिया जाता। वह उसका रक्त चूसकर लो रंग बनाती. बह कपड़े आदि रंगने के काम आता था। सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण बनाकर उसका प्रयोग वशीकरण एवं दूसरों को मोहित करने के लिए किया जाता था। मुकुन्द नामक वाद्य गंभीर स्वर के कारण वाद्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखता था। सोलह सेर द्राक्षा, चार सेर धातकी के पुष्प और ढाई सेर इक्षु—इनको मिलाकर मद्य बनाया जाता था।
शिक्षा के लिए विद्यार्थी अन्य स्थानों पर भी जाते थे। उनके भोजन-पानी एवं आवास की व्यवस्था धनीं सेठ कर देते थे, जैसे--कोर ब्राहाम की व्यस्थ सेठ शालिभद्र ने की थी। शिक्षा पूर्ण कर लौटे विद्यार्थी का राजा सार्वजनिक सम्मान करता था। नगर को पताकाओं से सजाकर उसे हाथी पर बिठाकर ससम्मान घर पहुंचाया जाता तथा अनेक प्रकार के उपहार भी दिए जाते थे। सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र रक्षित का ऐसा ही राजकीय सम्मान किया गया ।
उत्तराध्ययननियुक्ति में ऋषभपुर, राजगृह और पाटलिपुत्र नगर की उत्पत्ति का संकेत मिलता है। इसी प्रकारादिशपुर नगर के उत्त्पत्ति के कथानक का संकेत भी नियुक्तिकार ने दिया है। राजतंत्र होने से राजभय के कारण मुनि की आपार-परम्परा में राजा की आज्ञा को आपवादिक कारण में रखा जाता था। राजा यदि किसी व्यक्ति की सरलता से प्रसन्न होता तो करोड़ों रुपये देने के लिए तैयार हो जाता।" राजकुमार यदि दुर्व्यसनों में फंस जाता तो सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी राजा उसे देशनिकाला दे देता। उज्जैनी का राजपुत्र मूलदेव कला-मर्मज्ञ होते हुए भी जुए के व्यसन से आक्रान्त था अत: राजा ने उसे देशनिकाला दे दिया। राजा लोग वेश्याओं को अंत:पुर में रख लेते थे। मथुरा के राजा ने कालः नामक वेश्या को अपने अंत पुर में रखा, जिससे कालवैशिक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। गुप्तचर निरपराध मुनियों को भी चोर समझ कर उन्हें दंडित कर देते थे। उस समय राज्य की ओर से अठारह प्रकार के कर प्रचलित थे। नियुक्तिकार ने युद्ध के लिए केवल यान, कवच, प्रहरण और युद्ध-कौशल को ही आवश्यक नहीं माना, इसके अतिरिक्त नीति, दक्षता, प्रवृत्ति और शरीर का
१. उत्सुटी म. ६४। २. उनि २६ । ३. शांटी ५.१४७। ४ उसुटी ५.६५। ५ दन १०८ चू. प. १५१ ! ६. उनि १४७, १४८। ७ उनि १५२. उशटी ग. १४३ । ८. उनि १५१। ९ उनि २४६, उसुटी प. १२४ ।
१०. उझुटी ५.२३ ११. उनि १०१। १२. उनि ९६। १३. दनि ७३। १४. उनि २५०। १५. उसुटी प. ५९॥ १६. उसुटी प. १२० । १७ उनि १०८. ११७ । १८ उशांटी प. ६०५।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
११५ आरोग्य—इन अंगों को भी आवश्यक माना है। चूर्णिकार ने इन अंगों के महत्त्व और उनके परस्पर संबंध पर सुंदर प्रकाश डाला है। व्यूह-रचना के द्वारा युद्ध किया जाता था। राजा चंडप्रद्योत और द्विर्मुख के बीच युद्ध में चंडग्रद्योत ने गण्ड-व्यूह एवं द्विमुख ने सागर-व्यूह की रचना की थी।
आज वैज्ञानिक यह मानते हैं कि शस्त्र का निर्माण सर्वप्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में होता है। नियुक्तिकार ने द्रव्य शस्त्रों की चर्चा करते हुए दुष्प्रयुक्त अंत करा जग - और हाणी के असंयम को मूल भावशस्त्र के रूप में माना है। भावशस्त्र सक्रिय है तो द्रव्यशस्त्रों का निर्माण होता रहता है। सूत्रकृतांगनियुक्ति में तीन प्रकार के शस्त्रों की चर्चा है—१. विद्याकृत, २. मंत्रकृत, ३. दिव्य । ये तीनों पांच प्रकार के होते हैं—१. पार्थिव २. वारुण ३. आग्नेय ४. वायव्य ५. मिश्र अर्थात् दो या तीन का मिश्रण, जैसे—पार्थिव और वरुण से निष्पन्न शस्त्र । चूर्णिकार के अनुसार जो साधे जाते हैं अथवा जिनका अभ्यास किया जाता है. वे विद्याकृत मंत्र हैं तथा जिनको साधने अथवा अभ्यास करने की अपेक्षा म हो, वे मंत्रकृत शस्त्र कहलाते हैं। स्थदिर जिनदास ने भी अपनी चूर्णि में अनेक प्रकार के शस्त्रों की चर्चा की है— एक धार वाले–परशु आदि। २ दो धार वाले—बाण आदि। ३. तीन धार वाले– तलवार आदि। ४. चार धार वाले–चतुष्कर्ण आदि। ५. पांच धार वाले—अजानुफल आदि ।
इतिहास
नियुक्ति-साहित्य में ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक दोनों प्रकार के तथ्यों का संकलन मिलता है• भगवान् ऋषभ से पूर्व मनुष्य जाति एक थी, उसमें जातिकृत भेद नहीं था। • हजार वर्ष तक उग्र तप करने वाले ऋषभ का कुल संकलित प्रमाद-काल एक अहोरात्र तथा
बारह वर्ष से अधिक उग्र तप करने वाले महावीर का प्रगाद-काल अन्तर्मुहूर्त का था। • सूत्रकृतांग का दूसरा अध्ययन ऋषभ ने अष्टापद पर्वत पर अट्ठानवें पुत्रों को संबोधित कर
प्रतिपादित किया, जिसे सुनकर वे सब प्रबजित हो गए। • पुष्कर तीर्थ की उत्पत्ति राजा प्रद्योत और उद्रायण की कथा से ज्ञात होती है। वासवदत्ता
ने वशीकरण चूर्ण का प्रयोग करके उदयन को आकृष्ट किया था।९ . विज्ञान
वर्तमान में विज्ञान प्रकर्ष पर है पर निर्मुक्ति एवं चूर्णि-साहित्य में भी कुछ वैज्ञानिक तथ्य मिलते हैं। आज विज्ञान ने Space (क्षेत्र) और Time (समय) के बारे में काफी चिन्तन किया है । आइंस्टीन ने इस दिशा में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं लेकिन जैन दर्शन ने जिस सूक्ष्मता से इनके बारे में चिन्तन किया है, वहां तक विज्ञान की पहुंच नहीं हो सकी है। नियुक्तिकार के अनुसार काल से भी
१. उनि १५५।
८. आनि १९, विस्तृत वर्णन हेतु देखें इसी ग्रंथ में वर्ण २. उचू पृ ९३|
व्यवस्था एवं वन्तर जातियां पृ ६९-७२। ३. उसुटी प १३६, रइओ गरुडब्बूह पज्जोएग, सागरहो दोमुहेण। ५. उनि ५१८, ५१९ । ४. आनि ३६ ।
१०. सूनि ४१। ५. सूनि ९८ सूचू १ पृ. १६५।
११. उनि १६। ६. सूचू १ पृ. १६५: विज्जा सलाहगा, मंतो असाहो । १२. उनि १४८। ७. दशजिचू पृ. २२४।
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नियुक्ति पंचक
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अधिक सूक्ष्म होता है क्षेत्र क्योंकि अंगुल श्रेणिमात्र क्षेत्र के प्रदेशों के अपहार में असंख्येय उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियां बीत जाती हैं।
“उस समय ऐसें द्रथः का रुख जया था. जिससे दीए की बाती बिना तेल के ही केवल पानी से जलती थी । काश्मीर आदि देशों में काजी के पानी से दीया जलाया जाता था। चक्रवर्ती कां गर्भगृह उष्णकाल में उष्ण तथा शीतकाल में शीट रहता था।' नालिका आदि के द्वारा समय का सही ज्ञान कर लिया जाता था। जमदग्निजटा, तमालपत्र आदि गंध द्रव्यों को मल्लिका— चमेली पुष्प से वासित कर दिया जाता तो वह गंधद्रव्य करोड मूल्य वाला हो जाता था। सूत्रकृतांगनियुक्ति में पद्म का वर्णन आश्चर्य पैदा करने वाला है। विज्ञान के द्वारा यह खोज का विषय है कि ऐसा कमल कहां होता है और उसे कैसे पाया जा सकता है? नियुक्तिकार ने सोने के आठ गुणों का संकेत किया है१. विषघाती - विष का नाश करने वाला 1
—
२ रसायण – यौवन बनाए रखने में तनर्थ ।
३. मंगलार्थ — मांगलिक कार्यों में प्रयुक्त ।
४ प्रविनीत —– यथेष्ट आभूषणों में परिवर्तित होने वाला ।
५ प्रदक्षिणावर्त - तपने पर दीप्त होने वाला
६. गुरु— सार वाला।
७. अदा अग्नि में नहीं जलने वाला ।
८ अकुधनीय- कभी खराब न होने वाला । "
नियुक्तिकार ने सोने की कण, छेद, ताप, ताड़ना आदि चार कसौटियों का भी उल्लेख किया है।' सोने को चमकाने के लिए सौराष्ट्रिक मिट्टी का प्रयोग किया जाता था।' कृत्रिम सोना तैयार किया जाता था। वह शुद्ध सोने जैसा लगता पर कसौटियों पर खरा नहीं उतरता था।"
स्वास्थ्य विज्ञान एवं आयुर्वेद
नियुक्तिकार आयुर्वेद के भी विज्ञाता थे। प्रसंगवश उन्होंने तत्कालीन आयुर्वेद एवं चिकित्सा के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकेत दिया है। रोगी के फोड़े को काटकर उसकी सिलाई की जाती थी। गलयंत्र के द्वारा अपथ्य के प्रति कुत्सा पैदा की जाती थी, जिससे अजीर्ण-दोष की निवृत्ति हो जाती थी । " जेठ और आषाढमास की वायु का शरीर में निरोध होने से व्यक्ति चलने-फिरने में असमर्थ हो जाता था। आज की भाषा में इसे लू लगना कहा जा सकता है। सांप, बिच्छू आदि काटने पर मंत्रों का प्रयोग किया जाता था। दो रजनी पिंडदारु और हल्दी, माहेन्द्र फल, त्रिकटुक के तीन अंग- सूंठ,
१ आनि ८९ ।
२. तूच् १ पृ. १६३; कस्मीरः दिषु च काञ्जिकेनानि दीपको दीप्यते ।
३ तूच १ पृ १६३, चक्कवट्टिस्स गन्भहिं सीते उन्ह उन्हे सीतं ।
४. दशनि ५८ ।
५. उनि १४६ ।
६. सूनि १६२-६५ ।
.. दशनि ३२६ ।
८. दशनि ३२७ ।
९. दशजिचू पृ. १७९ ।
१० दशहाटी प. २६३ ।
११. दशनि ३४१ ।
१२ उनि १३०. १३१ | १३ दशहांटी ५. २३६ ।
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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पीपल, कालीमिर्च, सरस — आर्द्रक तथा कनकमूल — बेल की जड — इन सात द्रव्यों को पानी के साथ गोली बनाने से वह गोली खाज, तिरमिरा – आंख का रोग, आधासीसी (अर्ध शिरोरोग) समस्त शिरोरोग, तार्त्तीयीक (तीन दिनों से आने वाला ज्वर), चातुर्थिक (चार दिनों से आने वाला ज्वर ) आदि रोगों को शान्त करती तथा चूहे. सांप आदि के काटने पर भी काम आती थी। णिनीने दिन से आने वाले ज्वर को द्वितीयक, तीन दिन आने वाले ज्वर को तृतीयक और चार दिन से अने बाले ज्वर को चतुर्थक कहा है। उन्होंने ज्वर के कुछ और भेदों का भी उल्लेख किया है। सर्दी देकर चढ़ने वाला ज्वर शीतक तथा गर्मी से आने वाला ज्वर उष्मक कहा जाता था । इसी प्रकार विषपुष्प से उत्पन्न ज्वर विषपुष्प से उत्पन्न ज्वर कासपुष्पक कहलाता था । शरदऋतु के प्रारम्भ में उत्पन्न ज्वर शारदिक कहलाता था। बल, रूप आदि को बढ़ाने के लिए वमन विरेचन का प्रयोग किया जाता था।"
बाह्य और आंतरिक तप करने से शरीर में हल्कापन आता है तथा बाहु वृश होती हैं ।" क्षेत्र विशेष के प्रभाव से भी शरीर कृश होता है।" खाद्य पदार्थो में तेल और दही का संयोग विरोधी है। तेल, घी आदि पीने से सौन्दर्य - वृद्धि होती थी। रंग निखार आदि के लिए तैल-मर्दन तथा उद्वर्तन आदि किया जाता था । " ऐसी गोलियों का निर्माण किया जाता था, जिनका सेवन करने से एक महीने तक भूख की अनुभूति नहीं होती और न ही शक्तिहीनता की प्रतीति होती थी। विष का प्रभाव नष्ट करने हेतु विशेष प्रकार के गंध या लेप तैयार किए जाते थे तथा बुद्धि बढाने की औषधियां बनायी जाती थीं।" इसी प्रकार लेप विशेष के प्रयोग से कांटे भी स्वतः निकल जाते थे ।" सद्य: बनाए हुए घेवर प्राणकारी. हृद्य और कफ का नाश करने वाले होते थे । १२
परवर्ती एवं अन्य ग्रंथों पर प्रभाव
निर्धुक्तियां आगमों की प्रथम व्याख्या है अत: इसमें वर्णित अनेक विषयों से परवर्ती रचनाकार प्रभावित हुए हैं। निर्जरा की तरतनता बताने वाली गुणश्रेणी - विकास की दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांगनियुक्ति में मिलता है। गोम्मटसार और षट्खंडागम में शब्दश: ये गाथाएं उद्धृत की गयी हैं। मात्र उपशमक के आगे 'कसाय' शब्द का प्रयोग अतिरिक्त मिलता है। " षट्खंडागभ का वेदना खंड और गोम्मटसार का जीवकाण्ड देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये गाथाएं भूलग्रंथ का अंश नही अपितु कहीं से उद्धृत य प्रक्षिप्त की गयी हैं। उमास्वाति ने भी ये अवस्थाएं नियुक्तिकार से ली हैं, यह कहा जा सकता है।"
१. उनि १४९, १५० ।
२ अष्टाध्यायी ५/२/८१ |
३. अष्टाध्याची ५/२/८१ ।
४. दशजिचू त्रृ ११५ ।
पृ. २२२ ।
५.
६. आचू पृ २२१ ।
७ आचू पृ. १३०: विपरीतं असम्म जहा तिल्लदहीणं । ८. सूचू १
१० ।
९. तूच १ पृ. १६३ /
१०. तूच १ पृ. १६३ ।
११ सूच १ पृ. १६३ ।
१२. सूटी पृ ११९; सद्यः प्रागकर छा घृतपूर्ण कफापहाः । १३ आणि २२३, २२४ ।
१४ ष्ट्. वेदनाखंड, गा. ७, ८, गोजी ६६ ६७ ।
१५. विस्तार के लिए इसी ग्रंथ में तरतभता के स्थान, पृ. ७२-७७।
देखें- निर्जरा की
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निन । गुणश्रेणी-विकाः 10 के अतिरिक्त आचार्य उमास्वाति ने परीषह का प्रसंग भी उत्तराध्ययन नियक्ति से लिया है क्योंकि दोनों के वर्णन में बहुत संवादिता है। उमास्वादि ने संबर के
संग में परीष्ह क वर्णन किया है अत: वहां कितने परीषह किसमें पाए जाते हैं तथा किस कर्म के उदय से कौन से परीणह उदय में अते हैं. यह वर्णन अबासीक सा लगता है लेकिन नियुक्तिकार ने परीषह के बारे में लगभग ९ द्वारों से सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की है अतः वहां यह वर्णन प्रासंगिक लगता है।
__ नियुक्तिकार ने एक साथ एक जीव में उत्कृष्ट २० परीषह स्वीकार किए हैं। लेकिन तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उत्कृष्टत: १९ परीषहों को स्वीकार किया है।' आई भद्रबाहु ने शीत और उष्ण तथा चर्या और निघद्या. को विरोधी मालकर एक समय में एक व्यक्ति में ... परीषह स्वीकार किए हैं किन्तु तत्वार्थ सूत्रकार ने शीत और उष्ण में एक तथा चर्या, निषद्या और शय्या इन तीनों में एक परीषह को एक समय में स्वीकार किया है अत: एक स्मय में १९ परीषह एक जीव में प्राप्त होते हैं। निथुक्तिगाथा के संवादी तत्त्वार्थ के सूत्र इस प्रकार हैंतस्वार्थ
उत्तराध्ययननियुक्ति ६. सूड्गसम्परायझर धीतरागयोश्चतुर्दश (९/१०) उदस य सुमरामम्मि छउमत्थवीयरगे (८०) २. एकादर जिने (९/११)
एकक.रस जिणम्मि (८०) ३ बादर।पर। सर्वे (९/१२)
बावीस बादरसम्पर!ये (८०) ४. ज्ञानावरणे प्रज्ञ ज्ञाने (९/१३)
पण्णःपुण्ण गपरीसह नागादरणन्मि हुति .... (७५) ५. दननहन्तराययोरदर्शनालाभ (९/१४) गा. ५.६८ ६ चरित्रमोहे नारन्यारसि-स्त्री निष्याकेश अरती अवेल इत्टी, निसीहिया जायण य अक्कोसे । ____ याचना-सत्कार -पुरस्कारा: (९/१५) सक्कारपुरझारे, चरित्तमोहम्मि सत्तेए।।७६ ।। ७. वेदनीये शेषाः (९/१६)
एक्कारस वेयणिजम्मि (गा. ७९) ८. एकादणे भाज्या युगपदैकोनविंशते: (९/१७) ग.८३ __ नियुक्ति में प्रयुक्त निक्षेप-पद्धति का अनुसरण भी परवर्ती आचार्यो ने कुछ समय तक किया लेकिन बाद के अचार्यों ने इसे इतना उपयोगी नहीं माना, जैसे--आचारांगनियुक्ति में कषाय के आठ निक्षेप किए गए हैं। वे ही आठ निक्षेप कषाय पाहुड़ में भी मिलते हैं। केवल उत्पत्ति कषाय के स्थान पर समुत्पत्ति कष्ाय का नाम मिलता है। कषायपाहुड़ के कर्ता ने ये निक्षेप आचारांगनियुक्ति से उद्धृत किए हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। पंच आचार,भाषा के भेद तथा विनय से संबंधित गाधाएं मूलाचार, भगवती आराधना, निशीथभाष्य आदि अनेक ग्रंथों में संक्रांत हुई हैं।
ठाणं संकलन प्रधान अंग आगम है अत: बहुर संभव है कि नियुक्ति-साहित्य के अनेक विषय कलान्तर रो उसमें प्रक्षिप्त हुए हैं। हमारे अभिमत के अनुसार अधा और हेतु के भेद-प्रभेद दशवैकालिक
१. उनि ८३। २ त. ६/६५७; एकादरी भाज्या युगपदनविशते. ।
६.पा. भाग १५.२५७; साओ ताव गिक्तिविश्वो णानकसाढवणासाओ दबकसाओ पच्चरकसाझे समप्पत्तियकताओं
आदेतकताओं रसफसाओ गावकसाओ।
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पिक्त साहित्य : एक पर्यवेक्षण
११.. निर्मुक्ति से ठाणं में संक्रांत हुए हैं। जातक' में भी नियुक्ति की कुछ गाथाएं संक्रांत हुई हैं। उदाहरणार्थ उत्तराध्यपननियुक्ति (गा. २५७) की संवादी गाधा द्रष्टव्य है
करकण्डु नाम कलिङ्गानं, गन्धारानञ्च नग्गजी ।
निमिराजा विदेहानं, पञ्चालानञ्च दुमुक्खो।। नियुक्तिकार अपने समकालिक एवं पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना से भी प्रभावित हुए हैं। नियुक्ति में वर्णित वर्णान्तर जातियों का उल्लेख वैदिक धर्म ग्रंथों से लिया गया प्रतीत होता है। महाभारत, गौतमसूत्र एवं मनुस्मृति आदि ग्रंथों में इनका पूरा वर्णन मिलता है। दशवकालिकनियुक्ति में वर्णित असंप्राप्त और संप्राप्त काम के भेद एवं वात्स्यायन के कामसूत्र में वर्णित काम के अंगों में अद्भुत साम्य है। दशवकालिकनियुक्ति में काव्य संबंधी वर्णन किसी कान्यशास्त्र के ग्रंथ से लिया गया है। नियुक्तिकार स्वयं भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि 'एव विहिण्णू कवी बेंति' अर्थात् विचक्षण कवियों ने ऐसा कहा है। आगम-संपादन का इतिहास
महाराष्ट्र के मंचर गांव में पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी 'धर्मदूत' पत्र का अवलोकन कर रहे थे।उसमें बौद्ध ग्रंथों के संपादन एवं प्रकाशन की योजना थी। इस सूचना ने गुरुदेव के मन में टीस मैदा कर दी। उनके मन ने विकल्प उठा कि जब बौद्ध आगमों का आधुनिक दृष्टि से संपादन हो सकता है तो फिर जैन आगमों का संपादन क्यों नहीं हो सकता? गुरुदेव के मन में एक संकल्प जागा कि आगमों की विशाल श्रुतराशि भी अच्छे ढंग से संपादित होकर जनता के समक्ष आनी चाहिए। गुरुदेव ने अपने मन की वेदना मनि नथमल आचार्य महाप्रज्ञ आदि संतों के सम्मख प्रस्तत की।
ार्य महाप्रज्ञ) आदि संतों के सम्मुख प्रस्तुत की। संतों में गुरुदेव की कल्पना एवं वेदना को समझा और एक स्वर में कहा कि हम आपकी इस भावना को पूरा करेंगे। तप-अनुष्ठान से उज्जैन चातुर्मास में जो आगम-कार्य प्रारंभ हुआ, वह आज तक अनवरत गति से चल रहा है।
आगम-कार्य प्रारंभ करने से पूर्व आचार्य तुलसी ने तीन बातों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया—१. वर्तमान परिस्थितियों का संदर्भ २. युगानुरूप साहित्यिक सौन्दर्य ३. आकर्षक शैली। इसके साथ-साथ तटस्थता, प्रामाणिकता, समीक्षात्मक अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन और समन्वय-नीतिइन पांच मापदंडों को भी संपादन क. आधार बनाने की प्रेरणा दी। ___आचार्य तुलसी की आगम-संपादन कार्य के प्रति कितनी तड़प थी, इसे इस घटना से जाना जा सकता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी गुजरात प्रवास पर थे। वैशाख महीने की चिलचिलाती धूप में १२ मील का विहार कर गुरुदेव लगभग सवा दश बजे सांतलपुर पहुंचे। स्थान पर पहुंचते ही गुरुदेव ने कायोत्सर्ग किया। संतों ने सोचा आज संभवत: आगम-संशोधन का कार्य स्थगित रहेमा पर दोपहर ) नियत समय होते ही आचार्य श्री ने संतों को याद किया और पाह-संशोधन का कार्य प्रारंभ कर दिया। मुरुदेव ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा-"विहार चाहे कितना ह. लम्बा क्यों न हो, आग:
१ (क) कथा का वर्णन देखें दशनि गा. १६२-६१. ठाणं ४/२४६-५० ।
(ख) हेतु का वर्णन देखें दी । ४९-८५, भाग ४/४९९-५०४।
२. जातक ४०८/" ३. दानि १४८.
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१२०
नियुक्तिपंचक कार्य में कोई नहीं जाना चाहिए : आनन कार्य पारते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लान्ति मिट जाती है। आगम-कार्य हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ है। यदि हम इसके लिए कुछ भी अन करते हैं तो यह हमारे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। इससे बहकर दूसरा और कौन सा पुण्य-कार्य होगा।'
आचार्य तुलसी के इस फौलादी संकल्प, आवार्य महाप्रज्ञ को संपादन-कौशल एवं अन्य संतों की कानिष्ठा से बत्तीसी का मूल पाठ प्रकाशित होकर विद्वानों के समक्ष पहुंच गया है। इसके अतिरिक्त अनेक आगमों का हिन्दी अनुवाद, 'शष्य एवं टिप्पण का कार्य भी सम्पन्न हो चुका है। नियुक्ति-संपादन का इतिहास
__ एकाधक कोश का कार्य सम्पन्न हो चुका था। सन् १९८४ का धातुर्मासिक प्रवास जोधपुर था। उससे पूर्व गुरुदेव तुलसी एवं युवाचार्य श्री (आचार्य महाप्रज्ञ) का विराजना जैन विश्व भारती, लाडनूं में हुआ। अग्रिम कार्य की योजना में युवाचार्य प्रवर ने फरमाया-"नियुक्तियों पर अभी तक कोई काम नहीं हुआ है अतः अब इस कार्य को हाथ में लेना चाहिए।" नियुक्तियों के संपादन का कार्य मुझे सौंपा
या । हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन के कार्य का अनुभव नहीं था अत: मन में सोचा कि यह कार्य तो बहुत सरल है क्योंकि प्रकाशित प्रतियों से शुद्ध पाठ उतारना है तथा कुछ परिशिष्ट तैयार करने हैं अत: दो तीन महीनों में यह कार्य सम्मन्न हो जाएगा। __जोधपुर चातुर्मासिक प्रवास के दौरान चूर्ण और टीका में प्रकाशित सारी नियुक्तियों के क्रमांक आदि शुद्ध करके प्रतिलिपि कर आचार्य प्रवर एवं युवाचार्य श्री को फाइलें निवेदित की। फाइलें देखने के बाद आचार्य तुलसी ने फरमाया-अहमदाबाद में आवश्यक नियुक्ति पर कार्य हो रहा है, उसे देखने पर कार्य को एक दिशा मिल सकती है। गुरुदेव तुलसी का संकेत पाकर मैं और समणी सरलप्रज्ञाजी अहमदाबाद पहुंचे। वहां लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर में लगभग चार महीने तक काम करने का मौका मिला। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने जब निथुक्तियों की माइलें देखी तो सुझाव देते हुए कहा—'आगमों की प्रथम व्याख्या नियुक्ति है अत: यह बहुत महत्त्वपूर्ण साहित्य है। इसका हस्त-आदर्शों के माध्यम से पाठ-संपादन होना चाहिए।' उनकी प्रेरणा से वहीं पर हस्त-आदर्शो से पाठ-संपादन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर की लाइब्रेरी में हम लोग प्रात: आठ बजे से सांय ५ बजे तक कार्य करते । अहमदाबाद का चार महीने का प्रवास अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा। लाडनूं आने के बाद मुनि श्री दुलहराजजी के निर्देशन में नियुक्तियों की गाथा-संख्या के बारे में पुनः एक बार पर्यालोचन किया गया। कितनी भाष्य-गाथाएं नियुक्ति गाथा में तथा नियुक्ति गाथाएं 'भय-गाथाओं में मिल गयीं. इस संदर्भ में अनेक माथाओं के बारे में पाद-टिप्पण लिखे तथा कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुईं इस बारे में भी विमर्श प्रस्तुत किया। ऐसी गाथाओं को मूल क्रमांक से अलग रखा। इस क्रम में टीका और चूर्णि में प्रकाशित नियुक्तियों एवं हमारे द्वारा संपादित नियुक्तियों की गाथा-संख्या में काफी अंतर आ गया।
यद्यपि इन पांच निर्युक्तियों के संपादन का कार्य सन् १९८५ में संपन्न हो गया था लेकिन बीच में देशी शब्द कोशा, व्यवहारभाषः आदि ग्रंथ के कार्य में संलग्न होने तथा पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के 'हित्य से मांधित कुछ ग्रंथों में सांपादन एवं प्रकाशन में नमय लगने से नियुक्तिपंचक के प्रकाशन
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नियुक्ति साहित्य : एक पविक्षण
१२१ में विलम्ब हो गया। विलम्ब होना भी 'देर आए दुरुस्त आए' उक्ति को चरितार्थ करने वाला रहा। उस समय नियुक्तियों क. अनुवाद होना संभव नहीं था। बाद में मुनि श्री दुलहराजजी स्वामी की मानसिकता बनी और उन्होंने बहुत कम समय में पांचों नियुक्तियों का अनुवाद कर दिया |
हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन का कार्य अत्यंत दुरूह और जटिल है। बिना धैर्य और एकाग्रता के व्यक्ति इस कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी पाठ-संपादन के कार्य को अत्यंत महत्व देते थे। जब-जब इस कार्य के प्रति मेरे मन में असचि या निराशा जागती, मेरे हाथ श्लध होते, सब-सज गुरुदेव प्रेरणा प्रोत्साहन देकर नए प्रागों का संचार कर देते। अनेकों बार उनके मुखारविंद से यह सुनने को मिला -"देखो! आगम का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इससे नया इतिहास बनेगा और धर्मसंघ की अपूर्व सेवा होगी।" पूज्य गुरुदेव पारु-संपादन को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे. यह निम्न घटना से स्पष्ट हो जाता है... -
एक बार आचार्य तुलसी के समक्ष आवारग का वाचन चल रहा था। मुनि श्री नथमल जी (आचार्य नहाप्रज्ञ) अचारांग के हम रहस्यों को हो रहे धे। अनेक दिशा -साध्वियां दत्तचित्त होकर व्याख्या सुन रहीं थीं। प्रसंगवश मुनि श्री दुलहराजजी ने आचार्य प्रवर को निवेदन किया'पाठ-संपादन जैले कार्य में मुनि श्री नथमलजी का इतना समय लगना कुछ अटपटा सा लगता है। इस कारण मुनि श्री को मौलिक सृजन के लिए अवकाश नहीं मिलता। ऐसी प्रतिभाएं यदा-कदा ही आती हैं अत: इनका समुचित लाभ उठाना चाहिए, जिससे संघ को अधिक लाभ मिल सके ।' गुरुदेव तुलसी ने मुनि श्री के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा.-"तुम पाठ-संशोधन को मौलिक कार्य नहीं मानते. यह तुम्हारी भूल है। मैं मानता हूं कि शोधकार्य का सबसे प्रमुख अंग है—मूल पाठ का निर्धारण । यह कार्य हर एक व्यक्ति नहीं कर सकता। दूसरी बात भाठ-संशोधन के क्रिया-काल में ये कितने लाभान्वित हुए हैं, यह बार इनके मुख से ही सुनो।" मुनि नथमलजी ने अपना मंतव्य प्रस्तुत करते हुए कहा"पाठ-निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान अत्यंत अपेक्षित होता है और यह तभी संभव है जब एक-एक शब्द पर चिंतन केन्द्रित कर उसके हार्द को समझा जाए। इस प्रक्रिया से विचारों की स्पष्टता, चिंतन की गूढ़ता और अर्थ-संग्रहण की प्रौढ़ता बढ़ती है। मैं इसे मौलिक अध्ययन मामता हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके परिपार्श्व में जो कुछ लिखा जाएगा, वह मौलिक ही होगा ।"
आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में नारी-विकास के अनेक स्वप्न देखे और वे फलित भी हुए। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए बीदासर में (१२/२/६७) गुरुदेव ने कहा—"मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गई टीकाएं या भाष्य विद्वानों के सामने आएंगे। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी, मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझूगा।” पूज्य गुरुदेव तुलसी का यह स्वप्न पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हुआ है, पर आचार्य महाप्रज के निर्देशन में इस दिशा में प्रयास जारी है। वर्तमान में अनेक साध्वियां आगम-संपादन एवं साहित्य-सृजन के कार्य में संलग्न हैं। भगवती जोड़ जैसे बृहत्काय ग्रंथ रत्न का संपादन भी महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा जी द्वारा सात खंडों में संपादित होकर प्रकाशित हो
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नियुक्तिपंचक पाठ-सपादन
आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं—१. सामग्री संकलन २. पाठ-चयन ३. पाठ-सुधार ४. उच्चतर आलोचना। प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में हमने चारों बातों का ध्यान रखने का प्रयत्न किया है। पाठसंशोधन के लिए मुख्य दो आधार हमारे सामने रहे
१. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां। २. नियुक्तियों पर लिखा गया व्याख्या साहित्य (चूर्णि, टीका आदि)
व्याख्या ग्रंथ होने के कारण नियुक्तियों की ताड़पत्रीय प्रतियां कम मिलती हैं। पाठ-संपादन में हमने चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में कागज पर लिखी प्रतियों का ही उपयोग किया है। पाठ-संशोधन में प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी गयी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ-चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है। अर्थमीमांसा, टीका की व्याख्या एवं पैपिर्व के आधार पर जो पाठ संगत लगा. उसे मूलपाठ के अन्तर्गत रखा है। पाठ-संपादन की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि लिोपेदोष के कारण जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद मिलते हैं। वैसी स्थिति में सही पाठ-निर्धारण करना कठिन हो जाता है। पांडुलिपि के लिपिदोष में अनवधानता आदि तो कारण बने ही किन्तु मुख्य कारण यह रहा कि प्रतिलिपि करने वाले लगभग लिपिक थे। वे आगमों में प्रतिपाद्य विषयों को नहीं जानते थे। अनभिज्ञता के कारण उनकी लिपि में अनेक त्रुटियां समाविष्ट हो गयीं। कहीं-कहीं विद्वान लिपिकों ने अपने पांडित्य को जोड़ना चाहा, इसलिए भी पाठ-भेद की वृद्धि हो गयी।
पाठ-निर्धारण में चूर्णि और टीका का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अनेक पाठ हस्तप्रतियों में स्पष्ट नहीं थे लेकिन चूर्णि एवं टीका की व्याख्या से स्पष्ट हो गए। कहीं-कहीं सभी प्रतियों में समान पाठ होने पर भी पूर्वापर के आधार पर चूर्णि एवं टीका के पाठ को मूलपाठ में रखा है तथा प्रतियों के पाठ को पाठान्तर में दिया है।
कहीं-कहीं अन्य व्याख्या ग्रंथों में मिलने वाली गाथाओं से भी पाठ-निर्धारण किया है, जैसेउत्तराध्ययननियुक्ति की अनेक गाथाएं आवश्यकनियुक्ति में तथा दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति की गाथाएं निशीथ भाष्य में मिलती है।
आचारांग आदि की चूर्णि में मूलपाठ के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख मिलता है, जैसे'नागार्जुनीयास्तु एवं पठति आदि। नियुक्ति गाथाओं के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख नहीं मिलता केवल 'पाठान्तरस्तु', 'पाठान्तरे तु' ऐसा उल्लेख मिलता है। संभव है कि माधुरी एवं बलभीवाचना तक नियुक्ति के पाठों में पाठान्तरों का समावेश नहीं हुआ था।
पांचों नियुक्तियों में अनेक समान गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं। उनमें जहां जैसा पाठ मिला, उसको वैसा ही रखा है। प्रामाणिकता की दृष्टि से अपनी ओर से पाठ को संवादी था समान बनाने का प्रयत्न नहीं किया है। केवल नीचे टिप्पण में संवादी संदर्भस्थल दे दिए हैं।
प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं हमें मूल व्यंजनयुक्त पाठ मिला, उसे मूलपाठ के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति के पाठ भी स्वीकृत किए हैं। इसलिए एक ही शब्द
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
१२३ के भिन्न-भिन्न पाठ भी मिलते हैं, जैसे--गजपुर-गयपुर, तित्थगर-तित्थयर आदि। हमने प्राय: व्यंजनों के पाठान्तर नहीं लिए हैं, जैसे
> ह .- राध > तह, सोधी > सोही। भ > ह - पभू > पहू, विभू > विहू । के > ग - एक > एग। त> य.- तात > ताय, जात > जाय। मात्रा संबंधी पाठान्तरों का भी कम उल्लेख किया हैकहइ > कहई, देंति > दिति, तेणोति > तेणुत्ति आदि।
हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे दारं' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। फिर भी यदि एक भी प्रति में 'दार' का उल्लेख है तो उस गाथा के आगे हमने 'दार' का संकेत कर दिया है।
उत्तराध्ययननियुक्ति में जहां निक्षेपपरक संवादी गाथाएं हैं, वहां लिपिकार ने गाथा पूरी न का केवल नाम के संतान दार निशा है पर हमने उन गाथाओं की पूर्ति कर दी है। ऐसा संभव लगता है कि समान पाठ होने के कारण लिपिकार ने अपनी सुविधा के लिए उसका संकेत मात्र कर दिया। फिर भी आगम-साहित्य की भांति नियुक्तियों में न जाव, वण्णग या जहा का प्रयोग हुआ और न ही अधिक संक्षेपीकरण हुअा।।
गाथा-निर्धारण में हमने इस बात का पूरा ध्मान रखा है कि जो भी गाथाएं नियुक्ति की भाषाशैली से प्रतिकुल या विषय से असंबद्ध लगीं, उन्हें मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है। ऐसी गाथाओं के बारे में हमने नीचे आलोचनात्मक टिप्पणी लिख दी है कि किस कारण से गाथा नियुक्ति की न होकर बाद में प्रक्षिप्त हई अथवा भाष्य-गाथा के साथ जुड़ गयी है।
शोधविद्यार्थियों के लिए प्रत्येक शब्द की सूची का महत्त्व है पर नियुक्तिपंचक में हमने केवल महत्त्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्दों का ही अनुक्रम परिशिष्ट सं. १२ में दिया है। सभी शब्दों की सूची देने से पुस्तक का कलेवर बढ़ जाता तथा अनेक विशेषण, क्रियाविशेषण, निपात एवं धातुओं की पुनरुक्ति भी होती। अन्य अनुदित आगमों की भांति नियुक्तिपंचक में हर पारिभाषिक शब्द पर टिप्पी प्रस्तुत नहीं की है। कहीं-कहीं विमर्शनीय शब्द पर पादटिप्पण में ही संक्षिप्त टिप्पणी दे दी है।
नियुक्तिपंचक में जो गाथाएं आपस में संवादी थीं, उनको हमने तुलनात्मक परिशिष्ट में समाविष्ट नहीं किया है क्योंकि उनको तो पदानुक्रम के द्वारा भी जाना जा सकता है।
ग्रंथ के अंत में पन्द्रह परिशिष्ट दिए गए हैं। यद्यपि सभी परिशिष्ट महत्वपूर्ण हैं लेकिन पहला, दूसरा, छठा, सातवां, ग्यारहवां, बारहवां एवं चौदहवां—ये सात परिशिष्ट विशेष महत्त्व के हैं। इन पांच नियुक्तियों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पर लघु भाष्य मिलते है। दशवैकालिक की प्रकाशित टीका और हमारे द्वारा संपादित भाष्य-गाथा की संख्या में काफी अंतर है। अत: प्रथम परिशिष्ट में विद्वानों की सुविधा के लिए भाष्य गाथाओं का समीकरण प्रस्तुत कर दिया है, जिससे वे सुविधापूर्वक टीका में भाष्य-गाथाएं खोज सकें। छठा और सातवां परिशिष्ट आकार में बृहद् होने पर भी महत्त्वपूर्ण हैं। छठे परिशिष्ट में नियुक्तिपंचक गत सभी कथाओं का हिंदी अनुवाद दे दिया है, जिससे कथा के क्षेत्र
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नियुक्तिपंचक में काम करने वालों के लिए सुविधा हो सकेगी। सातवें परिशिष्ट में महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का सार्थ संकलन है।
प्रत्येक नियुक्ति के प्रारम्भ में गाथाओं का हिंदी में विषयानुक्रम दिया गया है। तत्पश्चात् चूर्णि टीका एवं हमारे द्वारा संपादित गाथाओं के समीकरण का चार्ट प्रस्तुत कर दिया है, जिससे सुगमता से चूर्णि या टीका में गाथा को खोजा जा सके। नियुक्तियों का अनुवाद
एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करना एक बहुत दुरूह और जटिल कार्य है। इसे विज्ञान की भाषा में स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा कहा गता है। जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है. वह लक्ष्य भाषा तथा जिस भाषा की सामग्री अनुदित होती है, वह सोतभाणा कहलाती है। अनुवादक का स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा—इन दोनों पर पूरा अधिकार होना आवश्यक है। आधुनिक विद्वानों ने अनुवाद के चार भेद किए हैं। १. शाब्दिक अनुवाद
३. भावानुवाद २. शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद
४. छायानुवाद नियुक्तिपंचक में किए गए अनुबाद में शाब्दिक अनुवाद के साथ भावानुवाद और छायानुवाद भी किया गया है। दशाश्रुतस्कंध की 'पज्जोसवणा' अप्य की नियुक्ति का शब्दानुवाद करना अत्यंत कठिन धा, वहां भावाकद से ही काम का हार्द लाष्ट हुआ है। कुछ जटिल गाथाओं को छोड़कर प्राय: गाथाओं का अनुगद पढते समय पाठक को यही प्रतीत होगा कि मानो वे मूलरचना ही पढ़ रहे हों अत: अनुवाद को जटिल न बनाकर सहज, सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। अनुवाद के संदर्भ मे मुनि श्री दुलहराजजी ने पंडित बेचरदासजी की इस टिप्पणी को ध्यान में रखा है—"मूल का अर्थ स्पष्ट करते समय मौलिक समय के वातावरण का ख्याल न रखकर यदि परिस्थिति का ही अनुसरण किया जाए तो वह मूल की टीका या अनुवाद नहीं, किन्तु मूल का मूसल जैसा हो जाता है।
__ निर्युक्तियों का अनुवाद अभी तक कहीं से भी प्रकाशित नही हुआ है अत: नियुक्तियों के प्रकाशन के समय चिंतन चला कि प्राकृत भाषा न जानने वाले अनुसंधित्सु एवं जन-सामान्य की सुविधा हेतु पाठ-संपादन के साथ अनुवाद भी दे दिया जाए। जिन गाथाओं को हमने मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा, उन गाथाओं का भी पाठकों की सुविधा के लिए अनुवाद दे दिया है।
नियुक्तिकार तो कथा का संकेत मात्र करते हैं अत: नियुक्तिकार द्वारा निर्दिष्ट अधिकांश कथाओ का अनुवाद चूर्णि या टीका के आधार पर किया है। उत्तराध्ययन की चूर्णि संक्षिप्त है अत: उत्तराध्ययननियुक्ति की कथाओं का अनुवाद नेमिचन्द्र की टीका सुखबोधा के आधार पर किया है। चित्रसंभूत के अंतर्गत ब्रह्मदत्त की कथा में नियुक्तिगाथा तथा सुखबोधा की टीका में अंतर मिलता है। नियुक्ति-गाथा में जो नाम या घटना प्रसंग है. वे सुखबोधा के संवादी नहीं हैं। दशाश्वतस्कंधनियुक्ति की सभी कथाओं का विस्तार उसकी चूर्णि में नहीं मिलता अत: उसकी कुछ कथाओं का अनुवाद निशीपचूर्णि के आधार पर किया गया है।
१. अनुवाद कला पृ. २६ ।
२. जैन भारती. वर्ष १ अंक ६
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रयुक्त प्रति-परिचय
नियुक्ति की प्रायः हस्तप्रतियां स्पष्ट एवं साफ-सुथरी मिलीं। आचारांग एवं सूत्रकृतांग की निर्मुक्तियां दीमक लगने से कहीं-कहीं स्पष्ट नहीं थीं। कुछ प्रतियों के पन्नों में पानी या सीलन लगने से भी अक्षर अस्पष्ट हो गए थे। सूत्रकृतामनियुक्ति की एक प्रति से अनेक प्रतियों की लिपि की गयी है फिर भी उनमें आपस में काफी अंतर है। यहा संपादन में प्रयुक्त हस्तप्रतियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा हैदशकालिक नियुक्ति
(अ) यह तेरापंथ धर्मसंघ के हस्तलिखित भंडार से प्राप्त है। यह २८ सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल ९ पत्र हैं। अन्तिम पत्र खली है। इसमें ४४.४ ग्रंथान है। यह भाष्य मिश्चित नियुक्ति की प्रति है। इसके अंत में श्री दशकालिकनियुक्ति: संवत् १४९५ वर्षे भाघ सुदी १४ श्री पत्तनमहानगरेऽलेखि।।" का उल्लेख है। पत्र में अक्षर स्पष्ट हैं।
(ब) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा ११.५ सेमी. चौड़ी है। इसकी क्रमांक सं. १६२५६ है। इसमें कुल १२५ पत्र हैं, जिसमें १२०-२५ तक पांच पत्रों में दशकालिक नियुक्ति लिखी हुई है। पानी से भीगी तथा अक्षर महीन होने से इसके पाठन में असुविधा होती है। इसमें अंत में ग्रंथान ४४४ बतलाया है। यह भी भाष्य मिश्रित नियुक्ति की प्रति है। इसमें लिपिकर्ता और लेखन-समय का कोई निर्देश नहीं है। अनुमानत: इसका लेखन-समय विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(रा) यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९२० है। यह ३१ सेमी. लम्बी तथा १२.५ सेमी. चौड़ी है। इस प्रति के प्रारम्भिक ३८ पत्रों में दशवकालिक की टीका है। नियुक्ति ३९ वें पत्र से प्रारम्भ होकर ४७ ३ पत्र पर समाप्त होती है। प्रति बहुत स्वच्छ एवं साफ-सुथरी लिखी हुई है। इसके अंत में "दसवेकालिकनिज्जुत्ती सम्मत्ता गाथा ४४८ श्लोक संख्या ५५८ शुभं भवतु" लिखा हुआ है। यह करीब पन्द्रहवीं शताब्दी की प्रति होनी चाहिए। . (अचू) अगस्त्यसिंह कृत चूर्णि, जो प्राकृत ग्रंथ परिषद्, अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसके संपादक मुनि पुण्यविजयजी हैं। इसमें प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर अचू' से निर्दिष्ट हैं।
(जिचू) ल्थविर जिनदासकृत चूर्णि, जिसमें नियुक्ति-गाथा पूरी नहीं अपितु संकेत रूप से दी हुई है। यह ऋषभदेव केसरीलाल श्वे. संस्था, रतलाम से प्रकाशित है। इसके पाठान्तर जिचू से निर्दिष्ट हैं।
(अचूपा.) अगस्त्यसिंह कृत चूर्णि के अंतर्गत पाठान्तर। (जिचूपा) जिनदासकृत चूर्णि के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर।
(हाटी) दशवैकालिक की आचार्य हरिभद्रकृत टीका में स्वीकृत नियुक्ति-गाथा के पाठ। यह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार से प्रकाशित है।
(हाटीपा) हारिभद्रीय टीका के अंतर्गत संकेतित पाठान्तर । (भा) हारिभद्रीय टीका में प्रकाशित भाष्य गाथा के पाठान्तर ।
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निर्युक्त पंचक
उत्तराध्ययननिर्युक्ति
( अ ) यह लाडनूं जैन विश्व भारती के हस्तलिखित भंडार से प्राप्त है। इसमें आचारांग और उत्तराध्ययन– ये दो नियुक्तियां हैं। प्रारम्भ के ६ पत्रों मे आचारांगनियुक्ति है। बीच के दो पत्र लुप्त हैं अत: उत्तराध्ययननियुक्ति २८९ गाथा से प्रारम्भ होती हैं। इसके अंत मे "उत्तराध्ययननियुक्ति: संपूर्णा ग्रंथाग्र ६०७ । । इत्येवमुत्तराध्ययनस्येमा पशुता निर्मुक्तिः " उल्लेख है। पन्द्रहवें पत्र में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है। अन्तिम पत्र में पीछे केवल दो लाइनें हैं, बाकी पूरा पत्र खाली है। (ला) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसके अक्षर सुन्दर और स्पष्ट हैं। कुल १६ पत्रों में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है । अंत में ३६ उत्तरज्झयणाणं निज्जुत्ति समताओं । ग्रंथाग्र ||७०८ ।। श्री ।। " का उल्लेख है ।
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(ह.) मुनि पुण्यविजयजी द्वारा प्रकाशित शान्त्याचार्य की टीका में लिए गए पाठान्तर । यह पेन्सिल से संशोधित टीका लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर पुस्तकालय में है। ह और ला प्रति मे बहुत समानता है। संभव है मुनि पुण्यविजयजी द्वारा ला प्रति से ही पाठान्तर लिए गए हों । मुनिश्री ने आधी गाथाओं के ही पाठान्तरों का संकेत किया है, पूरी निर्युक्ति का नहीं ।
(शां) उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्य कृत टीका में प्रकाशित नियुक्ति - गाथा के पाठान्तर । (शांटीपा) शान्त्याचार्य टीका के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर ।
(चू.) जिनदासकृत प्रकाशित चूर्णि के पाठान्तर ।
आचारांग नियुक्ति
(अ) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं ८८ है । यह ३२.५ सेमी. लम्बी तथा १२.५ सेमी. चौड़ी । इसमें कुल आठ पत्र हैं। इसके अंत में "आधारनिज्जुत्ती सम्मत्ता" ऐसा उल्लेख मिलता है। इसमें लिपिकर्ता और लेखन - समय का उल्लेख नहीं मिलता। यह बहुत जीर्ण प्रति है। दीमक लगने के कारण अनेक स्थलों पर अक्षर स्पष्ट नहीं हैं । यह तकार प्रधान प्रति है। हासिये में बांयी और आचा. नियुक्ति का उल्लेख है। पत्र के बीच में तथा दोनों और हासिये में रंगीन चित्र हैं। अनुमानतः इसका लेखन - समय चौदहवीं - पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(ब) यह लाडनूं जैन विश्व भारती भंडार से प्राप्त है। यह २५.८ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। इसमें आचारांग तथा उत्तराध्ययन दोनों की नियुक्तियां लिखी हुई हैं। इस प्रति का सातवां और आठवां पत्र लुप्त है अतः कुछ आचारांग की तथा कुछ उत्तराध्ययन की गाथाएं नहीं हैं। दोनों ओर हासिए में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। इसमें कुल १५ पत्र हैं। यह ज्यादा पुरानी नहीं है। अनुमानत: इसका लेखन समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए ।
(म) यह प्रति भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९५४८ है । इसमें ३६७ ग्रंथाग्र है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। अंत में "आचारांगनिज्जुत्ती सम्मत्ता" मात्र इतना ही उल्लेख है। इसमें ७२ से ८४ पत्र तक आचारांगनियुक्ति है । प्रारम्भ में मूलपाठ लिखा है। इसके चारों ओर हासिए में संक्षिप्त अवचूरि लिखी हुई है। पत्र के बीच में चित्रांकन है तथा अंतिम पत्र पर विषयसूची दी हुई है।
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१२७
नियुक्ति साहित्य : गम पर्यवेक्षण .. .
(क) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है। यह ३२ सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी क्रमांक संख्या १८७७२ है। इसमें कुल ५५ पत्र हैं। आचारांगनियुक्ति ४६ वें पत्र से प्रारम्भ होकर ५५ के प्रथम पत्र में समाप्त हो जाती है। अंत में ३६९ ग्रंथान दिया है। हासिए के बायीं ओर आचानि-लिखा हुआ है। पाठ-संपादन के बाद मिलने के कारण क और ख प्रति से केवल महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर ही लिए हैं। अनुमानत: इसका समय पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(ख) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं. १९५१ है। इस प्रति में अक्षर बहुत साफ और आधुनिक लिपि के हैं। इसके अंत में ग्रंथाग्र ३६९ दिया है। यह २५.६ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। इसके प्रारम्भिक ८ पत्रों में आचारांगनियुक्ति लिखी हुई है। अनुमानत: इसका समय सोलहवीं-सतरहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(चू.) ऋषभदेव केशरीमल श्वे संस्था रतलाम से प्रकाशित जिनदास चूर्णि के पाठान्तर।
(टी) मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन से आचार्य शीलांककृत आचारांग और सूत्रकृतांग—ये दोनों टीकाएं संयुक्त रूप से प्रकाशित हैं। इसके सम्पादक मुनि जम्बूविजयजी हैं। यह नियुक्ति समेत टीका है। इसके पाठान्तर 'टी' से निर्दिष्ट हैं।
(टीपा) आचारांग टीका के अंतर्गत पाठान्तर। सूत्रकृतांग नियुक्ति
(अ) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ८९ है। यह ३३.७ सेमी. लम्बी तथा १२.७ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल ५ पत्र है। यह तकारप्रधान प्रति है। दीमक लग जाने से इसके अक्षर स्पष्ट नहीं हैं। प्रति के दोनों ओर हासिया तथा बीच में फूल की आकृति है। इसमें २०८ गाथाएं हैं। ग्रंथान २६० है, ऐसा प्रति के अंत में उल्लेख मिलता है। प्रति में लिपिकर्ता और लिपि के समय का उल्लेख नहीं मिलता। इसका समय अनुमानत: चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(ब) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ८३६३ है। यह ३३.१ सेमी. लम्बी तथा १२.७ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल ४४ पत्र हैं। सूत्रकृतांग नियुक्ति चालीस से चवालीसवें पत्र तक है। दोनों ओर हासिए में चित्रांकन है। अंत में "२०८ सूयगडनिज्जुत्ती सम्मत्ता" उल्लेख के साथ निम्न पद्य लिखा हुआ है
पद्मोपमं पत्रपरम्परान्वितं, वर्णोज्ज्वलं सूक्तमरंदसुंदरम् ।
___ मुमुक्षु,गप्रकरस्य वल्लभ, जीयाच्चिरं सूत्रकृदंगपुस्तकम्।। अनुमानत: इसका समय सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए।
(स) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १२१३८ है। यह २८.४ सेमी. लम्बी तथा ११.४ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल छह पत्र हैं। दोनों ओर हासिया तथा मध्य में लाल बिन्दु है। अंत में "सूयकनिज्जुत्ती सम्मत्ता गाहाणं शत २५० ।। शुभं भवतु।।श्री।।' इतना उल्लेख है। अनुमानतः इसका समय सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए।
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निर्युक्तिपंचक
(द) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १४४४३ है । यह २५.८ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी चौड़ी है। अंत में ब प्रति में उल्लिखित पद्मोपमं... संस्कृत श्लोक लिखा हुआ है तथा उसके बाद अंत में "पूज्य वाचनाचार्यश्रेणिशिरोमणि हर्षप्रमोदर्गाणशिष्य आनन्दप्रमोदगणिना" ऐसा उल्लेख मिलता है।
१२८
(क) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है । इसकी क्रमांक संख्या २९०९९ है । यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा १०.९ सेमी चौड़ी है। इसमें कुल ४४ पत्र हैं । ३९ पत्र से ४४ पत्र तक नियुक्ति लिखी हुई है। प्रति के दोनों ओर हासिया तथा बीच में खाली स्थान है। अंत में "ग्रं २०८ सूयगडनिज्जुती सम्मत्ता।" का उल्लेख है तथा ब प्रति वाला पद्मोपम ......संस्कृत श्लोक पूरा लिखा हुआ है। इसकी स्पाही बहुत गहरी है अतः अक्षर पढने में असुविधा रहती है।
(चू.) सूत्रकृतांग चूर्णि प्राकृत ग्रंथ परिषद् से प्रकाशित है। इसके संपादक मुनि पुण्यविजयजी हैं। इसमें नियुक्तिगाथागत पाठान्तर को 'चू.' संकेत निर्दिष्ट किया गया है।
(चूपा.) सूत्रकृतांग चूर्णि के अंतर्गत आए हुए पाठान्तर ।
(टी.) मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित आचार्य शीलांक कृत सूत्रकृतांग टीका के अंतर्गत नियुक्ति - गाथा के पाठान्तर । यह मुनि जम्बूविजयजी द्वारा संपादित है।
1
( टीपा ) शीलांकाचार्य की टीका के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर ।
दशाश्रुतस्कंध निर्मुक्ति
(अ) यह महिमा ज्ञान भक्ति भंडार से उपलब्ध है। इस प्रति में मूल नियुक्ति के साथ अन्य अनेक गाथाएं भी लिखी हुई हैं। वैसे भी दशाश्रुतस्कंधनिर्मुक्ति की किसी भी प्रति में गाथा-संख्या की एकरूपता नहीं है।
(ब) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है। यह २७ सेमी लम्बी और १२.३ सेमी. चौड़ी है। इसमें मूलपाठ, नियुक्ति और चूर्णि सम्मिलित है। इसमें कुल १०६ पत्र हैं । ४६ ४९ पत्र तक दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति लिखी हुई है। इसमें पूरी निर्युक्ति नहीं है। प्रारम्भ में १ से ११ गाथाएं हैं। उसके बाद पज्जोसवणा की प्रारम्भिक सात गाथाओं को छोड़कर अंत तक पूरी गाथाएं हैं। यह प्रति बहुत नवीन है अतः अशुद्धियां बहुत हैं। अनेक स्थलों पर पाठान्तर नहीं लिए हैं । अधिकांश ह्रस्व इकार के स्थान पर दीर्घ ईकार है। इसकी क्रमांक संख्या २३१६७ है। अंत में "आमारदसाणं निज्जुती" मात्र 'इतना ही उल्लेख है ।
(बी) यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर की प्रात ह । इसको क्रमांक संख्या १३०३० है। प्रति में पहले चूर्णि तथा बाद में नियुक्ति है। नियुक्ति ४७ वें पत्र से प्रारम्भ होकर ५१ वें पत्र में समाप्त होती है। प्रति के अंत में केवल "आयारदसाणं निज्जुत्ती सम्मत्ता" का उल्लेख है। लेखक या समय का संकेत नहीं है। यह प्रति ज्यादा प्राचीन नहीं है ।
(ला) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर की प्रति है । इसका क्रमांक २३१६७ है । प्रति साफ-सुथरी है। इसमें आयारदसा का मूलपाठ नियुक्ति और चूर्णि—ये तीनों लिखे हुए हैं। निर्मुक्ति ७९ के दूसरे पत्र से प्रारम्भ होती है तथा ८३ के प्रथम पत्र में समाप्त हो जाती है । यह प्रति अनुमानत:
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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण सोलहवीं शताब्दी की होनी चाहिए।
(मु) जिनदास कृत चूर्णि में प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर।
(चू.) मणिविजयजी गणिग्रंथमाला भावनगर से प्रकाशित दशाश्रुतस्कंध चूर्णि के पाठान्तर । दशवैकालिक की एक नई नियुक्ति ____ यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के हस्तलिखित भंडार से मिली है। इसकी क्रमांक संख्या १९४१९ है। इसमें ३९ पत्र हैं। प्रारम्भ में दशवकालिक मूल लिखा हुआ है। अंतिम पत्र में लिपिकर्ता ने दस गाथाओं वाली दशवकालिकनियुक्ति लिखी है। इसकी प्रारम्भिक चार गाथाएं दशवकालिकनियुक्ति की संवादी हैं। बाद की छह गाथाओं में चूलिका की रचना का संक्षिप्त इतिहास है। प्रति के अंत में "इति दशवकालिकनियुक्त: समाप्ता । संवत् १४४२ वर्षे कार्तिक शुक्ला ५ लिखितं । " का उल्लेख है। यह प्रति नागेन्द्र गच्छ के आचार्य गुणमेरुविजयजी के लिए लिली गयी थी। कृतज्ञता-ज्ञापन ... . .
गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का नाम मेरे लिए मंगलमंत्र है। हर कार्य के प्रारम्भ में आदि मंगल के रूप में चनके नाम का स्मरण मेरे जीवन की दिनचर्या का स्वाभाविक क्रम बन गया है। इसलिए मेरी हर सफलता का श्रेय गुरुदेव के चरणों में निहित है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं युवाचार्य श्री महाश्रमण मूर्तिमान श्रुतपुरुष है। उनके शक्ति-संप्रेषण, मार्गदर्शन और आशीर्वाद से ही यह गरुतर कार्य सम्पन्न हो सका है। भविष्य में भी उनकी ज्ञान रश्मियों का आलोक मुझे मिलता रहे, यह अभीप्सा है।
प्रस्तुत कार्य की निर्विघ्न संपूर्ति में महाश्रमणी सावीप्रमुखाजी के निश्छल वात्सल्य एवं प्रेरणा का बहुत बड़ा योग रहा है। भविष्य में भी मेरी साहित्यिक यात्रा में उनका पथदर्शन और प्रोत्साहन निरन्तर मिलता रहे, यह आकांक्षा है। ___ आगम-कार्य मे मुनि श्री दुलहराजजी का नि:स्वार्थ मार्गदर्शन मुझे कई सालों से उपलब्ध है। पाठ-संपादन एवं कथाओं के अनुदाद में मुनिश्री की बहुश्रुतता ने मेरे कार्य को सुगम बनाया है। अनेक परिशिष्ट की अनुक्रमणिका एवं पाठान्तरों के निरीक्षण तथा प्रूफ रीडिंग में मुनि श्री हीरालालजी स्वामी का आत्मीय सहयोग भी मेरे स्मृति-पटल पर अंकित है।
समणी नियोजिका मुदितप्रज्ञाजी ने व्यवस्थागत सहयोग से इस कार्य को हल्का बनाया है। ग्रंथप्रकाशन के बीच में ही जैन विश्व भारती की लेटर प्रेस बंद होने से इसके प्रकाशन में अनेक जटिलताएं सामने आईं पर जैन विश्व भारती के अधिकारियों के उदार सहयोग एवं जगदीशजी के परिश्रम से इस ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य सम्पन्न हो सका है। नियुक्तिसाहित्य: एक पर्यवेक्षण भूमिका के कम्पोज एवं सेटिंग में कुसुन सुराणा का सहयोग भी मूल्याह रहा है।
ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जिन-जिनका सहयोग इस कार्य की संपूर्ति में मिला है, उनके सहयोग की स्मृति करते हुए मुझे अत्यंत अात्मिक आह्लाद की अनुभूति हो रही है। भविष्य में भी सबका आत्मीय सहयोग मिलता रहेगा, इसी आशा और विश्वास के साथ।
डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा
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विषयानुक्रम
पहला अध्ययन
२५/१,२. अध्ययन के चार प्रकार और दुमपुष्पिका
के साथ उनकी संयोजना। १. मंगलाचरण ।
२६,२७. अध्ययन शम्द के निरुक्त। आदि, मध्य और अंत मंगल ।
२८. आचार्य को दीपक की उपमा। चार अनुयोगों का नामोल्लेख।
२९. भाब आय-लाभ का स्वरूप । चरणकरणानुयोग का अधिकार और उसके द्वार।
३०. भाव अध्ययन का स्वरूप । दशकालिक का अनुयोग ।
३१,३२. दुम शब्द के निक्षेप तथा एकार्थक । ७. दसकालिक-दस और काल के निक्षेप-कथन की
३३. पुष्प शब्द के एकार्थक । प्रतिज्ञा।
३४. द्रुमपुष्पिका अध्ययन के एकार्थक । एक और दश शब्द के निक्षेप ।
३५. पुच्छा का महत्त्व । जीवन की बाला, क्रीडा आदि दश दशाएं।
३६. धर्म शब्द के निक्षेप और उनका नानात्व । काल शब्द के निक्षेप ।
३७-३९. द्रव्य धर्म के भेद-प्रभेद । बशर्वकालिक नामकरण की सार्थकता।
४०, लोकोत्तर धर्म के भेद । दशावकालिक वक्तव्यता को द्वार गाथा ।
द्रव्य और भाव मंगल का स्वरूप । १३, दशवकालिक नियूं हक माचार्य शय्यंभव को ४२. अहिंसा का स्वरूप तथा उसके भेद । वंदना।
सतरह प्रकार के संयम का उल्लेख । प्रस्तुत रचनाका कारण और उसका नियंत्रण
बाह्यतप के भेद । काला
आभ्यंतर तप के भेद । आत्मप्रवाथ पूर्व से धर्मप्रमाप्ति (चौथा अध्ययन) ४६. शिष्य की ग्रहणशक्ति के आधार पर उदाहरण तथा कर्मप्रवाद पूर्व से पिटेषणा (पांचवां और हेतु का प्रयोग। अध्ययन) के उद्धरण का संकेत ।
४७. न्याय के पांच और दश अवयवों का उल्लेख । संस्थप्रवाद पूर्व से वाक्पशुद्धि तथा नर्वे पूर्व की ४७/१. उदाहरण और हेतु के भेद-प्रभेद । तीसरी वस्तु से शेष सभी अध्ययनों के उद्धरण का ४८. उदाहरण के एकार्थक । संकेत ।
उदाहरण के दो भेद-परित और कल्पित सथा गणिपिटकद्वादशांगी से दशवकालिक के
उनके चार-चार भेद । नि!हण का उस्लेख।
आहरण के चार प्रकार । १५. अध्ययनों के विषय-वर्णम की प्रतिज्ञा । ५१. द्रव्य अपाय में दो वणिक भाइयों की कथा। १९-२२. अध्ययनों के विषयों का संक्षिप्त वर्णन ।
५२. क्षेत्र, काल और भाव अपाय की कथाओं का
संकेत 1 २१. दो चूलिकाएं एवं उनका प्रयोजन ।
५३,५४. द्रव्य आदि अपाय और पारलौकिक चिन्तन । २४. प्रत्येक अध्ययन की विषय-वस्तु के कथन की
५५,५६. द्रव्यानुयोग के आधार पर अपाय का चितन । प्रतिज्ञा।
५७,५८. उपाय के चार प्रकार और उनके उदाहरणों का २५. प्रथम अध्ययम के चार द्वार-।
संकेत ।
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दशर्वकालिक निर्मुक्ति
५९-६२,
६५,६६.
६७,६८.
६९,७०.
७२.
७४,
विभिन्न हेतुओं के द्वारा आत्मा के अस्तित्व ८८. धर्म उत्कृष्ट मंगल क्यों ? की सिद्धि।
जिनशासन में पारमाथिक धर्म की । स्थापना कर्म में पौंडरीक और हिंगशिव की
प्रतिपालना। कथा।
८९/१-३. जिनशासन में ही शुद्ध धर्म का पालन क्यों ? द्रव्यानुयोग के आधार पर स्थापनाकर्म का १०. मुनि की प्रासुक भिक्षाचर्या का उल्लेख।। निरूपण।
९१. अप्रासुक भिक्षाचरी और उसका परिणाम । प्रत्युत्पन्न विनाश के प्रसंग में गांधविक
९२,९३. दण्टांत-शुद्धि में भ्रमर का उदाहरण । आदि का उदाहरण ।
९४-१०४. अनेक प्रश्नोत्तरों के द्वारा साधु की शुद्ध द्रव्यानुयोग के संदर्भ में प्रत्युत्पन्नविनाश का
भिक्षाचर्या का उल्लेख। प्रतिपादन ।
नवकोटि शुद्ध भिक्षाचर्या का उल्लेख । आहरणतद्देश में अनुशिष्टि आदि चार भेदों . दृष्टांत-शुद्धि और सूत्रनिर्दिष्ट उपसंहार का कथन और सुभद्रा का उदाहरण।
वाक्य । आत्मकदृस्व की सिद्धि ।
१०७,१०८, द्रव्य और भाव विहंगम का स्वरूप । उपालम्भ में मृगावती की कथा का संकेत।।
कर्मगति के आधार पर विहंगम का वर्णन ! आत्मा का अत्यन्त अभाव युक्त नहीं।
विहायोगति आदि गति के आधार पर अर्थ और हेतु की पच्छा में कोणिक तथा
विहंगम का स्वरूप। निश्रा वचन में गोतम का उदाहरण ।
चलनकर्मगति के आधार पर विहंगम की नास्तिक को पूछा जाने वाला प्रश्न और
व्याख्या। अन्यापदेश से वक्तव्यता ।
११२. संजासिद्धि से विहंगम का कथन । आहरणतद्दोस के भेद तथा उसके उदाहरणों
उपसंहार विशुद्धि का उल्लेख । का संकेत 1
अदत्त के अग्रहण में भ्रमर की उपमा । प्रतिलोम हेतु में अभय तथा गोविंदवाचक
११५. असंयत भ्रमर से श्रमण की उपमा असंगत । का उदाहरण । आत्म उपन्मास के अन्र्तगत पिंगल संन्यासी
उपमा की एकदेशीयता का उल्लेख। का उदाहरण
भ्रमर अदप्त लेते हैं लेकिन मुनि अदत्त नहीं
११७. उपन्यास आहरण के भेदों का कथन ।
लेते। तद्वस्तुक में कार्पटिक का उदाहरण ।
सहज निष्पन्न आहार-ग्रहण में प्रमर एवं उपन्यास के चौथे भेद 'प्रतिनिभ' में
श्रमण की तुलना। परिव्राजक का उदाहरण ।
मुनि को 'मधुकरसम' कहने में आने वाली हेतु के यापफ, स्थापक आदि चार भेदों का
विप्रतिपत्ति का निराकरण । कथन ।
१२०, प्रथम अध्ययन में एषणा और ई समिति यापक और स्थापक हेतु के उदाहरणों का
के पालन का हेतु-निर्देश । संकेत ।
१२०/१,२. श्रमण और मधुकर की समानता का व्यंसक और लषक हेतु के उदाहरणों का
उपसंहार द्वारा उल्लेख । संकेत।
१२०/३,४. सीम्तिरीय साघओं एवं श्रमणों की चर्या धर्म के गुण तथा उसका महत्व ।
मैं अन्तर । दृष्टांत द्वारा धर्म के महत्त्व का कमन । १२१,१२२. साधु के लक्षण ।
७७.
११८.
१११.
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१५८,
१६७.
१७३.
विषयानुक्रम १२३. न्याय के प्रतिझा आदि दस अवयवों का १५७/१. तीर्थ के प्रभावक फोन ? नामोल्लेख ।
शानाचार के आठ भेदों का उल्लेख । १२३/१-११. प्रतिज्ञा मादि दस अवयवों की व्याख्या ।
चारिवाचार के आठ भेदों का उल्लेख । १२४. प्रथम अध्ययन की नियुक्ति का उपसंहार। १६७. तप-आचार के बारह भेदों का उल्लेख । १२५, नय का स्वरूप ।
वीर्याचार का स्वरूप । १२६. नयों की बहुविश्व वक्तव्यता।
कथा के भेदों का उल्लेख ।
अर्थकथा का स्मरूप। दूसरा अध्ययन
अर्थकथा से सम्बन्धित कथा का १२७. श्रामण्य और पूर्वक शब्द के निक्षेप ।
१६४. निर्देश। १२८, द्रव्य और भाय श्रमण का स्वरूप ।
कामकथा का स्वरूप । १२९-३१. श्रमण का स्वरूप ।
धर्मकथा के आक्षेपणी आदि चार भेद । १३२,१३३. श्रमण को सर्प, गिरि आदि की विविध
आक्षेपणी कथा वे भेन्छ । उपमाएं।
१६८. आक्षेपणी कथा का स्वरूप । १३४,१३५. थमण शब्द के एकार्थक ।
विपणी का कद और स्वरूप । पूर्व शब्द के चौदह निक्षेप ।
संवेजनी कथा के प्रकार । १३७. काम शब्द के निक्षेप ।
संवेजनी कथा का स्वरूप । १३८. द्रव्य काम का स्वरूप एवं भाव काम के
निर्वेदनी कथा का स्वरूप । भेद ।
निवेदनी कथा का रस । १३९. इच्छाकाम और मदनकाम का स्वरूप ।
संवेजनी और निवेदनी कथा की फलति । १४.. धर्म से विध्युति का हेतु-कामभाव ।
१७७,१७८. शिष्यों को कथा कहने का क्रम और उसका काम की प्रार्थना : रोग को निमंत्रण।
फल। १४२. पद शब्द के निक्षेप । १४३-४५.
मिश्रकथा का स्वरूप ।
१७९. पद के भेद-प्रभेदों का उल्लेख ।
विकथा के प्रकार। १४६.
१८०. प्रथित पद के चार भेद। गध काध्य का स्वरूप ।
१८१. प्ररूपक के आधार पर कथा का अकथा पद्य के भेदों का उल्लेख ।
और विकथा होना। मेय के भेद-प्रभेद।
१८२. अकथा का स्वरूप । १५०. चूर्णपद का स्वरूप।
१८३. कथा का स्वरूप । इंद्रिय-विषय आदि अपराध पदों का १४. बिकथा का स्वरूप उल्लेख।
१८५-८७. श्रमण के लिए अकथनीय और कथनीय १५१/१. अठारह हजार फीलांगों का निर्देश ।
कथा का स्वरूप । १५२. अठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति ।
१८.. क्षेत्र, काल, पुरुष और सामर्थ्य के आधार तीसरा अध्ययन
पर कथा कहने का निर्देश । महद् और क्षुल्लक शब्द के निक्षेप ।
चौथा अध्ययन १५४. आचार शब्द के निक्षेप । ११५. द्रव्याचार का स्वरूप ।
१८९. चतुर्थ अध्ययन के अधिकारों का उल्लेख । भावाचार के भेदों का कथन ।
१९०. छह, जीव और निकाय इन शब्दों के दर्शनाचार के आठ भेदों का उल्लेख।
निक्षेप कथन की प्रतिज्ञा ।
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________________
$
१९१.
१९२.
एक मद के निक्षेप ।
षट् शब्द के यह निक्षेपों का उल्लेख
१९३,१९४. जीव के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण आदि तेरह द्वारों का निर्देश |
जीन शब्द के निक्षेप तथा भेदों का कथन
ओजी के जीवितव्य का कथन ।
भवजीव एवं तद्भवजीव के जीवितव्य का
१९५.
१९६.
१९७.
१९८. १९९,२०० जीव के लक्षण ।
२०१.
२०२.
२०३.
२०४.
२०.
२०६.
२०७.
२०८.
२०९.
२१०.
२११.
२११/१
२१२
२१३.
२१४.
कथन ।
जीव के भेदों का कथन ।
२१५.
२१६.
२१७.
जीव के अस्तित्व की सिद्धि
जीव के अस्तित्व को नकारने में होने वाली
बाधा ।
जीव और शरीर के पृत्य की सिद्धि ।
बायु के उदाहरण द्वारा जीव के अस्तित्व कीमिति ।
आत्मा के अमूर्त्तत्व की प्ररूपणा ।
कारणाभाव आदि चार अभावों के आधार पर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि ।
तर्क द्वारा जीव के त्रिकालावस्थान की सिद्धि ।
जीव के नित्यत्व, अमूर्तत्व और अन्यत्व को सिद्धि।
जीव का परिमाण (संख्या):
उपमाद्वारा जीव के परिमाण का निर्देश।
काय शव्द के निक्षेपों का उल्लेख
काय के सम्बन्ध
के सम्बन्ध में एक पहेली
निकाय काय के साथ शेष नाम आदि कायों का उल्लेख
द्रव्य और भावशस्त्रों का उल्लेख । स्वकाय, परकाय और तदुभयकाय शस्त्रों का उल्लेख
योनिभूत बीज का विम
पृथिवी आदि कार्यों का यथाक्रमकथन । चतुर्थ अध्ययन के एकार्थक
पांच अध्ययन
२१७/१.
२१५.
२१०/१.
२१ / २, २.
२१८/४.
२१९.
२१९/१.
२२०.
२२०/१.
२२१.
२२१/१.
२२४.
२२५.
२२६.
२२७.
दशकालिक नियुक्ति
पिंड और एषणा की निक्षेप प्ररूपणा का
कथन ।
पिंड शब्द के निक्षेप तथा दव्यपिंड और भावपिंड का उल्लेख
२३३.
२३४.
२३५.
पिंड शब्द की अर्थवत्ता ।
द्रव्यंषणा एवं भाषमा का कथन द्रव्येषणा के अधिकार में नियुक्ति का
छठा अध्ययन
२२२.
२२३.
कथन ।
सम्पूर्ण पिणा का नवकोटि में अवतरण । नवकोटि के भेद उद्गमकोटि और विशोधिकोटि ।
उद्गमकोटि और विशोधिकोटि के भेद । अविशोधिकोटि के भेद ।
कोटियों के भेद ।
'राग, द्वेष आदि की योजना से २७० कोटियों का उल्लेख ।
महाचार कथा के विषय का निर्देश अगार और अनगार धर्म के भेदों का निर्देश |
अर्थ शब्द के निक्षेप तथा भेदों का कथन अर्थ के धान्य रहन आदि यह भेदों का उस्लेव ।
F
२२८.
अर्थ के भेद-उपभेद की संख्या का निर्देश । २२९.२३०. चौबीस प्रकार के धान्यों का नामोल्लेख २३१,२३२. चौबीस प्रकार के रत्नों का नामोल्लेख । स्थावर तथा द्विपद के भेदों का संकचन । चतुष्पद के दश भेदों का निर्देश । कुप्य का संकेत
के अनेक भेद तथा अर्थ के ६४ भेदों
धर्म के बारह भेदों का संकेत । गृहस्थ धर्म के अमण धर्म के क्षमा आदि दस भेदों का नामोल्लेख
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विजयानुक्रम २३६-२३९, संप्राप्त काम के चौदह और असंप्राप्त काम आठवां अध्ययन के दस प्रकारों का कथन।
प्रणिधि शब्द के निरूप। २४०, धर्म, अर्थ और काम की परस्पर विरोधिता
२७०. द्रव्य और भावप्रणिधि का उल्लेख । २४०१ अविरोधिता।
इन्द्रियप्रणिधि का स्वरूप । २४१. श्रमण और धर्मार्थकाम विशेषण की २७२,२७३.
२७२,२७३. इन्द्रियों की उच्छखसता से होने वाले सार्थकता।
दोष । २४२. परलोक, मुक्तिमार्ग और मोक्ष की २७४. दुष्प्रणिहित इन्द्रिय वाले व्यक्ति की अवस्था निश्चिति।
का निर्देश । २४३. अठारह असंयम-स्थानों में से एक स्थान २७५. नोइन्द्रियप्रणिधि का स्वरूप । का भी सेवन करने वाला श्रमण नहीं। २७६.
दुष्प्रणिहित व्यक्ति की तपस्या की व्यर्थता । २४४. अठारह असंयम-स्थानों का निर्देश । २७७. उत्कट कषाय से श्रामण्य की निष्फलता ।
२७८. प्रणिधि के भेद । सातवां अध्ययन
२७९. प्रशस्त और अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधि का २४५. वाक्य शब्द के निक्षेप ।
स्वरूप-कयन । २४६, वाक्य के एकार्थक ।
२८०. अप्रशस्त इंदियप्रणिधि से कर्मबंध तया २४७. द्रव्य एवं भावभाषा के भेदों का उल्लेख ।
प्रशस्त से कर्मक्षय। २४८. द्रव्य और भाव भाषा के आधार पर २८१. संयम की साधना के लिए प्रणिधि का आराधनी और विराधनी भाषा का
आसेवन और अनायतनों का वर्जन । विमर्श।
२८२. दुष्प्रणिहित योगी के लक्षण । २४९. सरप भाषा के दस प्रकार।
२८३. सुप्रणिहित योगी का स्वरूप । २५०. मृषा भाषा के दस प्रकार ।
२८४, अप्रशस्त प्रणिधि के वर्जन का निर्देश । २५१. सत्यामृषा (मिथ) भाषा के प्रकार ।
आचार प्रणिति के चार अधिकारों का २५२,२५३. असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के भेदों का
कथन 1 निर्देश।
नौवां अध्ययन २५४. सभी भाषाओं के दो-दो भेद-पर्याप्त और अपर्याप्त ।
२८६. विनय तथा समाधि के निक्षेप । २८७.
विनय के पांच भेदों का नामोल्लेख । २५५-५७. ध्रुव विषयक भाव भाषा का कथन ।
२८८.
लोकोपचार बिनय के प्रकार । २५८. चारित विषयक भाव भाषा का कथन ।
२८९. अर्थविनय का प्रतिपादन । २५९. शुकि सन्द के निक्षेप ।
२९०. कामविनय और भयविनय का वर्णन । २६०,२६१. द्रव्य शुटि के भेद ।
२९१. मोक्षविनय के भेदों का निर्देश । २६२,२६३. भाव शुद्धि के भेद ।
२९२. दर्शनविनीत का स्वरूप । २६४. भाव शुदि से ही वाक्य शुद्धि का निर्देश ।
शानविनीत की पहचान । २६५. भाषा के असंयम का परिज्ञान करने का
२९४. चारित्रविनीत का लक्षण । निर्देश।
२९५. तपविनीत का स्वरूप। २६६. मान रहता हुआ भी बचनगुप्त नहीं।
अनाशातनाविनय का स्वरूप-कपन । २६७. दिन भर बोलता हुआ भी वचनगुप्त । २९७. कायिक, वाचिक और मानसिक विनय के २१८. चिन्तनपूर्वक बोलने का निर्देश ।
भेद-प्रभेद ।
२८५.
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३१.
दशवकालिक नियुक्ति २९८, कायविनय के आठ भेदों का कथन । ३३०. अध्ययन में वर्णित गुणयुक्त भिक्षु ही भाव २९९. वाचिक और मानसिक विनय के भेदों का
भिक्षु । उहलेख।
केवल मिक्षा करने मात्र से मिल नहीं । ३००,३०१, प्रतिरूप और अप्रतिरूप विनय तथा ३३२. उहिष्टभोजी तथा हिंसक व्यक्ति भिक्ष अनाशातनाविनय के बावन प्रकार।
कैसे? ३.२. विनय करने योग्य नेरह पदों का निर्देश !
वास्तविक भिक्षु की पहचान । ३०३.
विनय के बावन भेदों का संकेत । प्रथम चूलिका व्यसमाधि और भावसमाधि का स्वरूप। ३३४. चूलिका शब्द के निक्षेप।
३३५.
द्रव्यचूला तथा क्षेत्रचूला का स्वरूप । बसवां अध्ययन
भावचूला का स्वरूप । ३०५ सकार शब्द के निक्षेप।
३३७. द्रव्यरति के भेदों का कथन । द्रव्य सकार का स्वरूप तथा अध्ययन के ३३८. द्रव्यरति और भावरति । अधिकारों का नियंत्र।
कर्म के उदय से अति और परीवह सहन ३०७. भिक्षु कौन ?
से निर्वृति-सुख की प्राप्ति । ३०७/१. 'सकार' का प्रशंसा के अर्थ में प्रयोग। ३४०. प्रपम चूलिका के नामकरण की सार्थकता ।
भिक्षु शब्द के निक्षेप, निरुक्त आदि पांच ३४१. रति नाम की सार्थकता। द्वारों का उल्लेख।
धर्म में रति और अधर्म में अरति की गुणभिक्ष शब्द के निक्षेप ।
कारित।। ३१०. भेदक, भेदन और भेत्तव्य का निरूपण ।
मोक्ष-प्राप्ति के उपाय । ३११-३१५. व्यभिक्षु का स्वरूप ।
३४४.
रति-अरति के स्थानों को जानने का ३११/१. असाधु कौन ?
निर्देश । ३१६. भावभिक्षु का स्वरूप ।
द्वितीय चलिका ३१७-३१९. भिक्ष शब्द के निरुक्त।
दूसरी धूलिका के कथन को प्रतिज्ञा । ३२०-३२२. भिक्षु शब्द के एकार्थक ।
अवगहीत, प्रगृहीत आदि विहारचर्या का ३२३,३२४. भिक्षु की पहचान के तत्त्व ।
निर्देश। ३२५. भिक्षु को स्वर्ण की उपमा ।
मुनि की प्रशस्त विहारचर्या का उल्लेख ।। स्वर्ण के आठ गुणों का नामोल्लेख । ३४८, दशवकालिक का अध्ययन : मनक के ३२७. स्वर्ण की चार कसौटियां ।।
समाधिमरण का कारण । ३२८,३२९. स्वर्ण की भांति गुणयुक्त व्यक्ति ही वास्तविक ३४९. दशवकालिक की रचना के प्रयोजन का साधु।
निर्देश ।
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________________
गाथाओं का समीकरण
दव कालिम निसि ाथाएं चुणि एवं टीका दोनों में मिलती हैं पर उनकी गाथासंख्याओं में बहुत अन्तर है। संपादन में भी हमने गाथाओं के बारे में विमर्श किया है कि कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं और कितनी मूल की थीं। अतः संपादित गाथा-संख्या भी टीका एवं चूणि में प्रकाशित गाथा-संख्या को संवादी नहीं है । पाठकों की सुविधा के लिए हम यहां चार्ट प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे गाथाओं को खोजने में सुविधा रहेगी । जिनदास कृत चणि में नियुक्ति की गाथा संख्या का केवल संकेत-मात्र है, पूरी गाथा नहीं है, अतः समीकरण में उसका समावेश नहीं किया है। संपावित
संपादित
हाटी
२२ २२
हाटी
x x x x xxx
२५/१
२७
#2xx xxx xxx xxxx
xnx xxx xrx..
४०
१. अचू के संपादक मुनि पुण्यविजयजी ने इस गाथा के अंक तो दिए हैं किंतु इसे निगा नहीं माना है। २. यह गाथा तंदुसवैचारिक प्रकीर्णक की है । प्रसंगानुसार इसे उद्धृत किया गया है। हारिभद्रीया टीका में यह निगा के क्रम में है।
Page #131
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________________
दशवकालिक निर्मुक्ति
संपादित
संपारित
हाटी
४२
X X
X
X
X
४०
UND-Mr-xS4
X
X
X X
X X
८९/१ ८१/२ ५९/३
X
X
X
X
X X
१
X
X X X
९५१ ९५२
X X
१०४
X X X
९६१ ९६२ ९७ ९७१
X
१०७ १०८
X
X X
७८
९९१
११०
१.टीका की मुद्रित प्रति में ८४ का अंक दो बार दिया हमा है।
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________________
गापाऔं का समीकरण
संपादित
हाटी
संपादित
शादी
१२३३५
११२
१४२ १४३ १४
११४
१०४
११५
१२३१७ १२३॥ १२३३९ १२३३१० १२३३११
१४६ १४७
म
१०६
१४८
११६ ११७
१२४
१०८
११८
१२५
१४९ १५०
१०९
११०
१२० १२१
१२७ १२८
१११ ११२
१२२
१२९
१२३
११४
१२४
१४६ १५७
१२५ १२६
१३२ १३३ १३४ १३५
१२७
१५८ १५१
१२८
१३७
१६१ १६२
१३८
१३३
१३५
१६६
१२० १२०११ १२०१२ १२०१३ १२००४ १२१ १२२ १२३ १२३३१ १२३३२ १२३३ १२३१४
१४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५
१६८
१३७ १३८ १३९ १४०
१४७
१४८
१७२
१. हाटी में इसे भिन्नकर्तकी गाथा माना है। २. हाटी में १५१,१४९ और १५० की गाथा में क्रमव्यत्यय है।
३. हाटी में इसके लिए "इयं च किल भिन्नकतंकी" ऐसा उल्लेख मिलता है।
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________________
१२
पशकालिक नियुक्ति
संपादित
हाटो
संपादित
१८१
हाटी २०५
१७३ १७४
१०७
१८२
१०८
१५० १५१ १५११
१८३
२१२
१७८
१८६ १८७
११३ ११२ ११३
२१३
१५४ १५५ १५६
१७९ १८०
१८८
११४
२१४ २१५
१८१ १८२
१९०
२१७
११६ ११७ ११८
१९२
२१९
१८४ १८५
११९
१५७१ १५८ १५९ १६० १६१ १६२
१८६
१९४
१२०
२२१
१२१
२२२
१८५
१९५ १९६ १९७
१२२
१८९
भा.७ भा.८ भा.९ २२३
१९०
१९८
१६३११ १६४ १६५
१९१
१२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८
१९२
२००
२२४
मा. २५ भा. २८
१६७ १६८
१२९
१६९
१९४ १९५ १९६ १९७ १९८
१७०
१७१
२०२ २०२।१ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११
१७२
भा. ३० भा, ३३ भा.३४
२२५ २२६
१३० १३१ १३२ १३३ १३४
१७३ १७४ १७५
२२७
२०० २०१ २०२ २०३ २०४
१७६
१७७ १७८
१३७ १३८ १३९ १४०
भा. ५६ भा. ५७ २२८ उगा २२९
२१२
१८०
२०७ १. अचू में १२९ बी गाथा का आशिक उल्लेख है।
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________________
गाधाओं का समीकरण
संपादित
अधू
अचू
हाटी
२१४
१४१
२३१
१६७
१४२
२३२
संपादित २४१ २४२ २४३ २४
१६८
२६५ २६६ २६७ २६८
१४३
मा. ६.
२३३
१६९ १७० १७१
२४५
२१५ २१६ २१७ २१७११ २१८ २१८१ २१मा२ २१५१३ २१८१४
२३५
x
२७०
२३६
२३७
२४७ २४८
१७३ १७४ १७५
२७१ २७२
२३०
xxxxxx
२७३
२४९ २५०
२३९
२७४
२४०
२७५
२५१ २५२ २५३
२७७
H
२५४
२७८
२४१ मा. ६२ ૨૪૨ २४३ २४४ ૨૪૬ २४६ २४७
१७९ १८० १५१ १५२
२१११ २२. २२०११ २२१ २२१११ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९
२५५ २५६ २५७ २५८
१४८
२७९ २८० २८१ २८२ २८३
१४९
१५०
२५९ २६०
१८४ १८५ १८६ १७
२४०
२२४
१५२
२४९ २५० २५१
२६१ २६२
२६३
१८९
१५५
२६५ २८६ २८७ २८८ २८९ २९०
२५२
२६४
१९. १९१
२३०
२५३
२६५
२५४
२६६
२३१ २३२
१५७ १५८
२९७
२९१
२३३
२५६
२६८
२९२
२६९
१९४ १९५
२९३
२३५
१६१
२७०
१६२
२९५
२५७ २५८ २५९ २६. २६१ २६२
२३७ २१८ २३९
१९७ १९८ १९९ २००
२९७
२७२
२७३ - २७४
२७४११ . २७५. . .
१६५ १६६
२९८
x
२४०11
२६४ .
.२०१ .
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________________
१४
संपादित
२७६
२७७
२७८
२७९
२५०
२८१
२८२
२८३
२५४
२८५
२०६
२८७
२०६
२८९
२९०
२९१
२९२
२९३
२९४
२९५
२९६
२९७
२९८
२९९
३००
३०१
३०२
२०३
३०४
३०५
३०६
३०७
३०७१
२०२
२०३
२०४
२०५
अभू
२०६
२०७
२०८
२०९
२१०
२१०
२११
२१२
२१३
२१४
२१५
२१६
२१७
२१८
२१९
२२०
२२१
२२२
२२३
२२४
२२५
२२६
२२७
२२८१
X
२३०
२३१
X
हाटी
३००
३०१
३-२
३०३
३०४
३०५
३०६
३०७
३०८
X
३०९
३१०
३११
३१२
२१३
३१४
३१५
३१६
३१७
२१५
३१९
३२०
Re
३२२
३२३
३२४
ZRX
३२६
३२७
३२५
३२९
३३१
संपादित
३०८
२०९
३११
२१२
३१३
३१४
३१५
३१५।१
३१६
३१७
३१०
२१९
३२०
३२१
३२२
३२३
३२४
३२५
२२६
३२७
३२८
३२९
३३०
१३१
३३२
३३३
२३४
३३५
३३६
X
३३७
१. २१० का अंक अबू में दो बार दिया गया है।
२. अबू में २२९ का अंक नहीं है। २२० के बाद २१० का अंक है।
२३२
२३३
२३४
२३५
२३६
२२७
२३५
२३९
X
२४०
२४१
२४२
२४३
२४४
अमू
२४५
२४६
२४७
२४८
२४९
२५०
२५१
२५२
२५३
२५४
२५५
२५६
२५७
२५८
२५९
२६०
X
२६१
दशकालिक निर्मुक्ति
हाटी
३३२
३३३
३३४
३३५
३३६
३३७
३३०
३३९
३४१
३४२
३४३
૨૪
३४५
૪૬
३४७
YE
३४९
३५०
३५१
३५२
२५३
३५४
KK
३५६
३५७
३५८
३५९
३६०
३६१
PER
X
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________________
गाषाबों का समीकरण
संपादित
अ
हाटी
संपारित
हाटी
३४५
भा ६३
X
३३९ ३४० ३४१ ૩૪૨
३४६ ३४७
X
२६७ २६८ २६९ २७० २७१
३६९
३४०
३७०
३७१
३४३
२६५ २६६
३६६
३४९ ३४९.१ ३४९।२
३४४
१. यह गापा केवल हस्तमतियों में है।
.
-in
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________________
दशवैकालिक नियुक्ति
१. सिद्धिगतिमुवगयाणं, कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं ।
नमिऊणं दसकालियनिज्जुत्ति कित्तइस्सामि' ।। २. आई मज्झवसाणे, काउं मंगलपरिगह विहिणा ।
नामाइ मंगलं पि य, चविहं पण्णवेऊणं ।। ३. सुयनाणं अणुयोगेणाऽहिगय' सो चम्विहो होइ ।
चरणकरणाणुयोगे, धम्मे 'गणिए य" दविए य ।। ४. अपुहत्तपुहत्ताई", निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो ।
चरणकरणाणुयोगेण, तस्स दारा इमे होति । ५. निवखेवेगट्ठ-निरुत्त-विही पवित्ती य केण वा कस्स ।
तद्दार-भेय-लक्खण, तरिहपरिसा य सुत्तत्थो । ६. एयाई परूबेउं, कप्पे वण्णियगुणेण गुरुणा उ ।
अणुयोगो दसवेयालियस्स विहिणा कहेयग्यो ।। ७. दसकालियं ति नाम, संखाए कालओ य निद्देसो ।
दसकालिय-सुयखंध, अज्झयणुद्देस निक्खिविउ ।। ८. नाम ठवणा दविए, माउगपद-संगहेक्कए चेव । पज्जव-भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होंति ॥दार।।
१. प्रारंभ की सात गाथाएं दोनों चूणियों पीठिका में विस्तार से की गई है। निर्मुक्ति(अगस्त्यसिंहस्थविरकृत तथा जिनदास महत्तर- कार बृहत्कल्पभाष्य का अपने ग्रन्थ में संकेत कृत) में निर्दिष्ट नहीं हैं। ये गाथाएं भद्रबाह नहीं करते क्योंकि वे भाष्य से पूर्ववर्ती है। के बाद जोड़ी गई है, किन्तु टीकाकार हरिभद्र अत: ये गाथाएं बाद में जोड़ी गई हैं, ऐसा के समय तक ये नियुक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध स्पष्ट प्रतीत होता है। हो गई थीं इसलिए प्राय: गाथाओं के आगे २. गेण अहि. (अ)। टीकाकार ने 'आह नियुक्तिकार:' लिखा है। ३. काले य (हा, रा), टीका में 'काले य' पाठ इन गाथाओं को बाद में जोड़ने का एक की व्याख्या है-'काले चेति कालानयोगश्च प्रमाण यह है कि गा. ६ में 'कणे' शब्द गणितानुयोगश्वेत्यर्थः' (हाटी प. ४) । बहरकल्पभाष्य की ओर संकेत करता है। ४. अपुहृत्तपुहु' (हा, जिवू)। गा. ५ निक्खेवेग?' बृहत्कल्पभाष्य (गा. १४९) ५. मणिया (जिचू) । की है। इसकी व्याख्या वृहत्कम्पभाष्य की
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नियुक्तिपंचक ९. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य ।
एसो खलु निक्लेवो, दसगस्स उ छविहो होति' ।। ९३१. बाला 'मंदा किड्डा', बला य पण्णा य हायणि पर्वचा।
पब्भार-मुम्मुही सायणी य, दसमी उ कालदसा ।। १०. दवे अद्ध-अहाउय, उवक्कमे देस-काल काले य ।
तह य पमाणे वण्णे, भावे पगयं तु भावेण" ।। ११. सामाइयअणुक्रमओ, वणे विगयपोरिसीए ऊ ।
निज्जूढ़ किल' सेज्जभवेण दसकालियं तेणं ।। १२. 'जेण व जं व पडच्चा', जत्तो जावंति जह य ते ठविया ।
सो तं च तओ ताणि य, तहा य कमसो कहेयव्यं ।।दार। १३. सेज्जभवं गणघरं, जिणपडिमादसणेण पडिबुद्ध ।
मणगपियरं दसकालियस्स निज्जूहगं वंदे ।।
१. यह गाथा अचू और जिजू में व्याख्यात है किन्तु अचू की भूमिका में इस गाथा को निर्यक्तिगाथा के क्रम में नहीं माना है।
(अचूभूमिका पृ.) २. किड्डा मंदा (रा, हा)। ३. टीका में यह गाथा निर्मुक्ति के क्रम में है किन्तु जिनदासचूणि में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप में उल्लिखित है। यह गाथा मूलतः 'तंदुलवेयालिय' प्रकीर्णक (मा. ३१) की है किंतु बाद में यह नियुक्तिगाधा के रूप में लिपिकारों या टीकाकार द्वारा जोड़ दी गई है, ऐसा प्रतीत होता है। हमने इसे निगा के कम में नहीं रखा है। द्र. दथुनि ३, पंकभा
२५२, निभा ३५४५, ठाणं १०।१५४ । ४. बादनि ६६० । ५.०पोरसीए (ब), सीओ (रा) 1
६. किर (हा)। ७. यह गाथा अचू में संकेतित नहीं है किन्तु टीकाकार इस गाथा के लिए 'चाह नियुक्तिकार:' लिखते हैं। इसके पूर्वापर संबंध को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा अन्य आचार्यों द्वारा रची गई है क्योंकि इस गाथा की विषयवस्तु का ही पुनरावर्तन अगली गाथाओं में हुआ है।
इस माथा के बाद जिनदासवृत चणि में 'इमाओ निरुत्तिगाहामो चउरो अज्झप्पस्साणयणं"", अहिगम्मन्ति व", जह दीवा', अटुविहं"इनका उल्लेख है लेकिन हस्तप्रतियों में ये गाथाएं आगे (गा २६,२७,२८,३०) इस क्रम में मिलती हैं। ६. जेणेव च पटुच्च (जिचू) ।
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दशकालिक नियुक्ति
१४. मणगं पडुच्च सेज्जभवेण निजहिया दसज्झयणा ।
वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं' नाम ।।दारं।। १५. आयप्पवायपुवा, निज्जूढा होई धम्मपण्णत्ती ।
कम्मप्पवायपुब्बा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा ।। १६. सच्चप्पवायपुव्वा, निज्जढा होति 'वक्कसुद्धी उ" ।
अवसेसा निज्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्थूतो।। १७. बितिओ वि य आदेसो, गणिपिडगातो दुवालसंगातो।
एवं किल निज्जूळ, मणगस्स अणुग्महट्टाए । १८. दुमपुफियादओ खलु, दस अज्झयणा सभिक्खुयं जाव ।
अहिंगारे वि य एत्तो, वोच्छं पत्तेयमेक्कक्के ॥दार।। १९. पढमे धम्मपसंसा, सो य इह जिणसासणे न अन्नत्य । ___ बितिए धितीए सक्का, काउं जे एस धम्मो त्ति ।। २०. ततिए आयारकहा उ, 'खुडिया आय-संजमोवाओं' |
तह जीबसंजमो वि य, होति चउत्थम्मि अज्झयणे ।। १. दसवेयालियं (स)।
गाथाओं का संकेत लिखना छूट गया हो या २. १३, १४ ये दोनों गाथाएं दोनों चूणियों में फिर जिन प्रतियों के आधार पर मुद्रित पूणि
संकेतित नहीं हैं किन्तु भावार्थ कथानक के का संपादन किया गया उसमें संकेत नहीं दिये रूप में है। पंडित दलसुखभाई के अनुसार ये गये हों। सभी हस्तपतियों में ये गाथाएं हरिभद्रकृत हैं क्योंकि इनमें शय्यंभव को मिलती हैं। नमस्कार किया गया है। किन्तु इन गाथाओं ३.० सुद्धि त्ति (ब)। के बारे में विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि ४. फिर (हा, अचू) 1 ये गाथाएं स्वयं हरिभद्र द्वारा रचित होती तो ५. याइया (हा), ० याइओ (अ)। १३वीं गाथा के प्रारम्भ में वे स्वयं 'अवयवार्थ ६. इस गाघा में मा. १२ के 'जाति' द्वार का तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एवं यथावसरे स्पष्टीकरण है अतः अचू और जिचू में वक्ष्यति' (हाटीप १०) तथा १४वीं गाचा के व्याख्यायित न होने पर भी इसे नियुक्तिगाथा प्रारंभ में 'चाह निर्मुक्तिकारः' का उल्लेख नहीं के क्रम में रखा है। (देखें-टिप्पण गा. १३, करते। इसके अतिरिक्त माथा १२ में जेण, जं, जत्तो और जावंति इन चार द्वारों सेः ७. इहेब जिणसासणम्मि त्ति (हर, अचू), हरिभद्र कचन की प्रतिज्ञा की है। इनमें जसो का ने टीका में जिनशासने धर्मो नान्यत्र' ऐसा उल्लेख करने वाली तीन गाथाएं १५,१६,१७ उल्लेख किया है। इसी आधार पर टीका और दोनों चूणियों में प्राप्त हैं, फिर 'जेण' का णि का मुद्रित पाठ स्वीकृत न कर आदशों निरूपण करने वाली गाथाओं को नियुक्ति का पाठ स्वीकृत किया है। गाषा क्यों नहीं मानी जाए? संभव है . इति पूरणार्थो निपातः (हाटी प. १३)। कथानक देने से गाथाओं का संकेत चूर्णिकारों ९. खुड्डियापार संजमो० (ब) । से नहीं किया हो अथवा लिपिकर्ताओं द्वारा
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२०
भिक्वसोधी तब संज मस्स गुणकारिया तु पंचमए । छट्ठे आयारकहा, महती जोगा' महयणस्स || वयविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमदुमे भणियं । नवमे विणओ दस मे, समाणियं एस भिक्खु त्ति ||
२३.
दो अभरणा चूलिय, विसीययते थिरीकरणमेगं । बितिए' विवित्तरिया, असीयणगुणा तिरेगफला ॥ 'कालियस एसो५, पिंडत्थो वणितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तहस्सा ।। २५. पडमञ्झणं दुमपुप्फियं ति चत्तारि तस्स दाराई । वणिक्क माई", धम्मपसंसाइ अहिगारो ||
२१.
२२.
२४.
२५) १. ओहो जं सामन्नं अणं अमीण,
सुताभिहाणं चउब्वि तं च । आयज्भवणा य पत्तेयं ॥
२५।२. नामादि चउभेयं
वण्णेकणं सुयानुसारेण । दुमपुस्फिय आओज्जा, चउसुंपि कमेण भावेसु ॥
१. जोगो ( अ, ब ) ।
२. ० हा अट्टमे ( अ ) |
३. बीए ( ब ) 1
४. वित्त ( अ ) ।
५. दसवेयालियम्स (जिचू), दसकालियरसेह ( अचू ) ।
६. वन्नइ० (जिचू), प्रस्तुत गाया दोनों चूर्णियों मैं उपलब्ध है। किन्तु मुनि पुण्यविजयजी ने अगस्त्यसिंह बूणि के संपादन में इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में न रखकर उद्धृत गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह गाचा उपसंहारात्मक और संपूर्ति रूप | टीका तथा आदर्शों में यह गाथा मिलती है। हमने इस गाथा को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है क्योंकि अन्य नियुक्तियों में भी ऐसी उपसंहारात्मक गाथाएं मिलती हैं
उत्तरभरणासरे, पिंडत्यो वणितो समासेणं । तो एक्क्कं पुण, अकरणं कित्तइस्लामि || (उनि २७)
७.
८.
९.
१०.
निर्युक्तिपंचक
० ( अ ), बीउ० (हा ) ।
दोनों चूर्णियों में प्रस्तुत गाथा उल्लिखित नहीं है, लेकिन इसका भावार्थं दोनों चूर्णियों में मिलता है । कुछ पाठांतर के साथ उत्तराध्ययत नियुक्ति में भी ऐसी गाथा मिलती है। देखें उनि २६ ।
उनि २८ । १ ।
२५/१२ इन दोनों गाथाओं का चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है। केवल 'तत्थ उबक्कमो जहा आवस्सए' इतना ही उल्लेख है । ये गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य (गा. ९५८, ९५२) की हैं। हस्तलिखित आदर्शों में ये गाथाएं मिलती हैं। किन्तु ये गाथाएं व्याख्या के प्रसंग में बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती है अतः इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है । टीकाकार हरिभद्र ने इनके लिए 'चाह निर्मुक्तिकार:' ऐसा उल्लेख किया है ।
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दशवकालिक नियुक्ति
२६. अज्झप्पस्साणयणं, कम्माण अवचओ उवचियाणं ।
अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छंति' || २७. अधिगम्मति व अत्था, इमेण अधिगं च नयमिच्छति।
अधिगं च साहु गच्छति, तम्हा अज्झयणमिच्छति' ।। २८. जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए सो य दिप्पती दीवो ।
दीवसमा आयरिया, दिप्पति परं च दीति' ।। २९. माणस्स दसणस्स य', चरणस्स य जेण आगमो होइ । ___ सो 'होइ भावआओ', आओ लाभो ति निद्दिट्टो ।। ३०. अविध कम्मरयं, पोराणं जं खवेइ जोगेहिं ।
एयं भावज्झयणं, णायचं" आणुपुव्वीए ।। ३१. नामदुमो ठवणदुमो, 'दन्वदुमो चेव होति भावदुमो'१२ ।
एमेब य पुप्फस्स वि, चविहो होति निक्खेवो । ३२. दुमा य पादवा रुक्खा, "विडमी य अगा तरू'" ।
कुहा महील्हा बच्छा, रोवमा भंजगा वि य ।।
१. उनि ६, अनुद्वा ६३१११ ।
उल्लेख है । वहां १२वीं गाथा के बाद भी गा. २. य (जिच)।
२६,२७,२८ और ३० का संकेत दिया है तथा ३. उनि ।
'इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो' इतना उल्लेख ४. पइप्पई (रा)।
है। इससे स्पष्ट है कि जिनदास के समक्ष ये ५. दिप्पई (हा), दिप्पए (अ, रा)।
गायाएं नियुक्तिगाथा के रूप में थीं। टीकाकार ६. अनुद्वा ६४३।१, उनि ८, चंदा ३०॥
ने इन पांचों गाथाओं की व्याख्या की है तथा ७. चि (हा)।
आदशों में भी ये गाथाएं मिलती है। इनमें ५. होई (हा)।
कुछ गाथाएं अक्षरश: उत्तराध्ययन नियुक्ति में ९. होई भावाओ (अ)।
मिलती हैं। १०. नेयध्वं (अ, हा)।
१२. खेत काल भाव दुमे (जिबू)। ११. २६-३० तक की गाथाओं का अचू में कोई १३. अगमा बिडिमा तरू (हा), अगमा विवी
उल्लेख नहीं है। जिनदासचूणि में 'अज्झाप- तरू (अ), अगमा विडिया तरू (रा)। स्साणयणं गाहाओ पंस भाणिमवाओ'- इतना १४. रंजगा (हा), जम्भमा (अ)।
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नियुक्तिपंचक
३३. पुष्पाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । ___ सुमणाणि य सुहृमाणि, य 'पुप्फाणं होंति एगट्ठा" ।। १४ 'टुमाफिया यर अाहारएसणा-गोयरे तया उंछे। ___ मेस-जलोया' सप्पे, वणनख-'इसु-गोल-पुत्तुदए ।। ३५. कत्थइ पुच्छति सीसो, कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया। ___ सोसाणं तु हितठ्ठा, विपुलतरागं तु पुच्छाए । ३६. नाम ठवणाधम्मो, दग्वधम्मो य भावधम्मो य ।
एतेसिं नाणसं, वोच्छामि अहाणुपुवीए । ३७. दवं च 'अत्यिकायो, पयारधम्मो य भावधम्मो य।
दव्वस्स पज्जवा जे, ते धम्मा तस्स दश्वस्स ।। ३८. धम्मत्थिकायधम्मों, पयारधम्मो य विसयधम्मो य ।
लोइय-कुप्पादयणिय, लोगुत्तर लोगऽणेगविहो । ३९. गम्म-पसु-देस-रज्जे, पुरवर-गाम-गण-गोट्टिराईणं"।
सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि" तु पसत्थो ।
१. एगट्ठा पुष्फाणं होति णायचा (अ,ब), प्रस्तुत के एकार्थक हैं । अतः प्रस्तुत गापा नियुक्तिकार
गाया दोनों चूणियों में गाया रूप में उल्लिखित द्वारा ही रचित प्रतीत होती है। सभी हस्तनहीं है । पुष्प के एकार्थक बोनों चूर्णियों में प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध है। मिलते हैं अत: पंडित मालवणियाजी का २. . फियं च (अच्), • फियाह (ब) । कहना है कि चूणि के एकार्थक शब्दों के ३, जलूगा (जिघू, हा)। आधार पर हरिभत ने उसे पधबद्ध कर दिया ४. उसु-पुत्त-गोलुदए (अचू) । हो, किन्तु ऐसा संभव नहीं लगता, क्योंकि ५. कहिति (अ, रा, अघू) 1 स्वयं हरिभद्र अपनी टीका मैं 'पुष्पंकाथिक- ६.
६. तु० सूनि १००! प्रतिपावनायाह ऐसा नहीं कहते तथा चूर्णि में ७. कायप्पयार० (हा)। तो मात्र तीन-चार एकार्थक शब्द हैं, गाथा में ८. ०वपणे (हा)। कुछ अन्य एकार्थक भी है । प्रथम अध्ययन का ९. गुट्टि (अ, ब)। नाम 'दुमपुफिय' है। अतः द्रुम शब्द के १७. राईणं ति (जिचू) । एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक प्रासंगिक ११. जिणेसु (अचू) । है। उसके बाद ३७वीं गाथा में प्रथम अध्ययन
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दशवकालिक नियुक्ति
४०. दुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खस्नु चरित्तधम्मो य ।
सुगंधरतो कालो, महामो समपल्मो ' ।। ४१. दवे भावे वि य मंगलाणि दवम्मि पुण्णकलसादो।
धम्मो उ भावमंगलमत्तो 'सिद्धि त्ति काऊणं ।। ४२. हिंसाए पडिवक्खो, होइ अहिंसा चउब्बिहा 'सा उ'५ ।
दवे भावे य तहा, अहिंसजीवाइवानो त्ति ।। ४३. पुढवि-दग-अगणि मारुय, वणसइ बि-ति-चउ-पणिदि अज्जीवे ।
पेहोपेह-पमज्जण, परिठवण मणो-वई काए ।। ४४. अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ।
कायकिलेसो संलोणया, य बज्झो तबो होई॥ ४५. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेब सज्झाओ।
झाणं उस्सग्गो बि य, अभितरो तवो होइ" । ४६. जिणवयण "सिद्ध चेव'१३, भण्णए१२ कत्थई उदाहरणं ।
आसज्ज उ सोयारं, हेऊ वि कहिंचि भण्णेज्जा ।। ४७, कत्थइ" पंचावयवं, दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्ध ।
न य पूण सव्वं भण्णति, हंदी सवियारमक्खातं ।।
१. मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अपने द्वारा संपादित गाथा का संकेत न होने पर भी इनकी विस्तृत अपू में प्रस्तुत गाथा को निर्यक्तिगाथा के व्याख्या मिलती है । कुछेक विद्वानों के अनुसार रूप में स्वीकृत नहीं किया है। इसका भावार्थ ये गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं किन्तु गद्य रूप में दोनों चूणियों में उपलब्ध है। अगस्त्मसिंह चणि (पू. ११) की २०वीं गाया टीका तथा आदर्शों में भी यह नियुक्तिगाथा
की व्याख्या में कहा है कि संयम और सप के क्रम में है अत: इसे प्रक्षिप्त नहीं
नियुक्ति विशेष से कहे जाएंगे, अत. यहां इनका माना जा सकता। विषय की क्रमबद्धता
उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है की दृष्टि से भी यह गाथा यहां प्रासंगिक
कि ये गाथाएं चूर्णिकार के सामने नियुक्तिलगती है।
गाथा के रूप में थीं। २.४ (जिन्) 1
८. अणस्सई (हा)। ३. लाई (हा)।
९. हाही (हा), तु० उमू ३०८ | ४.सिद्ध ति (ब)।
१०. उसू ३०।३। ५. हिंसा (अ,ब) ।
११. सिद्धमेव (जिन्)। ६.० अब्जीवा. (ब)।
१२. भण्णती (अ), भण्णइ (ब), भण्णई (अ)। ७.४२ से ४५ तक की गाथाएं टीका तथा सभी १३, कत्थ वि (जिबू), कत्थति (अच्) ।
हस्तप्रतियों में उपलब्ध हैं। दोनों चणियों में
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नियुक्तिपंचक ४७।१. तत्थाहरणं दुविहं, चउम्विहं होइ एक्कमेक्कं तु ।
हेक पब्विहो खलु, तेण उ साहिज्जए अत्यो' । ४८. 'णातं आहरण ति य, दिळंतोवम्म निदरिसणं तह य ।
एगळं तं दुविहं, चउम्विहं चेव नायव्वं ॥ चरितं च कप्पितं या', दुविहं तत्तो चविहेक्के । आहरणे तद्देसे, तद्दोसे चेषुबनासे ।।दार।। चउधा खलु आहरणं, होति अवाओ उवाय ठवणा य। तह य पडुप्पप्नविणासमेव पढम चउविगप्प ।। दवावाए दोन्नि उ, वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएक्कमेक्क, दहम्मि मच्छेण निब्वेओ ।।
खेत्तम्मि अवाकमणं, दसारयग्गस्स होइ अवरेणं ।
दीवायणो य काले, भावे मंडुश्कियाखवओ ।। ५३. सिक्खगअसिक्खगाणं, संवेगथिरयाइ दोहं पि ।
दवाइयाइ एवं, दसिज्जते 'अवाया उ' || ५४. दवियं कारणहियं, विगिचियव्वमसिवाइ खेत्तं च ।
बारसहिं एस्सकालो, कोहाइविवेग भावम्मि । १. इस गाया का दोनों चूणियों में कोई उल्लेख स्पष्ट लिखते हैं कि-'स्वरूपमेषां प्रपञ्चेन नहीं मिलता । यह गाथा प्रक्षिप्त प्रतीत होती भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति' (हाटी प. है क्योंकि आगे की गाथा में पुनः इसी ३५) तथा गा. ५२ की व्याख्या में 'प्रकृतविषय की पुनरुक्ति हुई है। यहां यह गाथा योजना पुननियुक्तिकार एव करिष्यति, किमविषयवस्तु की दृष्टि से भी अप्रासंगिक लगती काण्डः एव नः प्रयासेन' (हाटी प. ३६) ।
इसके अतिरिक्त गा.७९ की व्याख्या में भी २. नायमुदाहरणं (हा)।
'भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नियुक्ति३. च (जिचू), वा (हा)।
कारः' (हाटी प. ५५) कहा है। इन प्रमाणों ४. भवे चउहा (अ.ब), ५० से ५ तक की से स्पष्ट है कि टीकाकार के सामने ये गाथाएं गाथाओं का दोनों चूणियों में कोई संकेत नहीं नियुक्तिगाथाओं के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है किन्तु व्याख्या और कथानक मिलते हैं। थीं । अतः हमने इनको नियुक्तिगाथा के क्रम मुनि पुण्यविजयजी ने ५६,७३ और ८२ इन
में रखा है। तीन गाथाओं को उद्धृतगाथा के रूप में माना ५. देवा. (अ,न) । है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि चूणि ६. खमओ (ब)। की व्याख्या के अनुसार किसी अन्य आचार्य ७. अवायाओ (अ)। ने इन गावाबों की रचना की हो किन्तु गाथा ८. एस० (अ)। १०वीं की व्याख्या में टीकाकार हरिभद्र
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दशवकालिक निर्मुक्ति
५५. दन्यादिएहि निच्चो, एगतेणेव 'जेसि अप्पा' उ।
होति अभावो तेसि, सुह-दुहसंसारमोक्खाणं ॥ ५६. सुहृदुक्खसंपओगोरे, न 'विज्जई निच्चबायपरखम्मि"।
एगंतुच्छेम्मि य, सुहदुक्खविकप्पणमजुत्ते ।। ५७. एमेव चविगप्पो, होइ उवाओ वि तत्थ दवम्मि ।
'धातुवाओ पढमो'५, नंगलकुलिएहि खेत्तं तु ।। ५८. कालोय नालियाइहि', होइ भावम्मि पंडिओ अभओ।
'चोरनिमित्तं नट्टिय", वडकुमारि परिकहेति ।। ५९. एवं तु इह आया, पच्चक्खं अणुवलब्भमाणो वि ।
सुदुक्खमादिएहि, गिज्झइ हेहि अस्थि ति ।। ६०. जह वऽस्साओ" हस्थि, गामा नगरं तु" पाउसा सरयं ।
ओदइयाउ उवसमं, संकंती देवदत्तस्स ।। ६१. 'एवं सउ जीवस्स वि, दवादी संकम पडुच्चा उ ।
अस्थित्तं साहिज्जइ, पच्चक्लेणं परोक्खं पि" ६२. एवं सउ जीवस्स वि, दवादी संकम पडुच्चा उ।
परिणाम साहिति, पच्चक्खेणं परोक्खे बि ।। ६३. ठवणाकम्मं एक्कं, दिळंतो तत्थ पोंडरीयं तु ।
अवा वि सन्नहक्कण , हिंगुसिवकयं उदाहरणं ।। ६४. सवभिचार हेत, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहि ।
उववूहइ सप्पसर, सामस्थं चप्पणो नाउं ।
१. जेसिमप्पा (अ)
मुदित पाठ को पाठांतर में दिया है।
८. अहं (अ)। ३. संभवति णिच्चपकनवातम्मि (अ)। ९. प्रत्यक्षमिति तृतीयार्थे द्वितीया (हा)। ४. मुद्रित अचू मैं यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप १०. अस्साओ (ब) ।
११. च (द)। ५. पाठांतर वा-धातुब्बाओ भणिओ (हाटी)। १२. एवस्स उ (अ)। ६. ज्याईहिं (चरा)।
१३. अन्ये त द्वितीयगाथापश्चाई पाठान्तरोऽन्यथा ७. चोरस्स कए नट्टिय (रा), चोरस्स कए नट्टि व्याचक्षते । (हाटी प, ४३) । (हा), टीकाकार ने इस पद की व्याख्या न कर १४. यह गाथा रा और ब प्रति में नहीं है। 'चोरनिमित्तं नद्रिय पद की व्याख्या की है। १५.०कणे हि (ब) । हमने इस पाठ को मूल मानकर टीका के १६. सन्निभि (ब)।
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नियुक्तिपंचक ६५. होति पडुप्पन्नविणासणम्मि गंधचिया उदाहरणं । ___ सीसो वि कथावि' जइ, अन्झोवज्जिज्ज तो गुरुणा ।। ६६. वारेय उवाएण, जइ या वाऊलिओ' वदेज्जाहि । ___ सव्वे वि नत्थि भावा, कि पुण जीवो स वत्तब्यो ।। ६७. जं भणसि नत्थि भावा, वयणमिणं अत्यि नथि ? जइ अस्थि । __ 'एव पइण्णाहाणी'५, असओ णु निसेहए को नु ?।। ६८. नो य विवखापुब्बो, सद्दोऽजीबुब्भवो त्ति न य सावि ।
जमजीवस्स उ सिद्धो, पडिसेहणीओ तो जीवो।। ६९. आहरणं तद्देसे, चउहा अणुसट्ठि तह उवालंभो ।
पुच्छा निस्साबयणं, होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए॥दारं।। ७०. साहुक्कारपुरोग, जह सा अणुसासिया पुरजणेणं ।
वेयावच्चाईसु वि,' एव जयतेववूहिज्जा ।। ७१. जेसि पि अस्थि आया", वत्त वा ने सि अम्ह वि स अस्थि । ____किंतु अकत्ता न भवइ, वेययई जेण सुहदुक्खं ।। ७२. उबलम्भम्मि मिगावइ, नाहियवाई वि एव वत्तब्बो ।
नस्थि ति कुविण्णाण, आयाऽभावे सइ अजुत्तं ।। ७३. अस्थि तिजा वितक्का, अह्वा नथि त्ति जे कुविण्णाणं ।
अच्चतमभावे पोग्गलस्स, एयं चिय 'न जुत्त१२ ।। ७४. पुच्छाए कोणिओ खलु, निस्सावयणम्मि गोयमस्सामी।
नाहियवाई" पुच्छे, जीवस्थितं अणिच्छत ।। ७५. केणं ति नरिथ आया, जेण 'परोक्खो त्ति तव कुविण्णाणं ।
होइ परोक्खं तम्हा, नस्थि त्ति निसेहए को णु !॥
१. कस्याह (अ,ब)। २. वा (हा), व (रा)। ३. वेऊलिओ (रा)। ४. योत्तव्यो (हा)। ५. एवं पइन्नहाणी (ब)।
९, जयंते विहिज्जा (ब), जयंतेवोहेजा
(श, हा)। १०. जीवो (रा) ११. जे तु (ब)। १२. अजुतं (अ, ब), प्रस्तुत गाथा अचू में उद्धृत
गाथा के रूप में प्रकाशित है। १३. . वायं (ब)। १४. पक्षपखं ति (अ)।
७. उवलंभो (रा)। ६.. सिट्ठीए (रा)।
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दशवकालिक नियुक्ति
७६. अन्नावदेसओ नाहियवाई जेसि नत्थि' जीवो उ ।
दाणाइफलं तेसि, न बिज्जई 'चउह तद्दोस । ७७. पढम अधम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उबम्नासं ।
दुरुवणियं तु चउत्थं, अधम्मजुत्तम्मि नलदामो* 11दार।। ७८. पडिलों में जह अभा, पज्जाय हर अवाहिओ सती ।
गोविंदवायगो वि य, जह परपक्वं नियत्तेइ ।। ७९. अत्तउवन्नासम्मि य, तलागभेम्मि पिंगलो थवई ।
अणिमिसगिण्हण भिक्खुग, दुरूवणीए उदाहरणं ।। ८०. चत्तारि उबन्नासे, तश्वत्थु तयम्नवत्थुगे चेव । ___'पडिनिभहेउम्मि य तत्थ होंति'" इणमो उदाहरणा ॥ ८१. तव्वत्युगम्मि पुरिसो, सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं । __ तदअन्नवत्थुगम्मि वि, अन्नत्ते होइ एगत्तं ।। ५२. तुज्झ पिता मह पिउणो, धारेति अणूणगं पडिनिम्मि।
किं नु जवा किज्जते ? जेण मुहाए न लभंति ॥ ८३. 'अहवा वि इमो हेऊ, विण्णेओ तत्थिमो चविगप्पो"। ___ जावग थावग वंसग, लूसग हेऊ चउत्यो उदारं।। ५४. तम्मामिगा य महिला, जावगहेउम्मि उलिडाई" ।
लोगस्स मज्भजाणण, थावगहेऊ" उदाहरणं ।। ५५. सा सगडतित्तिरी" वंसगम्मि हेम्मि होइ नायव्वा ।
___ तउसग-वंसग-लूसग, हेउम्मि य मोयगो य पुणो५॥ १. न अत्यि (रा)।
गाथा के रूप में प्रकाशित है-- २. विज्जइ (हा)।
तुज्म पिता मम पिऊ, ३. चतुर्घा तद्दोष इति, अनुस्वारस्वलाक्षणिकः
धारेति अणूणतं सतसहस्सं । (हाटी प. ५२)।
जदि सुतपुब्वं दिज्जतु, ४. नलदाहो (अ), ० दामा (रा)।
अह ण सुतं खोरयं देहि ।। ५. अमि० (ब)।
११. अन्ये त्वेवं पठन्ति-हेउ ति दारमहणा, ६. भिच्छुग (रा)।
चउविहो सो उ होइनामग्यो (हाटी)। ७. पडिनिभए हेम्मि य होति (हा)। १२. उंटलिडाई (हा)। ८. सयसहस्सं (ब)।
१३. ० हेउ (अ)। ९, फिज्जती (अ)।
१४. तित्तरी (अ,ब)1 १०. दोनों चूणियों में यह गाथा निगा के क्रम में १५. इन हेतुओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए
नहीं है। किंतु कुछ पाठभेद के साथ उद्धत देखें ठाणं ४।४९९-५०४ 1
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नियुक्तिपंचक
८६. धम्मो गुणा अहिंसादिया उ ते परममंगलपतिण्णा' ।
देवा वि लोगधज्जा, पणमंति' सुधम्ममिति हेऊ ।। ८७. दिट्ठतो अरहता',अणगारा य बहवे उ* जिणसिस्सा ।
वत्तणुवले गज्जति, जं नरवतिणो वि पणमंति ।। ५८. उपसंहारो देवा, जह तह राया वि पणमति सुधम्म ।
'तम्हा धम्मो मंगलमुक्किठें निगमणं एवं" ।। ८९. बितियपइण्णा जिणसासणम्मि साहेति साहवो धम्म ।
हेऊ जम्हा सम्भाविएसुहिंसादिसु" जयंति ।। ८९५१. जह जिणसासणनिरया, धम्म पालेति साहवो सुद्धं ।
न कुतित्थिएस एवं, दोसइ परिपालगोवाओ"।। ८९।२. तेसु बि य धम्मसहो, धम्म नियमं च ते पसंसति ।
नणु भणिओ सावज्जो, कुतिस्थिधम्मो जिणवरेहि ।। ८९.३. जो तेसु२ धम्मसद्धो, सो उवयारेण निच्छएण इहं ।
जह सोहसदु सोहे, पाहण्णुक्यारओऽन्नत्थ ।।
१. पन्नो (स)।
नहीं है। टीका में ये गाथाएं नियुक्तिगाथा २. पणमति (जिचू)।
के क्रम में प्रकाशित है किन्तु पूर्वापर सम्बन्ध ३. अरि . (अ)।
को देखते हुए ये गाथाएं भाष्य की प्रतीत ४. य (अघू, जिचू)।
होती हैं । ये तीनों गाथाएं ८९वीं गाया की ५. . सीसा (रा, हा, जिचू)।
व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। दूसरी बात यह है ६ पणमति (जिचू)।
कि गा. ८९ के बाद ९० की गाथा का सीधा ७. तम्हा मंगलमुक्किट्टमिति निगमणं होति
सम्बन्ध जुड़ता है। मुद्रित टीका में प्रथम णायव्वं (जि), • मंगलमुक्किट्टमिइ अ
भाष्यगाथा के रूप में "एस पइण्णासुद्धि'... निगमणं (हा), • मंगलमुक्कट्टमिइ निगमणं च
गाथा है। इस गाथा में हेतुविशुद्धि का वर्णन
है तथा प्रतिज्ञाशुद्धि की बात बताई जा चुकी ८. बीय ० (ब), बिइयपइन्ना (हा)।
है, इसका उल्लेख है। हाटी गा. ९३.९५ ९. साहुणो (अ, ब)।
(८९/१-३) इन तीन गाथाओं में प्रतिक्षाशुद्धि १०. साभाविएसु अहिंसादिसु (जिचू), साभावियं का वर्णन है । भाष्यकार के उक्त कथन से
अहिंसादिसु (अ), अन्ये तु व्याचक्षते- ८९/५-३ - इन तीनों गाथाओं को भाष्य सम्भाविएहि (हाटी)।
गाथा मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं होती। ११. गा०५९ के बाद ६९।१,२,३-इन तीन (देखें परिशिष्ट पा.१-३)।
गाथाओं का दोनों चणियों में कोई उल्लेख १२. तेसि (न)।
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दशवकालिक नियुक्ति ९०. जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि-सयणासणादिसु जयंति'।
फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितमोई ॥ ९१. अप्पासुय'-कय-कारित-अणुमय-उद्दिभोइणो' हंदि!।
तस-थावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पति ।। जह भमरो ति" य एत्थं, दिद्रुतो होति आहरणदेसे। चंदमुहिदारिगेय, सोमत्तवधारणं ण सेसं ।। एवं भमराहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं ।
गणं दिळंतविसृद्धि, सुत्त भणिया इमा चना ।। ९४. एत्थ" य भणेज्ज कोई, समणाणं कीरए" सुविहियाणं।
पाकोवजीविण त्ति , लिप कसेगा १५. 'वासति न'" तणस्स" कते, न तणं वद्धति कते मयकुलाणं ।
न य रुक्खा सतसाहा, पुप्फति" कते महुयराणं ।। ९५।१. अग्गिम्मि हवी ह्यइ, आइच्चो तेण पीणिओ संतो।
वरिसइ पयाहियळं, तेणोसहिओ परोहति ।।
९३.
१. जयंती (अ)।
९. इस गाथा के बारे में दोनों चूणियों में कोई २. फासुय-अस्य-अकारिव-अणणुमयादिभोई उल्लेख नहीं है किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से ___प (हा) • मकय अकारिय अणुमयमणुदिट्ठ- यह पूर्व गाया से जुड़ी हुई है अतः संभव है मोई य (रा)।
चूर्णिकार ने सरल समझकर इसकी व्याख्या ३. अफासुय (हा), न फासुय (जिच्) ।
न की हो। इसके अतिरिक्त इसी गाथा की ४. . भोयणो (हा)1
'इमा चन्ना' शब्द की व्याख्या में टीकाकार ५.९०,९१ ये दोनों गाथाएं दोनों चूणियों में बहते है कि 'इयं चान्या सूत्रस्पशिकनियुकिनिर्मुक्तिगाथा के रूप में निर्दिष्ट हैं। हरिभद्र ताविति', (हाटी प. ६५) अतः स्पष्ट है कि ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के विषय में
यह नियुक्तिगाथा है। 'भाध्यकूद्' या 'नियुक्तिकृद्'--ऐसा कोई १५. तत्थ (जिचू) । उल्लेख नहीं किया है। किन्तु मुद्रित टीका ११. कीरई (अ,ब), कीरती (अन्) । की प्रति में इन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' १२. पागोव • (हा,ब) पावोव • (रा) । का उल्लेख है। हमने इन्हें निगा के क्रम में १३. बासह रखा है।
१४. तिणस्स (अ, रा)1 . ६. भमरा तू (जिचू)।
१५. सयसाला (हा)। ७. • दारुकेयं (रा)।
१६. फुल्लेंति (अ), फुस्लति (हा)। . सुले (रा)।
१७. परोहिति (रा)।
म
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नियुक्तिपंचक
९५।२. कि दुभिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह' भवे दुरिट्ठतु।
कि जायइ सम्बत्था, दुभिक्खं अह भवे इदो ?।। ९५॥३. वासइ 'तो कि विग्धं, निम्घायाइहि जायए तस्स ।
अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए' ।। ९६. किं च दुमा पुष्फती, भमराणं कारणा अहासमयं ।
मा भमर-महुगरिंगणा', किलामएज्जा अणाहारा ।। ९६११. कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा ।
सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महुयरिंगणट्ठा ।। ९६।२. तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुवविहियस्स ।
उदएणं पुष्फफलं, निवत्तयंती' इमं चऽन्न ।। ९७. अस्थि बहू वणसंडा, भमरा जत्थ न उवेंति न वसंति ।
तत्थ वि पुप्फति दुमा, पगती एसा दुमगणाणं ।।
१. इह (रा)। २. कि तो (रा)। ३. माथा ९५ के बाद की तीन गाथाओं का दोनों
चणियों में कोई संकेत नहीं है किन्तु अचू में 'एत्य चोदेति' तथा जिम में 'एत्यंतरे सीसी पोदेई' कहकर इन तीनों गाथाओं का भावार्थ दिया है। इन तीनों गाथाओं में ९५वीं गाथा का ही विस्तार तथा व्याख्या है, अतः ये भाष्यगाथाएं प्रतीत होती हैं। मुद्रित टीका की प्रति में ये निर्यक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित है, किन्तु हरिभद्र ने अपनी ब्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है। हमने इनको भाष्यगाथा के रूप में स्त्रीकत किया है। इन गाथाओं को निगा के क्रम में न रखें तो भी चालू विषयक्रम में कोई अंतर नहीं आता। विषय की दृष्टि से ९५ की गाथा ९६ से सीधी जुड़ती है। (देखें परि० १
४. किंतु (जिचू)। ५. ० फेती (अचू), पुम्फसि (हा)। ६. मड्डयर० (अ, ब) ७. निव्वयंति (रा)। ८. ९६/१-२ इन दोनों गाथाओं को संक्षिप्त व्याख्या चति में मिलती है किंत गाथाओं का संकेत नहीं है। टीका में यह निगा के क्रम में व्याख्यात है। किन्तु मह गाथा भाष्य की होनी चाहिए। (देखें टिप्पण मा. ९५॥३)। माथाएं रा प्रति में नहीं मिलती है। ये दोनों गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। इन दोनों को निगा के क्रम में न रखने से भी चालू विषयक्रम में कोई अंतर नहीं पड़ता। ९६ की गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से ९७ से
सीधी जुड़ती है । (देखें परि १ गा. ९.१०) ९.जं च (हा)।
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कालिक नियुक्ति
९७|१. जइ पराई कीस पुणो, जं काले पुप्फफलं
१८.
कुमार्ग पुष्कति पादवगणा,
सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं । ददति गुरुराह अत एव ' ॥
उपयम्मि आगए संते 1 फलं च कालेण बंधति ||
९९. किन्तु गिही रंधंती, समणाणं 'कारणा महासमयं । मा समणा भगवंतो, किलामएज्जा अणाहारा ॥ ९९।१. समणऽणुकंपनिमित्तं पुष्णनिमित्तं च गिमिवासी उ कोई भणेज्ज पागं, करंति सो भण्णइ न जम्हा' || १००. कंतारे दुब्भिक्खे, आयंके वा महइ" समुप्पन्ने । रति समणसुविहिया, सव्वाहारं न भुंजंति ।। १०१. अह कीस पुण गिहत्या, रति आदरतरेण' रंवंति । समणेहि सुविहिएहि, चव्विहाहारविरहि । १०२. अस्थि बहु गाम-नगरा, समणा जत्थन उर्वेति नवसंति । तत्थ वि रंधंति गिही, पंगती एसा गिहत्थाणं ।। १०३. पती एस गिहीणं, जं गिहिणो गाम-नगर-निगमेसुं । रंधति 'अपणो परियणस्स' 'अट्ठाए कालेणं " ॥ १०४. 'एत्थ समणा सुविहिया", परकड - परनिट्ठियं विगयधूमं । आहारं एसंती", जोगाणं साहट्टाए ।
་་
१. ९७११ गाया हाटी में निगा के क्रम में प्रकाशित है। दोनों चूर्णियों में इस गाथा का संकेत न होने पर भी भावार्थ मिलता है। यह गाथा स्पष्ट रूप से भाष्य की प्रतीत होती है क्योंकि इसमें ९७ की गाथा का ही स्पष्टीकरण है तथा इस गाथा के उत्तरार्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'गुरुराह अत एव' । भाष्यकार ही निर्मुक्तिकार के बारे में ऐसा उल्लेख कर सकते हैं । (देखें परि. गा. ११)
१
२. कारणे मुविहिया (जिनू), कारणा सुवि- ११. एत्य य समणसुवि हियाणं (अबू) |
बस्सी (हारा) |
३. यह गाया टीका में निगा के क्रम में व्याख्यात है। मुनि पुण्यविजयजी ने अचू में इसे निगा
४.
५.
६.
७.
के क्रम में स्वीकृत नहीं किया है। यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि यह व्याख्या
रूप है । (देखें परि० १० १२)
दुर्भिक्ले ( जितू ) ।
महया ( अ, ब ), महई (अच्) ।
आयात ( रा० ) ।
इस गाथा का जिचू मे कोई उल्लेख नहीं है । देसा (अच्) ।
९. परियणस्स अप्पणी ( रा ) ।
१०. कालेण अट्ठाए (अ,ब,रा) ।
३१
१२. एसति (हा ) ।
O
( अचू ), तत्थ समणा
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३२
१०५. नवकोडीपरिसुद्ध, छट्टा रक्खट्टा, १०६. विट्ठतसुद्धि एसा, संतो विज्जंती त्तिय
१०७. धारेइ तं तु दव्यं भावे विहंगमो पुष, १०८. विमागासं भण्ण,
उग्गम उपाय सणासुद्धं । अहिंस-अणुपालणट्टाए' ।। उवसंहारो य सुत्तनिद्दट्टो | संति सिद्धि च साहति ॥ तं दद्य्वविहंगमं वियाणाहि । गुणसण्णा सिद्धिओ दुविहो || गुणसिद्धी तप्पइट्टिको लोगो । तेण उ विहंगमो सो, भावत्थो वा गई दुविहा || १०९. भावगई कम्मगई, भावगई पप्प अस्थिकाया उ । सवे विहंगमा खलु कम्मगईए इमे भेया ॥ ११०. विहगगई चल गई, कम्मगई उ समासओ दुविहा । तदुदयवेगजीवा, विहंगमा पप्प बिहगई ॥ १११. 'चलणं कम्म गई'' खलु, पडुच्च संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलदव्बाई वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी || ११२. सणासिद्धि पप्पा, विहंगमा होंति पक्खिणो सच्वे । इह पुण अहिगारो, विहायगमणेहि भमरेहि || ११३. दाणेति दत्त गिम्हण, भत्ते भज-सेव फासुगेण्हणया ।
एसतिगम्मि निरया, उवसंहारस्त सुद्धि इमा ॥ ११४. अवि भमरमधुकरिगणा, अविदिष्णं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुणे भगवंतो नादिण्णं भोतुमिच्छति ॥
१. टीकाकार हरिभद्र ने इस गाथा को
'भिन्नकर्तृकी' माना है। दोनों चूणियों में यह नियुक्ति गाथा के क्रम में व्याख्यात है । यह गाथा मूलाधार में भी है। हमने इसे निगा के रूप में स्वीकृत किया है।
२. १०६-१३ की गाथाओं का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु टीकाकार हरिभद्र ने नियुक्ति गाथा के रूप में इनकी व्याख्या की है। गा. १०६ की व्याख्या में टीकाकार कहते हैं— चोक्तं नियुक्तिकारण संति विज्जति त्तिय (हाटी प ६८) तथा १०७वीं गाया के प्रारंभ में भी---अवयवार्थ सूत्रस्पशकनियुक्त्या प्रतिपादमति (हाटी प ६८) १०८वीं गाया के बारे में भी नियुक्ति
निर्मुक्तिपंचक
कारेणाभ्यधायि (हाटी प ६९ ) का उल्लेख किया है । इन उल्लेखों से यह तो स्पष्ट है कि हरिभद्र के समक्ष ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध थीं। चूर्णि में इन गाथाओं का उल्लेख न होने का कोई स्पष्ट कारण प्रतीत नहीं होता ।
३. विजहाति विभुति जीवपुद्गलानिति विह (हाटी प ६९ ) ।
४. चलनं कम्मराई (ब. हा) | ५. विहास (हा ) |
6
६. दाणिति ( अ ), दाणे ति ( ब ) | ७.० महुयरगणा (हा, रा), ८. आदियंति (जि) ।
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दसवैकालिक निर्मुक्ति ११५. असंजतेहिं' भमरेहि, जदि समा संजता खलु भवति ।
एय उवमं किच्चा, नूणं अस्संजता समणा ।। ११६. उवमा खलु एस कता, पुवुत्ता देसलबखणो वयणा'।
अणियतवित्तिनिमित्तं, अहिंसअणुपालणट्टाए ।। ११७. जह दुमगणा उ तह नगर जणवया पयण-पायणसभावा।
जह भमरा तह मुगिणो, नवरि' 'अदत्तं न भुजति ।। ११८. कुसुमे सभावपुप्फे, आहारंति भमरा जह तहेव" ।
भत्तं सभावसिद्धं, समणसुविहिता गसंति ।। उवसंहारो भमरा, जह तह समणा वि अवधजीवि ति।
दंत त्ति पुण पदम्मी, 'णातव्वं वक्कसेसमिणं' ।। १२०. 'जह एस्य चेव'"इरियादिएसु सम्मि दिक्खियपयारे।
तस-थावरभूयहियं, जयंति सम्भावियं साहू ।। १२०।१. उनसंहारविसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं ।
चुच्चंति साहुणो ति य, जेणं ते महुयरसमाणा" ।। १२०१२. तम्हा दयाइगुणसुद्विएहि भमरोव्व अवहवित्तोहि ।
साहूहिं साहिउ त्ति, उक्किठें मंगलं धम्मो ।। १२०।३. निगमणसुद्धी तिथंतरा१२ वि धम्मत्यमुज्जया विहरे ।
भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति" ।। १२०॥४. न य उग्गमाइसुद्ध, मुंजती महयरा वाणुवरोही।
नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहू निच्चकालं पि ।। १. अस्संज • (अचू), असंजएहि (हा), असंज- इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता। एहिं (भिकू)। .
इन गाथाओं में उपसंहार विशुशि और २. एवं (हा,अ)।
निगमनशुद्धि का उल्लेख है। ये गाथाएं ३. तृतीयार्चा पेह पंचमी (हाटी ५७३)
व्याख्यात्मक हैं, अतः भाष्य की होनी चाहिए ४. पवर (जिचू)।
क्योंकि नियुक्तिकार प्रायः इतने विस्तार से ५. अदिण्णं न गेण्हंति (अचू)।
किसी भी विषय की व्याख्या नहीं करते। ६. सहावफुल्ले (हा,ब)।
तथा इन चार गाथाओं को नियुक्ति के क्रम ७. तहा उ (हा)।
में न रखने पर भी विषय वस्तु की क्रमबद्धता ८. दत्ति (अब), दति (अ)।
में कोई अंतर नहीं आता। (देखें परि १ ९. णाययो वर्षकसेसोऽयं (हा)।
गा. १३-१६) १०. जो एत्थेवं (जिचू)।
१२. . तरी (रा)। ११. १२०।१-४ ये चार गाथाएं हाटी में निगा के १३. करेंति (रा)।
क्रम में प्रकाशित हैं। किन्तु दोनों चणियों में
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नियंक्तिपंपक
१२१. कायं वायं च मणं च, इंदियाइं च पंच दमयंति' ।
धारेंति बंभचेर, संजमयंती' कसाए य ।। १२२. जंच तवे गुस्सा, रोशि धुरातन' पुर्ण ।
तो साधुणो त्ति भण्णंति, साहवो निगमणं चेयं ।। १२३. ते उ 'पतिण्ण-विभत्ती', हेउ-विभत्ती विवक्खपडिसेहो ।
दिट्ठतो आसंका, तप्पडिसेहो निगमणं च । १२३।१. धम्मो मंगलमुक्किळं ति, पइगणा अत्तवयणनिद्देसो ।
सो य इहेच जिणमए, नन्नपथ पइण्णपविभत्ती ॥ १२३६२. सुरपूइओ त्ति हेऊ, धम्मट्ठाणे ठिया उजं परमे।
हेविभत्ती निरुवहि, जियाण अवहेण य जियंति ।। १२३।३. जिणवयणपदुठे वि हु, ससुराईए अधम्मरुइणो वि ।
मंगलबुद्धीइ जणो, पणमइ आई विपक्खो ।। १२३॥४. बितियदुयस्स" वियक्खो, सुरेहि पुज्जति 'जण्णजाई वि"।
बुद्धाई वि सुरनया, बच्चते णायपडिवक्खो। १२३।५. एवं तु अवयवाणं, चउण्ह पडिबक्खु पंचमोऽवयवो।
एत्तो छट्ठोऽवयवो, विश्व पडिसेह तं" दोच्छ ।। १२३।६. सायं समत्त पुमं, हास-रई आउनामगोयसुहं ।
धम्मफलं आइदुगे, विवक्षपडिसेह मो" एसो।।
१. दमईति (हा)।
कहते हैं कि-'व्यासाचं तु प्रत्यवयवं वक्ष्यति २. ०यंति (रा, हा)।
ग्रंथकार एव' इस वाक्य से यह स्पष्ट होता है। ३. साहू (अ, ब, हा)।
कि भाष्यकार ने गा.१२३ की व्याख्या में ४. भन्नइ (अ, ब)।
इन गाथाओं की रचना की हो। ये गाथाएं ५. साहणो (रा)।
निगा की नहीं होनी चाहिए क्योंकि नियुक्ति६. पण विसुद्धी (जिचू)।
कार किसी भी विषय की इसनी विस्तृत ७. वं (ब)
व्याख्या नहीं करते। (देखें परि. १ गा. ८. पाठांतरं वा साध्यवचननिर्देश इति (हाटी १७-२७)। प७५)।
१०. बीय ० (रा)। ९. १३३/१-११ ये ११ गाथाएं टीका में निगा ११. जहण्णजाईहि (रा)।
के क्रम में व्याख्यात है किन्तु धूणि में इनका १२. वुतते (अ)। कोई संकेत नहीं मिलता। गा. १२३वीं गाथा १३. णं (रा)।। की व्याख्या ही इन ११ गाथाओं में की गई १४. मो इति निपातो वाक्यालंकारा (हाटी प ७८) है।१२।१वीं गाया के प्रारंभ में टीकाकार
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दशकालिक नियुक्ति
१२३।७. अजिइंदिय सोबहिणो, वधगा जइ ते वि नाम पुज्जति । अम्गी वि होज्ज सीओ, हेडविभत्तीण पडिसेहो || १२३८. बुद्धाई उदयारे, पूयाठाणं जिणा उ सम्भावं । दितप डिस्सेहो छुट्टो एसो अवयवो १२३।९. अरहंत' मग्गगामी दिनो साहुणो विसमचित्ता । पागरएसु गिहीसु एते अबह्माणा उ ॥
१२३।१०. तत्थ भवे आसंका, उद्दिस्स जई विकारए पागो । तेण र विसमं नायं वासतथा तस्स पडिसेहे || १२३।११. तम्हा उ सुरनराणं, पुज्जता मंगलं सया धम्मो । समो एस अवयवो पइण्णहेऊ पुणो वयणं ॥ 'दुमपुफियनिज्जुती, समासओ वष्णिया विभासाए । जिण चउदसपुग्यो', वित्यरेण कहति से अत्यं* ॥ णायम्मि गिहियवे अगियिव्वम्मि चैव अत्यमि । जयव्यमेव इयर जो उवदेसो सो नयो नाम ॥ बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । जं चरणगुणडिओ साहू |
दुमपुष्यिनिज्जुसी सम्मत्ता
१२४.
१२५.
१२६.
सब्वेसि पि नयाणं, तं सव्वनयविसुद्ध
उ ॥
१. अरि ० ( अ ) । २. दुमपुरियाए णिज्जुतिसमासो वणिओ विभासाय (अचू, ब) । ३. पोट्स ० ( अ ) ।
४. अट्ठे ( अबू, हा)। इस गाथा से स्पष्ट है कि यह गाय भद्रबाहु प्रथम के बाद जोड़ी गई है। क्योंकि यदि वे स्वयं लिखते तो 'जिण उद्दसमुष्वी वित्यरेण कयंति से अत्यं, ऐसी बात नहीं कहते। यह गाथा हाटी में नहीं मिलती।
३५
५. इति ( अ, ब ) ।
६, ७. देखें अनुद्रा ७१५ ५, ६ ये दोनों गाथाएं प्राय: सभी अध्ययनों के अंत में संकेत रूप में मिलती हैं। लेकिन सभी स्थलों पर इनको निर्वृक्ति गाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है। जहां ि टीका या आदर्शो में पूरी गाथाएं दी हुई हैं वहीं हमने इनको नियुक्ति गाथा संख्या के क्रम में जोड़ा है।
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नियुक्तिपंचक १२५. सामण्णपुज्वगस्स' तु, निक्लेवो होइ नामनिष्फन्नो।
सामण्णस्स चउक्को, तेरसगो पुब्बगस्स भवे ।। १२८. समणस्स त निक्खेवो, चउठिवहो होति आणुपुब्बीए ।
दम्वे सरीर भविमओ, 'भावेण उ'संजो समणो ।। १२९. जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
न हणति न हणावेति य सममणई तेण सो समणो' ।। १३०. नत्थि 'य सि कोइ' वेसो', पिओ व सब्बेसु चेव जीवेसु ।
एएण होति समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ । १३१. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होति पावमणो।
सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु" । १३२. उरग-गिरि-जलण-सागर-नभतल"-तरुगणसमो 'य जो" होइ।
भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पत्रणसमो 'य सो समणो" ।। १३३. विस-सिमित वात जुस, कणिमा ध्यानसरेण "सरपे ।
भमरंदर-नड-कुक्कुद्ध, अद्दागसमेण भवितव्वं ।। १३४. पवइए मणगारे, पासंडी चरक तावसे भिक्ख ।
परिवायए य समणे, निग्गथे संजते मुत्ते ।।
१. • पुरुषयस्स (जिचू)। २. उ (हा)। ३. चउक्कओ (हा)। ४. होइ (हा)। ५. भावे उण (जिबू)।
सम अणइ () सम अणए (रा)। ७. अनुदा ७०८।३, विमा. ३३१५ । ८. से कोति (अचू), सि तस्य (हा)। ९. बेस्सो (विभा)। १०. अनुद्वा ७०८१६, आवनि ५६८, विभा
१४. जओ (हा), यतो (अ, रा, अचू)। १५. अनुवा ७०८।५। १६. वाउ (अ), वाउ (जिचू)। १७ कणवीर (अबू)। १८. होयध्वं (हा) होइव्वं (रा) यह गाया दोनों
चणियों में नियुक्तिगाथा के रूप में व्याल्पात है। टीकाकार ने इस गाथा की ध्यासमा तो की है किन्तु इयं किल गाथा भिन्नकर्तकी अतः पवनादिषु न पुनरुक्तदोषः'-ऐसा उल्लेख किया है । यह गाया सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। हमने इसे निगा के क्रम में
रखा है। १९ पासंडे (हा)। २०. परिवाइए (हा), परिश्वायओ (जिच)।
११. अनुवा ७०८।४, आयनि ८६७, विभा
३३१७३ १२. गगण (अबू), नयल (रा)।
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दशवकालिक नियुक्ति
१३५. 'तिण्णे ताई दविए", मुणी य खंते य दंत दिरए य ।
___ लूहे तीरट्ठी ऽवि' य, वंति समणस्स नामाई ।। १३६. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले' दिसि ताव खेत्ते य ।
पण्णवग पुग्ववत्यू, पाहुड-अइपाहुडे भावे ।। १३७. नामं ठवणाकामा, दमकामा य म :
एसो खलु कामाणं, निक्खेबो चउविहो होइ' 11 १३८. सद्द-रस-रूव-गंधा, फासा उदयंकरा य जे दग्या ।
दुविधा य भावकामा, इच्छाकामा" मदणकामा ।। १३९. इच्छा पसत्थमपसत्थिगा य मयणम्मि 'वेद उबओगो ।
तेणऽहिगारो तस्स उ, वदंति धीरा निरुत्तमिणं ।। १४०. बिसयसुहेसु पसत्तं, अबुहजणं कामरागपडिबद्धं ।
उक्कामयंति जीवं", धम्मातो तेण ते कामा । १४१. अन्नं पिय सिनामं, कामा रोग त्ति पंडिया बेंति ।
कामे पत्थेमाणो रोगे, पत्थेति खलु जंतू ।। १४२. नामपदं ठवणपदं दव्वपदं चेव होति भावपदं ।
एक्क्कं पि य एतो, णेगविहं होति नायव्यं ।। १४३. 'आउट्टिम उक्किपण, ओणेज्ज" पीलियं च रंग च।
गंथिम वेढिम-पूरिम-वातिम-संघातिमं छेज्ज'५५ ।। १४४, भावपदं पिय दुविह, अवराहपदं च नो य अवराह ।
'दुविहं नोअवराह, माउग नोमाजगं चेव ।। १. तिष्णो तातो णेया (जिच्), तिणे णेया दविए ८. पसस्था अपसस्था य (जिचू), • मपसत्यगा (अचू)।
(अ), अनुस्वारोऽलाक्षणिक: (हाटी प८६)। २. तीर (हा)।
९. वेदमुव ० (अ, ब, अचू) । ३. काल (अचू)।
१०. अन्ये पठन्ति-उल्कामयन्ति यस्मादिति ४. पबवग (रा)।
(हाटी प८६)। ५ ब प्रति में यह गाथा नहीं मिलती । इस गाया ११.य से (अ, ब, अचू, हा)। के बाद जिचू में 'व्वपुश्वमं गाहा' मात्र इतना १२. आओडिममुक्किषण (अचू) । ही उल्लेख मिलता है तथा इसकी व्याख्या भी १३ उणिज्ज (थ, जि), उण्णेज्ज (हा), उवमिलती है। किन्तु इस गाथा का संकेत किसी पिछले (रा)। भी आदर्श में नहीं मिलता । टीका और अचू में १४. पीलिमं (अ, हा) । भी यह निर्दिष्ट नहीं है।
१५. संघाइमच्छेज्ज (ब, हा)। ६. पविवहो होह णिक्वेबो (अ, रा)। १६. नोअबराहं दुविहं। ७. . कामा य (जिबू)।
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१४८.
नियुक्तिपंचक १४५. नोमाउगं पि दुविहं, गहियं च पइण्णगं च बोधब्वं ।
गहियं चउप्पयारं, पइण्णगं होइ गविहं' ।। १४६. गज्ज पज्जं गेयं, चुण्ण च चउन्विहं तु गहियपदं ।
तिसमुट्ठाणं सब्द, इति' बैंति सलक्खणा कइणो ।। १४७. मधुरं हेतुमिजुत्त', गहितमपादं विरामसंजुत्तं ।
अपरिमियं चऽवसाणे, कव्वं गज्जे ति नायध्वं ।। पज्ज तु होति तिविहं, सममद्धसमं च नाम विसमं च ।
पाएहि अक्ख रेहि य एव विष्णू कवी बेति ।। १४९, तंतिसम 'वण्णसम, तालसमं५ गहसम लयसमं च ।
कव्वं तु होइ गेयं, पंचविहं गेयसण्णाए ।। १५०. अत्थबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसग्गगंभोरं ।
बहुपायमवोच्छिन्न", गम-णयसुद्धं च चुण्णपदं ।। १५१. इदियविसय कसाया, परीसहा१० 'वेयणा पमादा य"।
एत्ते अवराहपया, जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ।। १५.११. बटारस उ सहस्सा, सोलंगाणं जिहिं पण्णत्ता।
तेसि परिरक्षणट्ठा", अवराहपयाणि वज्जेज्जा५ ॥ १५२. जोगे करणे सपणा, इंदिय-भोमादि समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स निप्फत्ती" ।।
सामण्णपुवगनिजुत्ती सम्मत्ता १. इस गाथा का संकेत दोनों चूणियों में नहीं है ७. बहुपयम • (अचू)। किन्तु भावार्य है । यह अधिक संभव लगता है ८. तु (रा)। कि लिपिकर्ताओं द्वारा इस गाथा का संकेत ९. • विसया (जिन्) । छूट गया हो अथवा स्वयं चूर्णिकार ने ही १०. ० सहे (रा) । सरस समझकर इसका संकेत न दिया हो, ११. वेयणा य उवसग्गा (रा, जिम्, हा)। अन्यथा विषय और क्रमबद्धता की दृष्टि से १२, तेसि (अ)। यह प्रासंगिक लगती है। अतः यह नियुक्ति- १३. पडिर ० (हा)। गाया ही होनी चाहिए। मुनि पुष्पविजयजी १४. ० पए उ (हा)। ने इसे निगा नहीं माना है।
१५. यह गाया दोनों चूर्णियों में संकेतित महाँ है २. इय (स)।
किन्तु चूणि में इस गाथा का भाव एक वाक्य ३. ० निउत्तं (अ, रा, अचू)।
में निर्दिष्ट है। यह भाष्य की गाथा होनी ४. पि (अचू, जिनू)।
चाहिए। ५. तालसमं वण्णसमं (अ, रा, हा)।
१६. उप्पत्ती (अचू, जिचू), पंचगा १११३ । ६. गीयसन्नाए (अ, हा)।
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दगवैकालिक नियुक्ति १५३. नाम ठवणा दविए, खेते काले पहाण पइभावे ।
एएसि महंताणं, पडिवखे खुड्डया होति ।। १५४. पतिखुड्डएण पगतं, आयारस्स तु चतुक्कनिक्खेवो ।
नाम ठवणा दधिए, भावायारे य बोधम्बे' ।। १५५. नामण-धोवण'-चासण-सिक्खावण सुकरणाऽविरोधीणि।
दवाणि जाणि लोए, दवायार बियाणाहि ।। १५६. सण-नाण-चरित्ते, तव आयारे य वीरियायारे ।
एसो भाबायारो, पंचविहो होइ नायव्यो ।। १५७. निस्संकिय-
निखिय, निबितिगिच्छा 'अमूढदिट्ठी य'। उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-भाय । १५७।१. 'अइसेस इडियायरिय, वाइ-धम्मकहि खमग-ने मित्ती।
विज्जा रायागणसम्मता", य तित्थं पभावेति ।। १५८. काले विणए 'बहुमाणे, उवधाणे तहाअनिण्हवणे ।
वंजण-अत्थ-तदुभए, अटुविधो नाणमायारो" ।। १५९. पणिधाणजोगजुत्तो, पहिं समितीहि 'तिहि य'पगुत्तीहि।
एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो" । बारसविहम्मि' वि तथे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिछे । अगिलाइ" अणाजोवी, नायब्वो सो तवायारो५ ॥
१. बोम्वे (अचू, हा)।
द्वार की व्याख्या रूप है। यहां यह प्रसंगवश २. होवण (अचू), धावण (ब, रा, हा)।
लिपिकारों द्वारा लिख दी गई है। यदि यह ३ निभा ६ ।
निर्यक्ति की मानें तो नियुक्तिकार केवल एक ४. चरित्तं (जिधू)।
ही द्वार की व्याख्या क्यों करते? शेष सभी ५. ० दिद्धि य (निभा २३)।
द्वारों की व्याख्या भी करते। इस गाथा को ६. इदि धम्मकहि-वादि-आयरिय (निभा ३३)। निगा के क्रम में नहीं माना है। ७. रायगणसम्मया (हा)।
९. . माणोवहाणे (रा) । ८. इस गाथा का बोनों चूणियों में कोई उल्लेख १०. सह महा)। नहीं है । टीका में यह नियुक्तिमाया के क्रम में ११. मकार अलाक्षणिक: निभा ८ ! प्रकाशित है। मूलत: यह गाया निधीयभाष्य १२. तिहिं य (अ, निभा), तीहिं (र, रा)। (गा. ३३) की है। वहां निस्संकिय (१५७) १३. निभा ३५। द्वारगाषा के प्रत्येक तार की विस्तृत व्याख्या १४. . लाए (निभा, अचू)। की गई है। १५७।१ गाथा आठवें प्रभावना- १५. निमा ४२, पंकभा १२१४, तु पंवना ५६१ ।
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x.
१६१. afra तलविरिओ, परक्कमति जो जहुप्तमा उत्तो' । जुंज य जहत्थामं, नायम्वो वीरियायारो ॥ अत्थकहा कामकहा, धम्मका चेय मीसिया' य कहा । एतो एक्heat fव य णंगविद्दा होइ नायच्वा ।। विज्जा - सिप्पमुवाओ, अणिवेओ संचओ य दक्खतं । सामं दंडो भेओ, उवप्पयाणं च अत्थकहा ॥ १६३।१. सत्या हसुन, दक्खत्तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेणं । बुद्धीए अमच्चसुओ, जीवइ पुण्णेहि रायसुख ।। दक्खत्तणगं" पुरिसस्स, पंचगं सद्दकमाहु" सुंदरं । बुद्धी पुण साहस्सा, सय सहस्साइं पुण्णाई ॥ रूवं वयो य वेसो, दक्खिण्ण सिक्खियं च विसएसुं । दिट्ठ सुयमणुभूयं च संथवो चैव कामकहा || १६६. धम्म कहा बोधव्वा, चव्विहा धीरपुरिसपण्णत्ता । redator विक्खेवण, संवेगे वेव निव्वेगे" ॥ आयारे ववहारे, पण्णत्ती चैव दिट्ठिवाए य । एसा चउन्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होइ४ ।। विज्जा चरणं च तवो", पुरिसक्का रोय समिति-गुत्तीओ। उवदिस्सर खलु जहिये, कहाइ अक्खेवणीइ रसो ||
१६५.
१६२.
१६३.
१६४.
१६७.
१६८.
१. ० तमुवउत्तो ( रा ) ।
२. जहाथामं ( अ, अचू, हा) ।
३. निभा ४३, तु, पंकमा ११३६, मूला. ४१३ ।
४. एव (जिजू ) ।
५. मिस्सिया ( अ, ब ) ।
६. सिप्पे उदाओ ( जिबू) ।
७. अणुध्य ( ब ) ।
o
5.
. बुद्धीएँ (हा, रा) ।
९. इस गाथा की कथा दोनों चूर्णियों में उपलब्ध है। मुनि पुण्यविजयजी ने इसे निर्मुक्तिगाथा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है। हस्तप्रतियों में यह गाया मिलती है किन्तु ऐसा संभव है। कि चूर्णि की कथा के आधार पर यह गाथा टीका में बाद में जोड़ दी गई हो । निर्मुक्तिकार इतने विस्तार से किसी भी कथा का उल्लेख
नियुक्तिपंचक
न कर मात्र संकेत करते हैं। अगली गाथा से भी कथानक समझा जा सकता है ।
१०० गये (जि), ० जयं (हा) ।
११. सयग ० (अ) |
१२. दत्तं (हा) |
१३. निध्येगो (ब), निव्वेए (अच्), तु. ठाणं
४।२४६ ।
१४. यह गाथा बचू में व्याख्यात है लेकिन गाया के रूप में इसका उल्लेख नहीं है। जिचू, टीका और सभी हस्त आदर्शों में यह गाथा निर्मुक्तिगाथा के क्रम में मिलती है । तु. ठाणं ४।२४७ ।
१५. ततो ( अ ) |
१६ पुरिसाकारी ( रा ) ।
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देशकालिक नियुक्ति
१६९. कहिऊण ससमयं तो कई परसमयमह् विवज्जासो' । मिच्छा 'सम्मावाए, एमेव हवंति दो श्रेया || होइ कहा लोग वेयसंजुत्ता । एसा विक्खेवणी नाम || अक्वायातं छुभेज्ज परसमए । परस्स समयं परिहेति ॥ १७२. आय पर सरीरगया, इहलोए चैव तह य परलोए । एसा चढव्विहा खलु कहा उ संवेयणी होइ ॥ १७२. वीरिय विणिड्डी', नाण चरण-दंसणाण' तह हड्डी | उस्सs खलु जहियं, कहाइ संवेयणी* रसो ।। १७४. पावाणं कम्माणं, असुभविवागो कहिज्जए" जत्य । इह य परत्य य लोए, कहा उ निव्वेयणी नाम | १७५. थोवं पि पमायकयं, कम्मं साहिज्जए" जहि नियमा । परासुपरिणाम", कहाइ निव्वेयणीइ रसो" ।। १७६. सिद्धी य देवलोगो, सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो । नरगो तिरिक्खजोणी, कुमाणुसत्तं च निव्वेओ" ।। १७७. वेणइयस्स पढमया, कहा उ अक्खेवणी कहेतव्वा । तो ससमयग्रहितत्थे, कहेज्ज विक्खेर्वाण" पच्छा ||
१७०. जा ससमयवज्जा खलु, परसमयाणं च कहा,
१७१. जा समएण पुष्यि, परसासण वक्खेवा,
१. विवच्चासा (हा ) ।
२०
बाओ एवं वियहुति ( अ ),
• एवं वि य होइ च भेओ (ब), १६९-१७२ तक की गाथाओं की व्याख्या जिचू में उपलब्ध है लेकिन गाथाओं का उल्लेख नहीं है। अचू में भी १६९ तथा १७२ गाथा की व्याख्या है, पर गाथाओं का उल्लेख नहीं है । टीका और सभी आदशों में ये गाथाएं उपलब्ध हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से ये गाथाएं पूर्वापर की गाथाओं से जुड़ी हैं, अतः इनको निगा के क्रम में जोड़ा है ।
सु. ठाणं ४।२४५ ॥
३. सरीरम्मी ( अ, ब, रा) । ४. नाम ( बरा), तु. ठाणं ४१२४९ ।
५.
६.
विउरुवणड्ढी (ब) ।
दंसणस्स (अच्) ।
संवेइणी ( ब ) 1
अहिज्जए ( ब ) ।
७.
८.
९. तु. ठाणं ४ २५० ।
१०. ० ज्जई (रा. हा ) |
४१
११. वयासह ० ( अ, ब, रा) ।
१२. इस गाथा का दोनों चूणियों में कोई उल्लेख
नहीं है। किन्तु टीका और आदशों में यह गाथा मिलती है। यहां यह गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से भी प्रासंगिक लगती है । १३. जिनू में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है । १४. ० वर्णी (अनू, हा) ।
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४२
१७८. अवखेवणि अक्खित्ता, विक्वणीऍ भज्जं १७९. धम्मो अत्यो कामो
जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । गाढतरागं च मिच्छतं ॥ उवइस्सइ जत्थ सुत्तकध्वेसु । लोगे वेदे समए सा उकदा मीसिया नाम ॥ १८०. इस्थिकहा भक्तकहा रायकहा चोर जणवयकहा य । नङ-न जल्ल-मुट्ठिय कहा उ एसा भवे विकहा ।। १०१. एता देव कहाओ', 'पण्णवग परूवगं" समासज्ज | अकहा कहा य" विकहा 'व होज्ज'' पुरिसंतरं पप्प || १८२. मिच्छतं वेदंतो, 'जं अण्णाणी कहं परिकहेति ।
लिंगस्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए || १८३. तब संजम गुणधारी, जं चरणरया" कर्हेति सन्भावं । सब्बजगज्जीवहियं सा उ कहा देसिया समए ॥ १८४. जो संजतो" पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे, पण्णत्ता धीरपुरिसेहि || १८५. सिंगाररसुतइया मोहकुवित फुंफुगा" सहसंती" । जं सुणमाणरस कहूं, समणेण न सा कहेयब्बा || समणेण कतव्या, तव नियम - कहाविरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणुस्सो५, वच संवेगनिव्वेद" ।। १८७. अत्थमहंती व कहा, अपरिकिलेस बहुला' "कहेतब्बा । हंदि महया चडगरत्तणेण अत्यं कहा ह" ॥
१८६.
a
१.
वणी (हा ) ।
२. जिबू में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है । ३. जिजू में इस गाथा के स्थान पर मीसिया कहा - लोइय वेश्य गाहा - ऐसा उल्लेख है । ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चार्द्ध गाथा का 'लोगे वेदे' के स्थान पर यह पाठ रहा है । य (रा) ।
४.
५. कहातो (अच्) ।
६. पण्णवयपरूव मे (हा)
७. व (अच्) ।
८. हविज्ज (हा ), व हुज्ज (अ) ।
९. अन्नाणी जं कहूं ( अ, रा) । १०. चरणस्थ (दा)।
निर्मुक्ति पंचक
११. संजमो ( जिबू) |
१२. ० रसुग्गुतिया ( अचू), रसुतुइया (रा), ● सुत्तरिया ( अ ) ।
१३. फुंगा ( अ ), फंफेगा ( रा ) ।
१४. महासिति (हा ), सहति ( अचू ) ० हसिती ( रा ) |
१५. मणूसो ( अ, ब ) ।
१६. ० निव्वेगं ( अचू ) ।
१७. व ( अ, ब ) ।
१८. अपरिक्केस ० ( अबू, अ ) ।
१९. हंस ( ब ) ।
२०. कहह ( ब ) |
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दशवकालिक नियुक्ति १८५. 'खेत्तं कालं पुरिस', सामत्यं चऽप्पणो वियाणेत्ता । समग उ अणवजा, पगम्मि कहा कहेयव्या ।।
खुडियाधारकहानिज्जुत्ती सम्मत्ता
१५९. जीवाजीवाभिगमे', चरित्तधम्मो तहेव जयणा य ।
उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाइ' अहिंगारा ।। १९०, छज्जीवणिकाए खलु, निक्खेको होइ नामनिष्फलो ।
एएसि तिण्हं पि उ, पत्तेय परूवणं वोच्छं ।।दार।। १९१. नाम ठवणा दविए, माउगपद संगहेक्कए चेव ।
पज्जव-भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होति ।। १९२. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य ।
एसो उ छक्कगस्सा', निक्लेवो छविहो होइ ।। १९३. जीवस्स उ निक्लेवो परूवणा लक्षणं च अस्थित्त ।
अन्नाऽमुत्तत्तं निच्चकारगो" य देहवावित्तं" ।।दा।। १९४. गुणिउड्डगतित्ते" या निम्मयसाफल्लया य परिमाणे।
जीवस्स तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायवा ॥दार।। १९५. नाम ठवणाजीवो 'दव्वे जीवो" य भावजीवो य ।
'ओहे भवनहम्मि '१४ य तब्भवजीवे य५ भावम्मि ।।
१. खेन देस काल (जिच्), देसं खेतं कालं ८. चम्विहो (रा)।
२. अत्तामुत्तते (अ,ब)। २. व पुणो (न)।
१०. ० कारए (अ,ब)। ३. ० वाहिगमो (हा, अचू)।
११. ० दावित्ति (ब)। ४. . याए (अचू)।
१२. ० उदगतित्ते (बि)।
१३, दब्बजीयो (हा, रा, अच)। ६. यह गाथा यहां पुनरुक्त हुई है। (देखें दशनि १४. ओह भवगह ० (हा, अचू), • भवगहणम्मी
७. छपकगस्स उ (अबरा)।
१५. उ (अ,ब)।
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नियुक्तिपंचक १९६. संते आउयकम्मे, धरती तस्सेव जोवती उदए।
तस्सेब निज्जराए, मओ त्ति सिद्धो' नयमएणं ।। १९७. जेण य धरति भगवतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई' ।
जाणाहि ते भवाउ, चउब्विहं तब्भवे दुविहं ।। १९८. दुविधा य होति जीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि ।
सुहुमा य सव्वलोए, दो चेव य बायरविहाणे ॥ १९९. आदाणे परिभोगे, जोगुवओगे कसाय-लेसा य ।
आणापाणू इंदिय, बंधोदय निज्जरा चेव ।।दार।। २००. चित्तं चेयण सण्णा, विण्णाणं धारणा य बुद्धी य ।
ईहा मती वितक्का, जीवस्स उ लक्खणा एए ।।दारं।।
१. सिद्धा (अ)। २. १९६,१९७ इन दो गाथाओं के आगे टीका में 'भाष्यम्' (हाटी भागा ७,८) लिखा हुआ है। यद्यपि टीकाकार हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के भाष्य होने का कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु मुद्रित प्रति में इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं जोड़ा गया है। आदशो में नियुक्ति और भाष्य की गाथा साथ में ही लिखी गयी है अत: उनके मआधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। दोनों चूणियों में ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात है। विषयवस्तु और क्रमबद्धता की दृष्टि से भी ये नियुक्तिमाथा प्रतीत
होती है। ३. • मइ (अ)। ४. दुविहा (हा, अधू)। ५. प्रस्तुत गाथा के आगे टीका की मुद्रित प्रति
में 'भाष्यम्' (हाटी भागा ९) लिखा है लेकिन यह गाथा नियुक्ति की है, उसके कुछ प्रमाण इस प्रकार है
(१) दोनों चणियों में यह निमुक्ति गाथा के
रूप में व्याख्यात है। (२) इससे अगली गाथा भाष्य की है,
जिसको पढ़ने मात्र से स्पष्ट हो जाता है कि १९८ की गाया भाष्य कीन होकर नियुक्ति गाथा हैसुहमा य सव्वलोए,
परियावन्ना प्रति नायवा। दो व बायराणं, पज्जत्तियरे य नायव्वा ।।
(हाटीप १२२) भाग्यकार प्रायः नियुक्ति की व्याख्या करते हैं। कहीं-कहीं पूरा घरण अपनी व्याम्पा में ले लेते हैं, इसमें भी ऐसा ही है। (३) गा. १९३ और १९४ में जीव से संबं
धित निक्षेप आदि १३ द्वारों का उल्लेख है। आगे सभी द्वारों की नियुक्तिकार ने संक्षिप्त व्याख्या की है, फिर इस प्ररूपणा द्वार की माख्या भी नियुक्तिकार को ही होनी चाहिए।
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दशवकालिक निर्यक्ति २०१. सिद्धं जीवस्स अस्थित्त, सद्दादे वाणुमीयते ।
नासतो भुवि भावस्स, सद्दो भवति' केबलो' ।। २०२. मिच्छा भवेउ सव्वत्था, जे केई पारलोइया ।
कत्ता चेवोपभोत्ता य, जदि जीवो न विज्जई ।। २०२।१. लोगसत्याणि......
गाथा भाष्य गाथा के रूप में संकेतित नहीं
१. हवह (हा,अ,ब)। २. मूद्रित टीका की प्रति में गा. २०१,२०२ के
आगे भी "भाष्यम्' (हाटी प १२६) लिखा हा है। दोनों चूणियों में ये गाथाएं नियुक्ति के क्रम में व्याख्यात हैं। यह गाथा निम्न प्रमाणों के आधार पर नियुक्ति की प्रतीत होती है(१) गा. १९३,१९४ में जीव के १३ द्वारों
का उस्लेख है। निक्षेप, प्ररूपणा और लक्षण का वर्णन १९५-२०० तक की गाथाओं में हो गया अत: अब चौथे वार 'अस्तित्व' की व्याख्या इन दो
गाथाओं में हुई है। (२)मा, २०१ की अगली भाष्यगाथा में
टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि 'एत- द्विवरणापवाह भाष्यकारः' (हाटी प १२६) इससे स्पष्ट है कि २०१ गाथा नियुक्ति की है और इसकी व्याख्या इस
गाथा में भाष्यकार ने की है। ३. विज्जह (हा,अ,ब)।
इस गाथा के आगे भी टीका में 'भाष्यम्' लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि मह 'भाष्यम्' रीका की मुद्रित प्रति में संपादक द्वारा लिखा गया है। अन्यथा टीका की व्याख्या तथा हस्त आदर्शों में कहीं भी यह
इससे अगली गाथा स्पष्ट रूप से भाष्य की है क्योंकि भाष्य गाथा २९ (हाटी प १२७) की गाथा में २०२ की गाथा का अंतिम चरण 'जइ जीवो न विज्जई' पूरा चरण ले लिया है तथा २०२ की गाथा की ही व्याख्या की है। भाष्यकार की यह विशेषता है कि ये अनेक स्थली पर नियुक्ति गाथा का पूरा चरण अपनी गाथा में ले लेते हैं। यदि २०२ की गाथा भाष्य की मानी जाये तो फिर भागा २९ (हाटी प १२७) की मात्रा में भाष्यकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करते। इस प्रमाण से चणि की प्राचीनता के आधार पर हमने २०१,२०२ की गाथा को नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है । (देखें-१९६ तथा १९८ का टिप्पण)। ४. २०२ की गाथा के बाद दोनों चूणियों में केवल 'लोगसल्याणि' इतना ही संकेत मिलता है। मुनि पुण्यविजयजी ने पूरी गग्था उपलब्ध न होने पर भी इसे नियुक्ति माथा के क्रमांक में जोड़ा है । (गा. १३९ अचू पृ ६८)। यह किसी भी हस्तपत्ति में नहीं मिलती अत: इसे निगा के क्रम में नहीं रखा है।
टिपण)
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निर्यसिपंचक
२०३. 'लोइगा वेइगा' चेव, तहा सामाइया विऊ ।
निच्चो जीवो पिहो देहा, इति सब्वे ववत्थिया' ।। २०४. फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झती कायससितो।
नाणादोहिं तहा जीवो, गिज्झती' कायसं सिनो' । २०५. अणिदियगुणं जीवं, दुष्णेयं मंसचक्खुणा ।
सिद्धा पासंति सव्वग्ण, नाणसिद्धा य साहणो । २०६. कारणविभाग कारणविणास बंधस्स पच्चयाभावा ।
विरुद्धस्स य अत्यस्सा पादुब्भावा 5 विणासा यादा।।
१. लोइया वेइया (हा)। २. ववट्ठिया (अ)। इस गाथा का अचू में कोई उल्लेख नहीं है किन्तु जिचू में यह गाया मिलती है। मुद्रित टीका की प्रति में इसके आगे 'भाष्यम्' लिखा है किन्तु यह नियुक्ति की गाथा है क्योंकि इसमें अन्यत्व नामक पाच-द्वार की व्याख्या है तथा इससे अगली गाथा के प्रारंभ में टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि एतदेव व्याचष्टे (मा, ३१ हाटी प १२७) अर्थात इसी गापा की ब्याख्या अगली भाष्यगाथा में की है। भाष्य की व्याख्या से भी यह गाथा स्पष्ट रूप से नियुक्ति की प्रतीत होती है । भाष्य गाथा इस प्रकार हैलोगे अच्छेज्ज भेजो,
बेए सपुरीसदद्धगसियालो। समए जहमासि गओ,
तिविहो दिब्वाइ संसारो।।
(भा. ३१ हाटी प १२७) ३. गिझई (हा), गेज्झती (अचू) । ४. २०४,२०५ की गाथा हाटी में भाष्यनाथा के
कम में हैं किन्तु दोनों चूणियों में नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं। पिछली गाथाएं पूर्वलिखित प्रमाणों से तो नियुक्तिमाथा है ही। साथ ही छंद रचना की दृष्टि से भी नियुक्ति की सिद्ध होती है। टीका में २५, २८,३०,३३,३४ (हाटी प १२६,१२७) की गाथाएं भाष्यगाथा के श्रम में हैं। ये सभी श्लोक अनुष्टुप् छंद में हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सभी माष्यगाथाएं आर्या छंद में हैं। इस प्रमाण से स्पष्ट है कि टीका की मुद्रित प्रति के आधार पर इनको भाष्यगाथा नहीं माना जा सकता । अत: इन पांच गाषाओं को (२०१,२०५) हमने नियुक्तिगाथा माना है। ५. पिछली गाथाओं की भांति यहाँ भी गा.
२०६ की व्याख्या में ११ भाष्य गाथाएं लिखी गयी हैं (भा. ३७-४७ हाटी प १२८१३१) । २०६वीं गाथा की व्याख्या में टीकाकार कहते हैं -"वक्ष्यति च नियुक्तिकार: जीवस्य सिद्धमेवं निच्चसममुसमन्नत्तं (गा, २४०) व्यासार्यस्तु भाष्याचवसेयः (हाटी प १२८)।
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दशकालिक नियुक्ति
२०७. निरामयाऽऽमयभावा', बालकयाणुसरणा दुवत्थाणा' । सोताईहि' अगहणा, जातीसरणा" यणभिलासा | | दारं || सकम्मफलभोयणा' अमुत्तत्ता । निच्चत्तममुत्तमम्नत्तं ॥ दारं
२०८. सब्वण्णुदिता, जीवस्स सिद्धमेवं",
२०९. 'जीवस्स उ परिमाणं
P
वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा थ सुहुमा, तस्स पदेसा असंखेज्जा ।।
२१०. पत्थेण व कुडवेण" व जह कोइ मिणेज्ज सम्वधन्नाई । एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अनंता उ" || . नाम ठवणसरीरे", गती निकायत्थिकाय दविए य । माउग - 'पज्जब-संगह'"-भारे तह भाव - काए य ॥
२११.
१. निरामय आमय ० (बरा) 1
२. दुबट्टाणा (अ)।
३. सुत्ताहि (हा), सोयाईहि ( अ, ब ) । ४. अग्गहृणं (जिचू) ।
४. जाईसरणं (जिचू ) ।
'प्रकृत संबद्धामेव निर्युक्तिगाथामाह' (हाटी १३१ ) इस गाथा की व्याख्या में दो भाष्यगाथाएं ( ४९, ५० हाटी प १३२) लिखी गयी हैं। टीका के अनुसार भी एतामेव निर्युक्तिगाय लेशतो व्याचिव्यासुराह भाष्यकार: (हाटी प १३२) ।
६. ० भोगणं (जिचू) ।
७. सिद्धिमेवं ( अ ) |
८. जीवथिकायमाणं (जिचू) ।
९. २०९,२१० की गाथा टीका की मुद्रित प्रति में भाष्यगाथा के क्रम में उपलब्ध है। लेकिन अबू में यह नियुक्तिगाथा के क्रम में व्याख्यात है। यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए
क्योंकि गाथा १९३,१९४ में जीव के १३ द्वारों का उल्लेख है । उनमें प्रायः सभी द्वारों का नियुक्तिकार ने वर्णन किया है। कुछ द्वारों का वर्णन भाष्यकार ने किया इसका स्पष्ट उल्लेख टीका में मिलता है। २०९, २१० की गाथा में अंतिम द्वार 'परिमाण' अतः यह निगा होनी
की व्याख्या है,
चाहिए ।
४७
जिनदास चूर्ण में इस गाथा से पूर्व 'एगस्स अणगाण य' गाथा का संकेत है। यह गाथा पूर्णरूप से किसी भी आदर्श में नहीं मिलती है तथा हाटी और अन्नू में भी निर्दिष्ट नहीं है।
१०. कुलएण (हा, अ), कुलवेण (जिच्) । ११. हाटी भागा ५७
१२. ० सरीरी ( रा ) 1
१३. संग्रह-पज्जव ( अ ) ।
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नियंक्तिपंचक
२११११. एगो कायो दुहा जातो, एगो चिट्ठति एगो मारितो।
जीवतो मएण मारिनो, तं लव माणच ! केण हेतुणा ?।। २१२. एत्थं पुण अधिकारो, निकायकायेण होति सुत्तम्मि ।
उच्चारितत्थ सदिसाण, कित्तणं सेसगाणं पि ।। २१३. हवं त सं निल-खार-लोणमाईयं ।
भावो तु दुप्पउत्तो, बाया काओ अविरई य' ।। २१४. किंची सकायसत्यं, किंची परकाय-तदुभयं किंचि ।
एतं तु दब्बसत्यं, "भावे य असंजमो' सत्यं ।। 'जोणिन्भूते बीए', जीवो वक्कमति सो व अन्नो वा ।
जोवि य मूले जीवो, सो 'वि य पत्ते पढमयाए । २१६. सेसं सुत्तप्फास, काए काए अहक्कम ब्रूया।
अज्झयणस्था पंच य", पगरण-पद-वंजणविसुद्धा ।। २१७. जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपण्णत्ती। तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा ।।
छज्जोणियानिज्जुत्तो सम्मता
१. मुनि पुण्यविजयजी ने इस गाथा को नियुक्ति ५. आनि ९६,११४,१२४,१५० । गाया के क्रम में रखा है। जिचू में भी इस गाथा ६. बीए जोणिभूए (हा,अ,ब,रा)। का संकेत व व्याख्या मिलती है। टीकाकार ७. दुक्कमइ (हा), दकमइ (ब)। हरिभद्र ने 'वृद्धास्तु व्याचक्षते' ऐसा कहर ८. य (हा)। इसे उद्धृत गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। ९. चिय (आनि १३८) । भाषाशैली की दृष्टि से यह गाथा नियुक्ति १०, इस गाथा को व्याख्या दो भाष्य गाथाओं में की प्रतीत नहीं होती तथा यह गाया यहां की गयी है। (हाटी प १४०,१४१)1 प्रासंगिक भी नहीं लगती। अधिक संभव है ११.उ (रा)। कि बाद के आचार्यों ने यह गाथा लिखी हो १२. यह गाथा मुद्रित टीका में भाष्यगाथा के क्रम जैसा कि हरिभद्र में उल्लेख किया है।
में तथा अचू में नियुक्ति गाथा के क्रम में है। २. सरिसाण (अ,ब)।
हस्त आदर्शों में भी यह गाथा प्राप्त है। चूणि ३. आनि ३६ ।
के आधार पर इसे हमने भी निया के क्रम में ४, भावे अस्संजमो (अचू, हा) 1
रखा है। (हाटी मामा ६०). .
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दशवकालिक नियुक्ति २१७।१. पिंडो य एसणा या, दुपयं नामं तु तस्स नायट्वं ।
चउपनिवखेवेहि, परूवणा तस्स कायग्या' ।। २१८, नाम ठवणापिंडो, 'दब्वे भावे य होति णातव्यो ।
गुड'-ओदणाई दवे, भावे कोहादिया चउरो ।। २१८।१. पिडि संघाए जम्हा, ते उइया संया य संसारे ।
संघाययंति जीवं, कम्मेणट्टप्पगारेण दार।। २१८।२. दव्वेसणा उ तिविहा, सच्चित्ताचित्त-मीसदश्याणं ।
दुपय-चप्पय-अपया, नर-गय-करिसावण-दुमाण । २१८।३. भावेसणा उ दुविहा, पसत्थ-अपसत्थगा य नायब्वा ।
नाणाईण पसत्या, अपसत्था कोहमादीणं ।। २१८१४. भावस्सुवगारिता, एत्थं दब्वेसणाइ अहिगारो।
तीइ पुण अत्यजुत्ती, वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ।।
१. दोनों चूणियों में इस गाथा का कोई उस्लेख
नहीं है। टीका में यह नियुक्ति गाथा के क्रमांक में है। इस गापा से पूर्व टीका में भाष्य गाथा है। यह गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से भाष्यगाथा के साथ जुड़ती है। यह नियुक्ति की प्रतीत नहीं होती। क्योंकि नियुक्तिकार प्रायः 'णाम उवणा' वाली गाथा से ही अध्ययन का प्रारंभ करते
६. २१८।१-४ तक की गाथाओं का दोनों
चूणियों में कोई उल्लेख नहीं है। गा. २१५ के बाद दोनों चूणिकारों ने मात्र इतना संकेत किया है कि-'नाम निप्फणे पिंडनिज्जुत्ती भाणियव्वा' (जिचू पृ. १६५) 'माम निष्फण्णे पिडनिज्जुत्ती सव्वा' (अचू पृ. ९८) ये चार गाथाएं नियुक्ति की हैं या नहीं, यह विवादास्पद है। अन्य अनेक स्थलों पर टीकाकार 'आह नियुक्तिकार: या आह भाष्यकार:' उल्लेख करते हैं वैसा इन गाथाओं के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। हमने इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है। ये भाष्यगाथा ज्यादा संगत लगती हैं। फिर भी इनके बारे में गहन चिन्तन की आवश्यकता है।
२. दवपिडो व भावपिंडो य (जिचू, अ, ब)। ३. गुल (अ, ब, अचू, रा)। ४. ओषणा म (अ, ब)। ५. पिंडनियुक्ति में कुछ अंतर के साथ निम्न
गाथा मिसती हैनाम उवणापिंडो,
दवे खेते म काल भावे य । एसो बसु पिंडस्म उ, निक्लेवो छब्बिहो होइ 11
(पिनि ५)
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नियुक्तिपंचक २१९. पिडेसणा य' सव्वा, संखेवेणोयरइ नवसु कोडीसु ।
न हणइ न पयइ न किणह, कारावण-अणुमईहिं नव ।। २१९।१. सा नवहा दुह कीरइ, उग्गमकोडी विसोहिकोडी य ।
छसु पकना औपर, कीय-निगमो विसोही ॥ २२०. कोडोकरणं दुविह, उग्गमकोडी विसोधिकोडी य ।
उगमकोडी छक्क, विसोधिकोडी 'भवे सेसा ॥ २२०११. कम्मुसिय चरिम तिग, पूतियं मीस चरिम पाहुडिया ।
अझोयर अविसोही, विसोहिकोडी भवे सेसा ।। २२१. नव 'चेवढारसगं, सत्तावीसं तहेव चउपपणा ।
नउती दो चेव 'सता उ सत्तरा होंति कोडीणं ।। २२११. रागाई मिच्छाई, रागाई समणधम्म नाणाई। ___ नव नव सत्तावीसा, नव नउईए य गुणगारा ।।
“पिडेसणानिनुत्ती समत्ता १.उ (ब,ब)।
५. इस गाथा का भी चूणि में कोई उल्लेख नहीं २. करावण (ब,रा)।
है। यह गाथा २२० की व्याख्या में लिखी इस गाथा का भावार्थ दोनों चणियों में गई है ऐसा संभव लगता है अतः यह भाष्यमिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि गा. गाथा होनी चाहिए। २१८ के बाद यह गाथा नियुक्ति की होनी ६.० सगा सप्तावीसा (हा)। चाहिए क्योंकि चूणि में २१८ की गाथा के ७. नई (हा,अ,ब,रा)। बाव केवल इसी गाथा की संक्षिप्त व्याख्या ८. सया सत्तरिया हंति (हा), सया सप्तरी होति मिलती है। हमने इसको नियुक्तिगाथा के क्रम में संलग्न किया है।
९. इस गाथा की व्याख्या टीका और चणि ३. इस गाथा का चणि में कोई उल्लेख नहीं है। दोनों में नहीं मिलती। मृद्रित टीका के
इस गाथा को हमने निगा के क्रम में सम्मि- टिप्पण में 'प्रतिभातीयं प्रक्षिप्तप्राया ऐसा लित नहीं किया है। क्योंकि अगली माथा में उल्लेख है फिर भी संपादक ने इसको नियुक्ति
भी इसी गाथा का भाव प्रतिपादित हुआ है। माथा के क्रमांक में जोड़ा है। यह माथा ४. अणेगविहा (अ.रा)।
हस्त आदशों में मिलती है किन्तु किसी भी इस गाथा की उत्थानिका में स्थविर व्याख्याकार ने इसको व्याख्यायित नहीं किया अगस्स्यसिंह ने 'एत्य निष्णुसिगाहा' का है, इसलिए हमने इसको नियुक्तिगाथा के उल्लेख किया है। किंतु आचार्य हरिभद्र ने क्रम में संलग्न नहीं किया है। आदर्शों में तो इसे स्पष्ट रूप से भाष्य गाथा मानते हुए लिपिकारों द्वारा नियुक्तिगाथा के साथ लिखा है-'एतदेव व्यापिण्यासुराह भाष्य- प्रसंगवश अन्य अनेक गाथाएं भी लिखी गयी कारः' (हाटी प १६२ मग्गा ६२) चालू हैं अत: उनको पूर्ण प्रामाणिक नहीं माना जा प्रसंग एवं पौर्वापर्य के औचित्य के आधार पर सकता। माह नियुक्ति की गाथा होनी चाहिए।
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दशवकालिक नियुक्ति २२२. 'जो पुद्धि' अद्दिट्टो', आयारो सो अहीणमरित्तो ।
'सा चेव" य होइ कहा, आयारकहाइ महईए ।। २२३. धम्मो बावीसतिविहो, अगारधम्मोऽणगारधम्मो य ।
पढमो य बारसविहो, दसहा पुण बितियओ' होति ।। २२४. पंच य अणुव्वयाई, गुणव्वयाई च होंति तिन्नेव ।
सिक्खावयाई चउरो, मिहिधम्मो बारसविहो उ ।। २२५. खंती या मद्दवज्ज्जव, मुत्ती तव-संजमे य बोधव्वे ।
सच्चं सोचं अकिंचणं च, बभं च जइधम्मो ।। २२६. धम्मो एसुवदिट्ठो, अस्थस्स चउब्विहो उ निक्लेवो ।
लोहेण छविहऽत्यो, चउट्टिविहो विभागेण ।। २२७. धन्नाणि रतण थावर, दुपद चउप्पद तहेव कुवियं च ।
ओहेण छविह्ऽत्यो, एसो धीरेहि पपणत्तो" ||दारं।। २२८. 'चउवौस चउबोस २, तिग-दुग-'दसहा अणंगहा चेवं"।
'सम्वेसि पि इमेसि', विभागमह संपवक्खामि ।। २२९. धनाणि५ चउम्वीस, जव-गोधुम'" सालि-वीहि सट्ठीया।
कोद्दव अणुका कंगू, रालग तिल मुग्ग मासा य ।।
१. जह पेव य (अचू), पुरुवं जधा य (जिचू)। १२. चवीसा चउबीसा (हा, जि, ब, रा)। २. निट्टिो (रा)।
१३. दसहा य होयणेगविहो (अचू) दसहा ३. सच्चेव (म,ब,हा)।
अणेगविघं (निभा) दसहा अणेगविह एव ४. . कहाए (अचू)।
हा)। ५. बावीसविहो (जियू, हा, अ) ।
१४. ० विभागमा पवक्खामि (हा), एएसि तु ६. बीयओं (हा.अ,ब), बीइओ (रा) ।
पदाणं पत्तेयपरूवणं वोच्छा (अ,रा) तु. ७. • वया य (अचू)।
निभा १०२८ । ८. य (हा)।
१५. धन्नाई (हा)।
१६. चउबीसं (व)। १०. धण्णा (निभा)।
१७. गोहुम (हा, अ, ब, मिभा)। ११. तु. निभा १०२८ । निभा को १०२८ की गाथा १८. सष्टिया (निया)।
के दो चरण २२७ के पूर्वार्द्ध तथा दो चरण १९. अणया (निभा), अणुया (हा, अ, ब)। २२८ के उत्तरार्ध में बाए हैं।
२०. देखें-मिभा १०२९ ।
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५२
२३०. अतसि-हरिमंथ' तिपुडग' - " निप्फाव सिलिद" रायमासा य । इक्खू मसूर तुवरी, कुलत्थ तह धनग कलाया' ।। दारं || २३१. रयणाणि चतुव्वीसं', 'सुवण्ण-तउ'' तब रयय- लोहाई । सीसग - हिरण- पासाण - वइर" - मणि- मोत्तिय पवालं ॥ २३२. संखो" तिणिसागरु " - चंदणाणि वत्थाऽऽमिलाणि कट्टाणि ।
तह 'चम्म- दंत'" बाला, गंधा दव्योसहाई च || दारं || २३३. 'भूमी घर-तरुगणा य४, तिविधं पुण थावरं मुणेयव्वं ।
चक्कार बद्ध माणुस दुविधं पुण्ण होति दुपयं तु ॥ दारं ॥ २३४. गावी 'महिसी उट्टी", अय- एलग - आस आसत रगा य ।
घोडगद्दहत्थी, 'चतुष्पदा होंति दसधा तु'६ ॥ दारं ॥ २३५. नाणाविहोवकरणं, णेगविहं कुप्पलक्खणं होति ।
एसो अत्यो भणितो, छब्बिह् चतुसट्टिभेओ उ" ।। २३६. कामो उवीसतिहो, संपत्तो खलु तहा असंपत्तो । संगत चहा" सा पुण होय संपठो ||
१. हरिभिय (अ), हिरिमंथ ( निभा), हरिमित्य ( रा ) |
भूमी घरा य तरुगण (हा ) |
२. विजयन (हा. ब) |
१५. तु नायव्वं ( अ, ब ), समासेणं ( निभा ) । १६. निभा १०३३ ।
३. निष्फrasलिसिद ( अ ), निफाव अलसिद १७. उट्टी महिसी ( निभा), उट्टा (हा, जिचू) ।
0
१८. गद्दह (हा, अ, ब ) ।
१९. उप्पयं होति दसहा उ ( अजू, हा) निभा १०३४ ।
२०. ० वगरण (हा, अ, ब, जिजू )० विहसुवगरणं (TT) I
२१. य ( अ, ब ), निभा (१०३५) में यह कुछ अंतर के साथ मिलती हैगाणाविहं उपकरणलक्खण
कुपं समासतो होति ।
(निमा) ।
४. आसुरि ( अ ) |
५. तुमरी ( रा ) ।
६. धाणग कलाय (विधा १०३०) ।
० णाई (अ), ० लाइ ( निभा, ब ) । वी (जि) |
७.
८
९. सुवण्ण तनु ( निभा ) ।
१०. वयर ) अ ), बेर ( निभा १०३१) ।
११. संख (निभा), संखे ( ब ) |
१२. तिणिसो अगर ( अचू ), तिणिसा गुरु (हा,
जिजू ), ० अगुलु (निभा ) ।
१३. दंत चम ( निभा १०३२) ।
१४. भूमि घर- तरुगणादि (निभा), भूमीवर त गुणा (अबू), मराई तरुगण ( अ, ब, रा),
निर्मुक्तिपंचक
O
चतुसपिडोगरा,
२२. चवीस विहो (हा, अ, ब, रा ) 1 २३. सहा ( अ ) ।
एवं भणितो भवे अस्यो ।
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५३
दशवकालिक नियुक्ति २३७. 'तत्थ असंपत्तऽत्यो", चिंता तह सद्ध संभरणमेय ।
विक्कवय लज्जनासो, पमाय उम्माय तब्भावो' ।। २३८. मरणं च होइ दसमो, 'संपत्तं पि' य समासओ घोच्छं ।
दिट्ठीए संपातो, दिट्ठीसेवा य संभासो ॥ २३९. 'हसित ललितोऽवगृहित'', 'नह"-दंत-निवाय-चुंबणं घेव
'आलिंगण-आदाणं', 'करसेवणणंग-कीडा य" ॥ २४०. धम्मो अत्यो कामो, तिन्नेते" पिडिता पडिसवत्ता ।
जिणक्यणं ओतिण्णा", असवत्ता होंति नातव्वा ।। २४०।१. जिणवयणम्मि परिणए, अवस्यविहि आणुठाणओ धम्मो।
सच्छासयप्पयोगा, अत्थो वीसंभओ कामो" ॥ २४१. धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणाबाई ।
तमभिप्पेया" साहू, तम्हा धम्मत्यकाम ति ।। २४२. 'परलोगु मुत्तिमग्गो'५, नत्थि मोक्खो ति बेंति अविहिण्ण ।
सो अस्थि अवितहो', जिणवयम्मि पवरो न अन्नत्य ॥ २४३. अट्ठारसठाणाई, आयारकहाइ जाई" भणियाई ।
तेसि अन्नत राग, सेवतो न होइ सो समणो ।।
१. तत्थासं० (अ, क), • पत्तोऽत्थी (अचू)। १२. उत्तिन्ना (हा), ओइन्ना (अ)। २. संसरण • (हा)।
१३. इस गाथा का चुणिद्वय में कोई उल्लेख नहीं ३. तम्भाषणा य (अचू, जिचू)।
है । टीका तथा हस्सआदशों में यह उपलब्ध ४. संपत्तम्मि (अ, ब)।
है। यह गाथा २४० की संबाबी है । संभव है ५. २३७,२३८ की तुलना बास्स्यायन काम- यह बाद में जोड़ी गई हो। सूत्र से।
१४. तमभिप्पिमा (अच)। ६. हसिम-ललिअ-उपगुहिल (हा, जिचू), ललि- १५. परलोग मुत्तिमंतो (अचू)। उव ० (ब)।
१६. हि (ब)। ७. दंत नह (हा, अचू, रा) ।
१७. ते (अचू)। ८. होइ (हा, अचू)।
१८. अवितहा (अचू)। ९. ० गणमायाणं (हा, अचू)।
१९. पवरा (अचू)। १०. करणंग अणंगकिड्डा य (अचू) • सेवण संग- २०. जा य (रा)।
किड्डा ब (हा) • कोला य (ब)। २१. सेवंती (अचू,रा)। ११. भिन्ने ते (हा)।
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नियुक्तिपंचक
२४. वयछक्कं काम का मिहिमा 'पलियक निसेज्जा य", सिणाणं सोभवज्जणं ।।
'धम्मत्यकामनिम्मुत्ती समता
२४७.
२४५. निक्षेवो तु* चउक्को, वक्के 'दब्वं तु भासदब्वाई।
भावे भासादयो, तस्स य एगडिया इणमो ।। २४६. वकं वयणं च गिरा, सरस्सती भारतीय गो वाणी ।
भासा पण्णवणी देसणी य, वइजोग जोगे य॥ __*दब्वे तिविधा गहणे य, निसिरणे' तह भवे परापाते ।
भावे दवे य सुते, चरित्तमाराहणी* चेव ।।दार।। २४८. बाराहणी उ दवे, सच्चामोसा विराहणी होति ।
सच्चामोसा मीसा, असच्चमोसा य पडिसेध" ।। २४९. 'जणवय-सम्मय-ठवणा'२. नामे रूवे पडुच्च सच्चे य ।
ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य" ॥दारं।। कोधे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसे य ।
हास भए अक्खाइय, उवधाते निस्सिता दसमा ।।दारं।। २५१. उप्पन्न-विगत-मीसग, जीवमजीवे य जीव अज्जीवे५ ।
'तहणत मीसया ५६ खलु, परित्त अद्धा य अद्धा ।।दा।। २५२. आमंतणी आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पण्णवणी।
पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य॥
१. व्यंको गिहिणिसेण्या (अबू)।
८. वजोग (हा)। २. सोह० (अ.हा)यह गाथा कुछ प्रतियों में सूत्र ९. दवे भावे तिविहा गहणे अनिसिरणे (जिन्)।
गाथा के रूप में निर्दिष्ट है। दोनों चूर्णियों १०. चरित आरा (ब,रा)। तथा टीका में इसके लिए स्पष्ट रूप से ११. सेहा (हा)। निर्यक्तिगाथा का संकेत है।
१२. जणवत समुति द्ववणा (ब)। ३. महल्लियायारकहज्झयणनिजुज्ती सम्मत्ता १३. तु. मूलाचार १३०६ ।
१४. विगय (हा,अ,ब)। ४. य (हा,ब)।
१५. छंद की दृष्टि से यहां अजीव पाठ है। ५. बक्को (अचू)।
१६. तह मिस्सिया अर्णता (रा) । ६. दबम्मि (अ,ब)।
१७. आणमणी (अचू)। ७. भारही (हा), भारई (अ,ब) ।
१८. तु. मूला श३१५ ।
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२५८.
कासिक नियुक्ति
५५ २५३. अणभिग्गहिता भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्वा।
संसयकरणी भासा, 'बोगड़ अब्दोगडा'२ थेव ।। २५४. 'सब्बा वि" यसा दुविधा, पज्जत्ता खलु तहा अपज्जत्ता।
पढमा दो पज्जत्ता, उवरिल्ला दो अपज्जता दारं।। २५५. सुतधम्मे पुण तिविधा, सच्चा मोसा असश्चमोसा य ।
सम्मद्दिट्टी 'तु सुते, उवउत्तो भासए सच्वं ।। २५६. सम्मट्ठिी तु सुतम्मि, अणुवसतो अहेतुगं चेव ।
जं भासति सा मोसा, मिच्छादिट्ठी वि य तहेव ।। २५७. 'भवति तु असच्चमोसा, सुतम्मि उरिल्लए तिनाणम्मि'।
ज उवउत्तो भासत्ति, एत्तो वोच्छं चरित्तम्मि ।।दार।। पढम-बितिया चरित, भासा दो चेव होति नायवा।
सचरितस्स तु भासा, सच्चामोसा तु इयरस्स ॥दा।। २५९. 'नामं ठवणासुद्धी' दव्वसुद्धी य भावसुदी य ।
एतेसि पत्तेयं, परूवण होति कायव्या' ।। २६०. "तिविधा य दम्वसुद्धी, तद्दवादेसतो पहाणे य ।
'तद्दवं आदेसो", अनन्नमोसा हवति सुद्धौ ।। वण्ण-रस-गंध-'फासेसु मणुण्णा'२ सा पहाणओ सुद्धी ।
तत्य तु सुक्किल मधुरा तु सम्मया चेव उक्कोसा । २६२. एमेव भावसुद्धी, 'तब्भावाऽऽदेससो पधाणे" य ।
तब्भावगमादेसो", अनन्नमीसा हवति सुशी ।। २६३. दसण-नाण-चरित्ते, तवोविसुद्धी पधाणमादेसो५ |
जम्हा तु विसुद्धमलो, तेण विसुद्धो भवति सुद्धो"। १. बोलना (हा,अ)।
५. काइम्बा (ब)। २. बोकड अम्वोका (अचू), बापड अन्वायडा १०. तिविहा उ (हा, जिबू)। (हा), व्याकृता--स्पष्टा, अव्याकृता- ११. तद्दश्वगमाएसो (हा, जिच), तश्विग • (अ. अस्पष्टा (हाटी प. २१०)।
ब) तद्दष्वगमादेखे (रा)। ३. सच्चा वि (जिन्)।
१२. फासे समणुण्णा (हा.ब) । ४. सुओवउत्तु सो भासई (हा)।
१३. • बाएसओ पहाणे (हा)। ५. हबद उ (अ,ब,जिचू,हा) ।
१४, तम्माविग (अ,ब) ६. तु नाणम्मि (ब)।
१५. मातेसो (अचू)। ७. बीपाइ (रा)।
१६. सिद्धो (हा)। ८, गामट्ठवणा • (अ)।
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५६
नियक्तिपरक
२६६.
२६४. जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा ।
न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि ति ॥ २६५. वयणविभत्तीकुसलस्स, 'संजमम्मि य" उद्वितमतिस्स ।
दुभासितेण होज्ज हु, विराधणा तत्य जातितन्वं ।। वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणतो ।
जइ' वि न भासति किंची, 'न चेव वइगुत्तयं पत्तो। २६५. क्यविभत्तिकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणतो।
_ 'दिवसमवि भासमाणो, अभासमाणो व वइगुत्तो५ ॥ पुवं बुद्धोइ पेहित्ता', 'ततो वक्कमुदाहरे'। 'अचक्खुओ व' नेतार, बुद्धिमन्नेउ ते गिरा" ।।
वक्कसुशिनिम्जुत्ती समत्ता
२६९. जो"पुग्वं उवदिट्ठो', आयारो सो अहीणमतिरित्तो।
दुविधो य होति पणिधी, दब्बे भावे य नायब्यो ।। २७०. दवे निधाणमादी, मायपउत्ताणि" चेव" दब्वाणि ।
भाविदिय नोइंदिय, दुविहो उ 'पसत्थ-अपसत्यो १५ ।। २७१. सद्देस य रूवेसु य गंधेस रसेस तह य फासेसू ।
न वि रज्जति न वि दुस्सति", एसा खलु इंदियप्पणिधी। २७२. 'सोइदियरस्सोहि उ, मुक्काहि सद्दमुच्छितो जीवो।
आदियति ६ अणाउत्तो, सद्दगुणसमुत्थिते दोसे ।।
१. संजमम्मी (अचू,हा)।
१०. इस गाथा का जिजू में कोई उल्लेख नहीं है। २, समुज्जुयमइस्स (हा), समुज्जुयमयस्स (ब, ११. सो (जिन्) ।
१२. पुश्वि उद्दिट्टो (हा,अ,ब,रा)। ३. अति (अचू)।
१३. माइपउत्ताणि (ब)। ४, तहा वि न बयिगुत्तयं (जिच), • वगुत्तयं १४. वेह (रा) । (हा) ० बतिमुत्तयं (अच)।
१५. पसत्थमण (अचू)। ५. दिवस पि भासमाणो तहा वि वयगुप्तयं पत्तो १६. दूसइ (अ,रा)। (अ,ब,हा)।
१७. एसो (अन्)। ६. पुचि (अ)।
१८. रस्सीयुम्मुक्काहिं (अ) ० रस्सीहि मुक्का • ७. पासित्ता (अचू)। ८, पच्छा बमभुयाहरे (हा,अ)।
१९. आइयइ (अ,ज,हा), आयपइ (रा)। ९. अवखुभव (अ,ब)।
२०. ० समुट्टिए (हा,ब)।
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दशवकालिक नियुक्ति २७३. 'जह एसो' सद्देसू, एसेव कमो तु सेसएहि पि ।
चाहिं पि इंदिएहिं, रूवे गंधे रसे फासे ।। २७४. जस्स 'पुण दुप्पणिहिताणि'२ इंदियाई तवं चरतस्स ।
सो हीरति असहोणेहि सारही इव तुरंगेहिं ।। २७४११. अह्वा वि दुप्पणिहिदियो उ मज्जार-बग समो होइ।
अप्पणिहिइंदियो पुण, भवइ उ अस्संजओ चेव ।। २७५. कोहं मागं मायं, लोभं च महाभयाणि' चत्तारि ।
जो रंभइ सुद्धप्पा, एसो नोइंदियप्पणिधी । २७६, जस्स बि य" दुप्पणिहिता, होति कसाया तवं करेंतस्स।
सो बालतवस्सी विव', गयोहाणपरिस्समं कुणति ।। २७७. सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति ।
मन्नामि उमछुमुलं व", निष्फलं तरस साम" ।। २७८. 'एसो दुविहो पणिधी, सुद्धो" जदि" दोसु तस्स तेसि च।
'एत्तो पसत्यमपसत्थ१५, लक्खणऽझस्थनिष्फन्नं" ।।दारं।। २७९. मायागारवसहितो, इंदियनोइदिएहि अपसत्यो ।
धम्मट्ठाय" पसत्थो, इंदिय-नोइंदियप्पणिधी ।। २८०. अद्वविधं कम्मरयं, बंधति अपसत्थपणिहिमाउत्तो।
___ तं चेव खवेति पुणो, पसत्यपणिहिसमायुत्तो ।।
१. जहा एसो (जिचू), एसो जह (ब)। ८. चरंतस्स (हा,अ,ब,रा)। २. खलु दुप्पणिहिआणि (रा,हा,रा), दुप्पणिहि- ९. वि य (रा)। याई (ब)।
१७. गतण्हात ० (अचू)। ३. असहीणे (अ,ब),।
११. फुल्लमिव (अ), . पुष्फ व (रा), पुष्फ ४. वा (हा,अचू)।
च (अ,ब)। ५. यह गाथा मुनि पुण्यविजयजी ने टिप्पण में १२. चारित्तं (ब)।
दी है। इस गाथा की किसी भी १३. एसा दुविधा पणिही सुद्धा (रा)। व्याख्याकार ने व्याच्या नहीं की है तथा १४. जइ (अ,ब,हा)। अ, ब और रा आदर्श में भी नहीं है। इसलिए १५. एत्तो य पसत्थऽपसत्य (रा) ।
इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। १६. खणमझ० (अ,ब,हा)। ६. महम्भ ० (हा,अचू,जिचू,रा)।
१७. धम्मत्थाए (अचू), धम्मत्या य (हा,जिचू)। ७. त (अचू)।
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नियुक्तिपंचक
२८१. दसण-नाण-चरित्ताणि', संजमो तस्स साधणट्ठाए।
पणिधी पउजितब्बोऽणायतणाई' च वजाणि' । २८२. दुप्पणिधियजोगी पुण, लंछिज्जति संजमं अयाणंतो।
वीसत्थ 'निसिटुंगो व", कंटइल्ले जह पडतो ।। २८३. सुप्पणिधितजोगी पुण, न लिप्पती पुश्वणितदोसेहिं ।
निद्दहति य कम्माइं, सुक्कतिणाई जहा अग्गी ॥ २८४. तम्हा तु अप्पसत्यं, पणिधाणं उज्झिऊण समणेणं ।
पणिधाणम्मि पसत्थे, 'भणितो आयारपणिधि ति ।। २८५. छक्काया समितीयो, तिणि य गत्तीओ पणिहि दुविहा उ । आयारप्पणिहाए, अहिगारा 'होति चउरेते' ।।
आयारप्पणिहिनिज्जुत्ती समत्ता
२८६. विणयस्स समाधीए', 'मिक्खेवो होइ दोण्ह वि चउक्को|
___ दयविणयम्मि तिणिसो", 'सुवण्णमिच्चादि दवाणि॥ २७. लोगोवयारविणयो, अत्यनिमित्तं च कामहेउं च ।
भय-विणय-मोक्खविणयो", विणओ खलु पंचहा होइ" ।। २८६. अभट्टाणं अंजलि आसणदाणं च अतिधिपूया य ।
लोगोवयारविणयो, देवयपूया य विभवेणं" 11
१. चरितं च (अन्)।
आचार्यों ने जोड़ दिया हो। मुनि पूण्यविजयजी २. पर्टजिअन्वो अणायणाई (हा,ब,रा)।
ने जूणि में इस गाथा को टिप्पण में दिया ३. वज्जाई (अ,जिचू,हा)।
है। किन्तु भाषा जैली की दृष्टि से यह ४. निसटुंगो रख (रा, अचू, हा) • ठंगुष्व नियुक्ति की गाथा प्रतीत होती है।
९. समाधीय य (रा,अचू), य सुत्तस्स य (उशांटी ५. सुखमिव तणं (अचू), सुक्कतणाई (हा)। प१६)। ६. मणितं आयार पणिधाणं (गन्) भणिया मा० १०. य दोण्ह वि निक्लेवतो चउक्को य (अ) ।
११. तिणसो (रा)। ७. उ (अ)।
१२. मिन्येवमाईणि (हा), मिन्चार दवाइ ८, हुँतिमे चउरो (अ), होड चउरो (रा)। (ब)।
यह गाथा केवल नियुक्ति की हस्तप्रतियों में १३. मुक्ख० (हा,ब,रा) सर्वत्र । उपलब्ध है। व्याख्याकारों ने इसके बारे में १४. भणिओ (अ,रा), ओ (उशांटी प १६), कोई उल्लेख नहीं किया है। संभव है इसको १५.x (हा) । सरस समझकर छोड़ दिया हो अथवा बाद के १६.बिह. (हा)।
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देशकालिक नियुक्ति
२८९.
अभासवत्ति' छंदाणुवत्तणं देस-कालदाणं च । अब्भूद्वाणं अंजलि, आसणदाणं घ अत्थकa || एमेव कामविणयो, भयेय 'नायम्बु आणुपुष्वीए' । मोम व पंचविधो, 'परूवणा तस्सिमा होति" ।। २९१. दंसण-नाण-चरिते तवे य तह ओवयारिए चेव । एसो उ मोक्खविणयो, पंचविधो होइ नायम्बो || दव्वाण सब्वभावा, उवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दति नरो, दंसणविणओ भवति तम्हा || २९३. नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि । नाणी नवं न बंधति, नाणविणीओ भवति तम्हा || २२४ अटूतिनं काम' जहर 'रितं करेति'" जयमाणो । नवन्तं चतबंधति चरितविणोओ भवति तम्हा ॥ अवर्णेति तवेण तमं, उवर्णेति य मोक्खमग्गमप्पाणं" । aa - विणय-निच्छित मतो", तवोबिणोओ हवति तम्हा || अध ओवयारिओ पुण", दुविहो विणओ समासतो होति । परूिवजोग 'जुंजण, तह य अणासातणाविणमो" ।।
२९०.
२९२
२९५.
२९६.
परूियो खलु विणओ, कायियजोगे य वाय- माणसिओ । अट्ठ चविवह दुविहो, परूवणा तस्सिमा होति ॥ २९५. अब्भुद्वाणं अंजलि - आसणदाणं 'अभिग्गह- किती" य । 'सुस्सु सण- अणुगच्छ' - संसाधन काय
अबिहो ।
२९७.
1.
• सवित्ति (अ, हा) |
१०. सग्गमोक्खम ० ( अ, ब, हा) ।
२. यो माणु ० ( अचू), नेयमाणु ० ( हा), ११. निच्चयमई (हा, भ) ।
मेय आणु ० ( अ, ब ) ।
१२. ओमारिओ ( अ ) ।
३. विणओ खलु होइ नायब्बो ( रा ) । ४. य (हा ) ।
५. किचाई ( अ, ब, हा) |
६. कम्मरयं ( अ ) ।
७. रितीकरेति ( ब ) |
८.
माणो ( अ, ब ) |
९.
० विणओ (हा ) ।
re
१३. खलु (जिचू) ।
१४. जुंजणओचा सतना विजओ (अचू), जुज़न
वह अणसा० (रा) ।
१५. वाह (हा) ।
१६. ०गहा किई ( ख ) |
१७. ० सणमणु० (हा, अ) |
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ܪ
२९९ हित-मित अफरसभासी', अणुवीईभासि वाइओ विणओ । अकुसलमपोनिरोहो', कुसलमणउदीरणा' चैव ॥
0
पडिवो खलु विमो, पराणुवित्तीपरो' मुणेयवो । अप्पडिवो विणओ, नायव्वो केवलीणं तू ॥ एसो मे परिकहितो, विणओ पडिरूवलक्खणो तिविधो । बावन विधिविधाणं, 'बेंति अणासातणाविषयं ॥ ३०२. तित्थकर - सिद्ध-कुल- गण संघ-किरिय श्रम्म-नाण-नाणीणं । आयरिय-थेरुवज्झायणी तेरस पाणि ॥
०
३००.
३०१.
३०३.
३०४.
अणसातणा" य भत्तो, बहुमाणो तह य वण्णसंजलपा । तित्थगदी तेरस, चतुम्गुणा" होंति" बावन्ना ॥
दध्वं जेण व दव्वेण, समाधी आहितं" च जं दव्वं । भावसमाधि चव्विध, दंसण नाण-तव-चरिते" || विणयसमाहिनिज्जुत्तो समत्ता
१. ० रुसाबाई ( अ,ब,हा) ।
२.
1
३०५. नामं ठवणसकारो, दव्त्रे भावे य होति नायव्वो । 'दव्यम्म पसाई १५ भावे जीवो तदुवउत्तो" ।। ३०६. निद्देसपसंसाए", अत्यीभावे य होति तु सकारो । निद्देस पसाए, 'अहिगारो एत्थ अझ
||
चित्तनिरोहो (रा, ह),
(जिनू ) ।
३. कुसलस्स उदी० (ब), ०रणं ( रा ) |
४.
(TT) I
५. बेंच्चासा० ( अचू ) |
0
अत्तिमइओ ( अ, हा) ० णुवित्तीम
९. पयाई ( रा ) ।
१०. अण्णासा० ( अ, ब, रा, जिच्) ।
११. उगुणा ( अ ) ।
१२. होति (अ), हुति (अ ) |
मणनिरोहो १४. तु. दश्रुनि ९ ।
६. तित्यगर (हा ), तित्थयर ( अ, ब ) । ७. किया (हा ) ।
भोभा (हा ) |
१३. अधितं (अच्), नाहि (हाय ) ।
निर्मुक्ति पंचक
१५. ददे पसंसमाई (हा ) |
१६. इस गाथा की व्याख्या गद्य रूप में दोनों चूर्णियों में मिलती है किन्तु गाथा का संकेत नहीं मिलता। टीका तथा आदशों में यह गाथा उपलब्ध है । अत में यह निगा के क्रम में प्रकाशित नहीं है किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह गाथा यहां प्रासंगिक लगती है तथा भाषाली की दृष्टि से भी यह निगा की प्रतीत होती है ।
१७ तद्देस प ० ( अ ) |
१८. य वट्टमाणेण अधिगारा ( अचू ) ।
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शालिक निर्मुक्ति
३०७.
भावा 'दसकालिय सुत्ते", करणिज्ज वग्णिय जिर्णोहि । तेसि सभाणणम्मी', जो भिक्खू भण्पति" स भिक्खू ॥ ३०७।१. चरग- मरुगादियाणं, भिक्खुजीवीण काउणमपोहं । अभय गुणनिरत्तो होइ पसंसाई उस भिक्खू ॥ ३०८. भिक्खुस्स यर निक्लेवो, निरुस एमट्टियाणि लिंगाणि । अगुओ न भिक्खु", अवयवा पंच दाराई ॥ नाम उवणाभिक्खू दव्वभिक्खू य भावभिक्खू य । aaafम्म आगमादी, अन्नोऽयि य पज्जवी इणमो ॥
३०९.
भेदतो भेदणं चेव, भिदितव्वं तहेव य । एतेसि तिन्हं पि य, पत्तेय परूवणं वोच्छं || जव दारुकम्मकारो, भेदण भेत्तव्वसंजुतो भिक्खू । अन्ने विदव्वभिक्खू, जे जायणगा" अविरता य ॥ 'गिहिणो विसयारंभग", अज्जुप्पण्णं जणं विमग्गता । जीवणिय दोण - किविणा, ते विज्जा दब्वभिक्खु त्ति ॥ ३१३. मिच्छादिट्ठी" तस्थावराण पुढवादिबेदियादीणं" । निष्वं वधकरणता, अबंभचारी य संचइया " | ३१४. दुपय-तुप्पय-धण-धन-कुविय-तिग-तिग-परिष्ाहे निरता । सत्तम माणगा य उद्दिट्टभोई" य ।।
३१०.
३११.
३१२.
१. दसवेयालिम्मि (हा, अ, ब, जिचू) । २. समाणणे (रा), समावर्णाम्मि ति ( अ, हा) । ३. भिक्खू इति भवति (अचू), भिक्खू इइ भण्णइ (ब',रा) ।
४. इस गाथा का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है । केवल टीका तथा हस्त आदशों में यह गाथा मिलती है। यह गाथा प्रसंगानुसार बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गई प्रतीत होती है । इस गाथा को निया न मानने से भी विषयवस्तु की क्रमबद्धता में कोई अंतर नहीं
आता ।
५.
( अ, ब ) ।
६. मेग० ( रा ) ।
६१
13. भिक्खुति (अचू ) ।
पज्जयो (अच्) ।
६.
मध्व ० ( अ ), भित्तव (हान) । १०. जातणका (अचू ) |
११. गिहिणो विसया ० ( हा), हरिभद्र ने गृहिणीऽपि सदारंभका इस प्रकार पदच्छेद करके व्याख्या की है (हाटी प २६० ) । १२. मिट्ठी (अ.,ब,हा) ।
१३.० बिइंदिया (म) ० मेइंदियाणं ( . रा) । १४.० ईया ( अ ) |
O
१५.० भोलि (अचू), भोर प ( अ ) । १६. ० मोती (अ) ।
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नियुक्तिपंचक ३१५. करणतिए जोगतिए, सावज्जे आयहेतु पर उभए ।
अट्ठाऽणट्ठपवत्ते, ते विज्जा" दवभिक्खु ति ।। ३१५३१. इत्यी परिग्गहाओ, आणा-दाणाइ भाव संगाओ।
सुद्धतवाऽभावाओ, कुतित्थियाऽबंभचारि' त्ति' ।। ३१६. आगमतो उवउत्ते, तग्गुण 'संवेदए तु भावम्मि ।
तस्स निरुत्त भेदग-भेदण-भेत्तवएण तिधा ।। भेत्ताऽऽगमोवउत्तो', दुविहं तबो भेदणं च भेत्तव्यं ।
अटुविधं कम्मखुह, तेण* निरुत्त स भिक्खु त्ति ।। ३१८. भिवंतो 'य जह' स्वर्ण भिवाद जनमाणो जती होति ।
संजमघरो चरओ, भवं सर्वतोभवंतो तु" ।। ज भिक्खमेत्तवित्तो१२,तेण व"भिक्ख खवेति जंव अणं ।
'तव-संजमे'" तवस्सि त्ति, वावि अन्नो वि पज्जाओ ॥ ३२०. तिण्णे तायो ५ दविए, वती य खंते य दंत विरते य ।
मुणि-तावस"पण्णवगुजु-भिक्खूबुद्धे जति विदू य ॥ ३२१. पव्यइए अणगारे, पासंडी चरग बभणे चेव ।
'परिवायगे य"६ समणे, निणंथे संजते मुत्ते ॥ ३२२. साधू लूहे य तधा, तोरट्ठी 'होति चेव'" नातवे ।
नामाणि एवमादीणि, होति तय-संजमरताणं ।। १. विज्जा से (रा)।
5. याधि (अच)। २. धेर (रा)।
९. खुदं (जिच)। ३. इस गाथा का दोनों पूणियों में कोई उल्लेख १०. खिवंतो (हा), खवंतो (अ,ब)।
नहीं है किन्तु टीकाकार ने द्रव्यभिक्षु के क्रम ११. य (ब)। में इस गाथा की व्याख्या की है। आदशों में १२. ० मतरित्ती (हा)। यह गाथा मिलती है पर अधिक संभव है कि १३. वि (अ) । प्रसंगानुसार मह गाथा बाद में जोड़ी गई है। १४. संजम तये (रा)। विषयवस्तु की दृष्टि से भी अप्रासंगिक सी १५. ताती (अचू) । लगती है अत: इसको निगा के क्रम में नहीं १६. तावत (अचू) ।
१७. मण्णवगज्जु (ब), • गुज्जु (अचू,अ) । ४. • दो य (,हा)।
१८. भिक्खु (अधू.ब)। ५. तहा (4), तिहा (अ.हा)।
१९. परिवाये (अच)। ६. मिता० (अ)।
२०. सेव होइ (अ,ब)। ५. सस्स (बि)।
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दशवकालिक नियुक्ति ३२३. संवेगो निब्वेओ, विसयविरागो' सुसीलसंसग्गो' ।
आराधणा तो नाण-दसण-चरित्त-विणए य ।। ३२४, खेती य मद्दवज्जव, विमुत्तया' 'तह अदीगय" तितिक्खा।
आवस्सगपरिसुद्धी य होति भिक्खुस्स लिंगाणि ।। अज्झयणगुणी भिक्खू, न सेस 'इति एस णे पतिणत्ति।
अगुणत्ता इति हेतू, को दिळंतो ? सुवण्णमिव ।। ३२६. विसघाति रसायण मंगलत्त विणिए" पयाहिणावत्ते ।
गुरुए अडज्झऽकुच्छे", अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिता ।।
३२५.
१. लिवेगो (हा.अ.रा। २. • संसग्गी (ब,अचू)। ३. विभुत्तिया (रा)। ४. तह य अदीण (अ)। ५. लिंगाय (अ,ब,हा)। ६. इइ णो पइन्न-को हेऊ (व,रा,हा), इस गो
७. पंचवस्तु में "एतोच्चिय णिहिटी 'पुग्यायरि
एहि' भावसाहु ति"- ऐसा उल्लेख करके दशवकालिक नियुक्ति के दसवें अध्ययन की नियुक्तिगाथाएं उवृत की हैं। टीकाकार ने पुष्वायरिएहिँ का अर्थ भद्रबाहुप्रभृति किया है । फुछ गाथाओं में पाठ भेद भी मिलता है।
१२. हुंति (रा)।
पंचधस्तु में विसपाति"(दशनि गा. ३२६) की गाथा के बाद तीन गाथाएं और हैं जो दशवकालिक नियुक्ति में नहीं हैं। इन गाथाओं के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'पुवायरिएहि' पाद में अन्य आचार्यों का समावेश भी हो जाता है। इन तीनों गाथाओं में विसपाइ" (दनि ३२६) की व्याख्या है अत: यह भी संभव है कि स्वयं पंचवस्तुकार ने इन गाथाओं की रचना कर दी हो । वे गाथाएं इस प्रकार है
इस मोहविसं घाया, सिचोवएसा रसायणं होई । गुणओ य मंगलत्यं, कुण विणीओ य जोगति ।। मग्गाणसारि पयाङ्गि, गंभीरो गुल्यमो तहा होइ । कोहग्गिणा अडामो, अकुत्य सह सीलभावेण ।। एवं विठ्ठतगुणा सम्मि , वि एत्य होति णायचा। ण हि साहम्माभावे, पापंजे हो पिछतो।।
(पंचवस्तु-११९३-९५)
तु. सुत्तस्थगुणी साहू ण,
सेस इह जो पइण्ण इह हेऊ । अगुणत्ता इति णेमो, दिळंतो पुण सुवणं च ।।
(पंचवस्तु गा. ११९१) ८. धाय (ब), घाइ (जिचू)। ९. मंगलस्थ (अ,छ,हा)। १०. विणए (पंव)। ११. अब. (ब), • कुत्थे (अ,ब,हा),
पंच ११९२।
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नियुक्तिपंचक २२७. चतुकारणपरिसुद्धं, कस-छेदण -ताव-ताडणाए' य ।
'जं तं विसघाति रसायणादि गुणसंजुतं होति" ।। २२८. 'तं कसिणगुणोवेत, होति सुवणं न सेसणं जुत्ती ।
न हि नामरूवमेत्तेण', एवमगुणो हवति भिक्खू ।। ३२९. जुत्तीसुवण्णगं पुण", सुवण्णवण तु जइ वि कीरेज्जा ।
न हु होति तं सुवणं, सेसेहि गुणेहसतेहि" ।। ३३०. 'जे अज्झगणे भणिता भिमस गणा तेहि होति सो भिक्खू"।
वणेणं जच्चसुवण्णर्ग, व संते गुणनिधिम्मि ।। ३३१. जो भिक्खू गुणरहितो, भिक्खें" हिडति१४ न होति सो भिक्ख ।
वणेणे जुत्तिसुवाणगं ब असती१५ गुणनिधिम्मि" ॥ ३३२. उद्दिटुकडं भुजति, छक्कायपमओ८ घरं कुणति ।
पच्चक्वं च जलगते, जो पियति कह"नु सो भिक्खू ?"।।
१. छेय (पंच ११९६)। २. सालणाए (रा,अचू,हा)। ३. तं बिसवाय-रसायण गुरुगमडझ अकुच्छं च
(रा)। इन गाथाओं के क्रम में पंचनस्तु में दशनि ३२७ की गाथा के बाद एक अतिरिक्त गाथा और मिलती है। वह इस प्रकार है
इयरम्मि कसाईया, विसिट्टलेसा तहेगसारतं । अवमारिणि अणकंपा, वसणे अइनिचलं चित्तं ।।
(पंचवस्तु गा. ११९७,
द्र. टिप्पण गा, ३२६) ४. तं निहसगुणोक्यं (जि)। ५. वि (स), य (अचू)। ६. मत्तम् (अ)। ७. पंच ११९८ । ..
९. कीरिज्जा (अ,ब,हा), कीरिता (पंव
११९९) । १०. गुणेहिं संतेहि (अ,ब,रा)। ११. जे इह सुत्ते भणिया साहगृणा तेहि होइ सो
साह (पंव १२००)। १२. साहू (पंव) सर्वत्र । १३. भेक्खं (अचू)। १४. गिह इ (च,हा)। १. राते (रा)। १६. द्र. पंव १२०१। १७. कयं (हा)। १५. पमहणो (अचू,रा,पर्व) । १९. गिह (रा)। २०. कह (हा)। २१. पंव १२०२।
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दशकालिक नियुक्ति
३३३.
३३४.
३३५.
सम्हा जे 'अयणे, भिक्खुगुणा " तेहि होति सो भिक्खू । तेहि य' सउत्तरगुणेहि होइ' सोभाविततरी
॥
सभिक्खुनिज्मुत्ती समसा
दवे खेत्ते काले, भावम्मिय चूलियाय निक्खेवो । तं पुण उत्तरतंतं सुत गहितत्थं तु
संग्रहणी ||
दवे सच्चित्तादी, कुक्कुट चूडामणी मयूरादी । खेतम्मि लोगनिक्कुड, 'मंदरचूडा य कूडादी" ॥
३३६. अतिरिक्त अधिगमासा, अधिगा 'संवच्छरा य'" कालम्मि | भावे खयोदसमिए, इमा उ ' चूडा मुणेव्वा' १२ ।।
१. इह सत्ये साहुगुणा (पंत्र १२०४ ) । २. उ ( अ ) ।
३. चेव (अच्चू) ।
४. पंव में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैjarat मोखसिद्धि प्ति काळणं 1 इस गाथा के बाद रा प्रति में निम्न गाथा मिलती है
संजम चरित -तव- विणय - नियमगुणकलिय सीलकलिए य ।
अजय मव लाघव, अंती य समन्मिओ देव ॥
५. x (जिच्) ।
६.
६५
संघयणी ( अ, ब ) ।
७.
कुक्कड (अ) ।
८.
चूलामणी (अचू)
९.
० निवड (अ)।
१०. मंदरचूला य कूडा य (अबू ) ० चूलाइकुडाई
(ख) ।
११. संवछराइ ( ब ) ।
१२. चूलाउ णेयब्वा (अबू ) ० चूला मु० (ब)।
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नियुक्तिपंधक
३३७. दवरती खलु दुविहा, कम्मरती चेव 'नो य कम्मरतो"।
कम्मरतिवेदणीय", नोकम्मरती तु सद्दादी ।। सह-रस-रूव-गंधा, फासा रइकारगाणि दव्वाणि ।
दव्वरती भावरती, उदए एमेव अरती वि ।। ३३९. उदएण समुप्पज्जइ, परीसहाणं तु सा भवे अरई ।
निव्वुइसुहं तु काउं, सम्म अहियासणिज्जा उ' ।। ३४०. वकं तु पुन्वभणियं, धम्मे रइकारमाणि वक्काणि ।
'जेण इह चूडाए, तेण निमित्तेण रइवक्का' ॥ ३४१. जध नाम आतुरस्सिहर सोवणछज्जेसु कोरमाणेसु ।
जंतणमपत्थकुच्छा ऽमदोसविरती हितकरी तु ।।
१. नोकम्म ० (अ)।
यह गाथा दोनों चणियों में तथा 'अ'प्रति में २. रईवेणियं (अ)।
निर्दिष्ट नहीं है। गा. ३३७-३८ का भाव ही हरिभद्र टीका की मुद्रित पुस्तक में ३३७- इस गाषा में है अत: टीका में उपलब्ध होने ३८ दोनों गाथाएं नियुक्तिगाथा के क्रम में पर भी इसको नियुक्ति गाथा में सम्मिलित नहीं हैं। किन्तु टीकाकार हरिभद्र की व्याख्या नहीं किया है। से प्रतीत होता है कि उन्होंने इन्हीं दोनों ३. यह गाथा केवल 'ब' प्रति में प्राप्त है। किंतु गाथाओं की व्याख्या की है (हाटी प. २७०)। गद्य में भावार्थ दोनों चूणियों में है। विषयअगस्त्यसिंह तथा जिनदास ने भी इन गाथाओं वस्तु की दृष्टि से यह अप्रासंगिक नहीं लगती को आधार मानकर व्याख्या की है। पुण्य- तथा हस्तआदर्भ में भी मिलती है। इसलिए विजयजी ने भी इन्हीं दो गाथाओं को स्वीकृत
इसको निमुक्तिगाथा के क्रम में जोड़ा है। किया है। कुछ आदशों में ये गाथाएं नहीं ४. जेणमिमीए तेणं रहवककेसा हवा चूडा (हा)। मिलती। टीका में इन दो गाथाओं के स्थान
__ यह गाथा दोनों चूणियों में अनुपलब्ध है पर यह गाथा मिलती है
किन्तु यह टीका तथा दोनों हस्त आदशों में दब्वे दहा उ कम्मे,
मिलती है। यह नियुक्तिगाथा प्रतीत होती नोकम्मरई म सहदब्वाई ।
है। संभव है चूर्णिकार ने सरल समझकर भावरई तस्सेव उ,
इसकी व्याख्या न की हो । मुनि पुण्यविजयजी उदए एमेव अरई वि ।।
ने इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। (हाटी प २७०) ५. आजरिस्सह (रा) । किसी किसी प्रति में इस गाथा का पूर्वाद्धं इस ६. सिषण (अच) । प्रकार है
७. ०मवच्छ० (अच)। दश्वेयरवेणियं णोकम्मे सद्दमाइ रइजणगा। ८. विरुती (अ)।
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दशवेकालिक निर्मुक्ति
३४२.
३४३.
७.
३४४.
अट्ठविकम्मरोगाउरस्स, जीवस्स' 'तह चिच्छिाए"। धम्मे रती अधम्मे अरती, गुणकारिणी' होति ॥
सज्झाय-संजम तवे, बेयावच्चे य झाणजोगे य । जो रमति नरमति, 'असंजमम्मि सो पावए सिद्धि ।।
तम्हा धम्मे रतिकारगाणि अरइकारगाणि य" अहम्मे । ठाणाणि ताण जाणे, जाई भणिताणि अभयणे ॥ बक्कानिज्ती समता
३४५. अधिगारो पुष्युत्तो, चतुव्विहो बितिय लियज्झयणे । सेसाणं दाराणं, अहमकर्म घोसणा होति ॥
३४६. दवे" सरीरभविओ, भावेण य" संजतो इहं तस्स । ओगहिता पग्गहिता, विहारवरिया" मुणेतवा || ३४७. अणिएयं पतिरिक्कं अण्णातं सामुदाणियं उंछ । अप्पrast अकलहो, बिहारचरिया इसिपसत्या || विविचरियानिज्जुती समता
१. जीअस्स (हा ) |
२. ततिग० ( अचू ), तह तिमि० (हा ) । ३. ० कारिया ( अ, ब, रा), कारिता ( अ ) । ४. नो (हा)
५. अस्संजमम्मि सो बच्चई सिद्धि (हा,अ.न.
= (ET) !
रा) ।
६. धम्मम्मि ( जिबू) |
८. ताई ( अ, ब, हा) । ९. फासणा (रा. हा भा) ।
यह गाथा विवादास्पद है। टीकाकार ने इसके बारे में 'एतदेवाह भाष्यकार: ' ऐसा उल्लेख किया है । अत: इसे निर्मुक्ति के क्रम में नहीं जोड़ा है। किन्तु दोनों चूर्णिकारों ने 'इमा उबग्घातनिज्जुलि पढभगाहा' ऐसा
उल्लेख किया है। यहां चूर्णिकार का मत सम्यक् प्रतीत होता है। इसके पश्चात् दोनों चूणियों में 'दो सुस्तफासिया गाधाओ सुत्ते देव मणिहिति' ऐसा उल्लेख मिलता है । मुनि पुष्यविजयजी के अनुसार ये दो गाथाएं 'उसे निदे से...' तथा 'कि कह विहं सुखफासिय है। लेकिन उनका मत संगत नहीं लगता। यहां से दो गाथाएं दब्बे सरीर... ( ३४६) अणिएतं ( ३४७) सूत्रस्पर्शिक होनी चाहिए क्योंकि इन दोनों गाथाओं में सूत्र के विषय का ही संक्षिप्त विवेचन है।
....
१०. दष्व ( अ ) । ११. उ ( रा ) ।
૬૭
१२. उम्महिया ( अ, हा) | १३. ० चरिता ( अ ) |
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६ ८
३४८ छहि' मासेहि अधीतं अभयणमिणं तु अज्जमणगेणं । छम्मासा परियाओ, अह कालगतो समाधीए । आनंद अंसुपात कासी' सेज्जंभवा तहि थेरा । जसभद्दाण* * पुच्छा, कधणा य वियालणा संघे || कालियनिज्जुती समत्ता
३४९.
३४९।१ णायम्मि गिहियन्त्रे अगिव्हियम्वम्मि चेव अत्यमि । जयव्यमेव इति जो, उवदेसो सो नयो ताम ।।
३४९।२. सबसि पि नयाणं, बहुविहवत्तष्वयं निसामेत्ता । तं सब्वनयविसुद्ध जं चरणगुणट्टिओ साहू ||
१. छह (हा), ब प्रति में स्थानाभाव के कारण केवल प्रथम पद ही मिलता है ।
२. ०प्पा (ख) |
३. काही ( स ) ।
४. जसभहस्स ( अ, रा, हा) ।
५.
X ( स ) ।
६. वियारणा कया संघे ( स ) |
19.
३४९।१,२ ये दोनों गाथाएं अगस्त्यमिह चूर्णि
नियुक्तिपंचक
के अंत में दी हुई हैं लेकिन गाथाओं के क्रम में नहीं जोड़ा है। आदशों में ये गाथाएं मिलती हैं तथा टीका में भी इन दोनों की व्याख्या की गई है। ये गाथाएं दर्शनि १२५, १२६ में आयी हुई हैं इसलिए पुनरुक्ति के कारण उन्हें पुनः निगा के क्रम में नहीं जोड़ा
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पहला अध्ययन : दुमपुष्पिका
१. फर्मों से मुक्त, सिद्धि गति को प्राप्त सब सिदों को नमस्कार कर मैं दशकालिक सूत्र की नियुक्ति करूंगा।
२. ग्रन्थ के आदि, मध्य और अंत का विधिवत् मंगलाचरण करने के लिए नाम, स्थापना आदि चार मंगलों की प्रस्पणा कर मैं अपने का क्रम बताऊंगा।
३. श्रुतज्ञान में अनुयोग का अधिकार है । वह अनुयोग चार प्रकार का है-चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और व्यानुयोय ।
४-५. अनुयोग दो प्रकार का होता है-अपृथक्त्व अनुयोग (जिसमें सब अनुयोगों की एक साथ चर्चा हो) और पृथक्त्व अनुयोग (जिसमें पृथक रूप से एक ही अनुयोग की चर्चा हो)। अनुयोग का निर्देश करने के बाद इस प्रसंग में चरणकरणानुयोग का अधिकार आता है। उसके ११द्वार ये हैंनिक्षेप, एकार्यक, निरुक्त, विधि, प्रकृत्ति, किसके द्वारा? किसका ? उसके द्वारभेद, लक्षण, तयोग्यपरिषद् और सूत्रार्थे ।
६. इन निक्षेप आदि द्वारों की प्रसपणा कर, बृहत्कल्प सूत्र में वर्णित गुणों से युक्त आचार्य को विधिपूर्वक दशवकालिक का अनुरोग कहना चाहिए ।
७. 'दशवकालिक' यह नाम संख्या और काल के निर्देशानुसार किया गया है। दशकालिक, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और उद्देशक आदि का निक्षेप करने के लिए अनुयोग अपेक्षित है।
८. (दश के प्रसंग में)' एक के सात निक्षेप होते हैं---नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्याय मौर भाष ।
९. 'दश' शब्द का छड़ प्रकार से निक्षेप होता है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और
भाव।
९.१. काल के आधार पर जीवन की दस अवस्थाएं होती है'-बाला, मंदा, कीड़ा, बला, प्रशा, हायनी, प्रपञ्चा, प्राग्भारा, मृन्मुखी और शायनी । १०. काल शब्द का निक्षेप
द्रध्यकाल-वर्तना लक्षण बाला काल | अद्वाफाल-चन्द्र-सूर्यकृत काल । यथायुष्ककाल-देवता आदि का आयुष्य । उपक्रमकाल-अभिप्रेत अर्थ के समीप ले जाने वाला।
२. प्रत्येक अवस्था का कालमान बस-दस वर्ष का
१. एक का अभाव होने पर दस का अभाव भी
होता है। दस आदि सारे एक के अधीन हैं।
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नियुक्तिपंचक
देशकाल--अवसर । कालकाल-मरणकाल । प्रमाणकाल --दिवस आदि का विभाग। वर्णकाल-ग्वेत, कृष्ण आदि वर्णगत काल ।
भावकाल-ओदयिक आदि भाव। प्रस्तुत प्रकरण में भावकाल' का प्रसंग है।
११. सामायिक (आवश्यक का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन करने के लिए आचार्य शयंभव ने दिन के अंतिम प्रहर में इस आगम का नियूँहण किया, इसलिए इसका नाम दगवैकालिक
१२. जिस आचार्य ने, जिस वस्तु (प्रकरण) को अंगीकार कर, जिस पूर्व से, जितने अध्ययन, जिस ऋम से स्थापित किए हैं, उस आचार्य का, उस प्रकरण का, उस पूर्व का, उतने अध्ययनों का क्रमशः प्रतिपादन करना चाहिए ।
१३. मैं दशवकालिक के निर्मुहक गणधर शय्यभव को वंदना करता हूं। वे मुनि मनक के पिता थे और स्वयं जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा देखकर प्रतिनुश हुए थे।
१४. आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र शिष्य मुनि मनक के लिए दस अध्ययनों का नियंहण किया । निर्वृहण विकाल में हुना इसलिए इस ग्रंथ का नाम दश-वैकालिक हुभा।
१५११६. आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन), कर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिण्डषणा (पंचम अध्ययन), सत्यप्रवाद पूर्व से अक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) तथा शेष अध्ययनों (१,२,३,६,८,९,१०) का नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से निर्वृहण हुआ है।
१७. दूसरे विकल्प के अनुसार शय्यभव ने अपने पुत्र मुनि मनक को अनुग्रहीत करने के लिए संपूर्ण दशर्वकालिक का नियूँहण द्वादशांगी गणिपिटक से किया।
१८. 'द्रुम-पुष्पिका' से 'सभिक्षु' पर्यन्त दस अध्ययन है। अध्ययनों के अधिकार के प्रसंग में प्रत्येक अध्ययन का मैं पृथक्-पृथक रूप से वर्णन करूंगा।
१९-२२. प्रथम अध्ययन में जिनशासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा है। दूसरे अध्ययन में पुति का वर्णन है। धुति से ही व्यक्ति धर्म की आराधना कर सकता है। तीसरे अध्ययन में आत्म-संयम में हेतुभूत लषु आचार कथा का, चौथे अध्ययन में जीव संयम का, पांचवें अध्ययन में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि का, छठे अध्ययन में महान् संयमी व्यक्तियों द्वारा आवरणीय महती आचारकथा का, सातचे अध्ययन में वन-विभक्ति (बोलने का विवेक) का, आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का, नौवें अध्ययन में विनय का तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्षु का स्वरूप प्रतिपादित है।
२३. इस आगम के दो अध्ययन और हैं, जिन्हें चूला कहा जाता है। पहली चूला में संयम में विषाद-प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय निर्दिष्ट है और दूसरी में अत्यधिक प्रसादगुण फलवाली विविक्त चर्या--अप्रतिबद्ध चर्या का निर्देश है।
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दर्वकालिक निर्मुक्ति
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२४. दबैकालिक आगम का यह संक्षिप्त वाक्यार्थ है अब एक-एक अध्ययन का क्रम से वर्णन करूंगा ।
२५. प्रथम अध्ययन का नाम 'दुष्पिका' है। इसके चार अनुयोगद्वार हैं। उपक्रम आदि का वर्णन करने के पश्चात् अत्र धर्म-प्रशंसा का अधिकार है ।
२५१ (निक्षेप तीन प्रकार का है— ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापक निष्पन्न) ओष निष्पन्न का अर्थ है - सामान्य श्रुत। उसके चार प्रकार हैं—अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा । २५ २. भुत (अनुयोगद्वार सूत्र) के अनुसार अध्ययन के नाम स्थापना आदि चार भेदों का वर्णन कर अध्ययन, अक्षीण, आय और अपणा इन चारों से दुमपुष्पिका की सम्बन्ध योजना करनी चाहिए।
उपचित ( संचित ) कर्मों का अपचय और यही अध्ययन है।
है अथवा जिससे अर्थबोध में अधिक इससे मुनि संयम के प्रति तीव्र प्रयत्न करता है, इसलिए (भव्य जन
२६. अध्ययन का अर्थ है- अध्यात्म का आनयन। नए कर्मों का अनुपचन, यह सारा अध्यात्म का आनयन है २७. भिवध हो है यह गति होती है, वह अध्ययन है। अध्ययन की इच्छा करते हैं। २८. जैसे दीपक स्वयं प्रज्वलित होता हुआ अन्य सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करता है, वैसे ही) दीपक के समान आचार्य स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। २९. आय का अर्थ है साथ जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति होती है वह भाव आय है ।
३०. पूर्व संचित आठ प्रकार की कर्मरजों को मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से क्षोण करना क्षपणा है। इस भाव अध्ययन को क्रमशः अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा के साथ योजित करना चाहिए ।
३१. 'दुम' और 'पुष्प' शब्द के चार-चार निक्षेप है-नाम द्रुम स्थापना द्रुम, द्रव्यम और भाव द्रुम तथा नाम पुष्प, स्थापना पुष्प, मुख्य पुष्प और भाव पुष्प ।
३२. द्रुम, पादप, बुध, अगम, विटपी, तर, कुह महीमह, बच्छ, रोमक और कम के पर्यायवाची शब्द है ।
३३. पुष्प, कुसुम, फुल्ल, प्रसव, सुमन और सूक्ष्म ( सूक्ष्मकायिक ) - ये पुष्प के एकार्थक शब्द
हैं।
२४. मपुष्पिका आहार एषणा गोचर त्वक्, उञ्छ, मेष, जोंक, सर्प, व्रण, अक्ष, पु, लाख का गोलक, पुत्र ( पुत्रमांस) और उदक ये सब प्रथम अध्ययन के एकार्थक है । ( अन्य मान्यता
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निर्युक्तिपंचक
के अनुसार ये प्रथम अध्ययन के अधिकार हैं)।'
३५. कहीं शिष्यों के पूछने पर और कहीं न पूछने पर भी आचार्य शिष्यों के हित के लिए अर्थ का निर्देश करते हैं। शिष्यों के पूछने पर होने वाला निर्देश अधिक लाभप्रद और विस्तृत होता है ।
७४
३६. नाम, स्थापना, द्रव्य और भावये धर्म के चार निक्षेप हैं। इनके भेदों का यथाक्रम से वर्णन करूंगा ।
३७. धर्म के चार प्रकार है- द्रव्यधर्म, अस्तिकायधर्म प्रचारधर्म और भावधर्मं । द्रव्य के जो पर्याय हैं, वे उस द्रव्य के धर्म हैं ।
३८. धर्मास्तिकाय अस्तिकाय धर्म है और प्रचारधर्म विषयभ्रमं है। भावधर्म के तीन प्रकार हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तर । लौकिक धर्म अनेक प्रकार का है।
३९. गम्य, पशु, देश, राज्य, पुरवर, ग्राम, गण, गोष्ठी और राजये लौकिक धर्म है । afrsों का धर्म कुप्राणचनिक धर्म । पर सावध होने के कारण जिनेश्वर भगवान द्वारा प्रशंसित नहीं है।
४०. लोकोत्तर धर्म दो प्रकार का है-श्रुत धर्म और चारिव धर्म । श्रुत धर्म स्वाध्याय रूप है। क्षमा, मुक्ति आदि दश श्रमण धर्मो का समावेश चारित्र धर्म में होता है ।
४१. 'मंगल' शब्द के चार निक्षेप हैं—नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल और भावमंगल । परिपूर्ण कलश आदि द्रव्यमंगल है। धर्म से सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए वह भावमंगल है |
१. हाटी ५० १९ एवमेतान्यकाविकानि, अर्थाधिकारा एवान्ये |
१. आहार एवणा - तीनों एषणाओं से युक्त | २. गोचर - गाय की तरह चरना- घर-घर जाकर बहार लेना ।
३. त्वस्व की भांति असार भोजन का सूचक ।
४. संछ- अशात पिंड का सूचक ।
५. मेष- अनाकुल रहकर एषणा करने का सूचक ।
६. जोंक - अनषणा में प्रवृत्त दायक को मृदुभाव से निवारण करने का सूचक । ७. सर्प - गोचर में प्रविष्ट मुनि की संयम के प्रति एकवृष्टि होने का सूचक । ८. व्रण-क्षण पर लेप करने की भांति भोजन करने का सूचक |
९. अक्ष अक्ष पर लेपन की भांति संयमभार निर्वहन के लिए भोजन करने का सूचक । १०. इषु तीर लक्ष्य वैधक होता है। मुनि के लिए लक्ष्यवेध के लिए भोजन करने का सुचक ।
११. गोला - लाख का गोला - गोचराग्रगत मुनि के मितभूमि में स्थित रहने का
सूचक ।
१२. पुत्र-पुत्रमांस की भांति अस्वादवृत्ति से भोजन करने का सूचक ।
१३. उदक- - दुर्गन्धयुक्त पानी को पीना केवल तृषापनयन के लिए यह अस्वादवृत्ति का सूचक ।
ये सभी उदाहरण अर्थ की निकटता के कारण दुमपुष्पिका अध्ययन के एकार्थक माने गए हैं।
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दशकालिक नियुक्ति ४२. हिंसा का प्रतिपक्षी तत्व अहिंसा है। उसके चार विकल्प है
१. द्रव्यतः अहिंसा भावतः अहिंसा । २. द्रव्यत: अहिंसा भावतः हिंसा । ३. द्रव्यतः हिसा भावतः अहिंसा।
४. व्यतः हिंसा भावतः हिंसा 1 ४३. संयम के सत्तरह भेद है-पृथ्वी संयम, पानी संयम, अग्नि संयम, वायु संयम, बनस्पति संषम, दीन्द्रिय संयम, त्रीन्द्रिय संमम, चतुरिन्द्रिय संयम, पंचेन्द्रिय संयम, अजीब (उपकरण) संयम, प्रेक्षा संयम, उपेक्षा संयम, प्रमार्जन संयम, परिधापन इंस, मन संयम, वचन संयम और काय संघम । ___४. बाह्य तप के छह प्रकार है-अनपान, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याय, कायक्लेश और प्रतिसलीनता।
४५. आभ्यन्तर तप के छह प्रकार है- प्रायश्चित्त, विनय, यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
४६. वीतराग के वचन सत्य ही है फिर भी श्रोता की अपेक्षा से कहीं उदाहरण और कहीं हेतु भी दिया जाता है।
४७. यह हेतु कहीं-कहीं पंच अवयवात्मक (प्रतिज्ञा, हेतु, दुष्टान्त, उपनय और निगमन) होता है और कहीं-कहीं दस अवयवात्मक भी होता है। हेतु और उदाहरण सर्वथा प्रतिषिद्ध नहीं हैं, फिर भी यहां इन सबका विवेचन नहीं किया गया है, क्योंकि दूसरे आगमों में इनका विश्लेषण पक्षप्रतिपक्ष सहित किया गया है।
४७१. आहरण (उदाहरण) के दो भेद हैं। वे दोनों भेद चार-चार विभागों में विभक्त है। हेतु के चार भेद हैं । इससे प्रतिज्ञात अर्थ की सिद्धि होती है।
४८. दो और चार भेदों में विभक्त उदाहरण के ये एकार्थक शब्द है-शात, उदाहरण, दृष्टान्त , उपमा और नियर्थन ।
४१. उदाहरण के दो भेद हैं-यरित और कल्पित । इन दोनों में प्रत्येक के चार-चार भेद हैं- आहरण, तद्देश, तद्दोष और उपन्यास ।
५०. आहरण के पार भेद है-अपाय, उपाय, स्थापना और प्रत्युत्पन्न-बिनाश। अपाय के चार भेद हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
५१. द्रष्य अपाय का उदाहरण-दो वणिक भाई धमार्जन के लिए दूर देश गए। जब ये अजित धन को लेकर स्वदेश आने लगे तब धन के लोभ से उनमें एक-दूसरे को मारने का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ। धन को अनर्थकारक समझकर उन्होंने उसको तालाब में फेंक दिया। उसे एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्य के पेट से निकले हुए धन से अपनी मां की मृत्यु देखकर बे विरक्त हो गए
और अन्त में मूनि बन गए ।' १. देखें-परि० ६, कथा सं० ।।
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७॥
निर्मुक्तिपंचक ५२. क्षेत्र अपाय का उदाहरण है-दशाई वर्ग का दूसरे क्षेत्र में अपक्रमण | काल अपाय में द्वैपायन ऋषि और भाव अपाय में क्षपक मेंढकी का उदाहरण ज्ञातव्य है।
५३. शैक्ष और अपेक्ष-दोनों प्रकार के मुनियों में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करने और उनके स्थिरीकरण हेतु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपाय का निदर्शन किया जा रहा है।
५४. विशिष्ट प्रयोजन से गहीत द्रव्य का प्रयोजन की नियत्ति हो जाने पर त्याग कर देना चाहिए । इसी प्रकार अकल्याणकारी क्षेत्र का परित्याग कर देना चाहिए। भविष्य में अनिष्ट की संभावना हो तो बारह वर्ष पहले ही उस स्थान को छोड़ देना चाहिए । यह क्षेत्र अपाय है 1 क्रोध आदि अप्रशास्त भावों का परित्याग करना भाव अपाय है।
५५. जो बादी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की दृष्टि से आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं उनके लिए सुख-दुःख, संसार और मोक्ष का सर्वथा अभाव हो जायेगा ।
___५६: एकान्त नित्यवाद के पक्ष में सुख-दुःख का प्रयोग घटित नहीं होता। इसी प्रकार एकान्त उच्छेदबाद में भी सुख-दुःख की कल्पना संगत नहीं बैठती।
५७. उपाय के भी चार प्रकार होते हैं-द्रव्य उपाय, क्षेत्र उपाय, काल उपाय और भाव उपाय। द्रव्य उपाय में प्रथम अर्थात् लौकिक है-धातुवाद । उसमें सुवर्ण आदि धातुओं को विशेष प्रयोग से शुद्ध करना होता है। लांगल (हल), कुलिका आदि द्वारा क्षेत्र की शुद्धि करना क्षेत्र उपाय है।
५८. नालिका आदि साधनों से काल का शान किया जाता है, यह काल उपाय है। भाव उपाय में बुद्धिमान अभयकुमार का निदर्शन है। चोर को पकड़ने के लिए अभयकुमार नर्तक द्वारा खेल दिखाने से पूर्व जनता को वडकुमारी का कथानक कहता है।
५९. आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुपलब्ध है फिर भी सुख-दुःख आदि हेतुओं द्वारा उसके अस्तित्व का बोध होता है।
०१. जिस प्रकार देवदत्त नामक व्यक्ति की घोड़े से हाथी पर, ग्राम से नगर में, वर्षा ऋत से पारद ऋतु में और उदय भाव से उपशम भाव में संक्रांति होती है उसी प्रकार सत् जीव का ध्या, क्षेत्र. काल और भाव आदि में संक्रमण होता है। इस अपेक्षा से भी जीव का अस्तित्व प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से साधा जाता है।
६२, सत जीव का द्रव्य आदि में संक्रमण होता है । इस अपेक्षा से ही आत्मा के परोक्ष होने पर भी उसकी परिणमनशीलता प्रत्यक्षत: सिद्ध होती है।
६३. स्थापना कर्म के उदाहरण में दो दृष्टांत -पौडरीक तथा मालाकार।
एक मालाकार मार्ग में शारीरिक बाधा से पीड़ित हो गया। उसने मलोत्सर्ग कर करतक में संगहीत पुष्प उस पर डाल दिए । लोगों ने कारण पूछा तो वह बोला-मैने प्रत्यक्ष देखा है कि यहाँ हिंगुशिव नामक व्यन्तर देव प्रगट हुआ है । उसकी पूजा करने के लिए मैंने ऐसा किया है। १. देखें--परि०६, कथा सं० ४।
३. देखें सूयगडो २०१६ २. देखें-परि० ६, कथा सं० ५।
४. देखें-परिः ६, कथा सं०७।
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कालिक निर्मुक्ति
६४. किसी तत्व की सिद्धि के लिए तत्काल सम्यभिचारी हेतु दिया जाता है तथा स्वपक्ष और परपक्ष का प्रज्ञावल जानकर उसे अभिव्यक्ति देते हुए दूसरे हेतुओं से उसी हेतु का समर्थन किया जाता है ।
६५, ६६. प्रत्युत्पष्ठ विनाश में गान्धविकों (संगीतकारों) का उदाहरण है।' इसी प्रकार यदि शिष्य किसी भी महिला के प्रति आसक हो जाए तो गुरु ऐसा उपाय करे कि दोष का निवारण हो जाए । ( यह लौकिक चरणानुयोग का उदाहरण है ) । द्रव्यानुयोग के अनुसार यदि कोई वातूलिक नास्तिक कहे कि वट-पट आदि पदार्थों का अस्तित्व नहीं है, फिर जीव का अस्तित्व कैसे होगा ?
६७. इस प्रश्न के समाधान में आचार्य कहते हैं- तुमने कहा 'पदार्थ नहीं हैं' तुम्हारा यह वचन सत् है या असत् ? यदि सत् है तो प्रतिज्ञाहानि ( स्वीकृत पक्ष की असिद्धि ) होती वचन असत् है तो भावों का निषेधक कौन होगा ?
और
७७
६८. विवक्षापूर्वक बोला गया शब्द अजीव से उत्पन्न नहीं हो सकता और अजीव को विवक्षा नहीं हो सकती । अतः यत्मा का प्रतिषेध करने वाली शब्द ध्वनि 'आत्मा नहीं है' से ही जीवत्व की सिद्धि होती है ।
६९ आहरणदेश के चार प्रकार हैं- अनुशिष्टि, उपालम्भ, पृच्छा और निश्रावचन । अनुष्टि के प्रसंग में सुभद्रा का उदाहरण है।
जैसे
७०. सुभद्रा नागरिकों द्वारा साधुकार (धन्यवाद) पुरस्सर सम्मानित हुई वैसे ही वैयावृत्य आदि में संलग्न मुनियों का भी आचार्य सद्गुण-कीर्तन से सम्मान करे ।
७१. कुछ दार्शनिक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं पर उसे अकर्ता मानते हैं। हम कहते है 'आत्मा है' यह सत्य है किंतु वह अकर्ता नहीं है। क्योंकि अकर्ता को सुख-दुःख का बोध नहीं होता | आत्मा सुख-दु:ख का वेदन करती है, इसलिए वह कर्ता है ।
७२. उपालम्भ द्वार की विवक्षा में मृगावती का उदाहरण है ।' नास्तिकवादी को भी ऐसे ही कहना चाहिए कि 'आत्मा नहीं है'- आत्मा के अस्तित्व का निषेध करने वाला यह ज्ञान आत्मा के अभाव में संगत कैसे हो सकेगा ?
७३. आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जो तर्क है और नास्तित्य विषयक जो कुविज्ञान है, वह जीव के अत्यन्त अभाव में संगत नहीं हो सकता ।
७४, ७५, पुच्छा के प्रसंग में कोणिक तथा निश्रावचन के प्रसंग में गौतम स्वामी" का उदाहरण है । जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करने से नास्तिकवादी से यह प्रश्न पूछा जाए – 'मात्मा नहीं है' इस कथन के पीछे हैत क्या है ? यदि परोक्ष प्रमाण को हेतु मानते हो तो यह तुम्हारा कुविज्ञान है क्योंकि परोक्ष तो परोक्ष ही है, वह 'आत्मा नहीं है' ऐसा निषेध कैसे कर सकता है ?
७६. किसी दूसरे हेतु से नास्तिकवादी से यह कहना चाहिए कि जिन वादियों की मान्यता से आत्मा नहीं है उनके लिए दान, होम, मण आदि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वर्ग, मोक्ष आदि भी नहीं हैं।
१. देखें- परि० ६
२. देखें- परि० ६
३. देखें- परि० ६
कथा सं० ८ । कथा सं० ९1 कथा सं० १०
४. देखें- परि० ६ कथा सं० ५. देखें परि० ६ कथा सं०
११ ।
१२ ।
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७७
नियुक्तिपंचक
७७. उदाहरण (आहरण) के चार दोष हैं-अधर्मगुप्त, प्रतिलोम, आरमोपन्यास और दूरुपनीत । अधर्मयुक्त-उदाहरणदोष में नलदाम का उदाहरण है।'
७८. प्रतिलोम-उदाहरणदोष में अभयकुमार का उदाहरण है। अभयकुमार ने राजा प्रद्योत का हरण क्रिया और गोपेन्द्र (अथवा. गोविन्द) वाचक ने परपक्ष का निवर्तन किया।
७९. आत्मोपन्यास-उदाहरणदोष में पिंगल स्थपति का उदाहरण है, जिसको तालाब फटने के प्रसंग में जीवित ही गड़वा दिया था। दुरुपनीत-उदाहरणदोष में मत्स्य-वध भिक्षुक का उदाहरण
८०. उपन्यास-उदाहरणदोष के चार प्रकार हैं--तद्वस्तु-उपन्यास, अन्य वस्तु-उपन्यास, प्रतिनिभ-उपन्यास और हेतु-उपन्यास । इनके उदाहरण ये हैं .
८१. तद्वस्तु-उपन्यास में व्यक्ति सब जगह धूमकर अपूर्व अर्थ का कथन करता है । तदन्मवस्तु-उपन्यास में अन्यत्व में एकत्व का प्रतिमास होता है। (जैसे 'अन्य: जीव: अन्यच्च शरीरम'यहां अन्य पाब्द साधारण है, अतः जीव और शरीर में एकत्व है।)
८२. प्रतिनिभ-उपन्यास में तुम्हारे पिता ने मेरे पिता से एक लाख मुद्राएं कर्ज में ली थी।'
हेतु उपन्यास-तुम यह यव (धान्य विशेष) क्मों खरीद रहे हो ? उत्तर दिया-क्योंकि यव मुफ्त नहीं मिल रहे हैं।
८३. अथवा हेतु के चार प्रकार हैं-यापक, स्थापक, व्यंसक और लूषक ।
४. यापक हेतु का उदाहरण - एक उद्घामिका (व्यभिचारिणी) महिला ने अपने पति को उष्ट्र लिण्डिका (ऊंट की मौंगणी) देकर व्यापार करने के लिए भेजा।"
स्थापक हेतु का उदाहरण-- एक परिवाजक ने लोक का मध्य भाग बताया।
८५. ध्यंसक हेतु में शकट तित्तिरी का उदाहरण सातव्य है ।' पुष-व्यंसक प्रयोग में तथा पुन: लूषक हेतु में मोदक का उदाहरण है।"
८६ 'अहिंसा, तप आदि गुणों से युक्त धर्म ही परम मंगल है',--यह प्रतिज्ञा वचन है। देव तथा लोकपूज्य पुरुष भी सुधर्म को नमस्कार करते हैं, यह हेतु है ।
___८६. इस सन्दर्भ में दृष्टांत है-अर्हत् भगवान् और अहंत भगवान् के अनेक अनगार शिष्य देवादिपूजित थे । इसका निश्चय कैसे किया गया ? वर्तमान के आधार पर अतीत जाना जाता है। वर्तमान में नरपति आदि विशिष्ट व्यक्ति भी भाव साधु को नमस्कार करते हैं।
८. उपनय--जैसे तीर्थंकरों को देव नमस्कार करते हैं वैसे ही राजा भी सुधर्म के प्रति नत होते हैं । इसलिए धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है, यह निगमन वचन है ।
१. देखे-परि० ६, कथा सं० १३ । २.देखें-परि० ६, कथा सं०१६ । ३. देखें-परि० ६, कथा सं० १७ । ४. देखें-परि०६, कथा सं०१८ | ५. देखें-परि० ६, कथा सं० १९।
६. देखें-परि०६, कथा सं० २० । ७. देखें--परि ६, कथा २०२१ । ८. देखें परि० ६, कथा सं० २२ ।
९. देखें परि० ६, कथा सं० २३ । १०.देखें-परि०६ कथा सं. २४ ।
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दशवकालिक नियुक्ति
८९. दूसरा प्रतिज्ञा-वचन है-जिन मा।सन में प्रदजित मुनि धर्मोपदेश करते हैं। उसका हेतुवचन है—'क्योंकि वे पारमार्थिक अहिंसा आदि तत्वों के आचरण में प्रयत्नशील रहते हैं।
८९।१. जैसे जिन शासन में निरत मुनि शुद्ध धर्म का पालन करते है, वैसे धर्म की परिपालना के उपाय अन्यतीथिकों में नहीं देखे जाते ।
१९।२. उन अभ्यतीथिकों में भी धर्म शब्द प्रचलित है और वे अपने-अपने धर्म की प्रशंसा भी करते हैं किंतु जिनेश्वर भगवान् ने कुतीथिकों के धर्म को सावध बताया है ।
८९.३. अन्यतीथिकों में जो धर्म शब्द है, वह मात्र औपचारिक है। निश्चय धर्म तो जिनशासन में ही है । जैसे-सिंह शब्द प्रधानतः सिंह के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है पर उपचार से इसका प्रयोग अन्यत्र किसी नाम आदि में भी होता है।
९०. जिनेश्वर भगवान के शासन में प्रवजित मुनि भक्त, पान, उपकरण, वसति, नयन, आसन आदि में यतना का व्यवहार करते हैं तथा वे प्रामुक, अकृत, अकारित, अननुमत और अनुद्दिष्ट भोजी होते हैं।
९१. (चरक आदि) बन्यतीथिक अप्रासुक, कारित, अनुमत और उद्दिष्ट भोजी होते हैं तथा वे अकुमाल व्यक्ति त्रस और स्थावर के हिसा-जानप्त पापकर्म से लिप्त होते हैं।
५२,९३. सदाहरणदेश में अमर का उदाहरण दिया जाता है। जैसे- -चन्द्रमुखी दारिका . बालिका का मह चन्द्रमा जैसा है। यहां दृष्टान्त में चन्द्रमा के सौम्यत्व का अवधारण है पर उसके शेष धर्म-कल छू आदि का ग्रहण नहीं है। इसी प्रकार भ्रमर के उदाहरण में उसकी अनियतवृत्तिस्य को ग्रहण है, शेष धर्मों का नहीं ! यह दृष्टांत-विशुद्धि सूत्रकथित है और मह दूसरी दृष्टान्त-विशुद्धि सूत्रस्पशिकनियुक्ति में भी निर्दिष्ट है।
९४, कोई व्यक्ति यह कहे कि गृहस्थ सुविहित श्रगणों के लिए ही रसोई करते हैं, भोजन बनाते हैं अत: सुविहित श्रमण' यदि वह भिक्षा ग्रहण करते हैं तो वे 'पाकोपजीवी' होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं । (इसके उत्तर में कहा गया )
९५. तणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगकूल के लिए तृण नहीं बढ़त और भ्रमरों के लिए शतशाखी वृक्ष पुष्पित नहीं होते। इसी प्रकार गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं बनाते।
९५१. अग्नि में घी की आहूति डाली जाती है । उससे प्रसन्न होकर सूर्यदेव लोकहित के लिए वर्षा करता है और उस वर्षा से औषधियां उत्पन्न होती हैं ।
९५॥२,३. होम करने से वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों होता है ? यदि दुभिक्ष का निमित्त दुरिष्ट (बुरा नक्षत्र) या अविधि से किया यज्ञ है तो सब जगह दुभिक्ष क्यों होता है? (दुरिष्ट तो नियत देश में होता है। यदि वर्मा का कारण इन्द्र है तो क्या निर्यात, दिग्दाह आदि से इन्द्र के काम में विघ्न होता है ? मानना चाहिए कि वर्षा ऋतु के अनुसार ही होती है। वह धान्य, तृण आदि के लिए नहीं होती।
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निर्वृक्तिपंचक
९६. आहार न मिलने के कारण भ्रमर और मधुकरीगण क्लांत न हो जाएं, क्या इसीलिए समय पर वृक्ष फलते-फूलते हैं ?
50
९६।१. किसी की बुद्धि में यह बात भी आ सकती है कि प्रजापति ने हर प्राणी को आजीविका दी है अतः वृक्ष भी मधुकरी गण के लिए ही फलते-फूलते हैं।
९६ २. ऐसा नहीं होता, क्योंकि वृक्ष तो जन्मान्तरों में अर्जित नामगोत्रकर्म के उदय से फूलतेफलते हैं । दूसरा कारण यह है
९७. अनेक ऐसे वनखंड हैं जहां न तो कभी भ्रमर कहीं से आते हैं और न यहां निवास करते हैं, फिर भी उस वनखंड के वृक्ष फूलते हैं। फूलना - फलना वृक्षों की प्रकृति है ।
९७ / १,९८. यदि वृक्षों की प्रकृति ही ऐसी है तो वे हर समय फल-फूल क्यों नहीं देते। वे समय पर ही फल-फूल क्यों देते हैं ? आचार्य ने कहा- क्योंकि वृक्षों को प्रकृति ही ऐसी है कि वे अनुकूल ऋतु में ही फूलते हैं और काल-परिपाक से ही फलवान् बनते हैं ।
९९. आहार न मिलने के कारण श्रमण भगवान् क्लान्त न हो जाएं, क्या इसी उद्देश्य से गृहस्थ यथासमय श्रमणों के लिए आहार बनाते हैं ?
१९११,१००,१०१. कोई यह कहे कि श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से गृहस्थ मुनि के लिए आहार बनाते हैं, यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महान् आतंक (महामारी) में भी पालन नहीं करते । तपस्वी श्रमण रात्रि में चारों प्रकार के आहार से विरत होते हैं। फिर भी गृहस्थ अत्यन्त प्रसन्नता से रात में भोजन क्यों
पकाते हैं ?
१०२. अनेक ग्राम और नगर ऐसे भी हैं जहाँ न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन तो पकाते ही हैं, क्योंकि गृहस्थों की यह प्रकृति है ।
१०३. गृहस्थों की यह प्रकृति है कि वे ग्राम, नगर और निगम में अपने लिए तथा परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं ।
१०४. वहां पर तपस्वी श्रमण संयम योगों की साधना के लिए परकृत ( परार्थ आरब्ध ), परनिष्ठित (परार्थ निष्पन्न) और विगतधूम (धूम, अंगार आदि आहार के दोषों से रहित) आहार की एषणा करते हैं।
१०५. साघु अहिंसा की परिपालना के लिए नवकोटि से परिशुद्ध' तथा उद्गम, उत्पादन एवं एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करे। वह छह कारणों से आहार करे।
१. नवकोटि परिशुद्ध भोजन के लिए न स्वयं हिंसा करे न करवाए और न अनुमोदन करे । भोजन न खरीदे, न खरीदाए, न खरीदने वाले का अनुमोदन करे। भोजन न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे ।
२. आहार करने के छह कारण ये हैं- क्षुधा की वेदना को शांत करने के लिए, सेवा के लिए, पंथगमन के लिए, संयम पालन के लिए, प्राणों को टिकाए रखने के लिए तथा धर्मचिन्ता के लिए |
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६१
दशकालिक नियुक्ति
१०६. यह दृष्टांत-शुद्धि है । उपसंहार सूत्र में ही निदिष्ट है । संति का अर्थ है हैं। वे मुनि शांति और सिद्धि को साध लेते हैं।
१०७. जो द्रव्य-विहंगम की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म-को धारण करता है, वह द्रव्य विहंगम है । भाष विहंगम के दो प्रकार हैं-गुणसिद्धि विहंगम और संजासिद्धि विहंगम ।
१०८-११७. विह का अर्थ है--आकाम" । लोक आकाश प्रतिष्ठित है । जिस कारण से विह को आकाश कहा गया है उसी कारण से गणसि
er या उसी कारण से गणसिद्धि अर्थात् अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन
अथवा गति के दो प्रकार हैं भावगति और कर्मगति । धर्मास्तिकाय आदि चार अस्तिकायों की गति है-भावगति । चारों अस्तिकाय विहंगम है--सभी आकाश में अपने अस्तित्व को धारण किए रहते हैं । कर्म गति के दो भेद हैं-विहायोगति और चलनगति । कर्मगति के ही ये दो भेद हैं. भावगति के नहीं। बिहायोगतिकर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव विहायोगति के कारण विहंगम बहलाते हैं।
१११. पलनकर्मगति की अपेक्षा से संसारी जीव तथा पुद्गल द्रव्य विहंगम है । प्रस्तत में गणसिद्धि अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन है ।
११२. संसासिद्धि की अपेक्षा से सभी पक्षी विहंगम हैं। प्रस्तुत सूत्र में यहां आकाश में गमन करने वाले भ्रमरों का प्रसंग है।
११३. प्रस्तुत प्रलोक में 'दान' शब्द 'दत्तग्रहण'—दिए हुए का ग्रहण करने के अर्थ में तथा 'भज सेवायो' धातु से निष्पन्न 'भक्त' शब्द प्रासुक भोजन-ग्रहण का वाचक है। मुनि तीन प्रकार की एषणाओं-गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगषणा में निरत रहते हैं। उपसंहार-शुद्धि का कथन इस प्रकार है
११४. भ्रमर तथा मधुकरीगण तो अदत्त ---बिता दिया हुआ मकरंद पीते हैं कित ज्ञानी श्रमण अदत्त भोजन ग्रहण करने की इच्छा भी नहीं करते।
११५. यदि संयमी मुनि असंयत भ्रमरों के समान होते हैं तो इस उपमा से यह निष्कर्ष निकलता है कि थमण असंपत ही होते हैं।
११६. मुनि को भ्रमर की उपमा पूर्वोक्त देशलक्षण उपनय से दी गई है । इस उपमा का निर्देश केवल अनियतवृत्ति बताने के लिए है । यह अहिंसा के पालन का संकेत भी देती है ।
११७. जैसे वृक्ष स्वभावतः फलते-फूलने हैं, वैसे ही गृहस्थ मी स्वभावतः पकाते और पकवाते हैं। जैसे भ्रमर है वैसे ही मुनि हैं। दोनों में अंतर इतना ही है कि मुनि अदत्त आहार का उपभोग नहीं करते, भ्रमर करते हैं ।
. ११८. जैसे भ्रमर सहज विकसित फूलों का रस लेते हैं वैसे ही सुविहित श्रमण भी सहज निध्पन्न आहार की गवेषणा करते है।
११९, जैसे भ्रमर अचधजीवी हैं, वैसे ही श्रमण भी अवधजीवी है। यह उपसंहार है । 'दांत' शब्द का पुन: प्रयोग केबल वाक्यशेष ही जानना चाहिए ।
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८२
निर्मुक्ति पंचक
१२०. जैसे इस अध्ययन में एषणा समिति के विषय में मुनि आचरण करते हैं, वैसे ही ईय समिति आदि तथा समस्त श्रमण धर्म के विषय में मुनि यतनाशील रहते हैं । परमार्थ रूप में मुनि त्रस और स्थावर प्राणियों के हित के लिए मतनाशील होते हैं।
१२०११. यह उपसंहार-विशुद्धि समाप्त है। अब निगमन का अवसर है । वह इस प्रकार है इसलिए मुनि मधुकर के समान कहे गए हैं।
१२०/२. इसलिए दया आदि गुणों में सुस्थित तथा भ्रमर की तरह अवधजीवी सुनियों के द्वारा प्रतिपादित धर्म 'उत्कृष्ट मंगल है |
१२० ३,४ निगमन-शुद्धि इस प्रकार है—चरक, परिवाजक आदि अन्यतीर्थिक भी धर्म के लिए उच्चतविहारी हैं, फिर वे साधु क्यों नहीं है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अन्यतीर्थिक पृथ्वी आदि छह काय की यतना नहीं जानते और ज्ञान के अभाव में तदनुरूप आचरण भी नहीं करते । तेन उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं, न भ्रमर की तरह प्राणियों के अनुपरोधी होते हैं और न मुनियों की भांति सदा तीन गुप्तियों से गुप्त होते हैं । (इसलिए वे साधु की श्रेणी में नहीं जाते ।)
१२१. मुर्ति शरीर, वाणी, मन तथा पांचों इंद्रियों का दमन करते हैं । ये ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं तथा कषायों का नियमन करते हैं ।
१२२. जो मुनि तप में उद्यमशील हैं तथा साधु-लक्षणों से परिपूर्ण हैं ये ही 'साधु' शब्द से अभिहित किए जाते हैं। यह निगमन वाक्य है ।
१२३. प्रस्तुत अध्ययन के अधिकार के दश अवयव ३. हेतु ४. हेतुविभक्ति ५. विपक्ष ६. प्रतिषेध ७. दृष्टांत १०. निगमन ।
5
ये हैं- १. प्रतिज्ञा २. प्रतिज्ञाविभक्ति
आशंका ९. आशंका- प्रतिषेध और
१२३ । १. 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है' यह प्रतिज्ञा है । यह आप्तवचन का निर्देश है। वह धर्म इस जिनमत में ही है अन्यत्र नहीं, यह प्रतिज्ञाविभक्ति है ।
१२३४२. 'देवों द्वारा पूजित - यह हेतु है । जो व्यक्ति उत्कृष्ट धर्म में स्थित है, वे ही देवों द्वारा पूज्य हैं । जो व्यक्ति निष्कषाय हैं और जीवों को पीड़ा नहीं पहुंचाते हुए जीते हैं वे ही परम धर्मस्थान में स्थित है - यह हेतुविभक्ति है ।
१२३ ३. जो जिनवचनों के प्रति प्रद्विष्ट हैं, अधर्मरुचि वाले हैं तथा जो श्वसुर माता पिता आदि ज्येष्ठ जन हैं, इन सबको व्यक्ति मंगलबुद्धि से नमस्कार करता है, यह आश्चद्रय – प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्ष है।
१२३।४. यज्ञ-याग करने वाले भी देवों द्वारा पूजे जाते हैं - यह हेतु और हेतु शुद्धि का विपक्ष है । बुद्ध, कपिल आदि भी देवपूजित कहे जाते है यह ज्ञात -दृष्टांत प्रतिपक्ष है ।
१२३५ इन चार अवयवों का प्रतिपक्ष पांचवां अवयव है- 'विपक्ष'। इसके बाद विपक्षप्रतिषेध नामका अवयव कहूंगा ।
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दशवकालिक निर्युक्ति
१२३।६. सातवेदनीम, सम्यक्स्वमोहनीय, पुवेदमोहनीय, हास्यमोहनीय, रतिमोहनीय, शुभआयुष्य, शुभनाम और शुभगोत्र-ये सब धर्म के ही फल हैं। इसलिए धर्म ही मंगल है। यह प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्षप्रतिषेध है।
१२३।७. अजितन्द्रिय, सोपाधिक मायावी और परिग्रही तथा हिंसक व्यक्ति भी पूजे जाते हैं तब तो अग्नि' भी शीतल हो जाए । यह हेतु तथा हेतुविभक्ति का बिपक्षप्रतिषेध है।
१२३।८. बुद्ध, कपिल आदि तो औपचारिक रूप से पूजा के पात्र हैं। वास्तविक पूजा के पात्र तो जिनेश्वर भगवान् ही हैं । यह दृष्टांत-विपक्ष-प्रतिषेध नामक खटा अवयव है।
१२३३९ अरिहंत भगवान तथा उनके मार्गानुवर्ती समचित साधु भी यहाँ दृष्टांत स्वरूप हैं। वे मुनि पाकरत गृहस्थों के घरों में अहिंसक वृत्ति से आहार की एषणा करते हैं । यह दृष्टान्तवाक्य है।
१२३।१०, यहां एक तर्क उपस्थित होता है कि यदि गृहस्थ अपने परिजनों के साथ मुनि को भी उद्दिष्ट करके आहार पकाता है तो उससे क्मा ? यह विषम दृष्टांत है, क्योंकि इससे साधुओं की अनवधवृत्ति का अभाव हो जाता है। यह आठवा अवयव है। नौवां अवयव है-दृष्टांतप्रतिषेध । जैसे-वर्षा ऋतु में सहज निष्पन्न तृण ।
१२३३११. अतः देवों और मनुष्यों के द्वारा पूजनीय होने के कारण धर्म ही शाश्वत मंगल है । यह प्रतिज्ञाहेतु का पुनर्वचन अर्थात् निगमन नामक दसवां अवयव है ।
१२४. यह द्रुमपुष्पिका की नियुक्ति संक्षिप्त में व्याख्यात है । इसका अर्थविस्तार अर्हत् और चतुर्दशपूर्वी बता सकते हैं।
१२५. अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह जो उपदेश है, वह नय है ।'
१२६. सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर जो चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है. साधु है, वह सर्वनयसम्मत होता है । सरा अध्ययन : भामध्यपूर्वक
१२७. 'श्रामण्यपूर्वक' यह नामनिष्पन्न निक्षेप है। 'श्रामण्य' शब्द के पार निक्षेप हैं तथा 'पूर्वक' पाब्द के सेरह निक्षेप है।
१२८. श्रमण शब्द के क्रमश: चार निक्षेप ये हैं . १, नामश्रमण २ स्थापनाश्रमण ३. द्रव्यश्रमण ४. भावभ्रमण । द्रव्यश्रमण के दो भेद हैं- आगमतः द्रव्यश्रमण और नोआगमत: ध्यश्रमण । भावथमण संयत मुनि ही हैं।
१२९. जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समता में गतिशील होता है, वह समण है ।
गाथा क्रियानय की अपेक्षा से ब्याख्यात है।
१. हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ८० में यह गाथा ज्ञानमय की अपेक्षा से तथा पत्र ८१ में यही
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नियुक्तिपंचक १३०. सब जीवों में जिसके लिए कोई प्रिम या अप्रिय नहीं होता, वही 'समन'-समान मन झाला होता है । पर शमा का दूसरा पर्यायवाची नाम है ।
१३१. इसलिए जो सुभान वाला होता है, भाव से पापमन वाला नहीं होता, स्वजन-परजन तथा मान और अपमान में सम होता है, वह 'समण' है।
१३२. जो मुनि सर्प के समान (एक दृष्टि), पर्वत के समान (कष्टों में अप्रपित), अग्नि के समान (अभेददृष्टि), सागर के समान (गंभीर और ज्ञान रत्नों से युक्त), नभस्तल के समान (स्वावलंबी), वृक्ष के समान (मान-अपमान में सम), भ्रमर के समान (अनियतवृत्ति), मृग के समान (अप्रमत्त), पृथ्वी के समान (सहिष्ण), कमल के समान (निलेप), सूर्य के समान (तेजस्वी) और पवन के समान अप्रतिबद्धविहारी होता है, बही वास्तविक श्रमण है।
१३३ मुनि को विष की तरह सर्व रसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, पवन की तरह अप्रतिबद्ध, बंजुल की तरह विषपातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की तरह सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की भांति उपयुक्त देश-कालचारी परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संबिभागी और कांच की तरह निर्मल होना चाहिए ।
१३४,१३५. प्रवजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, मिक्ष, परिव्राजक, श्रमण, निग्रंथ, संयत, मुक्त, तीर्ण, वामी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रुक्ष और तीरार्थी-ये श्रमण के पर्यायवाचक शब्द है।
१३६. पूर्व शब्द के तेरह निक्षेप हैं-१. नाम २ स्थापना ३. द्रव्य ८. क्षेत्र ५. काल ६. दिशा ७. तापक्षेत्र ८. प्रज्ञापक ९. पूर्व १७. वस्तु ११. प्राभूत १२. अतिप्राभूत और १३. भाव ।
१३७, काम शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१३५. शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श और मोहोदय में निमित्त बनने वाले पदार्थ द्रव्यकाम है। भावकाम के दो प्रकार हैं-इच्छाकाम और मदनकाम।
१३९ इच्छा प्रशस्त भी होती है और अप्रशस्त भी (प्रशस्त इच्छा है। धर्मेच्छा, मोक्षेच्छा आदि । अप्रशस्त इच्छा है-युद्धेच्छा, राज्येच्छा आदि) । मदनकाम का अर्थ है वेद का विपाकोदय । प्रस्तुत प्रसंग में मदनकाम का अधिकार है, धीरपुरुष उसका निरुक्त बतलाते हैं।
१४०. विषयजन्य सुखों में आसक्त, कामराग में प्रतिबद्ध तथा अज्ञानी व्यक्तियों को धर्म से उत्क्रांत-दूर कर देने के कारण ये 'काम' कहलाते हैं ।
१४१. बुद्धिमान व्यक्ति 'काम' का अपर नाम रोग बतलाते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति काम की अभिलाषा करता है, वह वास्तव में रोग की अभिलाषा करता है ।
१४२. पद के मुख्य रूप से चार प्रकार है-नामपद, स्थापनापद, द्रव्यपद और भावपद । प्रत्येक पद अनेक प्रकार का है, यह ज्ञातव्य है।
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दशकालिक निति
१४३. द्रष्यपद के ११ प्रकार है
१. आकोट्टिम रुपए आदि के सिक्के को दोनों ओर से कटकर बनाना . २. उत्तीर्ण-प्रस्तर आदि में नाम आदि उत्कीर्ण करना । ३. उपनेय-चकूल आदि के संस्थान में मिट्टी के फूल बनाना । ४. पीडित-संवेष्टित वस्त्र में सप्लवर्ट। ५. रंग-वस्त्र का रंग । ६. प्रथित-गूंथी हुई माला। ७. बेष्टिम-पुष्पमय मुकुट । ८. पूरिम -छिदमय पुष्पकरंडक । ९. वातव्य-जुलाहे द्वारा वस्त्र बुनते समय उसमें अश्व आदि का रूप बुनना । १०. संघात्य-अनेक जोडों से बनाया हुआ वस्त्र, कंचकी आदि । ११. छेद्य-पत्रछेद्य आदि ।
१४४. भावपद के दो प्रकार हैं-अपराधपद तथा नो-अपराधपद । नो-अपराधपद दो प्रकार का है-मातृकापद (त्रिपदी) और नो-मातृकापद ।
१४५. नो-मातृकापद के भी दो प्रकार हैं-प्रथित और प्रकीर्णक । ग्रथितपद चार प्रकार का है तथा प्रकीर्णक के अनेक प्रकार हैं ।
१४६. अथितपद के चार प्रकार ये हैं-गद्य, पद्य, गेय और पोर्ण । इनके लक्षणों को जानने वाले लक्षण कवि इन सबको त्रिसमुस्थान अर्थात् धर्म, अर्थ और काम-इन तीन विषयों से उत्पन्न बतलाते हैं।
१४७. जो मधुर, सहेतुक, क्रमशः प्रथित, चरणरहित, विरामसंयुक्त तथा अन्त में अपरिमित होता है, वह गद्य काव्य कहलाता है ।
१४८. पद्य तीन प्रकार का होता है-सम, अर्धसम और विषम । 'सम' का तात्पर्य है-. पादों में सम तथा अक्षरों में सम। कुछ कहते हैं - सम का अर्थ है-चारों पादों में समान अक्षर हों। अर्धसम का अर्थ है-पहले तथा तीसरे तथा दूसरे और चौथे पाद में समान अक्षर हों। विषम का अर्थ है--सभी पादों में अक्षरों की संख्या विषम हो । ऐसा विधिज्ञ-छन्दशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं।
१४९. गीत संज्ञक गेयकाव्य के पांच प्रकार हैं
१.तंत्रीसम-जो वीणा आदि तंत्री शब्दों के साथ गाया जाता है। २. तालसम-जो ताल के साथ गाया जाता है। ३. वर्णसम-जो निषाद आदि वर्गों के साथ गाया जाता है। ४, ग्रहसम -जो उरक्षेप के साथ गाया जाता है। ५. लयसम-जो तंत्री की विशेष ध्वनि के साथ गाया जाता है।
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नियुक्तिपंचक
१५०. जो अर्थबहुल, महान् अर्य का घोतक, हेतु तथा निपात और उपसों से युक्त होने के कारण गंभीर, अपरिमित पादवाला, अव्यवच्छिन्न तथा गम (अक्षरों का उच्चारण) और नयों से शुद्ध हो वह चौर्णपद कहलाता है।'
१५१. इन्द्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग-ये अपराधपद है। अज्ञानी व्यक्ति इनमें दिषाद को प्राप्त होते हैं ।
१५॥१. जिनेश्वर भगवान ने अठारह हजार शीलांगों (भाव समाधि के भेदों अथवा कारणों) की प्ररूपणा की है। उनकी रक्षा के लिए अपराषपदों का वर्जन करना चाहिए।
१५२. अठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति के आधारभूत तत्व ये हैं-योग तीन, करण तीन, संज्ञा चार, द्रिय पांष, भीम आदि पांच स्थावर तथा तीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तथा अजीवनिकाय और दस प्रकार के श्रमण धर्म । तीसरा अध्ययन : झुल्लिकाचारकथा
१५३. नाम महद्, स्थापना महद्, द्रव्य महद्, क्षेत्र महद्, काल महद्, प्रधान महद्, प्रतीत्य महद् तथा भाब महद्-ये महबू के निक्षेप हैं । इनके प्रतिपक्षी क्षुल्लक होते है।
१५४. महा प्रतीत्य-क्षुल्लक आचार का अधिकार है। आचार के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१५५. द्रव्य आचार अर्थात् द्रव्य का उस-उस अवस्था में परिणमन । द्रव्य आचार के छह प्रकार है-नामन (झुकना), धावन (धोगा), वासन (सुगंध देना), शिक्षापण (शिक्षण), सुकरण (सरलता से रूपान्तरित करना), अविरोध (अविरुद्ध मिश्रण-गुड़, दही आदि का)।
१५६. भाव आधार के पांच प्रकार हैं दर्शन आचार, ज्ञान आचार, चारित्र आधार, तप आचार तथा वीर्य आचार ।
१५७. दर्शन आचार के आठ प्रकार हैं नि:संकित, निकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबंहण, स्थिरीकरण. वात्सल्य और प्रभावना ।
१५७.1१. अतिशेष अर्थात अवधि आदि ज्ञान से युक्त, ऋद्धि सम्पन्न, आचार्य, बादी, धर्मकथक, अपक, मैमित्तिक, विद्यासिद्ध, राजसम्मत और गणसम्मत व्यक्ति सीर्य की प्रभावना करते हैं।
१५८. ज्ञान आचार के आठ प्रकार हैं-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिण्हवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय।
१५९, चारित्र आचार के आठ प्रकार है-पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों से प्रणिधानयोगयुक्त होना।
१६०. तीर्थंकरों द्वारा दष्ट, बाघ और आभ्यन्तर भेदों से प्ररूपित बारह प्रकार के तप में अग्लान' और निस्पृह रहना तप आचार है।
१. वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य अध्ययन अर्थात
आचारांग को चौर्णपद माना है-चोर्णपद
ब्रह्मचर्याध्ययनपदवादिति, पत्र E |
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देशकालिक निर्मुक्ति
८७ १६१. जो अपने बल और वीर्य का गोपन नहीं करता, जो शास्त्रोक्त विधि से माचार में पराक्रम करता है तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वयं को उसमें नियोजित करता है, वह वीर्याचार है।
१६२. कथा के मुख्यत: चार प्रकार है- अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा तथा मिश्रकथा । प्रत्येक कथाविभाग के अनेक प्रकार हैं।
१६३. विद्या, शिल्प, उपाय, अनिर्वेद, संचय, दक्षता, साम, दंड, भेद और उपप्रदान-ये अर्थार्जन के हेतु हैं । इनकी कथा करना अर्थकथा है ।
१६३.१. सार्थवाहपुत्र ने अपनी दक्षता से, श्रेष्ठीपुत्र ने अपने रूप से, अमात्यपुत्र ने अपनी बुद्धि से सथा राजपुत्र ने अपने पुण्य से अर्थार्जन किया।
१६४, सार्थवाहपुत्र ने दक्षता से पांच रुपयों का, श्रेष्ठीपुत्र ने सौन्दयं से सौ रुपयों का, अमात्यपुत्र ने बुद्धि से हजार स्यों का सया रामपुर में युध्य से लाख रुपयों का लाभ कमाया ।'
१६५. सुंदर रूप, उदग्न अवस्था, उज्ज्वल वेष, दक्षता, विषयकला की शिक्षा, दृष्ट', श्रुत, अनुभूत और संस्तब--ये कामकथा के हेतु हैं।
१६६. तीर्थंकरों द्वारा प्रज्ञप्त धर्मकथा के चार प्रकार है-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निदनी।
१६७. आक्षेपणी कथा के चार प्रकार है-आचार विषयक, व्यवहार विषयक, प्राप्ति विषयक-संघाय निवारण के लिए प्रज्ञापना, दृष्टिवाद विषयक-सूक्ष्म तत्वों का प्रतिपादन ।
१६८. विद्या, चारित्र, तप, पुरुषार्थ, समिति तथा गुप्ति का जिस कथा में उपदेश दिया जाता है, वह आक्षेपणी कथा का रस (सार) है ।
१६९. अपने सिद्धान्तों का निरूपण करके, पर-सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अथवा परसिद्धान्तों का प्रतिपादन कर स्व-सिद्धान्तों का निरूपण करना-ये विक्षेपणी कथा के दो भेद है। अथवा मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर सम्बगवाद का प्रतिपादन करना या सम्यग्रवाद का प्रतिपादन कर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना .. ये चिक्षेपणी कथा के दो भेद हैं।
१७०. जो कथा स्वसिद्धान्त से शून्य केवल रामायण, वेद आदि से संयुक्त है तथा परसिद्धान्त का कथन करने वाली है, वह विक्षेपणी कया है।
१७१. अपने सिद्धान्तों में जो बात कही गई है, उसका दूसरे सिद्धान्तों में क्षेपण करना तथा कन्यमान परशासन के व्याक्षेप के द्वारा पर-समय का कथन करना-यह विक्षपणी कया है ।
१७२. सवेजनी कथा के चार प्रकार है-स्वशरीरविषयक, परशरीरविषयक, इहलोकविषयक तथा परलोकविषक ।
१७३. जिसमें वीर्य, वकियऋद्धि, शामऋद्धि, चरणऋद्धि, दर्शनऋद्धि बताई जाती है, वह संवेजनी कथा का रस (सार) है। १. देखें-परि० ६, कथा सं० २५ ।
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GE
नियुक्तिपंचक १७४. जिस कथा में पापकर्मों के अशुभविपाकों का कथन हो, वह निर्वेदनी कथा है। उसके चार विकल्प है .
१. इहलोककृत कर्म-बंधन- इहलोक में वेदनीय । २. इहलोककृत कर्म-बंधन परलोक में वेदनीय । ३. परलोककत कर्म-बंधन- इहलोक में वेदनीय । ४ परलोककृत कर्म-बंधन - परलोक में वेदनीय ।
१७५. जहा अल्प प्रमादकृत कर्मों का भी प्रचुर अशुभ परिणामों का कथन होता है, वह निवेदनी कथा का सार है।
१७६. सिद्धि, देवलोक, सुकुल में उत्पत्ति—यह संवेग का कारण है। नरक, तिर्यञ्चयोनि तथा कुमानुषत्व निर्वेद का कारण है।
१७७. शिष्य को सबसे पहले आक्षेपणी कथा कहनी चाहिए। जब स्व-सिद्धान्त का पूरा ज्ञान हो जाए तब विक्षेपणी कथा कहनी चाहिए।
१७८. आक्षेपणी कथा से प्रेरित जीव सम्यक्रव को प्राप्त करते हैं। विक्षेपणी कथा से सम्यक्त्व का लाभ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इस कथा से मंदमति जीव गाढतर मिथ्यात्व को भी प्राप्त हो सकता है।
१७९ जिन सूत्रों तथा काव्यों में तथा लोकिक ग्रन्थों-रामायण आदि में, यज्ञ आदि क्रियाओं में तथा सामयिक ग्रन्थों-तरंगवती आदि में धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का कथन किया जाता है वह मिश्रकथा है।
१८.. स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चोरकथा, जनपदकथा, नटकथा, नृत्यकथा, जल्लकथा (डोर पर करतब दिखाने वाले की कथा) तथा मल्लकथा - ये विकथा के प्रकार हैं।
११. ये कथाएं ही प्रजापक-प्ररूपक तथा श्रोता की अपेक्षा से अकथा कथा या विकथा होती हैं।
१२. मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जो अज्ञानी प्रज्ञापक कथा कहता है वह चिकथा है, ऐसा तीर्थकरों ने प्रवचन में कहा है। वह अज्ञानी लिंगस्थ-द्रव्य मुनि भी हो सकता है और गृहस्थ भी।
१८३. सप, संयम आदि गुणों के धारक, चारिवरत श्रमण संसारस्थ प्राणियों के लिए जो हितकर तथा परमार्थ का उपदेश देते हैं, वही प्रवचन में 'कथा' कही गयी है।
१८४. जो संयमी मुनि प्रमाद तथा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कथा कहता है, वह विकथा है - ऐसा तीर्थकर आदि धीर पुरुषों ने प्रवचन में कहा है।
१८५. जिस कथा को सुनकर श्रोता के मन में श्रृंगार रस की भावना उत्तेजित होती है, मोहअनित उद्रेक होता है, कामाग्नि प्रज्वलित होती है, श्रमण ऐसी कथा न कहे।
१८६. श्रमण को तप, नियम और वैराग्य से संयुक्त कथा कहनी चाहिए, जिसको सुनकर मनुष्य संवेग और निर्वेद को प्राप्त कर सके।
१८७. महान् अर्थवाली कथा को भी इस प्रकार कहना चाहिए कि उसको सुनने वाले को परिक्लेशन हो क्योंकि अति-विस्तार से कही जाने वाली कथा का भावार्थ नष्ट हो जाता है।
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दशवेकालिक नियुक्ति
१८. क्षेत्र, काल, पुरुष ( श्रोता) तथा अपने सामर्थ्य को जानकर भ्रमण प्रकृत ( समयानुकूल ) विषय में पापानुबंधरहित कथा करे ।
चौथा अध्ययन : बड़जीवनिकाय
१८९. प्रस्तुत षड्जीवनिकाय के अधिकार में जीव और अजीव का ज्ञान, चारित्रधर्म, यतना का कथन, उपदेश तथा धर्मफल का निरूपण किया गया है ।
१९० षड्जीवनिकाय शब्द का नाम निष्पन्न निक्षेप होता है । अब जी और निकाय) पदों की पृथक् पृथक् प्ररूपणा करूंगा 1
१९१. एक शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम स्थापना, द्रव्य, भातृकापद, संग्रह, पर्याय और भाव ! १९२. षट् शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१९३, १९४. 'जीव' शब्द के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, अस्तित्व, अन्यत्व, अमूर्त्तत्व, नित्यत्व, स्व, देहव्यापित्व, गुणित्व, ऊर्ध्वं गतित्व, नियंता ( विकार रहितत्व), साफल्य, परिमाण आदि के द्वारा जीव की त्रिकालविषयक परीक्षा करणीय
1
१९५. जीव शब्द के चार निक्षेप हैं—नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव । ओजीव, भवजीव, तद्द्मदजीव- ये भावजीव के तीन निक्षेप हैं ।
१९६. आयुष्य कर्म के होने पर, जिस ओघआयुष्य कर्म के उदय से जीता है, वह जीव है । उसी 'आयुष्य कर्म के क्षीण हो जाने पर उसे नय की अपेक्षा से 'सिद्ध' या 'मृत' कहा जाता है। यह satta की व्याख्या है।
१९७ जिस मायुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है संक्रमण करता है, वह भवायु है । भवायु चार प्रकार की है-नारक, तिर्यञ्च तद्भव दो प्रकार की है— तिर्यञ्च तद्भवआयु, मनुष्य तद्भवआयु ।'
अथवा उस भव से मनुष्य और देव ।
--
१९८. लोक में जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं। बादर जीव के दो प्रकार हैं पर्याप्त और अपर्याप्त ।
१९९,२०० आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेक्या, अनापान, इन्द्रिय, बंध, उदय, निर्जरा, विश, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क - ये जीव के लक्षण हैं ।
२०१. जीव का अस्तित्व सिद्ध है। 'जीव' इस शब्द से ही जीव के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है। जो असत् है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है उसके विषय का केवल कोई शब्द नहीं होता ।
२०२. यदि कर्मों के कर्ता और भोक्ता जीव का कोई अस्तित्व न तो सारी पारलौकिक क्रियाएं (पुण्य, पाप आदि) मिष्या हो जाएंगी ।
१. तियंञ्च और मनुष्य ही मरकर पुनः सिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकते हैं, दूसरे नहीं -- तद्भवजीवितं च तस्मान् मृतस्य
तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत् तदुच्यत हाटी पत्र १२२ ।
इति -
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निक्तिपंचक
२०३. लोकिक, वैदिक तथा सामयिक विद्वानों का यह मानना है कि जीव नित्य है और वह शरीर से पृथक् है।
२०४. देह से संस्पृष्ट वायु का जैसे स्पर्श से ज्ञान होता है, वैसे ही देह-संगत ज्ञान आदि से जीव का ज्ञान होता है।
२०५. जीव इंद्रियग्राम गुणों से रहित है। वह मांसचक्षु-छद्मस्थ के द्वारा दुर्जेय है । सिद्ध और भागवत-देवशामा घमण ही उसे जानते-देखते हैं।
२०६. कारणविभाग का अभाव तथा कारण विनाश का अभाव, बंध के हेतु का अभाव, विरुद्ध अर्थ की अनुत्पत्ति तथा सत् का अविनाश - इन कारणों से जीव का नित्यत्व सिद्ध होता है। नित्यत्व से अमूर्तत्व और अमूर्तत्व से शरीर से पृथक्त्न सिद्ध होता है ।
२०७. निरामय व्यक्ति आमययुक्त (रोगयुक्त) हो जाता है। बचपन में किए गए कार्यो की स्मृति होती है, उपस्थान-कृतको का फल भोगा जाता है, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उसका ग्रहण न होने पर भी स्वसंवेदन से उसको सिद्धि होती है। जाति-स्मृति ज्ञान तथा जन्मते ही बालक की स्तनपान की अभिलाषा भी आत्मा के नित्यत्व की साक्षी है।
२०८. सर्वज्ञ द्वारा यह उपदिष्ट है कि आत्मा नित्य, स्वकर्मफलभोक्ता तथा अमूर्त है। अतः आत्मा का नित्यत्व, अमूर्तत्व तथा अन्यत्व स्वयं सिद्ध है।
२०९. जीव का परिमाण विस्तार की अपेक्षा लोक जिलना है। उसकी अवगाहना सूक्ष्म तथा उसके प्रदेश असंख्येय हैं।
२१०. यदि कोई व्यक्ति प्रस्थ' अथवा कडव' से सभी प्रकार के धान्यों का परिमाण करता है, इस प्रकार मापे जाने पर लोक अनन्त होते हैं।
२११. निकाय (अथवा काय) पद के बारह निक्षेप है-नामकाय, स्थापनाकाय, शरीरकाय, गतिकाय, निकायकाय, अस्तिकाय, द्रव्यवाय, मातृकाकाय, पर्यायकाय, सग्रहकाय, भारकाय तथा मावकाय ।
२११/१. एक कांवरिया अपने कांवर में पानी से भरे दो घड़ों को रखकर जा रहा था । एक ही अप्काय दो धड़ों में विभक्त था। कांवरिये का पैर फिसला। एक घड़ा फूट गया। उसका अकाय मर गया। संतुलन न रहने के कारण दूसरा बड़ा भी नीचे गिर कर फूट गया। उसका अप्काम भी मर गया। मरे हुए अप्काय ने जीवित अफाय को मार डाला। मनुष्य ! बोल, इसका हेतु क्या है ?
२१२. प्रस्तुत सूत्र में निकायकाय का प्रसंग है। शेष कायों का कथन उन्चरित अर्थ की सद्गता से है।
२१३. शस्त्र के दो प्रकार हैं-द्रव्यशास्त्र तथा भावशस्त्र । अग्नि, विष, स्नेह, अम्ल, क्षार, लवण आदि द्रव्यशस्त्र हैं। दुष्प्रयुक्त वचन, दुष्प्रयुक्त काया तथा अविरति-ये भावशास्त्र है। १. लौकिक--इतिहासज्ञ । वैदिक विविध के २. केक्ली समुद्रात के चौथे समय की अपेक्षा से ।
शाता । सामयिक-बौद्ध आदि दार्शनिक- ३. प्रस्थ-चार कुडव प्रमाण । हाटी प० १२७ ।
४. कुडव-चार सेतिका प्रमाण ।
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दशवकालिक नियुक्ति
२१४. द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं—किंचित् स्वकायशस्त्र, किंचित् परकायशस्त्र और किंचित् उभयकायशस्त्र । असंयम भावशस्त्र है।
२१५. योनीभुत बीज में जो जीव उत्पन्न होता है, वह पूर्व बीज का जीव भी हो सकता है और अन्य जीव भी । जो मूल जीव होता है वही प्रथम पत्र रूप में परिणत होता है।
२१६. शेष सूत्रानुसार प्रत्येक काय का यथाक्रम अध्ययनाथं कहना चाहिए । वे अध्ययनार्थ पांच है (देखें-गाथा १८९) । इनको प्रकरणा, पद और व्यंजन से विशुद्ध करके कहना चाहिए। . २१७. जीवाजीवाभिगम, आधार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म-से शब्द एकार्थक
पांचवां अध्ययन : पिण्डषणा
२१७११. पिडैषणा फाब्द में दो पद है-पिड और एषणा। इन दोनों पदों की चार-चार निक्षेपों से प्ररूपणा करनी चाहिए।
२१८, पिंड शब्द के चार निक्षेप है-नामपिड, स्थापनापिंड, द्रव्यपिड तथा भावपिंड। गृह, ओदन आदि द्रव्यपिड है तथा कोष, मान, माया और लोभ यह भावपिह है।
२१८११ पिडि धातु संघात अर्य में है। क्रोध आदि उदय में आकर विपाकोदय और प्रदेशोदय से संहत-योजित होकर ही आठ प्रकार के कर्मों से जीवों को प्रवृत्त करते हैं। अत: कोध आदि कषायपिंड हैं।
२१८।२. द्रव्यषणा के तीन प्रकार है- सचित्तद्रव्यषणा, अचित्तद्रव्यषणा तथा मिश्रदव्यषणा ।
सचित्तद्रव्यषणा के तीन प्रकार है-(१) द्विपद-मनुष्य आदि । (२) चतुष्पद - हाथी आदि। (३) अपदम आदि ।
अचित्तद्रव्यषणा-कार्षापण आदि । मिश्रदव्यषणा- अलंकृत विपद आदि ।
२१८४३. भावैषणा के दो प्रकार हैं -प्रगस्त और अप्रशस्त । शान आदि की एपणा प्रशस्त भाषणा है तथा क्रोध आदि की एषणा अप्रशस्त भाषणा है।
२१८१४. ज्ञान आदि की उपकारी होने के कारण यहां द्रव्य पणा का प्रसंग है। उसकी अर्थयोजना में पिंडनिमुक्ति यहां वक्तव्य है।
२१९. सभी प्रकार की पिडषणा संक्षेप में मबकोटि में समवतरित होती है। जैसे-न हिंसा करना, न पकाना, न खरीदना । कराने और अनुमोदन के भंगों से इसके नौ विकल्प होते हैं।
२१९।१. उस नवकोटि के दो भेद है - उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । प्रथम यह कोटि में उगमकोटि का समवतार होता है और शेष क्रीतत्रिक में इस विशोधिकोटि का समावेश होता है।
२२०, कोटिकरण के दो प्रकार है-उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । उद्गमकोटि के छह भेद हैं और शेष विशोधिकोटि के अन्तर्गत हैं। १. हिंसा न करना, न कराना और न अनुमोदन अनुमोदन करना । न खरीदना, न खरीदवाना
करना। न पकाना, न पकवाना और न और न अनुमोदन करना।
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नियुक्तिपंचक २२७।१. आधाकर्म, ओद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्र, चरमप्राभृतिका और अध्यवपूरक-ये अविशोधिकोटि में तथा शेष विशोधिकोटि में हैं।
२२१. राग, मिथ्यात्व आदि की योजना से ये--तौ कोटियां' ही अठारह, सत्तावीस, पोपन, नब्बे और दो सौ सत्तर कोटियां हो जाती हैं।
२२११. नौ कोटि को राग, द्वेष-इन दो भेदों से गुणन करने पर (९४२) अठारह भेद होते हैं । मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति से गणन करने पर (९४३) सत्तावीस भेद होते हैं। सत्तावीस भेदों को राग, द्वेष इन दो से गुणन करने पर चौपन भेद होते हैं । नवकोटि को दसविध श्रमण धर्म से गणा करने पर नब्बे भेद होते हैं । तथा नन्थे भेदों को ज्ञान, दर्शन, चारित्र से गणन करने पर दो सौ सत्तर कोटियां होती है। छठा अध्ययन : महाचारकथा
२२२. तीसरे अध्ययन में जिस आधार का निर्देश दिया गया है, वहीं आचार यहां अन्यूनातिरिक्त रूप में इस महाचारकथा में बताया जाएगा।
२२३. धर्म के मुख्य दो प्रकार हैं- अपार धर्म और अनगार धर्म । अगार धर्म बारह प्रकार का है और अनगार धर्म दस प्रकार का है। इस प्रकार धर्म के बावीस प्रकार है।
२२४, पांच अणुव्रत, तीन गणवत और चार शिक्षाक्त-यह बारह प्रकार का गृहिधर्म या अगार धर्म है।
२२५. शान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिडचत्य और ब्रह्मचर्ययह दस प्रकार का यतिधर्म है, अनगार धर्म है।
२२६. यह धर्म तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट है। 'अर्थ' शब्द के चार निक्षेप हैं-नामअर्थ, स्थापना अर्थ, द्रव्यअर्थ तथा भावअर्थ । संक्षेप में द्रव्यअर्थ छह प्रकार का है तथा विस्तार में उसके चौसठ भेद हैं।
२२७. तीर्थकरो तथा गणधरों ने छह प्रकार के अर्थ की प्रज्ञापना दी है-धान्य, रत्न, स्थावर, (भूमि, गृह आदि अचल सम्पत्ति) द्विपद, चतरपद तथा कुष्य-ताम्रकलश आदि उपकरण ।
२२८. धान्य के चौबीस, रत्न के चौबीस, स्थावर के तीन, विपद के दो, चतुष्पद के दस तथा कुष्य के अनेक प्रकार हैं। इन सब प्रकारों की मैं प्ररूपणा करूंगा। २२९,२३०. धान्य के चौबीस प्रकार१. यव (जी) ९. रालक
१७, मोठ १०. तिल
१२. राजमाष ३. शालि ११. मूंग ४. बीहि १२. उडद
२०. मसूर ५. साठी चावल १३. अलसी
२१ अरहर ६. कोद्रव १४. हरिमंय (काला चना)
२२. कुलथी ७. अणुक १५. तिपुटक (मालव देश में प्रसिद्ध धान्य) २३, धनिया ८. कांगणी १६. निष्पाय
२४. मटर
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दशकालिक निर्मुक्ति
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२३१,२३२, रत्नों के चौबीस प्रकार१. स्वर्ण
९. वच
१७. वस्त्र २ अपु (कलई) १०. मणि
१८. अमिला (ऊनी वस्त्र) ११. मुक्ता
१९. काष्ठ ४. चांदी १२ प्रवाल
२०. चर्म (महिष, सिंह आदि का) ५. लोह
१३. शंख
२१. दांत (हाथी के) ६. सीसा १४. तिमिश
२२. बास (चमरी गाय के) ७. हिरण्य (रुपया) १५. अगर
२३. गंध (सौगंधक द्रष्य) ८. पाषाण
१६. चन्दन २४. द्रश्य (पीपर आदि औषधि) २३३. स्थावर के तीन प्रकार है-भूमि, गह तथा वृक्ष समूह । विपद के दो प्रकार हैचक्रारबद्ध (दो पहियों से चलने वाली गाड़ी, रथ आधि) तथा मनुष्य (दास, भृतक आदि)।
२३४. चतुष्पद के दस प्रकार हैं- गौ, महिष, उष्ट्र, अज, भेड़, अश्व, अश्वतर, घोड़ा, गर्दभ और हाथी।
२३५. प्रतिदिन घर के काम में आने वाले विविध प्रकार के उपकरण कुप्य कहलाते हैं। धान्य आदि छह प्रकार के द्रथ्यों के ये ६४ प्रकार हैं।
२३६, काम के दो प्रकार है-संप्राप्त और असंप्राप्त 1 संप्राप्त काम के चौदह भेद है तथा असंप्राप्त के दस भेद हैं।
२३७-२३९. असंप्राप्त काम के इस भेद ये हैं-- अर्थ, चिन्ता, श्रद्धा, संस्मरण, विबलवता, ज्जानाश, प्रमाद, उन्माद, तद्भावना तथा मरण। संप्राप्त काम के संक्षेप में चौदह भेद ये हैदृष्टि-संपात, दृष्टि-सेवा (दृष्टि से वृष्टि मिसाना), संभाषण, हसित, ललित, उपगृहित, दन्तनिपात, नवनिपात, चुंबन, आलिंगन, आदान, करण, आसेवन और अनंगक्रीडा ।
२४०. धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों युगपत् विरोधी से लगते हैं, परंतु ये जिनेश्वर भगवान के वचनों में अवतीर्ण होकर अविरोधी बन जाते हैं।
२४०।१. जिनवधन में यथावत् परिणत होने पर अपनी योग्यता के अनुसार अनुष्ठान करने से 'धर्म' होता है। स्वच्छ आशय के प्रयोग से तथा पृण्यबस से 'अर्थ' और विश्रम्भ-उचित पत्नी को अंगीकार करने से 'काम' होता है।
२४१. धर्म का फल है-मोक्ष । वह शाश्वत, अतुलनीय, कल्याणकर और अनाबाध है। मुनि उस मोक्ष की अभिलाषा करते हैं, इसलिए वे 'धर्मार्थकाम' हैं ।
२४२ 'परलोक नहीं है, मुक्ति का मार्ग नहीं है और मोक्ष नहीं है-यह बात न्यायमार्ग को न जानने वाले लोग कहते हैं। किंतु जिनप्रवचन में ये सब सत्यरूप में स्वीकृत हैं तथा ये पूर्वापरअविरोधी हैं । वीतराग प्रवचन से अन्यत्र अन्य दर्शनों में ऐसा नहीं है।
२४३. आचारकथा में जिन अठारह स्थानों का कथन किया है, उनमें से एक का भी सेवन करने वाला श्रमण नहीं होता।
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नियुक्तिपंचक २४४. वे अठारह स्थान ये है-छह प्रत, छह काय, अनरूम, महस्थ भाजन, पलंग, निषधा, स्नान और शोभा का वर्जन । सातवां अध्ययन : वाक्यशुद्धि
२४५. 'वाक्य' शब्द के चार निक्षेप हैं:- नाम, स्थापना, द्रध्य और भाव। भाषक के द्वारा गृष्टीत भाषा के योग्य पुद्गल 'द्रव्य वाक्य' है तथा शब्द रूप में परिणत भाषा के शब्द 'भाव वाक्य'
२४६. 'याक्य' के ये एकार्थक है-वाक्य, बचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गो, वा, भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाक्योग तथा योग ।
२४७. व्यभाषा के तीन प्रकार है ग्रहणद्रव्यभाषा', निसर्गद्रच्यभाषा' तथा पराघातद्रव्यभाषा'। भावभाषा के तीन प्रकार है-- दून्यभावभाषा, श्रुतभावभाषा और चारित्रभावभाषा। इसे ही सामान्यत: आराधनी कहा जाता है।।
२४८. द्रश्य विषयक सत्य भाषा आराधनी भी होती है और विराधनी भी होती है। मृषा भाषा विराघनी है। सत्यमृषा भाषा (मिश्र भाषा) आराधनी और विराधनी-वोनों हैं। असत्यामुषा अर्थात व्यवहार भाषा न आराधनी है और न विराधनी। २४९. सत्य भाषा के बस प्रकार हैं१. जनपद सत्य
६, प्रतीत्य सत्य २. सम्मत सत्य
७. ब्यवहार सत्य ३. स्थापना सत्य
८. भाव सत्य ४, नाम सत्य
१. योग सत्य ५रूप सत्य
१०. औपम्य सस्य । २५०. मृषा भाषा के दस भेद है१. क्रोधनिसृत
६. द्वेषनिसृत २. माननिसुत
७. हास्यनिसृत ३. मायानिस्त
८, भयनिस्त ४. लोभनिसृत
९. आण्यायिकानिस्त ५. रागनिसृत
१०. उपधातनिसृत। २५१. सत्यमृषा (मिश्र) भाषा के दस भेद है१. उत्पन्न मिथित
६ जीब-अजीव मिश्रित २. विगत मिश्रित
७. अनन्त मिश्रित ३. उत्पन्न-विगत मिश्रित
६. प्रत्येक मिश्रित ४. जीव मिश्रित
९. अध्वा मिश्रित ५. अजीव मिश्रित
१०. अध्वा-अध्वा मिश्रित ।
१. काययोग के द्वारा भाषा द्रव्यों का ग्रहण । २. वायोग के द्वारा भाषा द्रव्यों का उत्सर्ग ।
३. निसष्ट भाषा के द्रव्यों से अन्य द्रव्यों का
तथाविध परिणाम आपादित करना।
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दशानिर्युक्ति
२५२. असत्यामृषा (व्यवहार भाषा) के बारह प्रकार है
१. आमंत्रणी
२. आज्ञापनी
३. याचनी
४. प्रनी
५. प्रज्ञापनी
६. प्रत्याख्यानी
a
७. इच्छानुलोमा ८. अनभिगृहीता
९. अभिगृहीता
१०. संशयकारिणी
११. व्याकुत
१२. अव्याकृत
२५३. सत्यामृषा भाषा के ये प्रकार हैं
अभिगृहीतभाषा - किसी अर्थ की ओर संकेत न करनेवाली, जैसे- डित्य आदि ।
• अभिगृहीतभाषा – किसी अर्थ का स्पष्ट संकेत करनेवाली, जैसे--घट आदि ।
• संशयकरणी भाषा — अनेक अर्थ देनेवाली भाषा, जैसे- सैन्धव शब्द इसके दो अर्थ हैनमक और अश्व |
• व्याकृत भाषा स्पष्ट अर्थ देने वाली भाषा ।
• अव्याकृत भाषा - अस्पष्ट भाषा, जैसे-बच्चों द्वारा थपथप करना आदि ।
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२५४. सभी भाषाएं दो-दो प्रकार की हैं पर्याप्त और अपर्याप्त ।' प्रथम दो भाषाएं- सत्य और मृषा ये पर्याप्त हैं तथा दो भाषाएं- सत्यमृषा और असत्यामृषा - ये अपर्याप्त हैं ।
२५५ श्रुत धर्मविषयक भावभाषा के तीन प्रकार है- सत्यभाषा, मृषाभाषा तथा व्यवहारभाषाः । श्रुतोपयुक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सम्म भाषा बोलता है ।
२५६ श्रुत में अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि जो अहेतुक भाषा बोलता है, वह मृषा भाषा है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी तोपयुक्त या श्रुत-अनुपयुक्त होकर जो कुछ बोलता है, वह मृषा भाषा है।
२५७. जो श्रुत - आगम का परावर्तन करता है तथा जो अंतिम सीन ज्ञानों - अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान में उपयुक्त होकर बोलता है वह असत्यभूषा (व्यवहार) भाषा है। अब आगे चारित्र विषयक भाव- भाषा का कथन करूंगा ।
१. पर्याप्त का अर्थ है जिस भाषा का एक
पक्ष सत्य या मृषा में निक्षेप होता हो ।
२५८. चारित्र विषयक भावभाषा के दो प्रकार हैं-सत्यभाषा और मृषाभाषा । सचरित्र - चरित्रपरिणाम वाले व्यक्ति की तथा चारित्र को वृद्धि करनेवाली भाषा सत्य तथा अचरित्र - चरित्रपरिणाम से शून्य व्यक्ति की तथा अचरित्र की वृद्धि करनेवाली भाषा मृषा होती है ।
२५९. शुद्धि के चार प्रकार हैं- नामशुद्धि, स्थापनाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि तथा भावशुद्धि । अब इनकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करणीय है ।
२६०, २६१. द्रव्यशुद्धि के तीन प्रकार हैं- तद् द्रव्यशुद्धि, आदेश- द्रव्यशुद्धि, प्राधान्यद्रव्यशुद्धि | जो द्रव्य अन्य द्रव्यों से असंयुक्त होकर ही शुद्ध होता है, वह तद्-द्रव्यशुद्धि' है (जैसेदूध, दही आदि ) । आदेश- द्रव्यशुद्धि के दो भेद हैं-अन्यत्व शुद्धि- शुद्ध वस्त्रों वाला व्यक्ति । अनन्यत्व शुद्धि-शुद्ध दांतों वाला व्यक्ति । प्राधान्यशुद्धि का तात्पर्य है-वर्ण, रस, गंध और स्पर्धा इससे विपरीत भाषा अपर्याप्त है। (हाटी० प० २१०)
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नियुक्तिपंचक
की मनोजता । जैसे - वर्ण शुक्ल, रस मधुर, गंध सुरभि और स्पर्श मृदु । ये उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते हैं।
२६२. द्रव्यशुद्धि की भांति भावशुद्धि भी तीन प्रकार की है-तद्भावशुद्धि, आदेशभावशुद्धि तथा प्रधानभावशुद्धि । तद्भावशुद्धि अन्य भावों से निरपेक्ष होती हैं। आदेशभावशुद्धि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों होती हैं ।
२६३. दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप विषयक विशुद्धि शानादि की अपेक्षा से प्रधानभावशुद्धि है। शान आदि की शुद्धि से ही आत्मा कर्ममल से विशुद्ध होती है और वह विशुद्ध आत्मा मुक्त होती है ।
२६४. जिस वाक्य की बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कालुष्य नहीं होता, वह वाक्य शुद्धि है।
२६५. जो वचन-विभक्ति (वाच्य और अवाच्य का विवेक ) में कुशल होता है, जो संयम में प्रवृत्तचित्त वाला है, वह भी असद् वचनों से विराधक बन जाता है, इसलिए मुनि को असद् वचनों -- वर्जनीय वचनों का परिज्ञान कर लेना चाहिए।
२६६. जो वचन-विभक्ति में अकुशल है, बहुविध दाग्योग से अजानकार है, वह कुछ भी नहीं बोलने पर भी वाग्गुप्त नहीं होता।
२६७ जो वचन विभक्ति में कुषाल है, अनेक प्रकार के बचोयोग का ज्ञाता है. वह दिन भर हुआ श्री वागुप्त होता है ।
बोलता
२६५. पहले बुद्धि से सोचकर फिर वचन बोले। जैसे अंधा व्यक्ति अपने नेता - हाथ पकडकर ले जानेवाले – का अनुगमन करता है, वैसे ही वाणी बुद्धि का अनुगमन करती है । आठवां अध्ययन : आचारप्रणिधि
२६९. जिस आचार का तीसरे अध्ययन में प्रतिपादन कर चुके हैं, वह न्यूनातिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन में भी जान लेना चाहिए। प्रणिधि के दो प्रकार हैं- द्रव्यप्रणिधि और भावप्रणिधि 1
२७०. निधान आदि द्रव्य तथा मायाप्रयुक्त द्रव्य द्रव्यप्रणिधि कहलाते हैं। भावप्रणिधि के दो प्रकार है - इन्द्रियप्रणिधि और नोइन्द्रियप्रणिधि । इन्द्रियप्रणिधि के दो प्रकार हैं- प्रशस्त और
अप्रशस्त ।
२७१. शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्धा में न राग हो और न द्वेष हो, वह प्रशस्त इन्द्रियप्रणिधि है ।
२७२.२०३ उच्छृंखल श्रोत्रेन्द्रिय की रज्जु से बंधा हुआ शब्द मूच्छित जीव अनुपयुक्त होकर शब्दगुणों से समुत्थित दोषों को ग्रहण करता है। जैसा शब्दविषयक यह दोष है वैसा ही क्रम अन्य सभी इन्द्रियों के विषय में है। व्यक्ति शेष चारों इन्द्रियों के रूप, गंध, रस और स्पर्श विषयगत दोषों को ग्रहण करता है ।
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दणकालिक निर्मक्ति
२७४. तपश्चरण करने पर भी जिस व्यक्ति की इन्द्रियां दुष्प्रणिहित (असमाहित) होती हैं, वे इन्द्रियां उसको निर्माण से दूर ले जाती हैं, जैसे- उच्छृखल अश्य सारथि को उत्पथ पर ले जाते हैं।
२७४।१. अथवा दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाला व्यक्ति मार्जार और बक के समान होता है। अप्रणिहित इंद्रिय वाला असंयमी ही होता है।
२७५. क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार महाभय हैं। जो शुद्धात्मा इनका निरोध करता है, वह नोइन्द्रियाणिधि है।
२७६. तपश्चरण करते हुए भी जिस व्यक्ति के कषाय दुष्प्रणिहित - अनिरुद्ध होते हैं, वह वाल-तपस्वी की भांति 'गजस्तान" जैसा परिश्रम करता है।
२७७. श्रामण्य का अनुपालन करने पर भी जिस मुनि के कषाय उत्कट-तीव्र होते हैं, मैं मानता हूं कि उसका श्रामण्य इभपुष्प की भांति निरर्थक है।
२७८. यदिबाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इन्द्रिय तथा कषायो का सम्यग् निरोध हो जाता है तो वह दोनों प्रकार की प्रणिधि शुद्ध है। तथा जहां निरोध नहीं होता वह प्रणिधि अशुद्ध है। इस प्रकार यह प्रशस्त और अप्रशस्त का लक्षण अध्यात्म निष्पन्न अर्थात् अध्यवसान से उत्पन्न है।
२७९. जो व्यक्ति माया और गौरवत्रिक से युक्त होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय (मन) का निग्रह करता है, वह अप्रशस्त प्रणिधि है। जो माया और गौरवत्रिक से रहित होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय का निग्रह करता है, वह प्रशस्त प्रणिधि है।
२८०, अप्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करता है। प्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि उन्हीं आठ प्रकार के कर्मों का क्षय कर डालता है ।
२८१. दर्शन, ज्ञान और चारित्र-यह संपूर्ण संयम है। संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करना चाहिए और उसके . अनायतन-वर्जनीय स्थानों का वर्जन करना चाहिए।
२२. जैसे विश्रब्ध (निर्भीक) और निसृष्ट (शरीर के प्रति अजागरूक) व्यक्ति कंटकाकीर्ण गडे आदि में गिरकर अंग-भंग कर लेता है, वैसे ही दुष्प्रणिहित (असमाहित) संयमी संयम को नहीं जानता हुआ प्रबजित जीवन को खण्डित कर देता है।
२८३. सुप्रणिहितयोगी पूर्व उल्लिखित दोषों से लिप्त नहीं होता। वह अपने कर्मों को वैसे ही भस्मसात् कर डालता है जैसे सूखे तिनकों को अग्नि ।
२८४. इसलिए श्रमण अप्रशस्त प्रणिधान को छोड़कर प्रशस्त प्रणिधान में प्रयत्न करे। इसीलिए आचारप्रणिधि का कथन किया गया है।
१. जैसे हाथी सरोवर में स्नान करता है और
तट पर आकर पुनः धूल उछाल कर अपने भारीर को धूलमय कर देता है, बसे ही वह
तपस्वी तपश्चरण रूप स्नान करने पर भी अन्यान्य कारणों से प्रभूत कर्मों का अर्जन कर लेता है।
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निर्मुरुिपंचक ८५. आचारप्रणिधि के ये चार अधिकार है-बहकाय, पांच समितियां, तीन गुप्तियां और डा प्रकार की प्राणधिया । नौवां अध्ययन : विनयसमाधि
२८६. 'बिनय' और 'समाधि'- इन दोनों पदों के चार-चार निक्षेप है। द्रव्यविनय में तिनिण (वृक्ष विशेष) और स्वर्ण आदि के उदाहरण दिए जाते हैं।
२७. भावविनय के पांच प्रकार हैं- लोकोपचार विनय, अर्थनिमिसक विनम, कामहेतुक बिनय, भयनिमित्तक बिनय और मोक्षनिमित्तक विनय ।
२८८, लोकोपचार बिनय के पांच प्रकार है---अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिषि पूजा और वैभव के अनुसार देवपूजा।
२८९ अर्थ की प्राप्ति के लिए राजा आदि के पास रहना, उनकी इच्छा का अनुवर्तन करना, देशकालदान-राजा आदि को देश, काल आदि के विषय में सुझाव देना, अभ्युत्थान करना, हाथ जोड़ना, आसनदान आदि-यह अर्थविनय है।
२९०,२९१. इसी प्रकार कामविनय और भयविनय भी ज्ञातव्य है। मोक्षविनय के पांच प्रकार ये हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और औपचारिक विनय ।
२९२. जिनेश्वर देव के द्वारा दृश्यों की जितनी पर्याय जिस प्रकार उपदिष्ट हैं उन पर वैसी ही श्रद्धा रखने वाला मनुष्य दर्शनविनय से संपन्न होता है।
२९३. ज्ञानी ज्ञान को ग्रहण करता है, गहीत शान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य संपादित करता है। इस प्रकार ज्ञानी नए कर्मों का बंध नहीं करता। बह जानविनीत अर्थात् ज्ञान से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है।
२९४. चारित्र विनय से युक्त संयम में यतमान मुनि आठ प्रकार के कर्म समूह को रिक्त करता है और दूसरे नए कर्मों का बंध नहीं करता । वह पारित्रविनीत अर्थात् चारित्र से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है।
२९५. तपोविनय में निश्चलबुद्धि वाला जीब तपस्या से अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष के निकट ले जाता है। वह तपोयिनीत अर्थात तपस्या से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है ।
२९६, औपचारिक बिनय संक्षेप में दो प्रकार का है-प्रतिरूपयोगयोजनविनय तथा अमाशातनाविनय ।
२९७. प्रतिरूपयोगविनय के तीन प्रकार हैं- कामिक योग, वाचिक योग तया मानसिक योग । कायिकयोगविनम के आठ प्रकार, वाचिकयोगविनय के चार प्रकार और मानसिकयोगविनय के दो प्रकार हैं। उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है
२९८, कामविनय के आठ प्रकार हैं - अभ्युत्थान, अंजलीकरण, आसनदान, अभिग्रह, कृतिकर्म--बन्दन, शभूषा, अनुगमन और संसाधन ।
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दशवकालिक नियुक्ति
२९९. हितभाषी, मितभाषी, अपरषभाषी और अनुवीचिभाषी- यह वाचिक विनय है। अकुशस्त्र मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा (प्रवृत्ति) यह मानसिक बिनय है ।
३००. यह परानुवृत्यात्मक प्रतिरूप (उचित) विनय प्रायः छद्मस्थों के होता है और अप्रतिरूपविनय केवली के होता है।
३०१, यह तीन प्रकार का प्रतिरूपलक्षण विनय बताया गया है। अनाशातना विनय के बावन प्रकार हैं।
३०२,३०३. तीर्थकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय और गणी-ये तेरह पद अनाशातना, भक्ति, बहमान तथा वर्णसंज्वलना (सद्भुत गुणोत्कीर्तना)-इन चारों से गुणित होने पर बावन हो जाते हैं--१३४४-५२।
३०४. द्रव्य स्वयं ही अथवा जिस द्रव्य से समाधि होती है वह द्रव्य अथवा जो दम्म तुला को सम करता है, वह द्रष्य द्रव्यसमाधि है। भावसमाधि के चार प्रकार है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । वसवां अध्ययन : समिक्ष
३०५. 'सकार' के चार निक्षेप है-नामसकार, स्थापनासकार, द्रव्यसकार और भाबसकार । व्यसकार प्रशंसा आदि विषयक होता है तथा भावसकार है-सकारोपयुक्त जीव ।
३६. निर्देशा, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में 'सकार का प्रयोग होता है। प्रस्तुत अध्ययन में निर्देश-सकार और प्रशंसा-सकार का अधिकार है।
३०७. तीर्थकरों ने दशवकालिक सूत्र में जिन भावों को अनुष्ठेय बतलाया है, उनका अन्त तक आचरण करने वाला भिक्षणशील भिक्षु ही भिक्ष कहलाता है।
३०७११. चरक (परिव्राजक), महक (ब्राह्मण) आदि भिक्षोपजीवी व्यक्तियों का निरसन करने के लिए बताया गया है कि जो भिक्षु इस अध्ययन में अभिहित गुणों से युक्त होता है, वह सद्भिद्ध होता है । यहां 'सकार' प्रशंसा अर्थ में निर्दिष्ट है।
३०५. भिक्षु शब्द के निक्षेप, निरुक्त, एकार्थक, लिंग (संवेग आदि) तथा जो भिक्षु अगुणों में अवस्थित है, वह भिक्ष नहीं होता-ये सारे द्वार कथनीय हैं। इस प्रसंग में प्रतिज्ञा आदि पांच अवययों का कथन भी होगा।
३०९. भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं - नामभिक्षु, स्थापनाभिक्षु, द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु । दध्यभिक्ष के दो भेद है-आगमत: द्रव्यभिक्ष तथा नो-आगमतः च्यभिक्ष । भिक्ष का एक भेद और है, जो आगे कहा जा रहा है।
___३१०. भेदक होता है पुरुष । भेदने का साधन होता है-परशु आदि । भेत्तव्य होता हैकाष्ठ आदि। इन तीनों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा।
३११. जैसे लकड़ी का काम करने वाला वर्धकी भेदन ओर भेत्तव्य से संयुक्त होकर द्रव्यभिक्ष कहलाता है उसी प्रकार अन्यान्य याचक तथा अविरत लोग भी व्यभिक्षु है।
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निर्मुक्तिपंचक
३१२. जो गहस्थ का जीवन यापन करते हुए विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋजुप्रज्ञ (भोले) व्यक्तियों के पास याचना करते हैं, बे द्रव्यभिक्ष हैं। तथा जो आजीविका के निमित्त दीन-कुपण अर्थात् कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे भी द्रव्मभिक्षु हैं.।
३१३. जो मिथ्यादृष्टि हैं, सदा पृथिवी आदि स्थावर जीवों तथा हीन्द्रिय आदि त्रम जीवों की हिंसा में रत रहते हैं, जो अब्रह्मचारी और संचयशील हैं, वे भी द्रव्यभिक्षु हैं।
३१४. जो द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य तथा कुप्य आदि को ग्रहण करने के लिए तीन करण और तीन योग से निरत है, जो सचित्तभोजी हैं, जो पचन-पाचन में रत हैं तथा जो उद्दिष्टभोगी है, के द्रव्यभिक्ष हैं।
३१५. जो तीन करण और तीन योग से, अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए, प्रयोजनवश या अप्रयोजनबश पाप कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, वे थ्यभिक्ष है।
३१५१. स्त्री-दासी आदि का ग्रहण करने से, आज्ञा-दान आदि भावसंग से- परिणामों की अशुद्धि से और शुद्ध तपश्चरण का अभाव होने से कुसीर्थिक अब्रह्मचारी है अर्थात् अतपस्वी हैं।
३१६. भावभिक्ष बो प्रकार का होता है-आगमत: और नोआगमतः । भिक्षु पदार्थ का ज्ञाता तथा उसमें उपयुक्त व्यक्ति आगमत: भावभिक्ष है। जो भिक्षुगुण का संवेदक है, यह नो-आगमतः भावभिक्षु है । भिक्षु शब्द के तीन निरुक्त है-भेदक. भेदन और भेत्तथ्य ।
३१७. आगमतः उपयुक्त मुनि भेदक है। दोनों प्रकार का तप चाह और आभ्यन्तर भेदन (साधन) है और आठ प्रकार के कर्म भेत्तथ्य है। आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने वाला भिक्ष होता है-यह भिक्षु का निरुक्त है।
३१८. को का भेदन करता हुआ मुनि भिक्षु होता है, संयम-मुणों में मसना करने वाला यति होता है। सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान करने वाला संयम-चरक होता है। भव-संसार का अन्त करता हुआ वह भवान्त होता है।
३१९. भिक्षामात्रवृत्ति होने से मुनि भिक्ष कहलाता है। अण- कर्मों का क्षय करने के कारण 'क्षपण', तथा तप-संयम में उद्यमशील होने से तपस्वी होता है । इस प्रकार भिक्षु के अन्यान्य पर्याय भी होते हैं।
३२०-३२२. तीर्ण, बायी, द्रव्य, व्रती, शान्त, दांत, विरत, मुनि, तापस, प्रश्नापक, ऋजु, भिक्ष, बुद्ध, यति, विद्वान, प्रवजित, अनगार, पाषण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, धमण, निग्रंन्ध, संयत, मुक्त, साधु, रूक्ष, तीरार्थीन्ये तप-संयम में रत भावभिक्ष के पर्यायवाची नाम हैं।
३२३,३२४. संवेग, निवेन, विषय-परित्याग, सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, क्षान्ति, मादव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि-में भावभिक्षु के लिंग-चिह्न हैं। १. हाटी प० २६१ : अबह्मचारिण इति, ब्रह्ममान्देन शुद्ध सपोभिधीयते ।
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दशवकालिक नियुक्ति
३२५. इस अध्ययन में कथित गुणों वाला व्यक्ति भावभिक्षु होता है और इन गुणों से रहित मुनि भावभिक्षु नहीं होता-यह प्रतिज्ञा वाक्य है । हेतु है-अगुणत्वात्-मुनि के योग्य गुणों का अभाव होने से और दृष्टान्त है-मुवर्ण ।
३२६, स्वर्ण के आठ गुण -
१. विषधाति-विष को नष्ट करने में समर्थ । ९. रसायन-वयस्तंभन करने वाला। ३. मंगलार्थ मांगलिक प्रयोजनों में प्रयुक्त। ४. विनीत--परिवर्तित होने की क्षमता। ५. प्रदक्षिणावर्त-तप्त होने पर जिसका आवर्त दक्षिण की ओर हो। ६. गुरुक सारसंपन्न । ७. अदाह्य - अग्नि में न जलने वाला। ८. अकुथनीय --कभी कुथित न होने वाला ।
३२७. जो स्वर्ण कष, छेद, ताप और ताडना-इन चार कारणों से परिशुद्ध होता है, दही विषघातक, रसायन आदि गुणों से युक्त होता है।
___३२८. जो समस्त गुणों से समन्वित होता है, वही स्वणं होता है। जो कष, छेद आदि से परिशुद्ध नहीं होता, वह युक्तिमुवर्ण-कृत्रिम स्वर्ण होता है। इसी प्रकार नाम और रूप मात्र से मुनिगुणों से विकल कोई भी मुनि भिक्षु नहीं होता।
३२९ युक्तिसुवर्ण अर्थात् कृत्रिम स्वर्ण को भी जात्य स्वर्ण के वर्ग जैसा कर दिया जाता है, पर उसमें शेष गुण कष, नछेद आदि न होने से वह यथार्थ में सोना नहीं होता।
३३०, प्रस्तुत अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बताए गए हैं, उनके द्वारा ही वह भावभिक्षु होता है । पीत वर्ण वाले जात्यस्वर्ण में अन्यान्य गुण होने से ही वह शुद्ध स्वर्ण होता है ।
___३३१. जो भिक्षु भिक्षु-गुणों से शून्य है, वह भिक्षा ग्रहण करने मात्र से भिक्षु नहीं हो जाता। जैसे कष आदि गुणों के अभाव में वर्णवान् कृत्रिम स्वर्ण शुद्ध स्वर्ण नहीं हो जाता ।
३३२. जो उदिष्टकृत भोजन करता है, षड्जीवनिकाय की हिंसा करता है तथा प्रत्यक्षतः सजीव जल पीता है, वह भिक्षु कैसे हो सकता है ? ।
३३३. इसलिए इस अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बतलाए हैं, उन गुणों से युक्त मुनि ही भादभिक्षु होता है । यह उन मूल और उत्तर गुणों की आराधना से भाविततरचारियधर्म में भावित होता है। प्रथम चूलिका : रतिवाण्या ___३३४. 'चूडा' शब्द के चार निक्षेप हैं- द्रव्यचूरा, क्षेत्रचूडा, कालचूड़ा और भावचूड़ा । दशवकालिक श्रुत का यह 'उत्तरतंत्र' है। इसमें दशवकालिक श्रुत से ही अर्थ का ग्रहण तथा संग्रहणी-उक्त तथा अनुक्त अर्थ का संक्षिप्त संग्रह है।
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निक्तिपंचक ३३५, द्रव्यचूडा के तीन प्रकार हैं-सचिप्त, अचित्त और मिथ । कुक्कुट चूसा सचित है। मणिचूडा अचित्त है । मयूरशिखा मिथ है। क्षेत्रचूडा है-लोकनिष्कुट, मन्दरचूड़ा तथा कूट आदि ।'
३३६. अतिरिक्त अधिक मासों और अधिक संवत्सरों को कालचूडा कहते हैं। भावचूरा क्षायोपमिक भाव है । इस प्रकार में प्यूठाएं सातव्य है।
३३७. द्रव्यरति के दो प्रकार हैं-कर्मद्रव्यरति और नोकर्मद्रव्यरति । अनुदय प्राप्त रतिबेदनीय कर्मद्रव्यरति है और शब्द आदि द्रव्य नोकर्मद्रव्यरति है।
३३८. शन्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श-ये रतिकारक द्रव्य है। यह द्रव्यरति है । कमों के उदय से होने वाली रति भावरति है। इसी प्रकार अरति को समझना चाहिए ।
३३९. परीषहों के उदय से अरति उत्पन्न हो सकती है। मोक्षसुख की आकांक्षा से उसे सम्यक रूप से सहन करना चाहिए।
३४०. वागापय में पाहो सयम शान में) कहा जा चुका है। प्रस्तुत चूटा में धर्म में रति उत्पन्न करने वाले वाक्य हैं, इसलिए इसका नाम 'रतिवाक्या है।
३४१,३४२. जिस प्रकार रोगी के फोडे का सीवन-वेदन किया जाना उसके लिए हितकर होता है तथा गलयन आदि से अपथ्य का प्रतिषेध तथा आमदोषविरति करना उसके आरोग्य के लिए होता है वैसे ही आठ प्रकार के कर्मरोग से पीड़ित जीव की चिकित्सा के लिए धर्म में रति तथा अधर्म में अरति का होना गुणकारक है।
३४३. जो मुनि स्वाध्याय, संयम, तप, यावृत्त्य और ध्यानयोग में रमण करता है तथा असंयम में रमण नहीं करता, वह सिद्धि को प्राप्त होता है ।
३४४. इसलिए धर्म में रतिकारफ और अधर्म में अरतिकारक जो स्थान, इस अध्ययन में निर्दिष्ट हैं, उनका सम्यग् अवबोध करना चाहिए । दूसरी चूलिका : विविस्तचर्या
३४५. दूसरी चूलिका-अध्ययन में पूर्वोक्त चार प्रकार' का अधिकार है। शेष द्वारों का क्रमशः कथन किया जाएगा।
___ ३४६. साधु की बिहारचर्या के आधार पर साधु के दो भेव है-द्रव्यतः साधु-शरीरभव्य तथा भावतः साधु-संयत अर्थात् संयतगुण का संवेदक माथसाधु । प्रस्तुत अध्ययन में भाषसाधु की अवगृहीता-अनियत तथा प्रगृहीता-अभिग्रहों से युक्त बिहारचर्या का प्रतिपादन है । १. आदि शब्द से वृत्तिकार ने अधोलोक के चूडा और भावचूडा का ग्रहण है (गाथा
सीमन्तक, तिर्यग्लोक के मन्दर पर्वत तथा ३३४)। वृसिकार ने यहां नामचूडा, ऊर्ध्वलोक के ईपस्पारभास का ग्रहण किया स्थापनाचूडा, द्रव्यचूडा और भाववडा का है । (हाटी प० २७०)
ग्रहण किया है । (हाटी प० २७८) २. प्रथम चूलिका में प्रव्यचूरा, क्षेत्रयूटा, काल
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दशकालिक नियुक्ति
३४७. अनिकेतवास, प्रतिरिक्तता (एकान्तवास), अज्ञात तथा सामुदानिक भिक्षा, अल्प उपधि, अकलह-यह ऋषियों की प्रशस्त विहारचर्या जीवनचयों है।
३४८. मुनि मनक ने इस दशवकालिक सूत्र को छह महीनों में पढ़ लिया। उसक' प्रवज्याकाल इतना ही या । उसके बाद वह समाधिभरण को प्राप्त हो गया।
३४९. मुनि मनक के दिवंगत होने पर आचार्य शम्यं भव की आंखों में आनन्द के आंसू आ गए । यशोभद्र आदि प्रमुख शिष्यों ने इसका कारण पूछा तो आचार्य शाय्यं भत्र ने मुनि मनक को अपना संसारपक्षीय पुष बताते हुए उसकी शिक्षा-दीक्षा तथा दशकालिक सूत्र के निर्युहण का इतिवृत्त कह सुनाया। दशकालिक सूत्र को अब सुरक्षित रखा जाए या नहीं, इस प्रसंग पर संध में विचार-विमर्म चला और इस आगम को भव्य जीवों के लिए बहुत कल्याणकारी बताया गया । तब से आज तक इस आगम का अध्ययन जैन परम्परा में अविच्छिन्न रुप से चल रहा है।
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विषयानुक्रम
उत्तर शब्द के निक्षेप उत्तर और अनुत्तर का स्वरूप उत्तराध्ययन के अध्ययन का क्रम। उत्तराध्ययन के स्रोत । अध्ययन गाद का निक्षेप तथा एकार्थक ।
अध्ययन शब्द की व्युत्पत्ति। ८. आचार्य की दीपक से उपमा। ९. भाव आय का स्वरूप तथा एकार्थक ।
द्रध्यक्षपणा का स्वरूप । ११. भावनपणा का स्वरूप। १२. श्रुतस्कन्ध के निक्षेप । १६-१७. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के नाम । १८-२६. अध्ययनों की विषयवस्तु । २७. प्रत्येक अध्ययन के व्याख्या की प्रतिज्ञा। पहला अध्ययन २८, विनयश्रुत के उपक्रम आदि द्वार । २८॥१,२. अध्ययन के चार प्रकार और विनयश्रुत के
साय उनकी संयोजना । २८१३,४. अध्ययन शब्द का निरुक्त । २९. श्रुत शब्द के निक्षेप। ३०. संयोग शब्द के छह निक्षेप । २१-६४. संयोग के भेद-प्रभेद । ६५. दुष्ट और आकीर्ण घोड़े के एकार्थक । दूसरा अध्ययन ५६-६८. परीषह के निक्षेप। ६९. भावपरीषह के द्वार । ७.. कर्मप्रवाद पूर्व में परीषहों का वर्णन । ७१,७२. परीषहों का अधिकारी। ७३. परीषहों का समवतरण । ७४-७९. कर्मप्रकृति और परीषहों का सम्बन्ध । २०. किस साए में कितने परीषह ? ५१,८२.परीषह और नय ।
५३. एक समय में एक व्यक्ति में उत्कृष्ट परीषहों
की संख्या। ८४. परीषहों का कालमान ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती द्वारा सात सौ वर्षों तक परीषह-सहन। परीषहों का क्षेत्र-विमर्श ।
उद्देश आदि तीन द्वारों का कथन । ५८,९. बावीस परीषहीं की कथाओं का संकेत ।
सुधा परीषह में हस्तीभूति का उदाहरण ।
तृषा परीषह में धनशर्मा मुनि का कथानक। ९२. शीत परीषह में मदबाह के शिष्यों का
उदाहरण। उष्ण परीषह में अग्निक की कथा ।
देशमशक परीषह में सुमनभद्र मुनि की घटना। ९५-९८. बस्त्र परीषह में सोमदेव मुनि का उदाहरण | ९९,१००. रति-अरति परीषह का उदाहरण । १०१-१०६. स्त्री परीषह में मुनि स्थूलभद का उदाहरण। १०७. चर्या परीषह में संगम आचार्य का उदाहरण। १०८, नैषेधिकी परीषह में कुरुदत्त की कथा । १०९,११०. शय्या परीषह की कथा का संकेत । १११. आक्रोश परीषह में अर्जुनमाली का कयानक । ११२-११४. वत्र परीषह में स्कन्दक आचार्य की कथा । ११५. याचनापरीषह में बलदेव तथा अलाभ परीषह
में हुंडण मुनि का उदाहरण । रोग परीवह में कालबशिक मुनि का उदाहरण । तृणस्पर्श परीषह के अन्तर्गत भ्रद मुनि की घटना।
मैल परीषह में सुनंद श्रावक की कथा। ११९. सत्कार परीषह में इंद्रदत्त पुरोहित की कथा । १२०.
प्रज्ञा परीषद का उदाहरण । १२१,१२२. ज्ञान परीषह के अन्तर्गत दो कथाओं का
संकेत।
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________________
१०८
उत्तराध्ययन नियुक्ति १२३-१४१. दर्शन परीषद में आचार्य आषाढ़भूति की १८०,१८१. विससाकरण की व्याख्या और प्रकार । कथा तथा अन्य अनेक कथानक ।
१५२. प्रयोगकरण के दो प्रकार । तीसरा अध्ययन
५०१,२. भारीर के अग और उपांग ।
१८३,१८४. जीवमूलप्रयोगकरण | एक शब्द के सात निक्षेप । १४३. संख्या शब्द के निक्षेप ।
१८५,१५६. उत्तर प्रयोगकरण के भेद ।
१८७. अंग शब्द के चार निक्षेप ।
अजीव प्रयोगकरण के भेद ।
१८७/१. १४५. द्रव्य अंग के प्रकार।
व्यकरण के भेव-प्रभेद । १४६-१४८, गन्ध दव्य के निर्माण की विविधता और
१८८. क्षेत्रकरण का स्वरूप। उनकी फलश्रुति । वासवदत्ता एवं उदयन का
१८९. कालकरण का स्वरूप ।
१९०-१९२/१. प्रकारान्तर से करण के ग्यारह भेद तथा उदाहरण । १४९,१५०. औषधि के अंग प्रतिपादन में अनेक रोगों को
प्रवकरण और चलकरण । हरने वाली गुटिका के निर्माण की विधि ।
१९३-९६. भावकरण के भेद-प्रभेद । १५१. मद्यांग के निर्माण की विधि।
१९७. अप्रमत्त रहने का निर्देश । १५२. आतोच अंगों के प्रकार ।
१९८,१९९. व्यदीप तथा भावदीप के भेद-प्रभेद । १५३,१५४, शरीर के अंग और उपशंग ।
पांचवा अध्ययन १५५. युद्धांग के प्रकार।
२००,२०१. काम और मरण शब्द के निक्षेप । १५६,१५७. भाव अंग के भेद-प्रभेद ।
२०२. द्रव्यमरण, भावमरण आदि का स्वरूप । १५८. शरीरांग के एकार्थक ।
२०३,२०४. प्रस्तुत अध्ययन के द्वारों का निर्देश । भावांग--संयम (दया) के एकार्थक । २०५-२०७. मरण के अवीचि आदि १७ भेदों के नाम। १६.. संसार में दुर्लभ क्या?
२०८. अवीचि के एकार्थक तथा उसके भेद । मानव जीवन की दुर्लभता के दस दृष्टांत ।
२०९. अवधिमरण का स्वरूप। १६२. मानव जीवन के दुर्लभ अंग।
२१०. बलम्मरण तथा वशार्स मरण का स्वरूप । १६३,१६४, धर्म श्रण में होने वाले व्याप ।
२११-२१३. अन्तःशल्यमरण का स्वरूप तथा उसकी १६५,१६६. मियादृष्टि और सम्यकदष्टि जीव का
गति । लक्षण। .
२१४,२११. तद्भवमरण का स्वरूप । १६७-१७२.निलव प्रकरण-निह्नवों के वाद, प्रवर्तक. २१६. बालमरण, पंडितमरण तथा मिथमरण का नगर तथा उनका अस्तित्व-काल।
स्वरूप। २१७.
छद्मस्थमरण और केवलिमरण के चौथा अध्ययन
अधिकारी। १७३. प्रमाद और अप्रमाद शब्द के चार-चार २१८, गुभ्रपुष्ठ और वहावस मरण का स्वरूप । निक्षेप।
२१९,२२०. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन मरण १७४. पांच प्रकार के प्रमाद और अप्रमाद ।
का प्रतिपादन। प्रमादाप्रमाद अध्ययन का निरुक्त।
२२१,२२२. एक समय में कितने मरण संभव ? असंस्कृत शब्द की नियुक्ति ।
२२३. एक समय में होने वाले मरण की संख्या। १७७. करण शब्द के छह निक्षेप ।
२२४. प्रशस्त और अप्रशस्त मरण कितनी बार ? १७८. द्रव्यकरण के दो प्रकार ।
२२५,२२६. 'कतिभाग' मरणद्वार का प्रतिपादन। १७९. नोसंज्ञाकरण के दो प्रकार-प्रयोगकरण
अध्ययन की नियुक्ति का उपसंहार। और विनसाकरण ।
२२८. प्रशस्त मरण के भक्तपरिशा आदि तीन भेद ।
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________________
विषयानुक्रम
२२९. छठा अध्ययन
।
२३०. महत् और शुल्लक शब्द के निक्षेप २३१.२३२. नि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद
निर्ग्रयों के प्रकार ।
बाह्य और आ
चौदह प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थी (बंधनों का नामोल्लेख
दस प्रकार के बाह्य ग्रंथों (बंधन) का नामोल्लेख
क्षुल्लक निधीय अध्ययन का निष्कर्ष ।
२३३.
२३४.
२३५.
२३६.
सकाम मरण की प्रशंसा ।
२३७.
सात अध्ययन
२३८,२३९. उर शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद । २४०. औरश्रीय अध्ययन का निरुक्त।
२४१.
प्रस्तुत अध्ययन के काकिणी आदि पांच दृष्टान्तों का उल्लेख
प्रस्तुत अध्ययन का निष्कर्ष । दीर्घायु का लक्षण ।
२४२.
२४२/१.
आठवां अध्ययन
२४३,२४४. कपिल
शब्द के निक्षेप
भेद-प्रभेद | २४५. काविलीय अध्ययन का निरुत २४६-५२. कपिल के गृहस्थ और मुनि जीवन की कथा का उमेव ।
तथा उसके
नवां अध्ययन
२५३, २५४, नमि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभे । २५५. नमा अध्ययन का निश्वत ।
२५६.
प्रव्रज्या शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव प्रव्रज्या का स्वरूप 1
२५० २७२. करकं दुर्मुख, नमी तथा नरगति राजाओं के वैराग्योत्पति के कारणों का निर्देश
२७६.
दसवां अध्ययन
२०५.
२७२,२७४. म शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । भावम की व्याख्या तथा पत्र शब्द के निक्षेप ।
दुमपत्र अध्ययन के नाम की सार्थकता ।
१०९
बाल- महाशाल का पृष्ठचंपा में आगमन । गागलि की प्रव्रज्या २७९-२९९- भगवान् महावीर का उपदेश तथा गौतम द्वारा सिद्ध पर्वत की यात्रा । दत्त, कोहिग्य तथा शैवाल तीनों तापसों का प्रसंग गौतम द्वारा प्रव्रज्या तीनों की कैवल्योपत्ति के कारणों का निर्देश तथा गौतम की अति और उसका समाधान
३००-३०२. पांडुर पत्र तथा कोंपल के संवाद की अर्थबत्ता तथा उपमा का उल्लेख
२७७. २७८.
ग्यारहवां अध्ययन
३०३.
३०४.
२०५.
३०७.
२०८. ३०९.
३१०.
बहु, भूत और पूजा-इन तीनों शब्दों के निक्षेप तथा द्रव्यबहु का उल्लेख । भाव बहु का वर्णन ।
द्रव्य और भावधुत्र का स्वरूप । भव्य और सम्यक दृष्टि का श्रुत है सभ्य भूत तथा कर्मनिर्जरा का कारण
मिध्यादृष्टि और अभय का बुत है मिष्या
त तथा कर्मबंध का कारण |
द्रव्यपूजा का स्वरूप।
भावपूजा का स्वरूप ।
भावजा के अधिकारी।
बारहवां अध्ययन
२११.३१२. हरिकेश शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद
प्रभेद ।
३१३. हरिकेशीय अध्ययन का निरुक्त | ३१४.३१५. हरिवेश का पूर्वभत्र तथा उसके वैराग्योत्पत्ति का कारण चंडाल के कार्यक
३१६.
३१०-३२१. हरिकेश के वर्तमान जन्म की कथा, विरक्ति का कारण तथा अभिनिष्क्रमण ।
तेरहवां अध्ययन
३२२,२२२. चित्र और संतपद के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेव
विषभूत अध्ययन का निशक्त ।
३२४. ३२५-३५२. चित्र और संभूत के पूर्वभव का वर्णन तथा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के जीवन-संकेत ।
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________________
११०
चौदहवां अध्ययन
३५३,२५४.
प्रभेद ।
२५५. इकारीय अध्ययन का निक ३५६-३६६. इषुकार आदि के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के कथा-संकेत ।
पन्द्रहवां अध्ययन
२६७,२६८. शब्द के निशेष, उसके भेद-प्रभेद तथा निरुक्त।
३६९,२७०. द्रव्यमेता और भावभेा ।
३७१.
३७६.
३७७.
३७२.
सोलहवां अध्ययन
३७३. एक शब्द के सात निक्षेप ।
३७४.
३७५.
३७८.
शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद
३८१.
३८२.
राग, द्वेष, विरुवा आदि आठ पदों की (क्षुधा ) संज्ञा ।
उत्तम भिक्षु की पहचान ।
३७९.
सतरहवां अध्ययन
३८०
३८३.
३८४.
दश शब्द के निक्षेप तथा उसकी व्याख्या | ब्रह्म शब्द के निक्षेप तथा द्रव्यब्रह्म का
स्वरूप ।
भावब्रह्म का स्वरूप और वर्जनीय स्थान | चरण शब्द के छह निक्षेप तथा द्रव्यचरण आदि का स्वरूप |
समाधि के निक्षेप तथा इव और भावसमाधि का स्वरूप ।
स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप ।
पाप शब्द के निक्षेप तथा द्रव्यपाप आदि का स्वरूप ।
भावपाप का स्वरूप ।
श्रमण शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव
श्रमण का स्वरूप |
reeमण कौन ?
पापस्थान वर्जन का फल ।
अठारहवां अध्ययन
२०५३०६. संजय शब्द का निक्षेप तथा उसके भेद । ३८७. संगतीय अध्ययन का निरुत
उत्तराध्ययननिकि
३८-३९८ नरपति 'संजय' की जीवन कथा, आपार्य गर्दभाली का प्रतिरोध और महाराज संजय की प्रव्रज्या । उन्नीसवां अध्ययन
३९९,४००. मृग शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । ४०१. भावमृग का वर्णन तथा पुत्र शब्द के निक्षेप ।
४.२.
मृगापुत्रीय अध्ययन का निरुक्त | ४०२-४१५. मृगापुर का जीवनवृत्त अतिस्मृति से बोधिलाभ, माता-पिता की अनुजा से संयमग्रहण, उत्कृष्ट श्रामण्य का पालन, मोल
गमन ।
बीसवां अध्ययन
४१६. शुल्क और महत् शब्द के निक्षेप । ४१७,४१८. निर्भय शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद।
४१९-४२१. निर्यय के प्रज्ञापना, वेद आदि ३७ द्वार ४२२. महानियंग्यीय अध्ययन का निष्कर्ष । इक्कीसवां अध्ययन
४२३.
समुद्रपाल शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद | ४२४. समुदपाली अध्ययन का निरुक्त। ४२५-४३६समुद्रपाल की जन्मकथा, विवाह, वैराग्यत्त्यति का कारण, दीक्षा तथा मोक्षप्राप्ति।
बावीसवां अध्ययन
४३७, ४३८. रथनेमि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद ।
४३९.
रमनेोमीय अध्ययन का निश्क
४४०, ४४१, रथनेमि के माता, पिता, भाई आदि के
नाम ।
अरिष्टनेमि तीर्थकर | रथनेमि और सत्यनेमि दोनों प्रत्येक बुद्ध
४४३, ४४४ रथनेमि तथा राजीमती का पर्याय-परिमाण आदि । तेवीसवां अध्ययन
४४५, ४४६. गौतम शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद ।
४४२.
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________________
विधान
भावभौम का स्वरूप तथा कंशी शब्द के निक्षेप
४४८. केशीगौतम अध्ययन का निश्क्त । ४४९४४१. केसी गौतम के संवाद के विषयों का संकेत । मोमोस अध्ययन
४१२,४५३. प्रवचन शब्द के निक्षेप और उसके भेदप्रभेद ।
४२४,४५५ माता शब्द के निक्षेप और उसके भेदप्रभेद
प्रवचनमाता अध्ययन का नियक्त ।
४४७.
४५६.
पच्चीसवां अध्ययन
४५०, ४५. यश सब्द के निरुक और उसके भेद-प्रभेद । ४४९. मशीय अध्ययन का निषक्त । ४६०-४०६. जयघोष और विजयघोष मुनि की कथा ।
godieaf अध्ययन
४७७,४७८. साम शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । ४७८१२. सामाचारी के दग भेदों का नामोल्लेख ४०९,४५०. आचार शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद ।
४=१. सामाचारी अध्ययन का निरक्त
सलाईसवां अध्ययन
४.२, ४०३. खक शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद ।
चक (दुष्ट) बैल के लक्षण ।
द्रव्य खलंक का स्वरूप |
वक कभी ऋजु नहीं हो सकते।
४८७.
अविनीत शिष्य को मच्छर आदि की उपमा | ४००, ४०९. खक - अविनीत शिष्य के लक्षण | वसुं भाव को छोड़कर ऋणु बनने की प्रेरणा । अट्ठाईस अध्ययन
४९०.
४६४.
४८५.
४८६.
४९१.४९२. मोक्ष शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन । ४९३,४९४. मार्ग शब्द के निक्षेत्र तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन ।
१११
४९५.४९६. गति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन ।
४९७. मोक्षमागति अध्ययन का निरुक्त। उनतीसवां अध्ययन
प्रस्तुत अध्ययन के तीन नाम ।
४९८. ४९९,५०० अप्रमाद शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा भाव अप्रमाद का स्वरूप ।
२०१,५०२. त य के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद । भावश्रुत के प्रकार ।
५०३.
५०४.
अप्रमाद अध्ययन के नाम की सार्थकता । तीसवां अध्ययन
५०५,५०६.
५०७.
५०८.
इकतीसवां अध्ययन
५०९,५१०. चरण शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख ।
२११,५१२ विधि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद |
५१३.
५१६.
५१७.
बत्तीसवां अध्ययन
५१४,५१५ नाव शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद
प्रभेद
स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेष ।
प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त रहने का निर्देश ।
५१८.
शब्द के निक्षेप उसके भेद-प्रभेद तथा भावतप के प्रकार ।
मार्ग और गति के निक्षेप का पूर्वोल्लेख तपोमार्गगति अध्ययन का निरुक्त।
५१९.
५२०. ५२१.
चरणविधि के अनुसार जागरण करने का निर्देश ।
हजार वर्ष उब तपश्चरण करने वाले आदिकर ऋषभ के एक अहोरात्र प्रमादकाल का कथन ।
भगवान् महावीर के साधिक बारह वर्ष के साधनाकाल में अन्तर्मुहूर्त काल मात्र के
प्रमाद का कथन ।
प्रभाव से संसार भ्रमण ।
प्रमाद को छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमत रहने का निर्देश |
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________________
।
उत्तराध्ययन नियुक्ति तेतीसवां अध्ययन
पैतीसवां अध्ययन ५२२-५२४. कर्म शब्द के निक्षेप और उसके भेद-प्रभेदों ५४१,५४२. अनमार शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेदों का का उल्लेख ।
उल्लेख तथा भाव अनगार का स्वरूप । ५२५-५२७. प्रकृति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों ५४३. मार्ग और गति के निक्षेप के पूर्वोल्लेख का का उल्लेख ।
निर्देश । ५२८.
कर्म प्रकृतियों के संवरण तथा निर्जरा का तीसवां अध्ययन उपदेश ।
५४४,५४५. जीव शब्द के निधोप, उसके भेद-प्रभेद तथा चौतीसवां अध्ययन
भाव-जीव के दस परिणामों का उल्लेख । ५२९,५३०. लेश्या शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों ५४६,५४७. अजीव शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद का उल्लेख ।
तथा भाव-अजीव के दस परिणामों का ५३१. जीवलेश्या के भेद ।
उल्लेख। ५३२,५३३. अजीवद्रव्यलेश्या के दस प्रकार तथा उनके ५४८,५४९. विभक्ति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदनामोल्लेख ।
प्रभेद । द्रव्यकर्मलेश्या के कृष्ण, नील आदि छह ५५०. सिद्ध आदि की विभक्ति का निरूपण । प्रकार।
भावविभक्ति का उल्लेख तथा प्रस्तुत अध्ययन ५३५,५३६. भावलेश्या के प्रकार और उनका स्वरूप ।
में दयविभक्ति के अधिकार का उल्लेख। ५३७. नोकर्मथ्यलेश्या के भेद ।
५५२,५५३. उत्तराध्ययन को पढ़ने के अधिकारी और ५३८. अध्ययन शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद ।।
अनधिकारी भाष अध्ययन का स्वरूप ।
५५४.
गुरु प्रसाद से इसका सांगोपांग अध्ययन ५४०. अप्रशस्त लेश्या को छोड़कर प्रशस्त लेश्या में
संभव। यत्न करने का निर्देश ।
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गायाओं का समीकरण
उत्तराध्ययन नियुक्ति की गाथाएं णि और शान्त्याचार्य की टीका दोनों में मिलती है। पर प्रकाशित चूणि में गाथा का केवल संकेतमात्र हैं उसमें गाथा संख्या नहीं है । संपादन में हमने कुछ गाथाओं के बारे में विमर्श किया है अतः संपादित गाथा संख्या और टीका की गाया संख्या में कुछ अंतर होना स्वाभाविक है। पाठकों की सुविधा के लिए हम यहां संपादित गाथा एवं प्रकाशित शान्त्याचार्य की टीका में आई गाथाओं का चार्ट प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे टीका की गाया खोजने में सुविधा हो सके। संपादित
संपारित बटी
संपादित
२५
Page #229
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________________
उत्तराध्ययन नियुक्ति
संपादित
नही
संपादित
उटी
संपादित
उटी
७२
१३६
७३
१०४ १०५ १०६ १०७
१३८
१३७ १३८ १३९
७५
७५
१४१
१४० १४१ १४२ १४३
१०९ ११०
१११ ११२
१४२
१११
१४
११२ ११३ ११४
१४५
१४३ १४४ १४५ १४६ १४७
११५
१४६
१४७ १४८
११७
१४९
१४९
११-१
१२०
१५० १५१ १५२ १५३
१५२
१२० १२१ १२२ १२३ १२४
१५३
१२२ १२३ १२४
१५४
१५४ १५५
१२६
१५७
१२७
१२७
१२८
१५९
१२८ १२९ १३०
१६० १६१
१३०
१६२
१००
१३१
१००
१३२
१६५
१६२
१०४
१०३
१६४
१. टीका में ११८ के बाद १२० का अंक है । २. टीका में १६० का अंक दो बार आया है।
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________________
गाथाओं का समीकरण
११५
संपादित
उटी
संपापित
२२१
२२७ २२८
१९७
२२२
२२९
Xxxxx2.
१८१ १९० १९१ १९२ १९६१
२२३ २२४ २२५
२३०
२००
२३१
१७२।१ १७२२२
२३२
२३३
उगा २०१ २०२ २०३
२३४
१७२।४ १७२१५
१९४ १९५
२२९
२३५
२३०
२३६
१९६
२०४
१७२
१९७ १९८
२०५ २०६
२३१ २३२ २३३ २३४ २३५
२३७ २३८ २३९ २४०
२०७
१७५
1
२४१
१७१७ १७२। १७२।९ १७२।१० १७२।११ १७२।१२ १७२।१३ १७२।१४ १७२।१५
X
२३६
KUN.
२१०
२४२ २४३ २४४ २४५ २४६
भा१ भा २
२०५
१८०
१७४ १७५
२१२ २१३ २१४ २१५
२३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४।१ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७
२०७ २०० २०९ २१०
१२
१७७ १७८
२४ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४
१७९
१८५
२१७ २१८ २११ २२०
१८६
२१२
१८७ १८९
२१३
२४८
२५५
१५० १९१ १५२ १८२। १८२१२ १८३
२१४
२२१
२४९
२५६
२१५
२५७
१९२
२१७
२५१ २५२
२२३
२२४ २२५
२५८ २५९ २६० २६१
२१९
२१४
२८७
२५५
Page #231
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________________
११६
उत्तराध्ययन नियुक्ति
संपादित
उटी
संपादित
उटी
संपादित
उटी
२८५
२९२
२८६
२५६ २५७ २५८ २५९ २६०
२६४ २६५
२९३ २९४
३१७ ३१८
२८७
३२५
२७१
२९५
३२६
२८ २८९ २९० २९१
x ३२७
२६१
२६२ २६२।१ २६३
२७२ २७३
२९६ २९७ २९८ २९९ ३०. ३०१ ३०२ ३०३
२९२
३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६
३३०' ३३१ ३३२
२९३
२९४
२६५
२६८
३३४ ३३५
२६९
३२७
२६६१
२९५ २९६ २९७ २९८
२७० २७४
३२८
३०४
३३६
३२९
२६७
३३७
२६८
२७५
३३० ३३१ ३३२
३३० ३३९
३०० ३०१
३४०
२७६ २७७ २७८ २७९
३३३
२७० २७१ २७२ २७३'
३४१
३०२
३०७ ३०८ ३०९ ३१० ३११ ३१२
३३४
३४२ ३४३
२५०
३०३ ३०४ ३०५
२७४ २७५
३३६ ३३७ ३३०
३४५
२८१ २८२ २५३ २८४ २८५
३०७ ३०८ ३०९
३१६
२५६
२७७ २७८ २७९ २८० २५१ २५२ २५३ २८४
३४० ३४१ ३४२ ३४३
३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२
३१७ ३१८ ३१९ ३२०
२८७ २८८ २८९ २९०
३११ ३१२ ३१३
३४४ ३४५
३५४
३२२
૩૪૬ ३४७
१. २५८-२६७ तक गाथाओं की व्याख्या में चूणि और टीका में क्रमव्यत्यय है। २. २७३ की गाथा के स्थान पर टीका में "णामं उबणा दविए" का संकेत है। ३. टीका में ३२७ के बाद ३३० का अंक है।
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________________
गावानों का समीकरण
११७
संपादित
उठी
संपापित
उदी
संपादित
रटी
३५५'
३७७
३८३ ३८४
४०६ ४०७
४१० ४११
YOS
३७९ ३८०
.
३११ ३५२
३५९
३८७ ३८८ ३८९
४१०
४१३ ४१४ ४१५
३५२ ३८३
३५४
३९०
३५५
३८४
४१७
३५६
४१८
४१३ ४१४ ४१५ ४१६
३४७ ३५८
३९१ ३९२ ३९३ ३९४ ३९५
३६४ ३६५
४२. ४२१
४१७
३८८ ३८९ ३९०
३६७ ३६८
३९६
४१८
४२२
३९७ ३९८ ३९९ ४००
૪૨૪
३७० ३७१
४२५
३६४
३९२ ३९३ ३९४
४२२'
३७३
४०१
४२० ४२१ ૪૨૨ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८
४०२
४२३ ४२४ ४२५
३६७
३६६
३७१ ३७६
४०४
३७०
३९८ ३९९ ४००
३७८
४०५ ४०६ ४०७
३७१ ३७२
४२
४०१
४२९
४२९ ४३०
४०२
४०३
४०७५
३८० ३८१ ३८२
४३१ ४३२ ४३३
४३१ ४३२
४०5
३७६
४०५
४०९
४३३
१. ३५५ का अंक टीका में दो बार दिया हुआ है। २.दीका में ३७९ का अंक दो बार दिया है। ३. टीका में ३८६ का अंक नहीं है। ४. टीका में ४०१ का अंक दो बार दिया है। ५. टोका में ४०८ के बाद पुनः ४०७ का अंक है। इ. टीका में ४२५ के बाद पुनः ४२२ का अंक है।
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उत्सराध्ययन निर्वक्ति
संपादित
ती
संपावित
उठी
संपावित ४३४ ४३५
उटी ४३४
४७०
४३५
४६८
४१८ ४९९
४.७१
४३६
४६९
५००
५०५
४३७ ४३८
४३७ ४३८
४७३
५०६
४७४
५०१ ५०२
४७२
४७६
५०४ ५०५
५०७ ५०८ ५०९ ५१.
४४२ ४४३
४७८
४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७८1१ ४७००२
५१२
४७९ ४८० ४८१
५०७ ५००
४८२
५१४ ५१५
११०
४४७
४८३
४४८
४७९
४८४
४५२
४६०
४८५
५१२ ५१३
५१७ ५१८
४५०
४५३
५१९
४५४ ४५५
४८२
४८५ ४५७ ४५८
४५२ ४५३ ४५४
४८३ ४८४
५१५ ५१६
५२० ५२१
४८५
५२२ ५२३
४५७ ४५८ ४५९ ४६.
४९१ ४९२
४५६
५२४
४८७ ४८८
४९३
५२५
४५७ ४५८ ४५९
५१८ ५१९ ५२० ५२१ ५२२ ५२३
४९४
४८९ ४९०
४६२
४९५
४६०
४६३
४९६
५२७ ५२८ ५२९ ५३०
४९७
५२४
४६१ ४६२ ४६३
४६४ ४६५
४९८
५२५
४९४
५२६
४६७
४९९ ५०० ५०१
५३२
५२७ ५२८
४६५ ૪૬
४६९
४९७
५०२
१. टीका में ४९९ के बाद ४४६ का मंक है।
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संपादित
उदी
उदी
उत्तराध्ययन नियुक्ति संपावित उटी ५३८ ५३१
५३७
५५२
संपावित ५४७ ५४८ ५४९
५४० ५४१ ५४२
५४६
५५४
५५५
५३४
५४७ ५४८
५३१ ५४०
५४९ ५५०
५५७
५५३
५३६ ५३७ ५३८
५४२
५५४
५५१
५४३
१.टीका में ५५८ के बाद पुनः ५५१ का अंक है।
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उत्तराध्ययन-नियुक्ति
१. नामं ठवणा दविए, खेत्त दिसा ताव खेत पण्णवए ।
पति' काल-संचय-पहाण-नाण-क्रम गणणतो भावे । २. जहन्नं सुत्तर' खल, उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ ।
सेसाणि उत्तराई, अणुत्तराइ च नेयाणि ।। ३. 'कम उत्तरेण" पगतं, आयारस्सेव उवरिमाइं तु।
तम्हा उ उत्तरा खलु, अज्झयणा होति नायव्या ।। ४. अंगप्पभवा जिणभासिया र पत्तेयबुद्धसंवाया।
बंधे मोक्खे य कया, छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ ५. नामं ठवणज्झयणे, दब्बज्झयणे य भावअज्झयणे।
एमेव य अज्झोणे, आयझवणे वि य तहेव ।। ६. अज्भप्पस्साणयणं, कम्माणं 'अवचओ उचियाणं"।
अणुवचओ य" नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ।
१. पन (ह)।
तस्स फल-जोग-मंगल, २. कयपषपणप्पणामो, बोच्छं घमाणुयोगसंगहियं ।। समुदायत्था तहेव दाराई ।
उत्तरज्म्य षणुयोगं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ तम्भेय निरुत्त-कम तस्स फल-जोग-मंगल, समुदायत्या तहेव दाराई। पयोयणाई च वस्चाई॥ चम्भेय-नित्तिक्कम, पयोयपाईप वच्चाई।।२।।
(विभाकोटि मा. १,२) ये दोनों गाथाएं चणि तथा किसी हस्तप्रति ३. सउसरं (ला, ह, धू)। में 'माम ठवणा थिए' गाथा से पूर्व मिलती ४. सेसाई (गां)। है। टीकाकार ने इनकी म्याच्या नहीं की है। ५. नेयाई (ला, ह)। यह चूर्णिकार का मंगलाचरण भी हो सकता ६. कमुत्त (जू)। है। ये दोनों गाथाएं विशेषाघश्यक भाष्य में ७.० माई (ला) । मध्यान्तर से मिलती है
८. खतुः वाक्यालंकारेऽवधारणे वा (शांदी प ५)। कतपवयणपणामो, बोकछं चरणगुणसंगहं मयलं। ९. आएम० (ला, ह)। आवासयाण्योग, गुरुवषेसाणुसारेणं । १०. उपचओवचि० (ह)।
११. व (सा, शां)। १२. देखें-अनुद्वा ६२१०१, दशनि २९ ।
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नियुक्तिपंचक
१२२
७. अधिगम्मति व अत्या, अणेण' अधिगं व णयणमिच्छति । ___ अधिगं साहू गलति. तुम्हा आनयमिच्छति ।। ८. जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए' सो य दिप्पती५ दीवो।
दीवसमा आयरिया, दिप्पति' परं च दीवेति ।। ९. भावे पसत्यमियरो, नाणादी फोहमादिओ कमसो।
माउत्ति आगमोत्ति य, लाभोत्ति य होंति एगट्ठा ।। १०. पल्हत्थिया अपत्या", तत्तो उप्पिट्टणा अपत्थयरी।
निप्पोलणा अपत्या, तिन्नि अपत्याई पोत्तीए ।। ११. अट्टविहं कम्मरयं. पोराणं " खवेइ जोगेहि ।
एयं भावज्झयणन, यव्यं माणुपुवीए ।। १२. सुतखंधे" निक्लेवं, णामादि चउब्दिहं परूयेउं ।।
'नामाणि य अहिगारे", अज्झयणागं पवक्खामि ।। १३. विणयसुयं च परीसह, चउरंगिज्ज असंखयं चेव" ।
अकाममरणं नियंठि", औरम्भं काबिलिज्ज च ।। १४. नमिपन्वज्ज दुमपत्तयं च, बहुसुयपुज्ज तहेव हरिएसं ॥ ___ 'चित्तसंभूति उसुयारिज, सभिक्खु"समाहिठाणं च । १५. पावसमणिज्जं तह संजइज मियचारिया नियंठिज्ज ।
समुहपालिज रहनेमिज, केसिगोतमिज्ज च ।।
१. इमेण (ला, ह)। २. य (ला)। ३. वानि २७ । ४. ०प्पई (मा,ह)। ५. दिप्पए (गां)। ६. अप्पं च (शां)। ७. दीवति (शा), अनुवा ६४३१, दशनि २८। ८. मादितो (ला), मकारस्यालाक्षणिकत्वात्
क्रोधादिकः (शाटी प ६) ९. थायोति (शा)। १., अमत्या (ह)। ११. जो (ह)। १२. ० भायणं (शां)। १३. मुतखंधे (ला)।
१४. णामाणहिगारे वि व (ह)। १५. इस गाथा का चूणि मैं संकेत नहीं है किन्तु
संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है। १६. होइ (ह)। १७. नियटिज (ह)। १८, १३-१७ तक की गाथाओं के लिए चूमि में
"विणयसुयं च परीसह जाव जीवाजीवाभि
गमोति" मात्र इतना उल्लेख है। १९. रूपवज्जा (ह)। २०. चित्तसंभूतोसुया० (ला), संभूय उसु. (ह) । २१. सभिक्खुयं (लाह)। २२. हिट्ठाणं (ला)। २३. संजईज्ज (शां)। २४. नेमीयं (शाह)।
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१२५
उत्तराध्ययन नियुक्ति १६. समिईओ' जण्णइज्जं, सामायारी 'तहा खलुकिज्ज ।
मोक्खगति अप्पमादो, तब-धरण-पमायठाणं च ॥ १७, कम्मप्पगडी लेसा, बोधवे. खजुगारमा ए।
___ जीवाजीवविभत्ती, छत्तीसं उत्तरज्झयणा ।। १८. पढमे विणो 'बितिए, परीसहा दुल्लभंगता ततिए ।
अधिगारो ‘य चउत्थे", होइ' 'पमादप्पमाए त्ति' ।। १९. मरणविभत्ती पुण पंचमम्मि विज्जाचरणं च 'घट्ट अज्झयणे ।
रसगेहिपरिच्चाओ, सत्तमे अट्ठमे 'अलाभो य" ।। २०. निक्क्रपया य नवमे१२, दसमे अणुसासणोवमा भणिया।
एपकारसमे पूया, तरिद्धी व बारसमे । २१. तेरसमे य णियाणं, अनियाणं वेब होइ चउदसमे"।
भिक्खुगुणा पन्नरसे", सोलसमे बंभगुत्तीओ। २२. पावाण वज्जणा खलु, सत्तरसे५ भोगिडिविजहणद्वारे । ___'एगणे अप्पडिकम्म", अणाया चेव वीस इमे ।। २३. 'चरिया य विचित्ता'' एक्कवीसे बावीसमे" "थिरं चरण'"।
तेवीसइमे धम्मो, चउवीसइमे य समितीओ ॥ २४. 'बमगुणा पणवीसे'२१, सामायारी य होइ छब्बीसे ।
सत्तावीसे असढया, अट्ठावीसे य मोक्खगती ।।
१. इको (ला)।
११. म लोभे (ला)। २. बलंक मोक्खगती । अप्पमादो तो भग्गो १२. नवमं (ह) ।
धरणविहि पमायठाणं च (लाई)। १३. चोट्समे (हला)। ३. बोबम्बे (शा)।
१४. पन्नरसमे (ला)। ४. अणगार. (लाह)।
१५. यहां सत्तर शरद रखने से छंद भंग नहीं होता ५. विभत्ति (गो)।
है। लेकिन सभी प्रतियों में सत्तरसे पाठ ६. बीए परि० (शा)।
उपलब्ध है। ७. उघउत्पम्मि (ला)।
१६. विचयणट्ठारे (सा,ह)। ८. ०माएण (ला,ह), १८ से २६ तक की गाथाओं १७. एकूणे अपडिकम्म (ह), मप्परिकम्मे (मां)।
के लिए चुणि में "पढमे विणओ गाहा, एवं १८. चरियविचित्ता (लाह) 1 अत्याहिगारगाहा भाणियवाओ" माव इतना १९. बाबीसतिमे (ह)। उल्लेख है।
२०. धितीय परणं च (ला,ह)। ९. घट्टए भणियं (ला,ह)।
२१. बंभगुण पन्नबीसे (गां)। १०. अभि (गो)।
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निक्तिपंचक २५. एगुणतोसे' आवस्सगप्पमादो तवो य होइ तीसइमे।
चरणं च एक्कतोसे, बत्तीसे पमायठाणाई ।। तेत्तीसइमे कम्म, चउतीसइमे य होंति लेसाओ ।
भिवखुगुणा पणतीसे', जीवाजीवा य छत्तीसे || २७. उत्तरज्झयणाणंसो, पिंडत्थो'' वाण्णतो समासेणं ।।
एत्तो एक्केषक पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ।। २८. तत्थज्झयणं पढम, विणयसुतं तस्सुवक्कमादोणि ।
दाराणि परूवे, अधिगारो एस्थ विणएणं" ।। २८११. ओहो जं सामन्न, सुताभिहाणं चम्विहं तं च ।
अज्झयणं अज्झीणं, आयो झवणा य पत्तेयं ।। २८१२. नामादिचउन्भेयं वणेऊणं सुयाणसारेणं ।
विणयसुर्य आउज्ज, चउसु पि कमेण भावेसुं ।। २८३. जेण सुहप्पज्झयणं, अज्झप्पाणयणहियणयणं वा ।
बोधस्स संजमस्स य, मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ।। २५।४. अक्खीणं दिज्जतं, अम्वोच्छित्तिणयतो अलोगो ।
आओ नाणादीणं, झवणा पावाण कम्माण ॥ २९. विणयो" पुन्यु हिट्टो, सुतस्स चउक्कओ उ निक्खेवो ।
दव्वसुनिण्हगादी, भावसुय सुए उ उवउत्तो ॥ ३०. संजोगे निक्लेवो, छपको दुविहो उ दब्वसंजोगे।
संजुत्तगसंजोगो, नायव्वियरेयरो चेव ।। १. एगुणत्तीसइमे (ला,ह)।
ये नियुक्ति गाथा के क्रम में न होकर उदात २. गम्पमदो (), पमातो (ला)।
गाथा के रूप में स्वीकृत हैं । मूलतः ये गाथाएं
विशेषावश्यक भाष्य की हैं । संभव है लिपि४. ट्ठाणाई (ला)।
कप्ताओं ने इनको भी नियुक्ति गाथाओं के ५. पोत्तीसतिमे (ला,ह)।
साम जोड़ दिया है । उनि १५ में अध्ययन के ६. पणु (ह)।
एकार्यक दिए हैं, वही बात २८१ की गाथा ७. उत्तरज्झयणाण पित्ये (च)।
में है । नियुक्तिकार ऐसी पुनरुक्ति नहीं करते। ८. पन्नवेउं (शा)।
इसके अतिरिक्त विषय की दृष्टि से भी २८वीं ९. सत्य (ला,ह)।
गाथा के याद २९वी गाथा कमबद्ध लगती है। १०. चणि में यह माथा रूप में संकेतित नहीं है, १२.विनय का वर्णन देखें दशनि २८६-३०१ तक। केवल भावार्थ प्राप्त है।
शांत्याचार्य की टीका में ये गाथाएं उद्धृत ११.२८।१-४ तक की पार गाथाएं 'ला' और 'ह'
गाथा के रूप में हैं। (देखें वाटीप १६.१७)। बादों में उपलब्ध है। टीका और पूर्णि में
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१२५
उत्तराध्ययन नियुक्ति ३१. संजुत्तगसंजोगो, सचित्तादीण' होइ दवाणं ।।
दुममणु सुवण्णमादी, संततिकम्मेण जीवस्स ।। ३२. मुले-शंदे-खंधे, तयाय साले पवालपत्तेहि ।
पुप्फ-फले बीएहि य, संजुत्तो होइ दुममादी' । ३३. एगरस एगवणे, एगे गंधे' तहा दुफासे य ।
परमाणू खंधेहि य, दुपदेसादीहि विष्णे यो । ३४. जह धातू कणगादी, सभावसंजोगसंजुया होति ।
इय संततिकम्मेणं, अणाइसजुत्तओ जीवो। ३५. इतरेतरसंजोगो परमाणूर्ण तहा पदेसाणं ।।
अभिपेयमणभिपेओ", अभिलावो चेव संबंधो ।। दुविहो परमाणूणं, हवति य संठाणखंधतो चेव ।
संठाणे पंचविहो, दुविहो पुण होइ खंधेसु ।। ३७. परमाणुपुग्गला खलु", दोनि व बहुगा य संहता संता।
निव्वत्तयति खंध, तं संठाणं अणित्थत्यं ।। परिमंडले य घट्टे, तसे 'चउरंस आयए'" चेव । घणपयर" पढमवज्ज, ओयपदेसे य जुम्मे य ।। पंचग बारसर्ग खलु, सत्तग बत्तीसगं च वट्टम्मि ।
तिय छक्कग पणतीसा, चत्तारि य होति सिम्मि ।। ४०. नव घेव तहा घउरो, सत्तावीसा य अट्ठ चउरसे ।
तिग-दुग पन्नरसे वि" य, छच्चेव य आयए होति ।।
१. सचित्ता (ला)।
२. संबद्धतो (ला)। २. दुमअणु (ह), मकारस्यालाक्षणिकस्वात् (गांटी १०. अभिप्पेय अभिप्पेतो (ला)। प२३)।
११. खलुशब्दोऽत्र विशेष योतयति (शांटीप २६)। ३. खंधे (ला) ""स्कन्धे इति सर्वत्र सूत्रत्वात् १२. अणिच्छत्तं (ह)।
तृतीयार्थ सप्तमी (शॉटी प २३)। १३. मायए (शा)। ४. 'शालेत्ति एकारोऽलाक्षणिकः (शांटी प २४)। १४. धनप्रतरं, प्राकृतत्वात् बिन्दुलोपः (शांटी ५. पत्ते य (ह)।
प२७)। ६. 'दुममाह'ति मकारोऽसाक्षणिकः (शांटी १५. तु (शां), ३९-४१ तक की गाथाओं का चूणि ५२४)।
में गाथा रूप में संकेत नहीं मिलता किन्तु ७. गंधे ति (ह)।
व्याच्या प्राप्त है। क, पेयम्बो (ना), गायबो (नां)।
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नियुक्तिपंचक ४१. 'पणयालीसा बारस'', छन्भेया आययम्मि संठाणे ।
वीसा चत्तालीसा, परिमंडलगे उ संठाणे ।। ४१२१ गिद्धस्स णिवेण दुहाहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुहाहिएण ।
णिद्धस्स लुक्खेण उवेति बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ।। ४२. धम्मादिपदेसाणं, पंचण्ह उ जो पदेससंजोगो।
तिण्ह' पुण अणादीओ, सादीओ होति दोण्हं तु ॥ अभिपेतमणभिपेतो, पंचसु विसएसु होति नायम्यो । अणुलोमोऽभिप्पेतो', अणभिप्पेतो यः पडिलोमो ।। सव्वा ओसधजनी गंधजुली र भोग मनिह । रागविहि गोतवादितविहीं, अभिप्पेतमणुलोमा || अभिलावे संजोगो, दवे खेत्ते य कालभावे य । दुगसंजोगादीओ,
अखरसंजोगमादीओ ।। संबंधणसंजोगो, सच्चित्ताचित्तमीसओ चेक । दुपदादि हिरण्णादी, रह-तुरगादी य बहुधा उ ।। खेत्ते काले य तहा, दोण्ह वि दुविहो उ होइ संजोगो ।
भावम्मि होइ दुविहो, आदेसे चेवऽणादेसे ।। ४८. आदिट्ठो आदेसंसि, बहुविहे सरिसनाण-चरणगते ।
सामित्त पच्चयाइम्मि चेव किंचित्तओ वोच्छ॥ ४९, 'ओदइय" ओवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए य१२ ॥
परिणाम-सनिवाए, य छबिहो होतऽणादेसो" ।। १. पणयाला बारसगं (ह)।
१०. 'ला' तथा अन्य हस्त मादों में यह गाथा ३. प्रस्तुत गाथा प्रज्ञापना सूत्र (१३।२२५२) की उपलब्ध है लेकिन टीकाकार और पूर्णिकार
है। टीकाकार और चूणिकार ने इसकी ने न इसकी सूचना दी है और न व्याख्या की व्याख्या नहीं की है। ला और ह प्रति में यह है । टीका के संपादक ने 'स्वचिदा प्राक' गाथा प्राप्त है। यह गाथा निगा की नहीं इतना उल्लेख करके इस गाथा को टिप्पण में होनी चाहिए।
दिया है। किन्तु प्रसंग के अनुसार यह निगा ३. तिग्नि (ह.ला)।
की होनी चाहिए। क्योंकि गाथा में निर्दिष्ट ४. अणुलोमं अभिपेतो (ला,ह)।
प्रतिज्ञा के अनुसार इस गाथा की व्याख्या उनि ५. उ (ह)।
गा. ६० एवं ६१ में है। ६. तोसध० (ला)।
११. क्वचित्त'उदयिए' सि पठ्यते (शाटी प ३३)। ७. होयण (ला)।
१२. उदइय-उवसम-खइएसु तह खाए य उवलमिए ८. विही य (ला,ह)। ९. ०प्पेत अणु० (ह)।
१३. होति गा० (पू)।
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१२७
उत्तराध्ययन नियुक्ति ५०. आदेसो पुण दुविधो, अप्पियववहारऽणप्पितो चेष ।
एक्केको पुण तिविहो, अप्पाण' परे तदुभए य ।। ५१. ओवसमिए' य खइए, खयोवसमिए य पारिणामे य ।
एसो पब्विहो खलु, नायवो अससंजोगो ।। जो सनिवाइओ खलु, भावो उदएण यज्जितो होइ । एक्कारससंजोगो, एसो घिय अत्तसंजोगो ।। लेसा-कसायवेदण', वेदो अण्णाण मिच्छ मीसं च । जावइया ओदइया, सब्बो सो बाहिरो जोगो ।। जो सनिवाइओ खलु, भावो उदएण मीसितो होइ । पन्नारससंजोगो, सन्वो सो मोसओ जोगो ।। बितिओ वि य" आदेसो, अत्ताणे बाहिरे तदुभए य । संजोगो खलु भणिओ, तं कित्तेऽहं समासेणं ।। ओदइय" ओवसमिए', खइए य तहा खओवसमिए य ।
परिणाम-सन्निवाए य छविहो अत्तसंजोगो ।। ५७. नामांम्भय खेतम्भ य, नायव्वा बाहिरो उ संजोगी।
कालेण बाहिरो खलु, मिस्सो५ वि य तदुभए होइ । आयरिय सोस पुत्तो, पिया य जणणी य होई धूया य ।
भज्जा पति सीउण्हं, 'तमुज्ज छायान्तवे चेव"। ५९ आयरिओ तारिसओ, जारिसओ नवरि होज सो चेव ।
आयरियस्स वि सोसो, सरिसो सवेहि वि गुणेहि ।।
१. अताण (शा) अत्ताण ति आषत्वादात्मनि ५. मीसियो (गां)। (शांटी प. ३३)।
९. बीओ (शा)। २. उवसमेण (चू)। ३. खलु वाक्यालंकारे (शांटी प ३४)। . ११. उदइओ (ला.४), ओदयिय (च। ४. रिचय (ला)।
१२. उवसः (ह)। ५. कषायबेदनं प्राकृतस्वादिबदुलोप; (गांटी ए १३. प्राकृतत्वात् तृतीया सप्तमी (पाटी ए
६. सोद (ला), ला प्रति तकार बहुल है अतः १४. य (ला,शां)।
ऐसे पाठान्तर प्रायः नहीं लिए हैं। १५. मीसो (शा)। ७. सम्मिवाओ (चू)।
१६. समुछाया तहेव च (ला), तमुज्षु (ह)।
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१२८
निर्यक्तिपंचक एवं नाणे चरणे, सामित्ते अप्पणो य' पिउणो ति । 'मज्झकुले कुलगस्स य अहर्ग अन्भतरो म्हि य' ।। पञ्चयओ य बहुविहो, निवित्ती पच्चओ जिणस्सेय । देहा य बद्धमुक्का, 'माइ-पिति-सुयादि'३ य हवंति ॥ संबंधणसंजोगो, कसायबहुलस्स होइ जीवस्स ।
'पहुणो वा अपहुस्स" व, मझ ति ममज्जमाणस्स'५ ॥ ६३. संबंधणसंजोगो, सांसारायो अणुत्तरणवासो।
तं छित्तु विप्पमुक्का, 'साधू मुक्का ततो तेणं ।। संबंधणसंजोगे, खेत्तादीण विभास जा भणिया ।
खेत्तादिसु संजोगो, सो चेव विभासितब्बो तु॥ ___गंडी गली . मराली, अस्से गोणे य होति एगट्ठा । आइण्णे य विणीए, य भद्दए याविः एगट्ठा" ।।
__ विणयसुयस्स निज्जुत्तो सम्मत्ता ६६. णासो परीसहाणं, चन्विहो 'य दुविहो उ दवम्मि"।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य२ सो तिविहो । ६७. जाणगसरीर भविए, तव्वतिरिते य से" भवे दुविहे ।
कम्मे नोफम्मे या", कम्मम्मि य मणुदलो भणितो॥
१. उ (शा)।
टीकाकार ने (वृत्ति प ४९) इस गाथा के लिए २. मज्म कुलेऽयमस्स य अयं अग्भितरो मिति "नियुक्तिकृद् ऐसा उल्लेख किया है। संभव
(शां), मध्झायं कुलयस्स य अहयं अन्तरो- है यह गाथा बाद की रचना हो क्योंकि प्रायः म्हि ति (शोटि प ४०)।
नियुक्तिकार अध्ययन के प्रारम्भ में ही नियुक्ति ३. माय-पिय-सुयादय (लाह) ।
लिखते हैं बीच में नहीं। यह केवल अकेसी ४. बहुणो व अप्पहुस्स (ला)।
गाथा सूत्रगाथाओं के बीच में आयी है। ५ ममिज्जा (ला)।
११. दग्ने होइ दुविहो उ (ला, ह), दुबिहो य ६. माइ-पिड सुनाइ (शा) ला प्रति में यह गाथा दमि (शा)। नहीं है।
१२. उ (ला, ह)। ७. य (शा)।
१३. सो (ह)। ८. आसे (ला, ह)।
१४. पः समुच्चए, दीर्घत्वं च प्राकृतलक्षणात् ९. वावि (शा)।
(शाटी प ७२) १०. चूणि में इस माथा का संकेत नहीं है लेकिन
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उतराध्ययननियुक्ति
६८.
६९.
७०.
७२.
कम्मप्पवाय पुब्वे, सायं सउदाहरणं', तं चेव इहं ७१. सिहं पि नेगमणओ, परीसहो जाव निहं अनयागां पीसी
चैव नायन्वो । अहावीए ।
पढमम्मि अभंगा, संगह जीषो व अहव बबहारे नोजीयो, जीवद्दव्वं तु ७३. सतारों खलु दुविहो, पगडी" पुरिसेसु एएस नाणत, वोच्छामि नाणावरणे वेदे, मोहम्म य अंतराइए चेव । एएसुं 'कम्मे, Perature सहा होंति" ॥ पाण्णाण परीसह, नाणावरणम्मि होंति एक्को य अंतराए, अलाभपरीसहो
दुन्नेते" ।
होइ ॥
अरती अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा" य अक्कोसे । सक्कारपुरनकारे, 'चरितमोहम्म सत्ते " ॥
७४.
७५.
७६.
नोकम्मम्म यतिविहो, सविता चित्तमीसमो' चेव । भावे कम्मस्सुदओ, तस्स उ 'दारा इमे होंति" ।। कत्तो* कस्स व दवे, [समोतारे] अहियास नए य वत्तणा कालो । खेत्तुद्दे से पुच्छा, निसे सुत्तफा
य ।।
७७.
सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुतं ।
'भरतीइ दुगंछाए ५, कोहस्स य लोहस्स य
१. सचिता० (ला) |
२. वाराणि ति (शां ) ।
३. कमरे (ह) ।
४. समोआर (शां) समोतारो (चू), 'समोतारे'
शब्द न रहने से छंद भंग नहीं होता ।
५.
० पुब्वा (चू)।
६. सोवा (ला, शां, बू) ।
पिणातव्यं || दारं ||
७.
(इ)
प. पूर्णि में इस गाया की व्याख्या है, किंतु गायातित नहीं है।
उज्जुसुत्ताओ ।
संजए होइ ॥
पुंवेय भयस्स चैव परीसहा
उद एण
नोजीवो ।
सेसा | दारं ||
माणस्स । सत्त ॥
१२९
९. समोयारो ( शो ला ) ॥
१०. पर्याड (शां) ।
११. बावीस परीसहा हुति णायला (शां) ।
१२. दोन्नेते (६) ।
१३. जाणा (ह) |
१४. सत्तेए चरितमोहम्मि (ला), सप्तेव परि० (ह) |
१५. अरतीए० (सा), मह० ( हा), भरई दुखाय (५) ।
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१३०
नियुक्तिपंचक ७८. दसणमोहे दसणपरीसहो, नियमसो भवे एगो ।
सेसा परीसहा पुण', एक्कारस वेयणिज्जम्मि ।। ७९. पंचेव आणुपुब्बी, चरिया सेज्जा वधे य रोगे य ।
तण-फास 'जल्ल एव" य, एक्कारस वेणिज्जम्मि । बावीस बादरांपराए, चउदस य सहमरागम्मि !
छउमस्थवीयराग, चउदस एयकारस जिणम्मि ।। ८१. एसणमणेसणिज्ज', तिण्हं अम्गहणऽभोयण नयाणं ।
अहियासण बोधवा, फासुग सदुज्जुसुत्ताणं ।। ५२. जं पप्प नेगमनओ, परीसहो वेयणा य दोण्हं तु ।
वेयण पञ्च जीवे, उज्जुसुओ सहस्स पुणः आया ।।दार।। ८३. वीस उक्कोसपदे, वटॅति जहनतो भवति एगो।
सीसिण-चरियं, निसीहिया य जुगवं न वति ॥दार।। बासग्गसो" य तिण्हं, मुहुत्तमंत" च होति उज्जुसुए ।
सहस्स एगसमय, परीसहो होइ नायवो ।। ५५. कंडू अभत्तछंदोर, अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी ।
कासं सासं च जरं, अहियासे सत्तवाससए ।।दार।। ८६. लोगे संथारम्मि य, परीसहा जाव उज्जुसुत्ताओ।
तिण्हं सद्दनयाणं, परीसहा होति अत्ताणे ।। १७. उद्देसो गुरुवयणं, पुच्छा सीसस्स उ मुणेयव्वा ।
'निद्देसो पुणिमे खलु, बावीसं सुत्तफासे य५ ।।
१. खलु (शा)। २. व (शां)। ३. जल्लमेव (शां)। ४. घोड्स (ला, ह)। ५. x (सा)। ६. मणेसणेज (च)। ७. बोद्धब्बा (शा)।
१०. वासरगसो यति आर्षत्वावर्षाप्रतः (गाटी
५७८)। ११. मुहुत्तमदं (ला, ह), मुत्तमंतं च इति प्राकृत__त्वादन्तर्मुहत्तं (शांटी १७८) 1 १२. अभसच्छंदो (चू)। १३. खासं (ला) १४. निद्देसे य इमे (सा, ह)। १५. उ (ला)।
९. तू (सा)।
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उत्तराध्ययननियुक्ति
८८. कुमारए नदी लेणे, सिला पंथे
८९.
९०.
११.
९४.
९२. रायगिहम्मि वयंसा, सीसा चउरो उद्दबास्स । वैभारगिरिगुहाए, सीतपरिगता समाधिगता ॥ ९३. तगराएँ मर मिलो, दतो" अरहन्नम्रो य भद्दा य । वणियम हिलं चता" तत्तम्मि सिलायले विहरे ।। चंपाए सुमणभद्दो" जुवराया धम्मघोससीसो य । पंथम्म मसगपरिपीतसोणितो सो वि कालगतो ।।
महल्लए ।
तावस पडिमा संति, बगणी निव्वेय got harn
९५.
संधारे मल्लधारणे ।
घणे रामे पुरे भिक्खा", अंगविज्जा सुए भोगे, सीससागमणे इय" ।। दारं ॥ उज्जेणि' हत्थिमित्तो, भोयपुर हत्यिभूइ खुड्डो य । अडवीय वेयणट्टो, पादोवगओ य सादिव्वं ॥ दारं || उज्जेणी धणमित्तो, पुत्तो से खुड्डुओ य धणसम्भो । 'तण्हाइओ अपीओ", कालगओ एगच्छप || दारं ||
12
वीयभय देवदत्ता, गंधारं सावगं पडियरिता" । लहूइ सयं गुलियाणं, पज्जोतेणाणि उज्जैन || ९६. दट्ठूण चेडिमरणं, पभावई पकवत्तु कालगया । पुक्खरकरणं गाणं, दसपुर पज्जोयभूयणं ५ च ॥
९७.
माया य रुट्सोमा ", पिया य नामेण 'सोमदेवो त्ति'" । भाया य फग्गुर विखय, तोसलिपुत्तो य आयरिया ||
१. अगणि (शां), छंद की दृष्टि से अग्गी पाठ उचित लगता है । इससे पंचम वर्ण ह्रस्व हो जाता है और माठ वर्ण भी पूरे हो जाते हैं ।
२. भिक्खे (शां)।
३. ०धारणं (शा) ।
४. वि य (ला) |
५. उज्जेणी (शा) |
६. भोगपुरे (f) | ७. ० इतोऽपीओ (शां) ।
८. य (इ) |
९. बरिह० (तां नू) ।
१०.
(ला)
११. चत्ता (ला) |
१२. सुमिण० (ह, चू) ।
१३. ०भये (चू), भए (ला) |
१४. परिता (ह) ।
१५. ० भुवणं (ला) 1
१६. भद्द० (ला) ।
१७. ० देवप्ति (शां)।
१८. x (सा) ।
१९. देखें आवनि ७७५ ।
१२१
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नियुक्तिपंचक ___ ९८. सोहगिरि भगुत्तो, वइरक्खमणा' पढित्तु पुश्वगयं ।
पव्वावितो य भाया, रक्खियखमणेहि जणओ य ।। ९९. अयलपुरे जुवराया, सीसो राघस्स नगरिमुज्जेणि' ।
अज्जा राहक्खमणा, पुरोहितो रायपुत्तो य ।। १००. कोसंबीए सेट्टी, आसी नामेण तावसो तहियं ।
मरिऊण सूयरोरग, जातो पुत्तस्स 'पुत्तो ति।। १०१. उसभपुरं रायगिह, पाडलिपुत्तस्स होइ उप्पत्ती ।
नंदे सगडाले थूलभद्द सिरिए वररुई य॥ १०२. तिण्हं अणगाराणं, अभिग्गहो आसि- चउण्हमासाणं ।
वसहीमेतनिमित्तं, 'को कहि वुत्थो ? निसामेह ।। १०३. गणियाघरम्मि एक्को, 'बितिओ वुत्यो" उ वग्यवसहीए ।
सप्परसहीए" ततिओ, को दुक्करकारओ इत्थं २ ॥ १०४. वग्यो वा सप्पो वा, सरीरपीडाकरा" उ भइयव्वा ।
नाणं " बा, रिवर पश्चला मे ।। १०५ भगवं पि थूलभद्दो, तिखे चंकम्मिो न पुण" छिन्नो ।
अग्गिसिहाए युत्थो, चाउम्मासे न पुण" दड्डो ।। १०६. अन्नो वि य अणगारो, भणमाणो हं पि थूलभद्दसमो ।
कंबलओ चंदणियाएँ, मइलितो एगराईए ।। १०७. कोल्लयरे वस्थन्यो, 'दत्तो सीसो य हिंडओ तस्स ।
उवहरइ धाइपिंड, अंगुलिजलणा' य सादिव्वं ।।
१, बयर० (शां)।
१०. वुत्थो बीओ (माँ)। २. पुगराया (ला)।
११. हीइ (शा)। ३. राहस्स (शां)।
१२. एत्य (ला)। ४. नगरमु० (ला), नगरीमु० (शां)। १३. ०पीला (ला)। ५. राहणखमणा (ला)।
१४. व (ला, शां)। ६. सो पुत्तो (ला)।
१५. चरणं च (ह), परित्तं व (शा) । ७. पूणि मैं १०१ की गाथा संकेत के बाद १०२ से १६,१७. उण (शां)।
१०६ तक की गाथाओं के लिए 'पंच गाहाओ १८. चंदणयाइ (शां)।
माणियव्यामओ' मात्र इतना उल्लेख किया है। १९. कोल्लहरे (ला), कोल्लतिरे (निभा ४३९३) ८, मासी (ला)।
२०, दत्तो आहिडिवो भवे सीसो (निभा)। ९. षो जहि एन्छो (ला)।
२१. अलणे (ह)।
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शत्तराध्ययन नियुक्ति १०८, निक्खंतो गयपुरातो, कुरुदत्तसुओ गओ य साकेयं ।
पडिमट्ठियस्स' कुडिया, 'अग्गीसोसम्मि जालेति ।। १००, मोसंबी, सनसो, सोमदत्तो य सोमदेवो य ।
आयरियसोमभूती', दोण्हं पि य होइ नायव्वो । ११० सणातिगमण 'बियडे, वेरग्गा' दो वि ते नदीतीरे ।
पादोवगता नदिपूरएण उदधि तु उवणीया दारं।। १११. 'रायगिहे मालारोप, अज्जुणओ तस्स भज्ज बंदसिरी ।
मुग्गरपाणो गोट्ठी, सुदंसणो वंदओ णीति ।। ११२. सावत्यो जितसत्त, धारिणिदेवी य खंदओ पुत्तो ।
धूया पुरंदरजसा, दत्ता" सा दंडगी" रण्णो ।। ११३. मुणिसुस्वयंतवासी, खंदगपमुहा य कुंभकारकडे ।
देवी पुरंदरजसा, दंडइ पालक्क मरुगे" य" ।। ११४. पंचसया जंतेणं, वधिता तु पुरोहिएण रुद्रुण ।
रागदोस'५ तुलग्ग, समकरणं चितयंते हिं" ।। ११५. जायण परीसहम्मी", बलदेवो एत्थ'म होइ आहरणं ।
किसि पारासर ढंढो, अलाभए 'होइ आहरण'१६ ॥दारं।। ११६. महुराएं कालवेसिय, जंबुय अहिउत्थ मुग्गसेलपुरं ।
राया पडिसेहेती", जंबुयरूवेण उवसगं ।।
१. परिमं ठियस्स (ला)।
९. धारणि ० (शा)। २. अग्गिसी० (ह), आगया अगी जालिति १०. दिण्णा (ला है)। (शां)।
११. दंडइगी (ह)। ३. कोसंधि (पू)।
१२. पालग्गि (ह), पालम्ग (ला)। ४. रिओ (ह), • रितो० (ला)। १३. मरुए (शा), माओ (ह)। ५. स्वशातिगमनं इत्यर्थे (टीप १११), १४. निभा ३९६४ । सन्नायग (ह), सन्नातग (ला)।
१५. रागदोस (ह)। ६. वियरबेर • (शा)।
१६. निभा ३९६५। ७. चूणि में यह गापा रूप में संकेतित नहीं है १७. हम्मि (शो)।
किन्तु कथानक के रूप में इसका भावार्थ दिया १८. इत्थ (शां), तत्थ (ला)। हुआ है। संभव है यह गाथा बाद में जोड़ी' १९. होउदाहरणं (ह) ।
२०. पुरीखोवेती (ला)। ८. गिहि मालगारो (शा), गिह मालमारो
गई है।
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१२४
११७. सावत्यीऍ कुमारो, भद्दो सो चारिओो शिवेरज्जे । खारेण तच्छ्रियंगो, तिणफासपरीसह विसहे ।। ११८. चंपाएं सुनदो नाम, सावओ जल्लधारणदुगंछी । कोसंबीय* दुगंधी उववन्नो' तस्स सादिव्वं ॥
११९. महुराएँ
इंददत्तो, पुरोहितो साधुसेवओ सेट्ठी । पासाय विज्ज पाडण", पाद छिज्जेदकीय ||
१२०. उज्जेणि कालखमणा, सागरखमणा" सुवण्णभूमीय" । इंदो आजयसेस, सादिष्वकरणं च ।।
१२१. परिततो वायणाऍ,
हिज्ज
१२२. इमं च एरिसं तं च इय भणइ थूलभद्दो, १२३. ओधाविउकामोवि" य, अज्जासाठो उ पणियभूमी" । काळण रायरूवं, पच्छा सीसेण अणुसिट्ठो" ।। १२४. जेण" भिक्खं बलि देमि, जेण पोसेमि नायगे । जातं सरणतो भयं ॥
सा मे मही अक्कमति,
१. तण ० (शां) ।
२. सिए (ह) ।
३. दुगंखी (ला)
४.
• afte (#t) |
५. दुगंधी (सा, ह)।
६. उप्पण्णी (शा) ।
७. पर्ण (ला) ।
पुच्छ इ गंगाकूले पिया असगडाए" । बारसहि असंखयभयणं ।।
० जिबी (ला, ६) ।
तारिसं पेच्छ केरिसं जायं । सन्नाहघरं गतो संतो" ॥
५.
९. उज्जेणी (शा) ।
१०.० खवण (ह) |
११. ० मीए (शां) ।
१२. असगडयाए (ला) |
१३. ला और प्रति में १२२ और १२३ की
गाथा में क्रमव्यत्यय है ।
१४. मोहाहओ० (ला, ह) । १५. पणीथ० (शा) ।
निर्युक्तिपंचक
१६. अणुट्टो (ला), सट्टे (६) १२३ से १४१ तक की गाथाओं में दर्शन परीषद के अन्तर्गत आषाढ़भूति की कथा है। इनमें १२३ से १४० तक की गाथाएं बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती हैं। क्योंकि प्रायः सभी परीवहों को कथा निर्मुक्तिकार ने १-२ गाषाओं में ही दी है। फिर इस परीषद् की कथा के लिए इतनी गाथाएं क्यों ? यह एक चिन्तनीय प्रश्न है । भाषा शैली तथा छन्द की दृष्टि से भी ये गाथाएं अतिरिक्त-सी प्रतीत होती हैं । निशीथ भाष्य की चूर्णि में भी ये गाथाएं मिलती हैं। केवल उनि की गाथा १२३, १२५, १३१ और १४० ये चार गाथाएं नहीं मिलती तथा १३३ और १३४ की गाथा में क्रमव्यत्यय है ।
१७. जत्ती ( नि पृ २० ) ।
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उत्तराध्ययननियुक्ति
१२५. बहुस्सुतं "
चित्तकहं, वुज्झमाणग ! भई ते रोहंति बीयाणि,
जेण जीवंति कासपा ।
तस्स मज्झे विवज्जामि, जातं सरणतो भयं ॥
१२६. जेण
१२७. जमहं दिया य रातो, तप्पेमि तेण मे उडओ दडो, जातं १२८. वग्घस्स मए भीतेण, पावगो तेण 'दड्वं ममं अगं", जातं
१३२. जाव वुत्थं ४ सुहं मूलातो उठिया"
१३३. अभितरगा" खुभिता,
गंगा वति पाडलं । किंचि सुभासियं ॥
लवर
६
१२९. लंघण-पवण - समत्यो, पुत्र" होऊण 'संपयं कीस' । दंडग हियग्गहत्थो वयंस! किं" नामओ वाही || १३०. 'जेठासाढेसु मासेसु, जो हो वाति आरती" | तेण मे भज्जते अंगं जातं सरणतो भयं ॥ १३१. जेण जीवति सत्ताणि निरोहम्मि अतए । तेण मे भज्जते अंगं जातं सरणतो भयं ॥ वुत्थं, १५ पादवे निरुवद्दवे । वल्ली, जातं सरणतो भयं ॥ पेल्लंति बाहिरा जणा । सरणतो भयं ॥
दिसं भयहु मायंगा, जातं
१३४. जत्थ राया सयं चोरो, भंडओ दिसं भयह
नागरगा,
जातं
१. बहुसुतं (ला) ।
२. लब ता (ला, शां) ।
३. मरीहामि (निचू १ पृ २० ) ।
४. हुषामि (निचू १ पृ० २० ) । ५. उड़ओ (ह) ।
६. अंगं महं दड़ ( निबू ११२० ) ।
७. पुत्रि (ला, ह. चू)
८. संप० (शां), किष्ण चासि ( निबू १ पृ २०) ९. दंडलतियाहत्थे (नि), दंडयहि० (शां) । १०. को (शा) ।
महसप्पिसा ।
भयं ॥
सरणतो
सरणं
सरणतो
कतो |
भयं ।
य पुरोहितो । सरणतो भयं ॥
११. जेा मूलम्मि मासम्मि, माओ सुहसीयलो
( निचू १ पृ २१) ।
१२. जीत ( है ) ।
१३. भज्जंती (घू) ।
१४, १५. बुच्छं ( खां, चू, ला) ।
१६. उडिया (ला) ।
१७. ०तरा य (ला) 1
१८. पेलेंति (ला) |
१९. भंडओ (आ) ।
२०. मायरिया (शां)
१३५
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________________
१३६
१३६.
१३७.
१३८,
'अचिरुग्गतए य सूरिए', चेइयथूभगए य वायसे । घरभित्तिगए' य आयवे, सहि ! सुहिओ हु जणो न बुज्झती ।। तुममेव य 'अंब हे ! ५ लवे, मा हु विमाणय जक्खमागयं । जक्खाहडए हु तायए, 'अग्नि दाणि विमा तातयं ।। 'नवमासा कुच्छिधालिए", पासवणे पुरिसे य महिए । 'धूया में गेहिए हड़े, सलणएऽसलणए" मे य जायए । सयमेव य लुक्ख लोविया, अप्पणिया हु विडि" खाणिया। ओवाहयलाओ असी. किं छपा नेवेति दगी ।। 'कडगे ते कुंडले य ते", अंजियक्खि 'तिलए य ते कते' । पवयणस्स उड्डाहकारिए, 'दुट्ठ सेहि ! कत्तोऽसि आगता ।। राईसरिसवत्ताणि, परछिहाणि" पाससि । अप्पणो बिल्लमेत्ताणि, पासंतो वि न पाससि ।। समणो सि" संजतो असीन, चारी" समलेठ्ठकंचणो । वेहारिय४ वायओ य ते, जेट्ठज्ज कि ते पडिग्गहे५ ।।
परीसहज्झयणस्स निजुत्तो सम्मत्ता
१३९.
१४०.
१४१.
१. अतिलुग्गए य सूलिए (ला, ह)।
१३. रुक्ष (शाटीपा)। २. भित्तीगयए (गां, नियू), • भित्तिगए १४. देशी वचनत: तडागिका (बांटी प १५८) (ला, ह)।
१५. खेला (ला, शा)। ३. मुहिते (निचू १ १ २१) ।
१६. कडए य ते (ला, ह), कडते य ते कुंडलए ४. सयमेव (निचू), तुम एव (जू)।
(निचू ११२१)। ५. अम्म हे (शां), अम्मए (निचू, चू)। १७. तिलयते य ते (शां), तिलए ते य कए (सा)। ६. अन्नं पाणि (ह), अन्न दाइ (ला)। १८. दुवा सेहि कतोऽसि (शां)। ७. नवमास फुल्छीद घालिता (गां, 'घू)। १९. छंद की दृष्टि से सरिसव के स्थान पर ८. पासु. (ला)।
'सस्सव' पाठ होना चाहिए। ९. पुलिसे (शा)।
२०. ० जिछंदाई (ला)। १०. धूता य मे (सा, ह)।
२१,२२. य सी (ला)। ११. सलणए य अस० (शा) 1
२३. चारि (ला)। १२. निचू में यह गाया कुछ अंतर के साथ मिलती २४. वेहारुय (ह, निचू), वेहाभय (ला)।
२५. पडिगाहते (निचू १ १ २१)। नवमासा कृच्छिधालिए, सयं भुतपुलीसगोलिए। धूलियाए मे हरे भत्ता, जायं सरणतो भयं ।।
(निषु १ १ २१)
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उत्तराध्ययन] निर्मुक्ति
१४२.
१४३.
१४४.
१४५.
१४६.
१४७.
१४८.
१४९.
१५०.
१५१.
णामं ठवणा दविए माउगपद पज्जव' भावे य तहा, सत्तेते
संगक्क चैव । एक्का होंति ।
णामं ठवणा दविए, खेते काले य गणण भावे य । निक्खेवो उ' चउण्हं, गणणा संखाए णामंग ठवणं, दबंग चेब एसो खलु अंगस्सा, निक्खेबो
अहिगारो || होइ भावंगं । चविहो होइ ||
मज्जाउज्ज
सरीर- जुद्धगं ।
गंग मोगर एतो एक्केक्कं पिय, मेगविहं होइ णायध्वं ॥ जमदगिजडा हरेणुया सबरनियंसणियं सर्पिणियं । rate बाहिता मल्लियवासित कोड' अग्घती || 'ओसिर - हिरिबेराणं'", पलं पलं भद्ददारुणो करिसी । सतपुप्फाणं भागो, भागो य तमालपत्तस्स ॥ एयं पहाणं एवं विलेयणं एस चेव पडवासो" । वासवदत्ताद्द" कओ", उदयणमभिधारयंतीए" ॥ चतिष्णिय समूसणंगाई । उदगमा गुलिया ॥ अवहेडगं " सिरोरोगं । मूसग सप्पावरद्ध
एसा 'उ हणइ कंडु" तिमिरं तेइज्जगचा उत्थिग
च ॥ दारं ।।
'दो रयणीओ महिंद फलं १५ सरसं च कणगमूलं, एसा
सोलस दक्खा भागा, आगमो उच्छुरसे,
१. पज्जय (ला) । २. दशनि ।
३. य (पा) ।
४. गणण (शां) ।
५. गंधंग ओस० (ला) ।
६. ०णुअ (शां) ।
७. सबरियं सणयं ( ला ) ।
बाहितया (शां) ।
९. कोडी (श) ।
१०. ओसीर (ला), ओसीर हरि० (शां) । ११. वास (ह) ।
चउरो भागा य धायगीपुप्फे " । मागहमाणेण मज्जगं || दारं ॥
१२. • ताउ (ह), ताए (ला) । १३. कए (ह) ।
१४. धारवंतीए (ला) ।
१५. हुन्नि य रयणी माहिंद० (शा) 1
१६. हणतो कहूं (चू), व हरइ० (शां) ।
१७. अवभेदगं (ला) 1
१५. ० चा उत्यग (ला, हो ।
१९. घाउगी० (शां), घायती० (ह) ।
२०. आगमो ति आर्षत्वादाऽऽढककः
(शांटीप १४३ ) |
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नियुक्तिपञ्चक १५२. एग मुकुंदा' तुरं, एग अहिमारदास्य- अग्गी ।
एगं सामलिपोंड, बद्ध आमेलओ होति ॥दा।। 'सीसं उरो य उदर, पिट्टी बाहाय' दोन्नि" उरुया य ।
एते अठेंगा खलु, 'अंगोवंगाइ सेसाई'८ ॥ १५४. होंति उवंगा कण्णा, नासच्छो 'हत्य-पाद-जंघा' य ।
नह-केस-मंसु"-अंगुलि, ओट्ठा खलु अंगुवंगाणि" दार।। १५५. जाणावरणपहरणे, जुझे कुसलत्तणं च नीति च ।
दक्खत्तं ववसाओ, सरीरमारोग्गताय चेव दार।। १५६. भावगं पि य दुविधं, सुतमंग" चेव नोसुतंगं५ च ।
सुतमंग" बारसहा, चउठिवह नोसुयंग तु ।। १५७. माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा-तव-संजमम्मि विरियं च ।
एए भावेगा खलु, दुल्लभगा होति संसारे । १५८. अंग दस भाग भेदे, 'अवयव असगल य चुणिया खडे'२० ।
देस" पदेसे पव्वे, साह, पाल' प जिस । १५९. दया य संजमे लज्जा, दुगुंछाऽछलणा इय ।
तितिक्खा य अहिंसा य, हिरी एगट्ठिया पदा ॥ १. मगुंदा (ह)
प्रकार मिलती है२. अहिमापदा० (गां)।
होति उबंगा अंगुलि, ३. सामालिय० (ला), सामलीपुंडं (शा)।
कण्णा नासा य पजणणं चेव । ४. सीसमुरो य (जू)।
नह-केस-वंत मंसू, १. पट्टी (मा, ह), पिट्टि ति प्राकृतत्वात्पृष्ठ
अंगोवंगेवमादीणि ।। (शाटी प १४३)।
१२. मारोगया (ला)। ६. वाहातो (ला)।
१३. आवनि ८४३ ७. दो प (ह)। ८. सेसाणि भवे उबंगाणि (सूचू प६)।
१४. सुयमंतं (ला), सुर्य अंग (ह)।
. १. जंघ हत्थ पाया (गोटी प १४३)।
१५. नोसुयं अंग (ला, ह)। १०. मंस (ला)।
१६. मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिक; (शांटी प१४)। ११. अंगवंगाओ (ला), प्रकाशित टीफा में यह
१७. नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थत्वात् अक्षुतांगम् गाथा उद्धृत है तथा णि में यह संकेतित (शाटी प १४४) । नहीं है। सभी आदों में यह उपलब्ध है। १५. प (शां)। आगे इसी नियुक्ति में ये दोनों गाथाएं (गाथा १९. वीरियं (यू)। १५३,१५४) पुनरुक्त हुई है लेकिन हमने २०. ०यवाऽसगल चुण्ण खंडे य (गां)। उनको निगा के क्रम में नहीं रखा है। देखें २१. देसे (ला)। टिप्पण १८२।१२।
२२. साहा (ला, ह)। सूत्रकृतांग चूणि (१६) में यह गाथा इस २३. बिरती (ह, ला, चू)।
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उत्तराध्ययननिर्मुक्ति
१६०.
१६१.
१६२.
१६३.
१६४.
१६५.
१६६.
१६७.
१६८.
माणुस खेत्त जातो, कुल- 'रूवाऽऽरोग्य - आउयं" बुद्धी । सवणोग्गह सद्धा, संजमो य लोगम्मि दुलहाई ।। घोलग पासग धन्ने, जूए रयणे य सुमिण चक्के य । चम्म जुगे परमाणू दसदिट्ठता मणुयलंभे ॥ इंदिली निव्वत्तणा य पज्जत्ति निरुवय खेमं । धातारोग्गं* सुद्धा, गाहग उवओग अट्ठो य' ।। आलस्स मोहग्वण्णा, थंभा कोहा पमाद भय-सांगा अण्णाणा, बक्खेव कुतूहला एतेहि कारणेहिं, लण 'सुदुल्लाहं व न लभ 'सुई हियकरि ६, संसारुतारिणि "
विणत्ता" ।
रमणा ||
१३
मिच्छादिट्टी" जीवो, जवइट्ठ पवयणं न सद्दहइ । सद्दहइ असन्भाव, उब इट्ठ वा अणुवइ ।। सम्मद्दिट्ठी जीवो, उबइट्ठे पत्रयणं तु सद्दह । सद्दहइ असम्भावं, अणभोगा" गुरुनियोगा वा ॥
माणुस् । जोवो" ॥
बहु रय-पदेस अवत्त, समुच्छ" दुग तिग 'अबद्धिगा चेव" । 'एसि निगमणं, वोच्छामि महाणुपुब्बीए" ।। जीवपदेसा य सीसगुत्ताओ । सामुच्छेदाऽऽसमित्ताओ" ।।
बहुरय जमालिपभवा, असढाओ,
१.
• रोगमा उ० (ला, ह) |
२. टीकाकार के अनुसार कहीं-कहीं इस गाथा के स्थान पर (इंदिबी १६२ ) की गाथा मिलती है - केचिदेतत् स्थाने पठन्ति ....... इंदियलद्धी (द्र उनि १६२ का टिप्पण, शांटीप १४५), प्र. अवनि ८३१ ।
३. सिमिण ( आवनि ८३२) ।
४. निअसणा (च)।
५. धाणारो० (शां) ।
६. टीकाकार ने प्रस्तुत गाया की मूलपाठ के रूप में व्याख्या नहीं की है लेकिन गा. न. १६० की व्याख्या करके 'क्वचिदेतत् स्थाने पठति' कहकर इसकी पूर्ण व्याख्या की है। चूर्णिकार ने इसका इसी क्रम में संकेत दिया है। हस्त आदमों में यह गाथा इसी क्रम में मिलती
७.
८.
९.
尊重
है. विभा ३२४८ ।
किवि० (शां), किमणता ( आवनि ८४९ ) । सुदुल्लभम (ला)।
सुमं द्वियकारी (ह), सुद्द हिमकरं (सा) ।
१०. ०तारणी (ला, ह) ।
११. आवनि ८४२ ।
१२. मिच्छट्टिी (ला, ह) ।
१३. ० वउट्टे ( है ) ।
१४. अणा० (ला) ।
१५. समुच्छा (ला, आवनि, निमा) । १६. ०द्धियाणं च (ह), अवट्टिया चैव (ला) । १७. सत्तेते निगा खलु वृग्गही होतऽवक्कता
( निभा ५५९६), सतेते निष्हगा बसु, तित्थम्मि उ वद्धमाणस्स ( आवनि ७७८ ) । १८. आवनि ७७९ ।
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१४.
नियुक्तिनक गंगाए' दोकिरिया, लुगा तेरासियाण उप्पत्ती।
थेरा य गोट्टमाहिल, पुट्ठमबद्ध परूवेति ।। १७०. सावत्थी उसमपुरं, सेविया मिहिल उल्लुगातीरं ।
पुरिमंतरंजि दसपुर, रहवीरपुरं च नगराई ।। १७१. चोद्दस सोलस वासा, चोइसवीसुत्तरा य दोण्णि सया ।
अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला ॥ १७२. पंचसया चुलसीया, छच्चेव सया णवुत्तरा होति ।
णाणुत्पत्तीय दुवे, उप्पण्णा णिठवए सेसा ।। १७२११. चोट्सवासाई तदा, जिणेण उप्पाहितस्स णाणस्स ।
तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्योए समुप्पन्ना' ।। १७२।२. जेट्ठा सुदंसण जमालिऽणोज सावत्थि तिदुगुज्जाणे ।
पंचसया य सहस्स, ढंकेण जमालि मोत्तूण" ।। १७२।३. रायगिहे गुणसिलए, वसु चउदसपुन्धि तीसगुत्ते य ।
आमलकप्पा नगरी, मित्तसिरी कूर पिउडाई ।। १७२।४. सेयवि पोलासाले, जोगे तदिवस हिययसूले य ।
सोधम्म नलिणिगुम्मे, रायगिहे मुरिय बलभद्दे ।। १. गंगातो (पू), गंगासो (विभा २७८४)। टीकाकार ने भी इन गाथाओं के बारे में २. आवनि ७८०, गाथा १६९ के बाद कहीं भी 'आह नियुक्तिकारः' या नियुक्तिकद
'सावत्थी उसमपुरं' आदि तीन गाथाओं ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया है तथा गाथाबों का संकेस चणि में मिलता है। टीका की व्याख्या न करके मात्र सम्प्रदाय का में ये तीनों गाथाएं तथा १७२११ गाथा विस्तृत विवेचन दिया है जो किसी प्राचीन उल्लिखित और व्याख्यात नहीं हैं। १६७ से ग्रंथ से उद्धृत है। १७२१-१३ इन १३ १७२ तक की गाथाएं आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं में १६८ एवं १६९ ची भाषा की ही है। १७२।२-१३ की गाथाएं टीका में नियुक्ति व्याख्या है। गाथा के क्रम में व्याख्यात, किन्तु ये गाथाएं ३, निभा ५६५२, विभा २७८ । तया १७११ गाथा विशेषावश्यक भाष्य की ४. निभा ५६१८, विभा २७८: । हैं अत: इनको निगा के क्रम में नहीं जोड़ा ५. निभा ५६२१, विभा २७५७। है। इन गाथाओं के बारे में चूर्णिकार ने ६. टीका में निववाद के चालू क्रम में यह 'बोड्स वासा सत्या' 'जेट्टा सुदसण' गा. गाथा नहीं मिलती है किन्तु पूणि में इसका १७२।१.२ इन दो गाथाओं का संकेत देकर संकेत मिलता है। देखें विभा २७८८, निभा 'एवं सत्तण्ह वि निहयाण वत्तव्वया भाणियस्वा जहा सामाझ्यनिज्जुतीए केइ पुण निण्हए एत्थ ७. निभा ५५९७, विभा २७८९ । आलावगे पडिकहंति' का उल्लेख किया है। . निभा ५५९८, विमा २८१६ । ये गाथाएं विभा से यहां उद्धृत की है क्योंकि ९. निभा ५५९९, विभा २८३९ ।
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1
-
2,1
उत्तराध्ययननियुक्ति
उपवा
१७२४५. मिहिलाए लच्छिषरे, महागिरि कोडिन आसमित् य । रायग खंड रक्खा य ॥ १७२।६. नदि- खेड जणव उल्लुग, महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य । किरिया दो रायगिद्दे, महात तीरमणिणाए || दारं ।। १७२/७ पुरिमंतरंजि भुयगुह, बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । परिवाय पोट्टाले घोसण पहिलेहणा बाए ॥
१७२८. विच्छु सप्पे मूसग, मिगी वराही य कागि पोयाई । एयाहि विज्जाहि, सो उ परिव्वायगो कुसलो ।।
१७२१९ नखसि बिजली सी सी एयाओ विज्जाओ, गिरह परिव्वाय
नव
१७२।१०. दसपुर नगरुच्छुघरे, अज्जरक्खिय पुसमित्त-तियगं च । गोवा माहिल अट्ठमेसु पुच्छा य विभस्स' ।। १७२।११. पुट्ठो जहा अबद्धो, एवं पुट्टम बद्ध,
१७२।१२. पञ्चक्खाणं सेयं, जेसि तु परीमाणं,
रागि ओबाइ । महणीओ || ||
१. निभा ५६००, विभा २८७२ । २. निमा ५६०२, विभा २९०७ ।
३. निभा ५६०२, विभा २९३४ । ४. निभा ५६०३, विभा २९३४ । ५. निभा ५६०४, विभा २९३६ । ६. निभां ५६०७, विषा २९९२ ।
कंचुइणं कंचुओ जीवो* कम्म
समन्नेति । समन्नेति ॥
अपरीमाणेण होइ तं दुट्ठे होइ
कायव्यं । आसंसा | दारं
१७२।१३. रवीरपुरं
नयरं, दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे य । सिवन इस्सुवहिम्मिय, पुच्छा थेराण कहणा य० । १७२/१४. कहाए पण्णसं, बोडिय विभूइ उत्तराहि इमं ।
मिच्छादंसणमिणमो,
रवीरपुरे
समुप्पन्न " ॥
जीवं (यां निभा ) ।
निभा ५६०८, विभा २९९९ ।
७.
८
९. विभा ३०३४ ।
१०. निमा १६०९, विभा ३०३४ । ११. मिश्रा ५६१०, विभा ३०३३ ।
१४१
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१४२
१७२/१५. बोडिय विभूतीए, कोबी,
१७३. नामं ठवणपमादे', एमेव अप्पमादो,
१७४.
१७५.
१७६.
१७७.
१७८.
१७९.
दब्वे भावे य होइ नायव्वो । हो होइ नायaat ||
मज्जं विसय कसाया, निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । होइ 'पमादोऽयमाओ" य ॥
* पंचविहो एसो,
बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती ।
परंपरा
फासुमुपपन्ना ॥
'चउरंगिज्जस्त निज्जुत्ती सम्मत्ता
य ।
पंचविहो य पमादो इमज्झयणम्मि" अप्पमादो वणिज्जती उ जम्हा, तेण पमायप्पमायं ति ॥ उत्तरकरणेण कथं, जं किची संखयं तु नायव्वं । से सं असंखयं खलु, असंखस्सेस' निज्जुती ॥ खेत्ते काले तहेब भावे य । णिक्खेवो छब्बिहो होइ" ॥ सष्णाकरणं च तो य सण्णाए । 'पेलूकरणं " च सण्णाए४ ॥
नामं ठवणा दविए" एसो खलु करणम्मी, दव्वकरणं तु दुविहं करण करणं, नोसण्णाकरणं पुण्र, सादीयमणादयं, दुविहं पुण वीससाकरणं ।।
पयोगसा श्रीससा य बोधव्वं ।
१. कौण्डिन्यकोट्टवीरौ इति नामद्वयम् ( शादी १५१ ।
२. १७२ १४, १५ ये दोनों गायाएं विभा (गा. ३०३३,३०३५) की हैं। नियुक्ति की आदर्श प्रतियों में ये गाथाएं मिलती है लेकिन टीकाकार ने 'भाष्यगाथे' कहकर इनकी व्याख्या की है। धूण में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है अतः हमने निगा के क्रम में नहीं माना है, विभा ५६२० ।
३. व्यणा० (चू)।
४. निषखेवी (ला, ह) |
५. इय (ह, शां
६. माओ म अपमायो (शां) ।
७. मकार बलाक्षणिकः ।
८.
९.
ज्जए (शा)।
असंखयल्स (ला, ह) ।
नियंक्तिपंचक
१०. करणं (शां) |
११. ला प्रति में 'णामं ठवणा' केवल इतना ही पाठ है ।
१२. च (ला, ह) ।
१३. वेलू० (शा) ।
१४. पेलुकरणं च सन्नाते 'ला' प्रति में इतना ही पाठ है।
१५. साईणाई (शां) ।
१६. विस्ससा० (श) । १७९-१८४ तक की गाथाओं का चूर्ण में संकेत नहीं है किन्तु संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति १८०. धमाधम्मागासं', एवं तिविहं भवे अणादीयं ।
चक्षु अचक्खुप्फासे, एयं दुविहं तु सादोयं ।। खंधेसु य दुपदेसादिएसु अन्भेसु अभरुवखेसु ।
निप्फण्णगाणि दवाणि जाणि' तं वीससाफरणं ॥ १८२. दुविहं पओगकरणं, जीवेतर मूल उत्तरे जोवे ।
'मूले पंचसरीरा", तिसु अंगोवंग नामं च ।। १८२।१, सोसं उरो य उदरं, पिट्टी बाहाय दोन्नि उरुया य ।
एते अटुंगा खलु, अंगोवंगाणि सेसाणि ।। १८२१२. होति उवंगा कण्णा, नासच्छी हत्य-पाद-जंघा य ।
नह-केस-मंसु-अंगुलि-ओट्ठा खलु अंगुवंगाणि ।। तेसि उत्तरकरणं, बोधव कण्णखंघमादीयं ।
'इंदियकरणा च तहा", उवघायविसोहिओ" होति ।। १०४. संघायण परिसाडण, उभयं तिसु दोसु नत्यि संघातो।
कालंतराइ तिण्हं, जहेव सुत्तम्मि निद्दिवा" || १८५. एसो उत्तरकरणं, सकरण और निफार्म ।
तं भेदाणेगविह५, चउविहामिणं समासेणं ।। संघातणाय परिसाडणा, य मीसे तधेव पडिसेहे । पड संख-सगड-यूणा-उल-तिरिच्छाण' करणं च ||
१. गासा (शा)।
१. बोद्धव्यं (शां)। २. अनुमच० (ला, ह), मकार अलामणिकः । १०. इंदियकरणा साणि य (शा), इंदियकरणं च ३. विज्जुमादीसु (ला), विज्जमा (यां, सूनि)। तहा (शांटीपा), करणाइ तहा (ला)। ४. णिव्यत्तगाणि (ला)।
११. उचग्धाय (ला)। ५. जाण (सूटी)।
१२. संधयण (ह)। ६. सुनि ।
१३. निद्दिठं (शा)। ७. मूलं पंचसरीरं (लाह)।
१४. करणं पोग (शा)। ८. ये दोनों गाथाएं प्रकाशित चूणि में उद्धृत १५. विहं तं (ह)।
गाथा के रूप में है। टीकाकार ने इन्हें निगा १६. संधारणा (निभा)। के क्रम में रखा है। किंतु इन गाथाओं की इसी १७. उत्य (ह)। नियुक्ति में पुनरुक्ति हुई है इसलिए इन्हें निगा १८. तिरिच्छादि (निभा १०८४, सूनि ७)। के क्रम में नहीं रखा है। (दे. उनि १५३, १९. तु (सूचू)। १५४, निभा ५९३,५९४)
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१४
नियुक्तिपंचक १८७. अजीवपयोगकरणं', दबवे वण्णादियाण पंचण्हं ।
चित्तकरणं 'कुसुभाईसु विभासा'' उ सेसाणं ।। न विणा आगासेणं, कीरति जं किंचि खेत्तमागासं ।
वंजणपरियायन्न, उच्छुकरणमादियं बहुहा ॥ १८९. कालो जो जावइओ, जे कोरइ जम्मि जम्मि कालम्भि।
मोहेण नामनो एण, भतंनि एक्कारसक्करणा ॥ बवं च बालवं चेवं, कोलवं थीविलोयणं ।
गरादि वणियं 'चेव, विट्ठी ह्वति सत्तमा । १९१. सरणि च उप्पय नागं, किसुग्धं च करणं भवे एयं ।
एते चत्तारि धुवा, सेसा" करणा चला सत्त" । १९२. किण्ह-चउसिरति सउणोपडिवज्जती सदा करणं ।
एत्तो५ अहक्कम खलु, चउम्पयं नाग किंसुग्ध" ।।दारं।। १९२।१. पक्खतिधयो दुगुणिता, दुरूवहीणा य सुक्कपवखम्मि ।
सत्तहिए देवसियं, त चिय रूबाहियं रत्ति ॥ १९३. भावकरण तु दुविहं, जीवाजीबेसु होइ नायव ।
तत्थ जमजीवकरणं ६, तं पंचविहं तु नायव्वं ।
१. अजियप्पओग (शा), अजीवप (चू)। २ घिसकर (हशा)। ३. कुंभादिएसु भासा (ह) । ४. सूनि । ५. सूनि १01 ६. तेत्तिलं तहा (सुनि ११) । ७. विट्ठी, सुद्धपडिपए णिसादीया (सूचू), विभा
४०७४। ८. सरणी (ला)। ९. चउपयं (शा)। १०. अन्ने (शा)। ११. सूनि १२, विभा ४०७६ । १२. चाउसिरतीए (सूनि १३) । १३. सणि (शां)।
१४. •ज्जए (शां, सूनि)। १५. तसो (मूनि)। १६ किछुग्धं (गां), किंथग्छ (ह)। इस गाथा
का संकेत चूणि में नहीं है। १७. प्रस्तुत गाथा का संकेत चणि में मिलता है
लेकिन टीकाकार ने 'पूर्वाचार्यगाथा' कहकर जघुत गाया के रूप में इसकी व्याख्या की है । नियुक्ति की हस्तप्रतियों में यह गाथा नहीं मिलती है तथा सूत्रकृतांग टीका में भी इसको निगा न मानकर टिप्पण में दिया है। हमने इसको निगा के क्रम में नहीं रखा है।
विभा ४०७५ । १८, च (च)। १९. उ अजीम (N), अजीव (मा)।
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१४५
१९४.
उत्तराध्ययन नियुक्ति
वण्ण-रस-'गंध-फासे, संहाणे" चेव होइ नायव्यं । पंचविहं पंचविहं, 'दुविहट्टविहं च पंचविहं ।। जीवकरणं तु दुविह, सुतकरणं चेव नो य सुयकरणं । बद्धमबदं च सुए', निसीहमनिसीहबद्धं तु ॥ नोसुयकरणं दुविहं, गुणकरणं तह य मुंजणाकरणं । गुण-तव-संजम जोगा, झुंजण मण-वयण-काए य । कम्मगसरीरकरणं, आउयकरणं असंखयं तं तु । 'तेणऽधिगारो तम्हा, उ अप्पमादो'५ चरित्तम्मि ।।दार।।
दव्वदीयो य भावदीवो य । एक्केको वि य दुविहो, आसास-पगास दीवो य ।। संदीणमसंदीणो, संधियमस्संधिए* य नायवे । आसास-पगासे या, 'भावे दुविहीं पुणेक्केक्को" ।।
असंखयस्स निजुती सम्मत्ता
२००. कामाण" तु णिक्लेवो, चउविहो छविहो य मरणस्स ।
कामा२ पुबुद्दिट्ठा, पगयभिप्पेयकामेहिं ।। २०१. नाम ठवणा दविए. खेत्ते काले तहेव भावे य ।
मरणस्थ' उ निक्खेवो, नायव्दो छविहो एसो" ।।
(शॉटीप २११)। ११. कामाणे (चू)। १२. काम का वर्णन दशनि गा. १६२-१६६ में
१. फास-गधे सट्टाणे (ह)। २. खुविहं अट्ठविहं (ह)। ३. सुयं (गां)। ४. वाय (शो)। ५. तम्हा उ अप्पमादो, कायन्बो इह (ला)। ६. x(ला) ७. मसंघिए (ला)। ८. बोद्धब्बे (मा)। ९. भादम्मि दुहा (ला)। १०. १९६, १९९ की माथा चूणि में नहीं है पर
टीकाकार ने नियुक्तिकृत् माना है
१३, प्रस्तुत गाथा की व्याख्या टीका और चूणि
दोनों में मिलती है। टीका के संपादक ने इसे मुल निर्यक्ति क्रमांक में न रखकर टिप्पण में दी है। हस्तप्रतियों में यह माथा मिलती है तथा प्रसंगानुसार भी यह निगा प्रतीत होती
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१४६
२०२.
२०३.
९.
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२०७.
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२०९.
२१०.
२११.
२१२.
दव्वमरणं कुसुंभा दिएसु भावे' आउवखओ मुणेयव्वो । ओहे भवन भविए मणुस्सर्भाविएण' अहिगारो || मरणविभत्तिपरूवण, अणुभागो* चैव तह पदेसग्गं । कति मरइ एगसमए, कतितो वादि एक्केषकं || दारं || मरणम्मि एगमेगे", कतिभागो मरइ सब्बजीवाणं । अणुसमय- संतरं वा, एक्केक्कं केच्चिरं कालं ? || दारं ।। अवीचि - ओहि अंतिय" वलायमरणं वसट्टमरणं च । अंतोसल्ल बालं तह पंडियं मोसं ॥ छत्थमरण'- केवलि-बेहाणस - गिद्ध पिट्टमरणं" च । मरणं भत्तपरिण्णा इंगिणि" पाओवगमणं च ॥ सत्तरसविहाणाई, मरणे गुरुणो भणंति गुणकलिया । तेसि नामविर्भात", वोच्छामि अहाणुपुवीए । अणुसमय निरंतर मी चि" सत्रियं तं भांति पंचविहं । दव्वे खेत्ते काले भवेय भावे य संसारे ॥
तब्भव,
एमेव ओहिमरणं, जाणि मतो ताणि चैव मरइ पुणो । 'एमेवं आइयंतिय मरणं न वि मरइ ताणि" पुणो ।। संजमजोगविसण्णा, मरंति जे तं इंदियविसयवसगता, मरति जे
मरणं (ह) |
बलायमरणं तु । तं वस तु ॥ लज्जाएँ "गारवेण य', 'बहुस्सुयमएण वावि' "दुच्चरियं । जेन कति गुरूणं, न हु ते आराहगा होंति ।।
९. भावि (शां)।
२. तकभवमरणे (शांटीपर), भवे तन्भविए (ह) ।
३. मणुपम० (ला) |
४. मरणम्मी विभत्ती ० ( चू) ।
५. अणुभावो (शां)।
गारवपंकनिबुड्डा, अइयारं जे परस्स न कहति । दंसण - णाण चरिते, ससल्लमरणं हव तेसि ||
६. समयं (शां) ।
७. इक्कमिक्के (शां) ।
यंतिय उ (ह) ।
० ( इला) ।
११. इंगिणी (शा) ।
१२. पाउवगमरणं (ला) ।
१३. ० विभती (ह) |
१४. ० मावीषि (ह) । १५. एमेवाश्म मरणं (ह) ।
१६. ताइ (शां) ।
१७. लज्जा (शा) ।
१८ व (ला) ।
नियुक्तिपंचक
१९. ० मरणावि ( है ) ।
२०. कांति (ह), कति (ला)
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राध्ययन निषित २१३. एतं ससल्लमरणं, मरिऊण महन्मए' दुरतम्मि ।
__ सूचिरं भमंति जीवा, दोहे संसारकंतारे ।। २१४. 'मोत्तुं अकम्मभूमग' नर-तिरिए सुरगणे य नेरइए।
सेसाणे जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ २१५. मोतूण ओहिमरणं, आवीची आइयं तु तं चैव ।
सेसा मरणा सम्वे, तब्भवमरणेण यया ।। २१६. अविरयमरणं 'बालमरणं ति", विरयाण पंडियं बैंति ।
जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ।। मणपज्जवोहिनाणी, सुतमतिनाणी मरंति जे समणा ।
छउमस्थमरणमेयं, केवलिमरणं तु केवलिणो । २१८. गिद्धादिभवखणं गिद्धपिटु, उन्बंधणाई वेहासं ।
एए दोन्नि वि मरणा, कारणजाए अणुण्णाया ॥ २१९. भत्तपरिण्या इंगिणि, पाओवगमं च तिणि मरणाई।
कन्नस-मज्झिम-जेट्ठा, धिति-संघयणेण उ विसिट्टा" ।। २२०, सोवक्कमो य निरुवक्कमो य दुविहोऽणुभावमरणम्मि । आउगकम्मपदेसरगणंतर्णता
पदेसेहिं ।। २२१. दोन्नि व" तिनि वर चत्तारि, पंच मरणाइ अवीचिमरणम्मि ।
कति मरति एगसमयसि", विभासावित्थरं जाणे ।।
२१७.
१. महाभ ए (ला)।
अस्वीकृत होने पर भी हमने इसे निगा के २: मुइर (शां)।
क्रम में रखा है। ३. मोतूण कम्मय (च)1
६. बालं मरणं (शां)। ४. केसि च (ला)।
७. गडपट्ट उल्लंबणाई (ला)। ५. टीकाकार ने प्रत्यन्तरेषु 'मोत्तूण मोहिमरण' ८, इंगिणी (शां)।
इत्यादि गाथा दृश्यते, न चास्या भावार्थः ९. कपिणस (ला), कण्णस त्ति सूत्रत्वात् कनिष्ठ सम्यगवबुध्यते, नापि पूणिकृताऽसो व्याख्या- (शांटीप २३५)। तेति उपेक्ष्यते' -- ऐसा कहकर इसकी व्याख्या १०. वसिट्ठा (ला), वसिद्धा (ह) । नहीं की है। चूर्णिकार ने भी इसका उल्लेख ११.४(सा)। नहीं किया है। हस्तप्रतियों में यह माथा १२. य (च) । मिलती है तथा प्रसंग'नुसार यह निगा के १३. मरणा (ला,ह)। क्रम में उपयुक्त है । अत: व्याख्याकारों द्वारा १४. समए त्ति (ह), समए वि (ला)।
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१४
नियुक्तिपंचक
२२२. सव्वे भवत्थजीवा, मरंति आयोइयं सदा मरणं ।
ओधि च आइयंतिय, दोन्नि वि एताइ भयणाए ।। २२३. ओधि च आइयंतिय, बाले तह पंडियं च मीसं च ।
छउमं केवलिमरणं, अन्नोन्नेण विरुझंति ।। २२४. संखमसंखभणंता, कमो उ एक्केयकमम्मि अपसत्थे ।
'सत्तट्ठगअणुबंधो", पसत्थए केवलिम्भि सई ।। २२५. सो समागो, कोकले मरति आदिम मोत्तुं ।
अणुसमयादी नेय', तु पढम-चरिमंतरं नस्थि ।।दारं।। २२६. __सेसाणं मरणाणं, नेमओ संतरनिरंतरो उ गमो।
सादी सपज्जवसिया, सेसा पढमिल्लुगमणादी। २२७. सव्वे 'एते दारा'५, मरणविभत्तोएं वणिया कमसो।
सगलनिउणे पयत्थे', जिण-चउदसपुटिव" मासंति ।। २२८. एगंतपसत्या तिषिण, एत्य मरणा जिणेहि पण्णता ।
भत्तपरिण्णा इंगिणि, पायवगमणं" प कमजेह्र ।। २२९. इत्थं पुण अधिगारो, नायब्वो होइ मणुयमरणेणं । मोत्तुं अकाममरणं, सकाममरणेण मरियव्वं ।।
अकाममरणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २३०. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाण पति भाये ।
एतेसि महंताणं, पडिवक्खे खुल्लया" होति ।। २३१. निक्खेवो नियंम्मि,चविहो दुविहो" य होइ दवम्मि।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो ये सो तिविहो ।। १. आवीवियं (ला,ह)।
गाथाओं को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है २. आदियंती (लाह)।
क्योंकि इन द्वारगाथाओं के बाद टीकाकार ३. सत्तट्ठतोष्णु (ला)।
स्वयं कहते हैं कि 'भावार्थस्तुस्वत एव वक्ष्यति ४. णेत (ला), णेत (ह)।
नियुक्तिकारः' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि ५. दारा एते (चू,लर)। .
दोनों द्वारगाथाएं तथा उनकी व्याख्या ६. पसत्ये (ह)।
नियुक्तिकार द्वारा ही की जानी चाहिए। ७. पुरव (ह)।
९. इंगिणी (ला)। ८. टीकाकार ने २०३ से २२७ तक की गाथाओं १०. पाउवग (शां), पाओवगम (ह) ।
के लिए विकल्प से भाष्यगाथा का उल्लेख ११. खुडिगा (ह), खुडगा (ला)। किया है-भाष्यगाथा वा वारगाथाद्वयादारभ्य १२.णियंठम्मी (ला)। लभ्यन्त इति (शांटीप २४०)। हमने इन १३. दुम्विही (शां)।
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१४९
उत्तराध्ययन नियुक्ति २३२. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य निण्हगादीसु' ।
___भावम्मि नियंठो खलु, पंचविहो होइ नायचो । २३३. उपकोसो' उ नियंठो, जहन्नओ चेव होइ नायव्यो ।
अजहन्नमणुक्कोसा, होति नियंठा असंखेज्जा ।। ३३४. दुविधो य होइ गयो, बज्झो अभितरो य नायव्यो ।
अंतो य चउदसविहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ कोहे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसे य ।
मिच्छत्त-वेद-अरती, रति-हास-सोग-भय-दुगुंछा। २३६. खेत्तं-वत्थू धण-धनसंचयो भित्त-णातिसंजोगी।
जाण-सयणासणाणि' य, दासी दासं च कुपियं च ।। सावजगंयमुक्का, अभितरवाहिर गये । एसा खलु निज्जुत्ती, खुड्डागनियंठसुत्तस्स ।।
खुडागनियंठिज्जस्स निजुती सम्मत्ता
२३९.
निक्खेयो उ उरम्भे, चविहो 'दुविहो य* होइ दवम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तम्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य ।। उरभाउणामगोयंय, वेदतो भावतो 'उरभो उ । तत्तो समुट्ठियमिणं, ओरभिज्ज५ ति अज्झयणं ।।
२४०.
१. गाईसुं (गा)।
७. बत्थु (ह)। २. इस गाषा के बाद इस्तमावशा और टीका ८. जाणासया (ला)।
पत्र २५७,२५८ में कुछ भाष्यगाथाएं हैं। ९. तरा बाहि. (ह) यहां उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। १७. दुध्विहो (ह), दुब्बिहो प (शां) । देखें परि० १।
११. बद्धाऊ (शां)। ३. उक्कोसओ (ह)। यह गाथा ला प्रति में १२. उरम्भाउ (ला,चू), चरभाऊ (ह) ।
१३. वेदितो (ला)। ४. चउद्दस० (ह)।
१४. उ ओरो (शां)। ४. पिज्जे (शां)।
१५. उर भिज्ज (शां)। ६. दुकुन्छा (ला)।
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१५०
२४१.
२४२.
२४२।१. आउरचिण्णाई
२४३.
२४४.
२४५.
२४६.
ओरम्भे' य कागिणी अंबएँ य ववहार सागरे देव | पंचेते दिट्ठता, ओरब्भिज्जम्मि अजय || बारंभे रसगिद्धीष, दुग्गतिगमणं च पञ्चवाओ य । उमा कथा उरब्भे, मोरब्भिज्जस्स' निज्जुत्ती ॥ एमाई, जाई चरइ नंदितो । सुक्कतिहि लाढाहि, एयं दीहाउलखणं * ।। उरभिज्जस्त निज्जत्ती सम्मत्ता
२४७.
निवखेवो कविलम्मी, " चउव्वि हो 'दुविहो य होइ'" दव्वम्मि | आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तब्वतिरितं य सो पुणो तिविहे । एगभविथ-बद्धालय, अभिमुहओ नामगोते" य ।। कविला उणामगोतं, " वेदतो भावतो भवे कविलो । तत्तो समुट्ठियमिणं, अभयणं काविलिज्जति ॥ कोसंब कासव जसा, कविलो सावत्थि इंददत्तो" य । इन्भे य सालिभद्दे, धणसेट्ठि पसेणई राया ॥ कविलो निचिचयपरिवेसियाइ आहारमेत्तसंतुट्टो | वावारितो दुहि मासेहि, सो निग्गओ रति ॥
१. उम्भे (ला) |
२. कागणी (ला) ।
३. गोरमीयम्म (ह) ।
४. ० गिडि ( चू), ०गेही (ह, ला) ।
५. उरब्भि० (शां, चू) ।
६. यह गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है क्योंकि गा. २४२ के अंतिम चरण 'ओरब्भिज्जस्स निज्जुती' से स्पष्ट है कि इस अध्ययन की नियुक्ति यहीं समाप्त 'जाती है । इसके अतिरिक्त टीकाकार ने मूल उत्तराध्ययन सूत्र की पहली गाथा के साथ इस गाथा का संबंध
93
निर्युक्तिपंचक
७.
८.
९
जोड़ा है तथा एक कथानक का संकेत दिया है । चूर्णि में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है, अतः हमने इसे निया के क्रम में नहीं रखा है ।
कविलम्मि (ह) ।
विहोम (शां)।
० मुही (ह) |
१०. ० गोए (शां) ।
११. गोयं (शांच्) । १२. इंदणामो (ला) ।
१३. य बिहि मासएहि (ला), छह माह (ह) ।
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1
I
उत्तराध्ययननियुक्ति
२४८.
२४९.
२५०.
२५१.
5.
२५२.
२५३.
२५४.
२५.५.
दक्खिणं' पत्यंतो, बद्धो य तओ य अप्पितो रण्णो । राया से देति वरं 'कि देमी केण ते अट्टो | जहा लाभो तहा लोभो, लाभा लोभो पवति । दोमासकथं कज्जे, " कोडीए वि न निट्टिय ।। 'कोडि पि देमि अज्जो त्ति, भणति राया पहिभुहवष्णो" । सो वि चइकण कोडि, 'जातो समणो" समयपावो ।। छम्मा से छउमत्यो, अट्ठारसजोयणाइ रायगिहे । बलभद्दप्पमुहाणं, १३ इक्कडदासाण ४ पंचसया |
गीयं ॥
अतिसे से उप्पन्ने, होही" अट्टो इमो ति नाऊणं । अद्धाणगमणचित्तं, करेइ धम्मया काविलीयस्त निज्जुत्ती सम्मत्ता
निraat उ नमिम्मी, चउम्विहो 'दुविहो य होह ' "दव्वम्मि | आगम-तोमागमतो, नोआगमतो य सो तिविहो || जाणगसरीरभविए, तब्वतिरिते य 'सो पुणो तिविहो" । एगभविय बढाउय, अभिमुओ नामगोते य || नमियउणामगोतं वेदंतो भावतो नमी होइ । तस्स य खलु, १६ पव्वज्जा, नमिपब्वज्जं ति अज्झयणं ।।
१. दखणे (शां) ।
२. हतो (ला, ह) ।
३. वि से (ला) ।
४. कि तेण ते (ला)
५. अबो (शां) । २४७, २४८ इन दो गाथाओं
का चूर्ण में संकेत नहीं है। किंतु कथानक के रूप में व्याख्या प्राप्त है ।
६. लाहो (शां) ।
७. तीसरे चरण में छंदभंग है ७ वर्ण तथा
पंचम गुरु है।
यह गाथा मूल उसू ८१७ में भी मिलती है । हस्तप्रतियों में तथा चूर्णि में 'सो भणइ' इस उल्लेख के साथ यह गाया कपिल के मुख
से कहलाई है। पाश्चात्य विद्वान एल्सडोर्फ के अनुसार यह गाया नियुक्ति की है।
९. कोडी वि (ह) ।
१०. पट्ट० (ह, ला, चू)।
११. समणो जाओ (शां) ।
१२ छम्मासा (पू) ।
१३. भद्दपमु ० ( ला ) |
१४. ०दोसाण (ह) |
१५. पंचयमे (शां) ।
१६. होहिति (ला.ह) |
१५१
१७. दुविहो हो (ला) |
१८. से भवे तिविहे (ला) । १९. बलू (ला, इ)
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२५७.
निमुक्तिपंचक २५६, पवजानिक्लेवो, चविहो अन'-तिस्थिगा दवे ।
भावम्मि उ पवज्जा, आरंभपरिग्गहच्चाओ ।। करकंड' कलिगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो ।
नमीराया विदेहेसु, गंधारेसु य नग्गती ॥ २५८. वसभे य इंदके ऊ, वलए अंबे य पुफिए बोही ।
करकंड 'दुम्महस्स य'.' नमिस्स गंधाररण्णो य॥ २५९. 'सेतं सुजाते" सुविभत्तसिम, जो पासिया बसहं गोमज्झे ।
रिद्धि अरिद्धि 'समुपेहिया णं'५, कलिंगराया वि समिवख धम्म ।। २६०, गोठेंगणस्स मझे, ढिकियसद्देण जस्स मज्झम्मि ।
दरिता वि दत्तवसभा, सुतिक्खसिंगा समत्यो वि' ।। २६१. पोराण य गयदप्पो, गलतनयणो चलंतवसहोद्रो ।
सो चेव इमो वसभो, पड्डय-परिघट्टणं सहइ ।। २६२. जो 'इंदकेउं समलंकिय" तु, दट्ठ पडत पविलुप्पमाणं ।
रिद्धि अरिदि समुपेहिया ण, पंचालराया वि समिक्ख धम्म । २६२।१. बुड्डिं च हाणि च ससीव दद्रु, पूराव रेगं च महानईणं ।
अहो अनिच्च अधुवं च नच्चा, पंचालराया वि समिक्ख धम्म" ।। २६३. मिहिलापतिस्स नमिणो, छम्मासातक वेज्ज"पडिसेहो ।
कत्तिय सुविणग-दंसण, अहि-मंदर नंदिघोसे य॥ १. अरिप (ह)।
७. केऊ सुअलं० (६)। २. ०कर (च.सा)।
८. विट्ठ (ह)। ३. दुम्मुहस्सा (गो)।
९. समिक्ल त्ति आर्षस्वात् समीक्षते, पर्यासोचयति ४. सेवं सुजायं (शा)।
अनेकार्थत्वादनीकुरुते (उशाटी ५० ३०५)। ५. समुपेहमाणो (शांटीपा प० ३०५)। १०. मह गाथा टीका में नियुक्ति गापा के ६. २६०,२६१ ये दोनों गाथाएं टीका में नियुक्ति क्रम में मिलती है। ला और ह प्रति में तथा
क्रम में नहीं हैं किन्तु व्याख्या में इनका संकेत चणि में यह गाथा निर्दिष्ट नहीं है। ऐसा मिलता है। चणि में भी 'सेय सुजायं गाहाओ संभव लगता है कि प्रसंगवश यह गाथा बाद तिन्नि' के उल्लेख के साथ इन गाथाओं को में जोड़ दी गई है। स्वीकृत किया है। सभी आदशों में ये प्राप्त ११. विजज (गो)। है। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से भी १२. सुमिणग (शा)। ये निगा प्रतीत होती है।
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इसराध्ययन नियुक्ति २६४. दोन्नि वि नमी विदेहा', रज्जाई पहिऊण पव्वइया ।
एगो नमितित्थगरो, एगो पत्तेयबुद्धो य॥ २६५. जो मोनमितिमाशे, 'सो साहसिक परे भगवं ।
गंथमवहाय पवई, पुत्तं रज्जे ठवेऊण ।। २६६. बितिओ वि नमीराया, रज्ज चइऊण गुणगणसमगं" ।
गंयमवहाय पव्वइ, अहिगारो एस्थ बितिएणं ।। २६६।१. पुप्फुत्तरातो पवणं, पम्वज्जा होइ एगसमएणं ।
पत्तेयबुद्ध केबलि, सिद्धिगया एगसमएणं ।। २६७. बहुयाणं सहयं सोच्चा, एगस्स* य असदयं ।
वलयाण नमीराया, निवखंतो मिहिलाहियो' ।। २६८. जो चूत रुक्खं तु मणाभिरामं, समंजरी-पल्लव-पुप्फचित्तं ।
रिद्धि अरिद्धि समुपेहिया णं, गंधारराया वि समिक्ख धम्म । जदा रज्जं च रहें च, पुरं अंतेउरं तहा ।
सम्वमेयं परिच्चज्ज, संचयं कि करेसिम ? ।। २७०. अदा ते पेतिए" रज्जे, कता किचकरा बहू ।
तेसि किच्च परिभ्यज्ज, 'अज्ज किचकरो भव" ।। २७१. जया सव्वं परिच्चज्ज, मोक्खाय घडसी" भवं ।
परं गरहसे" कीस" ?, अत्तनीसेसकारए । २७२. मोक्स्वमग्गपवन्नेसुग, सासु बंभचारिसु । अहियत्थं निवारेतो, न दोसं यत्तुमरहसि ।।
नमिपब्धमाए निजुत्ती सम्मत्ता १. वेदेहा (ह)।
क्रम व्यत्यय है। हमने चणि का क्रम स्वीकृत २. रम्लाई (ला), रजाइ ()।
किया है।
१०. पतिते (चू) पैतृके इत्यर्थः । ४. सो साहसीय (सा)।
११. ४(ला)। १. २६५,२६५,२६६१ इन तीन गाथाओं के लिए १२. पडसी (ला)।
णि में मात्र 'गाहाओ तिषिण कंठ्या' इतना १३. हसी (शा)। ही उल्लेख है।
१४. केण (ला)। १. बीओ (शां)।
१५. निस्सेस. (ह, शोटीपा)। ७. गुणसयस (पो)।
१६. मग पवन्नेसु (शां, ला), मग्गपवण्णाण ८. एक्कस्स (ह)। ९. महिला (1), २५८ से २६७ तक की ...
गाथाषों की भ्याख्या में चणि और टीका में १७. मरिहसि (शा)।
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१५४
नियुक्तिपंचक २७३. निक्खेवा उ दुमम्मी', चउन्विहो 'दुविहो य होइ ददम्मि ।
भागम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। २७४. जाणगसरीरभविए, तवतिरित्ते य 'सो पुणो तिविहो ।
एगविय-बद्धाउय, अभिमुहरो नामगोत्ते य॥ २७५. दुमाउणामगोत्तं, वेदंतो भावतो दुमो होइ ।
एमेव य पत्तस्स वि, निफ्लेवो चम्विहो होइ । २७६. दुमपत्तणोवम', अहाठिईए" उबक्कमेणं च ।
एत्थ कयं 'आदिम्मी, तो तं दुमपत्तमज्झयणं ।। मगहापुरनगराओ, वीरेण विसज्जणं तु सोसाणं ।
सालमहासालाणं, पिट्ठीचंपं च आगमणं ।। २७८,
पवज्ज गागिलिस्स य, गाय पापिहया आगमणं चंपपुरि, वीरस्स 'य वंदणं तेसि ।। पाएँ पुण्णभद्दम्मि, चेइए नायओ पहियकित्तो । आमतेउं समणे, कहेति भगवं महावीरो॥ अढविहकम्ममहणस्स, तस्स 'पगई विसुखलेसस्स।
अट्ठावए नगवरे, निसीहिया" निट्ठियदृस्स ॥ २८१. उसभस्स भरहपिउणो, तेलोक्फपगासनिग्गयजसस्स५ ।
जो आरोढुं बंदइ, चरिमसरीरो य सो साहू ।।
२७९
२८०
१. दुर्ममि (शां)।
अजमयणस्स उपोशातो जहा निजत्तिगाहाहि' २. (ला)।
मात्र इतना उल्लेख है। इस वाक्य से सभी , चणि में इस गाथा के स्थान पर'णाम ठवणा' नियुक्ति गाथाओं का ग्रहण हो जाता है। इतना प्रतीक दिया है।
९. X (ला)। ४. से पुणे तिविहे (ला)।
१०. पवज्ज (ह), पवज्जा (गां)। ५. दुमाउपनामा (ह)।
११.(ला)। ६. तेणोमियं (ह)।
१२ अबंदणं (शां)। ७, अधादिट्ठीए (ला)।
१३. पवत्तीए सुद्ध० (ला), पयईए विसुद्ध (ह)। आदिम्मि तो दुमपत्तं तु अझयणं (ला), १४. "हिए (शां)। दुमपत्तं ति अज्झयणं (ह), २७६-२९९ तक १५. तेलुक्कपयास० (शां)। की गाथाओं के बारे में पूर्णि में 'एवस्स पुण १६, उ (ला)।
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उत्तराध्ययननियुक्ति
२८२.
२५३.
२८४.
२८५.
२८६.
२८७.
२८८.
२८९.
२९०.
२९१.
साधुं संवासेती' य असाधु न किर संवसावेति' । अह सिद्धपव्वतो सो, पासे वेदसिह स्स* ।। चरिमसरीरो साहू, आरुहूती नगवरं न अनोति । एयं तू उदाहरणं कासीय तह जिणवरदो || धोळप तं भगवतो, कित्ती | जिणाणं ||
बारह * तं नगवरं, परिमाओ वंदइ
अह आगतो सर्पारियो, सन्चिड्डीए तर्हि तु वंदितु वेश्याई मह चंदर गोयमं
अह पोंडरीयनाम', कति तहि गोयमो पहियकित्ती । दसमस्स य पारणए, 'पञ्चावेसी य' कोडिन् । तस्स य समणस्सा, परिसाए सुरवरो पतणुकम्मो । तं पुंडरीयनामं ", गोयमकहिये निसामेति ||
'घे तूण पोंडरीयं", वग्गुविमाणातो" सो चुओ संतो । तुंबवणे " धर्णागिरिस्स४ अज्जसुनंदा सुतो जातो ॥
देसमणो । भगवं ॥
" दिन्ने कोडिन्ने या १५ सेवाले वेब होइ तइए उ" । एक्वकस्स य" तेसिं, परिवारो पंच पंचसया ।। हेट्ठिल्लाण चउत्थं मज्झिल्लाणं तु होति छट्ठे तु । अट्टममुवरिल्लाणं, आहारो तेसमो होइ ॥
·
हेट्टिल्लाणं तु होति आहारो ।
कंदादी सचितो वितियाणं" अच्चित्तो", ततियाणं सुक्क सेवालो ||
इसके प्रारंभ के पत्र लुप्त हैं ।
१. संवाद ( शो) ।
२. असाहू (ह), असा (शा) ।
३. ० वेह ( ग ), ० वेई (शां) ।
४. अ प्रति के पाठ इस गाथा से प्राप्त होते हैं । १४. ० गिरिस्सा (शा, ह, ला) |
१५. दिन्ने य कोडिन्ने यं (ह) ।
१६. य (शां, अ) ।
१७. ४ (६) ।
५. आरम्भ (हम) ।
६. पुंडरीयनायें (शां), व्यनाई (ला) |
७. पच्चाबेसिय (ह), बेसीअ (शां) ।
८. कोडीह (ला) |
९. य तणुकम्मो (ह), ०पयणुकंपी (ला) | १०. नायं (शां) ।
११. चित्तू पुंडरी (शां) ।
१२. दिग्गु० ( अ ) । १५. ०वण (ह) ।
१८. ब्वारो य (ह) |
१९. सचित्तो (ला, ह्) ।
२०. बीआणं (शा) |
२१. अति (ला) ।
१५५
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建议客
२९२.
२९३.
२९४.
२९५.
२९६.
२९७.
२९८.
२९९.
३००.
३०१.
तं पासिऊण इड्डि, गोतमरिसिणो ततो विग्गा वि । अणगारा पचइया, सपरीवारा' विगतमोहा ||
४
एगस्स खीरभोषण, हेऊर नागुप्पया मुणेयब्वा । एगस्स य परिसादंसणेण एगल्स य जिम्म ।। केवलिपरिसं तत्तो, वच्चंता गोतमेण ते भणिया'" । इह एह वंदह जिणं, कयकिञ्च जिणेण सो भणितो ॥ सोऊण तं अरहतो, हियएणं गोतमो वि चितेइ | नाणं मे न उप्पज्जद, भणिते य जिणेण सो ताहे ॥ चिरसंसठ्ठे चिरपरिचियं च चिरमणुगयं च मे जाण । देहस्स उभेदम्मी, दोन वि तुल्ला भविस्साम || जह मन्ने एतमट्ठ, अम्हे जाणामु खीणसंसारा । तह मन्ने एतमट्ठे, विमाणवासी वि जाणंति || जाणगपुच्छं पुच्छति, अरहा फिर गोतमं पहितकित्ती । कि देवाणं वयणं, गिज्झ आतो" जिणवराणं ॥
सोकण तं भगवतो, तन्निस्साए " भगवं,
परियट्टियलावण्ण", पतं * वसणप्पत्तं,
जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिहा" जहा अम्हे । पंडुरपत्तं " किसलयागं ।।
अपा
पडतं,
मिच्छाकारस्स सो उवद्वाति । सीसाणं देति अणुसिट्टि"
१. सम्परि० (शां अ), सपरि० (ला) । २. हे (ला) 1
३. x (शां) ।
चलंत संधि मुयंत बिटागं । कालप्पत्तं भणति गाहं" ।।
४. अणिया य (शां अ ) ।
५. इतो (ह), एय (ला), उ (शां) ।
६. ० परिचयं (ह) |
७. x (शां) ।
5.
य (शां) । ९. भैमि य (शां)।
१०. आतोति आश्वाद् आहोस्वित् (शॉटी प
१२३) ।
११. तन्नीसाए (शां) ।
१२. अणुसट्टि (हला) ।
१३. ०लायण्णं ( अ ) |
१४. प
(शां) ।
निर्युभितपंच
१५. गाहा ( अ, हुला ) यह गाथा अनुयोगद्वार में कुछ अंतर के साथ मिलती हैपरिजूरियपेतं चलंतवेंट पतनिच्छीरं । पतं वसणप्पत्तं कालप्पत्तं भण गाई ॥ अनुद्रा ५६९।२
१६. होहिया (ह) |
१७. पंडुरव (शf), पंप (ह)। १८. अनु५६९।३ ।
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उत्तराभ्ययन नियुक्ति ३०२. नवि अस्थि न वि य' होही, उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उधमा खलु एस' कया, भवियजणविबोहणट्ठाए ।
दुमपत्तस्स निम्जुत्तो सम्मत्ता
३०३. बहु सुए 'पूजाए य', तिण्हं पि चउक्कओ उ निक्लेवो ।
दब्ब बहुगेण बहुगा, जीवा तह पुग्गला चेव ।। ३०४. भावबहुगेण बहुगा, चउदसपुवा' अणंतगमजुत्ता।
भावे खओवसमिए, खइयम्मि य केवलं नाणं ।।दा।। दश्वसुया पोंडगादी', अहदा लिहियं तु पोत्यगादीसु । भावसुयं पुण दुविह, सम्मसुयं चेव मिच्छसुयं ।। भवसिद्धिया उ जीवा, सम्मट्टिो उ जं अधिज्जति
तं सम्मसुएण सुर्य, कम्मट्टविधस्स सोहिकरं ॥ ३०७. मिच्छट्ठिी जीवा, अभयसिद्धी य जं अधिज्जति ।
तं मिच्छसुएण सुर्य, कम्मादाणं च तं भणितं । ३०८.
ईसर-तलवर-भाडबियाण सिव-इंद-खंद-विण्हणं । जा किर कीरइ पूया, सा पूया" दबतो होइ ।। तित्थगर केवलीण, सिद्धायरियाण सव्वसाहणं ।
जाकिर कोरइ पूया, सा पूया भावतो होइ" || ३१०. जे किर चउदसपुथ्वी", सव्वक्वरसन्निवाइणो निउणा। जा तेसिं पूया खलु, सा भावे ताइ अधिगारो ।।
बहुस्सुम्पूयाए मिजुत्ती सम्भत्ता
१. x(ला)।
७. बोंडगादी (ला), पुंड० (ह), पोडयादी २. होहिति' (ला), होई (ह)। देख्ने-अनुद्वा (शां)। ५६९।४।
८. पुरथयाईसु (शा), पोत्ययादीयं (ह) । ३. पुज्जाए य (ला), पवजाए (अ), फजयाए ९. सा मिच्छादिट्ठी (घ)।
१०.४ (ला)। ४. 4 (शा,अ)।
११.३०९,३१० की गाथा पूणि में निर्दिष्ट नहीं है ५. चोद्दस (ला,इ)।
किंतु संक्षिप्त व्याख्या है। ६. बध्यसुय ति अनुस्वारलोपात् द्रव्यसूत्रम् १२. जो (ह) । (उाटी प० ३४२) ।
१३. घोड्स (ला), पउद्दसम्धि (ह)।
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१५८
३११.
३१२.
३१३.
३१४.
३१५.
३१६.
३१७.
३१८.
३१९.
हरिएसे निक्खेवा, चउब्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो' । जाणणसरीरभविए, तव्वतिरित्त य सो पुणो तिविहो । एगभविय बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोते य ॥ हरिएसनामगोयं वेदंतो भावओ उहरिएसी । तत्तो समुट्ठियमि, हरिएसिज्ज ति अञ्झयणं ॥ पुब्वभवे संखस्स उ जुवरण्णो अंतियं तु पव्वज्जा । जातीमदं तु काउं, हरिएसकुलम्म आयातो ॥ महराए संखो खलु, पुरोहियसुओ य" गयपुरे आसी । दट्ठूण पाडिहेर हुयवहरत्याए निक्तो ॥
हरिएसा चंडाला, सोवाग मयंग * बाहिरा पाणी । साधणा व मयासा, सुसाणवित्तीय नीया य ॥ जम्मं मतंगतीरे, वाणारसि, गंडि तिदुगवणं च । 'कोसलिए य" सुभद्दा, इसिवंता जण्णवाडम्मि || बलकोट्टे बलकोट्टो, गोरो गंधार सुविणगवसतो' । नाम निरुत्ती छणसप्प, संभवो 'दुंदुभे बोही "" ।। भगेणैव होयच्वं पावति सविसो हम्मती" सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुंचति ॥ भद्दाणि भद्दम ।
१. टीका में इस गाथा के स्थान पर 'नाम ठदणा दविए' इतना ही पाठ प्राप्त । लेकिन आदर्शो में गाथा उपलब्ध है । प्रसंगानुसार यही गाथा संगत लगती है।
२. म (शां)।
३. बायाओ ( अ, शां), ३१४-३२० तक की आथाओं का चूर्णि में संकेत नहीं है किन्तु कथानक के रूप में गाथाओं का भावार्थ उपलब्ध है । ४. ४ (६) ।
५.
६.
७.
मायंग ( अ ) |
० गंड ( अ ) |
कोसलिएसु ( i ), ० लिओ उ (ह) ।
गोरि (अ) ।
सुवणे य सुवसंतो ( अ ) ।
निर्वृतपंचक
९.
११. हम्मए (शां) । १०. दुदुहे बीओ (शां), X (ला) ।
१२. मुच्चति (अ बू, शां), मुम्बई (ह) । प्रकाशित चूर्ण में यह गाथा उगा के रूप में संकेतित है ।
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उत्तराध्ययन निमुक्ति ३२०. उज्जाणे तिदुगम्मि,' गंडयजक्खो त्ति विस्सुतो आसि ।
तो गडि तिदुगवणं, उज्जाणं होइ नायव ।। ३२१. इत्थोण कहत्य वट्टती, जणवयराय कहत्थ' पट्टती । पडिगच्छह रम्मतिद्गं, अह ! ' सहसा बहुमुंडिए जणे ।।
हरिएसिस्जस्स निजुत्ती सम्मत्ता
३२२.
चित्ते संभूयम्मि य, निक्खेवो 'चउको दुहा दब्बे ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमनो 4 सो तिविहो ।। ३२३. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो ।
एममधिय-बराय, अभिभुहओ नामगोत्ते य ३२४. चित्ते संभूताउँ,१५ वेदंतोष भावतो य" नाययो ।
तत्तो५ समुट्ठियमिण, अज्झयणं चित्तसंभूयं ।। ३२५. सागेते चंचवहिंसयस्स, पुत्तो या आसि मुणिचंदो ।
सो वि य सागरचंदस्स अंतिए पव्वए समणो।। ३२६. तण्हाछुहाकिलंत, समणं दळूण अडविनीत्त ।
पहिलाभणा य बोही, पत्ता गोवालपुत्तेहिं ।। ३२७. तत्तो दोन्नि दुग्छ,' का 'दासा दसण्ण आयाया ।
दोनि य उसुयारपुरे, अहिगारो बभदत्तेण ।।
१. तेंदुगम्मि य (अ), तिदुगम्मी (ला)। १०. चउको दुविहो य होइ दवम्मि (अ), २. गंडतिज (ला), गंडज (ह)।
चउक्को दुविहो दवम्मि (ला)। ३. वीसुतो (ला), वीसओ (ह)।
११. बद्धाक (शा) ४. टीका में यह गापा नियुक्ति गाषा के क्रम में १२. संभूताई (ला) ।
नहीं है । लेकिन पूणि में इस गाथा का १३. वेइंतो (ह), बेअंतो (शां)। भावार्थ मिलता है। सभी आदर्शों में यह १४. उ (इ) । गाथा उपलब्ध है तथा क्रमबद्धता की दृष्टि से १५. तेसु उ (ला), तेसुं (ह)। भी यह निगा की प्रतीत होती है।
१६. उ (ह)। ५. कहित्य (शां)।
१७. ०णीभूयं (ला), नीहां (ह), अटदीनिष्क्रान्त ६. कहियत्व (म)।
___ मित्यर्थः (शोटीप ३७५)। ७. वह य (अ)।
१८. दुगंछ (शां)। ८. पतिगच्छाह (अ)।
१९. दास पसन्ने (ह), इसन्नि (शा)। १. 'अयी त्यामंत्रणे (शांटी प ३५५) ।
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११.
.
निर्मुक्तिपत्रक ३२८. राया य तत्थ बंभो, कडओ तइओ कणेरुदत्तो' ति ।
राया य पुप्फचूलो, दीहो पुण होइ कोसलिओ ॥ ३२९. एए पंच वयंसा, सम्बे सह दारदरिसिणी होत्था ।
'संवच्छरं अणूणं,' वसंति एषकेक्करज्जम्मि ।। राया य बभदतो, पणुओ सेणावती य वरधणुओ ।
इंदसिरी 'इंदजसा, इंदवसू 'चुलणिदेवी य॥ ३३१. चित्ते य विज्जुमाला, विजुभती चित्तसेणओ भद्दा ।
पंथग' नागजसा पुण, कित्तिमई कित्तिसेणो य ।। देवी य नागदत्ता, जसवइ रयणवह जक्खहरिलो य ।
वच्छी य चारुदत्तो, उसभो कच्चाइणी य सिला ॥ ३३३. धणदेवो वसुमित्ते, सुदसणे दारुए य नियडिल्ले ।
पुस्थी पिंगल पोते, सागरदते या दीवसिहा ।। ३३४. कपिल्ले मलयवती, वणराई सिंधुदत्त सोमा य ।
तह सिंघुसेण पज्जुन्नसेण," वाणीर पतिगा य ।। ३३५. हरिएसा गोदत्ता, करेणुदत्ता" करेणुपदिगा य ।
कुंजर करेणुसेणा, इसिवुड्डी- कुरुमती" देवी। ३३६. 'कंपिल्लं गिरितडगं, चंपा हत्यिणपुरं च सायं ।
समकडगं नंदोसा,५ वसीपासाय समकडगं ॥ ३३७. समकडगातो अडवी, तण्हा" वडपायवम्मि संकेतो।
गहणं वरवणुगस्स य, बंधणमाकोसणं चेव ।।
१. कणेरदत्तो (अ,शां)।
६. पंथा (ह)। २. ३२८-३५२ तक की गाथाओं का चूणि में कोई ७. x(ह)।
संकेत नहीं है किन्तु पूर्णिकार ने 'सब्वा ८. ध (ह)।
भदप्ती हिंडी भाणियब्बा' ऐसा उल्लेख किया ९. राई (ला)। है । हिंष्टी मान्द से ये सभी गाथाएं निगा के १०. सेणा (ह)। रूप में निदिष्ट है तथा टीकाकार में भी ११. कणेक (शा) सर्वत्र । 'हरिकेशवबक्तव्यतामाह नियुक्तिकृद्' ऐसा १२. जुली (अ.ला)। उल्लेख किया है।
१३. कुरुवती (अ)। ३. भोच्चा (शा)।
१४, ०ल्लगिरितडागं (ह)। ४. इंदबसू इंदजसा (अ)।
१५. भोसाणं (ह,शां)। ५. ०देवी 7 (अ), ०देवीमो (शां)। १६. सतिप्त (अ), तम्हा (ह)।
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४०.
उत्तराम्ययन निर्मुक्ति ३३८. सो हम्मती' अमच्चो, देहि कुमारं 'कहिं तुमे नीतो? ।
गुलियविरेयणपोतो, कवडमओ छड्डितो तेहिं ।। तं सोऊण कुमारो, भीलो अह उप्पहं पलायित्था'। काऊण थेररूवं, देवो वाहेसिय कुमार ।। वरपुरगबंभथलयं,' बडथलग चेव होइ कोसंबी । वाणारसि रायगिह, मिपुर-॥ ८ अहंकार . वणहत्थी य कुमार, जणयइ आहरणवसणगुणलुद्धो ।
वच्चंतो 'बडपुरओ, सावत्यो'' अंतरा गामो ।। ३४२. गहणं नंदीकुडंग, गहणतरागाणि पुरिसहिययाणि ।
देहाणि पुण्णपत्तं," पियं खु नो दारओ जातो ।। ३४३. सुपतिठे कुस'डि, भिकुंडिवित्तासियम्मि जियसत्तू ।
महुरातो अहिछत्तं, वच्चंतो अंतरा लभति ।। ३४४. इंदपुरे रुहपुरे, सिवदत्त विसाहदत्त" 'धूया य५ ।
वडुगत्तणेण लभती, कलाओ दोनि रज्जं च ॥ ३४५.
रायगिह-मिहिल-हस्थिणपुरं च चंपा तहेव सावत्थी |
एसा उ नगरहिंडी, बोधव्वा बभदत्तस्स ।। ३४६, रयणुप्पया य विजओ, बोधव्वो दीहरोस मोक्खे य ।
संभरण 'नलिणिगुम्मे, जातीय"८ पगासणं चेव ।। ३४७.
जातीपगासण निवेयणं च, जातीपगासणं चित्ते । चित्तस्स य आगमणं, इपिरिच्चाग सुत्तत्थो ।
१. हम्मही (अ), हम्मई (गो) ।
११. कुसुकुंडी (ह)। २. काहित मे (ह)।
१२. भद्दपुरे (हाला)। ३. पहारत्या (ह) ।
१३. विसादवस (ला)। ४. वहपुरग बंभ'''''ला प्रति में इतना ही पाठ १४. धूया उ (म), माओ (गर)। मिलता है।
१५. महिल (ना)। ५. गिहि (शा)। .
१६. सावत्यि (ह)। ६. य पुराओ अहिछत्तं (शां,ह) ।
१७. बुद्धच्या (अ), रोसब्चा (शां)। ७. ला प्रति में यह गाथा नहीं है।
१८. नलिणिगुम्म जाईड (शां), जाइय (अ)। ८. याई (अ), पुरिससहियाणि (ह)। १९. जाई पगास (शां), जाश्य प ०(अ), जाईए ९. देहाणि (मा) ।
पगासणं (ह)। १०. पुण्णवत्तं (ब)।
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३४८.
३४९.
३५०.
नियुक्तिपत्रक इत्योरयण पुरोहिय, भज्जाणं' 'विग्गहो विणासम्मि' । सेणावइस्स भेदो, दक्कमणं' चेव पुत्ताणं ।। संगामे अस्थि भेदो, मरणं पुण घूयपादवुज्जाणे । कहगस्स य निभेदो, दंडो य पुरोहियकुलस्स ।। जतुघरपासादम्मि य, दारे य सयंवरे 'य थाले य"। तत्तो य आस-रह-हथिए,' य तह कुंडए चेव ।। कुक्कुटरव तिलपत्ते, सुदसणे दारुए य नयणिल्ले । 4 गंद, कला उ" तह आसणे चेव ।। कंचुगपज्जुण्णम्मि"य, 'हत्यो वण कुंजरे'कुरुमती य । एते कन्नालंभा, बोधव्वा बंभदत्तस्स" ।।
चित्तसंमइज्जस्स निज्जुत्तो सम्मत्ता
३५१.
३५२.
३५३.
उसुयारे निक्खेयो, चउब्बिहो विहो य५ होइ दवम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिबिहो ।। ३५४. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो ।
एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहमओ नामगोत्ते य॥ उसुयारनामगोयं", वेदेतो भावतो य उसुयारो। तत्तो समुट्ठियमिणं, उसुयारिज्जं ति अज्झयणं ।।
१. भिजाणं (शा), विज्जाणं (अ)। २. बुग्गही विणासंमि (शा)। ३. सबकमणं (अ)। ४. चोय (ला), धोय (ह) । ५. कुलस्सा (ह)। ६. जहा थे य (अ)। ७. सत्तो य आसर हस्पिए (शा), ततो आसए __य हथिए (ला)। ८. कुक्कारह (अ)। ९. मियडिल्से (सा)। १०. वरी (ला)। ११. कालो उ (ला)।
१२. ०पज्यत्तम्मि (ह) । १३. हत्या मणक (ला,अह)। १४. टीकाकार ने इन पांच गाथारों (३४८
३५२) को निया के कम में रखा है सथा उनके लिए ऐसा उल्लेख किया है-'नियुक्तिगाथा: पञ्च: "" ""विशिष्ट संप्रदायाभावान्न विनियन्ते' (शाटीप ३८३)। हमने इन्हें निगा माना है। यह भी संभावना की जा सकती है
कि ये पांचों गाषाएं बाद में जोड़ी गई हों। १५. ४(मा)। १६. गोए (शां)।
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३५९.
उत्तरावयन निर्मुक्ति ३५६, पुन्वभवे संघडिया,' संपीया अन्नमन्नमणुरता।
'भोत्तण कामभोगे,२ निग्गंथा पव्वए समणा ।। ३५७. काऊण य सामण्ण, परमगुम्मे विमाणे उपचन्ना।
'पलिओवमा य* चउरो, 'ठिती य उक्कोसिया तेसि ।। ३५८. तत्तो य चुता संता, कुरुजणवयपुरवरम्मि' उसुयारे ।
छप्पि* जणा उववन्ना, चरिमसरीरा विगयमोहा ॥ राया उसुयारो या, 'कमलावइदेवि' अग्गमहिसी से।
भिगुनामे य पुरोहिय, वासिट्टा भारिया तस्स ।। ३६०. उसुयारपुरे नगरे, उसुयारपुरोहियो य" अणवच्चो।
पुत्तस्स कए बहुसो, परितप्पंती 'दुयग्गा वि'" || काऊण समणरूवं, तहियं देवो पुरोहियं भणइ।
होहिति तुज्झ पुत्ता, दोन्नि जणा देवलोगच्या ।। ३६२. तेहि य पव्वइयग्वं, जहा य न करेह अंतराय हे"।
से पवइया संता, बोहेहंती" जणं बहुगं ।। ३६३. तं वयणं सोऊणं, नगराओ नेति५ ते वयग्गाम" ।
वड्दति य ते तहियं, गाहेति य णं असब्भावं ।। ३६४. एए समणा धुत्ता, पेय-पिसाया य पोसादाय।
मा तेसि अल्लियहा,६ मा भे पुत्ता ! विणासेज्जा ।।
३६१.
१. घडियाओ (पाटीपा), संघडिम त्ति देशीपद- .. य (अ) ।
भव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि (शांटीप ३९४)। १०. वासिट्ठी (अ) । २. भुत्तूण भोगभोए (शा)।
११. उ (अ, सा)। ३. ३५६-६६ तक की गाथाओं का चणि में कोई १२. दुयत्ता वि (अ) । 'दुयग्गावि' ति देशीप
संकेत नहीं है किन्तु कथानक रूप में गाथाओं प्रक्रमाञ्च द्वावपि दम्पती (शांटीप ३९४)। का संक्षिप्त भावार्य है। टीकाकार ने इस १३. 'हे' त्ति अनयोः (शांटीप ३९४) । गाथाओं के लिए नियुक्तिकृत का उल्लेब १४. बोहेहिती (थां)। किया है।
१५. निति (शां), निग्गओ (ला) । ४. स्वभाई (गां)।
१६. गामे (शां)। ५. द्विती उ (ला), छिइ य (अ), ठिई (गो)। १७. वुत्ता (अ)। ६. पुरम्मि (अ)।
१८. पुरुषसम्बन्धिमांसभक्षका रामसा इति ७. छावि (ला,शां)।
(शांटीप ३९४)। ८, जसपत्तिदेवी य (ता)।
१९. अल्लिहहा (अ)।
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नियुक्तिपंचक
३६५. घळूण तहिं समणे, जाई पोराणियं च सरिऊणं ।
बोहितऽम्मापियरं,' उसुयारं रायपत्ति' च ।। ३६६. सीमंधरो य राया, भिमू य वासिढ़ रायपत्ती य । बंभणी दारगा चेव' छप्पेते परिनिबुडा।।
उसुयारिजस्स निम्जुत्ती सम्भत्ता
३६९.
३७०.
निक्खेवो भिक्खुम्मी, चउठियहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभथिए, तध्वतिरित्ते य निण्हगादीसु । जो भिदेइ खुहं खलु, सो भित्रखू" भावतो होइ । भेत्ता य भेयणं था, नायव्वं भिदियब्वयं चेव । एकेक्कं पि य दुविहं, दब्वे भावे य नायव्वं ।। रहकार-परसुमादी, दागमादी य दवतो होति । साधू" कम्मटविह, तवो य भावम्मि" नायव्वं ।। 'रागद्दोसा दंडा, जोगा" तह गारवा य सल्ला य । विकहामओ सण्णाओ, खुहं कसाया पमाया५ य ।। एताई तु खुहाई, जे" खलु भिदंति सुज्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी," उविति अयरामरं ठाणं ।।
सभिक्खुयस्स निजुत्ती सम्मत्ता
३७२.
३७३.
नामं ठवणा दविए, माजगपद संगहेक्कए चेव । पज्जव-भावे य तहा, सत्तेते एक्कगा होति ।।
१. मोहितेऽमापियरो (अ)। २. रायपुतं (शो)। ३. एए (ब)। ४. निव्वुआ (शां)। ५. भिक्खुम्मि (ह)। ६. x(ला,अ)। ७. x(ला)। ८. विविहो य (ला)। ९. भिवा (ह)।
१०.४(अ)। ११. होति (अ)। १२. भावं ति (ला)। १३. रागहोसा छुह दंग (ला, शांटीपा) १४. विगहाओ (शां)। १५. पमाओ (अ)
१७. गठिं (ह)। १२. नि ।
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उत्तराभ्यमन निर्मुक्ति ३७४. 'दससु य छक्के' दवे, नायब्बो दसपदेसिओ खंधो।
ओगाहणा ठिईए, नायध्वो पज्जवदुगे य॥ ३७५. बंभम्मी' उ चउक्क, ठवणाबम्मि बभणुप्पत्ती ।
दवम्मि वस्थिनिग्गह, अन्नाणोणं मुणेयव्यो ।। ३७६. भावे उ वस्थिानग्गहो, नायवो तस्स रक्खणट्टाए।
ठाणाणि ताणि वज्जेज्ज, जाणि भणियाणि अज्झयणे ।। ३७७. चरणे छक्को दवे, गइ-चरण' व 'भक्खणे चरण ।
खेत्ते काले जम्मि य, 'भावे उ" गुणाण आचरण ।। ३७८, 'समाधीए चउक्क दन्वं दग्वेण जेण उ समाही ।
भावम्मि नाण-दसण, तवे चरित्तं य नायव्वं ।। ३७९. नामं ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ढ 'उवरती वसधो" । संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा भावे ।।
बंभचेरसमाहिठाणस्स निजुत्तो सम्मसा
३८०. पावे छक्कं दवे, सच्चित्ताचित्तमोसगं' चेव ।
खेत्तम्मि निरयमादी, काले अइदुस्समादीओ ।। ३८१. भावे पावं इणमो, हिस-मुसा-चोरिय च अब्बों"।
तत्तो परिग्गहे च्चिय, अगुणा भणिया उ" जे सुत्ते ।। ३८२. समणे चउक्कनिक्खेवओ, उदम्मि निण्हगादीया" ।
समण चउक्क नाणी संजमसहिमओ, नायथ्यो भावतो समणो ।
१. ४(ला)।
९. उबरई वसही (शा)। २. x(ला)।
१०. सचित्ता (अ,शां)। ३. दुवे (अ.सा)।
११. अबंभ (ला)। ४, बम्मि (शां) ।
१२. गुणा (अ)। ५. धरणे (ला)।
१३. य (शां)। ६. भखणे चरण ति एकारोऽलाक्षणिकस्ततो १४. निक्लेवो (अ) ।
भक्षणचरणं (उशांटी प ४२१)। १५. य (ला)। ७. भावओ (अ)।
१६. गादी प (ला)। ८, ०धीए उ चउक्को (चू), समाहीह चउक्क
(शां)।
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१६६
नियुक्तिपत्रक ३८३. जे भावा अकरणिज्जा, 'इह अज्झयणम्मि'' वणिय जिहि ।
ते भावे सेवंतो, नायवो पायसमणो ति॥ ३८४, एताई पाबाई, जे खलु वज्जति सुवया रिसओ। ते पावकम्ममुक्का, सिद्धिविग्ण वच्चंति' ।।
पावसमणिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता
३८५.
३८६.
३८७.
निक्लेवो संजइज्जम्मि, 'चउदिवहो दुविहो य* दम्वभिम । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तम्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगविय-बद्धाज्य, अभिमुहमओ नामगोत्ते य ।। 'संजयनाम गोत्त, वेतो भावसंजतो होइ। तत्तो समुट्ठियमिण, अज्झयणं 'संजइज्ज ति ।। कंपिल्लपुरवरम्मि य, नामेण संजतो नरवरिंदो। सो सेणाए सहितो, नासोरं" निग्गतो" कदाइ" ।। ह्यमारूतो राया, मिए छुभित्ताण केसरज्जाणे । ते तत्य उ" उत्तत्ये", बहेति रसमुच्छितो संतो ।। अह केसरमुज्जाणे, नामेणं गद्दभालि अणगारो। 'अप्फोवमंडवम्मि य,५ झायति माणं झवियदोसो"।।
३८८.
३८१.
३९०.
१. इमम् (शां)। २. कित्तिय (अ)। ३. पार्वति (ला)। ४. घउक्कतो दुविहो होइ (ला)। ५. मुहो (अ)। ६. नामगीत (अ)। ७, वैयतों (गां)। ८. जति (म)। ९. x(ला)। १०. नासीरं-भृगयां प्रति (गांटीप ४३८)। ११. णापतो (ला)।
१२. चूणि में ३७७-३९८ तक की गाथाओं का
उल्लेख या व्याख्या नहीं है, किन्तु पूर्णिकार ने स्पष्ट लिखा है नियुक्तिगाथा: सूत्रगाथाश्च प्रायसः प्रकदार्या एवं नियुक्तिकार: सूत्रोक्तमेवार्य क्वचिदनुवर्तते' इस वाक्य से स्पष्ट है कि पूर्णिकार के सामने ये गापाएं
१३. x (ला)। . १४. उत्तित्यो (अ)। १५. अप्फोय० (अ) मंडवम्पी (ला)। १६. झरिय० (ब)।
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३९३.
३९४.
उत्तराध्ययन नित ३९१. अह आसगतो राया, तं पासिय संभमागतो तत्थ ।
पनि इ. बह मान सिवझाए मणालित्तो ।। ३९२. वोसज्जिऊण आसं, अह अणगारस्स एति सो पासं ।
विणएण बंदिऊणं, अवराहं तो खमावेति ।। अह मोणमस्सितो सो, अणगारो नरवई* न वाहरइ । तस्स तव-तेयभीतो, इणमट्ठ सो उदाहरइ ।। कंपिल्लपुराहिवई, नामेण संजतो अहं राया। तुझ सरणागतो म्हि, निद्दहिहा मा मि तेएण' ।। अभयं तुज्झ नरवतो !, जलबुब्बुयसन्निभे य माणुस्से। कि हिंसाएँ" पसज्जसि, जाणतो अप्पणो दुक्खं ? ।। सम्वमिण चहणं, अवस्स जमा य होइ" गंतव्य ।
कि भोगेसु पससि ? किंपागफलोवर्मानभेसु ।। ३९७. सोऊण य सो धम्भ, तस्सऽणगारस्स अंतिए राया ।
अणगारो पव्वइतो, रज्जं चहउं गुणसमग्गं ।। ३९८. काऊण तवच्चरणं", बणि वासाणि सो"धुर्याकलेसो। तं ठाणं संपत्तो, जं संपत्ता न सोयंती ।।
'संजाइजस्स निशुत्ती सम्मत्ता
३९५.
निक्लेवो य" मियाए, चउक्कयो दुविहो य होइ दवम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य ।
४००.
१. 'हा' इति बेदे (शांटीप ४४०)। २. इम्हि (शा)। ३. मणालग्गो (अ)। ४. वीसजेऊण (ला)।
२. मे (ला), "मि' इति मां (शांटी पw.)। १०. हिसार (शा)। ११. होति (ला)। १२. तवं चरण (अ)। १३. तो (ला)। १४. उ (ला)। १५. ३९९-४०१ तक की गाथाओं के लिए पूर्णि
में 'गाणावयं गतार्थ इतना ही संकेत दिया है।
६. मोणमासितो (ला, है)।
१. मि (ला), मि (६)।
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१६.
निर्यक्तिपंधक
मिगआउनामगोय', वेदतो भावतो मिगो होइ।
एमेव य पुत्तस्स वि, चउक्कओ होइ निक्लेवो ।। ४०२. मिगदेवोपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुट्टियं जम्हा ।
तम्हा मिगपुत्तिज्ज, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। सुग्गीवे नयरम्मि य', राया नामण आसि बलभद्दो।
तस्सासि अग्गमहिसो, 'इट्ठा देवी मिगा'' नाम ।। ४०४. तेसि दोण्ह वि पुत्तो, आसो नामेण बलसिरी विइम ।
वयरोसभसंघपणो, जुवराया' चरमभवधारी । ४०५. उन्नदमाणहियओ', पासाए नंदम्मि सो रम्मे ।
कोल पमदासहितो, देवो दोगुंदगो चेव ॥ अह अन्नया कयाई, पासादतलम्मि सो ठितो संतो।
आसाएति पुरघरे, ६ मागे गुगसमगे ।। ४०७. अह पेच्छइ रायपहे, वोलंत समणसंजय तत्थ ।
तव-नियम-संजमधर, सुतसागरपारगं धीरं ।। अह देहति रायसुतो, तं समणं अणमिसाएं दिट्ठीए। कहि एरिसयं रूवं, दि→ ‘मन्ने मए पुग्वं' ।। 'एवं चितयंतस्स", सण्णीनाणं तहिं समुप्पन्न ।
पुन्वभवे सामण्णं, मए वि एवं कयं आसि ।। ४१०. सो लद्धबोहिलाभो, चलणे जणगाण वदिउ भणइ ।
योसज्जिमिच्छामो'२, काहं समणत्तणं तात। नाऊण"निच्छपमती, एव"करेहि त्ति तेहि सो भणितो।
धन्नो सि तुमं पुत्तो! जसि विरत्तो सुहसएहि ॥ १. मिगाउणा (ला)।
१०. माझे मए पुस्वि (सा)। २. x(ला)।
११. एवमणुचित • (शां)। ३. देवी उ मिगाबई (शा)।
१२. जिउं इच्छामो (अ)। ४. कुमारो (अ), धीमं (शां)।
१३. साया (शा)। ५. जुगराया (ला)।
१४. नाऊणं (ला)। ६. चरिम ० (अ,ला)।
१५. एवं (ला)। ७. उवनंदमाण (अ), ओनंदमाण (ला)। १६. पुत्ता (शा)। ८. फिलई (शा)।
१७. सएस (ब,शां)। ९. दुमुदगो (मा)।
४०९.
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उत्तराध्यपन नियुक्ति
सोहत्ता निस्वमित्रं, सोहत्ता चेव विहरसू पुत्ता!। जह नरि' धम्मकामा, विरत्तकामा उ• विहरति ।। नाणेण दसणेण य, चरित्त-तब-नियम-संजमगुहि ।
खंतीए मुत्तीए, होहि तुम बढ्डमाणो उ ।। ४१४, संवेगणितहासोर, मोक्खगमणबद्धचिधसन्नाहो ।
सम्मापिकण वयणं, सो पालतो पोडच्छाय॥ इडीए निक्खतो, काउं समणत्तणं परमघोरं"। तस्थ गतो सो धोरोप, जत्थ गया खोणसंसारा॥
मिगापुत्तिजस्स निग्नुत्ती सम्मसा
-
--.
..
--
-.-.
४१६.
४१७.
नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाण -पति-भावे । एतेसि खुड्डगाणं, पडिवक्ख" महतगा होति ।। निवखेयो नियंठम्मि, 'चउठिवहो दुबिहो य'' होइ दवम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीर भविए, तध्वतिरित्ते य निण्हगादीसु । भावे पंचविहे खलु, इमेहिं दारेहिं सो नेओ।
४१८.
१. नवरं (मा)। २. म (ला)। ३. मुत्तयाए (ला), ४. वट्टमाणेणं (ला), वट्टमाणा उ (म)। ५. जणियसद्धो (शोटीपा)। ६. पर्याच्छयउ (अ)। ७. घोरं (म)। ८. वीरो (ला)। ९. ४०३-४१५ तक की गाथाओं में मृगापुत्र की
कपा है। पूर्णिकार ने इन गापाकों के लिए
स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'सूत्रोक्तमप्यर्थ नियुक्तिकारः पुनरपि ब्रवीति कि? द्विद्ध सुबद्ध भवताति' इसलिए इन गाथाओं की व्याख्या चूर्णिकार ने नहीं की है और न ही कथानक दिया है। टीकाकार ने इन गाषाओं
के लिए नियुक्तिकद्' का उल्लेख किया है। १०, अठाण (गा), ये पहाण (अ)। ११. पहिवरखु (अ)। १२. चउक्कओ दु० (शा), घडविहो दुम्विहो य
(अ)।
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४२०.
नियुक्तिपंपस पपणवण वेद रागे, कप्प चरित्त पडिसेवणा नाणे। 'तित्थे लिंग सरीरे', खेत्ते काल 'गति(ठिति) संजम निगासे' ।। जोगुवओग-कसाए, लेसा परिणाम 'बंधणे उदए। कम्मोदीरण उवसंपजण' सण्णा य आहारे ।। भव-आरिसे कालंतरे समुग्घाय- खेत्त फुसणा य। भावे परिणामे खलु, 'महानियंठाण अप्पबहू' ।। सावज्जगंथमुक्का, अम्भितरबाहिरेण गंथेण । एसा खलु निज्जुत्ती, महानियंठस्स सुत्तस्स ॥
महानियंठस्स निजुत्ती सम्मत्ता
४२२.
४२३. 'समुद्देण पालियम्मि'', निक्खेवों" चउक्कओ दुविह" दब्वे।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ४२४. समुद्दपालिआउं" य, वेदंतो भावतो य नायत्र्यो ।
तत्तो समुट्टियमिणं, समुद्दपालिज्जमज्झयणं ॥ ४२५.
चंपाएँ सत्यवाहो, नामेणं आसि पालिगो नाम । वीरवरस्स भगवतो, सो" सीसो खोणमोहस्स" ।।
- ----- १. तित्यलिंग सरीर (शां)।
७. समघाय (अ)। २. खित्ते (शां,य)।
८. महानिरगंयाण अप्पबई (शा), अप्पाबहयं ३. गह ठिति (शा), ठिति शम्द न रहने से छंद नियंठाणं (भ २५।२७८।३)। भंग नहीं होता।
९. पालियम्मी (ला), समुढे पालियाम्म य म २५१२७८१, ४१९-२१ तक की (अ), पालिमि अ (शां)। गाथाओं के लिए पूणिकार ने 'पण्णवण आय १७. दुन्यिहो (ला), दुविहो (अ) । रागे इत्यादि गाथात्रयसंग्रहीतानि' ऐसा ११. समुद्देण .(अ), पालिआऊ (शां)। उल्लेख किया है। संभव है ये गाथाएं १२. पासगो (ला)। भगवती सूत्र (२५५२७८/गा. १-३) मे १३. ४ (सा)। नियुक्तिकार ने उद्धृत की हों। ये तीनों १४, ४२५.४३६ तक की गाथाओं में समुद्रगाथाएं नियुक्ति का अंग बन गई है क्योंकि पाल की कथा है । पूर्णिकार ने इन गाथाओं ४१८ की गाथा में नियुक्तिकार में स्पष्ट का संकेत और व्याख्या न करके मात्र इतना उल्लेख किया है कि 'इमेहिं दारेहि सो उस्लेख किया है कि 'सूत्रोक्तमेवार्य यत्पुनः नेओ।'
नियुक्तिकारो नीति तथा टीकाकार ने भी ५. बंध वेदे य (म २०२७८२)।
इन गाथाओं के लिए 'वदन्नाह नियुक्ति६. उपसंपाषण (ला), वसंपजहण्ण (म)। कार:' का उल्लेख किया है।
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१७१
४३००
उत्तराभ्ययन नियुक्ति ४२६. अह अन्नया कयाई', पोएणं गणिम-धरिम-भरिएणं ।
तो नगरं संपत्तो, पिहुंडं नाम नामेणं ।। ४२७. ववहरमाणस्स तहि, पिहुंढे देइ वाणिओ धूयं ।
तं पि य पत्ति घेत्तूण, पस्थितो' सो सदेसस्स ।। ४२८. अह सा सत्याहसुया, समुद्दमज्झम्म पसवती पुत्त ।
गियदंसपरान्वंग, नापण 'समृइपालं ति' ।। खेमेणं संपत्तो, सो पालियसावगो पर नियय। धातीदसद्धपरिवुडो, अह वड्डति सो उदधिनामो।। बावरिकलाओ' य, सिक्खितो नीतिकोविओ जाहे।
तो जोवणसंपुन्नो', जातो पियदसणो अहियं ।। ४३१. अह तस्स पिया पत्ति, आणेती 'रूविणि त्ति' नामेणं ।
चट्ठिगुणोवेत, अमरवधूणं सरिसरूव ।। ४३२. अह रूविणीऍ सहिओ, कीलइ सो भवणपुंडरीम्मि ।
'दोगुंदगो व देवो, किंकरपरिवारितो निच्च ।। ४३३. अह अन्नया कयाई, ओलोयणसंठिओ'' सदेवीओ।
'बझं नीणिज्जत, पेच्छइ तो सो जणसएहि ॥ ४३४. अह भणति सन्निनाणी, भीतो संसारियाण दुक्खाणं ।
मीयाण" पावकम्माण, हा जहा पावगं इणमो ।। संबुद्धो सो भगव, संवेगमणुत्तरं च संपत्तो। आपुच्छिऊण जणए, निक्खंतो खाय-जस-कित्ती ।। फाऊण तवच्चरणं, बहुणि वासाणि सो धुतकिले सो । तं ठाणं संपत्तो, जं संपत्ता न सोयति ।।
___ समुहपालोयस्स निज्जुसी सम्भसा १. कयाई (अ).
९. दोगुदगुब्व (शो,अ)। २. निग्गओ (शा,अ)।
१०. बेव (छ)। ३. पालि त्ति (शा), पाल ति (अ)। ११. ज्यणदिडिओ (ला)। ४. नियब (अ)।
१२. दरभंती णिज्जत (ला), वज्झं जीणीजतं ५. दावतरि० (शां)।
पेच्छद तो सो जणवएहि (घाटीपा)। ६. जुम्वणमप्फुन्नो (शां)।
१३. भण्णति (ला)। ७. विणी य (अ)।
१४. नीयाणं (ला)। म. •णी (शा)।
१५. संपत्तो (ला)।
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१७२
४३७.
४३८
४३९.
४४०.
४४१.
४४२.
४४३.
४४४.
४४५.
रहनेमी निक्खेवो, 'उक्कओ दुविह' होइ दव्वम्मि | आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ||
जाण सरीरभविए, तब रित्ते व 'सो पुणो तिविहो । एगभविय बढाउय अभिमुहओ* नामगोते * य ।। रहने मिनामगांव, वेदतो' भावतो य" रहनेमी | तत्तो समुट्टियमिणं, रहनेभिज्जं ति अज्झयणं । सोरियपुरम्म नगरे, आसी राया समुद्दविजओ त्ति । तस्सासि अग्गमहिसी, सिव त्ति देवी अणोज्जंगी ॥ देसि पुत्ता चउरो, अरिनेमी तहेव रहनेमी । तइओ य सच्चनेमो, चउत्थओ होइ दलनेमी ॥ जो सो अरिनेमी, बावीसइमो अहेसि सो रहनेमि सच्चमी, एए पत्तेयबुद्धा
रहने मिस्स भगवतो, 'गिहत्थऍ चउर" हवंति वाससया । संवच्छर बउमत्थो, पंचसए केवली होंति" ॥ नववाससए वासाहिए उ सम्बाउगस्स नायव्वं । एसो 'चेव उ"" कालो, 'रायमतीए वि नायवो ॥ रहने मिज्जस्स नियुत्ती सम्मत्ता
१. दुबो ( अ ) |
२. चूर्ण में ४३७-३९ तक की गाथाओं के लिए 'रहनेमी निषखेव इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ '
निषखेवो गोतमम्मि चक्कओ दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो" ॥
- मात्र इतना ही संकेत है।
२. से भवे ( अ, ला) |
रहा ।
४. अभिमुद्दो ( अ ) ।
५. ० गोए ( अ ) ।
६. बेयं तो ( ) ।
उ ।।
७.
(ल) 1 ८. अणुज्जगी ( अ, शां), ४४०-४४ तक की गाथाओं का संक्षिप्त भावार्थ चूर्णि में है
नियुक्तिपंचक
किन्तु गाथा रूप में संकेत नहीं है। टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए 'सम्प्रति निर्मुक्तिरनुश्रियते' का उल्लेख किया है।
९.
अहेसि त्ति अभूत् ( भांटी प ४९७ ) ।
१०. त्थितं चउर (ला), गिहृत्य चउरो (अ) 1 ११. होइ (ला)
१२. उ चैव (शां) ।
१३. ० मईए उ ( शो ) ।
१४. ४४५-४७ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में 'निक्यो गोअमम्मी इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ' मात्र इतना उल्लेख है ।
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१७३
सत्सराध्ययन निर्मुक्ति ४४६. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो' तिविहो ।
एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य॥ ४४७. गोतमनामागोयं', वेदेतो भावगोयमो होति ।
एमेव य केसिस्स वि, निक्षेवो चउक्कओ होइ। ४४८. गोतमकेसीओ या, संवादसमुट्ठियं तु जम्हेयं ।
तो केसिगोयमिज्जं, अग्झयणं होइ नायव्यं ।। ४४९. सिक्खावए य लिंगे य, सत्तणं च पराजए ।
पासावगत्तणे चेब, तंतूद्धरणबंधणे ॥दार।। ४५०, अगणीणिव्यावणे५ चेव, तहा दुस्स निग्गहे ।
तहा पहपरिष्णा य, महासोतनिवारणे ।।दा।। संसारपारगमणे, तमस्स य विघायणे । ठाणोवसंपया चेव, एवं 'बारससू कमो दारं।।
केसिगोयमिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता
४५१.
.
निक्खेवो पचयणम्मि, चऽश्विहो 'दुविहो य होइ दबम्मि ! आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तठवतिरित्ते कुतित्थियादीसुं"। भावे दुवालसंगं, गणिपिडग होइ नायध्वं ।। मातम्मि उ" निक्खेवो, चउब्विहीं 'दुविहीं य' होइ दवम्मि। भागम-नोआगमतो, मोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तवतिरित्ते" य भायणे दव्यं । 'भावम्मि य'" समितीओ, मातं खलु पवयणं जत्थ ।।
४५४.
१. भवे (अ)। २. यह गाथा 'ला' प्रति में नहीं है। ३. छेद की दृष्टि से 'नामागोय' पाठ मिलता
5. अणम्मी (ला), पवयणे य (अ)। ९. x(ला)। १०. कुतिस्थिमाईसु (शां)। ११. ४ (अ)। १२. दुन्विहो (ला)।
रिला। १४. भावेणं (अ)।
४. •सणं (ब)। ५. छंद की दृष्टि से अग्गी पाठ होना चाहिए। ६. वि विधामणे (अ), य विघाडणे (ला)। ७. मारम्सुक्कमो (ला)।
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४५६.
नितिपंचक अट्ठसु वि' समितीसु य, दुवालसंग समोयरइ जम्हा । तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं ।।
पवयणमायाए निज्जुत्ती सम्मता'
४५७.
४५८.
४५९.
४६०.
निक्लेवो 'जण्णम्मि य, चउक्कओ दुविहो या होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तवतिरित्ते य माहणादीसु। तव-करोड ८i, भाई जणो मुणयन्वो ।। जयघोसा अणगारा, विजयघोसस्स जण्णकिच्चम्मि । तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं जण्णइज्जं ति।। वाणारसिनगरीए, दो विप्पा यासि कासवसगोत्ता। धण-कणग-विपुलकोसा, छक्कम्मरया चउब्वेया॥ दो वि य जमला भाउग, संपीया अन्नमन्नमणुरत्ता । जयघोस-विजयघोसा, आगमकुसला सदाररया ।। अह अन्नया कदाई", जयघोसो पहाइउं गतो गंगं । अह 'पेच्छति मंडुक्क'", सप्पेण तहिं गसिज्जत ॥ सप्योवि य कुररेणं, उक्खित्तो पाडिओ य भूमीए । सोवि य कुललो सप्पं, अक्कमिउं अच्छती" तत्थ ।। सप्पो वि 'कुललवसगो, मंडुक्क "५ खाइ चिंचयायंत" । सोवि य कुललो 'सप्पं, खायइ" चंडेहि गासेहिं ।।
४६१.
४६२.
४६३.
४६४.
१. (पू)।
'तत्रोपोद्धातनिर्युक्त्यनुगमान्तर्गत किञ्चिद२. ४(अ)।
भिधिस्मुराह' का उल्लेख किया है। ३. समिईओ सम्मत्ताओ (ला)।
१०. कयाह (अ)। ४. अण्णम्मी (प)।
११. पिच्छा मंडूक्क (ग)। ५. दुग्विहो (अ)।
१२. गलिज्जतं (अ)। ६. X(ला)।
१३. कुललेणं (शा)। ७. णाईसु (या)।
१४. अच्छए (शां)। ८. किच्चं पि (अ)।
१५. ०लवसगमो मंढक्कं (शां)। ९. ४५९-४७६ तक की गाथाओं के लिए पूणि १६. चिचियाइयं (गो), चिचियाइत (अ)।
में 'अध्ययननियुक्तिगाथा जयघोसा इत्यादि' १७. खाश्य सप्पं (शां)। मात्र इतना ही उल्लेख है। टीकाकार ने
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१७५
४६६.
उत्तराळ्ययन निर्यात
तं अन्नमन्नघाय, जयघोसो पासिऊण पडिबुद्धो। गंगाओ उत्तरिउ, समणाणं आगतो वसधि' ॥ सो समणो पवईओ, निग्गयो सव्वगंथउम्मुक्को।
वोसरिऊण असारे, केसेहिं सम परिकिलेसो।। ४६७. पंचमहन्वयजुत्तो, पंचिदियसंवडो गुणमिद्धो।
घडणजयणप्पहाणो, जाओ समणो समियपावो ।। ४६८. अह एगराइयाए, पडिमाए सो मुणी विहरमाणो।
वसुहं' दूइज्जती', पत्तो वाणारसि नगार ।। ४६९. सो उज्जाणनिसनो, मासक्खमणेण खेदितसरीरो।
भिक्खट्ट बंभणिज्जे, उट्टिओ जपणवारम्मि ।। अह भणई जयघोस, कोस तुम आगतो? इह भंते!।
न हु ते दाहामि इतो', जायाहि हु अन्नतो भिक्खं ।। ४७१. सो एवं पडिसिद्धो, जग्णवाडम्मि य जायगेण तहि ।
परमत्यदिट्ठसारो, नेव य तुट्ठो न वि य रुट्ठो।। अह भणई अणगारो, जं जायग! आउसो निसामेहि ।
यय-चरिय-भिक्खचरिया, दिट्ठा साहूण चरणम्मि ।। ४७३. रज्जाणि उ अवहाया, रायरिसी अणुचरति भिक्खाए।
समणस्स उ मुत्तस्सा", भिक्खा चरणं च करणं च ।। ४७४. संजाणंतो भणती, जयघोसं जायगो विजयधोसो ।
अस्थि उ पभूतमन्नं, भुंजउ भगवं! पगामाए । भिक्खेण न मे कज्ज, मज्झ" करणं तु धम्मचरणेणं । पडिवज्ज धम्मचरणं, मा संसारम्मि हिहिहिसि ।।
४७०.
४७५.
१. वसहि (अशां)। २. परिपकेसे (शां)। ३. बसहं (अ)। ४. ज्जत (अ)। ५. जायगेणं (ब)। ६. इमं (अ), इओ (शां)।
७. जायाधि (ला)। ८. निसामेह (गा)। ९. रायसिरि (शा), रायरिसिं (अ)। १०. मुक्कस्सा (गा), अकारोऽलाक्षणिकः (माटीप
५३२)। ११. मम (शा)।
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________________
नियुक्तिपंचक
४७६.
सो समणो पवइओ, धम्म सोऊण तस्स समणस्स । जयघोस-विजयघोसा, सिद्धिगया खीणसंसारा॥
जण्णइज्जस्स निजुत्ती सम्मत्ता
४७७.
निक्खेयो सामम्मि य, चम्विहो 'दुविहो य' होइ दवम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ४७८. जाणगसरीरभविए, तब्बतिरित्ते य सरकरादीसु।
भावम्मि दसविहं खलु, इच्छामिच्छादियं होति ।। ४७८।१. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य निसोहिया ।
आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा' ।। ४७८।२. उपसंपया य काले, सामायारी भवे दविहा उ ।
एएसि तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वोच्छ । ४७९. आयारे निवखेवो, चउक्कओ दुविहो य होइ दम्यम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तब्बतिरित्ते य नमणमादीसु' । भावम्मि दसविधाए, सामायारीय आयरणा ॥ इच्छादिसाममेसू. आयरणं वणियं तु जम्हेत्थ । सम्हा सामायारी, अभयणं होइ नायश्वं ।।
सामायारीनिज्जुत्ती सम्मत्ता
४८०.
४८१.
१. दुविही (शा)।
लिखते। इसके अतिरिक्त ४७८/२ में 'पत्तेय २. कोष्ठकवर्ती दोनों गाथाओं का संकेत चुणि परूवणं घोच्छं' के उल्लेख से भी स्पष्ट है कि
में नहीं मिलता है। पत्तिकार शान्त्याचार्य ये गाथाएं उत्तराध्ययन सूत्र से बाद में (प. ५३२) तथा नेमिचंद्र (प. ३१०) ने इनको जोड़ी गयी हैं क्योंकि उत्तराध्ययन में दसों नियुक्तिकृद् माना है । ये दोनों गाथाएं आव- सामाचारियों का विस्तृत वर्णन है। यहां तो श्यकनियुक्ति ६६६,६६७ की हैं। ऐसा संभव केवल नामोहलेख मात्र है। लगता है कि प्रसंगवश लिपिकारों या आचार्यों ३. आनि ६६६, अनुद्वा २३९।१ । द्वारा ये गाथाएं बाद में जोड़ दी गई हैं। ४. आवनि ६६७, अनुवा २३९।२। इसका प्रबल प्रमाण है कि ४७८ की गाथा ५. ४०९-८१ तक की तीन गाथायों के लिए के अंतिम चरण में 'इच्छामिच्छादियं होति' वृणि में 'बायारे निक्खेवो इत्यादिगाथात्रय का उल्लेख है। मति नियुक्तिकार वसों का मात्र इतना उल्लेख है। नामोल्लेख करते तो यह चरण अलग से नहीं ६. गाई (शा)।
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________________
T
उत्तराध्ययननिर्मुक्ति
४८२.
४८३.
४६४.
४८५.
४८६.
४८७.
४८५.
४८९.
४९०.
निक्खेयो खलुकम्मि' चविहो 'दुविहाँ य' होइ दव्वम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ||
जाण सरीरभवि तब्बतिरित बइल्लमादीसु* । पडिलोमो सव्वत्थेसु, भावतो होइ उ खलुंको || अवदाली उत्तसओ, जोत जुगभंज भजे । उप्पध - विप्पहगामी, एय खलुका भवे गोणा ॥
जं
किर दव्वं खुज्जं कषकडगुरुपं तहा दुरवणामं । तं द खलुंके, वक - कुडिल - वेदमाइद्धं ॥
t
8
'सुचिरं पिवंकुडाई', होहिति अणुज्जइज्जमाणाई । करमंदिदा रुगाई, 'गयं कुसाई च बेटा" ।। बंगराचस्वभाषा, जलूपिच्छुगाथ जे होंति । ते किर होंति" खलुंका, तिक्खम्मिउ-चंड -मविया || जे किर गुरुपडिणीया, सबला असमाहिकारगा पावा | 'अहिगरणकारणं वा जिणवयणे ते फिर खलंका" | पिसुणा परोवतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवंति । " निव्वय - निस्सील - सढा १५ जिगवणे ते किर खलुंका ।। चइकणं पंडितेण पुरिसेणं । उज्जुसभावम्मि" भावेणं ॥ खज्जिसनित्ती सम्मत्ता
तम्हा खलुंकभावं, कायव्वा होइ मती
१. खलुकिज्जम्मि (चू) । २. दुबो (ला) |
३. माई ( अ, शां) |
४. स ( अ ) |
५. उत्तमतो (ला) | ६. एए (ला) ।
७. दुरोणामं (ला) |
म सुचिरम्मि कडाई (ला) |
९. गयंकुसा इव बिटाई (शां) ।
१०. जयक विच्छ्र० (शां) |
११. X (ला) |
१२. ०पडणीया ( अ, ला ) ।
१७७
१३. ०कारगा (शां ) ।
१४. ४८८ ९० तक की गाथाओं के लिए चूणि में 'जे किर गुरुपडिणीया इत्यादिगामाश्रयं' मात्र इतना ही उल्लेख है ।
१५. निव्विणिज्जा य सढा (शां), णिव्वया मिस्सील० (ला), पाठान्तरतो निर्गता वचनीयाद् — उपदेश वाक्यात्मकाद् मे से निर्वचनीया:, चः समुच्चये भिन्नक्रमाच ततः शठाश्च' मायाविनः पठते च - णिव्वया णिस्सील सढ' ति (शांटीप ५४९ ) ।
१६. उज्जुयभा० (म ) |
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४९१.
४९२.
४९३.
४९४.
नियुक्तिपरक निक्लेवो मोक्खम्मि य, चउविहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभदिए, तव्यतिरित्ते य नियलमादीस्' । अट्ठविकम्ममुक्को, नायव्वो भावतो मोक्षो ।। निक्खेवो मग्गम्मि वि, चउम्विहो दुविहो य होइ' दम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो ये सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्यतिरित्ते य जल-थलादीसु । भावम्मि नाण-दसण-तव-चरणगुणा मुणेयचा ।। निक्खेवो उ गतीए, चउक्कओ दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। आणगसरीरभविए, तव्यतिरित्ते य पोग्गलादीसु । भावे पंचविहो खलु, मोक्खगतीए अहीगारो ।। मोक्खो मग्गो य गती, वणिज्जइ जम्ह एत्थ अज्झयणे । तं एवं अज्झयणं, नायब्वं मोक्खमग्गगती ।।
मोक्खमम्गगईए निजुत्ती सम्मता
४९५.
४९६.
४९७.
४९८.
४९९.
आयाणपदेणेदं, सम्मत्तपरक्कम ति अझयणं । गोण्णं तु अप्पमायं, एगे पुण वीयरागस्यं ।। निक्खेवो अप्पमाए", चउम्बिहो दुविहों य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिथिहो ।। जाणगसरीरभविए, तन्वतिरित्ते अमित्तमादीस् । भावे 'अण्णाण असंवरादीस' होति" नायवो॥
५००.
१. छमाईसुं (गा, अ)।
५, इत्य (गां)। २. ४(अ)।
६. रुपएणेयं (शां)। ४९५-९७ तक की गाथाओं के लिए चणि में ७. अपमाए (शां)। "निखवो उ गतीए इत्यादि गाथात्रयं' मात्र ८. जाणमभवियसरीरे (शां)। द्वतमा उल्लेख है।
९. अणाणमसंव० (ला)। ४. अहि. (ला)।
१०. होति (अ)
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१७९
उत्तराध्ययन नियुक्ति ५०१. निक्लेवो य' सुयम्मी, चउक्कओ दुविहो य होइ दवम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। ५०२. जाणगसरीरभविए, तव्यतिरित्ते य से. उ पंचविधे ।
'अंडय-बोंडय-बालय', वागय तह कीडए चेव ।। ५०३.
भावसुयं पुण दुविहं, सम्मसुर्य चेव होइ मिच्छसुयं ।
अधिगारो' सम्मसुए, इहमज्झयाम्म नायव्यो ।। ५०४. सम्मत्तमप्पमादो, 'इह अज्झयणम्मि' पण्णितो जेण । तम्हेतं अज्झयणं, नायव्वं अप्पमादसुयं ।।
सम्मत्तपरक्कमस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता
निक्खेवो उ तवम्मी', चउम्विहो दुविहो या होइ वचम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तन्वतिरित्ते य पंच तवमादी । भावम्मि होइ दुविहो, बज्झो अभितरो चेव ।। मग्गगतीणं दोण्ह वि, पुट्टिो चउक्कनिक्लेवो । पगतं तु भावमग्गे, सिद्धिगतीए उ नायव ।। दुबिह तवोमग्गगती, वणिज्जइ जम्ह एत्य अज्झयणे । तम्हा एयज्झयणं, तवमग्गगइ ति नायव ।।
तयमागगईए निज्जुत्ती सम्मत्ता
५०८.
१. उ (ला)। २. पश्चिहो (अ)। ३. सो (शा)। ४. वालय-अंग्य-बोंडय (ब), पोंडय० (ला)। ५. मिन्छाइयं (ला)। ६. अहियारो (वा)। ७. काययो (ला)। ८. इहमज्झ• (शां)।
१. सबम्मि (ग)। १०.x(ला)1 ११. ५०५-५० तक की गाथाओं की व्याख्यान
देकर चूणिकार ने मात्र इतना ही संकेत क्रिया है कि 'निक्खेयो उ तवम्मीत्यादि माथा
चतुष्टयं । १२. भवे (ला)। १३. .म्यो (शो,अ)।
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१८०
नियुक्तिमा ५०९. निक्खेवो चरणम्मी', चउन्विहो दुविहो य होइ दवम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तन्वतिरित्ते गति-भिक्खमादीसु ।
आचरणे आचरणं, भावे चरणं तु नायव्वं ।। ५११. निमखेवो उ विहीए, चम्विहो दुविहो य होइ दम्वम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरिते य इंदियत्येसु । भावविही पुण दुविहा, संजमजोगो तवो चैव ॥ पगयं तु भावचरणे, भावविहीए य होइ नायव्वं । चइऊण अचरणविहि, चरणविहीए उ जइयव्वं ।।
चरणविहीए निजुती सम्मत्ता
५१
३.
५१४.
५१६.
निक्खेवो उपमाए, चउचिहो दुविहो या होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य मज्जमादीसु । निद्दा-विकह-कसाए, विसएसु भावतो पमदो" ॥ नाम ठवणा दविए, खेत्तद्वा उड" उवरती वसधी | संजम-पग्गह जोहे, अचल-गणण-संधणा-भावे" ।। भावप्पमायपगर्य", संखाजुत्ते य भावठाणम्मि । चइऊणं ति५ पमायं, जइयव्वं अप्पमादम्मि ।
१. परणम्मि (शां, चू); परमि (ला) की व्याख्या व संकेत न देकर मात्र निवसेवो २. दुठिवहो (ला)।
उपमाते इत्यादि गाथा अष्ट' इतना उल्लेख ३. चणि में ५०९-५१३ तक की गाथाओं के किया है।
लिए पहली गाथा का संकेत देकर "इत्यादि १०. छंद की दष्टि से पमादो के स्थान पर पमबो गाथा पंच" मात्र इतना ही निर्देश है।
पाठ स्वीकृत किया है। ४. गतिरुषख• (ला)।
११. x(ला)। ५. भावाचरणं (शां)।
१२. वसही (अ,शां)। ६, x (ला)।
१३. दशनि ३ । ७. अ (शा)।
१४, प्पगओ (अ)। ८. ४(ला)।
१५. तु (अ), च (गां)। ९. पूर्णिकार ने ५१४ से ५२१ तक की गाथाओं
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उत्तराध्यमन नियुक्ति
५१५. वाससहस्सं उग्गं, तवमाइकरस्स आयरंतस्स ।
जो किर पमायकालो, आहोरत्त' तु संकलियं ।। ५१९. बारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स बद्धमाणस्स ।
जो किर पमायकालो, अंतमुहुत्त त संकलियं ।। ५२०. जेसि तु पमाएणं, गच्छइ कालो निरस्थो धम्मे ।
ते संसारमणंत, हिंडंति पमाददोसेणं ।। ५२१. तम्हा खलुप्पमायं, चइऊणं पंडिएण पुरिसेण । दसण-नाण-चरित्ते, कायन्वो अप्पमादो उ ।।
पमायट्ठाणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता
५२२.
५२३.
५२४.
कम्मम्मि य निक्लेवो, चविहो दविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभवियं, तव्यतिरित्त च तं भवे दुविहं । कार मोबा , कम्ममा य अणुदओ भणितो ।। नोकम्मदव्वकम्म, नायव्वं लेप्पकम्ममादीयं । भावे उदओ भणितो, कम्मट्टविहस्स नायन्वो ।। निक्लेवो पगडीए, चउस्विहो दुविहो य होइ दबम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिधिहो ।। जाणगभवियसरीरा, तव्यतिरित्ता 'य सा पुणो दुविहा' । कम्मे नोकम्मे या, कम्मम्मि य अणुदओ भणितो ।। नोकम्मे दवाई, 'महणप्पाउग्गमुक्कगाईच | भावे उदओ भणितो, मूलपगडि उत्तराणं च ।।
५२५.
५२६.
५२७.
१. अंतोमुहुर्म (अ)।
हैं। आरवी गाथा अन्वेषणीय है। २. संतोमूहुत्तं (ला)।
५. लेप० (ला), लेब० (अ)। ३. प (अ)।
६. प होइ दुविहो उ (अ)। ४. ५२२-२८ तक की गाथाओं का चूणि में ७. (ला)।
गाथा रूप में संकेत नहीं है किन्तु गाथाओं की ८, गहणपाउरग (शां), गहणं पाओगमुक्कगायं संक्षिप्त व्याख्या मिलती है तथा 'कम्मम्मि (अ)। निक्खे वो इत्यादि गाथा अष्ट' का उल्लेख है। ९. मूलप्पगडी (ला), मूलप्पडि (अ)। किन्तु इस अध्ययन की मात्र सात ही गाथाएं
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१८२
नियुक्तिपचक __५२८. 'पगति-द्विति'' अणुभागो, पदेसकम्मं च सुट्ठ नाऊणं । एतेसि संवरे खलु, 'खवणे उ सयावि' जतितव्वं ।।
कम्मप्पयडीए निज्जुत्ती सम्मत्ता
५२९.
लेसाणं निक्लेवो, चउक्कयो दुविह होइ नायव्यो ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो" ।। ५३०. जाणगसरीरभविया, तब्बतिरित्ता स सा पुणो तिविहा ।
कम्मे नोकम्मे या, नोकम्मे होति दुदिहा उ ।। जीवाणमजोवाण य, दुविहा जीवाण होइ नायब्वा । भवमभवसिद्धियाणं, दुविहाण वि होइ सत्तविहा ।। अजीवकम्म नोदब्बलेसा, सा दसविहा तु नायव्वा । चंदाण य सूराण य, गह गण-नवखस-ताराण" ।। आभरणच्छायणाऽऽदसगाण, मणि-कागिणीण जा लेसा ।
अज्जीवदवलेसा, नायन्वा दसविहा एसा ।। ५३४. जादवकम्मलेसा, सा नियमा छविहा उ नायवा ।
किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्का य ।। ५३५. दुबिहा उ० भावलेसा, विसुद्धलेसा तहेव अविसुद्धा ।
दुविहा विसुद्धलेसा, उवसमख इया कसायाणं ॥ ५३६. अविसुद्धभावलेसा, सा दुविहा नियमसो उ नायध्वा ।
पेज्जम्मि य दोसम्मि य, अहिगारो कम्मलेसाए । ५३७. नोकम्मदवलेसा, पओगसा वीससा उ नायट्वा ।
भावे उदओ भणितो, छह लेसाण जीवेसु ।।
१. पगइठिय (शां), पयतिट्टिति (च), पगिइ- गाथाओं (गा. ५३९,५४०) का वहां कोई . ठिइ (अ)।
उल्लेख नहीं है। २. खमणे वि राया तु (अ)।
५. सरीरभविए (ला.) ३. दश्वम्मि (ला)।
६. मस्वालाक्षणिकत्वात् (शांटीप६४९) । ४. ३४३ अध्ययन की १२ नियुक्तिगाथाएं ७. ताराओ (अ)।
(५२९-४०) हैं। चूर्णिकार ने 'लेसाण ८, कम्मदव. (अ.ला)। निक्लेवो इत्यादि दश' इतना उल्लेख ९. ४(अ)। किया है तथा कुछ गाथाओं का १०. य (अला) । संक्षिप्त भावार्थ भी दिया है। अतिम दो ११. य (ला)।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
१५३
५३:. अन तिरेयो, चामलो 'दुविह होइ नायब्दो' ।
आगम-नोबागमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभवियं, तव्यतिरित्तं च पोत्थगादीसू ।
अज्झप्पस्साणयणं, नायब्वं भावमझयणं ।। ५४०. एयासि ले साणं, नाऊण सुभासुभं तु परिणामं । घइऊण अप्पसत्थं, पसत्थलेसासु जतितन्वं ।।
लेसम्मयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता
५४१.
५४२.
अणगारे निवखेवो, घडविहो 'दुविहीं य५ होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो' ।। जाणगसरीरभविए तवतिरित्ते य निहगादीसु । भावे सम्मद्दिट्टी, अगारवासा विणिम्मुक्को ॥ मग्गगईणं दोण्ह वि, पुहितो चउक्कनिषखेवो । अहिगारों भावमग्गे, सिद्धिगईए उ नायवो' ।।
अणगारमग्गगईए निज्जुत्ती सम्मत्ता
५४३.
निक्खेवो 'जीवम्मि य१०, चउन्विहो दुविहो य होइ दवम्मि ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ५४५. जाणगसरीरभवियं, तव्यतिरित्तं ध" जीवदग्वं तु ।
भावम्मि दसविहो खलु, परिणामो जीवदध्वस्स || ५४६. निक्लेवो 'उ अजीवे', चउनिहो 'दविहो य होइ दत्वम्मि' ।
आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।
१. दुविहो होह दवम्मि (ला)।
चरण मिलता है। २. भवियसरीरं (पा)।
८. य (ला)। ३. पुत्थगाइसु (अ)।
९. अप्रति में ५४३,५४४ ये दोनों गाथाएं नहीं ४. एएसि (ला)। ५. दुम्बिहो (अ)।
१०. जीवम्मि (ला)। ६. ५४१.४३ तक की गाथाओं के लिए चणि में ११. अ (शा) ।
'अणगारे निस्खेवो इत्यादि गाथात्रयं'–मात्र १२. अप्रति में गाथा का केवल उत्तरार्ध है। इतना ही संकेत है।
१३. अजीवम्मि (शां,अ)। ७. विणिमुक्को (ला)। अप्रति में केवल एक १४. दुविह होइ नायव्यो (शां)।
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१८४
५४७.
५४८.
५४९.
५५०.
५५१.
५५२.
५५३.
५५४.
जाणगसरीरभविए तत्वतिरिते अजीवदव्वम्मि' । भावम्मि दर्ताविहो खलु, परिणामी अर्जीवदन्यस्त' ।। निक्खेो विभत्ता, चविहो 'दुविह होइ'' दव्यम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो" ।। जाणगसरीरभविया तव्यतिरित्ताय सा भवे दुविधा | जोवाणमजीवाण य', जीवविभत्तो तहि दुविहा || सिद्धाणसद्धाण य, अज्जीवाणं" तु होइ 'दुविहा उ" | रूवीण मरूवीण य, विभासियत्वा जहासुत्ते ॥
भावम्मि विभती खलु, नायग्वा छविहम्भि भावम्मि । महिगारो एत्थं पुण दत्वविभत्तीएँ अज्झयणे ॥ जीवाजीव विभत्तोए निज्जुप्ती सम्मला
जे किर भवसिद्धीया, परित्तसंसारिया य भविया य । ते फिर पद्धति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्भयणा ॥ जे 'होंति अभवसिद्धा", गंथियसत्ता" अनंतसंसारा । ते संकिलिटुकम्मार 'अभविय ते उत्तरज्झाए" ।। तम्हा
जिणपण्णत्ते, अम्झाएँ जहाजोगं
अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते | 'गुरुप्पसाया अहिज्जंति" ।। उत्तरायणस्स निज्जुती सम्मत्ता
१. अजीवदवं तु ( शt ) । २. ०दव्वम्मि ( अ ) । ३. दुविहो य होइ ( अ ) । ४. ५४६-५४ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि
में 'निनखेवो विभत्ती इत्यादि गाथा सप्त' का उल्लेख किया है। इन सात गाथाओं के अन्तर्गत अंतिम गाथा 'तम्हा जिणपण्णत्ते भी आ जाती है किन्तु चूर्णिकार ने इसे उन गाथा भी माना है ।
५. से (शां)।
६. व ( अ ) ।
निर्मुक्तिपंचक
७. अजीवाणं (ला) 1 ८.
दवाओ (ला) ।
९. उत्तरझाए (ला), ०ज्यणे (शां) । १०. हृति अभवसिखीया (यां), ०सिद्धी (ला)। ११. गठिय० (ला) । १२. संकिलट्ठ ० ( ला ) |
१३. अभविया उत्त० (ला), भब्वा वि ते अनंते (शांटीपा प ७१३) ।
१४. जहजोग्गं (चू) ।
१५. साया अहिज्ज्जिा (शां), पसाया अहिज्जेज्जा ( अ ) |
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
हिन्दी अनुवाद
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पहला अध्ययन विनयश्रुत
१. उत्तर शब्द के १५ निक्षेप है१. नाम उत्तर ६. सापक्षेत्र उत्तर
११. प्रधान उत्तर २. स्थापना उत्तर ७. प्रज्ञापक उत्तर
१२. ज्ञान उत्तर ३. द्रव्य उसर ८. प्रति उत्तर
१३. क्रम उत्तर ४. क्षेत्र उत्तर ९. काल उत्तर
१४. गणना उत्तर ५. दिशा उत्तर १०, संचय उत्तर
१५. भाव उत्तर । २. प्रत्येक जघन्य वस्तु 'सोत्तर'-उत्तर सहित होती है और उत्कृष्ट वस्तु 'अनुत्तर'उत्तर रहित होती है । शेष मध्यम वस्तु 'सोत्तर-अनुत्तर' दोनों होती हैं ।
३. प्रस्तुत' प्रसंग में क्रम-उत्तर का प्रसंग है । ये उत्तर-अध्ययन (उत्तराध्ययन) आचारांग सुत्र के उत्तरकाल–पश्चात् पढ़े जाते थे इसलिए ये अध्ययन 'उत्तर' शब्द से वाच्य हुए हैं ।
४. ये अध्ययन दृष्टिवाद आदि अंगों से उत्पन्न हैं, जिनभाषित हैं, प्रत्येकबुद्ध मुनियों तथा परस्पर संवादों से समुत्थित हैं । इनमें बन्धन और बन्धन-मुक्ति का विवेक है। ये सारे छत्तीस उत्तराध्ययन हैं।
५. अध्ययन शब्द के पार निक्षेप है-नाम अध्ययन, स्थापना अध्ययन, द्रव्य अध्ययन तथा भाव अध्ययन । इसी प्रकार अक्षीण, आय और क्षपणा के भी ये चार-चार निक्षेप होते हैं।
६. अध्यात्म का आनयन अर्थात् आत्मा का अध्ययन । उपचित कर्मों का अपचय तथा नए कर्मों का अनुपचय-यह अध्ययन का प्रयोजन है ।
७. जिससे जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है, ज्ञान आदि की अधिक प्राप्ति होती है, मुक्ति की शीघ्र साधना की जाती है, वह अध्ययन है।
८. वैसे एक दीपक से सौ दीपक जलाए जाते है और वह दीपक भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं जो स्वयं को और दूसरों को प्रकाशित करते हैं ।
९. भाव अध्ययन प्रशस्त और द्रव्य अध्ययन अप्रशस्त होता है। जिरासे झान आदि की प्राप्ति होती है, वह प्रशस्त और जिससे क्रोध आदि को जागृति हो, वह अप्रशस्त है । आय, आगम, लाभ-ये एकार्थक हैं।
१०, वस्त्र की पर्यस्तिका, उत्पिट्टना और उत्पीड़ना-ये द्रव्य क्षपणा हैं। ये तीनों ही क्रमशः अपथ्य, अपध्यलर तया अपथ्यतम हैं।
११. शुभ योगों के द्वारा जो बंधे हुए चिरन्तन आठ कमरजों को विनष्ट करता है, यह परम्परा से भावक्षपण है। इस भाव अध्ययन को आगे से आगे जानना चाहिए।
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नियुक्तिपंचक १२. श्रुतस्कंध शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। अब मैं अध्ययनों के नाम तथा उनका अधिकार बताऊंगा।
१३-१७. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं। उनके नाम क्रमशः ये हैं
(१) विनयश्रुत (१३) चित्रसंभूत (२५) मशीय (२) परीषह (१४) इषुकारीय
(२६) सामाचारी (३) चतुरंगीय
(१५) सभिक्षु (२७) खलुकीय (४) असंस्कृत
(१६) समाधि-स्थान (२८) मोक्षगति अकाममरण (१७) पापश्रमणीय
(२९) अप्रमाद (६) निर्ग्रन्थीय (१८) संयतीय
(३०) तप (७) और
(१९) मृगचारिका (३१) धरण (८) कापिलीय (२०) निर्ग्रन्थता
(३२) प्रमादस्थान (९) नमिप्राज्या
(२१) समुद्रपालीम (३३) कर्मप्रकृति (१०) द्रुमपत्रक
(२२) रथमेमिक (३४) लेण्या (११) बहुश्रुत पूज्य (२३) केशिगौतमीय
(३५) अनगारमार्ग (१२) हरिकेशीय (२४) समिति
(३६) जीवाजीवविभक्ति । १५-२६, छत्तीस अध्ययनों के अधिकार-विषय इस प्रकार है(१) विनय (१३) निदान
(२५) ब्रह्मचर्य के गुण (२) परीषह (१४) अनिदान
(२६) सामाचारी ) दुर्लभ अंग (१५) भिक्षुगुण
(२७) अशठता ) प्रमाद-अप्रमाद (१६) ब्रह्मचर्य गुप्सि (२८) मोक्षगति (५) मरण-विभक्ति (१७) पाप-वर्जन
(२९) आवश्यक अप्रमाद (१) विद्या-चरण (१०) भोग ऋद्धि का परित्याग (३०) तप (७) रसगृद्धि का परित्याग (१९) अपरिकर्म
(३१) चारित्र () अलाभ (२०) अनाथता
(३२) प्रमादस्पान (९) निष्कपता (२१) विविक्तचर्या (३३) कर्म (१०) अनुशासन की उपमा (२२) स्थिरचरण
(३४) लेश्या (११) पूजा (२३) धर्म
(३५) भिक्षुगुण (१२) तपःऋद्धि (२४) समितियां
(३६) जीव-अजीव २७. उत्तराध्ययनों के समुदयार्थ का संक्षोप में यह वर्णन है। यहां मैं आगे एक-एक अध्ययन का प्रतिपादन करूंगा।
२८. उनमें पहला अध्ययन है—विनयश्रुत। उसका उपक्रम आदि द्वारों से प्ररूपण करना पाहिए । प्रस्तुत अध्ययन में विनय का अधिकार है, प्रसंग है।
२८१. (निक्षेप तीन प्रकार का है--ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न) ओधनिष्पन्न का अर्थ है--सामान्य श्रत । उसके चार प्रकार हैं-अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
१८१ २८१२. श्रुत (अनुयोगद्वार सूत्र) के अनुसार अध्ययन के नाम, स्थापना आदि चार भेदों का वर्णन करके अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा-इन चारों से विनयश्रुत को सम्बन्ध-योजना करनी चाहिए।
२५॥३. जिससे आत्मा में शुभ की अत्यधिक प्राप्ति होती है, अध्यात्म का आनयन तथा संबोध, संयम और मोक्ष का अत्यधिक लाभ होता है, वह अध्ययन है।
२८१४, अव्यवच्छित्ति मय अर्थात् द्रव्यास्तिकनय के अनुसार दीयमान अध्यात्म अलोक की भांति अक्षीण है । इससे ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है तथा पाप-कर्मों का क्षय होता है।
२९. विनय का पहले वर्णन किया जा चुका है । श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं। द्रव्यश्रुत है-श्रुत का ग्रहण और श्रृत का निलवन करना और भावश्रुत है-श्रुत में उपयुक्त तन्मय ।
३०. संयोग शब्द के छह मिश्रण हैं - नाम, स्थापना, इन्य क्षेत्र काल और भाव ! द्रव्य संयोग दो प्रकार का होता है-संयुक्तकसंयोग तथा इतरेतरसंयोग ।।
३१. संयुक्तकसंयोग सचिस्त, अचित्त तथा मिन हव्यों का होता है। सचित्त द्रव्य जैसेदम आदि । अचित्त द्रव्य जैसे-अणु आदि । मिथ द्रव्य जैसे स्वर्ण आदि तथा कर्मसंतति उपलक्षित जीव ।
३२. सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग-द्रुम आदि मूल, कंद, स्कन्ध, त्वक, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज' से संयुक्त होता है ।
३३. एक रस, एक वर्ण, एक गंध तथा दो स्पर्श-यह परमाणु का लक्षण है । वे द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में संयुक्त होते हैं । यह अचित्तसंयुक्तकसंयोग है।
३४. मिश्रसंयुक्तद्रव्यसंमोग-जैसे स्वर्ण आदि धातुएं स्वभाव से ही संयोग-संयुक्त होती हैं। इसी प्रकार जीव कर्म-संतति से अनादि संयुक्तक है।
३५. इतरेतरसंयोग का अर्थ है-परस्पर संयोग । परमाणुओं और प्रदेशों का इतरेतरसंयोग होता है । यह दो प्रकार का है—अभिप्रेत तथा अनभिप्रेत । अभिलाप है-बाधक शब्द का सम्बन्ध ।
३६. परमाणों में दो प्रकार का इतरेतरसंयोग होता है-संस्थान से सम्बन्धित तथा स्कन्ध से सम्बन्धित । संस्थान विषयक संयोग के पांच प्रकार है तथा स्कन्ध विषयक संयोग दो प्रकार का है।
३७. दो या अधिक परमाणु पुद्गल एकत्रित होकर स्कन्ध बनते हैं। उनका संस्थान अनित्थंस्थ होता है।
३८. परिमण्डल, वृत्त, व्यन, चतुरन और आयत-इन पांचों संस्थानों में प्रथम परिमंडल को छोड़कर चारों सस्थान धन और प्रतर के द्वारा दो-दो भागों में बंटते हैं-ओजःप्रदेशघनवृत्त और युग्मप्रदेश धनवृत्त । ओजःप्रदेश प्रतरवृत्त और युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त । इसी प्रकार त्यस आदि के भी दो-दो भेद होते हैं।
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नियुक्तिपंचक
३९-४१. परिमंडल आदि संस्थान पचाय और कट के दो-दो प्रकार के है। उत्कृष्टतः असंख्य प्रदेशावगाढ़ बाले ही होते हैं। जघन्यत: वृत्तसंस्थान का ओजःप्रवेशपसरवृत्त पांच प्रदेशावगाढ का होता है । युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त १२ प्रदेशावगाह का होता है। ओजःप्रदेशपनवृत्त ७ प्रदेशावगाह का होता है । युग्मप्रदेश पनवृत्त ३२ प्रदेशावगाढ़ का होता है। इसी तरह व्यस संस्थान के क्रमश ३, ६, ३५ और ४ प्रदेशावगाढ हैं। चतस्र संस्थान के क्रमशः ९,४,२७ और ८ प्रदेशावमाह है। आयतओजःप्रदेश श्रेण्यायत संस्थान के ३,२, १५ और ६ प्रदेशावगाह है। आयप्त संस्थान के ओज:प्रदेश घनायत के क्रमशः ४५.१२ और ६ प्रदेणावगाद हैं। परिमंडल संस्थान के २० और ४० प्रदेशों का अवगा है।'
४१. स्निग्ध परमाणुओं का स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ अर्थात् सदृश परमाणुओं का एकीभाव तब होता है, जब वे दो गुण अधिक अथवा इससे अधिक गुण वाले हों।
स्निग्ध परमाणुओं का रुक्ष परमाणुओं के साथ अथवा रूक्ष परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ अर्थात् विसदृश परमाणुओं का एकीभाव तब होता है, जब वे अजघन्य गुण वाले होते है, फिर चाहे वे विषम हों या सम ।
४२. धर्मास्तिकाय आदि पांचों के प्रदेशों का जो संयोग है, वह इतरेतरसंयोग है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-इन तीनों का संयोग अनादि है और शेष दो-जीव और पुद्गल का संयोग आदि होता है।
४३. शन्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श आदि पांच विषयों के साथ अभिप्रेत और अनभिप्रेत संयोग होता है । अभिप्रेत अनुकूल है और अनभिप्रेत प्रतिलोम है ।
४४. समस्त औषध द्रव्यों की संयुति, गन्ध-द्रव्यों की संयुति, भोजन विधि अर्थात् भोजन के विभिन्न भेद, राग-विधि, गीत-वादित्र विधि- ये सारे अनुलोम-अभिप्रेत संयोग हैं।
४५, अभिलाप संयोग तीन प्रकार का है-१. शब्द का अर्थ के साथ । (द्विक संयोग) २. अर्थ का अर्थ के साथ । ३. अक्षर का अक्षर के साथ। शब्द का अर्थ के साथ जो संयोग होता है, वह अव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है। द्रव्य संयोग-घट शब्द का घट पदार्थ के साथ वाच्यवाचक संबंध । क्षेत्र संयोग-शब्द का आकाश के साथ अचगाह संबंध । काल संयोगसमय आदि शब्द का अर्तना लक्षण वाले काल के साथ संबंध । भावसंयोग-औदयिक आदि भाव का तत्सम अवस्था के साथ सम्बन्ध ।
४६. सम्बन्धनसंयोग तीन प्रकार का होता है सचित्त, अचित्त और मिश्र। सचित्तसम्बन्धनसंयोग के तीन प्रकार हैं-द्विपद-पुत्री आदि, चतुष्पद-गोमान आदि, अपदसंयोग-पनसबान आदि । अचित्तसम्बन्धनसंयोग-हिरण्य आदि का संयोग। मिश्रसम्बन्धनसंयोग-रथ में योजित तुरग आदि । इसके और भी अनेक प्रकार हैं।
४७. क्षेत्र, काल और भाव - इन तीनों के दो-दो प्रकार के सम्बन्धनसंयोग होते हैंआवेश (विशेष) और अनादेश (सामान्य)। १. विस्तार के लिए देखें श्री भिक्षु आगम विषय कोश' पृ. ६६४,६६५
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
१९१ ४८. सदृश शान-धारित्रगत आदेश (विशेष) के अनेक प्रकार बताए जा चुके हैं। स्वामित्व तथा प्रत्यय (शान का कारण) के विषय में कुछ आगे बताया जाएगा।
४९. भाव विषयक अनादेश के छह प्रकार है-औयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक ।
५०, भाव विषयक आदेश के दो प्रकार है-अर्पित व्यवहार' और अनपित व्यवहार'। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार है-स्व, पर और तदुभय ।
५१. आत्मसंयोग (स्वसंयोग) चार प्रकार का होता है-औपशभिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक।
५२. जो सान्निपातिक भाव औदसिफभाव से रहित होता है, वह ग्यारह संयोगात्मक होता है, यही आस्मापितसंयोग है।
५३. लेण्या, कषाय, वेदना, वेद, अशान, मिथ्यात्व, मिश्र आदि जितने भी औदयिक परिणाम हैं, वे सारे बाह्यापितसंयोग हैं।
५४. जो सान्निपातिक भाव औदयिकभाव से मिश्रित होता है, वह पन्द्रह संयोगात्मक होता है। वह सारा उभयापितसंयोग है।
५५. इसके प्रतिपादन का दूसरा आदेश-प्रकार भी है। उसके अनुसार संयोग तीन प्रकार का है-आत्मसंयोग, बाह्यसंयोग और तदुभयसंयोग । इसका मैं संक्षेप में कथन कर रहा हूं।
५६. आत्मसंयोग छह प्रकार का है-औयिक, औपशमिक, नायिक, क्षायोपशामिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक ।
५७. बाह्यसंयोग तीन प्रकार का है नामसंयोग, क्षेत्रसंयोग तया कालसंयोग । आत्मसंयोग और बाह्यसंयोग के मिश्रण से तभयसंयोग होता है ।
५८. प्रकारान्तर से आचार्य-शिष्य, पिता-पुत्र, जननी-पुत्री, भार्या-पति, शीत-उष्ण, तमउद्योत, छाया-आतप आदि का पारस्परिक संबंध बाह्य संबंधनसंयोग है।
५९. आचार्य के सदृश आचार्य ही हो सकता है, अनाचार्य नहीं। प्राचार्य के सभी सामान्य गुणों से जो सदृश है, वह शिष्य होता है । अथवा जो शिष्य के सभी गुणों से अन्चित होता है, वह शिष्य होता है।
६०. ज्ञान का ज्ञेय के साथ, चारित्र का चर्यमाण के साथ, स्वामी का सेवक के साथ, पिता का पुत्र के साथ - ये लोकिक संबंध हैं । लोकोत्तर सम्बन्ध जैसे-मेरे कुल में अमुक साधु है और मैं इसके कुल में हूं इत्यादि। ये सारे उभयसम्बंधनसंयोग हैं।
१. अर्पित अर्थात् विवक्षित, जैसे क्षायिक आदि भाव की ज्ञाता में विवक्षा करना ।
२. अनर्पित अर्थात् अविवक्षित, जैसे क्षायिक भाव __ में सब भाव होते हुए भी अनपित हैं।
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नियुक्तिपंचक
६१.प्रत्ययज्ञान का कारण बहुविध होता है। वह छद्मस्प के होता है। केवली का ज्ञान निवृत्ति प्रत्यय-निरालम्ब होता है । (केवली के ज्ञान की उत्पत्ति ही उसके ज्ञान का कारण है, घट पट आदि बाह्म सामग्री नहीं) छमस्थ के ज्ञान में उभयसम्बन्धनसंयोग होता है। वर्तमान जन्म में देह जीव से सम्बद्ध है और अन्य जन्म में जीव द्वारा त्यक्त है। इसी प्रकार माता, पिता, पुत्र आदि में भी उभयसम्बन्धसंयोग होते हैं।
६२. कषायबहुलजीव के संबंधनसंयोग होता है । जो जीव समर्थ है अथवा असमर्थ-दोनों में यह संयोग होता है क्मोंकि दोनों में 'यह मेरा है' यह ममकार समान होता है ।
६३. संसार से अनुत्तरण और उसमें अवस्थान का कारण है-संबंधनसंयोग । माता, पिता, बेटा आदि के संबंधनसंयोग का छेदन कर अनगार मुक्त हो जाते हैं।
६४. संबंधनसंयोग क्षेत्र आदि के भेद से तथा आदेश-अनादेश आदि विभाषा-भेदों से प्रतिपादित किया गया है। प्रस्तुत पहली गाथा में क्षेत्र आदि संबंधनसंयोग ही सूचित है। उसकी ही यहाँ विवेचना करनी चाहिए ।
६५. गडी-अमार्ग में कूदते हुए चलने वाला, गली-बिना श्रम ग्लग्न होने वाला, मरालीलात मारने वाला, रथ में जीतने पर बार-बार जमीन पर बैठने वाला-ये अविनीत अश्व और बैल के एकार्थक है । आकीर्णक, विनीत और भद्र-ये बिनीत अश्य और बैल के एकार्थक शब्द हैं ।
दूसरा अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति
६६,६७. परीषह के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं-आगमतः और नो-पागतमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार है-शरीर, भव्यशरीर तथा तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं-कर्म तथा नोकर्म । कर्म के रूप में है-परीवह बेदनीय कर्म के उदय का अभाव ।
६८. नोकर्म के तीन प्रकार है-सचित्त, अचित्त और मिश्र | भाव परीवह है-कर्म का उदय | उसके ये द्वार-व्याख्येय संदर्भ है।
६९. परीषह कहां से उबूत हैं ? किस संयती के होते हैं ? किस द्रव्य से पैदा होते हैं ? किस पुरुष या कर्म-प्रकृति में ये संभव है ? इनका अध्यास-सहन कैसे होता है ? कौन से नय से कौन सा परीषह वर्णित है? एक साथ एक व्यक्ति में कितने परीषह होते हैं? परीषहों का अस्तित्वकाल कितना है? किस क्षेत्र में कितने परीषह होते हैं?
उद्देश का अर्थ है-गुरु का सामान्य उपदेश । पुच्छा का अर्थ है--शिष्य की जिज्ञासा । निर्देश का अर्थ है-गुरु द्वारा शिष्य की जिज्ञासा का समाधान । सूत्रस्पर्श का अर्थ है-सूत्र में सूचित अर्थ-वचन-ये सारे व्याख्या-द्वार हैं ।
७०. कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभूत में गणधरों द्वारा प्रथित श्रुत को नय और उदाहरण सहित यहां प्रस्तुत जान लेना चाहिए । यह परीषह अध्ययन वहीं से समुद्धृत है ।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
७१. परीषद अविरत, विरताविरत तथा बिरत-तीनों के होते हैं । यह तथ्य नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये पारों नय स्वीकार करते हैं। तीन गम्दनयों-शब्द, समभिरुन तथा एवंभूत के अनुसार परीषह केवल विरत-संमत के ही होते हैं।
७२. नैगम नय के अनुसार परीषहों की उदीरणा के बाठ विकल्प है-जीक द्वारा, जीवों द्वारा, अबीच द्वारा, अजीवों द्वारा, जीव-बजीव द्वारा, जीब-अजीवों द्वारा, जीवों-अजीब द्वारा तथा जीवोंमजीवों द्वारा । संग्रह नम के अनुसार जीव अथवा अजीब द्रव्य के द्वारा, व्यवहार नय के अनुसार केवल नोबीव–अर्थात अजीव ट्रव्य के द्वारा तथा शेष नयों के अनुसार केवल जीव द्रव्य के द्वारा परीषहों की उदीरणा होती है ।
७३. परीषहों का मार विषय में से दो पद गारे ' सलस्तार और पुरुष समवतार । इनका नानात्व में क्रमशः बताऊंगा।
७४. ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय भोर अन्तराय इन चार कर्मों की नाना प्रकृतियों में बावीस परीषहों का समवतार होता है।
७५. प्रज्ञा और अज्ञान-ये दो परीषह ज्ञानाबरणीय कर्म के उदय से होते हैं। एक अलाभ परीषह अंतराय कर्म के उवय से होता है।
७६. बरति, अचेल, स्त्री, नषेधिकी, याचना, आक्रोश और सस्कार-पुरस्कार में सात परीषह चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं।
७७. (चारित्र मोहनीय कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं।) उनमें अरति मोहनीय के उदय से अति, जुगुप्सा मोहनीप से अचेल, पुरुषवेद से स्त्री, भय से नषेधिकी, मान से याचना, क्रोध से आक्रोश तपा लोभ से सत्कार-पुरस्कार परीवह उत्पन्न होता है।
____७८. दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन परीषह का उदय होता है । शेष ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं।
७९. क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक; चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्ल--- ये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं।
८०. बादर सम्पराम गुणस्थान (नवमें) तक बावीस परीषह, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान (दसवें गुणस्थान) में चौदह परीषह, छप्रस्थ बीतराग गुणस्थान (ग्यारहवें) में चौदह परीषह तथा केबली में ग्यारह परीषह होते हैं।
८१. तीन नयों माद नगम, संग्रह और व्यवहार के अनुसार एषणीय और अनेषणीय भोजन आदि का अग्रहण और अपरिभोग अध्यासना है। तीन शब्द नयों अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत और ऋजुसूत्रनय के अनुसार मुनि द्वारा प्रासुक अन्न आदि का ग्रहण तथा परिभोग भी अध्यासना है।
१.ज्ञानावरणीय आदि कमों की प्रकृतियां । २३. चारित्रमोहनीय कर्म-प्रतिबद्ध सात परीषह
तथा दर्शनमोहनीय कर्म प्रतिबद्ध एक परीषह-
ये आठ परीषह वहां नहीं होते। ४. वेदनीय कर्म-प्रतिवद्ध क्षत, पिपासा आदि
ग्यारह परीषह होते है।
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निर्मुक्तिपंचक ८२. नैगम नय के अनुसार परीषहोत्पादक द्रव्य ही परीषह है। संग्रह और व्यवहार भय के अनुसार वेदना परीषह है । ऋजुसूत्र नय जीव को परीषह मानता है क्योंकि वेदना जीव के ही होती है । शन्दनय -शब्द, समभिरून तथा एवं भूस नय आत्मा को परीषह मानते हैं।
३. एक प्राणी में एक साय उत्कृष्टरूप में बीस परीषह तथा जघन्यत: एक परीषह हो सकता है। शीत और उष्ण तथा चर्मा और निषद्या-इन दोनों युगलों में से एक साथ एक-एक परीषह ही होता है।
६४. नैगम, संग्रह और व्यवहारनय के मतानुसार परीषहों का कालमान है-वर्षों का, ऋजुसूत्र के अनुसार अन्तर्मुहूतं का और तीन शब्दनयों के अनुसार एक समय का है।
६५, सनत्कुमार चक्रवर्सी ने खाज, भोजन की अरुचि, अक्षिवेदना, कुक्षिवेदना, बासी, प्रवास और ज्वर-इन परीषहों को सात सौ वर्षों तक सहन किया।'
८६. नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से परीषह लोक, संस्तारक आदि स्थानों में होते हैं । शब्द, समभिद तथा एवंभूत-इन तीन शब्द नयों की अपेक्षा से परीषह आत्मा
७. गुरु का (विवक्षित विषय का सामान्य रूप से निस्पक) वचन उहेश कहलाता है। गुरुवचन के प्रति शिष्य की विशिष्ट जिज्ञासा पृच्छा कहलाती है। शिष्य के प्रश्नको उत्तरित करने वाला गुरु का निर्वचन निर्देश कहलाता है। निर्देश के अन्तर्गत बाबीस परीषहों का उल्लेख है। अब सूत्रस्पर्श अर्थात् सूथालापक का प्रसंग है।
८८,८१ बावीस परीषहों के ये उदाहरण (कथानक) है-कुमारक, नदी, लयन, मिला, पंच महल्लक, तापस, प्रतिमा, शिष्य, अग्नि, निर्वेद, मुद्गर, वन, राम, पुर, भिक्षा, संस्तारक, मन्तधारण, अंग, विद्या, श्रुत, भीम, शिष्य का आगमन ।
९.. उज्जयिनी में हस्तिमित्र नाम का गाथापति रहता था। उसका पुत्र या हस्तिभूति । दोनों प्रवजित हुए । एक बार वे दोनों उज्जयिनी से भोगपुर जा रहे थे । वृद्ध मुनि भटची में क्षुधा परीषा से द्रःखी हआ। उसका प्रायोपगमन संथारे में देवलोक गमन ।'
९१. उज्जयिनी में धनमित्र वणिक् था। उसके पुत्र का नाम था धनशर्म । दोनों प्रजित हुए । एलकामपप के रास्ते में बाल मुनि ने प्यास से आर्त होने पर भी सचित्त जस नहीं पीया। तृषा परीषह सहन करते हुए वह दिवंगत हो गया।'
९२. राजगृह में चार मित्र आचार्य भद्रबाह के शिष्य बने। वे सभी एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर विहरण करने लगे । राजगृह में पुनरागमन । उनका भारगिरि पर्वत की गुफा में स्थित भद्रबाह के वर्मनार्थ जाना। हेमंत ऋतु में शीत परीषह को सहनकर चारों रास्ते में समाधिस्य हो
गए।
१. देखें परि० ६, कथा सं०. २. वही, कथा सं०२
३. वही, कथा सं०३ ४. वही, कषा सं०४
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उत्तराध्ययन निईक्ति
१३. तगरा नगरी । अनमित्र आचार्य । उनके पास दस बणिक अपनी भार्या भद्रा एवं पुत्र अन्नक के साथ प्रवजित हुमा। पत्त का स्वर्गगमन । मुनि अहंन्नक एक वणिक् महिला में आसक्त होकर उत्प्रवजित । साध्वी माता द्वारा प्रतिबोध । महन्नक द्वारा तप्त शिलापट्ट पर उष्ण परीषह सहन करते हुए प्रायोपगमन संयारे में स्वर्गगमन।'
९४. चंपानगरी में सुमनोभा युवराज ने धर्मघोष मुनि का शिष्यत्व स्वीकार किया। एक बार वह एकाकी विहार स्वीकार कर अटवी में स्थित हो गया। रात में मच्छरों का उपद्रव । मच्छरों द्वारा रक्त पी डालने के कारण समाधिमृत्यु की प्राप्ति ।।
९५,९६. बीतमय नगरी में देवदत्ता पासी ने गंधार श्रावक की परिचर्या कर सौ गुटिकाएं प्राप्त की।' महाराजा प्रद्योत उसे उज्जयिनी ले गए। दासी का मरण देखकर रानी प्रभावती दीक्षित हो पयी और कालान्तर में कालधर्म को प्राप्त हो गयी। देव प्रभावती द्वारा तीन वर्षा, पुष्कर तीर्थ की स्थापना, दशपुर नगर की उत्पत्ति तथा राजा प्रद्योत की बंधन-मुक्ति ।
९७,९८. आर्य वचस्वामी के पिता का नाम सोमदेव, माता का नाम रुद्रसोमा, भाई का नाम फगुरक्षित तथा आचार्य का नाम तोसलिपुत्र था। सिंहगिरि, भद्रगुप्त और आर्य वच के पास पूर्व तथा दसवें पूर्व का कुछ अंश पहार, बायंरभितशप नगर में पारा भाई और पिता को प्रजित किया।
१९. अचलपुर नगर के जितशत्रु राजा का युवराज राधाचार्य के पास प्रबजित हुआ । प्राचार्य के सद्यःअंतेवासी आर्य राधक्षमण उज्जयिनी में विहरण कर रहे थे। पूछा-क्या क्षेत्र निरुपद्रव है ? कहा-पुरोहित और राजपुत्र बाधा उपस्थित करते हैं।
१००. कौशाम्बी नगरी में तापस नाम का श्रेष्ठी मरकर अपने ही घर में सूकर की योनि में उत्पन्न हुआ । पुत्रों ने मार डाला । पुन: उसी घर में उरग । उसे भी मार डाला । पुनः उसी घर में पुत्र का पुत्र ।
१.१.१०६. ऋषभपुर, राजगृह तथा पाटलिपुत्र नगर की उत्पत्ति । नन्द, शकडाल, स्थूलभद्र, श्रीयक तथा वररुचि । तीन अनगारों ने चार महीनों तक वसतिमात्र निमित्तक अभिग्रह किया। एक अनगार गणिका के घर में, दूसरा अनगार व्याघ्र की गुफा में, तीसरा अनगार सांप की सिंबी पर । इन तीनों में दुष्करकारक कौन ? व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीडा पहुंचाने वाले ही हैं। वे ज्ञान, दर्शन, पारित्र को नष्ट नहीं कर पाते । गणिका गृहवासी भगवान् स्थूलभद्र ने तीक्ष्ण असिधारा पर चंक्रमण किया पर वे छिन्न नहीं हुए। उन्होंने चार मास तक अग्निशिखा में निवास किया पर जले नहीं। सिंहगुफाषासी बनगार ने कहा-मैं भी स्यूलभद्र के समान गणिकाग्रह में बास करूंगा । वह कोशा के पास गया। वेश्या ने रत्नर्कदल की याचना की। उसे लाने वह मुनि नेपाल गया । रत्नकंबल लाकर गणिका को दी। उसने उसे मलमूत्र विसर्जन के स्थान पर फेंक कर मलिन कर डाला । मुनि स्त्रीपरीषह से पराजित हो गया।' १. देखें-परि० ६, कषा सं०५
४. देखें-परि०६, कथा सं०७ २. वहीं, कथा सं०६
५. वहीं, कथा सं.. ३. निशीय चूणि में आठ सौ गुटिकाएं प्राप्त की, ६. वहीं, कथा सं०९ ऐसा उल्लेख मिलता है।
७. वही, कथा सं० १०
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नियुक्तिपंचक १०७. कोल्लकेर नगर में स्थविर आचार्य का स्थायी निवास था। दत्त उनका शिष्य था। वह घुमक्कड़ था। आचार्य ने उसे धातृपिण्ड दिलाया। आचार्य की अंग्रसी का देवयोग से प्रज्वलन । गुरु ने चर्या-परीषह सहन किया।'
१०८. कुरुदत्त का पुत्र प्रवजित हुआ। वह गजपुर से साकेत गया। पोर-गवेषक ने उसको पोर समझकर शिर पग्नि जला नि साराकोरीबद सहन किया।'
१०९,११०, कौशाम्बी नगरी में यज्ञदत्त ब्राह्मण के दो पुत्र थे-सोमदत्त और सोमदेव । दोनों आचार्य सोमभूति के पास दीक्षित हो गए। वे स्वज्ञाति (संशात) पल्ली में आए। विकट (मघ) के कारण उनको वैराग्य हो गया। दोनों ने नदी के तीर पर जाकर प्रायोपगमन संथारा कर लिया। नदी के प्रवाह ने उन्हें समुद्र में ला केला। उन्होंने समता से शय्या-परीषह को सहन किया
११. राजगृह में अर्जुन मालाकार। उसकी पत्नी थी स्कन्दश्री। मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर । गोष्ठी के सदस्यों द्वारा स्कन्दधी पर बलात्कार। भगवान् का आगमन । सुदर्शन का भगवा वंदना के लिए जाना । दीक्षित होकर उसने समभाव से आक्रोश-परीषह को सहन किया।'
११२-१४. श्रावस्ती नगरी । जितशत्रु राजा 1 धारिणी देवी। स्कन्दक पुन । पुरन्दरयशा पुषी । उसका विवाह दंडकी नामक राजा के साथ हुमा। कुंभकारकटक नगर में तीर्थंकर मुनिसुव्रत के शिष्य स्कन्दक पांच सौ मुनियों के साथ वहाँ आए । देवी पुरंदरयशा बहीं थी। महाराज दंडकी का पुरोहित पालक था। उसने रुष्ट होकर पांच सो मुनियों को कोल्हू में पिलवा दिया। उन्होंने माध्यस्थभाव के चिन्तन से राग-द्वेष के तुलाग्र को सम कर वध परीषह सहते हुए मपना कार्य सिद्ध कर लिया।
११५. याचना परीषह में बलदेव' का उदाहरण तथा अलाभ परीषह में कृषिपारासर अर्थात् हुंदणकुमार' का उदाहरण ज्ञातव्य है।
११६. मथुरा में कालवेशिक पुत्र प्रश्नत्रित होकर मुद्गौलपुर में एकलविहारप्रतिमा में स्थित हुआ । सियाल द्वारा भक्षण। राजा द्वारा सिपालों को भगाना पर सियालों का उपसर्ग । मुनि ने गमभावपूर्वक रोग परीषह को सहन किया।'
११७. श्रावस्ती के भद्र नामक राजकुमार को राज्य में गुप्तचर समझकर शरीर को क्षतविक्षत कर नमक छिड़का और दर्भ से वेष्टित किया । उसने समतापूर्वक तृणस्पर्श परीषह को सहन किया।
११८. चंपा नगरी में सुनन्द श्रावक । वह जल्ल-धारण में जुगुप्सी या । वह मरकर कौशाम्बी नगरी में धनी के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुमा । कालान्तर में वह प्रवजित हुआ। उसके शरीर में सुगंध लेकिन देवयोग से फिर मूल रूप में आ गया।" १.देखें-परि०६, कथा सं०११
६. वही, कया सं० १६ २. वही, कथा सं० १२
७. वही, कथा सं० १५ ३. वही, कथा सं० १३
८. वही, कथा सं० १८ ४. वही, कथा सं०१४
९. वही, ५. वही, कथा सं०१५
१०. वही, कया सं.२०
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
११९. मथुरा में इन्द्रदत्त पुरोहित । साधु का सेवक एक श्रेष्ठी। प्रासाद को विद्या से ध्वंस करना । इन्द्रकील द्वारा पादच्छेद।'
१२०. उज्जयिनी में आचार्य कालक । उनके पौत्र शिष्य आचार्य सागर का सुवर्णभूमि में विहरण । इन्द्र ने आकर आयुष्क-शेष पूछा । (वृत्ति में निगोद जीवों के विषय में पूछा ।) इन्द्र द्वारा दिव्य चमत्कार ।
१२१. आचना सखिन्न । गंगा के कूल पर सफट कन्या का पिता । बारह वर्षों में 'असंवयं' अध्ययन (उत्तराध्यपन का चौथा अध्ययन) मात्र सीखना ।'
१२२. स्थूलभद्र मुनि अपने अत्यंत प्रिय मित्र के घर गए । वहाँ जाकर कहा-यह ऐसा है। वह वैसा है । देख, यह कैसा हुआ? मुनि ज्ञान परीषह से पराजित हो गए।'
१२३. मार्य आषाढ़ ने मुनि जीवन को छोड़ उत्प्रवजित होने का मानस बना लिया। उस समय वे व्यवहारभूमि हट्ट के मध्य थे। उनके शिष्य ने राजा का रूप बनाकर उन्हें प्रतिबोध दिया।
१२४. सर्वप्रथम शिष्य ने पृथ्वीकाय का रूप बनाकर कहा-"जिससे मैं साधुओं को भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं, वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है । मोह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है ।'
१२५,१२६. अप्काय ने उदाहरण देते हुए कहा-एक बहुश्रुत तथा नाना प्रकार की कथाओं को कहने वाला पाटल नामक व्यक्ति नदी के प्रवाह में बहा जा रहा था । एक व्यक्ति ने पूछा-अरे ओ ! बहने वाले ! क्या तुम्हारे सुख-शांति है ? जब तक तुम बहते बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो । उसने कहा- 'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं । ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है ।
१२७. तेजस्काय ने कहा-'जिस अग्नि को मैं रात-दिन मधु-घुत से सींचता रहा है, उसी अनि ने मेरी पर्णशाला जला डाली। ओह ! शरण से भय हो रहा है।
१२८. व्याघ्र से भयभीत होकर में अग्नि की शरण में गया। अग्नि ने मेरे शरीर को जला डाला । मोह ! शरण से भय हो रहा है ।
१२९. बायकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-'मित्र ! तुम पहले कूदने-दौड़ने में समर्थ थे। अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीडित हो ?'
१३०. वायु रोग से पीड़ित मित्र ने कहा-'जेठ और आषाढ मास में जो सुखद वायु चलती थी, उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया है । ओह ? शरण से भय हो रहा है।'
१३१. जिस बायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं। उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा सारा शरीर टूट रहा है । ओह । शरण से भय हो रहा है। १. देखें-परि० ६, कथा सं० २१
४. वहीं, कया सं० २४ २. वही, कथा सं०२२
५. वहीं, कथा सं० २५ ३. वही, कथा सं० २३
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नियुक्तिपंचक
१३२. वनस्पतिकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा कि एक विशाल वृक्ष पर बनेक पक्षी सुखपूर्वक रह रहे थे। उसी वृक्ष के निकट से एक लता उठी और वह वृक्ष के लिपटती हुई ऊपर तक चई गई। एक बार एक सपं उस लता के सहारे ऊपर चढ़ा और पक्षियों के अंडों को खा गया। तब शेष पक्षियों ने कहा-'हम इस वृक्ष पर रहते थे। यह निरुपद्रव था। मूल से लता उठी तब यह धारण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया ।'
१३३. सकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा—'सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतरी लोग बाहर रहने वालों को बाहर ही रोक रहे थे। ओ मातंगो ! तुम अब दिशा की शरण लो। ठीक है, जो नगर शरणस्थल या वही भय का स्थान बन गया।'
१३४. जहां का राजा पोर हो और पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को दिशाओं की ही शरण लेनी चाहिए क्योंकि शरण स्वयं भय स्थान बन रहा है ।
१३५,१३६. हे मित्र ! उदित होते हुए सूर्य का, चैत्य-स्तूप पर बैठे कौए का तया भीत पर आए आतप का सुख की वेला में पता नहीं चलता । (इस कप ब्राह्मणा: । :: दुःय प्रस्ट किया। पति के विरह में उसे रात भर नींद नहीं आई।) पुत्री बोली-'मां ! तुमने ही तो मुझे कहा था कि आए हुए यम की अवमानना मत करना। पिता का यक्ष ने हरण कर लिया है । अब तुम दूसरे पिता की अन्देषणा करो।
१३७. जिसको मैंने नय मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे भर्सा का हरण कर लिया । धारण मेरे लिए मशरण हो गया।
१३. तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो ?
१३९. आर्य आषाढ़ आगे चले 1 मार्ग में उन्होंने एक अलंकृत-विभूषित साध्वी को देखकर कहा-'अरे ! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कुंडल है, आंखों में अंजन आज रखा है, ललाट पर तिलक है। हे प्रवचन का उड्डाह कराने वाली दुष्ट साध्वी ! तूं कहाँ से आई है ?' वह बोली
१४०. हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे दिलों-दोषों को देखते हो किंतु अपने बिरुब जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते ।
१४१. तुम श्रमण हो, संयत हो, ब्रह्मचारी हो, मिट्टी के लेखे और कंपन को समान समझने वाले हो, तुम वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी हो । ज्येष्ठार्य ! आपके पात्र में क्या है, बताएं। तीसरा अध्ययम : चतुरंगीम
१४२. एक शब्द के सात निक्षेप है-नाम, स्थापना, व्य, मातृकापद, संग्रह, पर्यव और भाव ।
१४३. चतुर् शब्द के सात निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रश्य, क्षेत्र, काल, गणना और भाव। यहां गणन संख्या का अधिकार है।
१w. अंग शरद के पार निक्षेप है-नामांग, स्थापनांग, दम्यांग और भावांग ।
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सत्तराध्ययन नियुक्ति
१९९ १४५. द्रव्यांग के छह प्रकार है-गंधांग, औषधोग, मांग, आतोद्यांग, शरीरांग और युवांग । प्रत्येक के अनेक प्रकार ज्ञातव्य है।
१४६-४८. गंधांग के ये प्रकार है-जमदग्निजटा, हरेणुका-प्रियंगु, शबरनिवसनफतमालपत्र, सपिन्निक-ध्यामक गंधद्रव्य युक्त, वृक्ष की बाह्य त्वक् चातुति-से गंधद्रव्य मल्लिका से वासित होकर अर्थात् चूर्ण बनकर कोटि मूल्य के हो जाते हैं, बहुमूल्म बाले हो जाते हैं ।
योसोर र ह्रींवर सुमषित भविशेष) का एक पल तथा देवदारु का एक कर्ष, शतपुष्पा तथा तमाल-पत्र-दोनों का एक-एक पलिका मात्र हन गन्ध दृश्यों को पीस कर एक चूर्ण बनाया जाता था। इसी चूर्ण से स्नान, विलेपन और पटवास किया जाता था। चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता ने इनका प्रयोग कर उदयन को मोहित किया था।
१४९,१५०. औषधांग-दो रजनी-पिंडदार और हल्दी, माहेन्द्रफल-कुटज के बीज, समूषण-त्रिकटुक के तीन संग-सूठ, पीपल, काली मिरच, सरस-आर्द्रक, कनकमूल-बिल्वमूल इनके साथ आठबी उदक-इससे जो गोली बनती है, वह खाज, तिमिर-तिरमिरा (आंख का रोग, आधा सीसी (अर्ध शिरोरोग), तात्तीयीक (तीन दिनों से आने वाला ज्वर), चाथिक (चार दिनों से आने वाला ज्वर)-इन सभी रोगों को शांत करती है तथा चूहे. सर्प बादि के काटने पर काम आती है।
१५१. मद्योग-सोलह भाग द्राक्षा, चार भाग घातकी पुष्प (घव के फूल) और एक आढक (मागध के मान से) इक्षुरस-ये मद्यांग है।
१५२. आतोद्यांग-एकमुकुंदा-वादिन विशेष का आतोपांग है तूर्य । एक अभिमारक नामक वृक्षविशेष का काठ अग्नि का अंग है । वह अग्नि का उत्पादक है। शाल्मली पुष्पों का बद्ध गुम्या भामोडक होता है। वह गुच्छा आमोडकोग है।
१५३,१५४. शरीरांग-शिर, छाती, उदर, पीठ, दोनों भुजाएं तथा दो जरू-ये शारीर के माठ अंग हैं। शेष अर्थात् कान, नाक, आँख, हाथ, पैर, जंघा, नख, केश, दाढी, मूंछ, अंगुली, होठये अंगोपांग हैं।
१५५. युद्धांग-यान, आवरण---कवच आदि, प्रहरण-तलवार मादि, युद्ध-कौशल, नीति, दक्षता, व्यवसाय प्रवृत्ति, शरीर, थायोग्य ये सारे मिलकर युद्धांग होते हैं ।
१५६. भावांग--भावांग के दो प्रकार हैं-श्रुतांग और नोश्रुतांग । थुतांग के आचारांग आदि बारह भेद हैं तथा नोश्रुतोग अर्थात् अश्रुतांग के चार भेद हैं।
१५७. मनुजत्य, धर्मश्रुति, धवा और तप-संयम में पराक्रम—ये भावांग संसार में दुर्लभ हैं।
१५८. अंग, दशभाग, भेद, अवयव, असकल, चूर्ण, खंड, देश, प्रदेश, पर्व, शाखा, पटल तथा पर्यवखिल- ये सब अंग के पर्यायवाची शब्द हैं।
१५९. दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, अछलना, तितिक्षा, अहिंसा और ह्री-ये सारे भावांग अर्थात संयम के पर्यायवाची शब्द है।
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२००
निर्मुक्तिपंचक १६०. लोक में इनकी प्राप्ति दुर्लभ है-मनुष्यता, आयक्षेत्र, जाति, कुल, रूप, आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि, धर्म-श्रवण, धर्म का अवधारण, श्रद्धा और संयम ।
११. १. चुल्लक (बारी-बारी से भोजन), २. पाशक, ३. धान्य, ४. छूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. धर्म, ९. युग तथा १०. परमाणु --मनुजस्व की प्राप्ति के ये दस दृष्टान्त
१६२. निम्नोक्त की प्राप्ति भी दुर्लभ है-इन्द्रियों की प्राप्ति, इन्द्रियों की नियतंना-- पूर्ण रचना, पर्याप्ति की समग्रता, अंग-उपांगों की पूर्णता, देश का सौस्थ्य, मुभिक्ष अथवा विभव की
प्ति, आरोग्य, श्रद्धा, ग्राहक अर्थात् गुरु, उपयोग- स्वाध्याय आदि में उपयुक्तता, अर्थ-धर्म विषयक जिज्ञासा आदि ।
१६३,१६४. दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी जीव कुछेक कारणों से हितकारी और संसार से पार लगाने वाली धर्मश्रुति को प्राप्त नहीं कर सकता। वे कारण ये हैं-आलस्य, मोह, अवज्ञा, अहंकार, क्रोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्यासप, कुतूहल तथा रमण-कुक्कुट आदि की क्रीडाएं आदि ।
१६५. मिथ्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन पर प्रक्षा नहीं करता। वह उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट असद्भाव अर्थात् कुप्रवचन पर श्रद्धा कर लेता है।
१६६. सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन पर तो श्रद्धा करता ही है, किन्तु वह मज्ञानवश अथवा गुह-नियोग-गुरु के विश्वास पर असद्भाव-कुप्रवचन पर भी श्रवा कर लेता है। १६७.. बहरतवादी -क्रिया की निष्पत्ति में बहुत समय लगते हैं, ऐसा मानने वाले ।
जीवप्रदेशवादी --अन्त्य प्रदेश ही जीव है अथवा अन्त्यप्रवेशजीववादी। • अव्यक्तवादी-सब कुछ अव्यक्त है, ऐसा मानने वाले । • समूच्छेदवादी-एक क्षण के पश्चात सर्वया नाश मानने वाले ।
द्विक्रियवादी-एक समय में दो क्रियाओं को स्वीकार करने वाले । • राशिकवादी तीन राशि --जीव, अजीव, नौजीव मानने वाले। • अवतिकवादी-कर्म आत्मा से नहीं बंधते, ऐसा मानने वाले ।
मैं क्रमशः इनका निर्गमन अर्थात् उत्पत्ति का कथन करूंगा । १६८,१६९. बहरतबाद जमासि से उद्भूत हुआ। जीवप्रदेशवाद तिष्यगुप्त से, भव्यक्तवाद आचार्य आषाढ से, समुच्छेदवाद अश्वमित्र से, द्विक्रियवाद आचार्य गंग से, पैराशिफवाद षडलक (रोहगुप्त) से तथा स्पृष्ट अबद्धिकवाद स्थविर गोष्ठामाहिल से उद्भूत हुआ।
१७.. निलयों से सम्बंधित नगर क्रमशः इस प्रकार हैं - श्रावस्ती, ऋषभपुर, श्वेतविका, मिथिला, उल्सुकातीर, अतरंजिका, दशपुर और रपदीरपुर।
१. देखें परि०६, कषा सं. २६-३५ ।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
१७१,१७२. महावीर को ज्ञान उत्पत्ति के १४ वर्ष बाद बहुरतवाद की, १६ वर्ष पश्चात् जीबप्रदेशवाय की, २१४ वर्ष पश्चात् अव्यक्तवाद की, २२० वर्ष पश्चात् समुच्छेदवाद को, २२८ वर्ष पश्चात् द्विक्रियवाद की, ५४४ वर्ष बाद पैराशिकवाद की तथा ५८४ वर्ष बाद अतिकवाद की उत्पत्ति हुई ।
१७२११. भगवान महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई।
१७२।२. महावीर की ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना का पुत्र जमालि तथा भगवान् की पुत्री अनवयोगी (प्रियदर्शना) डेड हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए। श्रावस्ती नगरी के तिदुक उद्यान में जमालि विप्रतिपन्न । कंक श्रावक द्वारा प्रतिबोध । जमालि' को छोड़कर सुदर्शना महावीर के शासन में आ गई।
१७२१३. राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हमा। उनका शिष्य तिष्यगुप्त आचार्य को छोड़कर आमलकल्पा नगरी में आया। वहां मित्रश्री नामक यमणोपासक द्वारा कूर पिंह आदि का अंतिम अंश देकर प्रतिबोध देना।'
१७१४. श्वेतविका नगरी के पोलास उद्यान में आयं आषाढ़ का प्रवास | उनके शिष्य आगाढ़ योग-प्रतिपन्न थे। आचार्य का हृदयशूल की पीड़ा में अचानक कालगत होना । उनकी सौधर्म देवलोक के नलिनीगूल्म विमान में उत्पत्ति । राजगृह नगर में मौर्य वंशी बलभद्र नामक राजा द्वारा प्रतिबोध ।'
१७२१५. मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि । उनका शिष्य कौडिन्त । उसका शिष्य अपवमित्र । अनुप्रवादपूर्व के नपुणिक वस्तु की वाचना। रामगृह में खंडरक्ष यारक्षक श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिबोध ।'
१७२६६. नदीखेट जनपद के उल्लुकातीर नगर में आचार्य महागिरि का शिष्य धनगुप्त । उनका शिष्य भार्य गंगा नदी में उतरते हुए द्विक्रियवाद की प्ररूपणा। राजगह में बागमन । महातपस्तीर से उद्भूत करना । मणिनाग नामक नाग द्वारा प्रतिबोध ।
१७२१७. अंतरंजिका नगरी में भूतगृह नामक चैत्य । बलश्री राजा। श्रीगुप्त आचार्य । शिष्य रोहगुप्त । परिणाजक पोट्टशाल । घोषणा । प्रतिषेध । वाद के लिए ललकारना ।'
१७२।८, परिव्राजक वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगी, वराही, काफ और पोताकी-इन विद्याओं में कुशल था।
१७२१९. सब आचार्य ने अपने शिष्य से कहा-'तुम मायूरी, नाकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही सलूकी तथा उल्लावक्री-इन विद्याओं को ग्रहण करो। ये विद्याएं परिणाजक द्वारा प्रयुक्त विद्यायों की प्रतिपक्षी है तथा उसके द्वारा अहननीय है।
१. देखें परि० ६, कथा सं ३६ । २. वही, कथा सं. ३७ । ३. वही, कथा सं.३८ ।
४. वही, कथा सं. ३९ । ५. वही, कथा सं. ४० । ६. वहीं, कया सं.४१ ।
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२०२
नियुक्तिपंचक
१७२।१०. दशपुर नगर के इक्षुगृह में आयंरक्षिस धृतपुष्यमित्र, वस्त्रमित्र, दुर्बलिकापुष्यमित्र गोष्ठामाहिल आदि शिष्यों के साथ विराजमाम । माठ तथा नवें पूर्व की वाचना । विभ्य द्वारा जिज्ञासा ।।
१७२।११. जैसे कंचुकी पहने हुए पुरुष से कंचुकी स्पृष्ट होने पर भी बच नहीं है, वैसे ही कर्म जीव से स्पृष्ट होने पर भी रन नहीं होते।
१७२।१२. जो प्रत्याश्यान अपरिमाण अति तीम करण तीन योग से यावज्जीवन के लिए किया जाता है, वह श्रेयस्कर है। परिमित समय के लिए किया गया प्रत्याख्यान बाशंसा के दोष से दूषित होता है।
१७२।१३. रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में भावार्य कुष्ण के पास शिषभूति मे दीक्षा स्वीकार की। गुरु से जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर शिवभूति द्वारा जिन्नासा, गुरु का समाधान ।
१७२.१४,१५. गुरु द्वारा प्रज्ञप्त सिद्धान्त पर उसे विश्वास नहीं हुआ। रणवीरपुर नगर में बोटिक शिवभूति द्वारा बोटिक नामक मियादृष्टि का प्रवर्तन हुआ । उसके कौडिन्न और कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए । यह परम्परा आगे भी चली। दोषा अध्ययन : असंस्कृत
१७३. अप्रमाद शब्द के पार निक्षेप है. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव।
१७४. प्रमाद के पांच प्रकार है-मय, विषय, कषाय. निद्रा और बिकया। ठीक इनके विपरीत अप्रमाद है।
१७५. इस अध्ययन में पांच प्रकार के प्रमाद और पांच प्रकार के अप्रमाद का वर्णन है अत: इस अध्ययन का नाम प्रमादाप्रमाद है।
१७६. जो कुछ उत्तरकरण' के द्वारा किया जाता है, उसे संस्कृत जानना चाहिए । शेष सारा असंस्कृत अर्थात् संस्कार के लिए अनुपयुक्त होता है। यह असंस्कृत की नियुक्ति है ।
१७७. करण शब्द के छह निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१७८. व्यकरण के दो प्रकार है-संझाकरण और नौसंशाकरण । संशाकरण के उदाहरणकटकरण, अर्थकरण – सिक्कों की निवर्तक अधिकरणी यादि, बेलूकरण--रूई की पूणी का निवर्तक चित्राकारमय वेण शलाका आदि।
१७९. नोसंज्ञाकरण के दो भेद है-प्रयोगकरण तथा विनसाकरण । विस्त्रसाकरण के दो प्रकार है-सादिक और अनादिक ।
१८०. धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीनों परस्पर संबलित होने के कारण सदा अवस्थित रहते हैं अतः अनादिकरण हैं। अक्षस्पर्श (स्थूल परिणति वाले पुद्गलद्रव्य) तथा अचास्पर्श (सूक्ष्म परिणति वाले पुद्गलद्रव्य)-ये दो साधिकरण हैं। १. देखें परि ६, कथा सं.४२ ।
३. अपने मूल हेतुओं से उत्पन्न वस्तु का उत्तर२. वही, कथा सं. ४३।
काल में विशेष संस्कार करना उत्तरकरण है।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
२०३ १८१. द्विप्रदेसी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध, अभ्र (विद्युत् आदि) तथा अम्रवृक्ष (इन्द्रधनुष मादि) जो निष्पन्न द्रव्य है-विनसाकरण हैं। (यह चाक्षुष, अचाक्षुष द्रव्यों का सादि विस्रसाकरण
१२. प्रयोगकरण के दो प्रकार है-जीवप्रयोगकरण तथा अजीवप्रयोगकरण । जीवप्रयोगकरण दो प्रकार का है-मूलकरण तथा उत्तरकरण । मूलकरण में पांच शारीरों का समावेश होता है। उत्तरकरण है-अंगोपांगनामकर्म । इसके अन्तर्गत तीन शरीर हैं-औदारिक, बैंत्रिम और आहारक । (इन तीनों के ही अंगोपांग होते हैं ।)
१८२२१,२. शिर, छाती, उदर, पीठ, दोनों मुजाएं तथा दो उरू-ये माठ अंग हैं तथा कान, नाक, मांब, जंघा, हाथ, पैर, नख, केश, डाढ़ी-मूंछ, अंगुली-ये उपांग हैं।
१८३. प्रथम तीन शरीरों-औदारिक, वैक्रिय और आहारक' का उत्तरकरण होता है । जैसे कानों की वृद्धि करना, कंधों को दृढ़ करना तथा उपपात और विशुद्धि से इन्द्रियों की अवस्था में परिवर्तन करना। यह उत्तरकरण है।
१८४. करण के दो प्रकार और हैं-संघातनाकरण और परिशादनाकरण । ये दोनों प्रथम तीन शरीरों के होते है। शेष दो शरीरों-तंजस और कार्मण के संघात नहीं होता, (इसलिए संघातनीकरण भी नहीं होता तथा परिशाटनाकरण तो शैलेशी अवस्था के परम समय में होता है।) संघातना, परिशाटना तथा दोनों का कालान्तर जैसा सूत्र में निर्दिष्ट है, वैसा जान लेना चाहिए ।
१८५,१५६. मूलप्रयोगकरण के पश्चात् उत्तरकरण की व्याख्या की जा रही है। शरीरकरण के प्रयोग से निष्पन्न उत्तरकरण कहलाता है। इसके अनेक भेद हैं। संक्षेप में इसके चार भेद ये है-संघातनाकरण, परिशाटनाकरण, मिश्र-संघातना-परिशाटनाकरण तथा प्रतिषेध-संघातनापरिशाटनाशून्य । इनके उदाहरण ये हैं --
• पट (वस्त्र)-इसमें तन्तुओं की संघातना होती है। • शंख-इसमें परिशाटना होती है। • शकट-इसमें संघातना और परिशाटना दोनों होती है-कीलिका आदि की संघातना
और लकड़ी को छीलने की परिशाटना। स्पूणा (स्तंभ)-इसमें दोनों का अभाव होता है। ऊर्ध्वकरण और तिर्थक्करण तथा गमनकरण और उन्नमनकरण-ये भी उत्तरकरण है।
१८७, जीव-प्रयोग के द्वारा पांच वर्ण आदि द्रव्यों में तथा कुसुभे आदि में जो चित्रकरण होता है, वह अजीवप्रयोगकरण है। शेष गन्ध, रस आदि के विषय में भी यही जान लेना चाहिए।
१. आहारक शरीर के ये उपांग नहीं होते। २. . इसकी निष्पत्ति शरीरापेक्ष होती है, अत:
परन्तु उसके गमन आदि का उसरकरण होता यह उत्तरकरण है।
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निर्वृक्तिपंचक
१८८. आकाश के बिना कुछ भी निर्वर्तित नहीं होता अत: आकाश ही क्षेत्र है । व्यञ्जनपर्याय' को प्राप्त इक्षुक्षेत्रकरण बादि के बहुत प्रकार हैं। यह क्षेत्रकरण है ।
२०४
है, यह
१९. जिस क्रिया है जितना कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है। यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है।
१९०,१९१. ग्यारह करण ये हैं
१. बव
२. बालव
३. कोलय
४. स्त्रीविलोकन
कुति
इनमें प्रथम सात चल हैं और अंतिम चार ध्रुव है ।
५. राि
६. बनि
७. विष्टि
१९२. कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में सदा 'शकुनि' करण होता है। उसके पश्चात् अमावस्या के दिन में 'चतुष्पद' करण तथा रात्री में 'नाग' करण होता है। प्रतिपदा ( एकम) के दिन 'किंस्तुघ्न' करण होता है।
१९२१. पक्ष में तिथि को दो से गुणा करके उसमें से दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे, वह दिन का करण होगा। रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण होगा '
१९३, १९४, भावकरण के दो प्रकार हूँ- जीवनिक भावकरण तथा अजीवविषयक भावकरण । प्रजीवकरण के पांच प्रकार है- (१) वर्णविषयक (२) एस विषयक, (३) गन्धविषयक, (४) स्पर्शविषयक तथा (५) संस्थानविषयक वर्ण के पांच प्रकार रस के पांच प्रकार या के दो प्रकार, स्पर्श के आठ प्रकार तथा संस्थान के पांच प्रकार हैं। ये सभी करण के विषय है, अन्तःकरण के भी इतने ही भेद हो जाते हैं ।
R
९. चतुष्पद
१०. नाग
११. किंस्तुघ्न ।
१९५. जीवकरण के दो प्रकार हैं तकरण और नोबुतकरण । श्रुतकरण दो प्रकार का
। । *
निशोष तथा अनिशीथ अवद्धभूत के दो
हे भूत और अभूत भूत के दो भेद है
-
प्रकार है-लौकिक और लोकोत्तर ।"
१. व्यञ्जनं शब्दस्तस्य पर्यायः - अन्यथा च भवनं यजन पर्यायः तमापन्नं प्राप्तं व्यपर्यायामन्नम् । (टीप २०२ )
४.
२. 'बब' आदि हात करणों की व्याख्या के लिए देखें शांटीप २०३ ।
३. जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना
है - ४x२-६-२-६÷७
०६
अत: छठा करण है 'वणिज' रात्रि में एक
५.
बढाने से इससे अगला करण है 'विष्टि' । (शॉटीप. २०३ ) वृतिकार ( पत्र २०४ ) ने इनके लौकिक और लोकोत्तर- दो भेद किए हैं। निशश्य के शेव में निशीथ सूत्र को लोकोत्तर तथा बृहदारण्यक को लौकिक माना है । अनिशीय में आचारांग आदि को लोकोत्तर तथा पुराण आदि लौकिक हैं।
देखें शॉटीप २०४ ।
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उत्तराम्पयन नियुक्ति
१९६. नोवतकरण दो प्रकार का है-गुणकरण और योजनाकरण । तपःकरण और संयमकरण- करण हैं। मन, बचन, काया की प्रवृत्ति को आस्मा के साथ योजित करना योजनाकरण है। सत्यमनोयोग आदि चार प्रकार का मनोयोग, सत्यवचन आदि चार प्रकार का बचनयोग, औदारिक काययोग आदि सात प्रकार का काययोग-ये पन्द्रह योजनाकरण हैं।
१९७. कार्मणशरीरकरण के अनेक भेद है। उसमें आयुष्यकरण असंस्कृत है-वह उत्तरकरण के द्वारा भी साधा नहीं जा सकता। प्रस्तुत अध्ययन में उसी का प्रसंग है। अत: अप्रमाद कोही परित्र का विषय बनाना चाहिए ।
१९८. द्वीप के दो प्रकार हैं-व्यद्वीप और भाववीप । दोनों के दो-दो भेष है-आश्वासद्वीप और प्रकाशद्वीप।
१९९. आश्वासद्वीप के दो भेद हैं-संदीनवीप' और असंदीनद्वीप।' प्रकाशदीप के दो भेद है-संयोगिम तथा असंयोगिम'। यह दम्पतीप की अपेक्षा मे है। भावद्वीप की अपेक्षा से आश्वासदीप और प्रकाशद्वीप प्रत्येक के दो-दो प्रकार है।
पांचवां अध्ययन : अकाममरणीय
२००, काम शब्द के चार निक्षेप हैं तथा मरण शब्द के छह निक्षेप हैं। काम की व्याख्या पहले (दशवकालिक के दूसरे अध्ययन में) की जा चुकी है। प्रस्तुत में अभिप्रेतकाम - इच्छाकाम का प्रसंग है।
२०१. मरण के ये छह निक्षेप हैं -(१) नाममरण (२) स्थापनामरण (३) द्रव्यमरण (४) क्षेत्रमरण (५) कालमरण (६) भावमरण ।
२०२. द्रव्य का मरण द्रव्यमरण है । जैसे-कुसुम्भ आदि का मरण अर्थात् कुसुम्भ का रंगने के सामर्थं का अभाव, उसका मरण है । भावमरण है आयुष्य का कय । उसके तीन प्रकार है-(१) पोषणसर्व प्राणियों का होने वाला मरण, (३) भवमरण-उस-उस भव में होने वाला मरण, (३) तद्भवमरण -उस भव में मरकर पुनः उसी भव में उत्पन्न होना । प्रस्तुत प्रसंग में मनुष्य मविक मरण का अधिकार है।
२०३-२०४. अब हम मरण के विभागों की प्ररूपणा, आयुष्यकर्म का अनुभाव, आयुष्यकम के प्रदेशान, मरणों के कितने प्रकार से प्राणी मरता है? प्राणी एक समय में कितनी बार मरता है ? एक-एक मरण में कितनी बार मरता है ? वक्ष्यमाण मरण-भेदों में एक-एक में कितने भागों में भरण होता है ? संसार के सभी जीवों के ये मरण निरन्तर होते हैं या व्यवहित (सान्तर) होते हैं ? एक-एक मरण का कालमान कितना है? आदि का वर्णन करेंगे।
१. द्वीप-जो जल प्रवाह में नष्ट हो जाता है, ३. संयोगिम--तैल, वर्ती, अग्नि के संयोग से वह संदीप द्वीप है।
प्रकाश करने वाला। २. असंदीन द्वीप-वह द्वीप, जो जल-प्रदाह में ४. बसंयोगिम-सूर्य का बिम्ब बादि।
नष्ट नहीं होता।
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२०६
.
.
.
नियुक्तिपंच २०५.२०६. मरण के ससरह प्रकार है१) आचीचिमरण
(९) पंडितमरण (२) अवधिमरण
(१०) मिश्रमरण (३) अत्यन्तमरण
(११) छयस्पमरण (४) वसन्मरण
(१२) केवलिमरण (५) यशार्तमरण
(१३) बहायसमरण (६) अन्तःशल्यमरण
(१४) गृध्रपृष्ठमरण (गस्पृष्ट) (७) तद्भवमरण
(१५) भक्तपरिज्ञामरण () बालमरण
(१६) इंगिनीमरण
(१७) प्रायोपगमनमरण । २०७. गुणशील गुरुओं -तीर्थकरों, गणधरों ने सतरह प्रकार के मरणों का प्रतिपादन किया है । अब उन सभी का नामोल्लेअभूतक अर्थ-विस्तार कहूंगा।
२०८, जो प्रतिसमय, निरन्तर होता है तथा तरंगों की भांति चारों ओर व्याप्त होता है, बह आवीचिमरण है। उसके पांच प्रकार है--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ।
२०९. अवधिमरण भी द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से पांच प्रकार का है । प्राणी जिन आयुष्पकमें के दलिकों को भोग कर भरता है, उन्हीं फर्मदलिकों को पून: ग्रहण कर, भोग करके मरेगा यह अवधिमरण है । आत्यन्तिकमरण भी द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से पांच प्रकार का है । इसमें आयुष्यकर्म के भुक्त दलिकों को पुन: नहीं मोगा जाता।
२१०, जो प्राणी संयमयोगों से विषण्ण होकर मरता है, यह वलम्मरण है। जो इन्द्रिय-विषयों के वशवी होकर मरण प्राप्त करते हैं, उनका मरण वशार्तमरण है।
२११,२१२. जो लज्मा, गौरव तथा बहुश्रुत के मद से अपने दुश्चरित्र को गुरु के समक्ष नहीं कहते, वे आराधक नहीं होते । वे अहंकार के कीचड़ में निमग्न व्यक्ति अपने ज्ञान, दर्शन और चारिष विषयक अतिचार--अपराध को आचार्य आदि के समक्ष प्रगट नहीं करते, उनका सशस्यमरण होता
२१३. इस प्रकार सशत्ममरण करने वाले प्राणी महान भयावह, दुरन्त इस दीर्ष संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करते हैं।
२१४. अकर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य और तिर्यञ्च तथा देवनिकाय और नारकों के अतिरिक्त जीवों में से कुछेक जीवों के तद्भवमरण होता है।
२१५. अवधिमरण और आवीधि मरण को छोड़कर शेष पन्द्रह मरण तद्भवमरण कहलाते हैं।
२१६. अविरत व्यक्तियों का मरण बालमरण कहलाता है और विरत व्यक्तियों का मरण पंडितमरण कहलाता है। देशविरत व्यक्तियों का मरण बालपंडितमरण है।
---- - १. शेष जीवों अर्थात् कर्मभूमिज मनुष्य और वाले । देखें, शांटी० प० २३३ । तिर्यञ्च । उनमें भी संख्येय वर्ष की आयुष्य
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
२०७ २१७. मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण जिस मरण को प्राप्त होते हैं, वह छपस्थमरण है तथा केवलज्ञानी का मरण कैवलिमरण है।
२१८. गृध्र आदि पक्षियों के द्वारा खाये जाने पर होने वाला मरण गुम्रपृष्ठमरण कहलाता है।' फांसी लगाकर मरना बहायसमरण है । ये दोनों प्रकार के मरण विशेषकारण से अनुज्ञात है. सीथंकरों द्वारा अनुमत है।
२१९. भक्तपरिक्षा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन-ये तीन प्रकार के मरण क्रमश: कनिष्ठ, मध्यम और उत्कृष्ट हैं। इनको स्वीकार करने वाले व्यक्ति पति और संहनन में विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम होते हैं।
२२०, अनुमाघमरण के दो प्रकार है-सोपक्रम और निरुपक्रम । आयुष्यकर्म के प्रदेशान मानन्तानन्त हैं । प्रत्येक आत्मप्रदेश अनन्त-अनन्त प्रदेशों से आवेष्टित है।
२२१,२२२. आवीचिमरण में एक साथ दो, तीन, पार या पांच मरण हो सकते हैं। एक समय में कितने मरते है इनका भेद-प्रभेद विस्तार से जानना चाहिए । सभी भवस्थजीव सदा आवीचिमरण से मरते हैं। अवधिमरण तथा आत्यन्तिक मरण -ये दोनों मरण भजना अर्थात सदा नहीं होते, जब आयुक्षय होता है तभी ये संभव होते हैं।'
२२३. अवधिमरण-आत्यन्तिकमरण-बालमरण-पंडितमरण, बालपंडितमरण, अस्थमरणकैलिमरण-ये सब पस्पर विरोधी हैं क्योंकि ये युगपद् नहीं होते ।
२२४. प्रत्येक अप्रशस्त मरण में संख्यात, असंच्यात और अनन्त बार मरण होता है। प्रशस्तमरण अनुबंध अर्थात् नैरतयं से सात-आठ भव तक हो सकता है। केवलिमरण एक बार ही होता
२२५. आचोधिमरण को छोड़कर शेष सभी मरणों में एक-एक मरण में अनन्तभाय मरते हैं। मादिमरण-आवीषिमरण सतत होता है । प्रथम और परम मरण में व्यवधान नहीं होता अर्थात् ये दोनों मरण सदा रहते हैं।'
२२६. शेष मरण सान्तर और निरन्तर-दोनों रूप में प्ररूपित है। पहला बावीविमरण अनादि है, शेष १६ मरण सादि-सपर्यवसित हैं।
२२७. 'भरणविभक्ति' अध्ययन के ये सभी वार क्रमशः कहे गए हैं । समस्त पदार्थों को परूप से जानने वाले अहंत तथा चतुर्दशपूर्वी स्पष्टरूप से इन प्रशस्त आदि मरणों का निरूपण करते हैं । (मंदबुद्धिवाला मैं वैसा निरूपण नहीं कर सकता ।) १. मरने का इच्छुक व्यक्ति हाथी अथवा ऊंट सत्त्वसम्पल व्यक्ति ही कर सकते है। आदि बहतकाय जानवरों के शव में स्वयं को
(शांटीप २३४) प्रविष्ट कर लेता है । उन शवों को खाने के २. विस्तार के लिए देखें-श्रीभिक्षु आगम लिए गम शृगाल आदि आते है। शव के विषय कोश पु. ५२६, ५२७ ।। मांस-भक्षण के साथ-साथ उस प्रविष्ट मुनि ३. मादीचिमरण सदा सम्भव है। घरममरण का भी भक्षण हो जाता है । यह मरण विशेष अर्थात् केवलिमरण में पुनर्भरण नहीं होता।
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नियुक्तिपंथक २२८. जिनेश्वरदेव ने इन तीन मरणों को एकान्त प्रशस्त बतलाया है-भक्तपरिशा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन 1 ये क्रम ज्येष्ठ है--उत्तरोत्तर प्रधान हैं ।
२२९. प्रस्तुत प्रसंग में मनुष्य के मरण का अधिकार है। अकाममरण को छोड़कर उसे सकाममरण मरना चाहिए । छठा अध्ययन : शुल्लकनिग्रंथीय
२३०. महत् शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, पूथ्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रति और भाव । महत् का प्रतिपक्ष शन्द क्षुल्लक है।
२३१,२३२. निन्ध शम्द के पार निक्षेप हैं-- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निग्रन्थ के दो भेद है-मागमतः और मो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार है-शरीरनिग्रंन्य, भव्यशरीरनिग्नन्थ तथा तद्व्यतिरिक्तनिर्ग्रन्थ । इसमें निलयों का समावेश होता है। भावनिन्य पांच प्रकार के है (पुलाक, बकुश, कुशील, निर्गन्ध और स्नातक)।
२३३ निर्गन्ध उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी। अजघन्य-अनुत्कृष्ट निग्रंन्य असंख्येय होते हैं। यह कथन संयमस्थानों की अपेक्षा से है ।
२३४. ग्रंथ के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । माभ्यन्तर ग्रन्थ के चौदह और बाल ग्रंथ के दस प्रकार है।
२३५. आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकार है-क्रोध, मान, माया, लोम, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, वेद, अरति, रति, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा।
२३६ बाय ग्रंथ के दस प्रकार हैं--क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य का संचय, मित्र-शाति का संयोग, मान, शयन, आसन, घासी, वास तथा कुप्य ।
२३७. जो सावध ग्रन्थों से तथा बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थों से मुक्त है, वह निम्रन्थ है। यह क्षुल्लकनिग्रंन्य सूत्र की निर्मुक्ति है। सातवां अध्ययन : उरनीय
२३०,२३९. उरन शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, ट्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार हैं-आगमतः और नो-आगमतः 1 नो-आगमतः द्रव्य निक्षेप के तीन प्रकार हैशशरीर, मध्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभाविक, यदायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
२४०. उरम के आयु, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला मावडरन होता है। उस भावउरन से उत्पन्न होने के कारण इस अध्ययन का नाम उरभ्रीय है ।
२४१. प्रस्तुत उरप्रीय अध्ययन में ये पाच दृष्टांत है-उरम', काकिणी', आम्र', व्यवहार' और समुद्र । १-४. देखें परि० ६, कथा |
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उत्तराध्ययन निर्मुक्ति
२४२. उरन के विषय में आरम्भ-हिंसा, रसगृद्धि, दुर्गलिगमन और प्रत्यपाय को उपमा दी गई है । यह उरभ्रीय अध्ययन की नियुक्ति है।
२४२१. मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है । बछड़े का शुष्क तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है। आठवां अध्ययन : कापिलीय
२४३,२४४. कपिल शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेव है--आगमत: तथा नो आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद है-एफविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
२४५. कपिल के आयुष्य, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला भावतः कपिल होता है। भाव कपिल से समुस्थित यह कापिलीय अध्ययन है ।
२४६, कौशाम्बी नगरी । काम्यप पुरोहित । उसकी पत्नी यशा और पुत्र कपिल | श्रावस्ती नगरी में इन्द्रदत्त ब्राह्मण । शालिभद्र सेठ । धन श्रेष्ठी और प्रसेन जित् राजा ।
२४७. प्रतिदिन नियुक्त भक्तदासी से प्रेरणा पाकर आहार मात्र से संतुष्ट रहने वाला कपिल यो मासा सोना पाने के लिए रात्रि के समय ही घर से निकल पड़ा।
२४८. दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए उसको आरक्षकों ने पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया । राजा ने उसकी स्थिति समझकर वरदान देते हुए कहा–'मैं तुझे क्या दं? तेरा प्रयोजन कितने अर्थ से पूरा होगा?'
२४९, कपिल ने स्वयं को धिक्कारते हुए कहा-'जैसे लाभ होता है वैसे लोभ बढ़ता है। यो मासा सुवर्ण से पूरा होने वाला कार्य कोटि सुवर्ण से भी पूरा नहीं हो सका।'
२५०. राजा प्रसन्न होकर बोला-'हे आर्य ! मैं तुम्हें एक कोटि सुवर्ण भी दे सकता हूं पर कपिल प्रतियुद्ध हो चुका था इसलिए वह कोटि सुवर्ण का त्याग कर पापों का शमन करने वाला श्रमण बन गया।
२५१. कपिल मुनि छह महीने तक छुप्रस्थ रहा। राजगह नगर के समीप अठारह योजन की अटवी मैं इक्कडदास नाम के पांच सौ चोर रहते थे । उनका प्रमुख था बलभद्र ।
२५२, कपिल ने अतिशय ज्ञान से जाना कि ये प्रतिबुद्ध होंगे, ऐसा समझ उस अटवी के मार्ग से जाने का मन बनाया । वहां जाकर 'अधुवे असासयंमि संसारे....... 'इस गीत से उनको प्रतिबोध दिया । ये पांच सौ चोर प्रतिवृत होकर प्रवजित हो गए।" नौवां अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
२५३,२५४, नमि शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रष्य नमि के दो निक्षेप है—आगमतः नो-आगमतः । नो-आगमतः द्रध्य नमि के तीन प्रकार हैं-शशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनमि के सीन भेव है—एकविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । १ परि०६, कया सं०४८ ।
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निक्तिपंचक २५५. नमि के आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावनमि होता है। इस अध्ययन में नमि की प्रवज्मा का वर्णन होने के कारण इसका नाम नमिप्रवज्या है।
२५६. प्रवज्या शब्द के घार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और माश्च । अन्यतीयिकों की द्रव्य प्रवज्या है और भाव प्रव्रज्या है-आरम्भ तथा परिग्रह का त्याग ।
२५७. कलिंग में करकंड, पांचाल में दुर्मुख, विदेह में नमीराजा और गंधार देश में नागती राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रन्नजित हुए ।
२५८. करकर की बोधि का निमित्त पा वृषभ, दुर्मुख की बोधि का निमित्त था इन्द्रकेतु, नमिराजा को बोधि का निमित्त या कंकण और मंधारराजा (नग्गति) की बोधि वा निमित्त पा आम का पुष्पित वृक्ष।
२५९. गोकुल में श्वेत वर्ण वाले, अहीन अंगोपांग वाले और सुविभक्त सींग वाले बल की ऋद्धि-बलोपचयता तथा अवृद्धि-शक्तिहीनता का सम्यग् पर्यालोचन कर कलिंग राजा ने मुनि धर्म को स्वीकार किया।
२६०,२६१. करकं ने गोजाड़े में एक हृष्टपुष्ट बल को देखा । उसकी गर्जना सुनकर सुतीक्ष्ण सींगों वाले सशक्त, दप्त और बसिष्ठ वृषभ भी पलायन कर जाते थे। कुछ समय बाद राजा करकंडु पुनः मोबाड़े में उसी बैल को देखने गया । उसने देखा वही बल शक्तिहीन, धंसी आंखों वाला, प्रकंपित धूम और होठों को चबाने वाला तथा तत्र स्पित सामान्य भैसों के संघटन को सहन करने वाला हो गया है।
२६२. समलंकृत इन्द्रध्वज को इधर-उधर गिरते हुए और लोगों द्वारा लूटे जाते हुए देखकर उसकी ऋषि–पूर्णता और अवृद्धि-रिक्तता को सोचकर पंचालराजा ने भी मुनि धर्म स्वीकार कर लिया।
२६२६१. चन्द्रमा की हानि और बृद्धि एवं महानदी की पूर्णता और रिक्तता को देखकर तपा यह सोचकर कि यहां सब कुछ अनित्य और अध्रुध है, पंचाल राजा ने भी मुनि धर्म को स्वीकार कर लिया।
२६३. मिथिलापति नमिराजा छह मास से दाह रोग से पीड़ित था। राजा का पह रोग वैद्यों द्वारा भी अचिकित्स्य हो गया । कार्तिक पूर्णिमा के दिन राजा ने स्वप्न में शेषनाग और मेरुपर्वत को देखा । तत्पश्चात् नंदी सूर्य का घोष सुनकर प्रतियुद्ध हो गया ।
२६४. विदेह के दो नमिराजा राज्य को छोड़कर प्रश्नजित हुए थे। उनमें एक तीर्थकर हुए और एक प्रत्येकबुद्ध ।
२६५. ये भगवान् नमितीर्थकर अपने पुत्र को राज्य देकर परिग्रह छोटकर, हजार व्यक्तियों से परिवत होकर प्रनजित हुए।
१. देखें-परि० ६, कथा सं ४९ २. वही, कथा सं०५०
३. वही, कथा सं०५१ ४. वही, कथा सं० ५२
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२११ २६६. दूसरे नमिराजा भी शतशः गुण समन्वित राज्य को छोड़कर, परिग्रह का त्याग करके प्रवजित हुए। यहां दूसरे नमिराजा का अधिकार है ।
२६६।१. फरकंड आदि चारों राजाओं का दुशोत्तर प्रमाग से 41, एयः हेदुः । प्रतिबोध, प्रवज्या, कैवल्य-प्राप्ति तमा सिद्धिगमन-ये सारे एक ही समय में अर्थात् समसमय में हुए थे।
२६७, बहुत कंकणों का शब्द सुनकर तथा एक कंकण का अशब्द मानकर मिथिलाधिपति नमि राजा ने अभिनिष्क्रमण कर दिया ।
२६८, मंजरियों, पल्लवों और पुष्पों से उपचित एक मनोभिराम आम्रवृक्ष की (वसंत में) ऋद्धि और (पतझड़ में) अऋद्धि को देखकर गंधार राजा ने मुनि धर्म स्वीकार कर लिया ।
२६९, दुर्मुख ने करकंड़ से कहा-'तुम राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्त:पुर आदि का त्याग कर प्रवजित हुए हो तो फिर संचय क्यों करते हो ? (कंड्रयक को छिपाकर क्यों रखते हो ?) ।
२७०. तब नमि ने दुर्मुख से कहा - 'तुम्हारे पैतृक राज्य में अनेक फमकर थे, जो दूसरों के अपराध, दोष आदि का ध्यान रखते थे। प्रव्रज्या लेकर तुमने उन कर्मकरों के कृत्य को छोड़ दिया। आज तुम दूसरों का दोष देखने वाले कैसे बन गए ?'
२७१. सन गंधारराजा ने नमि से कहा-'तुम सब कुछ त्याग कर मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बने हो तथा आत्मा से आबद्ध कर्मों का सर्वथा नाश करने वाले हो तो फिर सुम दूसरों की नहीं क्यों करते हो?'
२७२. तब करकंडु ने कहा- 'जिन्होंने मोक्षमार्ग को स्वीकार किया है, जो मुनि है, ब्रह्मचारी है-शान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाले हैं, ये यदि अहित का निवारण करते हैं तो उसे घोष नहीं कहा जा सकता है।' दसवां अध्ययन : दुमपत्रक
२७३,२७४. दुम शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, दथ्य और भाव । द्रध्य म के दो निक्षेप है—भागमतः और नो-आगमतः । नो-आगमत: द्रुम के तीन प्रकार हैं- शरीर, भव्यशरीर और सद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
२७५. द्रुम आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावद्रुम होता है। इसी प्रकार पत्र शब्द के भी चार निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रश्य और भाव ।
२७६. आयुष्य को एमपत्र की उपमा दी गई है। जैसे- द्रुमपत्र काल का परिपाक होने पर स्वतः वृक्ष से गिर जाता है अथवा उपक्रम- वायु आदि के द्वारा वृक्ष से अलग हो जाता है, वैसे ही आयुष्य की स्थिति पूरी होने पर अथवा आयुष्य का उपक्रम पूर्ण होने पर प्राणी मर जाता है। इस अध्ययन के प्रारम्भ में द्रुमपत्र शब्द है, इसलिए इस अध्ययन का नाम द्रुमपत्रक है ।
२७७. मगधदेश के रामगृह नगर से भगवान महावीर ने शाल, महाशाल शिष्यों को गौतम स्वामी के साथ भेजा । वे वहां से विहार कर पृष्ठचंपा पहुंच गए।
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नियुक्तिपंचक
२७८. पुष्ठचंपा में गाल अपने माता-पिता के साथ जित हुआ। भार्म में तीनों को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । ने चंपापुरी पहुंचे । गौतम स्वामी ने भगवान् को वन्दन किया पर उन तीनों ने अन्दन नहीं किया ।
२७९-८१. चंपापुरी के पुण्यभद्र चैत्य में यशस्वी जगनायक भगवान् महावीर ने श्रमणों को आमंत्रित कर कहा--'आठ प्रकार के कर्मों को मथने वाले, स्वभावत: विशुद्धलेश्या वाले तथा कृतकृत्य भगवान ऋषभ की निर्वाण भूमि अष्टापद पर्वत है । वे भरत के पिता ऋषभ तीन लोक में आलोक फैलाकर यशस्वी बने । जो अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर भगवान् की वंदना-स्तुति करता है, वह मुनि चरमशरीरी होता है।
२२. वैताड्यशिखर के पास सिद्धपर्वत है । वहां साधु की हो अवस्थिति होती है, असाधु की नहीं।
२८३. चरपशरीरी साधु ही उस पर्वत पर चढ़ सकता है, दूसरा नहीं । यह उदाहरण भगवान् महावीर ने दिया था।
२८४. भगवान् के वचन को सुनकर प्रथितकीर्ति गौतम वहां गए और उस श्रेष्ठ पर्वत पर चढ़कर जिनभगवान् की प्रतिमाओं को वन्दना की।
२८५. उस समय सर्वऋद्धिसम्पन्न वैश्रमण देव अपनी परिषद के साथ वहां आया। उसने चैत्यों की वन्दना कर भगवान गौतम को वन्दन किया।
२८६. प्रथितकीति गोतम स्वामी ने वहां पुण्डरीक वृत्तात की प्रज्ञापना की और दसमभक्त (चार दिन के उपवास) के पारणे में कौडिन्य तापस को प्रवजित किया ।
२८७,२८८. सस श्रमण की सभा में अल्पकर्मा इंद्र ने गौतम द्वारा प्ररूपित पुगइरीक का वृत्तान्त सुना । उससे बोध प्राप्त कर वल्गुविमान से च्युत हो वह इन्द्र तुंबवन में धनगिरि की पत्नी सुनन्दा का पुत्र हुआ।
२८९-९९. दत्त, कोडिन्य और शैवाल-ये तीनों तापस पांच-पांच सो परिवार के साथ अष्टापद पर्वत पर चढ़ने के लिए आए । कौडिन्य तापस चतुर्थ भक्त के पारणे में कंडू आदि सचित्त आहार करता । (वह अष्टापद के नीचे की मेखला तक ही चढ़ पाया।) दत्त तापस पारणे में अचिप्त आहार करता । (यह पर्वत की मध्य मेखला तक ही चढ़ पाया ।) तीसरा शैवाल तापस अष्टम भक्त के पारणे में शुष्क शवास का आहार करता । (वह पर्वत की उपरितन मेखला तक ही चढ़ पाया ।) गौतम स्वामी की ऋद्धि देखकर चे तीनों बिगतमोह अनगार होकर प्राजित हो गए। प्रथम तापस को झीर भोजन के चितन से, दूसरे को परिषद् देखने से तथा तीसरे को जिन भगवान के दर्शन करने से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सभी गौतम के साथ भगवान महावीर को वंदना करने उपस्थित हुए । जब तीनों तापस केवली-परिषद् की ओर जाने लगे तब गौतम स्वामी ने कहा--'इधर आमो, भगवान् को वंदन करो ।' गौतम के ऐसा कहने पर भगवान् नै गौतम से कहा- 'गौतम ! ये तो कृतकृत्य हो गए है। भगवान् के बचन सुनकर गौतम दुःखी हुए। वे सोचने लगे-मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं हो रहा है ? तब भगवान् बोले-'गौतम ! तुम मेरे चिरसंसृष्ट हो, चिरपरिचित हो, पिरकाल से अमुगल हो । जम तुम्हें देह का भेवशान होगा तब हम दोनों एक समान हो जायेंगे ।
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उत्सराध्ययन नियुक्ति जैसे पुनर्भय न करने वाले क्षीणसंसारी हो जायेंगे । हम इस अर्थ को जानते हैं, वैसे ही विमानवासी देव भी इस तत्त्व को समझते है । सब कुछ जानते हुए भी भगवान् महावीर ने प्रथितकीति गौतम से पूछा – गौतम ! देवों के वचन ग्राह्म है अथवा जिनेश्वर देव के ? भगवान की वाणी सुनकर गौतम अपने मिथ्याचार का प्रतिक्रमण करने के लिए उत्कंठित हुए । उनकी निश्रा में भगवान् ने शिष्यों को अनुशिष्टि प्रदान की।
३७४३०२. लावण्यविहीन, शिथिल संधियों वाला, वृन्त से टूटकर नीचे गिरता हुआ आपदग्रस्त तथा कालप्राप्त वृक्ष का पांडर पत्ता किसलय से बोला-'अब जैसे तुम हो, वैसे ही हम भी थे। अब जैसे हम हैं, वैसे ही तुम भी बनोगे ।' पारपत्र और किसलय का ऐसा उहलाप न हुआ है और न होगा । यह केवल भव्यजनों को प्रतिबोध देने के लिए उपमा दी गई है।
ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रुतपूजा
३०३. महु, श्रुत और पूजा-इन तीनों शब्दों के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य बहुत्व में जीव और पुद्गल का बहत्त्व विवेथिस है।
३०४. भावबहुत्व में अनन्त गमों से युक्त चौदह पूर्व बहक हैं । ये क्षयोपशम भाव में बरतते हैं । क्षायिकभाव में बर्तमान केवलशान भी भावबहुक है क्योंकि उसके मनन्त पर्याय हैं।
३०५. द्रव्यश्रुत पुण्डज आदि हैं अथवा अक्षररूप में लिखित पुस्तक आदि द्रव्यश्रुत हैं । भावभ्रत के दो भेद हैं- सम्यक्थुत और मिथ्याश्रुत ।
३०६, भवसिद्धिक जीव तथा सम्मकदृष्टि पीव जिस श्रुत को पढ़ते हैं, वह सम्यक्त होने के कारण भावश्रुत है । यह भावश्रुत आठ प्रकार के कर्मों का शोधक है, शुद्धिकारक है।
३०७, अभयसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव जो अध्ययन करते हैं, वह मिथ्याश्रुत है । मिथ्याश्रुत कर्मबंधन का हेतु है।
३०८. ईश्वर (धनपति), तलवर (राजा आदि), माडम्बिक (जस्लदुर्ग का अधिपति), शिव, इन्द्र, स्कन्ध, विष्णु आदि की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्य पूजा होती है।
३०९. तीर्थकर, केबली, सिद्ध, आचार्य और समग्र साधुओं की जो पूजा की जाती है, वह भाव पूजा है।
२१०. जो चतुर्दश पूर्वघर और निपुण सर्वाक्षरसन्निपाती हैं, उनकी पूजा भी भाव पूजा है। यहां इसी मावपूमा का अधिकार है।
१. देखें-परि० ६, कथा सं० ५३ २. शांटी, पत्र ३४४ : सर्वाणि-समस्तानि मान्यक्षराणि-अकारादीनि तेषां सन्निपातनं
तत् तदर्थाभिधायकतया सांगत्येन घटनाकरणं सर्वाक्षरसन्निपातः, स विद्यते अधिगमविषयतया येषां तेऽमी सर्वाक्षरसन्निपातिमः।
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नियुक्तिपंपक बारहवां अध्ययन :हरिकेशीय
३११,३१२. हरिकेश शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमत:, नो-आगमतः । नो आगमत: के तीन भेद -शरीर, भव्यशरीर और सव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के सीन भेद हैं-एकभषिक, बदायुष्क और अभिमुखनामगोत्र।
३१३. हरिकेश नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावतः हरिकेश होता है। हरिकेश से उद्भूत होने से इस अध्ययन का नाम हरिकेशीय है ।
३१४, हरिकेश ने पूर्व भव में प्रजित शस्त्र युवराज के पास दीक्षा ली थी । किन्तु जातिमद के प्रभाव से वह हरिकेश कुल में उत्पन्न हुआ।
___३१५. मथुरा में प्रवजित शंखमुनि विहार करते हुए गजपुर नगर में गए। वहां एक पुरोहित पुत्र को मार्ग पूछा । उसने द्वेषवश अग्नि के समान उष्ण मार्ग बता दिया। उस मार्ग पर पाडिहेरद्वारपाल की भांति सदा एक देव सन्निहित रहता था। मुनि उस मार्ग से गए। (देवयोग से वह भीतल हो गया ।)
३१६. हरिकेश, चण्वास, श्वपाक, मातंग, बाह्य, पाण, पदानघन, मृताश, प्रमशानवृत्ति और नीच-ये एकार्थक शब्द हैं।
३१७. हरिकेश का जन्म 'मृतगंगा' (सूखे प्रवाह थाली गंगा) के तट पर हुआ । प्रव्रजित होकर वे वाराणसी के तिन्दुक बन में ठहरे। वहां गंडोतिन्दुक मक्ष का मंदिर था। कोशलिक राजा की कन्या सुभद्रा वहां पूजा करने आई । उसने मुनि का रूप देखकर घृणा से उस पर थूक दिया । उसका मुनि के साथ विवाह । मुनि द्वारा परित्यक्त । मुनि का यशबाट में भिक्षा के लिए जाना ।
३१८. बलकोट्ट नामक हरिकेशों का अधिपति बलकोट्ट था । उसके दो स्त्रियां थीं-गौरी और गान्धारी। गौरी ने स्वप्न में बसन्त मास देखा । बलकोट्र में उत्पन्न होने के कारण पुत्र का नाम 'बल' रखा । उत्सव में सपं के आने पर उसे मार डाला गया। दूसरी बार भेरुण्ड सर्प का (दुमुही) निकलना। उसे नहीं मारा गया।
३१९. मनुष्य को भद्र होना चाहिए । भद्र मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है। सबिष सर्प मारा जाता है और निर्विष भेरुण्ड सर्प छोड़ दिया जाता है।
३२०. वाराणसी नगर के तिदुक उद्यान में तिदुक नामक यमायतन था। वहां गंजीतिदुक यम रहता था। उसी के कारण उस उचान का माम गंडीतिदुकवन पक्षा।
३२१. एक दूसरा यक्ष गंडीतिदुक पक्ष को अपने उद्यान में ले गया। गंडी यक्ष ने कहा-'अरे ! यहां तो मुंडितमात्र होने वाले दीक्षित व्यक्तियों की जमात है। यहाँ तो स्त्रीकथा, जनपदकया और राजकथा हो रही है । चलो, हम तिन्दुक उद्यान में लौट चलें ।"
१. देखें परि०६, कथा सं०५४
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२१५.
उत्तराध्ययननियुक्ति
तेरहवां अध्ययन विसंभतीय
३२२,३२३. चित्र, संभूत शब्द के चार निक्षेप हैं— नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं- बागमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-जशरीर, भव्यशरीर और तदुद्व्यतिरिक्त । तद्द्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुख - नामगोत्र ।
३२४. चित्र और संभूत के आयुष्य का वेदन करने वाले भावतः चित्र और संभूत हैं। उन दोनों के नाम से समस्थित यह अध्ययन 'चित्रसंभूतीय' है ।
३२५. साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र था मुनिचन्द्र सागरचन्द्र के साथ मुनिचन्द्र प्रजित होकर श्रमण बन गया।
३२६. अटवी में तृष्णा और सुधा से व्याकुल श्रमण (भुनिचन्द्र ) को देखकर गोपालकों ने प्रासुक अन्न से उसे प्रतिलाभित किया। फिर भुनि के उपदेश से दे चारों गोपालक पुत्र बोधि की प्राप्त हो गए ।
३२७. मुनि के मलदिग्ध शरीर को देखकर दो गोपालक पुत्रों को घृणा हो गई । जुगुप्सा करने के कारण वे दोनों मरकर दशाणं जनपद में दास रूप में उत्पन्न हुए और शेष दो गोपालकपुत्र इषूकारपुर के ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। यहां ब्रह्मदत्त का अधिकार है 1
३२८,३२९. पांचाल जनपद का राजा ब्रह्म, काशी जनपद का राजा कटक, कुरु जनपद का राजा कर्णेरदत्त, अंग जनपद का राजा पुष्पबूल, कोशल जनपद का राजा दीर्घ- ये पांचों मित्र राजा थे। इन सभी ने एक ही समय में पाणिग्रहण किया था अर्थात् ये सभी समवयस्क थे । ( राजा ब्रह्म के मर जाने पर ) चारों मित्र राजा एक-एक वर्ष उस राज्य की सार-संभाल करने के लिए वहां रहने लगे।
३३०. ब्रह्मराज के चार स्त्रियों थीं इन्द्रश्री, इन्द्रयथा इन्द्रवसु और चुलनीदेवी । चूलनी देवी ने ब्रह्मदत्त नामक पुत्र को जन्म दिया। उसी दिन धनु नामक सेनापति के वरधनु नामक पुत्र हुआ
३३१-३५. चित्र राजा की कन्या विद्युत्माला और विद्युत्मती चित्रसेन की कन्या भद्रा, पन्धक राजा की कन्या नागयशा, कीर्तिसेन की कन्या कीर्तिमती, यक्षहरिल राजा की कन्या देवी, नागदत्ता, यशोमती और रश्नवती, चारुदत राजा की कन्या बच्छी, कात्यायनगोत्रीय वृषभ राजा की कन्या शिला, धनदेव, वणिक्, वसुमित्र, सुदर्शन और मायावी दाहक – ये चारों कुक्कुट युद्ध के प्रसंग में परस्पर मिले थे, वहां की पुस्ती नामक कम्या, पोत राजा की कन्या पिंगला, सागरदस वणिक् की कन्या दीपशिखा, काम्पिल्य की पुत्री मलयवती, सिन्धुदत्त की कन्या वनराजि और सोमा, सिन्धुसेन की कन्या वानीरा प्रद्युम्नसेन की कन्या प्रतिका- ये सभी ब्रह्मदत्त की रानियां थीं। हरिकेशा, गोदा, करेणदत्ता, करेणुप्रदिका, कुंजरसेना, करेणुसेना, ऋषिवृद्धि, कुवमती – ये आठों ब्रह्मदत्त के अन्तःपुर की प्रधान रानियां थीं। महारानी कुरुमती स्त्रीरत्न थी ।
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नियुक्तिपंचक ३३६,३३७. ब्रह्मदत्त काम्पिल्यपुर, गिरितटक, चम्पा, हस्तिनापुर, साकेत, समकटक, अवश्यानफ, वंशीप्रासाद, समकटक आदि नगरों में घूमता हुआ अटवी में पहुंचा। वहां पर तृषा से अभिभूत हो गया । उसने वरधनु से कहा तो वह ब्रह्मदत्त को एक वटवृक्ष की छाया में लेटाकर बोला --'मैं एक संकेत दूंगा तब तुम यहां से पलायन कर जाना ।' यह कहकर वह स्वयं पानी की खोज में निकला । बह जल लेकर वापस लौट रहा था तब दीर्घपृष्ठ के अनुषर कुमार को खोजते हुए वहां पहुंच गए। उन्होंने दरधुन को पकड़ लिया फिर उसे बंधन से बांधकर आक्रोश दिखलाया, दुष्टवचनों से उसकी मसना की।
___ ३३८. अनुचरों ने वरधनु को पीटते हुए पूछा-'बोलो, कुमार कहाँ है ? तुम उसे कहां ले गए हो ?' वरधनु ने एक संकेत किया और पानी के साथ एक विरेचन की गुटिका ले ली। उस गुटिका से बेहोगी मा गई और मुंह में झाग आ गए । उसने कपटमृत्यु का वरण कर लिया । गुप्तचरों ने उसे मृत समझकर छोड़ दिया।
३३९. इधर कुमार बरधनु की सांकेतिक भाषा को समझकर, भयभीत होता हुआ उत्पथ से पलायन कर गया । मार्ग में एक देव ने उसके सामर्थ्य की परीक्षा करने के लिए स्पविर का रूप बनाकर उसे धोखे में मल दिया।
३४०. वहां से घूमता हुआ कुमार वटपुर, ब्रह्मस्थल, वट स्थल, कोशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, गिरिपुर, मथुरा और महिछत्रा आदि नगरों में पहुंचा।
३४१. कुमार अहिच्छत्रा से मला और एक महान् अटवी में पहुंच गया। वहां उसने आभरण, वस्त्र एवं गुणों से युक्त एक वनहस्ती देखा । बह उस पर आरूढ़ हो गया। हाथी कुमार को भयंकर वन में ले गया । कुमार अटवी से बाहर निकलकर वटपुर गया। यटपुर से श्रावस्ती के लिए प्रस्थान किया। चलते-चलते एक छोटे गांव में पहुंचा।
३४२. नदी और अरण्य गहन होते हैं पर पुरुषों के हृदय उससे भी अधिक गहन होते हैं। आप अपना पुण्यपत्त' दें। हमारे प्रिय पुत्र हुआ है।
३४३. वहां से कुमार सुप्रतिष्ठानपुर में पहुंचा । वहां भिकुंडी राजा से निष्कासित कन्या कुसकुणी जितशत्रु राजा के पास से मथुरा से अहिच्छत्रा जा रही थी। वह बीच के एक गांव में मिती।
३४४,३४५. इन्द्रपुर में शिवदत्त तथा समपुर में विशाखदत-इन दोनों की दो पुत्रियां कुमार को विट वेष में प्राप्त हुई। उसे यहां राज्य भी प्राप्त हुआ। वहां से कुमार राजगृह, मिथिला, हस्तिनापुर, चंपा, श्रावस्ती आदि नगरों में धूमा। यह कुमार ब्रह्मदत्त के नगरभ्रमण (नगरहिर्ग) का अवलोकन है।
____३४६. कुमार को चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई । वह दिविजयी बन गया। दीघंपृष्ठ राजा का रोष भी शांत हो गया । (देवताओं द्वारा कल्पवृक्ष के फूलों की माला अपित करने पर) कुमार को जातिस्मृति हुई कि मैं नलिनीगुल्म में देव रूप में उत्पन्न हुआ था। १. मानन्द से हत वस्त्र ।
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
३७. ब्रह्मदत्त ने जातिस्मृति शान द्वारा अपनी पूर्वजन्म की जातियों का दो पचों में प्रकाशन किया तथा उस श्लोक की पूर्ति का निवेदन किया। मुनि चित्र ने यह सुना और वहां आए । चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त को ऋदि के परित्याग का उपदेश दिया । यही सूत्र के अर्थ की परम्परा है।'
४८-५२. बृहद् वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इन पांचों गाथाओं के विषय में लिखा है-इन श्लोकों की परम्परा ज्ञात न होने के कारण इनका विवरण नहीं दिया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र पर निर्मित 'सुखबोधा' वृत्ति (पत्र १८५-९७) में तदविषयक विस्तृत कथानक है । उसी में से इन पांच श्लोकागत संक्षिप्त तथ्यों का विस्तार से आकलन किया जा सकता है।' चौदहवां अध्ययन : इषकारीय
३५३,३५४. इषकार शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, प्रव्य और भाष । द्रव्य के यो निक्षेप है--आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन निक्षेप है- शरीर, भव्यशरीर और तत्व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन भेद है एफविक, बद्धायक और ममखनामगोत्र ।
३५५. इषु कार नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भाव इषुकार होता है। इषकार से उद्भूत होने के कारण इस अध्ययन का नाम इषकारीय है।
३५६. पूर्वभव के स्नेह से संबद्ध, प्रीतिभाष, परस्पर अनुरक्त छह व्यक्ति भोग्य भोगों को भोगकर, अन्थिरहित होकर प्रबजित हो श्रमण बन गए।
३५७. श्रामण्य का पालन कर वे पपगुल्म नामक विमान में उत्पन्न हुए। यहां उनकी उत्कृष्ट स्थिति चार पल्योपम की थी।
३५८. यहां से च्युत होकर वे छहों व्यक्ति कुरुजनपद के इषुकार नगर में उत्पन्न हुए। ३ चरमशरीरी और विगतमोह थे।
३५९, इषुकार नगर में इषुकार राजा था। कमलावती देवी अग्रमहिषी पी। उसके पुरोहित का नाम भगु और उसकी पत्नी का नाम वाशिष्ठी था।
३६०. इषकार नगर में इषुकार राणा के पुरोहित के कोई संतान नहीं थी। ये दोनों पतिपत्नी पुत्र के लिए बहुत व्याकुल रहते थे ।
___३६१. गोपपुत्र देवों ने श्रमण का रूप बनाकर पुरोहित को बताया कि देवलोक से व्युत होकर पो देव तुम्हारे पुत्ररूप में उत्पन्न होंगे।
३६२. तुम्हारे वे दोनों पुत्र प्राजित होंगे। तुम उनकी प्रवज्या में बाधक मत बनना क्योंकि वे प्रवजित होकर बहुत लोगों को प्रतिबोध देंगे ।
३६३,३६४. उनका वचन सुनकर वह पुरोहित अपनी पत्नी के साथ दूसरे गोकुल ग्राम में चला गया । यहाँ उसके दो पुत्र हुए। वे बढ़ने लगे। पुरोहित उनको असद्भाव-प्रमणों के प्रति मिथ्या धारणा की शिक्षा देने लगा। वह कहता-पुत्रों ! ये श्रमण धूर्त है, प्रेत-पिशाचरूप हैं और नरमांस के भक्षक हैं । तुम उनकी संगति कभी मत करना । पुत्रों ! तुम नष्ट-प्रष्ट मत हो जाना।' १. देखें परि० ६, कथा सं० ५५
२. वही, कक्षा सं०५६
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E
निर्मुक्तिपंचक
३६५, ३६६. संयोगवश दोनों लड़कों ने वहां श्रमणों को देखा। जातिस्मृति ज्ञान से प्रबुद्ध हुए । फिर उन्होंने अपने माता-पिता को प्रतिबोध दिया। कमलावती रानी प्रबुद्ध हुई। उसने इषुकार राजा को प्रबोध दिया। इस प्रकार सीमाधर राजा इषुकार, भृगु पुरोहित, भृगुपत्नी वाशिष्ठी, राजपत्नी कमलावती और दोनों भृगुपुत्र – ये छहों व्यक्ति प्रव्रजित होकर परिनिर्वृत हो गए।
गाय अध्ययन समिक्षुक
३६७, २६८. भिक्षु शब्द के चार निक्षेप है नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य भिक्षु के दो क्षेत्र है- बागमतः, नो-आगमतः । आगमतः के तीन भेद हैं-शशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त भिक्षु निह्नवादि हैं। जो क्षुत्-कर्म का भेदन करता है, वह भावभिक्षु है ।
३६९. मेला, भेदन और भेतव्य-इन तीनों के दो-दो भेद हैं- द्रव्य और भाव ।
३७०. द्रव्य भेता है तक्षक, भेदन है परशु और भेतव्य काष्ठ भाव-भेत्ता है साधु, भेदन है तपस्या और भेतव्य हैं आठ प्रकार के कर्म ।
३७१. राग, द्वेष, तीन करण, तीन योग, गौरव, शल्य, विकथा, संज्ञा, क्षुत् – माठ प्रकार के कर्म, कषाय और प्रमाद - ये सभी जुत् हैं ।
३७२. जो सुव्रती ऋषि इन श्रुत् शब्द वाच्य अवस्थाओं का भेदन करते हैं, वे कर्मग्रंथि का भेदन कर अजरामर स्थानको होते है ।
सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य समाधि स्थान
३७३. एक के बिना दश नहीं होता अतः एक के ये निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापव, संग्रह, पर्याय और भाव- ये सात पृथक् पृथक् होते हैं ।
३७४ रा शब्द के छह निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । दश प्रादेशिक स्कन्ध द्रव्यदश है। अवगाहना स्थिति से दश प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध क्षेत्रदश है । दश समय की स्थिति कालदश है । दश संख्या से विवक्षित पर्याय भावदा है।
३७५. ब्रह्म शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी की ब्रह्म संज्ञा नामब्रह्म है । स्थापना ब्रह्म में ब्राह्मण की उत्पत्ति तथा द्रव्य में अज्ञानियों का वस्तिनिग्रह ज्ञातव्य हैं ।
३७६. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए वस्तिनिग्रह करना भावब्रह्म है। उसके लिए इस अध्ययन में विविक्त शायनासनसेवन आदि जो स्थान निरूपित हैं, उनका वर्जन करना चाहिए ।
३७७. चरण शब्द के छह निक्षेपों में द्रव्यचरण है— गतिरूप चरण तथा भक्षणरूप चरण । जिस क्षेत्र और काल में चरण की व्याख्या की जाती हैं, वह क्षेत्रचरण और कालचरण है। मूल और उत्तर गुणों का वरण भावचरण है ।
१. परि० ६, कथा सं० ४७
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उत्तराध्ययन निर्यक्ति
३७८. समाधि के पार निक्षेप है. नाम, स्थापना, मध्य और मात्र । माधुये आदि गुणों से युक्त द्रव्य से जो समाधि मिलती है, वह द्रव्यसमाधि है। ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र-यह भादसमाधि है।
३७९. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप है ... १. नामस्थान ।
९. संयमस्थान-संयम में अवस्थिति । २. स्थापनास्थान।
१०. प्रग्रहस्थान-आयुध-ग्रहण का स्थान । ३. द्रव्यस्थान ।
११. योधस्थान-युद्ध में आयुध-प्रहार हेतु की जाने वाली मुद्रा। ४. क्षेत्रस्थान-आकाश
१२. अचलस्थान- स्थिर स्था । ५. कालस्थान-समयक्षेत्र । १३. गणनास्थान-दो से शीर्षप्रहेलिका तक की गणना। ६. कर्वस्थान--कायोत्सर्ग । १४. संधानस्थान-अटित का संधान । ७. उपरतिस्थान-सर्वसावविरति । १५. भावस्थान-औयिक आदि भावों का स्थान । ८. वसतिस्थान-यतिनिवास । सतरहवां अध्ययन : पापभमगीय
३८०. पाप शब्द के छह निक्षेप है–नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रध्य के दो भेद हैं-आगमतः और नो-आगमत: । नो-आगमतः के तीन भेद है-जशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रण्य के तीन भेद है-सचित्त, अचित्त और मित्र ।
सचित्त द्रव्यपाप-जीवों की असुन्दरता । अचित्त द्रव्यपाप -चौरासी पाप प्रकृतियां । मिश्र द्रव्यपाप-पापप्रकृति युक्त जीव । शेषपाप-नरक आदि पाप-प्रकृति का उदयभूत स्थान। कालपाप-दुष्षमादि काल, जिसके प्रभाव से पाप उदित होता है ।
३८१. हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह तथा आगमों में निरूपित मिध्यात्व आदि अगुण-ये सभी भाव पाप है।
३८२. श्रमण शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य श्रमण में निहव आदि का ग्रहण होता है तथा भाव श्रमण में संयमसहित शानी का समावेश होता है।
३८३. जिनेम्बर देव ने प्रस्तुत अध्ययन में जिन अकरणीय भावों का निरूपण किया है, उनका सेवन करने वाला मुनि पापश्रमण कहलाता है।
३८४. ओ सुबती ऋषि इन पापों का वर्जन करते हैं, वे पापकर्म से मुक्त होकर निर्विघ्नरूप से सिसि को प्राप्त करते हैं। अठारहवां अध्ययन : संजयीय
१८५,३८६. संजयीय शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, तथ्य और भाव। द्रव्य संजयीय के दो भेद है-बागमतः, नो-आगमतः । नो-आगमसः के तीन भेद है-शरीर, मध्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेव है-एकविक, बवायुष्क बोर भभियुकभामगोत्र।
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२२०
नियुक्तिपंचक ३८७. संजय नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावसंजय होता है। भावसंजय से समुस्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम संजयीय हुआ है।
३८८.३८९. कांपिल्यपुर नगर का राजा संजय सेना सहित मृगया के लिए निकला । वह घोड़े पर सवार होकर भूगों को केसर उद्यान की ओर खदेड़ कर ले गया। यहां एकत्रित मृग अत्यन्त भयभीत हो रहे थे । वह रसलोलुप राजा उन्हें यहाँ यथित करने लगा।
३९०. वहाँ केसरउधान में दोषमुक्त गर्दभालि मनगार छाए हुए मंडप में ध्यान कर रहे थे।
३९१. घोड़े पर सवार राजा ने मुनि को देखा और भाकुल-व्याकुल होकर बोला-अहो ! खेद है, मैं अभी ऋषिहत्या से लिप्त हो जाता पर बच गया।
३९२-९४. राजा घोड़े को छोड़कर अनगार के पास गया । विनम्रता से बन्दना करके अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा । अनगार मौन धारण किए हुए थे इसलिए राजा को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया । तब राजा इनके तेज-तप से घबराकर इस प्रकार बोला-'भंते !मैं कोपिल्यपुर का अधिपति हूँ । मेरा नाम संजय है । मैं आपकी शरण में आया हूं। आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं ।'
३९५-९७. मुनि बोले. 'राजम् ! मैं तुझे अभय देता हूं। तुम इस पानी के बुबुदे के समान अनित्य मनुष्य जीवन में अपने दुःस्वजनक मरण को जानकर भी हिंसा को प्रश्रय देते हो । क्या यह उचित है ? संसार में सब कुछ छोड़कर एक दिन अवश्य हाना होगा। फिर इन किपाकफल के समान मोगों में क्यों आसक्त होते हो ?' राजा ने मुनि से धर्म का रहस्य जाना और समग्र वैभव से युक्त राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली।
३९८. बहुत वर्षों तक तपश्चरण के द्वारा सारे मलेशों--राग-द्वेष बादि को नष्ट कर राजा ऐसे स्थान को प्राप्त हो गया, जहां जाकर किसी प्रकार का शोक नहीं करना पड़ता अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से ग्रस्त नहीं होना पड़ता ।' उन्नीसवां अध्ययन : मृगापुत्रीय
३९९,४००. मृगा शब्द के चार निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रष्य के दो भेद है आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद है ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद है—एकविक, बसायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
४०१. मृगा के मायु, माम, गोत्र का वेदन करने वाली भावमृगा होती है । इसी प्रकार पुष शब्द के भी चार निक्षेप है।
४०२. मृगादेवी महारानी के पुत्र बलपी से यह अध्ययन समुत्पन्न हुआ इसलिए इसका नाम मृगापुत्रीय है।
४०३-१०. सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का एक राजा था। उसकी पटरानी का नाम मगावती था । उन दोनों के बलधी नाम का पूत्र था। वह धीमान, बचऋषभसंहनन वाला तथा सद्भवमुक्तिगामी पा । उसे युवराज बना दिया गया। वह विकसित हृदयवाला युवराज रमणीक और १. देखें परि० १, कथा सं० ५५
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उत्तराध्ययन नियुक्ति
२२१
आनन्दमम प्रासाद में प्रमदाओं के साथ दोगदक देवों की भांति क्रीड़ारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के झरोखे में बैठा-बैठा नगर के विस्तीर्ण, ऋज तथा सम विपणि-मागों को देख रहा था। उस समय राजमार्ग में उसने श्रुतसागर के पारगामी, धीर-गंभीर, तप, नियम तथा संयम के धारक संयती मुनि को देखा | राजपुत्र उस मुनि का अनिमेषदृष्टि से देखता रहा । उत्तं सगा कि ऐसा रूप मैंने पहले भी कभी देखा है। ऐसा विचार करते-करते उसे संशिज्ञान-जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ और उसे स्मृति हो आई कि पूर्वभव में मैंने भी ऐसा साधु-जीवन स्वीकार किया था । इस प्रकार बोधिलाभ प्राप्त कर वह माता-पिता के चरणों में प्रणिपात कर बोला- पिताजी ! मैं इस गृहस्थ जीवन को छोड़कर श्रमणत्व-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूं।'
४११-१५. माता-पिता ने सोचा कि बलश्री (मृगापुत्र) अपने निर्णय के अनुसार करेगा ही तब उन्होंने कहा-पुत्र ! तुम धन्य हो, जो सुख-सामग्री की विद्यमानता में विरक्त हए हो। पूत्र ! तम सिंह की तरह अभिनिष्क्रमण कर सिंहत्ति से ही उसे निभाना । धर्म की कामना रखते हुए काम-भोगों से विरक्त होकर विहरण करना । वत्स ! तुम ज्ञान से, दर्शन से, चारित्र से तथा तपसंयम और नियम से, शांति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना । संवेगजनित हर्ष से हर्षित और मोक्षगमन के लिये उत्कंठित बलश्री ने माता-पिता के भाशीर्वादात्मक वचन को हाथ जोड़कर स्वीकार किया । परम ऐश्वर्य से अभिनिष्क्रमण कर परमघोर श्रामण्य का पालन करके वह धीर पुरुष वहाँ गया, जहां संसार को क्षीण करने वाले जाते है, अर्थात् वह मोक्ष चला गया।' बोसवां अध्ययन : महानिप्रन्योप
४१६. क्षुल्लक शब्द के आठ निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्थान, प्रति और भाव । इन झुल्लकों का प्रतिपक्षी ई-महत् । उसके भी आठ निक्षेप हैं।
४१७,४१८, निम्रन्थ शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के सीन भेद है जशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में निहव आदि आते है । भाव निक्षेप पांच प्रकार का है, जो निम्नांकित द्वारों से ज्ञातव्य है
४१९-२१. प्रशापना, वेद, राग, कल्प, पारित्र, प्रतिसेवना, शान, तीर्थ, लिंग, शरीर, क्षेत्र, काल, गति, स्थिति, संयम, सन्निकर्ष, योग, उपयोग, कषाप, सेश्या-परिणाम, बंधन, उदय, कर्मोदीरण, उपसंपद्-ज्ञान, संज्ञा, आहार, भव, आकर्ष, काल, अन्तर, समुद्घात, क्षेत्र, स्पर्शना, भाव, परिणाम इत्यादि द्वारों से निर्ग्रन्थ ज्ञातव्य है तथा महानिर्गन्थों का अल्प-बहुत्व भी ज्ञातव्य है ।
___४२२. निर्ग्रन्य वे होते हैं, जो बाल और आभ्यन्तर सावध ग्रन्थ से मुक्त होते हैं । यह महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन की नियुक्ति है। इक्कीसवां अध्ययन : समापालीय
__४२३. समुद्रपाल शब्द के पार निक्षेप हूँ-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमत । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-सशरीर, भव्यशरीर
१.देखें परि.६, कया सं०५९
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२२२
नियुक्तिपंधक
और तद्व्यतिरिक्त
४२४. समुद्रपाल की आयु का बेदन करता हुआ भाव समुद्रपाल होता है। समुद्रपाल से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम समुद्रपालीम है ।
४२५-३५. चंपा नगरी में पालित नाम का सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान् महावीर का अनुयायी था । वह सामुद्रिक झ्यापारी पा। एक बार वह गणिम-सुपारी भादि तया धरिम--स्वणं आदि वस्तुओं से भरे जहाज को लेकर पिहूं नाम के नगर में पहुंचा और वहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने लगा। एक वणिक ने अपनी पुत्री के साथ उसफा विवाह कर दिया । वह अपनी पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा । उस वणिकपुत्री अर्थात् पालित की पत्नी ने समुद्र-मार्ग में ही एक एन हो जन्म दिगा ! वन स मन्दर र मनोरनी था । उसका नाम समुद्रपाल रखा गया । यह पालिन श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा । शिशु समुद्र पांच धायों के बीच में बडा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया । यौवन में प्रवेश कर अत्यधिक सुन्दर दीखने लगा । उसके पिता पालित ने उसका विवाह रूपिणी नामक कन्या से कर दिया । वह स्त्रियों के चौसठ गुणों से मुक्त तया देवांगना सदृश रूपवती थी। जैसे दोगुन्दक देव क्रीडारत रहते हैं, वैसे ही समुद्रपाल अपनी पत्नी रूपिणी के साथ पुंडरीक भवन में कीड़ारत रहता था। वह सदा नौकरों से घिरा रहता था। एक बार वह अपने पत्नी के साथ भवन के झरोने में बैठा था । उसने राजमार्ग पर राजपुरुषों द्वारा एक वष्य को ले जाते देखा । उसके पी संकटों व्यक्ति चल रहे थे । उसको देखते ही सम्यक्त्व और ज्ञान के धनी कुमार ने सांसारिक दुःखों से भयभीत होकर सोचा-हाय ! यह निकृष्ट पापकर्मों का प्रत्यक्ष फल है। संबोध प्राप्त कर कुमार समुद्रपाल अनुत्तर वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीति वाले उस कुमार ने मातापिता की आज्ञा लेकर अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रज्या ग्रहण कर सी।
४३६. अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा क्लेशों का क्षय करके उसने उस स्थान को प्राप्त किया, जिस स्थान को प्राप्त कर कोई शोक नहीं रहता।
बावीसवां अध्ययन : रथनेमीय
४३७,४३८. रचनेमि शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, व्य और भाव । द्रष्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत; के तीन प्रकार है-शशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन प्रकार है-एकभविक, बदायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
४३९. रयनेमि नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावरथनेमि होता है। उसी से समुस्थित यह अध्ययन रथने मीय कहलाता है ।
४४०-४४. शौर्यपुर नगर में समुद्रविजय नाम का राजा था । उसके सर्वाग सुन्दर शिवा नाम की महारानी थी। उनके चार पुत्र हुए-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और हडनेमि । अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थकर हए तथा रचनेमि और सत्यनेमि प्रत्येकबुद्ध हुए। रथ नेमि चार सौ वर्ष गृहस्थावास में रहे । एक वर्ष छमस्य पर्याय में और पांच सौ वर्ष केवली पर्याय में रहे। उनका समप्र आयुष्य ९०१ वर्ष का था । राजीमती का भी कासमान इतना ही जानना चाहिए ।
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२२३
उत्तराध्ययन नियुक्ति तेवोसो अध्ययन : केशि-गौतमोय
४४५,४४१. गौतम शब्द के चार निक्षेप हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाद। द्रव्य के दो भेद-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-जशरीर, भव्यशरीर और सव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभबिक, बदायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
४४७,४४. गौतम नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावगौतम होता है। इसी तरह केशी के भी घार निक्षेप होते हैं । गौतम और के शी के संवाद से समस्थित इस अध्ययन को केशिगौतमीय कहा गया है।
४४९-५१. शिक्षानत, लिग वेष, शत्रुपराजय, पाशावकर्तन, तंतुबन्धन-उद्धार-तृष्णाक्षय, अग्नि-निवपिन, दुष्ट का निग्रह, पय-परिज्ञान, महास्रोतनिवारण, संसार-पारगमन, तम का विधातन, स्थानोपसंपदा-ये केशी और गौतम के बारह पर्चनीय विषय थे।
चौबीसवां अध्ययन : प्रवचनमाता
४५२,४५३. प्रवचन शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, दृष्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-शशरीर, भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में कुतीथिक मादि का ग्रहण होता है। भावप्रवचन में द्वादशांग का समावेश है । इसे गणिपिटक भी कहा जाता है ।
४५४-५६. मातृ शब्द के पार निक्षेप - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद -आगमतः, नो-आगमतः । नो-मागमत: के तीन भेद है-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तदव्यतिरिक्त । द्रव्यमात है-भाजन में द्रव्य अर्थात् मोदक आदि । समितियां आदि को भावमात कहा जाता है। इनमें द्वादशांग रूप प्रवचन समाविष्ट है इसलिए इस अध्ययन का नाम प्रवचनमाता है। पच्चीसवां अध्ययन : यज्ञीय
४५७-५९. यज्ञ शम्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रष्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद है-शशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में ब्राह्मण आदि के यश आते हैं । तप, संयम का अनुष्ठान और आदर करना भावयज्ञ है । विजयघोष की यज्ञक्रिया में जयघोष अनगार आए। यज्ञ से समुस्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'यशीय' हो गया।
४६०,४६१. वाराणसी नगरी में काश्यपगोत्रीय दो विप्र थे। उनके पास घन और स्वर्ण का विपुल कोष या । वे षट्कर्मरत थे और चारों वेदों के ज्ञाता थे। उन दोनों जुड़वां भाइयों में परस्पर बाह्य प्रीति और आंतरिक अनुरक्ति थी। एक का नाम जयघोष और दूसरे का नाम विजयघोष था 1 वे भागमकुशल और स्वदाररत थे।
४६२-६७. एक दिन जयघोष गंगानदी पर स्नान करने गया। वहां उसने देखा कि सर्प मेंढक को निगल रहा है और सर्प को कुरर पक्षी ने पकड़ रखा है। सर्प को भूमि पर गिराकर उस पर
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नियुक्तिपंचक माक्रमण कर उसे स्तंभित कर दिया है । कुरर पक्षी के वशीभूत वह सर्प 'चौंपी' करते हुए मेंढक को खाने का प्रयत्न कर रहा है और वह करर पक्षी रौद्र रूप से सपं का खण्ड-खण्ड कर खाए जा रहा है। कुरर, सर्प और मंडूक के परस्पर घात-प्रत्याघात को देखकर जयघोष प्रतिबुद्ध हुआ। गंगा को पारकर श्रमणों के निवास स्थान पर आया और करुणा से ओतःप्रत होकर वह बाह्य तथा आभ्यन्तर अन्थियों से मुक्त होकर, असार केशों के साथ-साथ समस्त क्लेशों का परित्याग कर, प्रजित हो गया, निर्धन्य बन गया। वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच इन्द्रियों से संवत, संयम गुणों से संपन्न, पापों का शमन करने वाला तथा संयमयोगों में चेष्टा करने वाला तथा उन्ही में यतनाशील रहकर प्रवर श्रमण बन गया ।
४६८-७६. जयघोष मुनि एकरात्रिकी प्रतिमा को स्वीकार कर, विहार करते-करते वाराणसी नगरी पहुंचे। वहाँ एक उद्यान में ठहरे । मासखमण की दीर्ष तपस्या के कारण उनका शरीर क्षीण हो गया था। वे भिक्षा के लिए ब्राह्मणों के यज्ञबाट में उपस्थित हए । विजयघोष ने जयघोष से कहा-भंते ! आप यहां क्यों आएं हैं ? हम आपको यहां कुछ नहीं देंगे । आप अन्यत्र जाकर भिक्षा मांगें । याजक के द्वारा राजवाट में जाने से रोकनेररिमा का सार जानने वाले मुनि न संतुष्ट हुए न कष्ट हुए । मुनि ने याजक से कहा-'आयुष्यमान् ! सुनो, साधु के आचार में प्रतचर्या और भिक्षाचर्या निर्दिष्ट है । जो व्यक्ति राज्य और राज्यधी को छोड़कर प्रवजित होते हैं, वे भी भिक्षाचर्या का अनुसरण करते हैं क्योंकि निस्संग श्रमण के लिए भिक्षाचर्या घरण-करण का हेतुभूत तत्त्व है।' इन सब तथ्यों को समझकर याजक विजयघोष ने जयघोष से कहा--'भगवन् ! हमारे यहां बहुत भोजन सामग्री है । आप कृपा करके भिक्षा लें।' जयघोष ने कहा-'मुझे अभी भिक्षा से प्रयोजन नहीं है। मुझे धर्माचरण से ही मतलब है । तुम धर्माचरण करो तथा संसार-भ्रमण की परम्परा का अन्त करो।' जयघोष मुनि का धर्मोपदेश सुनकर विजयघोष भी प्राणित हो गया । जयघोष और विजयघोष-दोनों ही कर्मों को क्षीण कर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए. छम्मीसा अध्ययन : सामाचारी
४७७,४७८. साम शब्द के पार निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रव्य और भाय। द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं ---आगमतः, नो-आगमत: । नो-आगमतः के तीन भेद है—शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में शर्करा आदि द्रव्य साम हैं । भावसाम में इच्छा, मिच्छा आदि दस प्रकार गिनाए गए हैं।
४७८।१,२. इच्छाकार, मिन्छाकार, तथाकार, आवश्यकी, नषेधिकी, आपृच्छना, छंदना, उपसंपदा, निमंत्रणा-ये इस प्रकार की सामाचारियां हैं, जो यथाकाल की जाती हैं। इन सबकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की आएगी।
४७९,४८०. आचार शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, पुष्य और भाव। द्रष्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद है-शरीर, भव्यशरीर, तवव्यतिरिक्त । तदम्यतिरिक्त आपार में नामन आदि क्रियाएं आती हैं। भाष-आधार में दसविध सामाचारी का आवरण प्राप्त है।
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उत्तराध्ययननिर्मुक्ति
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४८१. प्रस्तुत अध्ययन में इच्छा आदि साम का आचरण वर्णित है, इसलिए इसका नाम सामाचारी अध्ययन है।
सत्तावीसवां अध्ययन :
लुकीय
४५२, ४६३, खक शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है - आगमतः, . नो-आगमतः । नो-आगमत के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्द्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त खलंक में बैल, अभय आदि हैं। यह द्रव्य खलुंकता है । समग्र पदार्थों में जो प्रतिकूलता है, यह भाव खलंकता है।
४८४. द्रव्य खलंक बेल के अनेक प्रकार हैं-
(१) अवदारी बैल गाड़ी को तोड़नेवाला अथवा अपने स्वामी को मार डालने वाला ।
(२) उसक बैल -- यत्किचित् देखकर चौंकने वाला |
(३) योत्रयुगभजक - जोती और जुआ को तोड़ने वाला ।
(४) लोभक चाबुक आदि को तोड़ने वाला |
(५) उत्पथ - विपथगामी - उन्मार्ग और विपथ में जाने वाला ।
४८५,४६६. जिस द्रव्य मैं कुब्जता, कशाला, भारीपन, दुःखनामिता (अकड़न ) आदि होते हैं, यह द्रव्य की खलूंकता है। इसी तरह वक्र, कुटिल और गांठों से व्याप्त पदार्थ भी बलुंकता में आते हैं। कुछ पदार्थ चिरकाल से वक्र ही होते हैं और कुछ पदार्थों को वक्र किया जाता है। जैसेकरमर्दी (एक प्रकार का गुल्म) का काठ हाथी का अंकुश और वृन्त । कुछ पदार्थ सरल रूप में अनुपयोगी होते हैं. उन्हें कुटिल बनाया जाता है ।
·
४८७-८९. कुछ शिष्य वंश-मशक, जलौका तथा बिच्छू के समान होते हैं। वे भाव खलुंक है। तीक्ष्ण असहिष्णु मृदु-कार्य करने में अलस, खंड- क्रुद्ध, मार्दविक – अत्यन्त आलसी, के प्रत्यनीक, शाल दोष लगाने वाले, असमाधि पैदा करने वाले, पापाचरण करने वाले, कलहकारी
गुरु
ये सारे जिनशासन में खलंक कहे जाते हैं । जो विशुन, परपीड़ाकारी, गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने वाले हैं, दूसरों का परिभव करने वाले हैं, जो व्रत एवं शील से रहित हैं तथा शठ हैं - वे भी जिनशासन में खलंक माने जाते हैं ।
४९०. इसलिए बलुंकभाव को छोड़कर पंडितपुरुष ऋजुभाव में स्वयं को नियोजित करे।
अट्ठाईसवां अध्ययन : मोक्षमार्गगति
४९१,४९२. मोक्ष शब्द के चार निक्षेप हैं नाम स्थापना, द्वष्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं- आगमतः, नो- बागमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, अव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में कारागृह, बेड़ी तथा श्रृंखला आदि से मुक्त होना द्रव्यमोक्ष है । आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होना भावमोक्ष है ।
४९३,४९४. मार्ग शब्द के चार निक्षेप - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । व्य निक्षेप के दो भेद हैं- आगमतः, नो भागमतः । दो-आणमत: के तीन भेद हैं- शरीर, मध्यशरीर, तद्ध्यतिरिक्त |
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नियुक्तिपंचक तदन्यतिरिक्त मार्ग में जलमार्ग, स्थलमार्ग आदि प्राप्त हैं । ज्ञान, दर्शन, धारित्र और तप-ये भावमार्ग हैं।
४९५,४९६. गति शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमत. ! नो-आगमतः के तीन भेद हैं-शशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तवष्यतिरिक्त में पुद्गलगति का समावेश होता है। भाव गति के पांच प्रकार हैं-- नरकति, लियंञ्चति, मनुष्यगति, देवगति और मोक्षगति सिद्धिगति । यहां मोक्षगति का अधिकार है, इसलिए उसी का विस्तार है।
४९७. इस बार में मो, गोर कार्यात गनिए इस अध्ययन का नाम मोक्षमागंगति जानना चाहिए । उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्व-पराक्रम
४९-५००. आदानपद के आधार पर इस अध्ययन का नाम सम्यक्त्व-पराक्रम है। इसका गौण नाम है-अप्रमाद । इसको बीतरागश्रत भी कहा जाता है। अप्रमाद शब्द के चार निक्षेप हैं - माम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमत के तीम भेद है-शशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त अप्रमाद उसे कहते हैं, जो शत्रजनों के प्रति बरता जाता है। अज्ञान और असंबर आदि में अप्रमाद रखना भावअप्रमाद है।
५०१,५०२. श्रुत शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार है-शरीर, भध्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्ध्यतिरिक्त सूत्र पांच प्रकार का है
१. ज--हंस आदि के अंगों से उत्पन्न सूत्र । २. बोंडष-कपास का सूत्र । ३. पासष-भेड़ आदि के ऊन का सूत्र । ४. बल्कज (वाकज)--सन का सूत्र | ५. कीटष-कीट की लाला से उत्पन्न सूत्र-पट्टसूत्र ।
५०३,५०४. भावभुत के दो प्रकार है-सम्यकश्रुत, मिश्यात । इस अध्ययन में सम्यक्त का अधिकार है। इसमें सम्यक्त्रुत और अप्रमाद का वर्णन किया हुआ है, इसलिए इसका नाम अप्रमादश्रुत है। तीसवां अध्ययन : तपोमार्गगति
५०५,५०६. तप शब्द के चार निक्षेप है.-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रष्य के दो भेद है-बागमतः, नो-आगमस: । नो-आगमत: के तीन भेद है-शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तव्यतिरिक्त तप में पंचाग्नि माथि सप माते हैं 1 भाव तप दो प्रकार का है-आध और आभ्यन्तर ।
५०७,५०८. मार्ग और गति शन के भी चार-चार निक्षेप हैं, जो पूर्व निर्दिष्ट हैं। प्रस्तुत प्रसंग में भावमार्ग--सिद्धिगति को जानना चाहिए। इस अध्ययन में दो प्रकार के तप तथा मार्ग और गति का वर्णन है इसलिए इस अध्ययन का नाम तपोमागंगति है।
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उत्तराध्ययननियुक्ति
इकतीस अध्ययन : चरण-विधि
५०९, ५१०. चरण शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य चरण के दो भेद हैं- आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं ज्ञशरीर भव्यशरीर, तदुत्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त शिक्षा आदि की गति अर्थात् भक्षण लिया गया है। आचार को क्रमान्वित करना भावचरण है ।
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५११, ५१२ विधि शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य विधि के दो भेद है - आगमतः, नो- आगमतः । नो-आगमता के तीन भेद हैं- शारीर, मध्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त विधि में इन्द्रियों की विषयचारिता ज्ञातव्य है । भाव विधि दो प्रकार की है— संगमोपयोग और तपोयोग ।
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५१३. प्रस्तुत अध्ययन में भाव चरण और भाव विधि का प्रसंग है। अतः अचरणविधि को छोड़कर चरणविधि में उद्यम करना चाहिए ।
बत्तीसवां अध्ययन : प्रभाव स्थान
५१४, १५, प्रमाद के चार निक्षेप है नाम स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य प्रमाद के दो भेद है – नागमतः, नो- आगमतः । नो- अगमतः के तीन भेद हैं शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त | सद्व्यतिरिक्त प्रसाद मय आदि जनित है। भाव प्रमाद है- निद्रा, विकथा, कषाय और विषय ।
५१६. स्थान शब्द के चौदह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊठवं उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना और संधना ।
५१७. यहां भावप्रमाद और संख्या युक्त भाचस्थान का अधिकार है अतः प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में प्रयत्न करना चाहिए।
५१८ हजार वर्ष तक उपतप तपने वाले आदिमाथ ऋषभ का संकलित प्रमादकाल अर्थात् समस्त प्रभावकाल एक अहोरात्र का था ।
५१९. बारह वर्ष से अधिक उग्र तप तपने वाले चरम तीर्थंकर महावीर का संकलित प्रमादकाल का है ।
५२०. धर्म के प्रयोजन से शून्य जिनका काल निरर्थक बीतता है, वे प्राणी प्रमाद के दोष से अनन्तकाल तक संसार में चक्कर लगाते हैं ।
को प्रमाद छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमाद करना
५२१. इसलिए पंडित 'पुरुष
चाहिए ।
तेतीसवां अध्ययन : कर्मप्रकृति
५२२, ५२३. कर्म शब्द के चार निक्षेप हैं-- नाम, स्थापना, दृष्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्म, नोकर्म कर्म में गृहीत है ।
और भाष । द्रव्य निक्षेप हैं- शशरीर, भव्यशरीर,
कर्म की अनुवयावस्था
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नियुक्तिपंचक ५२४, नोकर्म का अर्थ है द्रव्यकर्म । वह लेप्यकर्म, काष्ठकर्म आदि के रूप मे गृहीत है । आठों ही कर्मों के उदय को भावकर्म कहते हैं।
५२५,५२६. प्रकृति के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, ट्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशारीर, भक्ष्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तव्यतिरिक्त के दो भेद है-कर्म और नोकर्म। यहां कर्म को अनुदय रूप माना है। यह द्रव्य प्रकृति है।
५२७. नोफर्म द्रव्य में ग्रहणप्रायोग्य कर्म तथा मुक्तकम गृहीत हैं। भाव में मूल और उत्तर प्रकृतियों का उदय प्राप्त है।
५२८, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-कर्मों की इन अवस्थाओं को भली प्रकार से जानकर सदा इनके संवर और क्षपण के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । चौतीसवां अध्ययन : लेश्या अध्ययन
५२९-३१. लेण्या शम्द के पार निक्षेप है नाम, स्थापना, प्रश्य और भाव । द्रव्य के दो भेद -आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं . जशरीर, भत्र्यशरीर, सदष्यतिरिक्त । तथ्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कमलेश्या, नोकर्मले श्या। नोकर्म लेश्या के दो भेव --जीवले श्या, अजीटलेष्णा । 'जीवले या के दो प्रकार हैं -भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक । दोनों के सात-सात प्रकार हैं । (करुण आदि छह लेश्याएं तथा सातबी लेश्या है संयोगजा।)
५३२,५३३. अजीव लेश्या के दो भेद है- कर्मलेश्या, नोकर्मलेश्या। नोकर्म द्रव्यलेश्या के दस प्रकार है-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, आभरण, आच्छादन, आदर्शक- दर्पण, मणि और काकिणी-चक्रवर्सी के रत्नविशेष की प्रभा। यह दश प्रकार की अजीव द्रव्यलेश्या है ।
५३४. द्रध्यम म-लेश्या के छह प्रकार है-कृष्ण, नील, कापोत, तेज,, पन और शुक्ल ।
५.३५. भायलेण्या के दो प्रकार है : विशुद्ध और अविशुद्ध । विशुद्ध भावलेण्या के दो भेद हैंउपणास कषाय और क्षीण कषाय ।
५३६. अविशुद्ध भावलेश्या के नियमित दो भेद हैं राग और द्वेष । यहाँ कमलेश्या का अधिकार है।
५३७. नोकर्मलेश्या वे दो भेद है ---प्रायोगिक और वैनसिक। जीव के छहों लेश्याओं के उदय को भाषलेश्या कहते हैं।
५३८,५३९. मध्ययन शब्द के पार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, दम्य और भाव । तप के दो भेष है - आगमत:, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद है-शरीर, मश्यशरीर और
सरित। तवष्यतिरिक्त अध्ययन में पुस्तके आदि गृहीत है। अध्यात्म का आनयन माव मध्ययम है।
५४०. इस लेश्याओं का शुभ-अशुभ परिणाम जानकर अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त लेश्याओं में प्रयाशील रहना चाहिए।
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उत्तराम्पयन नियुक्ति पैतीसवां अध्ययन : अनगार-मार्ग-पति
५४१-४३ . अतगार शम्द के चार निक्षेप है- नाम, स्थापना, दम्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं आगमत:, मो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद है-जशरीर, भब्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त अनगार में निहव आदि का ग्रहण होता है। भान अनगार वह होता है, जो सम्यकदष्टि और अगारवास से मुक्त होता है । मार्ग और गति शब्द के भी चार-पार निक्षेप हैं। जो पूर्व निर्दिष्ट हैं । प्रस्तुत में भावमार्ग और सिद्धगति का प्रसंग है। छत्तीसयां अध्ययन : जीवाजीविभक्ति
५४४,५४५. पांच माद के पार निक्षेप है...म, स्थापः घोर भाव । द्रव्य जीव के दो भेद हैं - आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद है-शशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्ध्यतिरिक्त जीवद्रव्य है । जीवनध्य के इस प्रकार के परिणाम भावजीव हैं।
५४६.५४७. मजीव शद के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, दथ्य और भाष। दव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमस: के तीन भेद हैं-शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त अजीवद्रव्य है । अबीच के दस प्रकार के परिणाम भाव अजीव हैं।
५४८-५०. विभक्ति शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रध्य और भाष। द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत; के तीन भेद हैं-शशरीर, मध्य शरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यत्तिरिमत के दो भेद हैं- जीव विभक्ति और अजीव विभक्ति 1 जीव विभक्ति के दो भेद हैं.- सिद्ध विभक्ति, असिट विभक्ति । अजीव द्रव्य विभक्ति के भी दो भेद हैं-रूपी द्रव्य विभक्ति, अरूपी द्रव्य विभक्ति ।
५५१. भाव विभक्ति में यह प्रकार के भाव ज्ञातव्य हैं । प्रस्तुत अध्ययन में द्रष्य विभक्ति का अधिकार है।
५५२,५५३. जो जीव भावसिद्धिक है, परीत संसारी हैं और भव्य हैं, वे धीर मुनि इन छत्तीस उत्तर अध्ययनों का अध्ययन करते हैं। जो मुनि अभवसिद्धिक है, ग्रंथियों में आसक्त हैं, अनन्त संसारी हैं, वे संश्लिष्टकर्मा व्यक्ति उत्तराध्ययनों के अध्ययन के लिए अयोग्य है ।
५५४. इसलिए जिनेश्वर द्वारा प्रज्ञप्त अनन्त अर्थों और पर्यषों से युक्त इन उत्तराध्ययनों का गरुकृपा से यथायोग-विधियुक्त अध्ययन करना चाहिए ।
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विषयानुक्रम
४७,४६.
मंगलाचरण एवं माचारोग नियुक्ति के कथन' २९. की प्रतिज्ञा। आचार, अंग, श्रुतस्कंध आदि के निक्षेपों की ३१,३२. प्रतिज्ञा ।
३३,३४. चरण और दिशा शब्द के निक्षेपका संकेत। निक्षेप के उपयोग की विधि ।
३६. भावाचार के निरूपण की प्रतिज्ञा।
३७. आजार शब्द के एकार्थक, प्रवर्तन आदि सात द्वारों के कथन की प्रतिज्ञा। आचार शब्द के एकार्थक । आचारांग का रचनाकाल ।
४२. आचारांग की विषयवस्तु । आचारधर प्रथम गणिस्थान (गणिसंपदा)।
४३.
४४,४५, आचारांग का नाम परिचय । पहला अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
आचारांग (पूलिका) का आचारांग या शास्त्रपरिज्ञा में समवतरण ।
४९,५०. शस्त्रपरिज्ञा तथा षट्जीवनिकाय का ५१-५८. समवतरण।
५९. १४,१५ महाव्रतों का समवतरण । १६,१७ अंग आदि के सार के विषय में जिज्ञासा एवं ६१.
समाधान । ब्राह्मण आदि वर्गों की उत्पत्ति । मनुष्य जाति की एकता तथा वणो की ६३. उत्पत्ति का इतिहास।
६४-६६. स्थापना ब्रह्म की संख्या का उल्लेख ।
सात वर्णों का उल्लेख । २२-२५. अंबष्ठ आदि नौ वर्णान्तर जासियों का ६७.
वर्णन । २६,२७. वर्णान्तरों के संयोग से होने वाली उत्पत्ति । २८. द्रध्य और भाद ब्रह्म का स्वरूप।
चरण शब्द के निक्षेप। भावचरण के प्रकार। आचारोग के अध्ययनों के नाम । अध्ययनों की विषयवस्तु । शस्त्रपरिज्ञा के अधिकार। द्रव्यशस्त्र और भाषशस्त्र का स्वरूप । द्रव्यपरिक्षा और भावपरिज्ञा का स्वरूप । द्रव्यसंज्ञा और भावसंजा के भेद । संज्ञाओं के सोलह भेद । दिशा शब्द के निक्षेप । द्रध्यदिशा का स्वरूप । दिशा तथा अनुदिशाओं का उत्पत्तिस्थल । दिशाओं के नाम। दिशाओं का निरूपण । दिशाओं का संस्थान (आकृति) । पूर्व-पश्चिम आदि धार ताप दिशाओं का वर्णन। मेरुपर्वत के साथ दिशाओं का सम्बन्ध । प्रज्ञापकदिशा के १८ भेद तथा नाम । प्रज्ञापकदिशाओं के संस्थान । भावदिशा के भेद। दिशाओं की कुल संख्या । प्रज्ञापकदिशा में ही जीव और पुद्गल की गति । अस्तित्व-बोध के कुछ प्रश्न । अन्तरप्रज्ञा अथवा अतीन्द्रियज्ञानी द्वारा जातिस्मृति अथवा विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि । अस्तित्व-बोध के अन्य साधन । पृथ्वीकाय के निक्षेप, प्ररूपणा आदि नो अधिकार । पृथ्वी शब्द के निक्षेप।
६२.
२०.
२१
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२३४
७०.
४.
नियुक्तिपंचक दव्यपृथ्वी और भावपृथ्वी का स्वरूप। १०४. यथार्थ-बोध द्वारा पृथ्वीकाय की हिंसा से पृथ्वीकाय के भेद ।
विरति । बादरपथ्वी के श्लक्ष्ण और खर आदि दो १०५. अणगार की विशेषताएं। भेद ।
अपकाय के द्वार। ७३-७६. खर पच्ची के सत्तीस भेदों का नामोल्लेख। १०७. अप्काय जीवों के भेद । ७७,७८, वर्ण, गंध आदि के द्वारा पृथ्वीकाय के १०८, कादर अपकाय के पांच भेद । अनेक भेद ।
१०९. अपकाय जीवों का परिमाण । सूक्ष्म और बादर पृथ्वी काय के पर्याप्त और ११० हाथी की उपमा द्वारा मपकाय में जीयत्वअपर्याप्त भेव ।
सिद्धि । ८०,१. .. वृक्ष और औषधि आदि के उदाहरण से १११. अपकायके उपभोग के प्रकार ।
पुग्वीकाय के नानात्व का निरूपण । ११२. उपभोग के कारणों से अपकाय की हिंसा। ६२. पृथ्वीकाय जीवों की सूक्ष्मता का निरूपण ।
अपकाय जीवों के शस्त्र । सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अस्तित्व को जिन-आजा
द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । से स्वीकृत करने का उल्लेख।
११५. पृथ्वीकाम की भांति अन्य द्वारों के विवेचन
का कथन । पृथ्वीकाय के लक्षण।
११६. तंजसकाय के द्वारों का निर्देश । ८५. पृथ्वीकाय में जीवत्व-सिद्धि का उदाहरण ।
तैजसकाय जीवों के भेद । ५६. पृथ्वीकाय जीवों का परिमाण।
११८.
बादर तैजसकाय के पांच भेद । ८७,८८. उदाहरण द्वारा परिमाण का निर्देश ।
११९.
उपमा द्वारा तैजसकाय में जीवत्व-सिद्धि । ८९,९०.
क्षेत्र और काल की दृष्टि से पृथ्वीकाय का १२०. तैजसकाय जीवों का परिमाण । परिमाण।
१२१. तैजसकाय जीवों के उपभोग के प्रकार । पृथ्वी काय का अवगाहन ।
१२२. उक्त उपभोग के कारणों से तैजसकाय की ९२,९३. पृथ्बीकाय का उपभोग कितने प्रकार से ?
हिसा । उपर्युक्त उपभोग के कारणों से पृथ्वी काय की १२३,१२४. संजसकाय जीवों के शस्त्र । हिंसा का निर्देश ।
पथ्वीकाय की भांति अन्य दारों के कथन ९५. पृथ्वीकाय के पास्त्र।
का निर्देश। स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और भावशस्त्र १२६. पृथ्वीकाय की भांति बनस्पतिकाय के दारों का निरूपण ।
के कथन का निर्देश। ९७,९८.
उदाहरण द्वारा पृथ्वीकाय की वेदना का १२७-३०. वनस्पतिकाय के भेद-प्रभेद । निरूपण ।
१३१-३३. प्रत्येक बनस्पति का दृष्टांत द्वारा लक्षण
कथन । ९९. पच्चीकाय का वध करने वाला अणगार
प्रत्येक बनस्पति जीवों का परिमाण । नहीं।
आज्ञा द्वारा इन जीवों के अस्तित्व की हिंसा करने वाले अणगार के दोष ।
स्वीकृति। १०१. कृत, कारित, अनुमोदन द्वारा पृथ्वीकाय का १३६-४०. साधारण बनस्पति के लक्षण । वध ।
१४१. अनन्तकाय जीवों के भेद । १०२,१०३, पच्चीकाम के वध से तनिश्चित अनेक जीवों १४२. प्रत्येक वनस्पति की सूक्ष्मता का निर्देश । की हिसा।
निगोद के जीवों की सूक्ष्मता का निर्देश ।
.
१२५.
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________________
आचारोग निमुक्ति
२१५ १४. सूक्ष्म अनन्तकाय वनस्पति का प्रस्थ के १८३.
मूल शब्द का छह प्रकार से निक्षेप। दृष्टांत द्वारा परिमाण-निर्देश ।
भावमूल के प्रकारों का निर्देश। बाबर निगोब के परिमाण का निर्देश।
स्थान शब्द के पन्द्रह प्रकार से निक्षेप । १४६,१४७. वनस्पति के उपभोग के प्रकार।
पंच इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष से संसार की १४८. उक्त उपभोग के कारणों से बनस्पति' की
वृद्धि। हिसा।
१८७. वृक्ष की उपमा से संसार के मूल का १४९,१५०. वनस्पतिकाय के शस्त्र ।
निर्देश । पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के निर्देश १८. अष्ट कर्मों का मूल मोहनीय कर्म, उसका का कपन ।
मूल काम तथा काम का मूल संसार । त्रसकाय के द्वारों का निर्देश ।
१८९. मोह के भेद । १५३-५५. प्रसकाम के भेद-प्रभेद ।
संसार का मूल कर्म, कषाय, स्वजन आदि । १५६,१५७. सकाय के लक्षण ।
कषाय शब्द के निक्षेप । १५८,१५९. सकाय जीवों का परिमाण ।
१९२ संसार शब्द के निक्षेप । १६०-६२. सकाय की वेदना, उपभोग तथा हिंसा के १९३,१९४, कर्म शब्द के निक्षेप तथा भेद । कारणों का निर्देश।
१९५,१९६. संसार से मुक्ति के लिए कर्म, कषाय तथा पृथ्वीकाय की भांति ही अम्मद्वारों के कथन
स्वजनों से मोह के परिस्थाग का निर्देश । का निर्देश ।
१९७. संयम में अरति का मूल कारण-अध्यारम१६४. वायुकाय के द्वारों का कथन ।
दोष । वायुकाय के भेद ।
तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय बादर वायुकाय के पांच भेद । १६७. उपमा द्वारा वायु में जीव के अस्तित्व की १९८,१९९. शीतोष्णीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय सिद्धि।
वस्तु का संक्षेप में कथन ।
शीत और उष्ण शब्द के निक्षेपों का कथन । १६८.
२००. वायुकाय का परिमाण । १६९, वायुकाम के उपभोग के प्रकार।
२०१. द्रव्य और भाव शीत तथा उष्ण का कथन । १७०,१७१. वायुकाय के शस्त्र ।
२०२,२०३. उष्ण परीषह तथा शीत परीषह के भेद । १७२. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के कथन २०४.
उष्ण तथा शीत परीषह का स्वरूप । का निर्देश।
२०५, शीत और उष्ण की दृष्टि से प्रमाद की
व्याख्या। दूसरा अध्ययन : लोकविजय
२०६. उपशांत शम्ब के एकार्थक । लोकविजय अध्ययन के उद्देशकों की विषय- २०७. संयम सीतघर के संपान तथा असंयम बस्तु का निर्देश ।
उष्ण । १७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान आदि २०६. निर्वाण-मुख के एकार्थक। शब्दों के निक्षेप की प्रतिज्ञा ।
तीन कषाय का फल । द्वितीय अध्ययन के नाम का निर्देश । २१०. द्रव्य और भाव परीषह-कयन का १७६,१७७. लोक शब्द के निक्षेप ।
अभिप्राय । १७८. भावलीक के विजय का फल ।
२११. शीत और उष्ण परीषह-सहन करने तथा १७९. गुण शब्द का पंद्रह प्रकार से निक्षेप !
काम का सेवन न करने का निर्देश । १८०८२. द्रश्यगुण, क्षेत्रगुण आदि की व्याख्या । २१२. शानी और अज्ञानी की पहचान ।
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________________
२३६
२१३.
सुप्त एवं मत व्यक्ति के दुःख का निर्देश | जागत एवं विवेकी व्यक्ति की दुःख से मुक्ति । चौथा अध्ययन सम्यक्त्व
२१४.
२१४.२१६. सम्यक्त्व
२१७.
२१५.
२११.
२२०, २२१. धार्मिक क्रिया करते हुए भी मिध्यादृष्टि की सिद्धि संभव नहीं । सम्यग्दर्शन की महत्ता ।
२२२. २२३, २२४. गुणस्थानों का कमारोह ।
२२५.
२२६.
२२७.
२३९.
श्रमण के लिए माया न करने का निर्देश । तीर्थंकरों द्वारा तीनों कालों में अहिंसा के उपदेश का कथन ।
पटकाम जीवों की सधा हिसा न करने का उपदेश ;
गुप्त की कथा का संकेत |
२२८-३२. २३३, २३४. कर्मबंधन में मिट्टी के दो गोलकों का दृष्टांत ।
२३५.
कर्मक्षय करने में शुष्क काष्ठ की उपमा । पांचवां अध्ययन लोकसार
२३६-३८. लोकसार अध्ययन के उद्देशकों के विषयों का
संक्षिप्त कथन ।
प्रस्तुत अध्ययन के नाम का कारण तथा लोक
और सार शब्द के निक्षेप |
द्रव्यसार की व्याख्या ।
२४०.
२४१.
२४२.
२४३.
के नकों के विषयों
२४४.
२४५.
का संक्षेप में संकेत । सम्यक शब्द के निक्षेप ।
२४६.
द्रव्य सम्यक का स्वरूप । भाव सम्यक् के भेद |
भावसार का स्वरूप ।
लोक में ज्ञान दर्शन चरित्र ही सार ।
·
शंका छोड़कर खारपद ज्ञान दर्शन स्वीकार
करने का संकेत
ओक आदि का सार क्या है ?
लोक का सार धर्मं धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम तथा संयम का सार है - निर्वाण |
चार, चर्या शब्द के एकार्थक तथा निक्षेप
निर्मुक्तिचक
२४७, २४५. क्षेत्रवार, मावचार आदि का स्वरूप । २४९. मुनि के आचार का निर्देश ।
छठा अध्ययन धुत
२५०, २५१.
२५२
सातवां अध्ययन महापरिज्ञा
२५३-६३. महापरिज्ञा अध्ययन के विषयों का निर्देश पाहृष्ण और परिमाण शब्द के निक्षेप का
२६४.
कथन ।
२६५.
प्रधान शब्द के निक्षेप तथा अर्थ कथन । २६६. महद शब्द के निक्षेप तथा अर्थ कथन । २६७.२६०. परिज्ञा शब्द के निक्षेप तथा उनका स्वरूप | २६९. महापरिक्षा की स्पष्टता ।
२७०.
देवी मानुषी तथा तियंजन स्त्री का सर्वथा
त्याग |
आठवां अध्ययन विमोक्ष
२७१-७५. विमोक्ष अध्ययन के उद्देशकों के विषयों का संक्षेप में निर्देश
२५१.
२०२.
२८३.
अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु
२७६. विमोक्ष शब्द के छह प्रकार से निक्षेत्र । २७७,२७८. इव्यविमोक्ष तथा भावविमोक्ष के भेद । २७९.२८०. बंध तथा मोक्ष का स्वरूप।
२०४.
का संक्षिप्त कथन ।
भावधुत का स्वरूप ।
२५५
२०६.
२८७.
२८०-९१
२९२.
भाव विमोक्ष की परिभाषा । समाधि मरण मरने का निर्देश ।
सपराक्रम मरण में आर्यवच का
उदाहरण ।
अपराक्रम मरण में उदधि आचार्य का जवाहरण ।
व्याघातिम मरण में तोसलि आचार्य का उदाहरण ।
अभ्याघातिम मरण का प्रतिपादन ।
द्रव्य संलेखना में कथा का निर्देश | संलेखना के क्रम का निर्देश । तपःकर्म पंडित के विषय में विज्ञासा।
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________________
आधारांग नियुक्ति
२१८.
३३६.
२९३. धीरे-धीरे सम्पूर्ण आहार के त्याग का ३२०. शय्या, ईर्या, भवग्रह, पिंड, भाषा और पात्र निर्देश ।
के निक्षेप का निर्देश। २९४. देश विमोक्ष का स्वरूप ।
३२१. शम्या के निक्षेप तथा संयती के योग्य पाम्या नौवां अध्ययन : उपधामश्रुत
के विषय में जिज्ञासा ।
३२२,३२३. द्रव्य शय्या के भेद तथा वल्गुमती का तीर्थकरों द्वारा अपने तीर्थ में उपधानथुत
उदाहरण । अध्ययन में तपस्या का उपदेश ।
३२४. भावाम्या के भेद । २९६. अन्य तीर्थंकरों का निरूपसर्ग तथा महावीर ३२५. वचन-विणोधि के कारणों के कथन की का सोपसर्ग कष्टबहुल तपःकर्म का निर्देश ।
प्रतिज्ञा । तीकारा
. ३२६.३२७ मध्यपणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय दुःखबहुल मानव जीवन में सप का महत्त्व ।
वस्तु का निर्देश। २९९. उपधान श्रुत के उद्देशकों की विषय-वस्तु ३२८. ईर्वा गब्द के छह प्रकार से निक्षेष । का कथन ।
३२९, द्रव्य ईया के भेद । ३००, उपधान तथा श्रृत शब्द के निक्षेप ।
भाव ईर्या के भेद। ३०१. ध्य उपधान तथा भाष उपधान का स्वरूप। ३३१,३३२. ईयो की शूद्धि के प्रकार । ३०२. भाव उपधान के विषय में मलिन वस्त्र की ३३३-३५. ईर्यषणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय वस्तु उपमा ।
का निर्देश। ३०३. ओधुणण शम्ब के एकार्थक ।
भाषा शब्द के निक्षेप तया दशकालिक की महावीर के पथ पर चलने से सिद्धि-प्राप्ति
चावय-शुद्धि नियुक्ति की भांति इसकी का निर्देश।
नियुक्ति करने का निर्देश। द्वितीय अतस्कंध : आचारचूला
भाषाजात अध्ययन के उद्देशकों की विषय
वस्तु का वर्णन । ३०५,३०६. द्रव्य और भाव अग्र का स्वरूप ।
३३८.
वस्त्रषणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय३०७. आचाराम आचारचूला के निर्यहण का
वस्तु का निर्देश तथा पात्र के निक्षेप । उद्देश्य ।
३३९-४२. अवग्रह शब्द के निक्षेप तथा अवग्रह के भेद३०८,३०९. आचारचुला के उद्देशकों की विषय वस्तु का
प्रभेद । कथन । ३१०,३११. अध्ययनों के निर्यहण-स्थल का निर्देश । दूसरी चूला : सप्तसप्तिका ३१२-१४. एकविध संयम का विस्तार कैसे?
३४३. द्वितीय घला के अध्ययनों की विषय वस्तु । ____ महाव्रत पांच ही क्यों ?
उपचार और प्रस्रवण शब्द का निरुक्त । महावतों की सुरक्षा के लिए पांच-पांच ३४५. मुनि को अहिंसा की दृष्टि से सच्चारभावनाओं का निर्देश ।
प्रस्त्रवण विधि में अप्रमत्त रहने का निर्देश । पंच चूलिकाओं का नामोल्लेख ।
न्यशकद और भावशद का स्वरूप । पहली चूला : पिण्डषणा
३४७. पर और अन्य शब्द के निक्षेप ।
३४८. यतमान और निष्प्रतिकों का पर से संबंध । ३१८. पिडषणा नियुक्ति की भांति शय्या, वस्त्र, पात्र आदि की नियुक्ति का कथन ।
तोसरो चूला : भावना दशकालिक के वाक्य-शुद्धि अध्ययन की ३४९. द्रा भावना का स्वरूप तथा भाव पावना मांति भाषा-विवेक का यम ।
के भेद ।
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________________
२३.
३५०.
अप्रशस्त भावना के प्रकार । प्रशस्त भावना के प्रकार ।
३५१. ३५२-५६. दर्शन भावना का लक्षण तथा स्वरूप ३५७-५९. ज्ञान भावना का लक्षण तथा स्वरूप । ३६०,३६१. चारित्र भावना का लक्षण तथा स्वरूप |
१६२.
३६३.
तप भावना का स्वरूप । वैराग्य भावना का प्रतिपादन
चौथी
३६४.
३६५.
३६६.
चूला : विमुक्ति
निर्मुक्तिपंचम
विमुक्ति अध्ययन के अधिकारों का निर्देश | मोक्षवत् विमुक्ति के निक्षेप का कथन तथा देशमुक्त और सर्वमुक्त कौन ?
पंचम चूला - विशीय की नियुक्ति करने की श्रतिक्षा
३६७,६६६. अश्चारांग के अध्ययनों के उद्देशकों की संख्या का निर्देश ।
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________________
गाथाओं का समीकरण
आचारांग नियुक्ति की गाथाएं चूणि और टो का दोनों में व्याख्यात हैं । प्रकाशित चणि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है । अनेक स्थानों पर तो दश गाथाओं के लिए भी केवल 'दसगाहाओ भाणियठवाओं ऐसा उल्लख मात्र मिलता है अतः समीकरण में चूणि का संकेत देना संभव नहीं हो सका । टीका में आयारचूला की नियुक्ति में गाथा संख्या के क्रमांक संलग्न नहीं हैं लेकिन हमने पूरी आचारांग नियुक्ति की संख्या के क्रमांक संलग्न रूप से लगाए हैं । पाठकों की सुविधा के लिए हम आचार्य शीलांक की टीका में आई गाथा संख्या एवं संपादित गाथा संख्या का समीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं । इस चार्ट के माध्यम से पाठक सुविधा से टीका की गाथा संख्या खोज सकेंगे। संपावित
संपादित आदी
संपादित
आदी
४५
Page #350
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________________
२४०
नियुक्तिपचक
संपादित
आदी
आदी
संपावित
संपावित १०२
3
१०२
बाटी १३७ १३
०
१०३
१०४
१३८ १३९ १४०
१४.
२
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१४५
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१२९
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१६७
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१३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६
१६८
१००
१३५
१७१
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________________
मापासंग निति
२४१
संपादित
आटी
संपादित
आदी
माटी
संपादित २३२
१७२
१७३
२०२ २०३
२३४
१७४
१६५
२०४
२३५
२०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २००
२३२ २३३ २३४ २३६ २३७ २३८
२०५
१७७
१६७
२३७
२३८
१६८ १६९
२०७ २०८ २०९
२३९
१५०
२४.
२४०
२१.
२४१
२४३
१७२ १७३ १७४
२४३
२१२
२१२
२१३
२१४
१७५
२१४
२४४ २४५ २४६
२४५ २४६
१७६
२१५
१५६ १८७
२४७
२७
२४८
१८८
२१७ २१८
१५९
२२० २२१
२४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६
२५१ २५२
१२
२२२
२१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७
१९२११
२२३
२२४
१५४
२२५
१८५
२५८
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१९७१
२२७
१९५
२२७ २२८ २२९ २३० २३१
१९०
२२८ २२९
२००
२६२
१. टीका में १६३ से संख्या का पुनरावर्तन हुआ है। २. टीका में १५६ के बाद १९७ क्रमांक आया है । ३. टीका में २२७ का क्रमांक दो बार आया है। ४. दीका में २५४ के बार २३६ का कमांक आया है।
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________________
निर्मुक्तिपंचक
संपादित
आटी
संपादित
आटी
संपादित
माटो
२९१
२७३
२६४ २६५
२७४ २७५
३१० ३१९ ३२०
२९२ २९३ २९४ १९९५
३२१
२९८
२६७ २६८ २६९
२७६ २७७
३२२ ३२३
३००
३२४
३०१
२७०
२७९
३२५ ३२६
२७१
rrrrrr
२८०
२८१
३२७
३०४
२७३
२८२
२५४ २५५ २५६ २५७ २५८
३२८ ३२९
३०२
२८३
२८४
३०४
२०४२
२७४ २७५ ૨૭૬ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३
m mr marr mmm
२५०
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३०८
२६२ २६३ २६४ २६५
३३७
२६६
३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१०
३३९ ३४०
२६७
२६९
२०५ २८६ २८७ २बर
२७२
३२१
१. महापरिक्षा अध्ययन की ये गायाएं टीका की समाप्ति पर दी गई हैं। (आटीप. ४३२) २. टीका में २८४ का क्रमांक पुनरुक्त हुआ है। ३. टीका में आचारांग द्वितीय श्रुसस्कंध की नियुक्ति ४ क्रमांक से प्रारम्भ होती है। टीका में मंगलाचरण की।
नाधाओं को भी इसके अन्तर्गत गिन लिया है। ४. २९८-३०१ सफ चार गाथाएं टीका मैं शुद्धाशुद्धि पत्र में दी है तथा यहां से पुन: संयुक्त संख्या दी।
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________________
माधारांग निमुक्ति
संपारित
आटी
संपारित
माटी
संपादित
३४५
३२२
बाटी ३३९ ३४०
३५४
३६२
३२३' ३२४
३४७ ३४०
३६४
३४२
३५७
३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९
३५८
३३६
३४४
३६६ ३६७
३५० ३५१ ३५२
३५९ ३६०
३३८
१. टीका में ३२३ और ३२४ के क्रमांक में समान गाथा दी हुई है।
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आचारांग नियुक्ति
बंदित्तु सम्वसिद्धे, जिणे य अणुयोगदायगे सम्वे । आयारस्स भगवतो, निज्जुत्ति कित्तइस्सामि' ।। आयार अंग सुपबंध', बंभ-चरणे तहेव सत्ये य । परिणाए सग्णाए, निक्लेवो तह' दिसाणं च ।। चरण-दिसावज्जाणं, निक्लेव 'पविहो उ नायन्वो। घरणम्मि छम्विहो खलु, सत्तविहो होइ उ दिसाणं ।। जत्य य' जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिये निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कगं निखिवे तस्थ" ।। 'आयारे अंगम्मि य, पुष्यदिवो'८ घउकनिक्लेवो । नवरं पुण नाणत, भावायारम्मि ते घोच्छं ।। सस्सेगट्ठ पवतण, पढमग गणो तहेव परिमाणे । समोतारे सारे य", सत्तहि पारेहि नाणतं ।। आयारो आघालो, भागालो आगरो य ासासो । आदरिसो अंगं ति य", आइण्णाजाइ आमोक्खा दार।। सम्वेसि आयारो, तित्यस्स परतणे पढमयाए । सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुवीए ।।दा।।
है. यह गापा बाद जोड़ी गई प्रतीत होती है ४. चउक्कओ य (टी.), बिह० (अ)।
क्योंकि यह गाथा केवल टीका और हस्त- ५. दिसाओ (अ)। प्रतियों में प्राप्त है। चूर्णिकार ने इस गाथा ६. तु (च)। का कोई संकेत व व्याख्या नहीं की है । इसके ७. अनुदा.७ । अतिरिक्त चरणदिसावजाणं' इस तीसरी ८. आचार के वर्णन के लिए देखें दशनि १५४गाथा के बारे में बिलियगाहा- यह दूसरी १६२, अंग के वर्णन के लिए देखें उनि. गाथा है ऐसा उल्लेख है। इससे भी स्पष्ट है १४४-५८ । कि मंगलाचरण की यह गाया चूर्णि के बाद ९. परम अंग (अ)। में जोड़ी गई है।
१०. या (ब)। २. सुपक्वंध (म.)।
११. चिय (ब)। ३. सहा (म)।
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________________
२४६
नियुक्तिपंपक आयारो अंगाणं, पढम अंग दुवालसण्हं पि । एत्थ य मोक्खोवाओ, एस य सारो पक्ष्यणस्स दार।। आयारम्मि अहीए, 'जं नाओ' होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारघरो, भण्णति' पढमं गणिट्ठाण ॥दारं।। नवबंभचेरमइओ, अट्ठारसपदसहस्सिओ वेदो। हवई य सपंचचूलो, बहुबहुतरओ पदग्गेण ॥दा।। आयारग्गाणत्यो', बंभच्चेरेसु सो समोयरइ । सो वि य सत्थपरिणाए पिडियत्यो समोयरइ ॥ सत्यपरिपणा अयो, बस्सु वि काएसु सो समोयरति । छज्जीणिया अत्यो, पंचसु वि वएस ओयरति ।। पंच य महन्वयाई, समोयरते य" सम्वदन्वेसु । सम्वेसि पज्जवाणं, अणंतभागम्मि ओयरति" || छज्जीवणिया पढमे, "बितिए चरिमे १२ सम्बदवाई। संसा महन्वधा खलु, तक्कदसेण दव्याणं ॥दा।। अंगाणं कि सारो ?, आयारो तस्स 'कि हबतिसारो।
अणुयोगत्यो सारो, तस्स वि य पावणा सारो।। १७. सारो परूवणाए, 'चरणं तस्स वि य होइ निव्वाणं"।
निम्याणस्स य५ सारो, अव्वाबाहं जिणा बेति ।।दार।। १५. 'बंभम्मी उ" चउक्कं, ठवणाए होइ बंभणुप्पत्ती।
सत्तहं८ वण्णाणं, नवण्ह वणंतराणं च ॥ १. जन्नाओ (ब)।
१२. परिमे बितिए (ब)।
कुछ पाठ भेद के साथ यह गाया आवश्यक३. बुच्चाइ (ब,म)
नियुक्ति (७९१) में भी मिलती है४. दनि २६ ।
परमम्मि सम्वजीवा, बिदए परिमे य ५. महतो (अ)।
सध्यपव्वाई। ६. निभा. १
सैसा माहव्वया खलु, तदेकदेसेण दव्वार्ण ।। ७. आयारमग्गणत्यो (ब)।
१३. हव: किं (टी)। ८. अभवेरसु (ब)।
१४. णेवाणं (अ)। ९. १२-१४ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में १५. उ (ब,टी)। "तिण्णिगाहाओ पढियवाओं' मात्र इतना १६. बंम्मि ऊ (ब,म.म), ०म्मी य (टी)।
१७. होति (अ)। १०.३ (अ,ब)।
१८. ससह य (अ,ब,म)। ११. मोबाईति (अ), यति (प)।
उल्लेख है।
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२४७
भाषारोग नियुक्ति
एगा मणुस्सजाई', रज्जुप्पत्तीय दो कया उसभे। तिण्णेव सिप्प वणिए, सावगधम्मम्मि चत्तारि ।। संजोगे सोलसर्ग, सत्त य 'वण्णा उ' नव य अंतरिणा'। एते दोन्नि' विगप्पा, ठवणा बंभस्स नायव्या ।। पगती' चउक्कगाणंतरे य ते' होंति सत्तवरणा उ । 'आणंतरेसु चरमों", वपणो खलु होति नायग्यो । अंबढुग-निसाया', अजोगवं मागहा य सूया य । खत्ता वेदेहाः वि य, चंडाला नवमगा होति ।। एगंतरिए इणमो, अंबटो" चेव होति 'उग्गो य२ | विइयंतरिय" निसाओ, परासरं तं च पुण एगे" ।। पडिलोमे सुद्दादी, अजोगवं मागहा य५ सूए य । एगंतरिए खत्ता, वेदेहा चेव नायवा ।। बितियंतरिए" नियमा, चण्डालो एस* होइ नायटयो । अणुलोमे पडिलोमे, एवं एते भवे भेदा ।। उग्गेणं खत्ताए, सोवागो वेणवो विदेहेणं ।
अंबट्ठीए सुद्दीय', बुक्कसो जो निसाएणं ।। २७. सुद्देण" निसादीए, कुक्कुरओ सो उ होति नायव्वो।
एसो 'वि य पइभेमो, चउत्विहो होति नायब्बो ।।
१. माणुस (अ,ब)।
१२. उग्गेयं (म)। २. वणाओ (अ)।
१३, बीयंत. (अ), बियंतरिय (म)। ३, अंतरिणो (टी,ब)।
१४. वेगे (टी), एगो (अ)। . ४. दो वि (टी)।
१५. (ब)। ५. एग तिग (अ)।
१६. ०यंतरे (टी)।
१७ सोधि (टी), सो य (म,ब)। ७. तरे उ परिमो (अ), तरिओ चरिमो १८. सुद्दीए (अ), सुदीए य (म), सुतीए य (ब) ।
१९. बोक्कसो (अ,ब), ३२६,३२७ इन दोनों १. निसाया (टी)।
गाथाओं का संकेत चूणि में नहीं है लेकिन ९. पतिदेहा (अ), विदेहा (मटी)।
गाथाबों की संक्षिप्त व्याख्या मिलती है। १०. २२-२५ तक की गाथाओं के लिए चूणि में २०. सूएण (अ,टी)।
'बत्तारि गाहाबो पहियन्नाओ' मात्र इतना २१. कुक्कुडओ (बम)। ही उल्लेख है।
२२. वि (टी) ११. अंबोट्टो (म), मंटो (म)।
२३. बीमो भेओ (टी)
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२४
नियक्तिपंचक दव्वं सरीर-भयियो, अण्णाणी' वत्थिसंजमो चेत्र । ___ भावे उ वस्थिसंजम', नायब्बो संजमो चेव ।।दारे।।
चरणम्मि होति गुम्न, गतिमाहारे गुणे य 'चरणे य । 'वेत्तं तु जम्मि खेते, काले कालो जहि 'जो उ" ।। भावे 'गति आहारे, गुणो गुणवओ पसरथमपसत्था । गुण चरणेण पसत्येण, बंभचेरा नय हवंति ।। सत्थपरिण्णा लोगविजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्त । तह लोगसारनाम, 'धुतं तह महापरिणा य। अट्टमए य विमोक्खो, उवहाणसुतं च नवमग भणियं । इच्चेसो आयारो, आयारणाणि सेसाणि ।। जियसंजमो य लोगो, जह बग्झति जह य ते पजहियव्वं"। सुह-दुक्खतितिक्खा वि य, सम्मत्तं लोगसारो य ।। निस्संगया य छठे, मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा । निज्जाणं" अट्ठमए, नवमे य जिणेणम एवं ति ।।दारं।। जीवो छक्कायपरूवणा य, तेसि 'वहे य' बंधो ति। विरईए अहिगारो, सत्थपरिणाएँ फायब्वो५ ।। दव सत्यग्गि-विसं, नेहंबिल-खार-लोणमादीयं ।
भावो य" दुप्पउत्तो, वाया कामओ अविरती य ।। ३७. दव्यं जाणण-पच्चक्खाणे दविए सरीर-उवगरणे ।
भावपरिण्णा जाणण, पच्चक्खाणं च भावेणं ।। १. अन्नाणो (म)।
१०. विहि (अ), पइहि . (म)। २. संजमु (अ),
११. निब्वाणं (ब)। ३. घरणं च (म), चरण वा (ब)। १२. जिणाण (अ)। ४. खेसम्मि (ब,मटी)।
१३. एवं (म)। ५. होति (ब)। यह गाथा चूणि में निर्दिष्ट नहीं १४. वहेण (म,म) ।
१५. पायथ्यो (टी) ६. गामाहारो (म,टी)।
१६. दच्चे (अ)। ७. धुर्व तह मह (अ), धुप्तं तह महापरिगणा य १७. उ (ब,म)।
१८. या (टी), दर्शन २१३ ।
१९. खाणं (ब)। ९. इस एसो (ब), एएसो (ब)।
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आधारोग नियुक्ति ३८. दवे सच्चित्तादी', भावे अणुभवण जाणणा सणा।
मति होति 'जाणणा पुण', अणुभवणा कम्मसंजुत्ता ।। आहार-भय-परिग्गह', मेहुण-सुह-दुक्ख-मोह-वितिगिच्छा। 'कोह-माण"-माय-लोभे, सोगे लोगे य धम्मोघे । नाम ठवणा दविए, खेत्ते तावे य पण्णवग भावे । एस दिसानिक्खेवो, सविहो होति नायव्यो ।। तेरसपदेसियं खलु, तावतिएसु भवे पदेसेसु ।
जं दव्व भोगाढ, जहण्णगं तं दसदिसाग ।। __ अटूपदेसो रुयगो', तिरियं लोगस्स मज्झयारम्मि। 'एस पभवो'' दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ इंदग्गेयी जम्मा, य नेरुती दारुणो य वायव्वा । सोमा मात्र च, विमला य तमा" य बोधब्वा ।। दुपएसादि दुरुत्तर, एगपदेसा अणुत्तरा एव । चउरो चउरो य दिसा, चउराइ' अत्तरा दोन्नि । अंतो सादीयाओ, बाहिरपासे अपज्जवसियाओ। सव्वाणतपदेसा, 'सव्वा य भवति ५५ करजुम्मा । सगडुद्धिसंठियाओ,१५ महादिसाओ हवंति" पत्तारि ।
'मुत्तावली य" चउरो, दो चैव हात रुयानभा ।। ४७. जस्स जओ आइच्ची, उदेति सा तस्स होति पुदिसा ।
जत्तो य अत्थमेई", अवरदिसा सा उ नायब्वा ।।
१. सचिता (अ,म)। २. जाणणाए (पू)। ३. गहा (च)। ४. कोहे माणे (ब)। ५. ४५ से ५० तक की गाथाएं चूणि में अध्या
क्यात है। ६. रुहागो (अ), यमो (ब)। ७. एसप्प •(म)। ८. एसो य (प,म)। ९. नेरईए (क), रतीए (ब), नेईए (ब)। १०. यमा (म)।
११. घेव (टी) १२. चउरो य (क)। १३. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है। १४. सव्वाओ हर १५. सगुड़ (ब), सगड़ी (टी)। १६. य होंति (म,ब)। १७. मुत्तालिया (म)। १८. उवेति (अ)। १९. पुवाओ (अ) २०. ०मेइ उ (टी)।
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नियुक्तिपंधक दाहिणपासम्मि य 'दाहिणा दिसा'' उत्तरा उ* वामेणं । एया चत्तारि दिसा, तावखेत्ते उ अखाता ।। जे मंदरस्स पुवेण', मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं । जे यावि उत्तरेणं, सम्वेसिं उत्तरो मेरू ।। सम्वेसि उत्तरेणं, मेरू लवणो य होति दाहिणओ। पुग्वेणं 'तु उदेती", 'अवरेण य' अस्थमाइ सूरो ।। जस्य च मी पग्णा , कस्सम साहति । दिसा निमित्त । जत्तो मुहो य ठायइ, सा पुष्वा पच्छओ अवरा ।। दाहिणपासम्मि उ४ दाहिणा दिसा उसरा य५ वामेणं । एतासिमतरेणं, अन्ना चत्तारि विदिसाओ ।। एतासि चेव अट्टाहमंतरा अटू होंति अन्नाओ । सोलस सरीरउस्सय, बाहल्ला सव्वतिरियदिसा । हेट्ठा पादतलाणं, अहोदिसा सोस उरिमा उड्डा । एया अट्ठारसबी, पण्णवदिसा मुणेयव्वा । एवं विकप्पियाण१५, दसह अट्टण्ह चव य दिसाणं ।
नामाइंय वोच्छामी, जक्कम आणुपुल्चोए ।। ५६. पुम्वा य पुम्वदक्षिण", दक्षिण तह दक्खिणापरा" चेव ।
अवरा य अवर-उत्तर, उत्तर पुन्वुत्तरा चेव ।। ५७. सामुत्थाणी फविला, खेलेज्जा खलु तहेव अभिधम्मा।
परियाधम्मा य तहा, सावित्ती पण्णवित्ती" य ।। १. पाणिदिसा (अ)।
१३. ५१-५९ तक की गाथाओं के लिए चूणि में २. प (अब,म)।
"णच गाहा कंठ्या" मात्र इतना उल्लेख है। ३. वेणं (म)।
१४. य (अ,ब,म)। ४. भणसा (अ,ब,म)।
१५. उ (टी)। ५. दक्खिणेण (अ)।
१६. सरीस्सय (म)। ६. इस गाथा का चूणि में संकेत नहीं है। १७. पकप्पिा (टी)। ७. उठेई (टी), तु उदेई (अ)।
१८. नामाई (अ)। ८. अवरेणं (टी)।
१९. अह० (अ)। ९. अस्थमे (अ), अत्पमय (ब)।
२०. दाहिण (ब)। १०. य साहेति (अ)।
२१. ०णावरा (ब,म,टी)। ११. दिसासु य (अ,म,टी)।
२२. पुण्ण (म)। १२. ठाई (अ.टी)।
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भाचारोग नियुक्ति
२५६ ५८. हेवा नेरइयाणे, अहोदिसा उवरिमा य' देवाणं ।
एयाइं नामाई, पाणवगस्सा दिसाणं तु ।। 'सोलस वि य' तिरियदिसा', सगडुजीसंठिया मुणेयव्वा । दो मल्लगमूलाओ, उड़ च अहे वि य दिसाओ। मणुया तिरिया काया, तहम्गबीया' चउक्कगा घउरो । देवा नेरइया बा, अट्ठारस हवंति भावदिसा ।। पण्णवदिसट्टारस', भावदिसाओ वि* तत्तिया चेव । एक्कक्कं विधेज्जा, हाति अट्ठारसद्वारा ॥ पण्णवदिसाए पुण, अहिगारो एत्थ होति नायब्वो।
जीवाण पोग्गलाण य, एमासु गयागई अस्थि ।। __ केसिचि नाणसग्णा, अस्थि उ केसिंचि नस्थि जीवाणं ।
कोहं परम्मि लोए, आसो कयरा दिसाओ वा ? जाणति सयं मतीए, अन्नेसि वावि" अंतिए सोचा । जाणगजणपण्णविओ, जीव तह जीवकाये य ।। एत्य य सहसम्मुइयत्ति 3 'जं पदं तत्य जाणणा होई । ओही-मण-पज्जव-नाण केवले जातिसरणे य॥ परवइ बागरणं पण, जिणवागरणं जिणा परं नस्थि ।
अन्नेसि 'सोच्चं ति१५ य, जिणेहि सम्वो परो अन्नो" || ६७. तत्थ अकारि करिस्स, ति बंचिता कया पुणो होति ।
सहसम्मुइया" जाणति, कोई८ पुण हेतुजुत्तीए दा।। १. उ (टी)।
१०.४(कम)। २. सोलस्सः (अ), सोलस तिरिपदिसामो (टी), ११. वा (ब)। सोलस' वी तिरियदिसा (ब)।
१२. वा (टी)। इस गाथा का णि में संकेत ३. उड् (अ)।
नहीं है। ४. तह अग्ग० (म)।
१३. सम्मुश्माए (ब), सम्मइया (च) । ५. दिस अट्ठा० (म)।
१४. व जं पयं सुए सत्य जाणणा होइ (अ) 1 ६. य (म)।
१५. सोश्च त्ति (म)। ७. ६१,६२ की गाथा का संकेत चूर्णि में नहीं १६.६६,६७ की गाथा चुणि में निर्दिष्ट और
है। केवल संक्षिप्त भावार्थ गम में है। ध्याच्यात नहीं है। ५. कायन्चो (अ,ब,म)।
१५. सम्मइया (टी), सम्मुयया (म)। ९. अस्थि सणा. ()
१८. कोइ (अ.ब)।
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२५१
निर्यक्तिपंधक
पुढवीए निक्खेवो, परूवणा लक्खणं परीमाणं । उवभोगो सत्य वेयणा । यहा मिवित्ती' या नाम ठवणापुढवी, दयपुढवी य भावपुढवी य । एसो खलु पुढवीए, निक्खेवो चउविहो' होति ।। दव्यं सरीरभविओ, 'भावेण य'' होति पुढविजीवो उ" । जो पुढविनामगोयं, कम्मं वेदेति सो जीवों ।।दा।। दुविहा य पुढविजीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहमा य सब्बलोए, दो चेव य बादरविहाणा' ।। दुविहा बादरपुढवी, समासओ सण्हपुढवि-खरपुढवी । सण्हा य पंचवण्णा, 'खरा य" छत्तीसइविहाणा ।। पुढवी य सक्करा बालुगा य उवले सिला य लोणू से । अय-तंब-तजय-सीसग-रुप्प-सुवण्णे य वइरे य ।। हरियाले हिंगुलए", मणोसिला सासगंजण-पवाले। अब्भ-पडलइन्भ-बालुय, बादरकाए मणिविहाणा ।। गोमेज्जए य रुयगे", अंके फलिहे य लोहियक्खे य । 'मरगय-मसारगल्ले, मुयमोयग-इंदनीले य" । चंदप्पभ वेरुलिए, जलकते चेव सूरकते य।
एते खरपुढवीए, नामा 'छत्तीसया होति'५ ।। ७७. घण्ण-रस गंध-फासे, जोणिप्पमुहा भवंति संखेज्जा।
णेगाइ सहस्साई, होति विहाणम्मि एकेक्के ।। १. नियत्ती (अ)।
१०. हिरि (म)। २. घउम्विहो (अ,ब)।
११. हिंगुलुए (म, उ. ७४ प. १०२०।२) । ३. भावेणं (ब,म)।
१२. श्यय (ब)। ४. जीवाशो (अ)
१३. उ. ७५, प. श२०१३ चंदण-गेरुय-हंसग, ५. च्चेव (ब)।
भयमोय मसारगल्ले य (ब)। चंदण-गेश्य ६. यह गाथा चूणि में व्याख्यात नहीं है। हंसग, मुयगे ये मसारगल्ले य (ब)। ७. अवरा (ब,म,टी)।
१४. नाम (अ, ब, टी)। ८. सम (ब)।
१५. छत्तीसयं होइ (टी), बत्तीसते . (अ)। तु. उ. ९. उ.७३, प. १।२०।१ ४३ से ७६ तक की ७६, प. ११२०१४ ।
चार गाथाएं चूर्णि में अध्याख्यात हैं। मात्र १६. हर्षति (अ,म) । 'चत्तारि गाहाओ जाव जलकतो सूरफंतो' १७. ० गाई (अ), गाई (म)। इतना उल्लेख है।
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आधारांग नियुक्ति ७८. वण्णम्मि य एक्केक्के, गंधम्मि रसम्मि 'तह य फासम्मि'' ।
माणसं याय, विहाणए होति. एकेक्के ।। जे बादरे विधाणा, पज्जत्ता तत्तिया अपज्जत्ता । सुहमा वि होति दुविहा, पज्जत्ता चेवऽपज्जत्ता ।। रुक्खाणं गुच्छाणं, गुम्माण लयाण वल्लिवलयाण । जह दीसति नाणत्त, पुढवीकाए तहा जाण ।। ओसहि तण सेवाले, पणविहाणे य कंद-भूले य । जह दीसति नाणत्तं. पुढवीकाए तहा जाण ॥ एगस्स दोपह तिण्ह व, संखेज्जाण ब न पासिउं सक्का । 'दीसंति सरीराई, पुढविजियाणं असंखाणं" ।। एतेहिं सरीरेहि, पच्चक्खं ते परूविया होंति । सेसा आणागिज्झा, चक्खफासं न 'ते एंति'"॥ उवजोग-जोग-अज्झवसाणे, मति-सुय-अचम्खुदंसे य। अट्टविहोदयलेस्सा, सण्णुस्सासेर कसाए य ।। अट्ठी" जहा सरीरम्मि, अणुगतं चेयणं खरं दिनै । एवं जीवाणुगयं", पुढविसरीरं खरं होति ।। जे बादरपज्जत्ता, पयरस्स 'असंखभागमेत्ता ते ५ ॥ सेसा तिन्नि वि रासो, वीसं" लोया असंखेज्जा ।। पत्थेण व कडवेण"व, जह कोड मिणेज्ज सध्वधन्नाणि । एवं मविज्जमाणा", हवंति लोया असंखेज्जा । लोगागासपदेसे, एकेक निक्खिचे पुढधिजीव"।
एवं मविज्जमाणा", हवंति लोगा असंखेज्जा ।। १. ४(म)।
११. ज हंति (टी), ऐति ति (अ)। २. नाणत्ते का० (ब), नाणती कामवा (टी)। १२. सम्मुस्सासे (म)। ३. होर (ब,म,टी)।
१३. अट्टि (चू)। ४. इस गाथा का भूणि में संकेत और व्याख्या १४. जीवमणु (म)।
१५. मेताए (अ)। ५. य लयाणं (अ)।
१६. वीसु (अ)। ६. नाणत्तो (अ,म)।
१७. कुलएण (अ.व.)। ७, ओसही (ब)।
१८. धन्नाई (टी), धन्नाइ (म)। ८. नाणती (अ.म)।
१९. गणिज (अ,म)। ९. एक्क • (म), इक्क (टी,)।
२०. जीयं (म)। १०. पुसपीजीवसरीरा, जो विभती असलेला(अ)। २१. गणिज (अ)।
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नियुक्तिपंचक निउणो उ हति कालो, तत्तो निउणय रयं ह्यति खेतं । अंगुलसेढीमेत्ते, ओसप्पिणिओ असंखेज्जा । अणुसमयं च पवेसो, निलम चेव पुनिजीदाणं । काए कायट्ठितिया, चउरो लोगा असंखेज्जा ।। बायरपुलविक्काइय, पज्जत्तो अन्नमन्नमोगाढो । सेसा ओगाहते', सुहुमा पुण सबलोगम्मि ।।दारं।। चंकमणे य 'ठाणे निसोयणे तुयट्टणे य" कयकरणे । उच्चारे पासवणे, उपकरणाणं च" निक्खियणे ।। आलेयण' पहरण भूसणे य कय विक्कए" किसोए य । भंडाणं पि य करणे, उवभोगविही मणुस्साणं ॥ एएहिं कारणेहि, हिसंती" पुढयिकाइए जीवे । सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरति ॥दार।। हल-कुलिय-विस-कुद्दालालित्त'५ मिगसिंग-कट्ठमग्गी" य | उच्चारे पासवणे, एतं तु समासओ सस्थं ।। किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंचि । एतं तु दख्वसत्यं, भावे य' असंजमो सत्यं ॥दा।। पायच्छेयण भेयण, जंघोरु तहेव' अंगुवंगेसु" । जह होति नरा दुहिया, पुढवीकाए" तहा जाण ।। नत्यि य 'सि अंगवंगा, तयाणुरूबा य वेयणा तेसि ।
केसिचि उदीरति केसिंचऽतिवायए' पाणे ।।दार।। १. य (ब,म,चू)।
१३. विक्केय (म)। २. होइ (चू,टी)।
१४. हिंसंति (टी)। ३. ततो (म)।
१५. वित्तय (टी)। ४. निउणयर (म.ब)।
१५. कट्टअग्गी (ब)। ५. काविप (अ)।
१७. किंधि वि (म)। १. अन्नअन्न (ब) मकार अलाक्षणिकः । १८. दशनि २१४ । ७. गाहंती (अ,ब,म)।
१९. पायछे (म)। ८. यह गाथा चूणि में अव्याख्यात है। २०. तह य (ब)। ९. टाणे निसीयण (अ,ब,टी)।
२१. अंगमंगेसु (अ,ब) सरंगमंगा (च) । १०. ४(म) ।
२२. पुढवीकाए (अ)। ११. तु (म), पि (अ)।
२३. सिअंगमंगा (ब,म) सियंगभंगा (चू,अ)। १२. वणा (पू)।
२४, केसिंचाइवा (क), केसिंचि अडवा . (ब)।
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वापारांग नियुक्ति
२५५ ९९. पवदंति य अणगारा, न य 'तेसु गुणेसु' जेहिं अणगारा।
पुढवि विहिंसमाणा, न 'हु ते २ वायाहि अणगारा ॥ अणगारवादिणो पुढविहिंसगा निग्गुणा* अगारिसमा । निद्दोस त्ति य मलिणा,' विरतिदुगुंछाई मलिणतरा ॥ केई सयं वधेति, केई अन्नेहि उ वधार्वेति।
केई अणुमन्नती, पुढविक्काय वहेमाणा ।। ___ जो" पुढवि समारभति, अन्ने वि हु" सो समारभति काए ।
अनियाए य नियाए, दिस्से य तहा अदिस्से य॥ पुढवि समारभंता, हणति तन्निस्सिए बह" जीये । सुहुमे य बायरे या, पज्जत्ते वा५ अपज्जत्ते ॥दा।। एयं वियाणिऊणं, पुढवोए निक्खिवंति जे दंडं । तिविहेण सबकालं, मणेण वायाएँ काएणं ।। गुत्ता गुत्तीहि सवाहि, समिया समितीहि संजया। जयमाणगा सुविहिता, एरिसगा होंति अणगारा ।।दार।। आउस्स वि दाराई, ताई जाई भवंति पुढवीए । नाणती उ विहाणे, परिमाणुवमोग-सत्थे य॥ दुविहा उ आउजीवा, सुहमा तह नायरा य लोगम्मि ।
सुहुमा य सम्वलोगे, 'पंचेव य शयरविहाणा'" ।। १०८. सुद्धोदगे य ओसा, हिमे य महिया य हरतणू चेव ।
बादराइविहाणा, पंचविहा वणिया एते ।।दा।। १. हि गुणेहि (टी), सेसि गुणेहि (म)। १३. य बहु (टी), ते बहु (ब)। २. होति (ब,म)।
१४. म (टी), दा (म)। ३. वायाए (म), पायाइ (ब)1
१५. या (टी)। ४. बप्रति में गाया का पूर्वार्द नहीं है। १६. एवं (1) ५. निगुणा (म)।
१७. पाय (म)। ६. मला (अ.म.टी)।
१८, १०८ से १०९ सफ की गापाओं की व्याख्या ७. वहति (अ), पहंती (टी)।
चूणि' में नहीं है । मात्र "
नितिगाहाको ८. वहापिति (अटी)।
पहियसिद्धाओ' इतना ही उल्लेख है । ९. पुढविकायं (अ,ब,टी)।
१९. य (अ,ब,म)। १०.जे (अ)।
२०. पंचविहा पुण बायरा (अ)। ११. समारंभात (अ)।
२१. उस्सा (टी)। १२. य (टी).
१०७.
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२५१
नियुक्तिपंधक १०९. जे बादरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते।
सेसा तिन्नि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा ।। मह हस्थिरस सरीर, फलसावध महुणोववन्नस्स । होति उदगंडगस्स य', एसुबमा आउजीवाण' ।। व्हाणे पियणे तह धोवणे, य भत्तकरणे य सेए य । आउस्स उ परिभोगो, गमणागमणे य जाण ॥ एएहि कारणेहि हिसंती आउकाइए जीवे ।
सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंतिदा।। ११३. 'उस्सिचण-गालण'-धोवणे. य उवगरण-कोसभंडे" य ।
बादरआउक्काए, एतं तु समासतो सत्यं ।। किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंचि ।
एयं तु दश्वसत्थं, भावे य" असंजमो सत्थं ।।दा।। ११५. सेसाई" दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए ।
एवं बाउसे, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।। 'तेजस्स वि दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए ।
नाणती उ विहाणे, परिमाणुवभोग" सत्थे य ।। ११७. दुविहा य८ तेउजीबाई, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि ।
सुहुमा य सबलोए, पंचेव य बादरविहाणा ॥ ११८. इंगाल अगणि अच्ची, जाला तह मुम्मुरे य बोधव्वे ।
बादरतेउविहाणा, पंचविहा वणिया एते ।।दा।।
११४.
१. कललकलियस्स (अ)।
११. मत्तभंडे (टी)।
१२. किंचि य (अ)। ३. सउवमा (म)।
१३. तु (अ) । ४. सव्वजी० (टी)।
१४. सेसाणि उ (अ)। ५. धोयणे (ब)।
१५. होति (म) ११५ से ११८ तक की गाथाएं
चूणि में नहीं हैं। ७. नावाण (अ.म), जीवाणं (टी) १११,११२ १६. परमा ०(ब)।
ये दो गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट नहीं है । १७ व (ब)। ८. रेंति (म), टईरंति (अ)।
१८. उ (ब)। ९. उस्सिवणा य पाणे (५) ।
१९. जीया (ब)। १०. धोयणे (म)।
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आचारांग नियुक्ति
११९. जह' देहपरीणामा, सज्जोयगस्स सा उनमा । जरितस्स 'थ जह उम्हा, एसुवमा सेउजीवाणं || दारं ॥ जे बाद रपज्जत्ता, पलियम्स 'असंखभागमेत्ता ते" । सेसा तिणि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा" ।।
1
दहणे" पयावणे पगासणे 'भत्तकरणे य सेए य" भोगणा माणं ॥
बादरतेनकाए,
१२०.
१२१.
१२२.
१२३.
१२४.
१२५.
१२७.
१२८.
एतेहि
सातं गवेसमाणा, परस्स
कारणेहि, हिसंती" तेवकाइए जीवे । दुक्खं उदीरंति ॥
पुढवी " आजक्काए, उल्ला य बादर उक्काए,
८. उणे (म) ।
१. जहा (म) ।
२. प्र ० (टी) ।
३. रत्ति ( अ ) ।
किची सकायसत्यं किंची परकाय तदुभयं
एयं तु दव्वसत्थं भावे य
अजमो
सेसाई दाराई, ताई जाई एवं ते उद्दे से निज्जुती
एयं तु समास
४. बा जउम्हा ( अ ) ।
५. तओवमा (टी), ततोषमा ( अ ), तजवमा
वणस्सती तसा पापा । सत्यं ॥
(#)
६. ०मित्ता उ (टी), ०मेत्ताओ (बम) |
७. १२०-२५ तक की गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट
और व्याख्यात नहीं है ।
१२६. पुढवीए जे दारा, वणप्फतीए" वि होंति ते चेव । नाणती उ विहाणे, परिमाणुवभोग-सत्य ॥ दुविह" वणस्पतिजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, 'दो चेव य' २० बारविहाणा || पत्तेगा साधारण, बादरजीवा समासतो दुविहा । बारसविणेगविहा, समासतो छ विहा होति ॥
९. ० वण ( अ. टी ) ।
१०. य सेए य भत्तकरणे य (टी) ।
हति कितिया
किची ।
११. सिंति (म) ।
१२. पुढषीय (म ) ।
१३. ते (अ) ।
१४. X (म) |
सत्थं ५
||
पुढवीए ।
एसा ॥
२५७
१५. यह गाथा अ, ब छोर म प्रति में नहीं है ।
१६. वणसकाए ( अ ) ।
१७. दुविहा ( अ, म ) ।
१८. वसति ( अ ) ।
१९. वि (अ) ।
२०. दोवेव य (बम), दो थ भवे ( अ ) | २१. होति (म) |
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२५८
नियुक्तिपंचक १२९. रुक्खा गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पव्वगा' चेव ।
तण-वलय-हरिय-ओसहि-जलरुह-कुणा य बोधव्वा । १३.. अग्गबिय भूलमीया, खंधबिया चेव पोरबीया य।
बीयरहा समुच्छिमा, समासओ वणसई जीवा।। १३१. जह सगलसरिसवाणं, सिलेसभिस्साण' वत्तिया पट्टी ।
पत्तेयसरीराणं, तह होति सरीरसंघाया ।। जह वा तिलसक्कुलिया, बर्हि' तिलेहि मेलिया संती। पत्तेयसरीराणं, तह होति" सरीरसंघाया ।। नाणाविहसंठाणा, दीसंति एगजीविया पत्ता । खंधावि एगजीवा, ताल-सरल-नालिएराण' ।। पत्तेया पज्जत्ता, सेतोय" 'असंखभागमेत्ता ते । 'लोगासंखा पज्जत्तगाण',१२ साधारणाणता" ।। एतेहिं सरीरेहि, पच्चरखं ते परूविया जीवा ।
सेसा आणागिझा, चक्खुणा जे न दीसंति ।। १३६. साहारणमाहारो, साधारण आणपाणगहणं" च ।
साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एवं ॥ १३७. एमस्स 'उ ज गह',१५ बहूण साहारणाण तं चेव ।
जं बहुयाणं" गहणं, समासओ तं पि एगस्स ।। १३८. जोणिन्भूते बीए, जीवो वक्कमति सो व अन्नो वा।
जो वि य मूले जीवो, सो चिय पत्ते पढमयाए ।
१३५.
१. परवगा (ब)।
१०. सेढीए (ब,टी)। २,३. बीया (टी), यहाँ छंद की दृष्टि से ह्रस्व ११. मेत्ताए (ब)। इकार स्वीकृत किया है।
१२. लोगा संखप्पज्ज० (टी)। ४. वणफई (अ)।
१३. रणमणंता (अ)। ५. मीसाण (अ)।
१४. आणुपाणु (ब,म), मागपाण. (अ)। ६, बहुपहिं (अ,ब,टी)।
१५. अणुगहणं (ब,म)। ७. आण (ब)।
१६. बहुधाणं (ब)। ८. बंधे य (अ)।
१७. दशनि २१५। २. ०एरीण (म,ब,टी)।
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२१९
आचागि नियुक्ति १३९, चक्कागं' भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । ।
पुढविसरिसभेदेणं', अणंतजीयं वियाणाहि ॥ १४०. गूढसिराग पत्तं, सच्छोरं जं च होइ निच्छीरं ।
जं पुण' पणद्वसंधि, अणंतजीवं बियाणाहि ।। १४१. सेवाल-कत्थ-भाणिय', अवए पणए य 'किण्हए य हडे' ।
एते अणंतजीवा, भणिया अन्ने अणेगविहा'६ ।। १४२० एगस्स दोण्ही तिण्ह व, संखेज्जाण व" तहा असंखाणं ।
पत्तेयसरीराण, दीसंति सरीरसंघाया२ ॥ १४३. एगस्स 'दोण्ह तिण्हव, संखेज्जाण व न पासि सक्का ।
दोसति सरीराइ, निगोयजीवाणऽणताणं ।। १४४. पत्थेण व कुडवेण" व, जह कोइ मिणेज्ज सव्यधन्नाई।
एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अर्णता उ ।।दारं। १४५. जे बादरपज्जत्ता, पतरस्स असंखभागमेत्ता ते ।
सेसा तिन्नि वि रासी, असंख साहारणमणेता"५ ॥ १४६. आहारे उक्करणे, सयणासण-जाण-जुग्गकरणे-य ।
आवरण 'पहरणेसु य" सत्यविहाणेसु 'हु बहूसु ।। ___ आउज्ज कटुकम्मे, गंधंगे वत्थ-मल्ल८ जोगे य ।
झावण'-वियावणेसु य, तिल्लविहाणे य" उजोए" ॥ १४८. एतेहि कारणेहि, हिसंति वणस्सई बहू जीवे ।
सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरति ॥दा।।
१४७.
१. चक्क व (ब)। २. पुढवी० (अ)
१२. अ प्रति में यह गाथा स्पष्ट नहीं है। ३. णेहि (टी)।
१३. दो व तिहि (ब)। ४. पि य (अ)।
१४. कुभएण (ब)। ५. संधितं (म), संधि (अ) संधिय (टी)। १५. असंखलोया तिन्नि वि साहारणाणता (टी)। ६. गम्भ (म), कथ (ग)।
१६. कणसे (अ, ब)। ७. भाणीय (ब), भाणी (अ), हाणीय (म)। १७. अ बहुसं (टी)। 5. कि नए •(टी), किण्ह ते हदे (अ)। १८. मरुलो (अ), मल्ले (ब)। ९. या वन्ने तहाविहर (अ), भणिया वन्ने १९. मासण (A)। ___ अणे. (म)।
२०. व (ब)। १०. दो व (ब)।
२१. उज्जोवे (म, ब)।
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१४९. .
१५१.
१५२.
नियुक्तिपंचक कप्पणि-कुहाडि'-असियग, दत्तिय-कुद्दाल-वासि परसू य । सत्या' वणस्सईए, हत्था पाया मुह अग्गी ।। किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची। एतं तु दव्वसत्यं, भावे य असंजमो सत्यं ।। सेसाई दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वणस्सईए, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।।दार।। तसकाए दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्तो५ उ विहाणे परिमाणुयभोग-सत्ये य' ।। दुविहा खलु तसजीवा, लद्धितसा 'तह य" गतितसा चेव । लद्धीय तेउ-वाऊ, तेणहिगारो इहं नस्थि ।। नेरइय-तिरिय-मणुया, सुरा य गतीय चउबिहा 'उ तसा । पज्जसाऽपज्जत्ता, नेरइयाई" 'य नायव्वा'" ।। तिथिहा तिविहा जोणी, 'अंडा-पोया-जराउया चेव । बेइंदिय-तेइंदिय, चउरो पंचिदिया घेव ।।दा।। दसण-नाण-चरित्ते, चरिताचरिते य दाण-लाभे य । उपभोग-भोग-वीरिय, इंदियविसए य 'लद्धो य" ।। उवओग-जोग-अज्झवसाणे वीसं च 'लद्धिओ उदया५ । अट्टविहोदयलेस्सा", सणुस्सासे कसाए य ।।
१५४.
१५५.
१५६.
१५७.
१. कुहाणि, (टी) कुट्ठि (म) ।
९. गइओ (टी)। २. उद्दाने (ब)।
१०. चेव (टी), तस्स (अ)। ३. फरसू (ब, म)।
११. नेरई० (म)। ४. सत्या (म)।
१२. उ नेयम्वा (अ)। ५. नाणत्ति (म)।
१३. अंडय पोजअ (टी)। ६. १५५,१५६ इन दो गाथाओं को छोड़कर १४. लद्धीमी (ब), बीए (म), अ प्रति में गाया
१५२-१६३ तक की गाथाओं का पूणि में का उत्तरार्ध नहीं है। संकेत नहीं है। किंतु 'तसफायनिज्जुत्तीए नव १५ लद्धी ओदइया (णं उपया) (टी) । दाराई वणेउ पसितसिद्धाई' इतना उल्लेख १६. लेसा (ब, दी)। मिलता है।
१७. सन्नुसासे (टी)। ७. चैव (टी)।
१५. व (अ)। ८. लद्धीबो (ब)।
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२६१
१६२.
आचारांग नियुक्ति १५८. लक्षणमेयं' चेव उ, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते ।
निक्रमणे य पवेसे, 'एगादीया वि'' एमेव ।। १५९. निक्खम-पवेसकालो', समयादी एत्य आलियभागो ।
अंतोमुहुत्तविरहो, उहिसहस्साहिए दोनि ।।दार।। १६०. मंसादी परिभोगो, सत्थं सत्यादियं अणेगविहं ।
सारीर-माणसा वेयणा य दुविहा बहुविहा य ।।दार ।। १६१. मंसस्स केइ अढा, केई चम्मस्स केई रोमाणं ।
पिच्छाणं पुच्छाणं, दंताणढा वहिज्जति ।। केई वहति अट्ठा, केइ अणट्ठा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता, बंधति वहति मारेति ।। सेसाई दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए ।
एवं तसकायम्मी, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।। १६४. वाउस्स वि दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए ।
नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोग-सत्थे 4" ।। १६५. दुविहा उ वाउजीवा, सुहमा तह बायरा उ" लोगम्मि ।
सुहुमा य सव्वलोए, पंचेव य बायरविहाणा ।। १६६. उक्कलिया मंडलिया, गुंजा घणवाय-सुखवाया य ।
बादरवारविहाणा, पंचविहा वणिया एते ॥दार।। १६७. जह देवस्स सरीरं, अंतद्धाणं व अंजणादीसुं ।
'एओवम आदेसो'," वाएऽसते वि रूवम्मि ।।दार।। जे बायरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते ।। सेसा तिमि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेजा ॥दार।।
१६८.
१. मेवं (टी)। २. उ (म, टी) ३. एगबीयाबि (म)। ४. निग्गम० (ब)। ५. आवली (टी)। १. दोहि (ब)। ७. केई (म)।
८. हर्षति (अ, म)। ९. सेसाई (म)। १०. १९४-७२ तक की गाथाएं पूणि में निर्दिष्ट
नहीं हैं। ११.x (ब, म)। १२. एतोवमादेसो (अ) 1
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२६२
१६९.
१७०.
वियणे य सालविटे, सूवसिए पत्त 'अभिधारणा य बाहि', ' गंधग्गी १७१. किची सुकायसत्थं किंची परकाय एवं तु दव्वसत्यं भावे य
१७२.
१७३.
१७४.
१७५.
१७६.
१७७.
वियणधमणाभिधारण, बनाए
१७८.
निर्मुक्तिपंचक
उस्सि चण'-' - फुंकार आणुपाणू य" । भोगगुणा माणं ॥ दारं ||
लकणे* य । वाजसत्थाई ॥
पुढवीए |
सेसाई दाराई, ताई जाई हवंति एवं वाउद्देसे, निज्जुती कित्तिया एसी ।। सत्यपरिणाए निज्जुती सम्मत्ता
तदुभयं
सयणे अदढत्तं बीयगस्मि माणो य अत्थसारो य । भोगेसु लोगनिस्सार, लोगे 'अम मिज्जता
चेव'" ।।
लोगस्स य विजयस्स य, गुणस्स मूलस्स त य निवखेव काव्यो मूलागं च
विजितो कसायलोगो, सेयं काम नियत्तमई
खलु,
१. उस्तिघण (अ, ब, म ) ।
२. फुसण आणु (टी), फुंसणाणपाणू (बम) |
वायुका के प्रसंग में 'एएहि कारणेहि' वाली
गाथा नहीं मिलती है।
३. ० घंटे (टी) ।
४. सुप्पसिय (टी), सूवसिय ( अ ) ।
५. कन्नवेले ( ब ) ।
असंजमो
लोगो तिय 'विजयो सिध्य, 'अज्झयणे लक्खणं "तु निष्कन्नं ॥ गुणमूलद्वाणं" ति य, 'सुत्तालावे य' १९
निप्फन्तं ॥ विजयस्स । विजणं ।।
६. ०धारणाहि पार्थ (ब) ।
७. यह गाथा केवल 'म' प्रति में प्राप्त है। वहां भी 'किची सकाय' इतना ही प्रतीक दिया गया है ।
भावे
लोगस्स य निषखेवो, कसायलोगो, लोगो भणितो दव्वं, खेत्तं कालो य भावविजओ य । भव- लोग भावविजओ, पगयं 'तह बज्झए" लोगो ॥
१४
अट्ठविहो छम्विहो उ" अहिगारो तस्स
किंची ।
सत्यं ॥
ठाणस्स | संसारी ॥
खु ततो नियत्तिवं संसारा मुच्चए "
होति । खिष्पं ॥
८.
अममिज्ज भावे य ( ब ) ।
९.
विजय त्ति (टी) |
१०. ०यण सलक्ख० ( अ ) !
११. गुणसूत्रं ठाणं (टी) |
१२. ०लावेण (म) ।
१३. य ( ब ) ।
१४ ०बई (य, म), जह बकाई (टी) | ty. ofar (ar) |
१६. मुम्बई (ब, म, टी) ।
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आचारांग नियुक्ति
१७९.
१५०.
१८१.
१८२.
१८३.
१८४.
१८५.
१८६.
१८७.
१८८.
१८९.
दव्वे खेते काले, फल- पज्जद - गणण करण-अवभासे । गुणभगुणे अगुणगुणे, भव-सीलगुणे य भावगुणे ॥ व्वगुणो' दव्वं चिय, 'सच्चित्ते अचित्ते''
गुणाण जं तम्भि संभवो होति । मीसम्म य होति दवम्मि || संकुचित विगसितत्तं एसो जीवस्स होति जीवगुणो । पूरेति हंदि लोगं, बहुप्पएसत्तणभुर्णणं ।। देवकुरु सुसमसुखमा", सिद्धी निब्भय दुगादिया चैव । कल गोगुलु के श्री भावम्मि ||
मूले छक्कं दब्वे," 'मोद उवएस' खेसे काले मूलं,
आइमूलं च । तिविहं ॥
भावे मुलं भवे
मोदrयं वदिट्ठा, आइतिगं मूलभाव" आयरिओ उवदिट्ठा, विषय- कसायादिओ नामं ठवणा दत्रिए, खेत्तद्धा उड्ड उवरती वसही । संजम - पग्गह- जोहे", अचल-गणण-संघणा भावे" ।।
१. ० गुणा (ब)
२. भेव (घू) ।
३. सचिते अचित्ते (ब) ।
४. सुसुभ० ( ब ) ।
५. ० हिया ( ब म ), ०तिया ( अ ) ।
६. ०णुज्ज (म) ।
v. faed (ar) t
६. ओदहमोव (म), ओदश्य उव० ( अ ) ।
ओददगं । मादी || दारं ||
पंचसु 'कामगुणेसु य १७, सफरिस रस- रूव- गंधेसुं । जस्त कसाया वट्टति मूलद्वाणं तु संसारे ।। जह सव्वपायवाणं, भूमीए पतिट्ठियाणि मूलाणि । इय कम्मपायवाणं, संसारप्रतिट्ठिया भूला ॥ अहिकम्मरुक्खा, सव्वे ते मोहणीयमूलागा" । 'कामगुणमूलगं वा'", तम्मूलाग च संसारो ।।
दुविहो य होति मोहो, दंसणमोहो परिप्तमोहो य । कामो चरितमोहो, तेणऽहिगारो दहं सुते ॥
९. उदईओ ( ब ) ।
१०. मूलजीव ( ख ) । ११. जोए (भ)
२६३
१२. दबुनि १० ।
१३. ० गुणें (म.) ।
१४. मोहणिज्ज० (ब) म, टी) ।
१५. ० मूलिया गव्य (म) ० मूलियागं वा ( अ ) ।
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________________
२६४
११०.
१९१.
१९२.
१९३.
१९४.
१९२।१. दवे खेत्ते काले,
१९५.
3
संसारस्स उ' भूलं, कम्मं तस्स वि य' 'होंति उ' कसाया । ते सयण - 'पेस- अत्याइएस'" अज्झतिथए" य ठिया || नाम दवणा दविए, उप्पत्ती पच्चए य आले । रस-भाव- कसाए य', 'को नयो" कोहादिया चउरो || संसारे य भावसंसारे । संसरति जिया" ।।
१९६.
'दब्वे खेत्तं काले' " भव पंचविहो संसारो, 'जस्थेते
१२
४
भवसंसारे य भावसंसारे । कम्मेण य संसारो, तेणऽहिगारो इहं सुते" ॥ नामं ठवणाकम्मं, 'दव्वं कम्म ९ समुदाणिरियावहियं " महाकम्म कितिकम्म" भावकम्मं, दसविहकम्मं समासतो होति । अट्ठविहेण उ कम्मेण एत्य होही" अहोगारो ॥ संसारं छेत्तुमणो, फम्म उम्मूलए तदट्ठाए । जम्मूलेज्ज कसाए, तुम्हा उ चएज्ज सयणादी" || मायामेति पिया मे, भगिणी भाषा य पुत्त दारा में । अत्थम्मि चेa fraा, जम्मण- मरणाणि पार्श्वेति ॥
१. य (1) X (म) ।
२. x (टी) ।
३. होति उ ( अ ), इंति य (टी) ।
४. पेसण अट्ठाइ० (च्) ।
५. ०स्थओ (ब, म, टी), अण्णत्थओ (चू)।
६. या ( म, टी) ।
७. तेण य (टी) ।
८. यह गाथा चूर्णि में अनिदिष्ट और अव्याख्यात
है ।
९. नामं ठषणा दविए ( 1 ) ।
१०. जत्थ य ते संसारजीवा ( अ ) ।
११. यह गाथा केवल 'म' प्रति में उपलब्ध होती है । यह १९२वीं गाथा की संवादी है अतः
१७
पयोगकम्मं च ।
तवोकम्मं ॥
इसे नियुक्तिगाथा की संख्या के क्रम में नहीं रखा है।
१२. दष्वकम्मं ( अ, टी) ।
१३. समुयापरिया ० ( ब ) ।
१४.
० (म ) |
१५. ओकम्मं ( ब ) |
१६. कम्मं (अ) |
१७. दसवा सयं (अ) 1
१८. होई (बटी), होइ ( ब ) ।
१९. संसारे (ब) ।
निर्युक्तिपंचक
२०. १९५, १९६ इन दोनों गाथाओं का चूर्ण में कोई संकेत नहीं है ।
२१. मि ( ब ) ।
२२. ०णाई ( अ ) |
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२६५
१९७.
आचारांग नियुक्ति
बितिउद्देसे अवढो, उ' संजमे कोइ होज्ज अरतीए । अन्नाण-कम्मलोभादिहि अज्झत्थदोसेहिं ।।
___ लोगविजयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता १९८. पढमे सुत्ता अस्संजत: ति बितिए" दुह अणुहति ।
तइए न हु दुषखेणं, अकरणयाए व समणो ति ।। १९९.
उद्देसम्मि चउत्थे, अहिगारो उ वमणं कसायाणं । पावविरईओ विदुसो ५ बमो ए३५ गोक्यो सि । नाम ठवणासीयं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य उण्हस्स वि, 'चउम्विहो होति निक्लेवो' ।। दब्वे सीतलदव, दवण्ह व 'उण्हदयं तु ।
भावे उ पुग्गलगुणो, जीवस्स गुणो अणेगविहो ।। २०२. सीतं परीसह पमादुवसम-विरती" सुहं च उन्हं तु" ।
परीसह-तवुज्जम-कसाय-'सोग-वेदारती'१५ दुक्खं ।।दार।। इत्थी सरकारपरीसहो य दो भावसीतला एए।
सेसा 'वीसं उण्हा, परीसहा होति नायव्वा ।। २०४. जे तिव्यपरीणामा'४ परोसहा ते भवति उल्हा उ ।
जे 'मंदपरीणामा'५, परीसहा ले भवे सीया" ।।दार।। धम्मम्मि जो पमायति, अत्थे वा सीयलो ति तं बेति । उज्जुत्तं पुण अन्नं, तत्तो उहं ति णं ति" ।।दार।।
२०१.
२०३.
१. य (अ)।
८. निक्लेवो चम्विहो होइ (अ)। २. इस गाथा में द्वितीय अध्ययन के विषय का ९. होइ उण्हं तु (म) ।
संक्षिप्त विवेचन है। इस गाथा का चूर्णिकार १०. बिरा (ब) 1 ने कोई उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार ने ११. ध (म)। इस गाथा को नियुक्तिकृत् मानते हए कहा १२. सोगाहि वेयारई (टी), सोगवेयारई (नम)।
है-'नियुक्तिकारो गाथयाचष्टे'। १३. विसं उपहा य (अ)। ३. असंघति (च)।
१४. तिब्बप्परि० (ब,टी,चू)। ४. बिय (ब), बीए (अ)।
१५. मंतप्परि० (टी)। ५. पुहं (अ)।
१५. बीया (अ)। ६. वियणो (ब), पियणे (म), विउणो (टी)। १७. चूणि में इस गाथा का संकेत नहीं है, किंतु ७. उ.(ब,म,टी)।
भावार्य प्राप्त है।
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२१०.
२६६
नियुक्तिपंचक २०६. सीतीभूतो परिनिबुतो य संतो तहेव पल्हाओ'।
होउवसंतकसाओ, तेणुवसंतो भवे सीओ दार। २०७. अभयकरो जीवाणं, सीयवरो संजमो भवति सीतो।
अस्संजमो च उण्हो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।दार।। २०८. निवाणसुहं सायं, सीतीभूयं पयं अणाबाहं ।
इहमवि जं किंचि सुह, तं सीयं दुक्खमवि उण्हं ।। २०९. उज्झति तिब्वकसाओ, सोगाभिभूओ उदिण्णवेदो य ।
उण्हतरो होइ तवो, कसायमाई वि जं डहई ॥ सीउण्हफास-सुह-दुह, परीसह-कसाय-य-सोगसहो। होम्न समणो सया उज्जुओ य तव-संजमोवसमे ।। सोयाणि य उण्हाणि य, भिक्षण होति विसहियक्वाणि ।
'कामा न सेवियध्वा'" सीओसणिज्जस्स निज्जुत्ती ।। २१२. सुत्ता अमुणिओ सया, मुणिओ सुत्ता वि जागरा होति ।
धम्म पडुच्च एवं, निद्दासुत्तेण भइयव्वं ।। २१३. जह सुत्त मत्त मुछिय, असहीणो पावती'" बहुं दुषखं ।
तिब्वं अप्पडियार, पि वट्टमाणो तहा लोगो।। २१४. एसेव य उवदेसो, पदित्त" पवलाय पंथमादीस् । अणुवति जह सचेओ, सुहाई समणो वि तह चेव ।।
सीओसणिज्जस्स निक्षुत्तो सम्मत्ता २१५. पढमे सम्मावाओ, बितिए"धम्मप्पवादियपरिक्षा।
ततिए अणवज्जतवो, न हु बालतवेण मोक्खो त्ति ।।
१, पण्हाणो (टी)। २. जीवो (टी)। ३. सीयहरो (स)।
छुवंति (म)। ५. असंजमो (ब)। १. नेम्वाणं. (अ)। ७. पूओ य (ब)। ६. भवे (अ)
९. महा (म)। १०. काम निवेवियध्वा (अ)। ११. भणिय (अ)1 १२. ४ (च)। १३. पायए (ब,टी)। १४. पलित्त (अ,ब,म)। १५. पयलाय (घ,टी)। १६. बीए (मटी)।
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२६७
आचारांग नियुक्ति २१६. उद्देसम्मि' चउत्थे, समासवयणेण नियमणं भणियं ।
तम्हा य नाण-दसण-तव-चरणे होति जतितब्ब' । २१७. नामं ठवणासम्म, दवं सम्मं च भावसम्म च ।
एसो खलु' सम्मस्सा, निफ्लेवो चविहो होइ ।। २१८. अह दव्यसम्म इच्छाणुलोमियं तेसु तेसु दम्वेस ।
कयसंखतसंजुत्तो, पउत्त जढ भिण्ण छिण्णं वा । २१९. तिविहं तु भावसम्म, दसण नाणे तहा' चरिते य ।
दसण चरणे तिविहं, 'नाणे दुविहं तु नायव्वं ।। २२०.
कूणमाणो वि य किरियं, परिचयंतो वि सयण-धण-भोए । दितो वि दुहस्स उरं, न जिति अंधो पराणीयं ।। कुणमाणो वि निवित्ति, परिच्चयंतो वि सयण-धण भोए।
दितो" वि दुहस्स उर, मिच्छट्टिी न सिज्झइ उ॥ २२२.
तम्हा कम्माणीय", जेतुमणो दंसम्म पयएज्जा। 'दंसणवओ हि सफलाणि, होंति तव-नाण-चरणाई ।। सम्मत्तप्पत्ती" सावए य बिरए अणंतकम्मसे" । दसणमोहक्खवणे, उवसामते ५ य उवसंते ।। खवगे य खीणमोहे, जिणे य सेढी भवे असंखेज्जा।
तग्विवरीतो काले, संक्षेज्जगुणाएँ सेढोए" || २२५. आहार-उवहि-पूया-इड्डीसु य गारवेसु केतवियं ।
एमेव बारसविधे, तवम्मि न हु कइतवे समणो ।
२२१.
२२४.
१. नायब्वं (म)। २. स्स (ब)। ३. हत्याण. (म), लोमिया (ब)। ४. उवउत्त (टीपा)। ५. च (म)।
११. ०णी (ब)। १२. ण वायाहि (ब)। १३. ० तुपत्ती (च,टी)। १४, कम्मंसि (म)। १५. उवसमते (अ.म)। १६.०णा (टी)। १७. चूणि मैं इस गाथा का संकेत न होने पर भी
इसकी संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है। १८. कतियये (म), केयवं (अ) । १९. यह गाथा चूर्णि में अम्माब्यात है।
७. दुबिह नाणे (अ)। ५. दंतो (म.म)। ९. णियत्ति (पू), नियत्ति (म)। १०.देतो (अ.म)।
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नियुक्तिपंचक
२२६.
२२७.
२२६.
२२९.
२३०,
जे जिणवरा अतीता, जे संपति जे अणागए काले । सध्वे वि ते अहिंस, वदिसु वदिहिति 'य वयंति" ॥ 'छप्पिय जीवनिकाये', णो वि हणे णो बि आहणावेज्जा'। नो वि य अणुमन्नेज्जा, सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती ॥ खु जुग पायसमास, धम्मकहं पि य अजपमाणणं । छन्नेण अनलिंगी, परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥ 'भिक्ख पविठेण"मए इज्ज दिटें, पमदामुहं कमलविसालनेत । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नाय, सकुंडलं वा वयणं न व ति" ॥ फलोदएणं म्हि"गिह पविट्ठो, तत्थासणत्था पमदा मि दिट्ठा । वक्वित्तचित्तेण न सुट्ट नायं', सकुंडलं वा वयणं न व त्ति" । 'मालाविहारम्मि मएज्ज दिदा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्तित्तचित्तेण न सुट्ठ नाय, सकुंडलं वा वयणं न व ति" || खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । कि मज्झ" एएण विचित एणं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ॥ उल्लो मानो य दो हा, गोलमा महिला मया । दो वि आवडिया कुड्डे १८, जो उल्लो सोऽत्य लग्गती ।। एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुषकगोलए।
२३१.
२३२.
२३३.
२३४.
१. विदिति (ब.टी)। २. छज्जीवनिकाय (चू)। ३. य इणावे (टी), याहणा० (ब)। ४. बुद्दग (अ.स)। ५. समासा (चू)।
१२. गिहे (म,अ)। १३. दिळं (अ)। १४. किसी प्रति में अंतिम चरण का 'सकुं'केवल
इतना ही संकेत मिलता है। १५. मालाविहारे मयि अज्म (अ)। १६. म प्रति में यह गाथा नहीं है । १७. मज्झि (म)। १८. कुंडे (अ)। १९. तत्थ (टी)। २०. उसू २५।४० । २१. लया (ब), उसू' २५।४।।
७. भिक्चप्पविक (अ,ब)। ८. मये (ब)। .. दिळे (म)। १०. २२९-३१ तक की गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट ___ और व्याख्यास नहीं है। ११. मि (म,टी)।
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आचारांग नियुक्ति
२३५.
२३६.
२३७.
२३८.
२३९.
२४०.
२४१.
२४२.
२४३.
जह खलु सिर कट्ठे 'सुचिरं सुक्क" लहुं डहह अग्गी । तह खलु कर्मा सम्मच्चरणट्टिया साहू || सम्मत्तस्स निज्जुती सम्मत्ता
हिंसग - विसयारंभग, एगचरो तिन गुणी पढमगम्मि । विरओ मुणि त्ति बितिए', अविरयवादी परिगहिओ || ततिए एसो अपरिग्गहो ति निग्विण्णकामभोगो य । अश्वत्तस्मे च रस्स,
पच्चवाया
चम्म ||
हरउवमा
तव - संजमगुत्त निस्संगधा य पंचमए । उम्मग्गवज्जणा छगम्मि तह रागदो से य" ॥ आदाणपणात", गोष्णनामेण" लोगसारो ति । लोगस्स य सारस्स १३, चउक्कओ होति निक्खेवो ॥ सव्वस्स थूल" गुरुए", मज्झे देसप्पहाण सरिराई" । घण- एरंडे बइरे. खरं च१७ जिणादुरालाई " || दारं । । फलसाहणता, फलतो सिद्धी
भावे
नाण-दंसण-संजम - तवसा
साहृणय
लोगम्मि
सारो
चइऊणं अस्थि जिम
कुसमएसु" य काम-परिग्गहकुमग्गल गेसुं ।
हु
हिट्टाए ||
नाण- दंसण तव चरणगुणा संकपयं, सारपयमिणं" " परमपयं जयणा जा
१. सुक्कं सुचिरं ( अ ) |
२. खवंत (टी), विति (म ) |
३. सम्मं च० (अ), ०न्चरणे ठिया (ब,म, टी) |
४. चूर्णि में यह गाथा खडगपायसमासं ( आनि २२८ ) के बाद है ।
५. ०यारंभो (म) । ६. बीए ( अ ) ।
७. य (बम, टी) ।
१६
सुहुत्तम वरिट्ठा " । तह" गयं ॥
११. ०णावती (बम) | १२. गोत० (म ) 1
दर्दण
घेत्तव्वं । रागदोसेहिं ॥
१३. या ( ब ) ।
१४. मूल (ब) ।
१५. भारि (अ.) ।
१६. सिरिराई (म), सिरिराई ( ब ) ।
१७. व (बम) ।
१८. जिया उराले व (म ) ।
१९. वरट्ठा (अ) |
२०. हियं (ब) |
होमो (टी) ।
९. ० संजमा ० ( अ ) |
१०. २३८,२३९ इन दो गाथाओं का संकेत चूर्णि २३. सारयमिदं णं (ब) |
मैं नहीं है किंतु भावार्थं प्राप्त है।
२४. जीवो ( अ ) |
२५. जयमाणा ( ब )
२६९
२१. य सुमएस (ब) |
२२. काऊ (ब), जहिऊण (नू) ।
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२७०
गरिरूपंचक
२४४.
२४५.
२४७.
२४८,
लोगस्स य' को सारो, तस्स य सारस्स को हति सारो। तस्स य सारो सारं, जइ जाणसि पुच्छितो साह ।। लोगस्स धम्मसारो, धम्म पि नाणसारियं ति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निठवाण" ।। चारो चरिया चरण, एगलैं वंजणं तहि छक्कं । दव्वं तु दारुसंकम, जल-थल-चारादियं बहुहा ।। खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, 'कालो काले' जहिं भवे चारो। भावम्मि नाण-दसण-चरणं तु पसत्थमपसस्थं ।। लोगे चउध्विहम्मी, समणस्स चउश्विहो कहं चारो ?। होइ" धिती" अहिगारो, विसेसतो खेत्तकालेसु ॥ पावोवरतेय अपरिगहे य 'गुरुकुलनिसेवए जुत्ते"। उम्मग्गवज्जए रागदोसविरते य से विहरे" ।।
लोगसारस्स निन्जुत्ती सम्मत्ता २५०. पढमे नियविधुणणा, कम्माण बितियए तइयगंसि ।
उवगरणसरीराणं, चउत्यए गारवतिगस्स ।। २५१. उवसग्गा सम्माणय, विधूताणि पंचम्मित उद्देसे।
दव्यश्रुतं वत्यादी, भायधुतं कम्मअट्टविह८ ।। २५२. अहियासित्तुवसग्गे, दिव्ये माणुस्सए तिरिक्खे। य । जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं वियाणाहि ।।
धुयस्स निजुत्ती सम्मत्ता
२४१.
१. उ (ब,म,टी)।
११. धिति (ब,म)। २. साह (ब)।
१२. वरिए (म)। ३. धम्मो सारो (च), सारधम्मो (टी)। १३. निवेसए कुत्तो (अ)। ४. मेव्वाणं (अ.म)।
१४. इस गाथा का निर्देश चूर्णि में नहीं है। ५. वर्ण (चू)।
१५. तश्यते य (अ), सइगम्मि (टी)। ६. काले कालो (ब)।
१६. पंचमम्मि (ब,म,टी)। ७. व (अ)।
१७. धुवं (अ)। ८. इस भाषा के पूर्वावं का निर्देश चूर्णि में नहीं १८, मह गाथा घृणि में निर्दिष्ट नहीं है। है, किन्तु व्याख्या उपलब्ध है।
१९. तिरिच्छे (टी)। ९. विहम्मि (च)।
२०. ० माई (न)। १०. होई (अ.म.)।
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आचारांग नियुक्ति
२७१
२५३. गाहावतिसंजोगे, कुसीलसेवा तहेव य सपक्खे ।
परिणाए' विवेगो, पढमुद्देसम्मि अहिगारो' । २५४. बितिए मग्गविजहणा, देहविभूसा य मेहुणासेवा ।
'गब्भस्स य आदाणं', परिसाडण पोसणा चेव ।। ततिए खलुफभावो, आमिसपुच्छा य 'विसहणा सयणे ।
पासवणुच्चारविही, किरिया धुवणं च वत्थस्स ।। २५६. विषुवण वेहाणस' हत्थकम्म इत्थोण विप्पजणा य ।
देहस्य र परिकम, तिम पहाण पदाहियतव" ।। चसथम्मि" धुवणविहीर, परिहरणविही" य होइ वत्थस्स ।
तस्सेव वणकरणं, 'अणुनवण उग्गहस्सेव'" ।। २५८, कडमासण परिभोगो," सेज्जायरपिंडवज्जणं चेव ।
सपरिगहपरिमाणं, विवज्जणा सन्निहिस्सेव ।। २५९. पंचमए अटुपदेणं, "जिणधम्मम्मि'१७ तहा समुट्ठाणं ।
थावरकायाण' दया, अक्कोसवधेहियासणया । २६०. तसफायसमारंभण, गिहमत्तविवज्जणं न तित्थीणं ।
जे यावि य अविदिन्ना, ठाणा तेसिं च सव्वेसि ।।
२५७.
१. ०णाए य (क,म)।
७. विजहणावसाणे (अ), विसहणे० (ब)। २. गाथा २५३ से २७० तक की गाथाएं 'महा- ८. च्चाराणं (अ)।
परिशा' अध्ययन की है। २५३ से २६३ तक ९. ०वण वहाण (म)। की गाथाएं टीका में उपलब्ध नहीं है। लेकिन १०. ति अश्य () । २६४ से २७० तक की गाथाएं दूसरे श्रुत- ११. वत्थम्मी (अ)। स्कंध की टीका के अन्त में दी है । टीकाकार १२. धुयण (कास)। ने 'अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिक्षायाः' १३. परिट्रवणविही (ख) । मात्र इतना ही उल्लेख किया है । २५३ से १४.०वण वेगाहस्सेव (अ), ०वणा उ गहणस्स २७० तक की गाथाएं सभी आदर्शों में मिलती है।
१५. करमा (अ) ३. विअयणा (ब)।
१६. पडिभोगो (ब)। ४. गम्भस्सादायाणं (ज), गम्भस्स य आदाणाय १७. अज्ज णं धम्मे (ब,म)।
१८. थावरकाए य (ब), थावरकाएण (क,बम)। . साबणा (अ)।
१९. आउस (अ) । ६. x(म)।
२०. समारंभो (अ), समारमणं (म)।
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૨૭૨
नियुक्तिपंचक
२६३.
२६४.
२६६.
२६१. छठे पश्चिाओ' संजमाओ 'तइयम्मि जो य अहिगारो।
आसेवणया य 'भवे, सिणाण परिभोग वज्जणया ।। २६२. 'सत्तमे य तिन्निपलया, सीयपरीसहहियासणं धुवणं ।
सूईमादीयाणं, सन्निहीं अट्ठवडियाए । आसंदी य अकरणं, उवएसाणं' निकायणा चेव । 'सलेहणिया या भत्तपरिणतकिरिया य॥ पाहण्णे महसहे," परिमाणे चेव होइ नायब्यो ।
पाहण्णे परिमाणे, य छविहो होइ निक्लेवो । २६५. दम्वे खेत्ते काले, भावम्मि य९ होंति जे पहाणा उ ।
सेसि महासको खलु, सहयोगं तु नि ।। दव्ये खेत काले, भावम्मि य जे भवे महंता उ ।
तेसु महासदो खलु, पमाणो होति निष्फण्णो ।। २६७. दम्वे खेते काले, भावपरिण्णा य होति बोद्धन्वा ।
जाणणओ पच्चक्खाणओ य दुविहा पुणेक्केक्का ।। २६५. भावपरिपणा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य ।
मूलगुणे पंचविहा, दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥ पाहण्णण उ पगयं, भावपरिणाए 'तह य५ दुविहाए।
परिणाणेसु पहाणे, महापरिण्णा तओ होइ ।। २७०. देवीणं मणुईणं, तिरिक्खोणीगयाण इत्थीणं । तिविहेण परिच्चाओ, महापरिणाए निजुत्ती॥
महापरिणाए निजुत्ती सम्मता
१. पडिमाओ (ज), परिवाओ (क), परिवारो ९. यहां आएसाणं पाठ होना चाहिए। (म)।
१०. लेहणीय णेया (क), सलेहण निहाणेया २. ते तझ्याम्म (ख)।
(अ)। ३. आसेवणा (क)।
११. महासट्टो (म)। ४. भवे सणाण (क), भवेसिणा (म) । १२. या (ब)। ५. परिमोग (ख)।
१३. तेसि (म)। ६. सत्तमे निश्च (ब), सत्तम्मि तिन्नि (ख)। १४. होति (टी)। ७. हियासवर्ण (ब), हीमासणं (ख,म)। १५. तहेव (अ)। ५. सुयमाईयाग व (ब)।
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आचारांग नियुक्ति
२७१..
२७२.
२७३.
२७४.
२७५.
२७६.
२७७.
२७८.
२७९.
य ।।
'असमगुण्णस्स मोखो, पढमे" बितिए अकप्पिय विमोक्खो । पsिहणाय सब्भावरुणा रुस, चेव ततियम्मि अंगचेट्ठा, भासिय आसंकिते उ कहणाय । सेसे अहगारो, उवकरण- सरीरमोक्ष्खेसु ॥
३.
४. य ( अ, टी ) ।
उद्देसम्म उत्थे, हाणस गिद्ध पिट्टमरणं * च । पंचमए गेलणं, भत्तपरिणा य बोधव्वा ||
५
छट्टम्मि उ एगत्तं इंगिणिमरणं च सत्तमए पडिमाओ, पायवगम
य काल - भावे य ।
ory ofवहारी, मतपरिणा पायवगमणं"" च तहा, अहिगारो 'नामं ठवणविमोक्खो, दवे १२ खेते एसो उ विमोक्खा, निक्खेबो Goofanitat निगला दिएसु" महिमा दिए दुविहो भावविमोक्खो, देसविभोक्खो य सव्वमोक्खो य । देसविमोक्खा साहू, सव्वविमोक्खर १७
छवि हो होइ ॥ सम्मि चारगाईसुं | अणघायमादीसु* ।।
काले
भवे
सिद्धा ॥
होइ बोघब्वं ।
च नायष्वं ॥
य
इंगिणीमरणं ।
होति" अट्टमए ॥
कम्मयदव्वेहि" समं, संजोगो होति जो उ सो बंधो नायब्चो, तस्स वियोगो भये
५. गपट्टम० (अ.स) ।
६. एगते (नू) ।
७.
व (म) |
८. पाययग० ( अ ) ।
९. अणुपुष्व ० ( ब ) ।
१०. पायग० (ख)
११. होलि (अ)।
जीवस्म । मोक्खो" ।।
१. ०णुन्न विभुतो० (ब), पुण्णस्स विमुमखो० १२. नाम ठदिओ मोक्खो दव्वमोषखो य (चू) |
(टी) ।
१३. नियलाइए (टी), ब्लातिएहि (पू) ।
२. परिसे ० ( अ ), परिणा (म) ।
१४. अमलामाई (अ), नमाधायमादीओ (म.
क्खस्स ( अ ) |
२७३
ब) ।
१५. यभाव ० ( अ ) ।
१६,१७. ०विमुक्का (अ.ग )
।
१८. कम्मय ० ( अ. टी) । १९. य ( अ ) ।
२०. यह गाथा चूर्णि में निर्दिष्ट नहीं है। इसके बाद चूर्ण में 'रागेण य' गाथा का संकेत मिलता है किन्तु यह टोका तथा किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती है ।
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२७४
२८०.
२८१.
२८२.
२८३.
२८४.
२८५.
२८६.
२८७.
२८५.
जोवस्स अत्तजणितेहि, चेव कम्मेहि पुण्य बद्धस्स । सम्वविवेगो' जो तेण, तस्स अह एत्तिओ मोक्खो ||
भत्तपरिण्णा इंगिणि पायवगमणं च होति नायव्वं । जो मरति चरिममरणं, भावविमोषखं दियाणाहि । 'सपरक्कमे य अपरवकमे य वाघाय आणुपुवीए । सुत्तत्थजागरणं, समाहिमरणं तु कायन्वं ॥ सप रक्कम मादेसी", जह मरणं 'पायवगमण च'- तहा, एवं
१. ० वियोगो ( अ ) । २. से य ( अ ) ।
३. पाउवग० (म) ।
४. जे (ब) ।
Ча
च ।
अप रक्कममा देसो ६, जह मरणं होइ उदहिनामाण" । पायवगमणे" वि तहा, एवं अपरक्कम १२ मरणं ॥ वाघातिममादेसो, भवरद्धो" होज्ज अन्नतरएणं । तोसलि महिसीय हओ एवं बाघातिमं मरणं ॥ अणुपुब्विगमादेसो, पव्वज्जा सुत्तअत्थकणं वोसज्जितो यणितो, मुनको तिविहस्स निच्चस्स । परिचोदितो कुविओ, रण्णो जह तिक्ख-सीयला आणा । तंबोले य विवेगो, घट्टणया जा पसाओ य" ।। निप्फाइया य सीसा, सउणी जह अंडगं बारस संवछरयं संलेहं अह
बुध
सो
५. चरण० ( ब ) |
६. सपरिक्कमे य अपरि० (टी) ।
होइ अज्जवइराणं । सपरषकमं मरणं ॥
७. सपरि ० (म)।
८. पावगमे वि ( अ म) 1
९. अपरि ० ( ब ), मासो (भ) |
१०. ०नामे (ब) 1
११. पाउ० (म), पाउदगमणं (पू) । १२. अपरि ० ( ब ) |
पयतेणं । करेति ॥
नियुक्तिक
१३. वाषामासी (टी), वाघाइम० (बम), • तिम आदेसो (1) 1
१४. अवरुद्ध (म) |
१५. ०सीए (ब), ०सीह (टी)
१६. वाघाड (टी) ।
१७ णाम ( अ ) ।
१८. ०त्यकरण (टी), अल्यग्रहणं (य, म, चू) ।
१९. तु (म), (ब) ।
२०. नीरस (टी) |
२१. उ ( अ ) ।
२२. इस गाथा का संकेत चूर्णि में नहीं है किन्तु कथा के रूप में व्याख्या उपलब्ध है
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२७५
२९१.
आचारांग नियुक्ति २८९. चत्तारि विचित्ताई, विगई निजहियाणि' चत्तारि ।
'संवच्छरे य दोनि उ, एगंतरियं तु आयाम । २९०. नातिविकिट्ठो' उ तवो, छम्मासे परिमियं च आयाम ।
अन्ने वि य छम्मासे, होति विगिट्ठ तवोकम्मं ।। वासं कोडीसहियं, आयाम काउ आणुपुन्याए। गिरिकंदरम्मि" गंतुं, पायवगमणं अह करेति ॥ कह' नाम सो 'तवोकम्मपंडिओ जोन'"निच्चजुत्तप्पा"। लहुवित्तिपरिक्खेवोन, बच्चति जेमंतओ" चेव ।। आहारेण विरहिओ, अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासंता हासतो, एमाहारं निरंभेज्जा ।। देसविमोक्खो" पगयं, 'उपकरणसरीरमाइ एसो य१५ । निस्संगथा विजणा, करणेणं आउकाल च८ ॥
विमोक्खस्स निम्जुत्ती सम्मत्ता जो जइया तिस्थगरो, सो तइया अप्पणम्मितिथम्मि। वण्गेइ तवोकम्म, उवहाणसुयम्मि" अज्झयणे ।। सन्वेसि तवोकम्म, निरुवस्सगं तु वण्णिय जिणाणं । नवरं तु वनमाणस्स, सोबसग्गं मुणेयवं" ।।
२९६.
मी
.
१. परिवज्जियाई (अ) हियाई (टी) 1 २. संवच्छराई (अ)। ३. नाइबिगिट्टो (टी)। ४. य (अ)। ५. तु (टी)। ६. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है। ७. कंदरं तु (अ)। ८. पूणि में यह गाथा निर्दिष्ट नहीं है किंतु
संक्षिप्त व्याख्या है। ९. फिह (म,क,चू)। १०. तवोकम्म पडिमो न (अ)। ११. निच्च जुत्ता (टी)। १२. लहवित्ती (टी)।
१३. जेमणतवो (अ)। १४. विमुक्को (ब)। १५. सरीरयाए एसो (अ)। १६. निस्संकया (ब)। १७. करणिज्ज (ब)। १८. यह गाथा टीका तथा पूणि दोनों में व्याख्यात
नहीं है किंतु यह विषय से सम्बद्ध है। यह
सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। १९. अप्पणो य (टी)। २०. ओहाण (ब,म,टी)। २१. नरि (अ)। २२. २९६,२९७ ये दो गायाएं पूणि में व्याख्यात
नहीं हैं।
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२७६
नियुक्तिपंचक २९७. तित्थगरो चउनाणी, सुरमहिओ' सिझियव्वय धुवम्मि' ।
अणिमूहियबलविरिओ, तवो विहाणम्मि उज्जमइ ।। २९८. फि पुण अवसेसेहि, दुखपखयकारणा' सुविहितेहि।
'होइ परक्कभियवं", सपच्चवायम्मि माणुस्से ।। चरिया सेज्जा य परीसहा य आयंकिते 'तिगिच्छा य* ।
तवचरणेणऽहिगारो", चउसुद्देसेसु नायचो" ।। ३००. नाम ठवणुवहाणं", दम्वे भावे य होइ नायव्यं"।
एमेव य सुत्तस्स चि, निक्खेवो चव्धिहो होइ ।। दखुवहाणं सयणे, भाववहाणं तवो चरित्तस्स ।
तम्हा उ नाण-दसण-तव-चरणेहिं इहाहिगयं ॥ ३०२. अह स्खलु मलिणं वापं, सुज्झइ उदगादिएहि दवेहिं ।
एवं भावबहाणेणा, सुज्झती. 'कम्मअट्टविह८ ।। ओधुणण'धुणण नासण,विणासणं झवण खवण सोहिकरं ।
छेयण भेयण फेडण, डहणं घुवर्ण' च कम्माण ॥ ३०४. एवं तु समचिग्णं, वीरवरेणं महाणुभावेणं । जं अणु चरित्तु धीरा", सिवमधलं३५ जंति निन्वाणं ॥
उवहाणसुयस्स निन्जुत्ती सम्मता १. महिऊ (म)।
१४. . रणेणाहिगारे तु (म)। २. धुम्मि (ब)।
१५. महलं (ब,म,टी,चू)। ३. अणगू० (ब)।
१६. सुझा तु (अ)। ४. विहागेसु (अ)।
१७. सुज्झए (टी)। ५. इस गाथा का संकेत चूणि में ३०३ की गाथा १८. क्रम्ममट्ठ० (अ,टी)।
के बाद है पर हमने टीका और हस्तप्रतियों १९. ओहणण (म), ओधू . (टी), उवहगण
की गाथा-क्रम का अनुसरण किया है। ६. ०करणे (म), करणा (टी)।
२०. सणा (अ)। ७. होइ न उज्जमियज्यं (अ,टी)।
२१. घुगणं (म)। ८. अलंकिए (क)।
२२. णि में इस गाथा के बाद "तित्पगरो ९. चिगिपछा य (म,टी), तिगिच्छाए (सू)। पड़नाणी' (आनिगा. २९७) का संकेत है। १०.०चरणहियारो (क) ।
२३. अणुचरेदु ()। ११. कायश्वो (ब)।
२४. वीरा (अ,चू)। १२. हाणे (ब)।
२५. ०मउल (ब,म)। १३. बोधम्यो (अ)।
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आषारांग नियुक्ति
२७७
३०५.
३०६.
३०९.
आयारचूला दख्वोगाहण' मादेस, काल-कम-गणण-संचए भावे । अग्ग भावे तु पहाण, बहुग उवयारतो तिविधं ।। उबयारेण उ पगर्य, कायारस्सेव उवरिमाइं तु । रुक्खस्स पश्वयस्स य', जह अग्गाई तहेताई। थेरेहिष्णुगाहट्ठा', सीसहियं होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो, आयारग्गेसु' पविभत्तो ।। 'बितियस्स य पंचमए'", 'अट्टमगरस बितियम्मि' उद्देसे । भणितो पिंडो सेज्जा, वत्थं पाउग्गहे चेव ।। पंचमगरस चउत्थे, इरिया वणिज्जते. समासेणं । छट्ठस्स य पंचमए", भासज्जायं वियाणाहि ।। सत्तेकणि सत्त धि, निज्जूढाई" महापरिणाओ। सत्थपरिण्णा भावण, निज्जूढाओ" घुय-विमुत्ती५ ॥ आयारपकप्पो पुण, पच्चषखाणस्स तइयवत्थूी । आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुइच्छेया"। अब्बोगडो उ भणियो, सत्थपरिणाय" दंडनिषखेवो । सो पुण विभज्जमाणो, तहा तहा होइ नायव्यो ।। एगविहो पुण सो संजमो त्ति अज्झत्थ-बाहिरो 'य दुहा। मण-वयण-काय तिविहो, पविहो 'चाउजामो उ" ।।
३१०.
३१२.
१. णामग्ग (चू) दब्बोग्गहणग (निभा ४९)। १०. अणिजए (अ), उजई (टी), जह (ब) । २. स्स य (टी)।
११. पंचमते (अ)। ३. वा (चू)।
१२. ०जाए (ब), जाया (म)। ४. ० रेहि अणु • (क, अ, धू), • अणुग्गहत्या १३. विच्छूढाई (अ)।
१४. निज्जूडा उ (म,टी)। ५. सीसाणं (अ)।
१५. धुववि० (छ,म)। ६. आयारंगेसु (टी)।
१६, पाहुडच्छेज्जा (ब)। ७. बीयस्स य पंचमते (अ)।
१७. ० प्रणाए (व.म)। ८. अट्ठमए बीयम्मि (ब,म) ।
१८. दुविहो (अ)। ९. पंचमस्स (चू)।
१९. जामो त्ति (अ)।
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२७८
नियुक्तिपंचक
पंच य महङ्वयाई, तु 'पंचहा राइभोयणे' छट्ठा ।
सोलंगसहस्साणिय, आयारस्सप्पवीभागा' ।। ३१५. आइविख विभइडे, विण्णाउं चेव सुहतर होइ ।
एतेण कारणेणं, महन्वया पंच पण्णत्ता ।। तेसिं 'च रक्खणढाय,'५ भावणा पंच पंच एक्केबके ।
ता' सत्थपरिणाए, एसो अभितरो होई ।। ३१७. जावोग्गहपडिमामी, पढ़मा सत्तक्कगा बितियन्ला ।
भावण-विमुत्ति-आयारपकप्पा तिन्नि इति' पंच" ॥ ३१८. पिंडेसणाएँ जा निज्जुत्ती,' 'सा चेव' होइ सेज्जाए ।
नत्थेमण पासण, उग्गहपडिमाएँ 'सा चेव'" || ३१९. सव्वा वयविसोही, निज्जुत्ती जा उ वक्कसुद्धोए ।
सच्चेव निरवसेसा, भासज्जाए" वि नायकवा ।। ३२०. सेज्जा इरिया तह उग्गहे य तिण्हं पि छक्क निक्लेवो । पिडे भासा वत्थे, पाए य चउक्फनिक्खेवो ।
पिण्डेसणाए निज्जुसी सम्मत्ता ३२१. ढवे खेत्ते काले, भावे सेज्जा य जा तहिं पगयं ।
केरिसिया सेज्जा खलु, संजयजोग त्ति नायब्धा ।। ३२२. “तिविहा य८ दव्वसेज्जा, सच्चित्ताऽचित्तमीसगा चेव ।
खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले 'कालो जहिं जो उ" ।। १. पंचह राय (ब,म)
११. निजुत्ती (ब)1 २. •सहस्साण (अ)।
१२. सम्ये था (अ)। ३. अट्ठारगस्स निप्फत्ती (अ,क)। चूणि में इस १३, अग्ग (अ.म)। गाषा का संकेत न होने पर भी व्याख्या प्राप्त १४. सम्वेव (अ), सच्चेव (ब), सा चेव (म)।
१५. सब्बे वि (म.)। ४. आतिक्खे (यू)।
१६. भासज्जायाण ()। ५. चेव रमखणट्टाए (च)।
१७. चउक्कगं जाण (अ), ३१८ से ३२० इन तीन ६. तो (ब)।
गाथाओं की टीकाकार ने कोई व्याख्या नहीं ७, होइ (च,म)।
की है। केवल 'सर्या पिण्डनियुक्तिरत्र मणनी८. बीयर (म)।
येति' मात्र इतना उल्लेख किया है। इन तीनों ९. इस (टी)।
गाथाओं का संकेत चूणि में नहीं है। १०. यह गापा पूणि में निर्दिष्ट और व्याख्यात १८. तिविहाओ (अ)।
१९. जा जम्मि कालम्मि (म)।
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२७९
३२४.
३२८.
आचारांग नियुक्ति ३२३. उक्कल कलिंग गोतम, बग्गुमती' चेव होइ नायव्वा' ।
एयं तु उदाहरण, नायव दन्वसेज्जाए ।। दुधिहा य भावसेज्जा, कायगते छविहे य भावम्मि ।
भावे जो' जस्थ जया, सुह-दुहगम्भादिसेज्जासु ।। ३२५. सन्वे वि य सेज्जविसोहिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो ।
उसे उसे, वोच्छामि समासओ किंचि ।। उम्गमदोसा पढमिल्लुगम्मि संसत्त पञ्चवाया य ।
बीयम्मि सोयवादी, बहुविहसेज्जाविवेगा' य' ।। ३२७. ततिए जयंतछलणा, सज्झायस्सऽणुवरोहिं जइयव्यं । समविसमादीएसु य, समणेणं निज्जरट्ठाए ।।
सेज्जेसणाए निण्जुसी सम्मत्ता नाम ठवणाइरिया, दवे खेत्ते य काल भावे य ।
एसो खलु इरियाए, निक्खेवो छश्विहो होइ ।। ३२९. दन्बरियाओं तिविहा, सच्चित्ताऽचित्तमीसगाई चेव ।
खेतम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं 'जो उ" ।। ३३०. भावरियाओं दुविहा, चरणरिया व संजमरिया य ।
समणस्स कह" गमणं, निहोसं होति परिसुद्धं ? ।। ३३१. आलंवणे य काले, मग्गे जयणाय'५ चेव परिसुद्धं ।
भंगेहिं 'सोलसविघ, जं परिसुद्ध" पसत्थं तु॥ ३३२. पउकारणपरिसुद्धं, 'अहवा वी" होज्ज८ कारणज्जाए ।
आलंबणजयणाए, सुद्धं मग्गे य जइयम्बं ।। १. वल्लम० (ब)।
चूणि में पहले उद्देशकाधिकार वासी गाथाएं है २. बोधवा (अ)।
तथा बाद में अध्ययन के विषयवस्तु वाली
गाथाओं की व्याख्या है। हमने टीका के कम ४. त्थि (म)।
को स्वीकृत किया है। ५. विहे सिज्जा (म), विवागो (अ)। १२. चरणगई (म.क)। ६. उ (म)।
१३. मगई (म,क)। ७. एलिगा (अ)।
१४, कहिं (म,क)। ८ समणाणं (म,क)।
१५. जयणा (क,टी), णाए (म)। ९. सचित्ता (टी)।
१६. सोलसंग परिसुखं विहं पं (म)। १०. तम्मि (अ)।
१७. महवा वि (टी)। ११. होइ (टी), होउ (अ) ३२९-३५ तक की १८. होति (अ)।
गाथाओं की व्याख्या पूणि में व्युत्क्रम से है। १९. काल (म,क,टी)।
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२८०
निक्तिपचक
३३३. 'सबे वि ईरिय' विसोहिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो ।
उद्देसे उद्देसे, वोच्छामि जक्कम किचि ।। ३३४. पढमे उवागमण' निग्गमो य अखाण नावजयणाय ।
बितिएँ' 'आरूढ छलणं, जंघासतार पुच्छा य ।। ३३५. ततिम्मि अदायणया', अप्पडिबंधो य होइ उबहिम्मि ।
बज्जेयव्वं च सया, संसारिगरायगिहगमणं ॥ जह वक्क तह भासा, जाए छक्क तु होति नायव्वं । उप्पत्तीए तह पज्जवंतरे जायगणे य" ||
. ईरिएसमाए निज्जुती सम्मत्ता ३३७. ___ सब्वे वि य"वयविसोहिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो । वयविभत्ती पढमे, उप्पत्ती वज्जणा बीए ।।
भासज्जायस्स निज्जुत्ती सम्मता ३३८. पढमे गहणं बीए, धरणं१३ पगयं तु दबवत्येणं । एमेव होइ पायं, भावे पायं तु गुणधारी ।।
वत्थ-पाएसणाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ३३९. दवे खेत्ते काले, भावे वि य' उग्गही चउद्धा ।
देविद-राय-उग्गह-गिहवइ१५-सामारि साहम्मी५ ॥ ३४०. दब्बुग्गहो उ तिविहो, सच्चित्ताऽचित्तमीसगा'८ चेव ।
खेत्तुग्गही वि तिविहो, दुविहो कालुग्गहो होति ।। ३४१. मइउग्गहे य गहणुगहे य भावुग्गहो दुहा होति ।
इंदिय-नोइंदिय अत्यवंजणे उग्गहे दसहा ॥ १. सम्वे य इरिय० (म,क) सब्वेविरिय० (चू)। ११. उ (अ) ! २. समासतो (अ), समासओ (म,क)। १२. उप्पत्ति य (अ)। ३. प उवागम (म,क,अ) 1
१३. वरणं (अ)। ४. बीतीए (अ)।
१४. वा गयं (अ)। ५. आमदच्छल (अ)।
१५. गह (म,अ)। ६. अदावण. (अ)।
१६. सागार (अ)। ७. डिके (ब)।
१७. ३३९-४२ तक की गाथाओं का भावार्थ ६. रायगिहवाइसु (म)।
चूणि में है किन्तु ये गाथा रूप में निर्दिष्ट ९. प (म,क,टी)।
नहीं हैं। १०. वि (म,क), ३३६,३३७ ये दोनों गाथाएं १८. सचित्ताचित्तमीसओ (टी,क), सचित्ता (अ)।
पूणि में निर्दिष्ट नहीं है।
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आचारांग नियुक्ति
३४७.
३४२. गहणुग्गहम्मि' अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो। कह पाडिहारिगमपाडिहारिए होइ जइयव्वं ॥
उग्गहपडिमाए निजुत्ती सम्मत्ता ३४३. सक्कगाणि एक्कसरगाणि पुन्वभणियं तहि ठाणं' ।
उद्धट्ठाणे पगयं, निसीहियाए तहिं छक्क ।। उच्चवइ सरीराओं, उच्चारो पसवइत्ति पासवणं ।
तं कह आयरमाणस्म होद सोही 'न अनियारो'८ ।। ३४५. मुणिणा छक्कायदयावरण, सुत्तणियम्मि ओगासे ।
उच्चारविउस्सगो, कायवो अप्पमत्तेण ।। ३४६. दवं संठाणादी, भावो वण्ण कसिणं सभावो य ।
दध्वं सद्दपरिणयं, भावो उ" गुणा य कित्ती य" ।। छक्क परएक्केवर, तदन-आदेस.कम-बहु-पहाणे" !
अन्ने छवकं तं पुण, तदन्नमादेसतो चेव ।। ३४८, जयमाणस्स परो जं, करेति तत्य जयणा य अहिगारो। निप्पडिकम्मस्स" उ अन्नमन्नकरणं अजुत्तं तु" ॥
सतिककाणं निजुत्तो सम्मत्ता ३४९. दव्वं गंधंग-तिलाइएसु, सीउण्ह-विसहणादीसु ।
भावम्मि होइ दुविहा, पसत्य तह अप्पसत्या य ।। पाणवहा -मुसावाए, अदत्त मेहुण-परिगहे चेव ।
कोहे माणे माया, लोभे य 'हवंति अपसत्था ॥ १. गहणे गृहम्मि (अ)।
११. मुद्रित टीका में यह गाथा दो बार प्रकाशित २. हारियाणाडि (टी) ।
है। ३२३,३२४ (आटी पृ २७५,२७६) में यह ३. इक्कस्सर (टी)।
पुनरुक्त हुई है। ४. ठाण के लिए देखें आनि गा. १८५। १२. पारए .(अ), परइक्किमकं (टी)। ५. ३४३,३४४ इन दो गाथाओं का चूर्णि में १३. कन्नमाएस (म,अ,टी)। संकेत नहीं है पर व्याख्या है।
१४. पमाणो (अ)। ६. पास (अ)।
१५. तप्पडि (अ)। ७. किह (अ)।
१६. ३४६-४८ तक की तीन गाथाओं का धूणि ८. मईयारो (अ), न अती (म,क)। ___ में निर्देश नहीं है किंतु संक्षिप्त व्याख्या है। ९. चूणि में 'उच्यते' उल्लेख के साथ इस गाथा १७. पाणि (टी) 1 ___का संकेत दिया है 1
१८. अदिन्न (अ)। १.. य (ब)।
१९. होति अप्पसत्था म (अ) ।
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२८२
नियुक्तिपंचक ३५१. दसण-नाण-चरित्ते. तव-धेरग्गे य होइ उ पसत्या ।
जा'य जहा ता य तहा, लक्खण वोर्छ सलक्खणतो ।। ३५२. तित्थगराण' भगवओ, पक्यण-पावणि अइसइड्ढीण ।
अभिगमण गमिय' दरिसण, कित्तण संपूयणा थुणणा ।। ३५३. जम्माभिसेग निक्खमण,-चरण-नाणुप्पया य निन्दाणे ।
दियोगमना-मंदर नंदीगर दोमनगरे । ___ अट्ठावयमुज्जिते, गयग्गपयए य धम्मचक्के य ।
पासरहावत्तनग", चमरुप्पायं च वदामि ।। गणियं निमित्त" जुत्ती, संदिट्टी अवितह इमं नाणं ।
इय एगंतमुवगया, गुणपच्चइया" इमे अस्था । ३५६. गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुर-नरिंदपूया य ।
पोराण।इयाणि१५ य, इति एसा सणे होति ॥दार।। ३५७. ततं जीवाजीवा, नायव्वा जाणणा इहं दिट्ठा ।
इह कज्ज-करण ८.कारगसिद्धी इह बंधमोक्खे य ।। ३५८. बद्धो य बंधहेऊ, बंधण बंधप्फलं सुकहियं तु ।
संसारपर्वचो वि य, इहयंरेर कहिओ जिणयरेहि ।। ३५९. माणं भविस्सई० एवमाइगा वायणाइयाओ" य ।
सज्झाए आउत्तो, गुरुकुलवासे य इति नाणो" ।।
१. जो (म)। २. तासि (अ)। ३. राणं (च)। ४. अइसयड्डीणं (अ)। ५. गमण-नमण (टी)। ६ तु पूयणा (म)। ७, प्पिया (म)। ८. णेब्बाणं (अ)। १. मंदिर (म,क) । १०.रहावतं विय (अ), बत्तं घिय (क)। ११. निमित्तं (अ) १२. संदिळे (अ)। १३. एगंतमणु (अ)। १४. ० पश्चचईया (म)।
१५. चेइमाण (क)। १६. इम (टी), इह (क,म)। १७. यह गाथा चूर्णि' में निर्दिष्ट नहीं है। १५. कारण (अ)। १९. ३५७-५९ तफ की गाथाओं की चूणि में
संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है । २०. बंधफलंक,म)। २१. ध (अ)। २२. इहह (क), इहइ (म)। २३. स्सति (अ)। २४. वाहणा० (म)। २५. भाउज्झो (अ)। २६. इस (टी)। २७. नाणी (म)।
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२८३
आचारांग नियुक्ति ३६०. 'साधु अहिंसाधम्मो,' सच्चमदत्तविरई 'य बंभ च ।
साहु परिगहविरई, साहु तवो बारसंगे य ।। ३६१. वेरगमप्पमाओ, एगग्गे भावणा य परिसंग ।
इति चरणमणुगयाओ, भणिया एत्तो तवो वोच्छं ।। ३६२. किह मे 'होज्ज अयंझो', दिवसो किंवा पभ्र तवं काउं।
को इह दवे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे ।। उच्छाहपालणाए, इई तवे संजमे य संघयणे। वेरग्गेऽणिच्चादी, होइ चरित्ते इहं पगयं ।।
भावणझयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता अणिच्चे पृथ्वए रुप्पे, भुयगस्स तहा" महासमुद्दे य१२ । एते खलु अहिगारा, अज्झयणम्मी विमुत्तीए ।। जो चेव होति मोक्खो, सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेण १५, देसविमुक्का साहू, सम्वविमुक्का भवे सिद्धा ।। आयारस्स भगवतो, चउत्थचूलाइ एस" निज्जुत्ती। पंचमचूलनिसीहं, तस्स य उरि भणीहामि ॥
_ विमुत्तीए निकुत्ती सम्मत्ता ३६७. सतहिँ छहिं चउचउहि, य पंचहि अट्ठ चहि नायच्या।
___ उद्देसेहि८ पढमे, सुयखंधे नव य अज्झयणा ।।
१. साहुहि - (टी)।
११. तया (क)। २. अबंभं (अ)।
१२. या (अ)। ३. एगत्ता (म,टी), एगंत (अ)।
१३. विमुत्ताए (अ)। ४. इय (टी,म)।
१४. विमुत्ती (म)। ५. मणुवगया (आटीपा)।
१५. भावविमुतीए (म,क)। ६, यह गाथा चूणि में व्याख्यात है पर गाथा , १६. एसा (म) । रूप में इसका संकेत नहीं है।
१७. भणीहामो (म), क प्रति में यह गाथा नहीं ७. विजऽवमो (टी)।
है तथा म और अप्रति में यह सबसे अन्तिम ८. ओच्छाह (चू)।
में है। इसके पहले ३६७,३६८ काक की ९. इति (एव) (टी)।
गायाएं हैं। १०. कर्मे (म)1
१८. उद्देसएहि (टी)।
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२८४
नियुक्तिपंचक एक्कारस ति ति दो दो, दो दो उद्देसएहि नायव्वा । सत्त य अट्ठ य नवमा, इक्कसरा होति अज्झयणा ॥
आयारस्स निज्जुसी सम्मत्ता
१. नंदी हारिमद्रीय दीका में इन दोनों गाथा
का संकेत देने वाली संग्रह गापा मिलती है। परन्तु उसके अध्ययन के उद्देशकों की संख्या में भिन्नता:
'सत्त य छच्चर चउरो छ
पंप अद्रुव सत्त पाउरो य । एक्कार ति ति य दो दो
दो दो सत्तेक एक्को य॥'
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पहला अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
१. सभी सिखों, तीर्थकरों तथा अनुयोगदायकों को बन्दना कर मैं आचारांग की नियुक्ति का प्रतिपादन करूंगा।
२. आचार, अंग, श्रुतस्कंघ, ब्रह्म, परण, शस्त्र, परिक्षा, संझा, दिशा-इन सब के निक्षेप
करने चाहिए।
३. घरण और विशा को छोड़कर सबके चार-चार निक्षेप होते है । चरण शब्द के छह तथा दिगा शब्द के सात निक्षेप होते हैं।
४. जिस शब्द के जितने निक्षेप ज्ञात हो उसके ये सभी निक्षेप करने चाहिए । जिसके सभी निक्षेप ज्ञात न हों, वहां चार निक्षेप--नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-अवश्य करने चाहिए।
५. आचार' तथा अंग का वर्णन किया जा चुका है। इनके चार-चार निक्षेप होते हैं । भावाचार के निक्षेप भिन्न हैं । उनका नानात्व मैं बताऊंगा ।
६. भावाचार के एकार्थक शब्द, उसका प्रवर्तन, उसकी प्रथमाङ्गता, गणिस्थान, परिमाण, समवतार तथा सार-इन सात द्वारों से उसका नानात्व है।
७. आचार, आचाल, मागाल, आकर, आश्वास, आदर्श, अंग, आचीर्ण, आजाति तथा आमोक्ष-ये भावाचार के एकार्थक है ।
८. सभी तीर्थकरों के तीर्य-प्रवर्तन के समय पहले माचार (आचारांग) का प्रवर्तन होता है। शेष ग्यारह अंगों का प्रणयन क्रमशः होता है।
९. बारह अंगों (द्वादशांगी) में 'आधार' प्रथम अंग है। इसमें मोक्ष का उपाय-चरण करण का निरूपण है और यह प्रवचन का सार है।
१०. 'आचार' को पढ़ लेने पर सारा श्रमण-धर्म परिशात हो जाता है। इसलिए . 'आचारघर' को पहला गणिस्थान कहा जाता है।
११. इस आचार (ग्रंथ) के ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययन है । इसके अठारह हजार पद है। (इससे हेयोपादेय जाना जाता है इसलिए) यह वेद है। इसकी पांच चूलिकाएं हैं। पद-परिमाण से यह बहु' बहुतर' है।
१२-१४. आचाराग्र अर्थात् चूलिकाओं के अयं का समवतार नौ ब्रह्मचर्य (आचारांग) के अध्ययनों में होता है । उनका पिरितार्थ शस्त्र-परिशा में समवतरित होता है। शस्त्र-परिज्ञा का अर्थ षड्जीवनिकाय में तथा षड्जीवनिकाय का अर्थ पांच व्रतों (महावतों) में समवतरित होता है 1 पांच महायतों का समवतार धर्मास्तिकाय आदि समस्त द्रव्यों में तथा समस्त पर्यायों के अनन्तवे भाग में होता है। १. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १५४-६२ । से बहु (पद-परिमाण वाला)। २. उत्तराध्ययन नियुक्ति', गाथा १४४-५८। ४. पांचवीं चूलिका-निशीथ के प्रक्षेप से बहुतर ३. चार चूलिकात्मक द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रक्षेप (पद-परिमाण वाला)।
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नियुक्तिपंचक
१५. पाचों महाव्रतों का सभी द्रव्यों में व्यवतरण होता है। जैसे --- पहले महाव्रत में षड्जीव निकाय का दूसरे तथा पांचवें महाव्रत में सभी द्रव्य तथा तीसरे और चौथे महाव्रत में द्रष्पों के एकदेश का समवतरण होता है ।
२८८
१६,१७. अंगों का सार क्या है ? वह है आचार | उसका सार क्या है ? वह है वनुयोगार्थं - व्याख्यानभूत अर्थ । उसका सार है - प्ररूपणा । प्ररूपणा का सार है-चारित्र उसका सार है - निर्वाण और निर्वाण का सार है-अन्याबाध (सुख) ऐसा जिन भगवान् कहते हैं ।
१८. ब्रह्म शब्द के नाम, स्थापना आदि चार निक्षेप होते हैं। स्थापना निक्षेप में ब्राह्मण की उत्पति कही जाती है। उसी प्रसंग में सात वर्णों तथा नो वर्णान्तरों की उत्पत्ति कथनीय है । १९. पहले मनुष्य जाति एक थी। ऋषभ के राजा बनने के पश्चात् मनुष्य जाति दो भागों में विभक्त हुई - क्षत्रिय और शूद्र । शिल्प और वाणिज्य का प्रवर्तन होने पर उसके तीन भाग हो गए - क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य (भगवान् के केवलज्ञान के पश्चात् ) श्रावक-धर्म का प्रवर्तन होने पर मनुष्य जाति चार भागों में बंट गई - क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य और ब्राह्मण अथवा श्रावक ।
२०. इन चारों के संयोग से सोलह वर्णों की उत्पत्ति हुई । उनमें सात वर्ण और नो वर्णान्तर है। वर्ण और वर्णान्तर ये दोनों विकल्प स्थापना ब्रह्म के जानने चाहिए ।
२१. मूल चार प्रकृतियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के अनन्तर योग से सात वर्ण ( ४+३) उत्पन्न होते हैं । अनन्तर योग से उत्पन्न होने वालों में चरम वर्ण का व्यपदेश होता है ।"
२२. नो वर्णान्तर ये हैं- अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, अयोगव, मागध, सूत, क्षत्त, वैदेह और चाण्डाल (इनकी उत्पत्ति इस प्रकार है-)
२३-२५. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से अम्बष्ठ, क्षत्रिय पुरुष और शुद्र स्त्री से उम्र, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से निषाद अथवा पारासर या परासर, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से अयोग, संभ्य पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से मागध, क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से सूत, शुद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से क्षत, वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से वैदेह तथा शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से चाण्डाल को उत्पत्ति होती है ।
२६,२७. वर्णान्तरों के संयोग से उत्पन्न जातियां उग्र पुरुष और क्षत स्त्री से उत्पन्न जाति एवपाक, वैदेह पुरुष और क्षत्त स्त्री से उत्पन्न जाति वैणव, निषाद पुरुष और अम्बष्ठ स्त्री अथवा शुद्र स्त्री से उत्पन्न जाति वुक्कल तथा शुद्र पुरुष और निषाद स्त्री से उत्पन्न जाति कुक्कुरक कहलाती है । अन्य प्रकार से जातियों के ये चार भेद भी जान लेने चाहिए ।
१. सात वर्ण - देखें, श्लोक २१ ।
२. नौ वर्णान्तर—देखें, श्लोक २२ ।
३. (१) द्विज पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न, (२) क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न तथा (३) वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री से
उत्पन्न — ये अनन्तर योग से तीन वर्ण उत्पन्न होते हैं।
४. जैसे--ब्राह्मण पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न क्षत्रिय होगा ।
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आचारांग नियुक्ति
२८९ २८. शारीर, भव्यशरीर तथा तद्व्यतिरिक्त अशानियों का वस्तिनिरोध द्रव्य ब्रह्मचर्य है, यह संयम ही है । साधुओं का बस्तिसंयम भाव ब्रह्मचर्य है । (इसके अठारह प्रकार हैं।')
२९. परण शब्द के छह निक्षेप होते हैं नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, क्षेत्र और काल । द्रव्य परण के तीन प्रकार है-पति, आहार और गुण। जिस क्षेत्र में गति, आहार आदि किया जाता है, वह क्षेत्रचरण है । जिस काल में गमि, आवार आदि का आचरण या व्याख्या की जाती है, वह कालचरण है।
३०. भावपरण तीन प्रकार का है-१. गति भावचरण-साधु का ईर्यासमितिपूर्वक चलना, २. भक्षण भादचरण-शुद्ध पिडेषणापूर्वक आहार करना ३. गुण भावचरण ! गुण भावचरण दो प्रकार का है-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । आचारांग के नौ अध्ययन प्रशस्त गुण भावचरण
३१-३४. आचार के नो अध्ययन तथा उनका विषय इस प्रकार है१. शस्त्रपरिजा--जीवसंयम का निरूपण । २. लोकविय-कर्मबंध तथा कर्ममुक्ति की प्रक्रिया का अवबोध । ३. शीतोष्णीय · सुख-दुःख की तितिक्षा का अवबोध । ४. सम्यक्त्व-सम्यक्त्व की दखता का अवबोध । ५. लोकसार-रत्नत्रयी से युक्त होने की प्रक्रिया। ६. घुत-निस्संगता का अवबोध । ७. महापरिज्ञा-मोह से उद्भूत परीषह और उपसर्गों को सहने की विधि । ८. विमोक्ष-निर्याण अर्थात् बन्तक्रिया की आराधना । ९. उपमानश्रुत-आठ अध्ययनों में प्रतिपादित अर्थों का महावीर द्वारा अनुपालन 1 ये नौ अध्ययन आचार कहलाते हैं तथा शेष (आचारचूला) अध्ययन आधारान कहलाते
३५. प्रथम अध्ययन-शस्वपरिक्षा के सात उद्देशक है-प्रथम उद्देशक में जीव के अस्तित्व का प्रतिपादन तथा शेष छह उद्देशकों में षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा, जीवनध से कर्मबंध का निरूपण तथा विरति का प्रतिपादन है।
३६. शस्त्र के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य शस्त्र है-खड्ग, अग्नि, विष, स्नेह, अम्लता, क्षार, लवण आदि । भावशास्त्र है- दुष्प्रयुक्त भाष-अन्तःकरण, वाणी और काया की अधिरति ।
३७. परिज्ञा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य परिज्ञा के मुख्य दो प्रकार है-ज्ञपरिशा और प्रत्याख्यान परिज्ञा। व्यतिरिक्त द्रव्य प्रत्याख्यान परिजा हैशरीर और उपकरण का परिज्ञान। भाषपरिज्ञा के भी दो प्रकार है-जपरिजा और प्रत्याख्यान परिक्षा। १. मादी, पृ०६:
औदारिकादपि तथा, दिव्यात् कामरतिसुखात्,
तब ब्रह्माष्टादविकल्पम् ॥ त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नबकम् ।
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निर्युतिमं चक
३८. संज्ञा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य संज्ञा है - सचित्त आदि । भाव संज्ञा के दो प्रकार हैं- अनुभवसंज्ञा तथा ज्ञानसंज्ञा मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान ज्ञान संज्ञाएं हैं ।' अनुभवसंज्ञा अपने किए हुए कर्मों के उदय से उल्पित होती है ।
२९०
३९. अनुभव संज्ञा के सोलह प्रकार हैं- १. आहारसंज्ञा २ भयसंज्ञा, ३ परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुखसंज्ञा, ६. दुःखसंज्ञा, ७ मोहसंशा, ८ विचिकित्सा संज्ञा' ९. क्रोधसंज्ञा, १०. मानसंज्ञा, ११. मायासंज्ञा, १२. लोभसंज्ञा १३ शोकसंज्ञा १४. लोकसंज्ञा, १५. धर्मसंज्ञा, १६. ओषसंज्ञा ।
४०. दिशा शब्द के सात निक्षेप ज्ञातव्य हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रशापक तथा
भाव ।
४९. द्रव्यदि तेरह प्रदेशात्मक होती है तथा तेरह आकाश-प्रवेशों में अवगाढ़ होती है । जो द्रव्य दश दिशाकों के उत्थान का कारण है, वह द्रव्यदिशा है।
४२. तिथंग् लोक के मध्य में अष्ट प्रदेशात्मक रुचक प्रदेश है।" वे ही दिशाबों और अनुदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं।
४३. ऐन्द्री (पूर्व). आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नेती, वारुणी (पश्चिम), वायव्या सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊडवं ), तमा ( अधः ) - ये दश दिशाएं है ।
४४. देशात्मका बार महादिशाएं दो-दो प्रदेशों की वृद्धिसहित होती हैं ।" चार विदिशाए एक प्रदेशात्मिका होती हैं और वृद्धिरहित होती हैं। ऊर्ध्व और अधः- मे दो दिशाएं चार आकाश प्रवेशात्मिका होती । ये भी वृद्धिरहित होती है ।
४५. सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित हैं तथा बाह्यपार्श्व में अपर्यवसित - अन्तरक्षित हैं । (बाह्य भाग में अलोकाकाश के आश्रय से अपर्यवसित हैं। सब दिशाएं उत्कृष्टतः अनन्त प्रदेशात्मिका हूँ। सभी दिशाओं की आरमिक संज्ञा कडजुम्म* ( कृतयुग्म ) है ।
४६. चार महादिशाएं शकटोद्धि के संस्थान बाली होती है। चार विदिशाएं मुक्तावलि के आकार वाली तथा ऊंची और नीची- ये दो दिशाएं हचक के समान आकार वाली होती हैं ।
१. मननं मतिः अवबोधः सा च मतिज्ञानादि
पंचधा । तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी, शेषास्तु aratva fear | (आटी पु ८) २. चित्तविप्लुति ।
३. लौकिक आचार-व्यवहार ।
४. अव्यक्त उपयोग ---वल्लरी का वृक्ष पर चढ़ना ।
५. तिर्यक्लोक के मध्य में रत्नप्रभापृथिवी के ऊपर बहुमध्यदेश भाग में मेद पर्वत के अन्तर दो सर्व क्षुल्लक प्रतर हैं। उनके ऊपर तथा नीचे चार-चार प्रदेश है। यह आठ आकाश
-
प्रदेशात्मक चतुष्कोण रुचक प्रदेश हैं ।
६. मेरु के मध्य अष्ट प्रदेशी रुचक हैं। वहां चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के प्रारंभ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार छह-छह आठ माठ - इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी वृद्धि होती जाती है।
७. आटी ९: सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुक केनापह्रयमाणाश्चतुष्का शेषर भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशात्मिकाश्च दिश आगमसंज्ञया कड जुम्मति शब्देनाभिधीयन्ते ।
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आचारोग नियुक्ति
४७,४८. जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिये पूर्व दिशा है और जिस ओर सूर्य अस्त होता है वह अपर विशा-पपिचम दिशा है । उसके दक्षिण पावं में दक्षिण दिशा और उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा है। ये चारों दिशाएं सूर्य के आधार पर 'तापदिक' कहलाती हैं ।
४९. जो मंदर पर्वत के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में मनुष्य हैं, उन सबके उत्तर में
मेरु है।
५०. सबके उत्तर में मेरु तथा दक्षिण में लवण है । सूर्य पूर्व में उदित होता है और पश्चिम में अस्त होता है
५१-५८, कोई प्रज्ञापक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त (ज्योतिष पर है, जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्व विशा है । उसकी पीठ के पीछे वाली दिशा पश्चिम है । उसके दक्षिण पावं में दक्षिण दिशा और बाई ओर उत्तर दिशा है । इन चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएं हैं। इन आठ दिशाओं के अन्तर में आठ अन्य दिशाएं हैं। इन सोलह तिर्यग दिशाओं का पिण्ड शरीर की ऊंचाई के परिमाण वाला है । पादतल के नीचे अधोदिशा तथा मस्तक के ऊपर ऊर्वदिशा है। ये अठारह प्रज्ञापक दिशाएं हैं। इन प्रकल्पित अठारह दिशाओं के नाम यथाक्रम से मैं कहूंगा-पूर्व, पूर्व दक्षिण, दक्षिण, दक्षिण पश्चिम, पश्चिम, पश्चिम उत्तर, उसर, पूर्व उत्तर, सामुत्थानी, कपिला, खेलिज्जा, अभिधर्मा, पर्याधर्मा, सावित्री, प्रज्ञापनी, नीचे नैरयिकों की अघोदिशा तया देवताओं की कर्वदिशा-ये सारे प्रज्ञापक दिशाओं के नाम हैं।
५९. सोलह तिर्यग् दिशाएं शकटोदि संस्थान बाली हैं। ऊंची और नोची-ये दो दिशाएं सीधे और औंधे मुंह रखे हए शराबों के आकार वाली हैं (शिरोमूल और पादमूल में संकरी तथा आगे विशाल)1
६०. भावदिशाएं अठारह हैचार प्रकार के मनुष्य-सम्मूर्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज तथा अन्तरद्वीपज । चार प्रकार के तिर्यच-दीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा तिर्यध्य पञ्चेन्द्रिय । चार प्रकार के काय-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा वायुकाय । चार प्रकार के अग्रबीज-अग्रबीज, मूलबोज, स्कन्धबीज तथा पर्वबीज । एक नारकों की दिशा तथा एक देवताओं की दिशा।
६१,६२. प्रज्ञापक दिशाएं अठारह है तथा भाव दिशाएं भी अठारह हैं। एक-एक प्रज्ञापक दिशा को अठारह भावदिशाओं से गुणन करने पर (१८४१८) तीन सौ चौबीस दिशाएं होती है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रज्ञापक दिशाओं का अधिकार है। जीव और पुद्गलों की इन दिशाओं में गति और आर्गात होती है।
६३. कुछेक जीवों में ज्ञानसंज्ञा होती है और कुछेक में नहीं होती । वे नहीं जानते-मैं पूर्व जन्म में क्या था तथा मैं किस दिशा (जन्म) से आया हूं ? १. देखें-गापा ५१ से ५८ ॥
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नियुक्तिपंचक ६४. प्राणी तीन हेतुओं से जीव तथा जीवनिकायों को जानता है-१. अपनी मति से, अपनी स्मृति से । २. तीर्थंकरों द्वारा प्राप्त वचन सुनकर । ३. अन्य (आप्त के अतिरिक्त) अतिशयशानियों के पास सुनकर ।
६५. प्रस्तुत प्रसंग में 'सह सम्मुइए' पद से मान का ग्रहण किया गया है । जानने वाले चार ज्ञान है अवधिशान, मम:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान तया जातिस्मरणज्ञान ।
६६. परवचन व्याकरण का तात्पर्य है-जिनेश्वर द्वारा म्याक्त-भाषित । जिनेश्वर से 'पर-उस्कृष्ट'-कोई और नहीं होता। "दूसरों के पास सुनकर' का तात्पर्य है-जिनेश्वर के अतिरिक्त सारे पर हैं-दूसर है, उनसे सुनकर।।
६७. मैने (कर्म बंधन की) क्रियाएं की है, करूंगा-इस प्रकार कर्मबंध की चिन्ता बार-बार होती है। कोई इसे सन्मति अथवा स्वमति' से जान लेता है और कोई हेतु--युक्ति से जानता है।
६८. पृथ्वी के विषय में निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, पास्त्र, वेदना, वध तथा निवृत्ति-इनका कथन करना चाहिए ।
६९. पृथ्वी के चार निक्षेप है -नाम' पृथ्वी, स्थापना पृथ्वी, द्रव्य पृथ्वी और भाव पृथ्वी 1
७०. द्रव्य पृथ्वीजीव वह है जो भविष्य में पुथिवी का जीव होने वाला है, जिसके पृथ्वी का आयुष्य बंध गया है और जो पृथ्वी नाम-गोत्र के अभिमुख है। भावपृथ्वी जीव वह है, जो पृथ्वी नाम आदि कर्म का बेदन कर रहा है।
७१,७२, पृथ्वी जीव दो प्रकार के है-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म पृथ्वीजीव समूचे लोक में तथा बादर पृथ्वी जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर पृथ्वी जीवों के दो प्रकार हैं-लक्ष्ण बादर पृथ्वी और घर बादर पृथ्वी । एलक्ष्ण बादर पृथ्वी पांच वणं वाली होती हैकृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल । बर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं
७३-७६. (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) बालुका (४) उपल (५) शिला (६) लवण (७) अप (८) लोह (९) ताम्र (१०) पुष (११) शीशा (१२) चांदी (१३) स्वर्ण (१४) वध (१५) हरिताल (१६) हिंगुलक (१७) मनःशिला (१८) शस्यक (१९) अंजन (२०) प्रवाल (२१) अम्रपटल (२२) अभ्रवालुक (२३) गोमेदक (२४) रुचक (२५) अंक (२६) स्फटिक (२७) लोहिताक्ष (२८) मरकत (२९) मसारगल्ल (३०) भुजमोचक (३१) इंद्रनील (३२) चंदन (३३) चन्द्रप्रभ (३४) वैडूर्य (३५) जलकांत (३६) सूर्यकान्त । ये स्वर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं।'
७७. वर्ण, रस, गंध तथा स्पर्श के भेद से पृथ्वी के अनेक भेद होते हैं। प्रत्येक के योनिप्रमुख संख्येय है अर्थात् इनके एक-एक वर्ण आदि के भेद से अनेक सहस्र भेद होते है। (इसी के आधार पर पृथ्वी सप्तलक्षप्रमाण वाली होती है।)
म. अर्ण आदि के प्रत्येक भेद में नानात्व होता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श के भेदों में भी नानास्व होता है। १. अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान अथवा के तथा दो श्लोकों (७५,७६) में मणियों के जातिस्मृतिशान ।
भेदों का उल्लेख है। २. वो श्लोकों (७३,७४) में सामान्य पृथ्वी
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आचारोग निर्मुक्ति
२९३ ७९. बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के जितने भेद है, उतने ही भेद अपर्याप्तक जीवों के हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी दो प्रकार के होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
२०. जैसे वनस्पति में वृक्ष, गुमच, गुल्म, लता, वल्ली, वलम आदि भेद पाए जाते हैं, वैसे ही पृथ्वी आदि में भी नानात्व है।
५१. जैसे वनस्पतिकाय में औषधि, तृण, शैवाल, पनक, कन्द, मूल आदि नानात्व दीखता है, वैसे ही पृथ्वीकाय में भी नानात्व है ।
८२. पृथ्वीकाय के एक, दो, तीन अथवा संख्येय जीव दग्गोचर नहीं होते । पृथ्वी का असंख्य जीवात्मक पिंड ही दृश्य होता है ।
८३. इन असंख्येय शरीरों के कारण ही वे प्रत्यक्षरूप से प्ररूपित होते हैं। जो आंखों से दिखाई नहीं देते वे आशाबाह्य-श्रद्धा से मान्य होते हैं ।
८४. पृथ्वीकायिक आदि जीवों के उपयोग, योग, अध्यबसाय, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अचक्षुदर्शन होता है। वे आठ कर्मों के उदय और बंधन से युक्त, लेश्या, संज्ञा, सूक्ष्म श्वास और निःश्वास से अनुगत तथा कषाययुक्त होते हैं।
५. जैसे शरीरानुगत हड्डी सचेतन तथा खर कठिन होती है, वैसे ही जीवानुगत पृथ्वीशरीर भी सचेतन तथा कठिन होता है ।
८६. पृथ्वीकायिक जीव चार प्रकार के हैं(० बादरपृथ्वीकायिक के दो भेद-अपर्याप्त, पर्याप्त ।
सक्षमपध्वीकायिक के दो भेद अपर्याप्त, पर्याप्त) इनमें बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव लोक प्रतर के असंख्येय भाग मात्रधर्ती प्रदेशराशि ण वाले है। शेष तीन प्रकारों में प्रत्येक प्रकार असंख्येय लोक के आकाशप्रदेशराशि प्रमाण वाले
८७. जैसे कोई व्यक्ति प्रस्थ, कुडव, आदि साधनों से सारे धान्यों का परिमाण करता है वैसे ही लोक को कुडव बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण करे तो वे जीव असंख्येय लोकों को भर सकते हैं।
८८. लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर यदि एक-एक पृथ्वीकायिक जीव को रखा जाए तो वे सारे जीव असंख्येय सोकों में समायेंगे ।
८९. काल निपुण - सूक्ष्म होता है। क्षेत्र उससे भी निपुणतर- सूक्ष्मतर होता है क्योंकि अंगुलि-श्रेणिमात्र क्षेत्र प्रदेशों के अपहार में असंख्येय उत्सपिणियां तथा अवसर्पिणियां बीत जाती हैं।' (इसखिए काल से क्षेत्र सूक्ष्मतर होता है)।
९०. पृथ्वीकाय में जीव प्रतिसमय प्रवेश करते हैं और प्रतिसमय उससे निर्गमन करते हैं। (प्रस्तुत श्लोक में चार प्रश्न है)।
अंगुल प्रमाण आकाश में जितने आकाश प्रदेश उस क्षेत्र को खाली होने में असंख्यात हैं, उनमें से यदि एक-एक समय में एक-एक उत्सपिणी, अवसपिणी काल बीत जाएगा । आकाश प्रदेश का अपहरण किया जाये तो अत: काल से क्षेत्र सूक्ष्मतर है।
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नियुक्तिपंचक
२९४
(१) एक समय में पृथ्बीकाय से कितने जीवों का निष्कमण होता है ? (२) एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का प्रवेश होता है ? (३) विवक्षित समय में पृथ्वीकाम में परिणत जीव कितने होते है? (४) उनकी कायस्थिति कितनी है ? प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है
(१-२) एक समय में असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण जीवों का निष्क्रमण और प्रवेश होता है।
(३) पृथ्वीकाय में परिणत जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण हैं।
(४) पृथ्वीकामिक जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण काल तक उसी योनि में उत्पन्न हो सकता है-यह उनकी कायस्थिति है।
इस प्रकार क्षेत्र और काल की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण प्रतिपादित है।
९१. जिस आकाशप्रदेश में एक बादर पच्चीकायिक पर्याप्तक जीव अवगाहन करता है उसी आकाश प्रदेश में दुसरा बादर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर अवगाहन कर लेता है। यह परस्पर अवगाहन है। शेष अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव की निश्रा में उत्पन्न होते हुए उसी आकाशप्रदेश का अवगाहन कर लेते हैं। सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीव सारे लोक का अवगाहन करते हैं।
९२,९३. पृथ्वीकांय के आधार पर होन वाला मनुष्यों की उपभोग-विधि इस प्रकार हैचंक्रमण करना, खड़े होना, बैठना, सोना, कृतकरण, शौच जाना, मूत्र-विसर्जन करना, उपकरणों को रखना, आलेपन करना, प्रहरण करना, सजाना, क्रय-विक्रय करना, कृषि करना, पान आदि बनाना 1
९४. मनुष्य इन कारणों से पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरों को दुःख देते हैं।
९५. (शस्त्र के दो प्रकार है-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । द्रव्यशास्त्र के दो प्रभेद हैसमास द्रव्यशास्त्र और विभाग द्रव्यशस्त्र ।) हल, कुलिक, विष, कुद्दाल, आलित्रक, मृगशृंग, काष्ठअग्नि, उच्चार तथा प्रस्रवण - ये समास - संक्षेप में द्रव्य शस्त्र हैं।
९६ (विभाग द्रव्यशस्त्र) कुछ स्वकायशस्त्र होता है, कुछ परकामशस्त्र होता है और कुछ उभय-दोनों होता है । यह सारा द्रव्यशस्त्र है । भावशस्त्र है--असंयम ।
९७. पर, जंघा, उरू आदि शरीर के अंग-प्रत्यंगों के छेदन-भेदन से मनुष्यों को दुःख होता है, पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय के छेदन-भेदन से उसके जीवों को पीड़ा होती है।
९२. यद्यपि पृथ्वीकायिक जीवों के अंगोपांग नहीं होते, फिर भी अंगोपांग के छेवन-भेदन तुल्य वेदना उनके होती है । (पृथ्वीकाय का समारंभ करने वाले पुरुष) पृथ्बीकाय के कुछेक जीवों के वेदना की उदीरणा करते हैं और कुछेक के प्राणों का अतिपात करते हैं।
९९. कुछेक अपने आपको अनगार कहते हैं। किन्तु जिन गुणों में अनगार प्रवृत्ति करते हैं, उन गुणों में वे प्रवसित नहीं होते। जो पृथ्वी के जीवों की हिंसा करते हैं, वे वाग्मात्र से भी अनगार नहीं होते।
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आचारांग नियुक्ति
१००. वे अनगारवादी- अपने आपको अनगार कहने वाले पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं । इसलिए वे निर्गुण हैं, गहस्थ तुल्य हैं। वे अपने आपको निर्दोष मानते हैं इसलिए मलिन- कलुषित हृदय वाले हैं। वे विरति - संयम से घृणा करते हैं, इसलिए मलिनतर हैं।
६. कुछ 41 पृ-बीनाग का बका है, तुच्छ दूसरों से उसका वध करवाते हैं और कुछ वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं।
१०२. जो एथ्वीकाय का समारंभ-व्यापादन करता है यह अन्य जीवनिकाय का भी ज्यापादन करता है। जो अकारण या सकारण पृथ्वी के जीवों का व्यापादन करता है वह दृश्य या अदृश्य जीवों का भी ब्यापावन करता है।
१०३. पृथ्वी की हिंसा करने वाला व्यक्ति उस पृथ्वी के आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर, पर्याप्त मा अपर्याप्त अनेक जीवों का हनन करता है।
१०४,१०५. यह जानकर जो मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के मापादन से मन, वचन और काया से, कृत-कारित तथा अनुमति से यावज्जीवन के लिए उपरत होते हैं, वे तीन गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से युक्त, संयत, यतना करने वाले तथा सुविहित होते हैं। वे वास्तविक अनगार होते है।
१०६. जितने द्वार (प्रतिपादन के विषय) पृथ्वीकायिक के लिए कहे गये हैं, उतने ही द्वार अष्कायिक जीवों के लिए है । भेद केवल इन पांच विषयों में है-विधान (प्ररूपणा), परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण ।
१०७,१०८. अप्काम के जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और दादर । सूक्ष्म समूचे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर अप्कायिक जीव पांच प्रकार के हैं१. मुखोदक, २. अवश्याय (ओस), ३. हिम, ४. महिका', ५. हरतनु' ।
१०९. बादर अप्कायिक पर्याप्तक जीवों का परिमाण है-संवर्तित लोक-प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि प्रमाण । शेष तीनों-बादर अप्कानिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अकायिक पर्याप्तक तथा सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक. पथक-पृथक रूप से असंख्येय लोकाकाश प्रदेश राशि परिमाण जिसने हैं।'
११०. जैसे तत्काल उत्पन्न (सप्ताह पर्यन्त) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही सारे अकायिक जीव भी सचेतन होते हैं। यही अप्कायिक जीवों की उपमा है। १. तासाब, समुद्र, नदी आदि का पानी।
असंख्येय मुना अधिक हैं। बादर पृथ्वीकाय २. गर्भमासादिषु सायं प्रातर्बा धूमिकापातो अपर्याप्तक जीवों से बाहर अप्कायिक महिका । (आटी पु २७)
अपर्याप्तक जीव असंख्येय गुना अधिक है। ३. वर्षा तथा शरद ऋतु में हरिताकुरों पर स्थित
सूक्ष्म पुथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म
अप्कायिक अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक है। जलबिन्दु ।
सूक्ष्म पृथ्वीकाम पर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म ४. विशेष यह है-बादर पृथ्वीकाय पर्याप्तक
अप्काय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक है। जीवों से बादर अप्काय पर्याप्तक जीव
आटी पृ २७ ।
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नियुक्तिपत्रक
१११, जीव निम्न कारणों से अप्काय का उपभोग करते हैं स्नान करने, पीने, धोने, भोजन बनाने, सिंचन करने, यानपात्र तथा नौका में गमन-आगमन करने आदि-आदि में।
११२. इन्हीं कारणों से प्राणी अप्कायिक जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरे जोन के दुःयानी उदारण हैं. पुःख र करते हैं।
११३. उत्सेवन-कूप आदि से पानी निकालना, पानी को (सघन और चिकने वस्त्र से) खानना, वस्त्र, उपकरण, मात्र-महक मादिधोना--ये सारे सामान्यरूप से बादर अप्काय के शस्त्र हैं। ११४, अकाय विषयक शस्त्र तीन प्रकार के -
१. स्वकायशस्त्र-नदी का पानी तालाब के पानी के लिए शस्त्र है। २. परकायशस्त्र-मृत्तिका, क्षार शादि।
३. उभयशस्त्र-उदफमिश्चित मिट्टी उदक के लिए शस्त्र है। भावशस्त्र है-मसंयम । ११५. अप्काय के शेष द्वार पृथ्वी की भांति ही जानने चाहिए । इस प्रकार अप्काय विषयक यह नियुक्ति प्रतिपादित है।
११६. जितने द्वार पृथ्वीकापिक के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार तेजस्कायिक जीवों के लिए हैं । भेद केवल पांच विषयों में है—विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण ।
११७,११८, तेजस्काय के जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बावर । सूक्ष्म सारे लोक में । बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर तेजस्काय के पांच प्रकार हैं-अंगार, अग्नि, अचि, ज्वाला तथा मुर्मुर।
११९. जैसे रात्रि में खद्योत ज्योति बिखेरता है, वह उसके शरीर का परिणाम-शक्ति विशेष है। इसी प्रकार अंगारे में भी प्रकाश आदि की जो शक्ति है, वह तेजस्कायिक जीव से आविर्भूत है। जैसे वरित व्यक्ति की उष्मा सजीव शरीर में ही होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीवों में प्रकाश या उष्मा उनके शरीर की शक्ति विशेष है।
१२०. बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव (क्षेत्र) पल्योपम के असंख्येय भाग मात्र प्रदेशराशि जितने परिमाण वाले हैं। तेजस्कायिक जीवों के मेष तीन प्रकार पृथक-पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश प्रदेश 'राशि परिमाण जितने होते है।
१२१.मनुष्यों के लिए बादर तेजस्काय के उपभोग-गुण ये है - जलाने के लिए, तपाने के लिए, प्रकाश करने के लिए, भोजन आदि पकाने के लिए तथा स्वेदन आदि के लिए।
१२२. इन कारणों से मनुष्य तेजस्काय के जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरे जीवों के दुःखों की उदीरणा करते हैं, दुःख उत्पन्न करते हैं ।
१२३. पृथ्टी, पानी, आत्र वनस्पति तथा स प्राणी-ये सामान्यतः बादर तेजस्काय के शास्त्र है।
१२४. इनके शस्त्र तीन प्रकार के है-कुछ स्वकाय शस्त्र, कुछ परकाय शस्त्र तथा कुछ उभय शस्त्र । ये सारे द्रव्य-शस्त्र हैं। भावशस्त्र है-असंयम ।
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आचारांग निमुक्ति
२९७ १२५. तेजस्काय के शेष द्वार पृथ्वीकामिक की भांति ही होते हैं । इस प्रकार यह तेजस्काय संबंधी नियुक्ति निरूपित है।
१२६, जितने द्वार पृथ्वीकायिक के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार बनस्पति के लिए हैं। भेद केवल पांच विषयों में है-विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण ।
१२७,१२८. बनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार के हैं--सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म सारे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर के केवल दो ही प्रकार हैं--प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति । प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पति के बारह प्रकार है तथा साधारणयसरी बार बनपति से कोई लेप ने दोनों के छह प्रकार हैं।
१२९. प्रत्येकशरीरी वनस्पति के बारह भेद ये है-दुक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि (गेहूं, ब्रीहि आदि), जलरुह तथा कुहण-भूमिस्फोट आदि ।
१३०. संक्षेप में बनस्पति के छह भेद हैं-- अग्रवीज, मूलबीज, स्कंधबीज, पर्वधीज, बीजगह, समूच्र्छन ।
१३१. जैसे अखंड (परिपूर्ण शरीर बाले) सरसों के दानों में किसी श्लेषद्रव्य (सर्जरस--- राल) को मिलाकर, फिर बंटकर वर्ती बना दी जाती है तो उस वर्ती के प्रत्येक प्रदेश में सरसों के दानों का अस्तित्व रहता है, वैसे ही प्रत्येकशरीरी वनस्पत्ति के पृथक्-पषक् अवगाहन वाले, एकरूप दीखने वाले शरीर-संघात होते हैं।'
१३२. जैसे तिलपपड़ी बहुत तिलों से निष्पादित होती है, फिर भी उसमें प्रत्येक तिल का स्वतंत्र अस्तित्व होता है), वैसे ही प्रत्येकशरीरी वनस्पति के पृथक्-पृथक् अवगाहन वाले एकरूप दीखने वाले शरीर-संघात होते हैं।
१३३. जो अनेक प्रकार के संस्थान वाले पसे दिखाई देते हैं के सभी एक जीवाधिष्ठित होते है । ताड़, चीड़, नारियल आदि वृक्षों के स्कंध भी एकजीवी होते हैं।
१३४. प्रत्येक शरीरी वनस्पति के पर्याप्तक जीष लोक-श्रेणी के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशों की राशि जितने परिमाण वाले हैं तथा अपर्याप्तक जीव असंखयेय लोकों के प्रदेश जितने परिमाण वाले होते हैं। साधारणशरीरी वनस्पति के जीव अनन्त लोकों के प्रदेश परिमाण जितने होते हैं।
१३५. प्रत्यक्ष दीखने वाले इन शरीरों के आधार पर वनस्पति के जीवों का प्ररूपण किया • गया है । शेष जो सूक्ष्म हैं, वे चक्षुग्राह्य नहीं होते। उन्हें आशाग्राह्य भगवद्वचन के आधार पर मान लेना चाहिए।
१. जैसे वर्तिका वैसे प्रत्येक वनस्पति के शरीर
संचात, जैसे सर्षप वैसे उन पारीरों के अधिछाता जीव और जैसे वह श्लेषद्रव्य से
___राग-द्वेष से प्रचित कर्मपुद्गलोदयमिथित
जीव ।
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२९८
नियुक्तिपंचक १३६. साधारण वनस्पतिकायिक अर्थात् अनन्तकायिक जीवों का साधारण लक्षण यह हैजिनमें आहार तथा प्राण-अपान का महण एक होता है, नेहा नाति ही है। (एक जीव के आहार करने पर सभी जीवों का आहार संपन्न हो जाता है। एक जीव के उच्छवास-नि:श्वास लेने पर सभी जीवों का उच्छ्वास-निःश्वास हो जाता है-यह इसका आशय है ।)
१३७, साधारणशरीरी वनस्पति का एक जीव उच्छ्वास-निःश्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण करता है, वही ग्रहण अनेक साधारणशरीरी वनस्पति के जीवों का होता है तथा जो अनेक जीवों का ग्रहण होता है, यही एक जीव का ग्रहण होता है।
१३८. योनिभूत-योनि अवस्था को प्राप्त बीज में प्राक्तन बीजजीव अथवा अन्य बीजजीव आकर उत्पन्न होता है। जो जीव मूल- जड़रूप में परिणत होता है वही प्रथम पत्ते के रूप में परिणत होता है।'
१३९. जिसके मूल, कन्द, त्वक्, पत्र, पुष्प, फल आदि को तोड़ने से पक्राकार समान टुकड़े होते हैं, जिसका पर्वस्थान चूर्ण-रजों से व्याप्त होता है अषया जिसका भेदन करने पर पृथ्वी सदृष्य समान भंग होते हैं, वह अनन्तकाय वनस्पति होती है।
१४०. जिसके पत्ते क्षीरमुक्त अथवा क्षीरशून्य तथा गूळ शिरामों वाले होते हैं, जिनकी गिराएं अलक्ष्यमाण होती हैं, जिनके पत्रा की संधि दृग्गोचर नहीं होती. वे अनन्तजीवी होते हैं। . १४१. शैवाल, कच्छभाणिक, अत्रक, पनक, किण्य, हठ (हड या हुक)-~-ये अनेक प्रकार के अनन्तजीवी जलरह हैं । इसी प्रकार दूसरे भी अनेक प्रकार हैं।
१४२, प्रत्येकशरीरी वनस्पति जो एक, दो, तीन, संख्येय अथवा असंख्येय जीवों से परिगृहीत होती है, उसके शरीर-संघात चक्षुग्राम होते है।
१४३. अनन्तत्रीय वाली बनस्पति के एक, दो, तीन, संख्येय अथवा असंख्येय शरीर दृग्गोचर नहीं होते। दादर निगोद के अनन्त जीवों के शरीरपिट ही दृश्य होते हैं । (मूक्ष्मनिगोद के अनन्तजीबों का संघात भी दृश्य नहीं होता ।) १. साधारण-समानं-एक, धारणम्-- वाला बीजजीव मूल आदि नाम-गोत्र कर्म
बंगीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः । का बंध कर पुनः उसी बीज में आकर जन्म (आटी १३९)
ले लेता है, परिणत हो जाता है। अथवा २. जो बीज योनि-अवस्था को प्राप्त है, उसमें पृथ्वीकायिक आदि का जीव उस मोनिभूत
उत्पन्न होने वाला जीव प्राक्तन बीजजीष भी बीज में आकर जन्म लेता है, मूल- जड़ हो सकता है अथवा दूसरा बीम भी हो आदि के रूप में परिणत होता है और वही सकता है। प्राक्तन इस अर्थ में कि जिस प्रथम पत्र के रूप में परिणत होता है। इस बीजजीव ने अपना आयुष्य पूर्ण कर बीज का प्रकार मूल और पत्ते का कर्ता एकही जीव परित्याग कर दिया, उस बीज को पानी, होता है। हवा आदि का संयोग मिलने पर, वही पहले
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आधारांग नियुक्ति
२९९ १४४. कोई व्यक्ति प्रस्थ' अथवा कुहब' से सभी घान्य-कणों को मापकर उनको अन्यत्र प्रक्षिप्त करे, वैसे ही यदि कोई साधारण वनस्पति के जीवों को प्रस्थ आदि से माप कर अन्यत्र प्रक्षिप्त करे तो अनन्त लोक भर जाएं।
१४५. जो पर्याप्तक बादर निगोद है, वे संवर्तित लोक प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि जितने परिमाण वाले हैं शेष तीन अपर्याप्तक बादर निगोष, अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद तथा पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद- ये प्रत्येक असंख्येय लोकाकाशप्रदेश परिमाण जिसने हैं। साधारण वनस्पति के जीव उनसे अनन्तगुना हैं।
१४६,१४७. वनस्पति के फल, पत्र, पुष्प, नल, कन्द आदि से निर्वतित भोजन, उपकरण-व्यजन, अर्गला आदि, शयन-मंचिका, पथक आदि, आसन-आसंदिका आदि, यान-पालकी आदि, युग्म–शकट आदि, आवरण-फलक आदि, प्रहरण लकड़ी आदि तथा अनेक प्रकार के शस्त्र, आतोच . पह, भेरी आदि, काष्ठकर्म - प्रतिमा, स्तंभ, तोरणद्वार आदि, गंधांग-प्रियंगू, देवदारु, ओशोर आदि, वस्त्र - वल्कलमय, कार्यासमय आदि, माल्ययोगविविध पुष्पों की मालाएं, छमापन-इंधन से जलाना, भस्मसात् करना, चितापन-सर्दी के अपनयन के लिए काठ आदि जलाकर अग्नि तपमा, तेल विधान-तिल, अतसी, सरसों आदि का सैल, उद्योत-वर्ती, तण, चडाकाष्ठ आदि से प्रकाश करना । वनस्पति के ये उपभोग-स्थान है। इन सभी में बनस्पति का उपयोग होता है।
१४. मनुष्य इन कारणों से वनस्पति के बहुत जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरे जीवों के दुःख की उदीरणा करते हैं ।
१४९. कैंची, कुठारी, हंसिया, दांती, कुदाल, बच्छि, परशु---सामान्यत: ये वनस्पति के शस्त्र है। इनके साथ हाथ, पैर, मुख तथा अग्नि-ये भी शस्त्र हैं ।
१५७. वनस्पति के कुछ स्वकाय शस्त्र होते हैं, कुछ परकाय शस्त्र तथा कुछ उभय शस्त्र होते हैं। ये सारे द्रव्यशास्त्र हैं । भावशस्त्र है-असंयम ।
१५१. बनस्पति के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार यह वनस्पतिकाय की निर्मुक्ति प्ररूपित है।
१५२. जितने द्वार पृथ्वीकाय के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार प्रसकाय के लिए हैं। भेद केवल पोच विषयों में है--विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण
१५३. सजीव दो प्रकार के हैं-सम्धिस तथा गतित्रस । लब्धित्रस दो है-तेजस्काय और बायुकाय । प्रस्तुत में उनका (तेजो वायु का) प्रसंग नहीं है।
१५४. गतिरस चार प्रकार के हैं-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । इन चारों के दो-दो प्रकार है-पर्याप्त तथा अपर्याप्त।
पल
का
एक प्राचीन २. कुडव-बारह मुद्री धान का एक परिमाण ।
१. प्रस्थ-बत्तीस
परिमाण ।
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नियंक्तिपञ्चक
१५५. योनियां तीन प्रकार की हैं- अंडज, पोतज तथा जरायुज – ये भी तीन-तीन प्रकार को योनियां हैं । स जीवों के चार प्रकार हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ।
३००
१५६,१५७. दर्शन, ज्ञान, चारित्र चारित्राचारित्र ( देशविरति ) दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य, इन्द्रियविषय लब्धि, उपयोग, योग, अध्यवसाय, पृथक्-पृथक् लब्धियों (क्षीरात्रय, मध्वाल आदि) का प्रादुर्भाव आठ कर्मों का उदय, लेश्या, संज्ञा, उच्छ्वास- निःश्वास कषाय - ये सारे द्वीन्द्रिय आदि स जीवों के लक्षण है ।
१५८. वीन्द्रिय जीवों के ये उपर्युक्त लक्षण ही हैं। क्षेत्र की दृष्टि से पर्याप्त असकाय का परिमाण संवर्तित लोकप्रतर असंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशि परिमाण जितना है। उनका निष्क्रमण और प्रवेश जधन्यतः एक, दो, तीन का होता है और उत्कृष्टसः प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश परिमाण जितना होता है ।
१५९.
काय में सतत निष्क्रमण और प्रवेश जवन्यतः एक समय में एक, दो, तीन जीवों का होता है । उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्येय भाग काल में सतत निष्क्रमण या प्रवेश होता है। एक जीव के सातत्य की अपेक्षा से एक जीव त्रसकाय में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः दो हजार सागरोपम तक रह सकता है ।
१६०. सकाय का मांस मादि मनुष्य प्रकार का है। उनके शारीरिक और मानसिक यह दो अतिसार आदि के रूप में अनेक प्रकार की होती है।
अनेक
में आता है। प्रकार की वेदना होती है तथा ज्वर,
१६९,१६२. कुछ लोग मांस के लिए सजीव का वध करते हैं। कुछ चमड़ी के लिए, कुछ रोम के लिए, कुछ पांच के लिए कुछ पूंछ और दांतों के लिए उनका वध करते हैं। कुछ लोग प्रयोजनवश उनका वध करते हैं और कुछ बिना प्रयोजन ही (केवल मनोरंजन के लिए) वध करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रसंग- दोष से, कुछ कृषि आदि अनेक प्रवृत्तियों में आसक्त होकर त्रसजीवों को बांधते हैं, ताड़ित करते हैं और उनको मार डालते हैं ।
१६३. काय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार सकाय की नियुक्ति प्ररूपित है।
१६४. जितने द्वार पृथ्वीकाम के कहे गए हैं, उतने ही द्वार वायुकाय के हैं । भेद केवल पांच विषयों में है-विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र और लक्षण ।
१. योनियों के विक शीत, उष्ण, शीतोष्ण ।
सचित्त, अचित्त, मिश्र संबृत, विवृत, संवृत- ३. विवृत । स्त्री, पुरुष, नपुंसक । कूर्मोन्नत शंखाब, वंशीपत्र इस प्रकार योनियों के अनेक त्रिक हो सकते हैं। (देखें - आटी पृ ४५ ) २. आदि शब्द से चर्म, केश, रोम, नख, दांत,
स्नायु आदि ।
प्रसंगदोष का अर्थ है कि कोई व्यक्ति मृग को मारने के लिए पत्थर शस्त्र आदि फेंकता है किन्तु मध्यवर्ती कपोत, कपिंजल आदि पक्षी मारे जाते हैं, यह प्रसंग दोष है।
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आचारांग नियुक्ति
१६५,१६६. वायुकाय जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म वायुकाय के जीव समस्त लोक में तथा बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में होते है। बादर वायुकाम के जीव पाच प्रकार के हैं-उत्कलिकावात, मंडलिकाबात, गुंजावात, घनबात, शुद्धवात ।
१६७. जैसे देवताओं का शरीर चक्षुम्नाय नहीं होता है, जैसे अंजन, विद्या तथा मंत्रशक्ति से मनुष्य अन्तर्धान हो जाता है वैसे ही वायु असदूप- चक्षुग्राह्यरूप वाली न होने पर भी उसका व्यपदेश किया जाता है।
१६८, बादर पर्याप्तक वायुकाय संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येय भागवतिप्रदेश राशि के परिमाण जितने हैं । शेष तीनों पृथक्-पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश परिमाण जितने हैं।
१६९. व्यजन, (पंखे आदि से हवा करना), धोंकनी से धमना, अभिधारणा, उत्सिंचन, फूत्कार, (कूफ देना) प्राण-अपान-मनुष्यों की इन प्रवृत्तियों में चादर वायुकाय का उपभोग होता
१७०. व्यजन, तालबंट, सूर्प, चामर, पत्र, बस्त्र का अंचल, अभिधारणा-पसीने से लथपथ हो पानुप्रवेश पारबहाना गंधरय, अग्नि-ये वायुकाय के द्रव्यशास्त्र हैं।
१७१. वामुकाय के कुछ स्वकाय शस्त्र हैं, कुछ परकाय शस्त्र हैं और कुछ उभयशस्त्र हैं। ये सारे द्रव्यशस्त्र हैं । भाषशस्त्र है-असंयम ।
१७२, वायुकाय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार वायुकाय की नियुक्ति प्ररूपित है। दूसरा अध्ययन : लोकविजय १७३. दूसरे अध्ययन के छह उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार है ..
१. स्वजन में आसक्ति करने का निषेध । २. संयम में अदृढत्व-शैथिल्य करने का निषेध । ३. सभी मदस्थानों में अहं का निषेध तथा अर्थसार की निस्सारता का प्रतिपादन । ४. भोगों में आसक्त न होने का प्रतिपादन । ५. लोकनिश्रा का आलंबन ।
६. लोक-संस्तृत तथा असंस्तृत व्यक्तियों में ममत्व का निषेध ।
१७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान-इनके निक्षेप करना चाहिए । संसार का मूल है कषाय, उसका भी निक्षेप करना चाहिए ।
१७५. लोक और विजय-ये अहययन के सक्षण से निष्पन्न है । गुण, मूल तथा स्थान-- ये सूत्रालापक निष्पन्न हैं।
१७६. लोक शम्द के आठ निक्षेप हैं (नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव तथा पर्यब)। विजय शब्द के छह निक्षेप है-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव)। प्रस्तुत में औदयिक भाव कषायलोक के विजय का अधिकार है, प्रसंग है।
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नियुक्तिपंचक १७७. लोक के विषय में कहा जा चुका है।' विजय शम्द के छह निक्षेपों में नामविजय तथा स्थापनाविजय के अतिरिक्त शेष चार निक्षेप इस प्रकार है
दष्यविजय-तव्य से विजय । क्षेत्रविजय-क्षेत्र पर विजय । भरत का छह खंडों पर विजय पाना । कामविजय-जितने समय मा काल में विजय प्राप्त की जाती है। जैसे-भरत ने साठ
हजार वषों में भारत पर विजय प्राप्त की। भाबविजय-औदयिक आदि भावों पर विजय ।
प्रस्तुत में भवलोक अर्थात् भावलोक पर भावविजय का प्रसंग है। यहीं प्राणिगण आठ प्रकार के कमों से बंधता है तथा मुक्त होता है।
१७८. प्राणी कषायलोक से पराजित है, इसलिए उससे निवतित होना श्रेयस्कर है । साथसाथ जो 'काम' से निवर्तित होता है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है ।
१७९. गुण के पन्द्रह निक्षेप है-नामगुण, स्थापनागुण, द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण, कालगुण, फलगुण, पर्यवगुण, गणनागुण, करणगुण, अभ्यासगुण, गुण अगुण, अगुण-गुण, भवगुण, शीलगुण तथा भावगुण ।
१०. स्वयं द्रव्य ही द्रव्य गुण है क्योंकि गुणों का (अस्तिस्त्र) गुणी में संभव होता है । द्रव्य के तीन प्रकार हैं-सचित्त, भपित्त तथा मिथ । इनके अपने-अपने गुण स्वयं में तादात्म्य भाव से अवस्थित हैं।
१५१. संकुचित होना, विकसित होना-ये जीव के आत्मभूत गुण हैं । वह अपने बहुप्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। १५२. क्षेत्र आदि गुणों का विवरण इस प्रकार है१. क्षेत्रगुण - देवफुरु, उत्तरकुरु आदि भूमियों का गुण (जसे - वहां के मनुष्य
___ अवस्थित योवन वाले, निरूपक्रम आयुष्य वाले, स्वभाव से ऋज, मृदु
होते हैं। २. कालगुण - भरत, ऐरवत आदि क्षेत्रों में एकांत सुषमा आदि तीनों कालों में सदा
यौवन आदि की अवस्थिति । ३. फलगुण · रत्नत्रयी की आराधना का अनाबाध सुख-सिविरूपी फल । ४. पर्यवगुण-पर्याय का गुण है -निभंजना निश्चित विभक्त होते जाना । ५. गणनागुण-एक, दो आदि से इयत्ता का अवधारण |
६. करणगुण-कला-कौशल ।। १. लोक शब्द की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति के के दो गुण है-अमूसंख्ख तथा अगुरुलभुपर्याय । चतुर्विशतिस्तव में की जा चुकी है।
ये सभी अरूपी द्रव्यों में मिलते हैं। रूपी २. जैसे - सचित्त द्रव्य अथवा जीवद्रव्य का द्रव्य का गुण है-मूर्तस्व । यह सभी रूपी
लक्षण है-उपयोग । उससे पृथक् अन्य में द्रव्यों में मिलेगा। इस प्रकार द्रव्य और गुण ज्ञान आदि गुण नहीं मिलते । अचित्त द्रव्य के का तादात्म्य है। दो भेद-रूपी और अरूपी। अरूपी द्रव्य
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आचारांग नियुक्ति
७. अम्बासगुण-सद्य:जात बालक का स्तनपान करना आदि । ८. गुण-अगुण - गुण का ही किसी में अगुणरूप से परिणत होना । जैसे-ऋजुता
गुण है, वह मायावी में अगुण होता है। ९. अगुण-गुण-अगुण किसी में गुणरूप में परिवर्तित हो जाता है, जैसे-गलि बेल । १०. भवगुण---मनुष्य, नारक आदि भव से संबंधित गुण-दोष । ११. शीलगुण-अपना स्वभावगत गुण ।
१२. भावगुण-औदयिक आदि भावो का गुण । जीव-अजोब का गुण ।'
१८३. मूल के छह निक्षेप है -(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव)। द्रव्यमूल तीन प्रकार का है ।' क्षेत्रमूल -जिस क्षेत्र में मूल-जड़ उत्पन्न होती है । कालमूल-जिस काल में मूल उत्पन्न होती है या जितने काल तक मूल बनी रहती है 1. १८४. भावमूल के तीन प्रकार ये हैं१. औदपिकभावमूल-नाम-गोत्र-कर्म के उदय से वनस्पतिकाय के मूलत्व का
__ अनुभव करने वाला मूल भीव ।। २. उपदेष्टभावमूल-मूलत्व के कारणभूस कर्मों का उपदेष्टा आचार्य ।
३. आदिभावमूल-मोक्ष और संसार का आदिभावमूल का उपदेष्टा । मोक्ष का आदिभावमूल है--विनय और संसार का आदिभाबमूल है कषाय आदि । १८५. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप है
१. नामस्थान । २. स्थापनास्थान। ३. द्रव्यस्थान-द्रव्यों का आश्रय । ४. क्षेत्रस्थान भरत, ऐरवत आदि क्षेत्र । अथवा ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक्लोफ आदि। ५. अद्धास्थान-कासस्थान, जैसे-जीवों की कास्थिति, भवस्थिति आदि । ६. ऊसर्वस्थान-कायोत्सर्ग आदि। ७. उपरतिस्थान-श्रावक तथा साधुओं का विरति-स्थान । 5. बसतिस्थान-ग्राम,गह आदि निवास स्थान | ९. संयमस्थान -पांच प्रकार के चारित्र के असंख्य संयमस्थान । १०. प्रग्रहस्थान-आदेय वाक्य वाले नायक का स्थान । इसके दो भेद हैं-लौकिक
और लोकोत्तर । लौकिक -राजा, युवराज, महत्तर, अमात्य और कुमार । लोकोत्तर है-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक,स्थविर
और गणावच्छेदक । १. भवगुण तथा शीलगुण का भावगुण में ग्रहण रूप में परिणत द्वन्य । उपदेशमूलकिया गया है। भवगुण -जीव का नरक चिकित्सक जिस रोग के उन्मूलन में जिस आदि भव । शीलगुण क्षोति आदि से युक्त जड़ी-बूटी का उपदेश देता है वह, जैसे - जीव ।
पिप्पलीमूल आदि । आदिमूल-वृक्ष की २. औदयिक दव्यमूल
उत्पत्ति में आय कारण ।
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चिक्तिपंचक
११. योधस्थान-युद्धस्थल में स्वीकृत आलीन, प्रत्यासीह आदि अवस्थान । १२. अचलस्थान -सादिसपर्यवसान, सादिअपर्यवसान आदि । १३. गणनास्थान-एक, दो आदि शीर्षप्रहेलिका पर्यंत गणना । १४. संघानस्थान-संधान करने के स्थान ।
१५. भावस्थान-भाव विषयक संधान स्थान |
१८६. शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंघ-ये पांच कामगुण हैं। इनके प्रति जिस प्राणी के कषाय प्रवर्तित होते हैं, यही संसार का मूलस्थान है।
१८५. जैसे सभी वृक्षों के मूस भूमि में प्रतिष्ठित होते हैं, वैसे ही कर्मवृक्षों के मूल कवाय में प्रतिष्ठित हैं।
१८८. कर्मवृक्ष आठ प्रकार के हैं। इन सबका मूल है-मोहनीय कर्म । कामगुणों का भी मूल है-मोहनीय कर्म और यही मोहनीय कर्म संसार का मूल है अर्थात् संसार का आद्य कारण है।
१८९. मोह के दो प्रकार हैं- दर्श नमोह और चारित्रमोह । कामगुण चारित्रमोह के प्रकार हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका अधिकार है अर्थात उनका प्रतिपादन है ।
१९०. संसार का मूल है-कर्म । कर्म का मूल है- फषाय । कषाय स्वजन, प्रेष्य, अर्थधन आदि में विषयरूप में स्थित तथा आत्मा में विषयीरूप में स्थित है।
१९१ कषाय शरद के आठ निक्षेप है-नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रश्यकषाप, उत्पत्तिकषाय-जिनके आश्चय से कषाय उत्पन्न होते हैं। प्रत्ययकषाय-कषाय-बंध के कारण | आदेशकषाय-कृविमरूप में भकुटि तानना आदि । रसकषाय-कलारस । भावकषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषाय ।
१९२. संसार के पांच प्रकार है- द्रक्ष्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार तया भावसंसार । जहाँ जीव संसरण करते हैं, वह संसार है।
१९२१. संसार के पांच प्रकार है-द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और मावसंसार | कर्म से संसार होता है अत: यहां सूत्र में उसी का अधिकार है।
१९३,१९४. कर्म के दस निक्षेप है-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समुदानकर्म, ईपिथिकको माधाकर्म, तपःकर्म, कृतिकर्म, भावकर्म । यह संक्षेप में दस प्रकार का कम है।' प्रस्तुत प्रसंग में अष्टविध कर्म का अधिकार है।
१९५. जो पुरुष संसार का उन्मूलन करना चाहता है, वह कर्मों का उन्मूलन करे । कर्मों के उन्मूलन के लिए वह कषायों का उन्मूलन करे । कषायों के अपनयन के लिए वह स्वजनों को छोड़े-स्वजनों के स्नेह का अपनयन करे ।
१९६. माता मेरी है । पिता मेरे हैं । भगिनी मेरी है । भाई मेरे हैं । पुत्र मेरे हैं । पली मेरी है। इन सब में ममत्व कर तथा अर्थ-धन में गृख होकर प्राणी जन्म-मरण को प्राप्त करते रहते हैं। १. विवरण के लिए देखें ---आटी पु६१.६२ ।
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आगरांग नियुक्ति
१९७. द्वितीय उद्देशक में संयम में अदृढ़ता का निरूपण है। कोई मुनि अरति के कारण संयम में शिथिल हो जाता है । यह, अरति अज्ञान, काम, लोभ आदि अध्यात्मदोषों से उत्पन्न होती
तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
१९८,१९९. तीसरे अध्ययन के पार उद्देशक हैं । उनके अधिकार इस प्रकार है. १. पहले उद्देशक में सुप्त गृहस्थों के दोषों सथा जागृत' गृहस्थों के गुणों का प्रतिपादन है।
२. दूसरे सद्देशक का प्रतिपाद्य यह है--दुःखों का अनुभव ये ही असंयत मनुष्य करते हैं, जो भावनिद्रा ग्रस्त हैं।
३. तीसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य है कि केवल दुःख सहने से ही नहीं, उसको न करने से श्रमण होता है।
४. पीथे उद्देशक में कषायों के वमन का उपदेश, पाप कर्मों से विरति. तत्त्वज्ञ के ही संयम की निष्पत्ति तथा भवोपनाही कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है - इनका प्रतिपादन है।
२००. शीत और उष्ण के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
२०१. द्रव्यशीत-शीतल द्रव्य, द्रव्यउष्ण-उष्णद्रव्य । पुद्गलाश्रित भावशीत-पुदगल का शीलगुण । पुद्गलायित भावउष्ण पुद्गल का उष्णगुण । जीव का पीतोष्णरूप गुण अनेक प्रकार का है । (जैसे-जीव का ओदायिक भाव उष्ण है, औपमिक भाव शीत है, क्षायिकभाव भी शीत है अथवा समस्त कमा का दहन करने के कारण यह उष्ण है।)
२०२. यहां शीत अर्थात् भावशीत का अर्थ है-जीव का परिणाम | प्रमाद-कार्यथिरुम. शीतलविहारता, उपशम-मोहनीय कर्म का उपशम, विरति---सतरह प्रकार का संयम, मुख-सातवेदनीय का उदय -ये सारे अपीडाकारक होने से भावधीत हैं।
सभी परीषह, तप में उद्यम, कषाय, शोक, देदोदय, अरति तथा दुःख-असातवेदनीय का उदय-ये सारे पीडाकारक होने के कारण भावउष्ण हैं।
२०३. स्त्री परीषह तथा सत्कार परीवह--ये दोनों मन के अनुकूल होने के कारण शीत परीवह हैं । शेष बीस परीषह (मन के प्रतिकूल होने के कारण) उष्ण होते हैं।
२०४. जो तीन परिणाम बाले परीवह होते हैं, वे उष्ण तथा जो मंद परिणाम वाले परीषह है, वे शीत कहलाते हैं।
२०५. जो धर्म में प्रमाद करता है तथा अर्थोपार्जन में शीतल' है-यह शीस है। इसके विपरीत जो संगम के प्रति उद्यमशील है, वह उष्ण है।
२०६. जिसके कषाय उपशांत हैं वह शीतीभूत, कषाय की ज्वाला बुझ जाने से परिनित, राग-द्वेष के उपशमन से उपशांत और कषाय के परिताप के उपशमन से प्रह्लादित होता है। यह सारा परिणाम' उपशांत कषाय वाले के होता है, इसलिए उपशांत कषाय शीत होता है।
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३०६
नियुक्तिपंपक २०७. संयम जीवों को अभय देने वाला तथा उनके लिए शीतधर--सुख का आवास है, इसलिए वह शीत है। असंयम उष्ण है। संयम तथा असंयम के आधार पर यन्त्र शीतोष्ण का अन्य पर्याय है।
२०८. यथार्थ में निर्वाण सुख ही सुन्न है । उसके एकार्थक मान्द हैं-सात, शीतीभूत, पद, अनाबाघ । संसार में जो कुछ सुख है, वह शीत है और जो कुछ दुःख है, वह उष्ण है।
२०९. तीन कषायी, शोक से अभिभूत तथा उदीर्णवेदी---जिसकी काम-भावना विपाक में आ चुकी है-ये सम तीय ताप से जलते हैं। ये सब दाहक होने के कारण उरण हैं। तप इन सव से उष्णतर है । वह कषाम आदि को भी जला डालता है ।
२१०. जो शीत और उष्ण स्पर्श को सहन करता है, जो सुख-दुःख को सहन करता है, जो परीषह, कषाय, वेर, जोग, नादि को महत है या माग होता है पड़ ा तप, संयम तथा उपशम में पराक्रमशील होता है।
२११. भिक्षु को शीत और उष्ण-सभी परीषह सहने चाहिए। उसे कभी काम का सेवन नहीं करना चाहिए । यह शीतोष्णीय अध्ययन की नियुक्ति है।
२१२. अमुनि----गृहस्थ सदा मुप्त होते हैं । मुनि सोते हुए भी सदा जागृत रहते हैं । सुप्त और जागृत का कथन धर्म की अपेक्षा से है । जो निद्रा से सुप्त हैं, उनमें जागृति की भजना होती
२१३. जैसे सुस्त, मत्त, मूच्छित, अस्वाधीन व्यक्ति अप्रतिकारात्मक बहुत सारे दुःखों को पाता है। वैसे ही जो व्यक्ति भावनिद्रा-प्रमाद, कषाय आदि में रहता है, वह भी तोवतर दुःखों को प्राप्त होता है।
२१४. जो विवेकी होता है, वह भाग लगने पर पलायन करता हुआ तथा पंच आदि के विवेक से युक्त होकर जैसे सुख का अनुभव करता है वैसे ही विवेकी श्रमण भी सुस्न का अनुभव करता है। यही उपदेश है। चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व
२१५,२१६. चौथे अध्ययन के चार उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार है—पहले उद्देशक में सम्य म्वाद, दूसरे में धर्मप्रवादुकों की परीक्षा, तीसरे में अनवद्य सप तथा बालतप से मुक्ति के निषेध का प्रतिपादन है। चौथे उद्देशक में संक्षेप में संयम का प्रतिपादन है। इसलिए मुमुक्ष को शान, दर्शन, चारित्र और तप की परिपालना में यत्न करना चाहिए।
२१७. सम्यक्त्व के चार प्रकार के निक्षेप है--नाम सम्पक्त्व, स्थापना सम्यक्त्व, द्रव्य सम्यक्त्व तथा भाष सम्यक्त्व ।
२१८. द्रव्य सम्यक् ऐच्छानुप्लोमिक--इच्छानुकूल होता है। जिन-जिन पदार्थों के प्रति भाव की अनुकूलता होती है, उसे इच्छानुलोमिक द्रव्यसम्यक् कहा जाता है। वह सात प्रकार का है--१. कृत २. संस्कृत-संस्कारित ३. संयुक्त ४, प्रयुक्त ५. त्यक्त ६. भिन्न और ७, छिन्त ।
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भाचारोग नियुक्ति
२१९. मावसम्यक तीन प्रकार का है-दर्शन, शान और चारित्र । दर्शन और पारित्र के तीन-तीन भेद हैं तथा ज्ञान के दो प्रकार हैं।'
२२०. जैसे (कार्यकुशल) अंधा व्यक्ति शत्रसेना को नहीं जीत सकता, वैसे ही मिथ्यास्वी भ्यक्ति क्रिया करता हुआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचुर दुःख को सहता हुआ भी कार्यसिद्धि नहीं कर सकता।
२२१. मिध्यादष्टि वाला मनुष्य निवृत्ति करता हुआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचर दुःखों को सहता हुआ भी सिसि को प्राप्त नहीं कर सकता।
२२२, इसलिए जो साधक कर्म-सेना को जीतना चाहता है, उसे सम्यग्दर्शन में प्रयत्नशील रहना चाहिए । सम्यग्दर्शनी साधक के हो तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं ।
२२३,२२४. प्रस्तुत दो लोकों में सम्यग्दर्शन तथा उसके पूर्व के गुणस्थानों का निर्जरा की दृष्टि से तारतम्य बताया गया है। सम्यग्दर्शन की विवक्षित उत्पत्ति तक असंख्येय गुण श्रेणिस्थान बताए गए है। (जैसे -- मिथ्यादृष्टि तथा देशोनकोटिकोटिकर्म स्थितिवाले ग्रन्थिकसत्त्व (मिय्याष्टि)-दोनों कर्म-निर्जरा की अपेक्षा से तुल्य होते हैं । जिनमें धर्मपृच्छा की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है, वे उनसे असंख्येय गुण अधिक निर्जरक होते हैं। उनसे भी असंकपेस गुण अधिक निर्जरक वे होते हैं जो धर्म की जिज्ञासा करने साधुओं के समीप जाते हैं। उनसे भी असंमयेय गुण निर्जरक होता है धर्म क्रिया को स्वीकार करने वाला | उससे भी असंख्येय गुण अधिक निर्जरक वे होते है जो पहले ही धर्मक्रिया में संलग्न है। यह सम्यक्त्व की उत्पत्ति की व्याख्या है।) उनसे विरताविरति को स्वीकार करने वाले श्रावक, उनसे सर्व विरत, उनसे अनन्तकाशी को क्षय करने के इच्छक, उनसे दर्शनमोल की प्रकृतियों को क्षीण करने वाले. उनसे उपशांत कषाय, उनसे उपणांत मोह उनसे चारिखमोह के क्षपक. उनसे क्षीणमोह, उनसे जिन-भवस्थकेवली, उनसे जैसेशी अवस्था प्राप्त जिन-ये सब उत्तरोत्तर असंख्येय गुना अधिक निर्जरक होते हैं। काल' की दृष्टि से यह प्रतिलोम रूप से संख्येय गुना श्रेणी की अवस्थिति से व्यवहार्य होता है । यह अयोगी केवली से प्रारब्ध होकर प्रतिलोम रूप में धर्मपुछा तक चलता है। जैसे-जितने काल में जितने कर्मों का क्षय अयोगी केवली करता है, उतने कम सयोगी केवली संख्येय गुना अधिक काल में क्षीण करता है।'
२२५. आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि-आमष औषधि आदि के निमित्त जो कान-चारित्र की क्रिया करता है तथा गौरवत्रिक से प्रतिबद्ध होफर जो क्रिया करता है, वह कृत्रिम क्रिया है। इसी प्रकार भारह प्रकार का तप भी आहार, उपधि आदि से प्रतिबद्ध होकर कृत्रिम हो जाता है। जो कृत्रिम अनुष्ठान में रत रहता है, वह श्रमण नहीं होता।
२२६,२२७. जो जिनवर - तीर्थकर अतीत में हो गए हैं, जो वर्तमान में है और वो अनागत काल में होंगे-उन सभी ने अहिंसा का उपदेश दिया है और देंगे। (अहिंसक व्यक्ति) छह जीवनिकायों की न स्वयं हिंसा करे, न दूसरों से हिंसा करवाए और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करे। यह सम्यक्त्व अध्ययन १. औपमिक दर्शन, क्षायोपशमिक दर्मन मनःपर्यय । क्षायिक ज्ञान- केवलज्ञान, देखें
मायिक दर्शन । औपशामिक पारित्र, क्षायो- परि० ६ कथा सं०४। पशमिक चारित्र, क्षायिक चारित्र । ३. विस्तार के लिए देखें-आटी पृ ११ । २. सायोपशमिक जान-मति, श्रुत, अवधि,
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नियुक्तिपंचक
२२८, प्रस्तुत ग्लोक में अल्लक की कथा कही गई है। रोहगुप्त मंत्री ने धर्मकथा न करते हुए भी गाथा के एक चरण से अप्रकट रूप में अन्यलिंगी तीथिकों की परीक्षा की । (राजा ने नगर में गाथा के एक चरण-'सकंजलं वा वयणं न व ति' को प्रचारित किया। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न तीथिक साधु राजा के समक्ष आए ।)
२२९. (परिव्राजक ने गाथापूर्ति करते हुए कहा)-'मैं आज जब भिक्षा के लिए गया तब एक घर में विकसित कमल की भांति मनोहर नेत्रों वाली एक स्त्री का मुख देखा। उसे देख, मेरा चित्त चंपल हो गया । मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कुंडलसहित है या नहीं ?
२३०. (तापस ने कहा)-फलों का पानी लेने के लिए मैं एक घर में गया। वहां एक महिला आसन पर बैठी थी। उसे देख मेरा मन विक्षिप्त हो गया। मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कुंडलसहित है या नहीं?
२३१. (बौद्ध भिक्षु बोला) मालाविहार [उपमन] में मैंने एक उपासिका को देखा, जो स्वर्णाभरणों से सजी हुई थी। उसे देख मेरा मम चंचल हो गया। मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कुंडलसहित है या नहीं ?
२३२. जैन श्रमण ने कहा-मैं शान्त है, दान्त है, जितेन्द्रिय है। मेरा मन अध्यात्मयोग में लीन है, सब फिर इस घिन्तन' से क्या प्रयोजन कि स्त्री का मुख कुंडलसहित है या नहीं ?'
२३३,२३४. मिट्टी के दो गोले हैं। एक आ गीला है और एक सूखा है। दोनों को भीत पर फेंका । जो गीला था वह भींत पर चिपक गया। जो सूखा था, यह भींत का स्पर्म कर नीचे गिर गया। इसी प्रकार दुर्बुद्धि मनुष्य काम-लालसा से पराभूत होकर संसार-पंक में डूब जाते हैं और जो विरक्त हैं, वे सूखे गोले की भांति कहीं चिपकते नहीं हैं।
२३५, जैसे अग्नि पोले और अत्यंत सूले काठ को शीघ्र जला देती है वैसे ही सम्यग चारित्र में स्थित साधु भी कमों को शीघ्र जला डालता है, क्षीण कर देता है। पांचयो अध्ययन : लोकसार
२३६-२३८. पांचवें अध्ययन के छह उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार हैं--- पहला उद्देशक-जो हिंसक, विषयारंभक और एकचर होता है, वह मुनि नहीं होता। दुसरा उद्देशक ---जो विरत है, वह मुनि होता है । अविरतवादी परिग्रही होता है। तीसरा उद्देशक--विरत मुनि ही अपरिग्रही तथा कामभोगों से निविण्ण होता है। चौथा उद्देशकः - अध्यक्त (भगीतार्थ) और एगचर मुनि के अपायों का दिग्दर्शन । पांचवां उद्देशक-लद की उपमा, तप-संयम-गुप्ति तथा निस्संगता का निरूपण | छठा उद्देशक-उन्मार्ग की अर्जना तथा राग-द्वेष के परित्याग का प्रतिपादन ।
२३९. प्रस्तुत अध्ययन का आदानपद के आधार पर 'अवंति' नाम है तथा इसका गौण नाम है लोकसार । लोक और सार पद के चार-चार निक्षेप हैं :-नाम, स्थापना, द्रष्य और भाव । १. देखें परि० ६ कथा सं०.५ ।
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आचारांग नियुक्ति
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२४०. द्रव्यसार का प्रतिपादन - समस्त संपत्तियों में धन सार है। स्थूल पदार्थों में एरंड, भारी पदार्थों में बध, मध्यम पदार्थों में खदिर, देशप्रधान' में जिन तथा शरीरों में औधारिक शरीर (मुक्तिगमन की योग्यता के कारण ) सार है (आदि शब्द से स्वामित्व, करण और अधिकरण की सारता, जैसे- स्वामित्व - गोरस में सारभूत है घृत, करणत्व में सारभूत है- मणिसार वाले मुकुट से शोभित राजा, अधिकरण में सारभूत है- दही में भी बल में सारभूत है पद्म आदि )
२४१. भावसार के प्रसंग में फल-साधनता अर्थात् फल की प्राप्ति सार है। फलावाप्ति का सार है- उत्तम मुख वाली वरिष्ठ सिद्धि उसके साधन हैं ज्ञान, दर्शन, संयम और तप । प्रस्तुत में उसी का अधिकार है।
२४२. लोक में अनेक कुसमय कुसिद्धान्त प्रचलित है। वे काम तथा परिग्रह से कुत्सित मार्ग वाले हैं। लोग उनमें लगे हुए हैं। संसार में सारभूत हैं- ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्रगुण । ये सिद्धि प्राप्ति के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं।'
२४३. शंका के निमित्त कारण को छोड़कर इस (ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रात्मक ) सारपद को दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिए। जीव है, परमपद - मोक्ष है, यतना - राग-द्वेष का उपशमन - संयम है। इनमें कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
२४४. लोक का सार क्या है? उस लार का सार कौनसा है? उस सारसार का सार क्या है ? मैंने पूछा है, यदि तुम जानते हो तो बताओ।
|
२४५. लोक का सार है-धर्म धर्म का सार है-ज्ञान शान का सार है-संयम । संयम का सार है निर्वाण ।
}
२४६. चार, चर्या और परण- ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। चार के नाम स्थापना आदि वह निक्षेप निक्षेप हैं । द्रव्यचार - दाद संक्रम ( लकड़ी का पुल), जलचार, स्थलचार आदि अनेक प्रकार का होता है।'
२४०. जिस क्षेत्र में चार होता है, उसे क्षेत्रचार कहा जाता है। जिस काल में चार होता है, उसे कालचार कहा जाता है। भावचार के दो प्रकार हैं- प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावचार है-ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र (शेष अप्रशस्त भावचार है।)
१. प्रधान भाव तीन प्रकार का है-सचित, अचित्त और मिश्र । सवित्त के तीन प्रकार हैं द्विपद, चतुष्पद तथा अपद द्विपद में जिन, चतुष्पद में सिंह तथा अपक्ष में कल्पवृक्ष अचित में वैडूर्य मणि तथा मिश्र में विभूषित तीर्थकर टीकाकार ने देश और प्रधान को भिन्न भिन्न मानकर अर्थ किया है। उनके अनुसार देश में सारे नाम तथा प्रधान में सार जिन है (आटी पू. १३१)
२. हिडाए - हिता - सिद्धिस्तदर्थत्वादिति । ३. जल में सेतु आदि का
1.
निर्माण स्थल में गों को लांघना आदि जलवार है- नौका से यात्रा करना । स्थलबार - रथ आदि से यमन करना आदि शब्द से प्रासाद आदि में सोपानपक्ति का निर्माण, जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान की प्राप्ति होती है। यह द्रष्पचार है ।
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ਖਿਆ २४८, लोक के चार प्रकार हैं-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । श्रमण के द्रव्य आदि चार प्रकार के चार कैसे होंगे? इसके निर्वचन में कहा गया है-प्रस्तुत में धुति का प्रसंग है । अरस-विरस द्रव्य में धूति रखना श्रमण का द्रव्यपार है। प्रतिकूल क्षेत्र में घृति रखना क्षेत्रचार है । दुष्काल आदि में यथालाभ-प्राप्ति से संतुष्ट रहना कालचार है। भावचार हैप्रतिकूलता में भी अनुद्विग्न रहना । विशेषतः क्षेत्र और काल की प्रतिकूलता में धुति रखना निर्दिष्ट है।
२४९. मुनि के लिए पाप से उपरत रहना तथा अपरिग्रही रहना द्रव्यचार है। गुरुकुलवास में रहना क्षेत्रचार है। सर्वदा गुरुवचनों से युक्त रहना कालचार है। उन्मार्ग का वर्जन करना तथा राग-तष से विरत रहना भावपार है। इस प्रकार श्रमण संघमानुष्ठान के साथ विचरण करे।
छठा अध्ययन : धुत
२५०,२५१. छठे अध्ययन के पांच उद्देशक हैं । उनके अधिकार इस प्रकार है१.पहले उहेमक का अर्थाधिकार-स्वजन का विश्वनन । २. दुसरे उद्देशक का अर्थाधिकार-कर्मों का विधनन । ३. तीसरे उद्देशक का अधिकार-उपकरण तथा शरीर का विधनन । ४. चौथे उद्देशक का अर्थाधिकार-तीन गौरवों का विधनन । ५. पांचवे उद्देशक का अर्थाधिकार-उपसगो तथा सम्मानों का विधूनन ।
द्रव्यधुत है- वस्त्रों को धुनना-रजों का अपनयन करना तथा भाषधृत है-आठ प्रकार के कर्मों को धुनना।
२५२. जो देवता संबंधी, मनुष्य संबंधी तथा तिर्यञ्च संबंधी उपसगों को अत्यधिक सहन कर कमों का धुनन करता है, वह भावधुत है ।
सातवा अध्ययन : महापरिज्ञा
२५३. प्रथम उद्देशक के तीन अधिकार हैं-१. गृहपतिसंयोग परिज्ञा २. कुशीलसेवा परिज्ञा ३. स्वपक्ष (साधर्मिक) संबंध के साथ विवेक।
२५४. द्वितीय उद्देशक में कुमार्ग का त्याग, देहविभूषा, मैथुन-सेवन, गर्भ का आदान, परिशाटन तथा पोषण आदि के बारे में चर्चा करने के परित्याग का निर्देश है।
२५५,२५६, तीसरे उद्देशक में अविनय, उद्दडता का परिहार, आसक्ति के कारण और निवारण की पुच्छा, शयम आदि में सहिष्णुता, प्रसरण तथा उत्सर्ग की विधि, क्रियाएं और वस्त्र धोने के विधान का वर्णन है । इसके अतिरिक्त पंखे आदि का प्रयोग, वैहानस (मरण का एक प्रकार), हस्तकर्म, स्त्रीसंसर्ग तथा देहपरिकर्म का वर्जन किया गया है। इस उद्देशक में साधना के विष्नभूत निमित्तों को छोड़ने का निर्देश भी है।
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आचारांग नियुक्ति
२५७,२५८. चौथे उद्देशक में वस्त्र धोने, पहनने और रंगने की तथा स्थान की अनुशा आदि लेने की विधि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त औद्देशिक पिंड (साधु के निमित्त बनाया गया आहार) तथा पाय्यातर पिड के परिभोग का वर्जन किया गया है और स्वपरिग्रह (उपधि आदि) का परिसीमन तथा सन्निधि -संचय करने का निषेध किया गया है।
२५६,२६०. पापोवाक में सू. के आधार पर जिनधर्म में पराक्रम का वर्णन है । स्थावर कायों के प्रति दया करने तथा स्वयं के प्रति होने वाले आक्रोश तथा पक्ष को सहन करने का निर्देश है। इसके साथ प्रसकाय का समारंभ और गृहस्थ के पात्र में आहार का निषेध किया गया है। अन्यतीथिक साधुओं के साथ होने वाले अननुशात व्यवहार का निर्देश है।
२६१. छठे उद्देशक में संयम के बिघ्नों का तथा तीसरे उद्देशक की विषयवस्तु का विस्तृत वर्णन है। इसमें साधु के लिए आचरणीय स्थानों का निर्देश तथा स्नान एवं परिभोग आदि का निषेध है।
२६२,२६३. सातवें सद्देशक में तीन पलय (?), शीत परिषह को सहने तथा कमरणों को प्रकपित करने का निर्देश है 1 प्रयोजन होने पर सूई मात्र भी परिग्रह न करने का वर्णन है। सातर्षे उद्देशक के अंत में आसंदी-वर्जन का तथा अतिथि मुनियों को निमंत्रित करने का, संलेखना, भक्तपरिना तथा अंतक्रिया-सिद्धि का वर्णन है।
२६४. महत् शब्द प्राधान्य और परिमाण के मयं में प्रयुक्त है। प्राधान्य और परिमाण का निक्षेप छह प्रकार का है।
२६५ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो प्रधान होते हैं, उसमें महत् शन्द प्राधान्य के अर्थ में निष्पन्न है।
२६६. द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव में जो महत् होते हैं, उनमें महत् शब्द प्रमाण (परिमाण) के अर्थ में निष्पन्न है ।
२६७. परिक्षा के छह निक्षेपों में द्रव्य परिज्ञा, क्षेत्र परिज्ञा, काल परिक्षा, भाव परिजा-- इन चारों के ज्ञान तथा प्रत्याख्यान रूप दो-दो भेद हैं।
२६८,२६९. भायपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-मूलगुण विषयक भाषपरिशा तथा उत्तरगुण विषयक भाषपरिशा । मूलगुण विषयक भावपरिज्ञा पांच प्रकार की है तथा उत्तरगुण विषयक भावपरिज्ञा दो प्रकार की है । प्रस्तुत में भावपरिज्ञा के दो प्रकारों में प्राधान्य का प्रसंग है । जो परिक्षाओं में प्रधान है, वह महापरिशा है ।
२७०. देवियों, मनुष्य-स्त्रियों तथा तिर्यम्व-स्त्रियों का त्रिविध परित्याग–यह महापरिक्षा अध्ययन की निर्मुक्ति है। आठवां अध्ययन : विमोक्ष
२७१-७५. आठवें अध्ययन के आठ उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार है१. पहले उद्देशक में असमनोश प्रापादुकों के परित्याग का कथन है। २. दूसरे उद्देशक में अकल्पिक–आधाकर्म आदि का परित्याग करने का निर्देश तथा
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निर्युक्तिपंचक
प्रतिषेध करने पर यदि दाता रुष्ट हो जाए तो उसे सिद्धान्तों के आधार पर सम्यक् रूप से समझाने का कथन है ।
३. तीसरे उद्देशक में मुनि की अंगचेष्टा शरीर के प्रकंपन आदि को देखकर गृहस्थ के कुछ कहने या आशंकित होने पर यथार्थ कथन का निरूपण है ।
शेष पांच उद्देशकों में उपकरण तथा शरीर-परित्याग का निरूपण है । वह इस प्रकार है४. चौथे उद्देशक में वैहानस तथा गृद्धपृष्ठ मरण का निरूपण है ।
४. पांचवें उद्देशक में ग्लानता तथा भक्तपरिज्ञा का प्रतिपादन है ।
६. ७४ उद्देशक में एकत्व भावना तथा इंगिनी मरण का निरूपण है ।
७. सातवें उद्देशक में भिक्षु प्रतिमाओं तथा प्रायोपगमन अनशन का प्रतिपादन है।
८. आठवें उद्देशक में अनुपूर्वीविहारी मुनियों के होने वाले भक्तपरिज्ञा, इंगिनीभरण तथा प्रायोपगमन अनशनों का निरूपण है ।
२७६. विमोक्ष शब्द के छह निक्षेप हैं- - नाम विमोक्ष, स्थापना विमोक्ष, द्रव्य विमोक्ष, क्षेत्र विमोक्ष, काल विमोक्ष तथा भाव विमोक्ष ।
२७७,२७८. द्रव्य विमोक्ष है- बेड़ी, सकिल आदि से छुटकारा क्षेत्र विमोक्ष है— जेल आदि से छूटना | काल विमोक्ष है— चैत्यमहिमा बादि उत्सव दिनों में हिंसा आदि न करने की घोषणा | भाव विमोक्ष के दो प्रकार हैं देशतः विमोक्ष- साधु सर्वतः विमोक्ष - सिद्ध । २७९. जीव का कर्मपुद्गलों के साथ संबंध होना बंध है। उससे वियुक्त होना मोक्ष है । २८०, जीव स्व-अर्जित कर्मों से बद्ध है। उन पूर्वबद्ध कर्मों का सर्वथा पृथक्करण होना ही
मोक्ष है ।
२८१. भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन- ये तीन प्रकार के अनशन हैं । जो चरम मरण अर्थात् इन तीनों में से किसी एक का आश्रय लेकर मरता है, वह भाव विमोक्ष है ।
२८२. पूर्वोक्त तीन प्रकार के मरणों के दो दो भेद हैं- सपराक्रम, अपराक्रम अथवा व्यावातिम, आनुपूर्विक ( अव्याघातिम) । सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिमरण को स्वीकार करना चाहिए। (तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को स्वीकार कर मृत्यु का वरण करना चाहिए ) २८३. सपराक्रम प्रायोपगमन मरण का आदेश - पारंपरिक उदाहरण है आयं वज्रस्वामी जिन्होंने सपराक्रम प्रायोपगमन अनशन स्वीकार किया था।
२८४. अपराक्रम प्रायोपगमन मरण का पारंपरिक उदाहरण है-आर्य समुद्र का। उन्होंने अपराक्रम प्रायोपगमन अनशन स्वीकार किया था।
२८५. व्याघातिम मरण यह सिंह आदि के व्याघात अथवा अन्य किसी व्यापात से होता है । इसका पारंपरिक उदाहरण है तोसलि बाचार्य का जो महिषी से हत होकर व्याघातिम मरण को प्राप्त हुए थे ।
१. आदेश – आचार्य की परंपरा से आगत अनुश्रुति / प्राचीन परंपरा ।
२. वे परि ६ कथा सं० ६ |
३. वही, कथा सं० ७ ॥
४. वही, कथा सं० ८
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आचारांग निर्मुक्ति
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२०६.
पूर्वी मरण का क्रम यह है जो साधक मुमुक्षाभाव से उत्प्रेरित है, उसे पहले दीक्षा दी जाती है। फिर उसे सूत्र की वाचना और पश्चात् अर्थ की वाचना से अनुप्राणित किया जाता है। गुरु से अनुशा प्राप्त कर जब वह तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को ग्रहण करता है, तब वह आहार, उपधि और कन्या इन तीन के नित्य परिभोग से मुक्त हो जाता है।"
-
२८७. अनशन की आज्ञा देने वाले मुनि को आचार्य पुनः संलेखना करने की प्रेरणा देते हैं पर वह कुपित हो जाता है। जैसे राजा की आज्ञा पहले तीक्ष्ण होती है बाद में शीतल बन जाती है। वैसे ही आचार्य की प्रेरणात्मक आशा पहले तीक्ष्ण लगती है, बाद में कुछ शीतल धन जाती है। (यदि इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं होता है तो) अन्य तंबोल पत्रों को सुरक्षित रखने के लिए जैसे कुपित तंबोल पत्र को बाहर निकाल दिया जाता है, वैसे ही उस मुनि को गण से बाहर कर दे। यदि यह आचार्य की आज्ञा मानता है तो उसकी पहले, कदर्थना करे, उसकी सहिष्णुता की परीक्षा करे और फिर उस पर प्रसाद अर्थात् अनशन की आशा देने की कृपा करे।" २०५ ९१. जैसे पक्षिणी अपने अंडों का प्रयत्नपूर्वक निष्पादन करती है वैसे ही गुरु शिष्यों को निष्पादित कर योग्य बनाकर बारह वर्षों की संलेखना स्वीकार करे। उस संसेखना का स्वरूप इस प्रकार है
१. प्रथम चार वर्षों तक विचित्र तप का अनुष्ठान अर्थात् उपवास, बेला - दो दिन का उपवास, तेला-तीन दिन का उपवास, बोला- चार दिन का उपवास पंचोलापांच दिन का उपवास करना होता है। इस काल में पारणक विनय सहित या विगय रहित किया जा सकता है।
२. द्वितीय चार वर्ष में तपस्या के पारणक विहित ही होते हैं ।
३. नौंवें तथा दसवें वर्ष में एक उपवास, फिर आप बिल - इस प्रकार दो वर्ष तक करने होते हैं ।
४. ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अतिविकृष्ट तप नहीं होता, उपवास या बेले के पारणक में नियमित बायबल करना होता है। दूसरे छह महीने में विकृष्टपण के पारणक में आयंबिल करना होता है।
५. बारहवें वर्ष में कोटी सहित आचाम्ल' करना होता है। (तुर्मास शेष रहने पर अनशनकारी रोल के बार-बार कुल्ले करता है)। इस प्रकार क्रमशः संखा करता हुआ साधक अंत में गिरिकन्दरा में जाकर अपनी इच्छानुसार प्रायोपगमन (अथवा इंगिनी या भक्तप्रत्याख्यान ) अनशन स्वीकार करता है।"
१. यदि आचार्य अनशन करना चाहें तो वे सबसे
*
पहले शिष्यों का निष्पादन कर दूसरे आचार्य की स्थापना कर, औत्सर्गिक रूप से बारह वर्षों की संलेखना से अपने शरीर को कुश कर, गच्छ की अनुशा से अथवा अपने द्वारा प्रस्थापित आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन करने के लिए अन्य आचार्य की सन्निधि में जाए। इसी प्रकार संलेखना लेने वाले उपाध्याय, प्रवत्तंक, स्थविर,
गणावच्छेदक अथवा सामान्य मुनि आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन स्वीकार करे । २. देखें परि० ६ कथा सं० ९ ।
३. कोटीसहित आचाम्ल-पूर्व दिन के बाचाम्ल से अगले दिन के आचामल की श्रेणी को मिलाना । भावार्थ में प्रतिदिन आचाम्ल करता है।
४. विशेष विवरण के लिए देखें श्री भिक्षु मागम विषय कोश पृ० ६६०,६६९ ।
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३१४
निर्मुक
२९२ (शिष्य ने जिज्ञासा की ) जो प्रतिदिन तपस्या में उद्यमशील नहीं होता वह तपः कर्म में पंडित कैसे हो सकता है ? (गुरु ने समाधान दिया) जो भोजन करता हुआ भी निरंतर वृत्तिसंक्षेप-बत्तीस कवल परिमाण भोजन को कम करता जाता है वह तपःकर्म में पंडित होता है ।
२९३. तपः कर्म में उद्यत मुनि बेले तेले आदि की तपस्या करता है और अनशन के उद्देश्य से पारणे में अल्प आहार लेता है । वह अपने आहार को विधिपूर्वक क्रमशः कम करता हुआ अन्त में आहार का पूर्ण निरोध – अनशन कर लेता है।
२९४. वह स्थान की प्रतिबद्धता से मुक्त, उपकरण, शरीर आदि परिकर्म से रहित, त्यागी मुनि आयुष्य काल की प्रतीक्षा करता है ।
अनासक्त,
नौवां अध्ययन : उपधानभूत
२९५. प्रस्तुत अध्ययन का अर्थाधिकार यह है कि जब जो तीर्थंकर होते हैं, वे अपने तीर्थ में उपधानभूत अध्ययन में अपने तप कर्म का वर्णन करते हैं ।
२९६. सभी तीर्थंकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग होता है। केवल भगवान् वर्धमान का तपः कर्म उपसर्ग सहित था ।
२९७. (केवलज्ञान से पूर्व ) तीर्थंकर चतु:ज्ञानी होते हैं। वे देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। वे अवश्य ही सिद्ध होते हैं। फिर भी वे अपने बल और पराक्रम का गोपन किए बिना तपः उपधान में उद्यम करते हैं ।
२९८. मनुष्य जन्म अनेक आपदानों तथा दुःखों से परिपूर्ण है। यह जानकर अवशिष्ट सुविहित मुनि अपने दुःखक्षय कर्मक्षय के लिए क्या तपः उपधान में उच्चम नहीं करेंगे ?
२९९. प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों का अधिकार इस प्रकार है
• प्रथम उद्देशक में भगवान् महावीर की चर्या का निरूपण है।
०
दूसरे उद्देशक में भगवान् महावीर की शब्या वसति का स्वरूप निर्दिष्ट है ।
• तीसरे उद्देशक में भगवान् महावीर के अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का प्रतिपादन है ।
• चौथे उद्देशक में (क्षुत्पीडा से) आतंकित होने पर चिकित्सा विधि का निरूपण है। चारों उद्देशकों में भगवान् के तपश्चरण का अधिकार चलता है।
३००. उपधान शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाष । इसी प्रकार शब्द के भी चार निक्षेप हैं।
३०१. द्रव्य उपधान है-तकिया । भाव उपधान है-तप तथा चारित्र । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में शान, दर्शन, तप तथा चारित्र का अधिकार है ।
३०२. जैसे मलिन वस्त्र पानी आदि द्रव्यों से शुद्ध होता है, वैसे ही आठ प्रकार का कर्म - बंध भाव उपधान से शुद्ध होता है ।
३०३. अवधूनन, धूनन, नाशन, विनाशन, मापन, क्षपण, शुद्धिकरण (शोधिकरण ), छेदन, भेदन, स्फेटन अपनयन, दहन तथा घावन – ये बारह क्रियाएं कमों की विभिन्न अवस्थाओं के अपनयन की हैं।'
१. वृत्तिकार ने इन सब क्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया है। देखें आटी पृ० १९८,१९९ ।
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३१५
भाषासन निपंक्ति
३०४. इस प्रकार वीरों में श्रेष्ठ, महान प्रभावी महावीर (वर्समान) ने भाव उपधान का सम्यक् प्रकार से आचरण किया। उसका अनुसरण कर धीर व्यक्ति शिव तथा अचल निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
आधारान: (आचार-चूला) ३०५. (अग्रश-द के चार निक्षेप है नाम अग्र, स्थापना अग्र, द्रव्य अग्र और भाव अन ।) द्रव्य अन्न के आठ प्रकार है(१) द्रव्य अग्न (४) काल अग्र
(७) संचय अग्र (२) अवगाहन अग्न (५) क्रम अन
(८) भाव अग्र (३) आदेश अन (६) गणन बन भाव मन के तीन प्रकार है(१) प्रधान अन (२) बहुक अग्न (३) उपकार अन
३.६. प्रस्तुत में उपकार अग्र का प्रसंग है। ये अध्ययन आचारांग के उत्तरवर्ती अर्थात् उससे संबद है। जस वृक्ष और पवंत कं अग्र होते हैं, वैसे ही आचाराग के ये अग्र हैं।
३०७. स्थविरों ने शिष्यों पर अनुबह कर उनका हित-संपादन करने तथा तथ्यों की स्पष्ट अभिव्यक्ति करने के लिए इसका नियहण किया है। आचाराग का समस्त अर्थ आपाराग्र (आचारचूला) में विस्तार से निरूपित है।
३०-३११. आचासंग के दूसरे अध्ययन (लोक विजय) के पांचवें उद्दशक से तथा आठदें अध्ययन (विमोक्ष) के दूसरे उमाक स पिषणा, शम्या, वस्त्रैषणा, पाषणा तथ। अवग्रह प्रतिमा नियंढ है। पाचवं अध्ययन लोकसार के चौथे उद्देशक स 'ईयों' तथा छठे अध्ययन (धुत) के पांच उद्देशक से भाषाजात का निर्वहण किया गया है । महापरिक्षा अध्ययन से सात सप्तकक, शस्त्र परिज्ञा से भावना कोर धृत अध्ययन के दूसरे और चौथ उद्दशक से विमुक्ति अध्ययन निर्यत है। आचारप्रकल्प-निशीय का नियूहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के 'आधार' नाम वाले बीसवें प्राभूत से हुआ है । इस प्रकार आपारांग क अध्ययनो से आचारचूला का संग्रहण हुआ है।
३१२. शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में दनिक्षेप-संयम का अव्यक्त प्रतिपादन हुआ है। उसी संयम को विभक्त कर आठ अध्ययनों मे वनेक प्रकार से यहां बतलाया है।
३१३,३१४. संयम के विभिन्न वर्गीकरण :• एकविध संयम-यविरति की निवृत्ति । • दो प्रकार का संयम-अध्यात्म तथा बाधा। • तीन प्रकार का संयम-मन:संयम, बचनसंयम, कायसंयम । . चार प्रकार का संयम--चार याम । ० पांच प्रकार का संयम-पांच महावत । • छल प्रकार का संयम-पांच महाप्रत तथा रात्रिभोजन-विरमण व्रत ।
इस प्रकार आचार-संयम विभक्त होता हुआ अठारह हजार शीलांग परिमाण बाता हो पाता है।
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नियुक्तिपंचक ३१५, पांच महायतों के रूप में व्यवस्थापित संयम का आध्यान करना, विभाग करना तथा उसको जानना सुखपूर्वक हो जाता है, इसलिए पांच महाव्रतों का प्रज्ञापन किया गया है।
३१६. उन महानतों के संरक्षण के लिए प्रत्येक महावत को पांच-पांच भावनाएं हैं। ये आचारचूला में प्रतिपादित हैं । इसलिए यह शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के अभ्यन्तर है।
३१७. आचाराग्न की पांच चुलाएं हैं. ..
पिलानाध्यापन से : घराह प्रतिमा अध्ययन तक के सात अध्ययन-पहली घूला। ० सात सप्तकक-दूसरी चूला। • भावना-तीसरी कूला। • विमुक्ति - चौथी घूला ! ० आचार प्रकल्प (निशीय)- पांचों चूला ।
३१८,३१९. पिडषणा की जो नियुक्ति है, वही शय्या, वस्त्रषणा, पाषणा, अवग्रह प्रतिमा की है । समस्त वचन-विशोधि की निर्मुक्ति वही है, जो (दशवकालिक के सातवें अध्ययन) वाक्यशुद्धि की है। वही समस्तरूप से भाषाजात की नियुक्ति माननी चाहिए ।
३२०, शय्या, ईर्या तथा अवग्रह के छह-छह निक्षेप हैं। पिडषणा, भाषाजात, वस्त्रेषणा तथा पात्रषणा के चार-चार निक्षेप हैं।
३२१. शय्या के छह निक्षेप ये हैं- नामझाय्या, स्थापनाशय्या, द्रव्यमाय्या, क्षेत्रशय्या, कालशम्मा तथा भावशय्या । इनमें से यहां द्रव्यशय्या का प्रसंग है। संयती मुनियों के लिए कौनसी द्रभ्यशम्या उपयुक्त होती है, उसे जानना चाहिए।
३२२. द्रघ्यशय्या तीन प्रकार की होती है-सचित्त, अचित्त और मिथ । जिस क्षेत्र में शय्या की जाती है, वह क्षेत्रशय्या है । जिस काल में शय्या की जाती है, वह कालपाय्या है ।
३२३. द्रव्यशय्या के अन्तर्गत उत्कस, कलिंग आदि दो भाई, बहिन वल्गुमती तथा नैमित्तिक गौतम का कथानक ज्ञातथ्य है।'
३२४. भावशय्या के दो प्रकार हैं-कायविषया और षडभावविषमा । जीव जब औदयिक आदि छह भावों में प्रवर्तित होता है, वह उसकी षड्भावविषमा भायशम्या है तथा जब जीव स्त्री आदि की काया में गर्भ रूप में स्थित होता है, वह कायविषया भावशय्या है।
३२५. यद्यपि सभी उद्देशक शय्या-विशुद्धि के कारक हैं, फिर भी प्रत्येक उद्देशक में कुछ विशेष प्रतिपादन है । वह मैं संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं।
३२६,३२७. पहले उद्देशक में शटया -वसति के उगम दोषों तथा गृहस्थ आदि के संसर्ग से होने वाले अपायों का चिन्तन है।
दुसरे उद्देशक में शोचवादी के दोषों तथा बहविध शय्या-विवेक का चिन्तन है।
तीसरे उद्देशक में संयमी की जो छलना होती है, उसके परिहार का विवेक तथा स्वाध्याय में बाधक न बनने वाले सम-विषम स्थान में श्रमण को निर्जरा के लिए रहना चाहिए-यह विवेक है। १. देखें-परि०६ कथा सं०१०।
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आधारोग नियुक्ति
३१७ ३२६. ई- शब्द का निक्षेप छह प्रकार का है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
३२९. द्रव्यईयर्या के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । जिस क्षेत्र में जो ईर्या हो, वह क्षेत्र ईर्या है। जिस काल में जो ईर्या हो, वह कालईर्या है।
३३.. भावईया के दो प्रकार है-चरणईयां और संयमईर्या । संयमईयर्या सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान है । चरणईर्या है-गमनईर्या । श्रमण का किस प्रकार का गमन निर्दोष और परिशुद्ध होता है ? यह एक प्रश्न है ।।
३३१. आलंबन-प्रयोजन, काल, मार्ग और पतमा--इनके सोलह विकल्प होते हैं। यह सोलह प्रकार का गमन है । इसमें जो परिशुद्ध होता है, बही प्रशस्त गमन होता है।
३३२. चार कारणों से जो गमन होता है, वह परिशुद्ध होता है। चार कारण है. (१) आलंबन प्रवचन, संघ, गच्छ, आचार्य आदि के प्रयोजन से, (२) काल-विहरणयोग्य अवसर, (३) मार्ग · जनता द्वारा क्षुण्ण मार्ग, (४) मतना- गमन में भावक्रिया युक्त होकर युगमात्र दृष्टि से चलना । अथवा अकाल में भी ग्लान आदि के प्रयोजन से सतनापूर्वक उपयुक्त मार्ग में गमन करना परिशुद्ध गमन है।
३३३, सभी उद्देशक ईर्या-विशोधि के कारक हैं । फिर भी प्रत्येक उद्देशक में कुछ विशेष है, वह मैं कहूंगा।
३३४,३३५. पहले उद्देशक में उपागमन-वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना तथा शर ऋतु में निर्गम और मार्ग में पेतना का निरूपण है।
दुसरे उद्देशक में नौका में मारूद व्यक्ति का छलन-प्रक्षेपण हलन-चलन तथा जंघा संतार-पानी में बरती जाने वाली यतना तथा नानाविध प्रश्नों के पूछे जाने पर साधु के कर्तव्य का निरूपण है।
तीसरे उद्देशक में प्रदर्शनता (कोई नदी के पानी आदि के विषय में पूछता है तो जानते हुए भी नहीं बताना) तथा उपधि में अप्रतिबद्ध होना-धि के चुराए जाने पर शिकायत के लिए स्वजन तथा राजगृह-गमन का वर्जन करने का निर्देश है । (किमी को चुराए गए उपधि के विषय में कुछ न कहना।)
३३६. जैसे बाक्यशुद्धि अध्ययन में 'वाक्य' के निक्षेप किए थे वैसे ही भाषा शब्द के निक्षेप जानने चाहिए । जात प्राब्द के छह निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रग्यशात चार प्रकार का है-उत्पत्तिजात, पर्यवजात, अन्तरजात तथा ग्रहणजात ।'
३३७. भाषाजात अध्ययन के दोनों उद्देशक वचन-विशोधिकारक हैं । फिर भी दोनों में कुछ विशेष है । पहले उद्देशक में वचनविभक्ति का प्रतिपादन है। दूसरे उहे शक में क्रोध आदि की उत्पत्ति न हो-ऐसे वचन विवेक का निरूपण है ।
1. विस्तृत व्याख्या के लिए देखे, आटी पृ० २५७ ।
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नियुक्तिपंचक ३३८. वस्त्रषणा के वो उद्देशक हैं। पहले में वस्त्रग्रहण करने की विधि का प्रतिपावन है और दूसरे में वस्त्रधारण करने की विधि निरूपित है। प्रस्तुत में व्यवस्त्र का प्रसंग है। पात्र के विषय में भी पही निरूपण है। द्रव्यपात्र है-काठ आदि से निर्मित पात्र और भाषपात्र हैगुणधारी साधु ।
३३९. अवग्रह के चार निक्षेप हैं-द्रव्य अवग्रह, क्षेत्र अवग्रह, काल अवग्रह और भाव अवग्रह । अथवा अवग्रह पांच प्रकार का है देवेन्द्र का अवग्रह, राजा का अवग्रह, गृहपति का अवग्रह, सागारिक का अवग्रह तथा सार्मिक का अवग्रह ।
३४०. द्रव्य अवग्रह के तीन प्रकार है-सचित्त, अपित्त और मिश्च । क्षेत्र अवग्रह के भी ये ही तीन प्रकार हैं । काल मचग्रह के दो भेद हैं-ऋतुबद्धकाल' अवग्रह तथा वर्षाकाल अवग्रह ।
३४१. भाव अवग्रह दो प्रकार का है- मति नवग्रह तया ग्रहण अवग्रह । मति अवग्रह के दो भेद है-अविग्रह और व्यंजनावग्रह । अर्थावग्रह पांच इन्द्रिय तथा नोइन्द्रिय के भेद से छह प्रकार का है । व्यंजनावग्रह मन और चाइन्द्रिय को छोड़कर शेष घार इन्द्रियों का होता है। वह चार प्रकार का है। इस प्रकार सारा मतिभाब अवग्रह (६+४) दस प्रकार का है।
३४२. अपरिग्रही श्रमण का अस्त्र, पात्र आदि को ग्रहण करने का जो परिणाम है, वह ग्रहण अवग्रह है। प्रातिहारिक अथवा अप्रातिहारिक ग्रहण अवग्रह शुद्ध कैसे हो, इसके लिए उसे यतना करनी चाहिए। दूसरी चला : सप्तकक
३४३. सप्तकक-सात अध्ययनों के कोई उद्देशक नहीं है । (पहला स्थान नामक अध्ययन है) स्थान का वर्णन पहले किया जा चुका है। द्रव्य निक्षेप में ऊध्र्वस्यान का कथन है। (दूसरा अध्ययन है-निशीथिका ।) उसके छह निक्षेप हैं-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) ।
३४४. जो शरीर से प्रबलता से निकलता है, वह उच्चार है, विष्ठा है। जो प्रबलरूप से करता है, वह प्रस्नवण-मूत्र है। मल-मूत्र विसर्जितः करते हुए मुनि के अतिचार न होकर शुद्धि फैसे होती है।
३४५. जो मुनि षड्जीवनिकाय की रक्षा के लिए उद्युक्त है, उसे अप्रमत्त रहते हुए सूत्रोक्त अवग्रह-स्थंडिल में उच्चार-प्रसषण का विसर्जन करना चाहिए।
३४६. रूप सप्तकक के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रश्य और माय । द्रव्य रूप है-- पांघ संस्थान । भाव रूप के दो प्रकार है-दणं मे, स्यभाय से । वर्ण से-पांचों वर्ण । स्वभाव से-क्रोध के वशीभूत होकर भ्रूभंग आदि शरीर की आकृति आदि।
शब्द सप्तकक के चार निक्षेप -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । व्य है-शब्द रूप में परिणत भाषा द्रव्य । भाव है- गुण और कीति ।
३४७. पर शब्द के नाम आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्यपर आदि प्रत्येक के छह-छह प्रकार हैं." द्रव्यपर के छह प्रकार हैं-तस्पर, अन्यपर, आदेशपर, क्रमपर, बहुपर तथा प्रधानपर। अन्यद् शब्द के भी माम आदि छह निक्षेप है। द्रव्य अन्मद् तीन प्रकार का है-तद्-अन्यद्, अन्य-अन्यद, बावेश-अन्य।
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आषारोग नियुक्ति
३४८, यतमान मुनि का दूसरा मुनि यतनापुर्वक जो करता है, वह परक्रिया प्रासंगिक है। जो निष्प्रतिकर्म है, गच्छनिर्गत है, उसके लिए परक्रिया तथा अन्योन्यक्रिया (पारस्परिक क्रिया) अयुक्त है। तीसरी चला: भावना
___३४९. (भावना शब्द के नाम आदि नार निक्षेप हैं ।) जाति कुसुम आदि सुगंधित द्रव्यों के द्वारा तिल आदि को वासिस' करना व्रध्यभावना है । इसी प्रकार शीत से भादित शीतसहिष्णु तथा उहण से भावित उष्णसहिष्ण और व्यायाम से पुष्ट देह व्यायाम सहिष्णु आदि थ्यभावना है। भावभावना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त ।
३५०. प्राणिषध, मृषावाद, अदासादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की भावना अप्रशस्त भावभावना है।
३५१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि प्रशस्त भावभावना है। जो भावना जैसे प्रशस्त होती है, उसको उसी प्रकार लक्षण सहित निरूपित करूंगा।
३५२. जिनशासन-तीर्थकर भगवान् का प्रबंधन, प्रावधनिक-युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी' मौर ऋद्धिधारी मुनि'-इनके अभिमुख जाना, वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन करना, पूजा करना सपा स्तुति करना-यह दर्शनभावना है।
३५३,३५४. तीर्थकरों की जन्मअभिषेक-भूमि, निष्क्रमण-भूमि, दीका-भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिभूमि तथा निर्वाण-भूमि और देवलोक मयनों में, मन्दर पर्वत में, नन्दीश्वर द्वीप में, भौमपातालभवनों में जो शाश्वत चैत्य है, उन्हें मैं वन्दना करता हूं। इसी प्रकार भष्टापद पर्वत, उज्जयन्त पर्वत, दशार्णकूटवर्ती गजानपद, तक्षशिला में स्थित धर्मचक स्थान, अहिच्छत्रा में अवस्थित पार्श्वनाथ और घरणेन्द्र के महिमा स्यान, रथावर्त पर्वत, जहां वज्रस्वामी ने प्रायोपगमन अनशन किया था तथा जहां श्री वर्धमानस्वामी की निश्रा में चमरेद ने उत्पतन किया था-इन स्थानों में यथासंभव अभिगमन, वंदन, पूजन, उत्कीर्तन आदि करना दर्शनशुद्धि है ।
३५५. प्रावधानिक के ये गुणप्ररपयिक विषय है-गणितज्ञता, निमित्ताता, युक्तिमसा, समशिता, शान की अवितपता- इनकी प्रशंसा करना प्रशस्त दर्शन भावना है।
३५६. आचार्य बादि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बताना तथा पिरन्तन चैत्यों की पूजा करना-यह प्रशस्त दर्शन भावना है।
. ३५७-५९. तत्त्व दो हैं-श्रीव और अजीच । दोनों को जानना चाहिए । यह परिज्ञान जैन शासन में ही उपलब्ध है। जैन प्रवचन में कार्य-लक्ष्य, करण–साधन (सभ्यग् ज्ञान आदि) कारक मुनि, सिद्धि-मोक्ष, इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है । (इस प्रकार ज्ञान से वासित करना ज्ञान भावना है।)
बंध बंधहेतु, गंधन तथा बंधन-फल-इनका समुचित विवेचन जैन प्रवचन में है । जनशासन १. अतिशायी मुनि अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवशानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी । २.शिसंपन्न अर्थात आमषं औषधि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न ।
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३२०
नियुक्तिपंचक में संसार के प्रपंच का भी तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है । 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा'-यह ज्ञानभावना करनी चाहिए। आदि शब्द से ज्ञान से एकाग्रचित्तता आदि गुण भी प्राप्त होते हैं । वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय में उपयुक्त . रहना भी ज्ञानभाबना है। ज्ञानभावना से सदा गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है।
३६.,३६१, आहंसा धर्म अण्छा है। सत्य, अदत्तावरति, ब्रह्मचर्य, परिग्रहविरति तथा बारहविध तप-ये सब शोभन हैं। वैराग्य भावना, अप्रमाद भावना, एकत्व (एकाग्र) भावना, ये ऋषि के परम अंग है। ये सारी भावनाएं चारित्र के अनूगत है। आगे तपोभावना का निरूपण करूंगा।
३६२. मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं फोनसी तपस्या करने में समर्थ है ? मैं किस दृश्य के योग से कौनसा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस भावअवस्था में तप कर सकता हूं? (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से स्वयं को तोलकर व्यक्ति यथाशक्ति तपोनुष्ठान में संलग्न हो।)
३६३. गृहीत तप के परिपालन में उत्साह रखना चाहिए। इसी प्रकार संयम और संहनन (जो तप का निर्वहन कर सके) की भावना करनी चाहिए। यह तप भावना है। अनित्य आदि बारह भावनाएं करना चैराग्य भावना है । प्रस्तुत में चारित्र भावना का प्रसंग है । चौयो खुला : विमुक्ति
३६४. विमुक्ति अध्ययन के पांच अधिकार है१. अनिरयस्व अधिकार ।
५. महासमुद्र अधिकार। २. पर्वत अधिकार ।
४. भुजगत्वग् अधिकार। ३. सृष्य अधिकार।
३६५. जो मोक्ष है, वहीं विमुक्ति है। प्रस्तुत में भाव-विमुक्ति का प्रसंग है। इसके दो भेव हैं—देशविमुक्त-भवस्यकेवलिपर्यन्त साधु तथा सर्वविमुक्त-सिद्ध ।
३६६. आचार[ग की चतुर्थ चूला की यह नियुक्ति है। उसकी पांचवीं चूला है--निशीथ । उसका वर्णन आगे करेंगे।
३६७. आचाग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नी अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमश: इस प्रकार है-सात, छह, चार, चार, छह, पांच, आठ, पाठ, चार।
३६८. दूसरे श्रुतस्कंध (आचारचूला) के पन्द्रह अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है-ग्यारह, तीन, तीन, दो, दो तथा दो। मेष अध्ययनों के कोई उद्देशक नहीं
१. चार कारणों से जान का अभ्यास करना चाहिए-(१) शान के संग्रह के लिए, (२) निर्जरा के लिए, (३) श्रुत की अश्पवयित्ति के लिए, (४) स्वाध्याय के लिए। (आटी प० २८०)
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
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विषयानुक्रम
३३.
मंगलाचरण तथा सूत्रकृतांग की नियुक्ति- पहला अध्ययन : समय कथन की प्रतिज्ञा।
प्रथम अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु सूत्रकृांग के एकार्थक ।
का संकेत। सूत्र शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद
समय शब्द के बारह निक्षेप । प्रभेद।
चार्वाक दर्शन का निरूपण । करण, कारक और कृत शब्द के निक्षेप का ३४. अकारकवाद का निराकरण । निवेश ।
३५. आत्मा को सक्रिय मानने पर उठने वाली द्रव्य करण के भेद-प्रभेद ।
आशंकाएं। मूलकरण और उत्तरकरण का स्वरूप ।
दूसरा अध्ययन । वंतालीय प्रयोगकरण का स्वरूप ।
३६,३७ द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषयविससाकरण का स्वरूप ।
वस्तु का संकेत। क्षेत्रकरण का स्वरूप।
३८. विदारक, विदारण तथा विदारणीय शब्द कालकरण का स्वरूप ।
के निक्षेपों का मात्र संकेत । प्रकारान्तर से करण के ११ भेद ।
वष्य और भाव विदारण का स्वरूप ।
४०. बैतालीम का निरुक्त तथा उक्त छंद का भावकरण का स्वरूप ।
उल्लेख । विनसाकरण का स्वरूप ।
प्रस्तुत अध्ययन की रचना का इतिहास । श्रुतज्ञान के आधार पर मूलकरण का ।
द्रव्यनिद्रा, भावनिद्रा तथा भावसंबोध का निरूपण ।
स्वरूप कर्मद्वार के आधार पर ग्रन्थ-रचना का ४३,४४, संयम, तप आदि के अभिमान का तथा आठ प्रतिपावन।
मवस्थानों के परिहार का निर्देश। सूत्रकृत नाम की सार्थकता।
तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिक्षा सूत्रकृताग तीर्थंकर द्वारा पाग्योग से भाषित एवं गणधरों द्वारा वाग्योग से
तीसरे अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु
का कथन। कृत।
उपसर्ग शब्द के छह निक्षेप तथा द्रव्य सूत्रकृत का निरक्त ।
उपसर्ग के भेद । सूत्र शब्द का निरुता ।
४-५.. क्षेत्र, काल, भाव तथा द्रव्य के भेद-प्रभेद । श्रुतस्कन्ध तथा अध्ययनों की संख्या का ५१-५३.
५१-५३, उदासीनता से किए जाने वाले हिंसा आदि निर्देश ।
कार्य की समीक्षा में तीन दृष्टांत । गाथा, श्रुत तथा स्कन्ध शब्द के निक्षेप ।
पौषा अध्ययन : स्त्री-परिज्ञा सूत्रकृतांग के अध्ययन तथा उनकी विषय- ४.
पौये अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु वस्तु का निर्देश ।
का संकेत ।
१६.
२३. २४-२८.
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नियुक्तिमंचक ५५. स्त्री शब्द के निक्षेप ।
मन, वचन आदि की क्रिया बीर्य द्वारा पुरुष शब्द के निक्षेप।
संभव। स्त्रियों द्वारा छलित अभय, प्रद्योत तथा
आध्यात्मिक वीर्य के प्रकार | फूलवाल मुनि के उदाहरण का संकेत । ९७. वीर्य के तीन भेद। स्त्रियों पर विश्वास नहीं करने का ९८. शस्त्र के प्रकार। निर्देश।
नौवां अध्ययन : धर्म नारी के वशीभूत होने के दुष्परिणाम।।
९९. धर्म के विषय में पूर्व कयन का उल्लेख । वीर पुरुष की पहचान ।
धर्म शब्द के निक्षेप तथा सूख्य धर्म के पुरुषों के प्रति आसक्ति से भी उक्त दोषों
भेद । की संभावना का निर्देश । .
१.१. भावधर्म के लौकिक और लोकोत्तर भेदपांचवां अध्ययन : नरकविभक्ति
प्रभेदों का उल्लेख । नरक शब्द के छह निक्षेप ।
धर्म के अनधिकारी व्यक्ति की पहचान । भाव नरक का स्वरूप तथा तप-चारित्र में दसवां मध्ययन : समाधि उद्यम करने का निर्देश।
दसवें अध्ययन का आदान-पद से आष विभक्ति प्राट है वह नियों ना मार्गद!
HT गौण रूप से समाधि नाम का नारकीय वेदना का वर्णन ।।
उल्लेख।
समाधि शब्द के छह निक्षेपों का उल्लेख। परमायामिक देवों का नामोल्लेख ।
द्रव्य समाधि, क्षेत्र समाधि और काल ६८.१२. अंम आदि परमाधामिक देवों द्वारा दी
समाधि का स्वरूप । जाने वाली विविध वेदनाओं का वर्णन ।
भाव समाधि के चार प्रकार। छठा अध्ययन : महावीर-स्तुति
ग्यारहवां अध्ययन :मार्ग ८३. महद् और वीर शब्द के निक्षेपों का
१०७. मार्ग काम्द के छह निक्षेपों का उल्लेख । कथन ।
१०८. न्य मार्ग के भेदों का नामोल्लेख । ८४. स्तुति शन्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव
१०९,११०. क्षेत्र मार्ग आदि का स्वरूप-कथन तथा स्तुति का स्वरूप-वर्णन ।
भावमार्ग के भेद-प्रभेदों का निर्देश। महाबीर-स्तुति अध्ययन का सार-यतना।
तीन सौ प्रेसठ प्रवादियों का उल्लेख । सातवां अध्ययन : कुशील-परिभाषित
सम्यक तथा मिथ्यामार्ग का स्वरूप८६,७. शील शब्द के चार निक्षेप तथा उसके भेद
निरूपण। प्रभेदों का स्वरूप-कथन ।
कुमार्ग के उपदेष्टा के लक्षण । कुशील-परिभाषित अध्ययन की अन्वर्थता ।
११४. सुमार्ग के उपदेष्टा के लक्षण । शीलवादी कौन?
११५. मोक्ष मार्ग शब्द के एकार्थक । ८।१. हिंसा करने वाला अनगार कैसे? बारहवां अध्ययन : समवसरण विभिन्न परिवाजकों का कथन ।
११६. समवसरण शब्द के यह निक्षेपों का आठवां अध्ययन : वीर्य
उल्लेन ।
भाव समवसरण के भेद । ९१-९४, वीर्य शब्द के षट निक्षेप तथा उसके भेद
क्रियावादी, अक्रियावादी, वनयिक तथा प्रभेदों का वर्णन ।
मज्ञानवादी का उल्लेख ।
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________________
३२५
सूत्रकृतांग निर्मुक्ति क्रियावादी आदि चारों वादों की भिन्न
द्वितीय श्रुतस्कंध भिन्न संख्या का निर्देश ।
प्रथम अध्ययन : पौरोक १२०. प्रस्तुत अध्ययन के समवसरण नाम की
१४२. सार्थकता।
महद् शब्द के छह निक्षेपों का कथन ।
अध्ययन शब्द के निक्षेप । सम्यक् और मिथ्यावादों का उल्लेख तथा
पौडरीक शब्द के आठ निक्षेपों का कथन । मिथ्यावाद को छोड़कर सम्यवाद को
१४५,१४६. द्रव्य तथा भाव पौडरीक का स्वरूप और अपनाने का निर्देश।
उनके भेद। तेरहवां अध्ययन : याथातथ्य
१४७. पांडरीक और कंडरीक का लक्षण ।
१४८-५७, ५, मनुष्य आदि में 'पोढरीक' तथा १२२. तथ्य शब्द के निक्षेप तथा उनका स्वरूप
'कंडरीक' का उल्लेख । कथन ।
द्रव्य पौंडरीक कमल और भाव पौंडरीक १२३, भाव सथ्य का स्वरूप ।
श्रमण का कथन। १२४. याथातथ्य का स्वरूप ।।
१५९. उपमा और उपमेय की सिद्धि । १२५. परम्परा से प्राप्त आगम की ययार्थता का ,
मनुष्य की ही जिनोपदेश से सिद्धि/मुक्ति। निर्देश ।
१६१. भारीकर्मा मनुष्य की भी जिनोपदेश से आत्मोत्कर्ष के वर्षन का निर्देश ।
उसी भव में सिद्धि। बौदहवां अध्ययन : ग्रन्य
१६२. पुष्करिणी को दुरवगाहता।
१६३. पदम के उद्धरण में आने वाली विपत्ति । १२७-२९. शिष्य के भेद-प्रभेद ।
पद्म-उद्धरण के उपाय । १३०,१३१. आचार्य के प्रकार ।
उपसंहार पद । पंद्रहवां अध्ययन : यमनीय
दूसरा अध्ययन :क्रिया आदान और ग्रहण शब्द के निक्षेप । १६६. द्वितीय श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्ययन का प्रस्तुत अध्ययन के नाम 'आदाणिज'
नाम निर्देश तथा संक्षिप्त विषय-वस्तु का धान्द की सार्थकता।
उल्लेख । आदि शब्दके निक्षेप तया द्रव्य आदि का १६७. दव्यक्रिया तथा भावक्रिया का स्वरूप । स्वरूप-कथन ।
१६५. स्थान शब्द के १५ निक्षेपों का उल्लेख । १३५.१३६. भाव आदि के भेद-प्रभेद ।
क्रिया द्वारा प्रावादुकों की परीक्षा ।
तोसरा अध्ययन : आहार-परिज्ञा सोलहवां अध्ययन : गाथा
१७०. आहार शब्द के पांच निक्षेप । गाथा शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य गाथा का
१७१. द्रव्य आहार आदि का स्वरूप-कथन । स्वरूप ।
१७२. ओज, रोम तथा प्रक्षेप थाहार का कथन । माव गाथा का स्वरूप।
१७३.
अपर्याप्तक और पर्याप्तक के आहार का १३९,१४०. माथा शब्द का निचक्त तथा स्वरूप-कथन ।
कथन । सोलहवें अध्ययन की विषय वस्तु का १७४. प्रक्षेप आहार किसके ? निवेश ।
१७५. जीव की अनाहारक अवस्था का समय ।
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________________
३२६
१७६, १७७. केवली समुद्घात में अनाहारक अवस्था का
वर्णन |
तेजस और कार्मण शरीर द्वारा आहार ग्रहण |
परिज्ञा शब्द के चार निक्षेप तथा उनके भेद-प्रभेद ।
१७८.
१७९.
चौया अध्ययन : प्रत्याख्यान क्रिया
१८०.
१५१.
प्रत्याख्यान
उल्लेख ।
१०३.
शब्द के छह निक्षेपों का
प्रत्याख्यान और अप्रस्याख्यान क्रिया का स्वरूप |
पाचवा अध्ययन : अनगार श्रुत
१८२.
आचार और श्रुत शब्द के निक्षेपों का
उस्लेख ।
अनाचार वर्जन का निर्देश ।
१८४.
छठा अध्ययन : आर्द्राय
१०५. आई शब्द के चार निक्षेप ।
१५६,१५७. द्रम आई एवं भाव आई के भेद-प्रभेदों का
उल्लेख । १०८-२००. आईक कुमार की कथा का वर्णन । २०१. राग के बंधन को तोड़ना जटिल सातवां अध्ययन नालंबीय
२०२.
२०३.
२०४.
२०५
निर्युक्तिपंचक
प्रस्तुत अध्ययन ( आचारश्रुत) का अपर नाम अनयारत का उल्लेख
२०६.
'अलं' शब्द के चार निक्षेप ।
अलं शब्द के चार भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश |
नालंदा की स्थिति का वर्णन
प्रस्तुत अध्ययन 'नालंदीय' के नाम की सार्थकता का उल्लेख ।
प्रस्तुत अध्ययन की रचना का इतिहास
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गाथाओं का समीकरण
सूत्रकृतांग नियुक्ति की गाथाएं चूणि एवं टीका -दोनों में मिलती हैं पर कहीं कहीं उनके क्रम में अंतर है। पाठ-संपादन में हमने प्राचीनता की दृष्टि से चूणि के क्रम को प्राथमिकता दी है। समोकरण में सूत्रकृतांग चूणि के प्रथम श्रुतस्कन्ध को नियुक्ति-गाथा का ही संकेत दिया जा रहा है क्योंकि दूसरे श्रुतस्कन्ध को चूणि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है तथा उनके आगे गाथा संख्या मी नहीं है । अत: समीकरण में उनका संकेत नहीं किया है । संपादित
संपावित
टीका
२४
२४
२४
१. पूणि में २० नम्बर को गाथा के स्थान पर रिक्त स्थान है।
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३२८
संपादित
૪૧૭
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४९
५०
५१
१२
५३
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संपादित
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१०६
१०७
१०८
१०९
११०
१११
१. टीका में ५० के बाद ५३ का क्रमांक है।
२. टीका में कमांक ८४ के बाद पुनः ६३ से संख्या की पुनरावृत्ति हुई है।
भूमि
७४
७५
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निर्युक्तिपंचक
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200
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
१०७
१०८
१०९
११०
१११
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सूत्रकृताम नियुक्ति .
३२९
टोका
संपावित
संपारित ११२ ११३
टीका १४३
११२
११४
१४५
१०६ १०७ १०८ १०९
१४६
११६
१४७
११७
१४८
११०
१४७ १४० १४९
११५
१४९
११८
११२
१२०
१५१
१५१
११३ ११४ ११५
१५२
१२० १२१ १२२ १२३
१५३
१२१ १२२ १२३ १२४
१५२
१५४
१२४
१२५
१२७ १२८
११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४
१२७ १२८
१५६ १५७ १५८ १५९ १६. १५१ १६२
१५८
१२९
१२९
१३०
१३२
१२५
१६४
१२६ १२७ १२८ १२९
१३२ १३३ १३४ १३५
१६५ १६६ १६७
१६६
१६७
१३६
१६९
१३०
१३७
१६९ १७०
१३९ १४०
१४०
१७२ १७३
१७२
१४१
१३४
१४१ १४२
१४२
१७४
१. मुनि पुग्यविजयजी द्वारा संपादित सूत्रकृतांग पूर्णि का प्रथम श्रुतस्कंध ही प्रकाशित है। उसके आगे
ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था से प्रकाशित पूणि में गाथा संख्या का उल्लेख नहीं है अतः यहाँ से आगे चणि की गापा का संकेत नहीं दिया है।
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३१०
नियुक्तिपंचम
संपादित
ठीका
संपावित
हीका
संभावित १८७ १५
१९६
दीका १८६ १८७ १८८
१७७ १७८ १७९
१९७
१६९
१७७ १७८
२००
१५०
१९०
१८०
१८१ १८२
१९१
२००. २०१
१९२
२०२
१८२
१०३ १८४ १८५ १६
२०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६
१९५
१९५
२०४ २०५
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________________
३.
४.
५.
६०
७.
८.
सूत्रकृतांग निर्युक्ति
तित्थगरे य जिणवरे, सुत्तगरे गणधरे य नमिकणं । सूयगडस्स' भगवतो, निज्जुति कित्तइस्सामि ।। सूयगड" अंगाणं, बितिय तस्स य इमाणि नामाणि । 'सूतग ं सुत्तकडं'", सुयगड खेव गोण्णाणि ।।
दबं तु पोंडगादी, सणा-संग्रह - वित्ते",
५. सुत्तमह ( 1 ) । ६. सूयतं ( क ) ।
७. वित्तं (व)।
भावे सुत्तमिह * जातिनिबद्धे "
करणं च कारगो या दब्बे खेत्तं काले,
कड व तिष्हं पिछमक निक्लेवो । मावेण उ कारगो जीवो ॥ ०वे ओबीसस, योगसा मूल उत्तरे देव । उत्तरकरणं वंजण, अस्थो 'उ उयक्खरो सब्दो ||
मूलकरणं सरीराणि, पंच तिसु दविदियाणि परिणामियाणि
१. सुगडल्स ( अ ) ।
२. सुतकडं (घू) 1
३. सूयगड सुतगळं ( क ) ।
४. सूचाकृतं हति टीकाकारः । छंदानुलोम के
कारण प्राकृत में दीघं का ह्रस्व हो गया । अतः सूतगडं और सूयगडं ( सूचाकृतं) एक नहीं है।
० निबद्धं (द) |
सूयगं नाणं ।
च कस्यादी ||
संघातणा" य परिसाडणा य मोसे तथेव " पडिसेहे । पड-संख-सगड - थूणा - उड्ढ - तिरिच्छान" करणं च ।। खंधेसु 'य दुपदेसादिएसु" अन्भेसु विज्जुमादीसु" । निष्कण्णगाणि दव्वाणि, जाणि तं वीससाकरणं ।।
कण्णखंधमादीयं । विस - मोसधादीहि" ||
दुख ( अ ) |
९.
१०. तु उनि १९४ ।
११. संघायणे (क. टी) ।
१२. तहेव ( अ, ब, द, क, टी ) ।
१३. तिरिच्छादि (क.टी) १४. उनि १९७ ।
१५. दुप्पएसा (टी) |
१६. अम्मदक्खे सु ( उनि १९०), विजमातीसु (नू )
१७. निष्फावगाणि (५)
१८. जाण (टी) ।
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नियुक्तिपंचक न विणा आगासेणं, कीरति जं किंचि खेत्तमागास । वजणपरियावण्णं, उच्छुकरणमादियं बहुहा' ।। कालो जो जावइओ', कोरइ जम्मि जम्मि कालम्मि ।
ओहेण नामतो पुण, 'भवंति एक्कारसक्करणा॥ यवं च बालवं चेव, कोलव' थीविलोयणं । गरादि वणियं 'चेव, विट्ठी हदति सत्तमा । सउणि चतुप्पय नागं, कित्युग्धं च करणं भवे एयं । एते चत्तारि घुवा, 'सेसा करणा' चला सत्त" ।। चाउसिरत्तीए,१ सउणी पडिवज्जती सदा करणं। तत्तो अहक्कम खलु, चउप्पयं नाग कित्युग्घं"। भावे पयोग दीसस, पयोगसा मूल उत्तरं चेव । उत्तर-कम-सुत जोवण", वण्णादी भोयणादीसु ॥ 'वण्णादिगा या वण्णादिगेस जो कोई बीससामेलो८ । ते होंति पिरा अथिरा, छायाऽऽतव-दुद्धमादीसु ।। मूलकरण पुण सुस", तिदिधे जोगे सुमार
ससमयसुतेण पगतं, अन्झवसाणेण य सुभेणं ।। १. देखें उनि १९९।
सणि चतुप्पय गागं, २. जावईओ (अ.)।
किरपुगं च चतुरो घुवा करणा। ३. करणा एक्कारस हवंति (क,टी), करणे किण्हचउद सिरत्ति, एक्कारस भवंति (घ)।
सरणी सेसं तिय कमसो ।। ४. फोडवं (पू)।
११. पाउद्दिसि (क), फिण्हवउद्दसिरति (व) । ५. तेत्तिलं तहा (टी)।
१२. ०प्पया (क)। ६. सुदपडिवए णिसादीया (चू)। ११-१३ ये १३. किंसुग्घ (टी), उनि १९२, तु. जंबु ७।१२३तीन गाथाएं चूणि में उद्धृत गाथा के रूप में
२५ । हैं। मुनि पुण्यविजयजी ने इन्हें निर्युक्तिगाथा १४. उत्तरे (क,टी) । के क्रम में स्वीकृत नहीं किया है। ये गायाएं १५. कम्म (अ,ब) ।
समी हस्तप्रतियों और टीका में मिलती है। १६. जोवण (टी) । ७. उपर्य (टी)
१७. दियाणि (अ)। ८. किंसुग्घ (टी,उनि २०२), कित्युग्घ (क)। १८. मेला (क) । ९. अन्ने करणा (टी), करणा सेसा (क)। १९.०करणे (ब)। १०. सूत्रकृतांग चूणि (पृ० १०) में कुछ छन्तर २०. सुत्ते (अ)।
के साथ यह गाथा मिलती है
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________________
सूचकृतांग नियुक्ति
२२.
ठिति-अणुभावे बंधण-निकायण-निधत्त'-दीह-हस्सेस। संकम-उदीरणाए, उदए' वेदे उपसमे य॥ सोऊण जिणवरमतं, गणधारी कातु तक्खमोवसमं । अज्झवसाणेण कतं, सुमिण' तेण सूयग ।। वइजोगेण पभासितमणेगजोगंधराण* साधूर्ण । तो वइजोगेण कतं, जीवस्स सभावियगुणेहि ।। 'अक्खर-गुण-मतिसंघातणाए कम्मपरिसाढणाए य । तदुभयजोगेण कयं, सुत्तमिणं तेण सूयगउँ" ।। सुत्तेण 'सूइत त्ति य", अत्था तह सूइता य जुत्ता य । जो" बहुविधप्पजुत्ता, ससमयजुत्ता" अणादीया ।।
प्रथम श्रुतस्कंध दो चेव सुतक्खंधा, अग्झयणाई हवंति" तेवीस । 'तेत्तीस उद्देसा',५ आयारातो दुगुणमेतं" । निक्लेवो गाधाए", चउम्बिहो छम्बिहो य सोलसस ।
निक्लेवो उ८ 'सुम्मि य१६, खंधे य चउविहो होइ ।। २४. ससमय परसमयपरूवणा य नाऊण बुज्मणा चेव ।
'संबुद्धस्सुवसग्गा, थीदोसविवज्जणा चेव" ।। १. निकायं निहतं (अ), निहत्ति (क)। १५. तेत्तीसुद्देसणकाला (क,टी), सेत्तीस उद्देस २. हुस्से य (चू)। ३. ४(ब)।
१६. ०णमंग (टी) । इस गाथा के बाद सूत्रकृतांग ४. पूत (टी)
चूणि के अनुसार एक नियुक्तिगाथा और होनी ५. सुत्तगर्ड (च)।
चाहिए । चूणि में उसकी व्याख्या तो मिलती ६. वयजो (द)।
है लेकिन यह गाथा किसी भी आदर्श तथा ७. जोगकरणाण (चू)।
टीका में प्राप्त नहीं है। मुनि पुण्यविजयजी ५. वयत्रो (टी)।
ने रिक्त स्थान देकर यहां २० का क्रमांक ९. गुणेण (अ,ब,क,टी) 1
लगाया है । टीकाकार ने इस गाधा के बारे १०. सूत्तगर (टी), सुतकर्ड (च)।
में कोई ऊहापोह नहीं किया है। संभव है ११. मुत्तिया चिय (टी), सुप्तपच्चिय (अ,ब) ।
कालांतर में किसी कारण से यह सुप्त हो गई १२. तो (क)।
हो। १३. एय पसिद्धा अणा (टी), पया ५ सिद्धा १७. गाहाए (टी)। अणा (क)।
१८. य (क.चू,टी)। १४. व हंति (क,टी)।
१९. सुयम्मी (क)। २०. अप्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है।
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३३४
नियुक्तिपंपक उपसग्गभीरुणो थीवसस्स नरगेसु होज्ज उववाओ। एव महप्पा वीरो, जयमाह तहा जएज्जाह ।। "निस्सील-कुसीलजढो, सुसालसमा य' सीलवं चैव । नाऊण वीरियदुर्ग, पंडितविरिए पतितव्यं ।। धम्मो समाहि मग्गो, समोसढा चउस सव्ववादीसु । सीसगुण दोसमहणा, गंम्मि सदा गुरुनिचासो॥ आदाणिय संकलिया, आदाणिज्जम्मि' आयतचरितं । अप्पग्गंथे 'पिद्धियवयणे, गाधाए" अहिगारो ।। महा पंचभूत एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरी य । तध य अकारगवादी", आतच्छट्टो" अफलवादी ॥ बितिए नियतीवाओ, अण्णाणिय" तह य नाणवादी" य । कम्मं चयं न गच्छति, चतुविध भिक्खुसमम्मि ।। ततिए आहाकम्म, कडवादी५ जध य ते पवादीओ"। किच्चुवमा य चउत्थे, परप्पवादी अविरतेसु ।। नाम ठपणा दविए, खेत्ते काले कुतिथि -संगारे। कुल-गण-'संकरसमए, गंडी तध८ भावसमए य* ॥
३२.
१. परिचत निसील-कुसील-सुसील सेविया दुछु १३. अण्णाणी (घ)।
१४. नाणवाईओ (ब,टी), नाणबाओ य (द)। परिषत्तनिसीस-कुसील-सुसील-संविग्ग (टी)। १५.०वाइ (ब), कडवायं (व)। .
परिषस निसील कुखील सुसीलसेवी य (चू)। १६. पवादी तु (बु), य वाईओ (टी)। २. पीरिए (टी,द)।
१७. कुतित्य (टी), म कुतिस्थ (क)। ३. पयट्टेड (पट्टिाजा) (टी)।
१८. संकरगंडी बोद्धयो (क,टी)। ४. बायाणीयम्मि (अ.द)।
१९. प्रथम अध्ययन में चूणि एवं टीका में भाई ५. भावयचा (टी)।
नियुक्ति गायाओं में क्रमव्यत्यय मिलता है। ६. पिडकवयणे (५), पिषियवयणेणं हो। (टी)।
चूणि में चार उद्देशकों के विषय-वस्तु की ७. अहीयारो (ब)।
गाथाएं पहले है तथा फिर 'समय' अध्ययन ८. मध (म.ब.पू)।
से संबंधित गाथाएं हैं। चूमि का क्रम संगत ९, सरीरे (क) ।
प्रतीत होता है । हस्तप्रतियों में टीकाक्रम से १०. अगारगवाती (टी)
गाथाएं हैं। हमने पूर्णि का क्रम स्वीकृत ११. असन्छट्टो (टी), आतष्टो (अ,ब) । किया है । (देखें टिप्पण गाथा ३६ का ।) १२.बीए (टी)।
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सूत्रकतांग नियुक्ति ३३. पंचण्हं संकोगे, अण्णगुणाणं च चेयणादिगुणो'।
पंदियठाणाणं, न अण्णमुणितं मुणति अन्नो ॥ को वेदेई अकयं ?, कयनासो पंचहा गई नस्थि ।
देव-मणुस्सगयागइ, बाइस्सरणादियाणं । ३५. नई अफलपोवनिश्चित कालफलत्तमिहं अदुमहेऊ । नादुद्ध पोवदुद्धत्तणे अगावितणे हेऊ ।।
___ समयस्स निग्नुत्ती समत्ता पठमे संबोधि' अणिच्चयाय वितियम्मि माणवज्जणता । ___ अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्य ।।
उद्देसम्मि य ततिए, मिनछत्तचित्तस्स" अवचयो भणितो।
वज्जेयव्यो य सया, सुहप्पमादो" जतिजणेणं ।। ३८. वेयालिम्मिय वेयालगो य वेयालणं वियालणियं"।
तिम्नि वि चउक्कगाई, वियालो एत्य पुण जीयो ।
१. वेषणाइ० (अद)।
माणि..."उद्देशार्थाधिकारं तु स्वत एव २. जाईसरणा (ब,टी), सरणाविठाण (अद)। नियुक्तिकार उत्तरत्र वक्ष्यति ।' फिर भी ३. अफलत्तमनिच्छय (द), अफलधेव (ब)। यहां पहले कौनसी गाथा होनी चाहिये यह ४. गोवुद्ध (अ)।
निर्णय करना कठिन है क्योंकि अन्य ५. गाया ३४,३५ चूणि में अनुपलब्ध है। निर्पक्तियों में कहीं उद्देशक के विषय-वस्तु
टीकाकार ने 'अधुना नियुक्तिकारो' तथा वाली गाथाएं बाद में हैं तो कहीं पहले हैं। 'निर्मुक्तिकदाह' ऐसा उल्लेख किया है । ये हस्त-आदर्शों में गाथाओं का क्रम टीका का दोनों गाथाएं सभी आदर्शों में मिलती हैं। ये संवादी है । हमने चूणि के अनुसार गाथाओं गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत होती है।
का क्रम रखा है। ६. संबोहो (अ,ब,द,क,टी)। ७. बीर्याम्म
१०. अन्नाणस्त्रियस्स(ब), अन्नाणचियस्स(क,टी)। ८. द्वितीय अध्ययन में भी नियुक्ति गाथाओं में ११.०प्पमाओ (अ,ब,द,टी)।
क्रमव्यत्यय है। चूणि में सर्वप्रथम उद्देनकों १२. वेयालियं ति (क), वेदालियम्मि (८); के विषय-वस्तु का निरूपण फरने वाली बेतालियर्याम्म (च) द आदर्श तथा चूणि में गाथाएं हैं तथा टीका में वैतालीय अध्ययन सभी स्थानों पर 6 का प्रयोग हुआ है। से सम्बन्धित गाथाएं हैं । टीकाकार स्वयं इस वेदालीय और बेतालीय ये दोनों पाठ शुद्ध बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं- हैं। 'तत्राध्ययनार्याधिकार प्रागेव नियुक्तिकारेणा- १३. चियालणगं (अ)
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निर्मुक्तिपंचक दम्यं च परसुमादी, सण-नाण-तव-संजमा भावे । . दब्वं च दारुगादी, भावे कम्म विदालणियं'। वेयालीयं. इह देसितं ति वेयालिक' ततो होति । वेतालिक इह वित्तमरिथ तेणेच य निवद्धं ।। कामं तु सासतमिणं, कधितं अट्ठावयम्मि उसभेण । अट्ठाणउतिसुताणं,' 'सोऊण 4 ते वि पव्वइता ।। दव्वं निहावेदो, सण-नाण-तव-संजमो भावे । अधिकारो पुण" भणितो, नाणे तह" दसण-परित्ते ।। तव-संजम-नाणेसु वि, जई" माणो यज्जितो महेसीहि । अत्तसमुक्कसणटुं", किं पुण होला नु५ अन्नेसि ।। जइ ताव निज्जरमदो", पडिसिद्धो अट्ठमाणमहर्जाह । अवसेसमढाणा", परिहरतवा पयतेणं ॥
यालीयस्स निजुत्ती समत्ता पढमम्मि य पडिलोमा, होती अणुलोमगा य बितियम्मि। ततिए अज्झत्युवर्दसणा" च परवादिवयणं च"॥
१७. अविसेस (टी)। १८. मायादि (चू)। १९. अज्झत्तविसोहणं (टी), अण्मयविसीपणा
१. विपाणियं (क)। २. वेतालियं {), वेतालीयं (अ) ३. वेदालिक (द)। ४. तहा (क,टी)। ५. मट्ठाणवतिः (द,स)। ६. सोऊणं {टी), सोऊण वि (अ,ब,द)। ७. निद्दाबोहो (अ)। ८. परिसण (च)। ९. संजमा (टी)। १०. पुच्च (स)। ११. तब (स,ब)। १२. अति (चू)। १३. महेसीहिमा (स)। १४. • मुक्करिसत्यं (अ,ब,टी)। १५. 3 (अ,ब,क,टी)। १६. मतो (चू), मओ (अ.टी)।
२०. तृतीय अध्ययन की नियुक्ति में भी धूमि और
टोका की गाथाओं में क्रमव्यत्यय है। यद्यपि टीकाकार ने "उद्देशार्थाधिकार तृत्तरत्र स्वयमेव नियुक्तिकार प्रतिपादयिष्यतीति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृस्य नियुकिकुदाह' यह कहकर 'उवसम्म य छक्क' इस गाया से नियुक्ति प्रारम्भ की है। ऐसा संभव है कि टीकाकार ने अपनी सुविधा के लिये क्रमव्यत्यय किया हो । प्राचीनता और क्रमबद्धता की दृष्टि से हमने चणि के क्रम को मान्य किया है । (देखें टिप्पण गाथा ३६ का)
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सूत्रकृमि निक्ति
हेउरिसेहि' अहेतुएहिं, ससमयपडितेहि निउहि । सीलखलितपण्णवणा', कता चउत्थम्मि उद्देसे ।। उवसग्गम्मि य छक्क, दम्वे चेयणमचेयणं दुविहं । आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उ उवसग्गों ॥ खेत्ते बहुओघभयं', काले एगंतदूसमादीओ । भावे कम्मस्सुदओप, सो दुविहो ओघुवक्कमिओ ।। 'उवकमिए संजविघकारए तत्थुवक्कमे पगतं । दवे चउम्विधो देव-मणुस" तिरियाऽय" संवेओ" ॥ 'एक्कक्को य चविहो', 'अविहो वावि सोलसविहो वा"। घडण जयणा य तेसि, एत्तो वोच्छ अहीयारे" ।। जध नाम मंडलग्गेण, सिरं छेत्तृण कस्सइ मणुस्सो । अच्छेज्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो न धिप्पेआ" ? ।। जघ वा विसगंड्स, कोई घेत्तण नाम तुहिक्को । माण टीमंनो, कि नाम ततो न व* मरेज्जा ? ॥ जह नाम सिरिघरामो, कोई रयणाणि' नाम घेत्तूणं । अच्छेज्ज" पराहुत्तो, किं नाम ततो न घेप्पेज्जा?"
उबसग्गपरिणाए निन्जुत्तो समत्ता
१. हेळसरि० (स)।
१२. संवेतो (टी)। २. समयपतिएहि (क)।
१३. एवेक्केदको चरबिहो (च) । ३. पीलबालियस्स. (स), सीलस्खलितप्प० (अ)। १४. दिवाई होइ सोलस. (क)। ४. उवस्सम्गो (चू,टी)।
१५. अहियारं (टी)1 1. बेतं (क,चू,टी)।
१६. ५१-५३ तक की गाथाओं का चूणि में कोई ६. ओघपयं (अ,टी), टीकाकार ने 'महमोषपयं' उल्लेख नहीं है। टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है
को पाठांतर माना है लेकिन चूणि द्वारा कि "नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानाउपर्युक्त पाठ सम्मत है।
माह" " चूणि में उल्लेख न होने पर भी ७. एगंतुवूस. (ब), एगंतदुस्समा० (स)। टीका और आदशों के आधार पर हन ८. कम्मन्मुदओ (टी)।
गाधाओं को हमने नियुक्ति-गाया के क्रम में ९. उपक्कमिओ संयमविग्घकरे तत्यु (अ,ब,टी) रखा है। सोवक्कमियो संजमविधायकरि तमुवक्कमे १७. वि (अ.स)।
१५. वावि (स)। १०. मणय (क)।
१९. रयणाण (), रयणा य (ब)। ११. सिरियाय (स)।
२०. अत्वेज (मा.)1
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नियुक्तिपंचक पढमे संथवसलावाइहि' 'खलणा उ होति सोलस्स' । बितिए इहेब लियस्स, विलंबणा' कम्मबंधो य ।। दव्वाभिलावचिधे, बेदे भावे य इथिनिक्लेवो । अभिलावे जह सिद्धी, भावे वेदसि' उवउत्तो ।। नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य पजणणे कम्मे । भोगे गुणे य भावे, दस एते पुरिसनिक्खेवा ।। सूरा मो मण्णता, कइतवियाहि उवधिप्पहाणाहि" । गहिता हु अभय-पज्जोत कूलवालादिणो' बढे ।। तम्हा न हु" वीसंभो, गंतवो निच्चमेव इत्थी५ । पढमुद्देसे भणिता, जे दोसा ते गणंतेणं ।। 'सुसमरथा वि असमस्या की रंति" अप्पसत्तिया पुरिसा । दीसंतिम सूरवादी, नारीवसगा न ते सुरा ।। धम्मम्मि जो दढमती'६ सो सूरो सत्तिमओ य वीरो य । न हु धम्मनिरुच्छाओ", पुरिसो सूरो सुबलिओ वि ।। एते चेव य दोसा, पुरिससमाए' वि इस्थिगाणं पि । तम्हा तु अप्पमादो, विरागमगंसि 'तासि पि' ।
इत्थोपरिणाए निज्जुत्ती समता
१. वाइएहि (च), संलवमाइहि (क,टी)। १२. सु (च) । २. सीलस्स होज्ज खलणाओ (स), खलणा उ १३. कुआधारादिणो (धू), फूलबारादिणो (क) । होज सी. (क)।
१४. उ (अ,ब,स,टी)। ३, बीए (द)।
१५. इत्थीसु (क), इत्पीस (टी)। ४. वि एवं (स)।
१६. सुसमत्थाऽवऽसम० (टी)। ५. अवस्था (अ,ब,क,टी)।
१७. कीरती (चू). करती (क)। बेदम्मि (अ य.,कटी)।
१८, दिस्संति (च), दीसंती (टी)। ७. उबधन्नो (अ)।
१९. दहामई (टी), देवमदी (क)। ८. पाजणण (अ,टी), पजणणं (ब)।
२०..णिरुस्साहो (टी)। ९. मो इसि निपातो बाक्यालंकारार्थ; (टी)। २१. पुरिसपमादे (चू)। १०. कतिय वियाहि (क)।
२२. इस्थिकाणं (क)। ११. उधिनियडिप्प (यू), निर्यार शब्द रखने से २३. मम्गम्मि (टी)। छंद भंग होता है।
२४, वासिमु (अ), तासि तु (कटी) ...
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
निरए छक्कं 'दब्वनिरया उ इहमेव' जे भवे असुभा । खेत्तं नरगावासा, कालो निरएस चेव ठिती ।। भावे उ निरयजीवा', 'कम्म वेदति नरगपायोग | सोऊण नरयदुक्ख५, तव चरणे होति जइतव्यं ।। नाम ठवणा दविए, खेते काले तहेव भावे य । एसो उ विभत्तीए', निक्खेवो अग्विधो होति ।। पुरविरमा दक- निनाव च। तिसु वेदेति अताणा, अणुभाव चेव सेसासु ॥ अंबे अंबरिसी" चेय, सामे 'सबले ति यावरे"। रोद्दोवरुद्द१२ काले य, महाकाले ति आवरे"। 'असिपते धणु कुंभे", 'वाल वेतरणी ति य५ । खरस्सरे महाघोसे, एते" पण्णरसाऽहिते" ।। धाति पधाति य, हणति विधति तह निसुंभंति" । पादिति- अंबरतले. अंबा खलु तरथ नेरइया ।। ओहतहते य निहते", निस्सण्णे कप्पणीहि कप्पंति । बिदलग पडुलग छिन्ने, अंबरिसी तत्थ नेरक्या५ ॥
१. दम् णिरया र इहेव (क,टी), दने निरया १५, असिपत्त धणं कुंभे (असि सिपत्ते कभी)
(च), असिपत्त घणु कभी (क)। २. णिरयोगासो (क,टी)।
१५. वालु वेयरणी वि य(क.टी) ,वालुए वेयरणीति ३. णरय (चू,अ)।
य (सम १५॥१॥२), वानुए येतरणी ति य ४. कम्मुदओ चेद णिरयपाओगो (क,टी)। (भग ॥२५९।२)। ५. मिरया (टी)।
१६. एवं (अ.टी), एमेले (सम)। ६. विवित्तीए (क)।
१७. ०हिया (अ)। ७. पुढवीफास (अ,ब,टी)।
१८. प हाडेती (टी), पहाति (म)। ८. गिरयकालवर्ण (टी), पालसहणं (क)। १९. मुंचंति (क)। ९. मागं (टी)।
२०. मुंचंति (टी)। १०. अंबरिसे (च)।
२१. तहियं (अ,ब,कटी)। ११. सबले वि य (क,अटी), सम. १२१, २२. विद्लग (बटी) । भग. ३३२५९ ।
२३. पतुसग (चू)। १२. चद्दोवकद्दो (चूर) वरोदो (अ)। २४. अंबरिसा (च)। १३. यावरे (३)।
२५. रतिए (चू.)।
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३४०
नियुक्तिपंचक साडण-'पाडण-तोदण'-'बिधण रज्जलतप्पहारेहि। सामा नेरइयाणे, पवत्तयंती अपुण्णाणं ।। अंतगयफिल्फिसाणि य, यियं कालेज्ज फुप्फुसे वक्के । सबला नेरइयाणे, कति तहि अपुण्णाणं ।। असि-सत्ति-कोत-तोमर-सूल-तिसूलेसु सूइयग्गेसु । पोयति कंदमाणे, रुघा खलु तत्थ नेरइए ।। भंजति अंगमंगाणि, अरु-बाहू-सिराणि-कर-चरणे । कप्पंति कप्पणीहि, उवरुद्दा पावकम्मरया ।। मीरासु" सुंठएसु य, कंडसु" य पयणगेसुम य पयंति । कुंभीसु य लोहीसु" य, पर्यति काला तु नेरइया ॥ कपंति कागिणीमसगाणि छिदंति सीह-पुच्छाणि'५ । खार्वति य नेरइया, महकाला पावकम्मरता ।। हत्थे पादे ऊरू-बाहु-सिरा-पास" अंगमंगाणि । छिदंति पगामं तू, असिनेरइया निरयपाला ।। कण्णोट्टा-नास-कर-चरण -'दसण-थण'-'फिरंग-ऊर'२५-बाहूणं । 'छेदण-भेदण' साइण, असिपत्तधहि पाउंति" ।।
१. तोहण तुत्तण (च), पाहण तुत्तण (स), पाडण १२. पयंडएसु (टी)। तोडण (टी)।
१३. लोहिएम (टी), लोहियसु (अ)। २. वंधण रज्बुल्लय० (टी), बंधण तह रज्जुलय० १४. रतिए (क)।
(अ), विधणा रज्जू. (क) पहारे य (स)। १५. सीसपु० (चू), सीहपुच्छाणि त्ति पृष्ठोबना: ३. रतिः (जू)।
(सूटी पृ०८४)। ४. अंते य फिफिर (स)।
१६. रए (क,टी)। ५. काह-विकरसंतापु० (चूस)।
१७. सिरा तह य (क)। ६. सूद चियगामु (क,टी), सूईस हलीसु (पू)। १८. तु (स)। ७. पोपति रुकम्मा उ गरगपाला तहि रोदा १९, कंठोट (क)। (क,टी), रोहे कम्मा रोद्दा खलु तत्थ नेरड्या २०. इसणटुण (ब,टी)।
२१. पुतोरु (अ,क,ब,स), फुग्ग ऊरु (टी)। ८. अंगमंगे (अ,ब,स,चू) ।
२२. छिदण भिंदण (स)। ९. कप्पणीमु य (च)
२३. घणूह (स)। १०. सीसेसु (च)।
२४. पाएंति (क)। ११. कोमु (म)।
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७८.
सूत्रांम निषित
कुंभीसु य' पयणेसु य, लोहीसु' य कंदु'-लोहि-कुभोसु । कुंभी या नरयपाला, हर्णति पाचिति' नरगेसु ।। तडतडतउत्ति भज्जति, 'भायणे कलंब'' वालुगापट्टे । बालूगा नेरइया, लोलंती अंबरतलम्मि ।। (बस) पूय-रुहिर-केसऽट्टि, वाहिणी कलकलंत जलसोया"। वेयरणिनरयपाला", नेरइए ऊ पवाहेति ।। कप्पंति करकएहि, तच्छिति परोप्पर परसुएहि । सिंबलितरुमारुहंति, खरस्सरा तत्थ नेरइया ।। भीते पलायमाणे १५, समततो तत्थ ते णियत्तेति । पसुणो जघा* पसुवधे, महघोसा तत्थ नेरइया ।।
नरधिमत्तीए निजुत्तो समत्ता पाधन्ने महसदो, दवे खेत्ते य काल भावे य । वीरस्स उ निक्लेवो, चउक्कओ होति नायवो ।। थतिनिक्लेवो चउहा, आगंतुग भूसणेहि दश्वयुतीर । भावे सम्भूतगुणाण", कित्तणा जे जहिं भणिया ।। पुच्छिसु" जंबुणामो, अज्जसुधम्मा" ततो" कहेसो य । एव महप्पा वीरो, जयमाह तधा जएज्जाहा ।।
महावीरस्यूईए निकुत्तो समत्ता
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१५. य पसायते (अ,ब,क,टी)। २. सोहियसु (अ,ब,टी)।
१६. णिरुभति (कटी)। ३. कंड (), कुंदु (ब)।
१७. ४(स)।
१८. नेरतिए (क)। ५. पाहति (चू,क,टी), पयंति (अ)। १९. महा० (ब)। ६. तास्स (चू,क,टी)।
२०. ययणिक्लेवो (चू)। ७. भज्जणे कलंबु (क,टी), भंजण. (स)। २१. घरखा (च)। ८. 'वस' शब्द रखने से छंद भंग नहीं होता। २२. दब्वययो (चू) । ९. फुलकु. (अ), कलकलित (स), कलकलेत(टी)। २३. संताण गु० (क,टी) । १०. सोता (स)।
२४. पुन्छंसु (स), पुन्छिसु (अ)। ११. रणि णिरय० (च,क,टी)।
२५. सुधम्मो (चू)। १२. कसि (चू)।
२६. तहिं (स)। १३. परप्परं (स)।
२५. जतमाह (च,सबक)। १४. फरस० (च)।
२८, जसेवाध (च), ज्याहि (टी,क) ।
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३४२
८६.
८७.
८५.
८९.
८९।१.
९०.
९१.
९२.
'सीले चतुक्क'" दवे, पावरणाऽऽभरणभोयणादीसु' । भावे तु ओघसील, अभिवख आसेवणा चैव ॥ बोधे 'सीलं विरती'', विरताविरती य अविरति असील । धम्मे नाण-तवादी, अपसत्थ rasiarat || परिभासिता कुसीला, य एत्य जावंति अविरता केय सुति पसंसा सुद्धे, कु ति दुगंछा अपरिसुद्धे || 'अप्फासुयपडिसेबी, य नाम" भुज्जो य सीलवादी" य । फासुं वदति सोलं, अफासुगा मो" अभंजता" ।। अणगारवादिणो पुढविहिंसगा निम्गुणा अगारिसमा । निद्दोस सि य मलिणा, साधुपदोसेण मलिणतरा* ॥ अह नाम गोतमा, रंडदेवता" वारिभद्गा चेय । जे अग्निहोमवादी ७, जलसोय 'जे यम इच्छति ॥ कुसीलपरिमा सियन्झयणस्स निज्जुती सम्मला
विरिए छक्कं दबे,
'दुपद - चतुष्पद - अपक्ष
अचित्तं पुण जध ओसीण भणितं,
१. सील चक्क (ब, अ, स, क )
२. पाउरणा ० ( चूक, टी), ०रणे० ( स ) ।
३. ० मासेवणा (क. टी ) ।
४. विरती सीलं (चू) ।
५. विरयाबिरई (टी) ।
"
विरियं, आहाराऽऽवरणपहरणादीसु । विरिय रसवीरियविवागे ||
६. अविरती (टी), अदिति ( क ) ।
७. अहम्मकोवादी (टी, अ) ।
प. केई (टी), केति (दक) ।
९. सुरिति प्रशंसायां निपात इति (चू पू. १५१) ।
सच्चित्ताऽचित्तमी सगं चेव ।
एवं तिविधं तु सच्चित्तं ॥
१०. दु (चू), दु: कुत्सायां (चू पृ १५१) कुरित्य
raft faurat जुगुप्सायां ( सूटी १९०३) । ११. अफाय परिसेविय णामं ( अ, ब, टी ) । १२. विरवादी (स) ।
१३. मो शब्दस्य
निर्मुक्तिपंचक
निशतस्वेनावधारणार्थत्वाद्
( सूटी पू १०३ ) ।
१४. अति ( द ), अभुजतो ( स ) |
१५. महलतरा ( स ) प्रस्तुत गाथा केवल 'स' आदर्श में ही मिलती है। चूर्णिकार ने इसका उधृत गाथा के रूप में उल्लेख किया है। टीका में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । मूलत: यह गाया आचारांग निर्मुक्ति (१००) की है।
१६. चंडी देवगा (टी), 'चंडीदेवा' इति चक्रधरप्रायाः ( सूटी पू १०३), पंडिवे० (क) 1
१७. ०होत्तवादी ( अ, ब, स, द, क) । १८. के ( ) ।
१९. दुपयचउप्पयअपयं (टी) । २०.पि ( स ) ।
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
बाबा' का दी, बलाटीच पहरणे होति । खेतम्मि जम्मि खेत्ते, काले जे जम्मि कालम्मि ।। भावे जीवस्स सबीरियस्स विरियम्मि लद्धिणेगविधा।
औरस्सिदिय अज्झप्पिगेसु बहुसो बहुविधीयं ।। मण-'वयण-काय आणापाण संभव तधेव' संभवे । सोत्तादीणं सद्दादिगेस, विसएसु गहणं च ।। उज्जम-धिति-धीरतं, सोंडीरत्तं समा य गंभीरं । उवयोग-जोग-तव-संजमादिगं 'होति अझप्प ॥ 'सम्वं पियतं तिविधं, पंडित बालविरियं च मीसं च । अधवार वि होति दुविधं, अगारअणगारियं वेव ।। सत्थं तु असियगादी, विज्जा-मते य देवकम्मकतं । पस्थिव 'दारुण अग्गेय", वाउ" तह भीसग चेव ।।
बोरियस्स मिज्जुत्तो समता 'धम्मो पुबुट्ठिो'१७ भावधम्मेण एत्य अधिकारो। एसेव 'होति धम्मो'१६, 'एसेव समाधिमग्गो त्ति ॥ नाम ठवणाधम्मो, दववधम्मो य भाषधम्मो य । सचिस्ताऽचित्तमीसे", गिहत्थदाणे दवियधम्मो ।। लोइयलोउत्तरिओ, दुविधो पुण होति भावधम्मो तु" । दुविधो वि दुविध तिविधी, पंचविधो होति णातघ्यो ।
.....-. --.-.-- १. रणं (स)।
१२. अहवा (टी)। २. होति (टी)1
१३. अगारमण (स.अ)। ३. सीरियम्मी (द)।
१४. असिमादीयं (अ,ब,टी), असिगादीयं (स), ४. अज्झस्थिगेसु (स)।
१५. बारुणमग्गेय (द)। ५. वइ-काया (टी), वतो काए (अ,ब,स)। १६. वाक (टी)। ६. पाणु (अ,ब)।
१७. धर्म की नियुक्ति के लिए देखें दशनि ३६७. तहा य (क,टी)। ८. धिती (अ)।
१८. धम्मेणिस्य (स)। ९. सोरी (अ,ब,क,५) ।
१९. होइ धम्मे (मु.क)। १०. होड अझप्पो (अटी)।
२०. समाधि एसेव मग्गो य (स) । ११. सम्वं पि तयं तिविधं बालं तधा पंडितं च २१. ०मीसग (अ,ब,टी)। मिसितंच (च)।
२२. य (बस)।
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१०४.
१०५.
विलाप १०२. पासत्थोसण्णकुसील, संथवो न किल' 'वट्टते कातुं'" । सूयगडे अज्झयणे, धम्मम्मि निकाइयं एवं ।।
धम्मस्स मिज्नुत्ती समता १०३. आदाणपदेणाऽऽधं', गोणं' नाम पुणो समाधि त्ति ।
निक्विविऊण" समाधि, भावसमाधीएँ पगयं तु ।। नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो तु समाधीए, निक्लेवो छविधो होति ।। 'पंचसु वि य विसयेसुं, सुभेस दवम्मि सा समाधि त्ति। 'खेत्तं तु' जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ ।। 'भावसमाधि चतुविध", दसण-नाणे तवे चरित्ते य । चउसु" वि समाधितप्पा, सम्म चरणद्वितो साधू ।।
____समाधीए नियुत्ती समत्ता नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्सा,१५ निक्लेवो छविधो होति ।। फलग-'लतंदोलण-वेत्त-रज्जु-दवण'बिल पासमग्गे य । खोलग-अय-पक्खिपहे, छत्त-जलाऽऽकास दम्वम्मि ।। खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं 'वहति मग्गो' । भावम्मि होति दुविधो, पसत्य तह अप्पसत्थो य ।।
१०६.
१०७.
१०८.
१. किर (अ,ब,क,चू,टी)।
सुभेसु दवम्मि ता भवे समाहि ति (टी)। २. वट्टती काउं (टी)।
११ खेतम्मि (स)। ३. सूतकडे (५.)।
१२. जो जम्मि कालम्मि (स)। ४. ध हु सो (स)
१३. समाहि बउम्बिह (अ,ब,क,टी)। ५. पवेणग्धं (अ.क,स)।
१४. चतुहिं (चू,स)। ६. गोणं (अ.ब,दी)।
१५. मग्गस्स य (टी)। ७. निक्खिवित्ताण (स)।
१६. फलगे (स), फलग (क)। ८. उ (टी)।
१७. लयंदोलणवित्तक (अ,बटी), लयंगेस (स)। ९. दव्येसु (द)।
१८. बिलम्यास. (अ,ब,स)। १०.दव जेण तु दब्वेण समाधि बाधितं च जं दवं १९. हवह जो उ (अ,ब,स,टी) भने मांगो (क),
(चूपा) चूर्णिकार ने अधधा कहकर उपर्युक्त हबह मग्गो (क)। पाठांतर की व्याख्या की है। पंचसु विसएसु
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तरंग निर्मुक्ति
११०.
१११.
११२.
११३.
११४.
११५.
११६.
११७.
दुविम्मिवि' लिगभेदो, गेयो तस्स विविणिच्छओ" दुविहो । सुगतिफल दुग्गतिफलो, पगतं 'सुगती फलेणिरथं'" ।। मृग्गतिफलवादीणं तिष्णि तिसट्टा 'सता पवादी" । खेमे य खेमरूवे, चडवकग मग्गमादीसु ।। सम्मप्पणीत मग्गो, 'नाणं तध दंसणं चरितं च । चरण-परिव्वायादी, चिण्णो मिच्छत्तमग्गो उ ।। इड्डि-रस- सात गुरुगा, छज्जीवनिकायघातनिरता " । जे उवदिसंति मग्गं, " 'कुमग्गमण्णस्सिता जाण" ।। तव - संजमप्पहाणा, गुणधारी जे वदति सम्भावं । सम्व जगज्जीवहितं तमाहु सम्प्पणीतमिण
१८
पंथ 'णायो मग्गो, विधी धिती" सोगती" हित सुहं च । पत्थं सेयं निब्बुति, निव्वाणं सिवकरं चैव ॥ मग्गस्स निज्जुती समता
समोसरणे वि६ छक्क, सच्चित्ताऽचित्त-मीसगं दव्वे" । खेतम्मि जम्मि खेत्ते, काले जं जम्मि कालम्मि" ।। भावसमोसरणं पुण, नायव्वं छब्बिहम्मि भावम्मि | अथवा किरिय अकिरिया, अण्णाणी चेव वेणइया" ।।
१. व (द) ।
२. उ (टी) ।
३. विडिओ (द) |
४. पुण सुगती फलमग्गो ( स ) |
५. योग्गति० (अस), दोगती - ( क ) । ६ सताइ वादीणं (टी), समाय वा० ( स ) | ७. सम्मप्पणियो० ( अ, ब, टी), सम्मपणी ओ० (क) ।
८. नाणं तह वसणे चरिते य ( अ, ब, मु, फ, टी) नाणं तब दंसणं वेब (स) ।
९. सि (पू), तु शब्वोऽस्य दुर्गतिफलनिबन्धनत्वेन विशेषणार्थं इति सूटी १३२) ।
१०. पाटणरता य (चू)
छज्जीवका यबधरता
(चुपा)+
११. धम्मं (भू) ।
१२. कुमन्यमग्गक्सिता से (कटी) ।
ફૈય
१३. ० जगजीव० ( स ) ।
१४. ०प्पणीतमवि (चू) ।
१५. मग्गो णाओ (बटी) न्याय इति निश्ययेनायनं – विशिष्ट स्थानप्राप्तिलक्षणं
यस्मिन्
सति स न्याय: ( सूटी पू १३२ ) । १६. किती (स) ।
१७. सुमती ( अ, ब, टी), सोगती ( स ) । १८. जेवु वाणं (च), निब्बुई नि० (क) १९. समोरणमि ( क ) 1
२०. चेव (स) ।
२१. जावश्यं ( क ) |
२२. यष्वं ( क ) ।
२३. किरिया ( स ) ।
२४. वेणईया ( अ, द ) ।
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________________
१२०.
नियुक्तियंचक . ११८. अत्यि ति किरियवादी, वदंति नत्यि स्ति अकिरियवादी य ।
अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता देणइयवादी॥ असीतिसय किरियाणं, अकिरियाण' च होति चुलसीति । 'अण्णाणिय सत्तट्ठी', वेणइयाण* च बत्तीसा ।। तेसि मताणुमतेणं, पण्णवणा वण्णिता इहज्झयणे ।
सम्भावनिच्छयत्यं, समोसरणमाहू तेणं ति ।। १२१. सम्महिष्टी किरियावादी, मिन्छा' य सेसगा वादी । चइकण' मिच्छवाद, सेवह 'वादं इम' सच्चं ।।
समोसरणस्स निज्जुत्ती समता नामतहं ठवणतह, दग्यतहं चेव होति भावतहं ।
दम्वतहं पुण जो जस्स सभावो होति दश्वस्स ।। १२३. भावतहं पुण नियमा, नायव्वं छविधम्मि भावम्मि ।
अधवा वि जाण-दसण-चरित्त-विणए र" अज्झप्पे ।। १२४. जद सुन तह अलो. 'चरण तु जला तहा य'२ नायन्छ ।
संतम्मि पसंसाए, असंत" पगयं दुगुंछाए" ।। १२५. आयरियपरंपरएण, आगतं जो उ छेयबुद्धीए५ ।
कोवेति छेयवादी," जमालिणासं स" णासिहिति ।। १२६. न करेति" दुक्खमोक्वं, उज्जममाणो दि 'संजम-तवेसुं'• । तम्हा अतुक्करिसो, वज्जेतवदो जतिजणेण" ।।
आहतहस्स नियुत्तो समत्ता
१२२.
१. असियसयं (चू,टी), असीय. (अ,ब,क)। २. अक्किरि० (कूटी), अकिरियवाईण (स,६)। 1. अण्णाणी सत्तट्टि ()। ४. वेणईयाणं (व) ५. तु (अ,ब,क,टी)। ६. सिबा (क)। ७. अहिऊण (अ,ब,टी)। ८. मिच्छा० (स)। ९. बावं ति तं (स)। १०.विम्मि (च.टी)। ११. विषएण (अ,ब,क,टी)।
१२. चरणं चारो तह ति (अ,ब,क,टी), चरणं
व जहा तव ति (स)। १३. असती (क,टी)। १४. दुगुच्छाए (स)। १५. अप्पबु. (च)। १६. छेमबुसी (चू)। १७.व (च)। १८. णासिहि त्ति (अ,ब,द)। १९. कुणेति (च)। २०. संजमपदेसु (चू)। २१. पयतेण (वनि २०)।
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________________
१३०.
संघकृतरोग नियुक्ति १२७. 'गंथो पुवुहिट्ठो', दुविधो सिस्सो य होति नायव्वा ।
पव्यावण-सिक्खावण, पगयं सिक्खावणाए उ ।। १२८. सो सिक्खगो तु दुविधो, गहणे 'आसेवणा य बोधव्वो' ।
गहणम्मि होति तिविधी, सुत्ते अत्थे तदुभए य॥ १२९. आसेवणाय दुविधो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य ।
मूलगुणे पंचविधो, उत्तरगुण बारसविधो तु ।। 'आयरिमो पुण' दुनिधी, पठवावेतो यसिखाता ।
सिक्यावेतो दुविधो, गहणे आसेवणे चेव ।। १३१. गाहावितो" तियिधो, सुत्ते अत्थे तदुभए चेव । 'मूलगुण-उत्तरगुणे, दुविधो आसेवणाए उ" ॥
गंधस्स निष्जुत्ती समता २.
आदाणे गहाम्म य, निक्लेदो 'होति दोण्ह "वि चउक्को।
एगट्ठ नाण, च होज्ज" पगतं तु आदाणे ।। १३३. जं पढमस्संतिमए, बितियस्स तु तं भवेज्ज आदिम्मि ।
एतेणाऽऽदाणिज्ज, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।। १३४. नामादी ठवणादी, दवादी चेव होति भावादी ।
दम्बादी पुण दृश्यस्स, जो सभावो सए ठाणे" ।। आगम-'नोआगमतो, भावादी ते दहा ववदिसति । नोआगमतो भावो, पंचविधो होति नायम्वो।।
१. 'ग्रंथ' सम्म की नियुक्ति के लिए देखें उनि ११. आसेवणाए दुधिधो मूलगुणे उत्तरगुणे य (च) ३३४-३७ ।
___ छंद की दृष्टि से टीका का मुद्रित पाउ ठीक है । २. प (क,टी)।
१२. दाणं (८)। ३. बासेवणाए नायबो (क), वणे य बोध १३. होति दोण्हि (द)। (घ) म गायब्दो (टी)।
१४. होति (क)। ४. ०णाए (चू)।
१५. आदाणे (स)। ५. गुणे (च)।
१६. टाणे (अ.ब.स)1 ६. उ (ब,टी), य (द)।
१७. ०गभियं भावाईयं (स) गमतो भावातीत ७. रिमो वि य (अ,ब,क,टी)। म. व (टी)।
१८. बुहा (टी), बुद्धा · · तीर्थंकरमणधरादयो (सूटी १. सिक्खियतो (अ.क)।
पृ १६९) १०. मातो वि य (1)
१९. उपदिसंति (चू,क,टी)।
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$ve
१३६.
१३७.
१३८.
१३९.
१४०.
१४१.
१४२.
१४३.
१४४.
आगमतो पुण आदो, गणिपिडगं होति बारसंगं तु । गंथ' सिलोगो 'पाद पद अक्खराई च तत्थादो | जमईयस्स निती समता
नामं ठवणागाधा, दव्वगाधा य भावगाधा य । 'पोत्थग - पत्तग' लिहिता, 'होति इमा दव्वगाधा'त ।।
होति पुण भावगाधा, सागरयोगभाव निप्पण्णा । मधुराभिधाणजुत्ता, 'तेणं गाह ति णं बेंति ।। गाहीकता य अस्था, अधवा" सामुद्दएण छंदेण । एएण होति गाधा, एसो अन्नो वि पज्जाओ ||
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पण रससु अञ्झयणेसु पिडितत्थेसु जो 'अवितहं ति" पिडितवयणऽत्यं गहेति" जम्हा" ततो गांधा ।। सोलसमे अज्झयणे, अणगारगुणाण वण्णणा भणिया । पानासीदसनार्ज, वयणमिणं वयदिति ॥
गराए निज्जती समत्ता
द्वितीय भूतस्कंध
नामं ठबणा दविए, खेत्ते काले तहेव" भावे य एसो खलु महंतम्मि, निषखेवो छविहो होति" ॥ नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव" भावे य । एसो खलु अज्झयणे, निक्व छविहो होति ॥ नामं ठषणा दविए, खेते काले य गणण" संठाणे । भावे य अमे स्खलु, निक्खेवो पोंडरीयस्स ॥
१. गंथं ( द ) |
२. पद पाद (सटी) |
३. पोतुंग पत्थम ० ( अ ) ।
४. सा होइ दम्बगाहा उ ( अ, ब, स क ) । ५. क्षेण य गाहं ति (नू) ।
६. व ( अ, ब, क, टी) ।
७. अवण (टी) । ८. होती (चू), होंति ( क ) । ९. जे (पू), एव ( स ) ।
१०. अहि स ( . अ, क, टी) । ११. हिति ( अ, क ) ।
१२. तम्हा (टी) ।
१३. य हुंति (द. क ), होति ( अ ब ) ।
१४. १४२, १४३ की गाथा का संकेत चूर्णि में नहीं
है किंतु व्याख्या मिलती है ।
१५. य हो ( अ, क ) |
१६. गहण ( ६ )
निर्मुक्तिपंचक
।
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सूत्रकृतांग नियुक्ति १४५. जो जीवो भविओ खलु, 'उववज्जिउकामो पोंडरीएसु' ।
सो दवपोंडरीओ, भावम्मि 'य जाणओ' भणिओ ।। 'एगभविए य बढाउएँ य अभिमुहो य' नाम-गोए य ।
एते तिन्नि वि* देसा, दवम्मि य' पोंडरीयस्स ।। १४७. 'तेरिच्छिगा मणुस्सा, देवमणा'' चेव होंति जे पवरा ।
ते होंति पोंडरीया, सेसा पुण 'कंडरीगा हु ।। १४८. 'जलचर-थलचर-खहचारिएसु जे होंति पवरकता य' ।
जे य सभावाणुमता, ते होंती" पोंडरोगा उ ।। अरहत" धक्कवट्टी, चारण-विज्जाहरा दसारा य ।
जे अन्ने इडिमंता, ते होंति पोंडरीया उ॥ १५०. भवणति-वाणमंतर-'जोतिस-वेमाणियाण देवाण'१२ ।
से 'रेरित वर खलु, ते होती पोंडरीया उ॥ १५१. कंसाणं दूसाणं, मणि-'मोतिय-सिल-पवालमादीणं' ।
'जे य अचित्ता पवरा'", ते होंति पोंडरीया उ॥ १५२. अश्चित्तमोसगेसु, दम्वेसं जे य होंति पवरा उ ।
से होति पोंडरीया, सेसा पुण कंडरीया " ।। १५३. 'जाइं खेत्ताई" खलु, सुहाणुभावाई होति लोगम्मि ।
देवकुरुमादियाई, ताई खेत्ताई१६ पवराई।। १. वजिकामो य पुंडरीयम्मि (टी) १२. जोतिसदासी विमाणवासी य (स) । २. विजाणओ (टी)।
१३. पयरा देवा (स)। ३. एगमबिय वाउय अभिमुहा य (अ), अभि- १४. मुत्तिय-सिलप्पबाल० (सद)। - मुहिय (टी)।
१५. जे तेसि पधरा खलु (ब,द,क), अच्चित्ताजे य
पवरा (स)।
१६. यह गाया प्राय: सभी हस्त आदर्शों में मिलती ६. तेरिन्छमणुस्साणं देवगणाणं व (अ)।
है। मुद्रित टीका को क्रम संख्या में यह गाथा ७. रीया उ (अ)।
नहीं है लेकिन टिप्पण में यह गाथा दी जलयर यलयर धयरा, जे पचरा चेव होंति
है। टीकाकार ने 'मिधद्रव्यपौंडरीकंतु तीर्थकप्ता य(टी) खयरा जेय पवरा जेय होति कृष्टचक्रबदिय एवं प्रधान फटक"....." । कता य (स)।
उल्लेख किया है। यह गाथा प्रासंगिक है। ५. समावेऽणु० (म,टी), सभाष अण. (स), हमने इसे निर्यक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ा है। सभावोऽणु० (म)।
१७. जाणि खेत्ताणि (स). १०. होति (अ), छंद की दृष्टि से दीर्घ इकार है। १८. भागाणि (स), महाणभावाइं (4)। ११. अरिहंत (बद)।
१९. खेत्तेसु (ब,क)1
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________________
३५०
१५४.
१५५.
१५६.
१५७.
१५८.
१५९.
१६०.
१६१.
१६२.
नियुक्तिपंचक
जीवा 'भवद्वितीए कार्याहितीए " य होंति जे पवरा । ते होति पोंडरीया बसेसा कडरोगा उ । दारं ॥ गणणाए रज्जू खलु, संठाणं चेव होंति चउरस् । 'एयाणि पोंडरीगाणि ३, होंति से साणि इयराई" ।। दारं || 'ओदइय-ओवसमिए", खइए य" तहा" खयोव समिए य । परिणाम - सनिवाए, जे पवरा ते वि ते चेव ॥ दारं ।।
अहवा वि नाण- दंसण- चरित्त विणए जे पबरा
तथेव अप्पे ।
एत्थं पुण
होंति मुणी, ते पवरा पोंडरोगा उ || अधिगारो, audiकापणं । भावम्मि य समणेणं, अणे पोंडरीयम्भि ||
उवमा पोंडरीएण", तस्सेव य उवचएण निष्पत्ती" । अधिगारी पुण भणितो, जिणोवदेसेण 'सिद्धि त्ति ।। सुर-मय- तिरिय निरओोगे" "मथुया पभू चरितस्स" । अवि य महाजण 'नेय ति'" चक्कवट्टिम्म अधिगारो ॥ afa 'हु भारिकमा, नियमा उक्कस्सनिरयठितिगामी" । ते वि हु जिणोवदेसा", तेव भवेण सिति ।।
जलमाल-कद्दमाल, बहुविवल्लिगहणं" च पुक्खरिणि । जंचाहि व बाहाहि व 'नावाहि वा दुरवगाहं" ||
१. भवट्ठीए कायट्ठीए ( स ) ।
२. खरं ( अ, ब, क, टी) |
३. एयाई पौंडरीगाई (टी) ।
४. सेसाई (क.टी ) ।
५. चूर्णि में यह गाया संकेतित नहीं है, पर
व्याख्यात है ।
६. ०६ए उस मिए (मु), ओदईय उव० ( अ ) ।
७. (स) ।
१०. पुंडरीए (टी)
११. निती (टी)।
१२. सिद्धति ( द ) ) |
८.साह (क)
९. वणस्सति० (क, टी, ६) |
१३. तिरिया ( स ) ।
१४. निरओमेसु ( अ, ब ) ।
१५. मणूया पहू (द), मणुपत्तस्स ( अ ) ।
१६. चरितमि (टी) |
१७. गति (अ.क) ।
१८. दुस्साहयकम्मा (चु) ।
१९. उक्कसट्टिती ० ( अ, द ) ।
२०. ० देसेण (टी) ।
२१. ० वेल्ली ० ( स ) |
२२. क्खणि (द), ०रणी (स) ।
२३. नावाए वा दुरोगाहं (बंक), नाथा दुरोगाहं (अब), नावाहि व से दुश्व ० ( स ) । -:
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१६४.
१६८
सूचकृतांग नियुक्ति
३५१ परमं उल्लंघेउ', ओयरमाणस्स होज्ज* बावत्ती। कि नत्थि 'से उवाओ'', जेणुल्लंघेज्ज अविवन्नो' ।। विज्जा व देवकम्म, अहवार आगासिया विकुब्वणता । पउमं उल्लंघे, 'न एस उवाओ जिणक्खाओ ।। सुद्धप्पयोगविज्जा, सिद्धा तु जिणस्स जाणणा बिज्जा । भवियजणपोंडरीया, द. जाप रिद्धिमनिमुतिः ।। .
___ पोउरीयस्स निज्जुत्ती समत्ता १६६. 'किरियाओ भणियाओ' १०, 'किरियाठाणं ति'११ तेण अज्झयणं ।
अधिगारो पुण भणितो, बंधे तह मोक्खमग्गे य' ।। १६७. दव्वे किरिएजणया, पयोगुवाय करणिज्ज समुदाणे ।
इरियावह सम्मत्ते, सम्मामिच्छे" य मिच्छत्ते । नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ढ उवरती बसही।
संजम-परगह-जोहे", अचल गणण संधणा भावे ॥ १६९. समुदाणियाणिह तओ, सम्मपउत्ते य भावठाणम्मि । किरियाहि पुरिसपावादिका तु सब्वे परिक्षेज्जा" ।
किरियाए निजुत्ती समत्ता १७०. नामं ठवणा दविए, खेते भावे य होति बोघवे ।
एसो खलु आहारे, निक्लेवो 'होइ पंचविहो । १. उल्लंघेत्तुं (स,द,टी)।
१०. क्रिया का वर्णन आवश्यक नियुक्ति में किया २. होइ (टी)।
जा चुका है। ३. उवाओ सो (अ)।
११. ठाण प्ति (अ,ब,द), ठाणं च (स)। ४. उववन्नो (स), १६३-६५ इन तीनों १२. गाथारूप में इसका निर्देश पूणि में नहीं
गाथाओं का चूणि में कोई उल्लेख नहीं है। मिलता, किन्तु संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है। किन्तु सभी हस्तप्रतियों और टीका में यह १३. ०मिच्छा (री)। गाचा मिलती है । टीकाकार ने इन गाथाओं १४. जोए (स.अ)। के बारे में नियुक्तिकदर्शयितुमाह' ऐसा १५. आनि १८५।। उल्लेख किया है।
१६. पात्रो (अ,ब,स)। ५. अधव ण (स)।
१७. पाबाहए (क,टी) ६. सल्लंघेत्तुं (टी), घेऊ (१) ।
१८. इस गाथा का निर्देश चूणि में नहीं है । फिन्तु ७. इणमो (स.)।
व्याख्या मिलती है। ८. विजाएं (अ,ब)।
१९. पंचहा हो। (अ)1 ९. सिडिगई उर्वेति (क)। . . .
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१५२
१७१.
१७२.
१७३.
१७४.
१७५.
भिक्तिपंचक दम्वे सच्चित्तादी, खेते नगरस्स जणवओ होइ । भावाहारो तिविहो, ओए लोमे य पक्खेये ।। सरीरेणोयाहारो, तयाय' फासेण लोमआहारो'। पक्लेवाहारो पुण, कालिको होति नायब्यो ।। ओयाहारा जोपा, सव्वे अपज्जतगा मुणयन्या । पज्जतगा तु लोमे, पक्खेवे होति' भइतवा' ।। एगिदिय'-'देवाणं, नेरझ्याणं च' नस्थि पक्खेवो। सेसाणं 'जीवाणं, संसारत्याण पक्लेवो ॥ एक्कं च दी व समए, तिन्नि व समए मुहत्तमद्धं वा । सादीयमनिहर्ण" वा", कालमणाहारगा जीवा ।। एककं च दो व समए, केवलिपरिवज्जिया अणाहारा । मंम्मि दोणि लोए", य पूरिए तिन्नि समया तु ।। अंतोमहत्तमद्धं, सेलेसीए भवे अणाहारा। सादीयमनिहणं" पुण", सिद्धाणाहारगा८ होति ॥ तेएण" कम्मएणं, आहारेती अणतरं जीवो । तेण परं मिस्सेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्तो"। नाम ठवणपरिणा, दवे भावे य होति नायग्या ।। दवपरिण्णा तिविधा, भावपरिपणा भवे दुविहा।
माहारपरिणाए निरुजुत्ती समत्ता
१७७.
१७८.
१७९.
१. तयाए (स)।
१२. सादिय (स)। २. माहारो (स),
१३. पुण (टी)। ३. आहारगा अपज्जत्ता (स), अप्पजस्तगा० १४. लोक (स)।
१५. मद्धा (स)। ४. य (अ,ब,क,टी)।
१६. सादिगम . (स)। ५. होति (क)।
१७. तु (स)। ६. नामच्या (क,टी)।
१६. सिद्धा यऽणहा (टी), सिवमणा (स)। ७. एपिदी (द)।
१९. जोएण (टी)। .. नारमाणं देवाणं घेव (घ)।
२०. मीसेणं (टी)। ९. पक्खेवो संसारत्याण जीवाणं (द,स,टी)। २१. पक्जत्ती (द)। १०. तिहि (स)।
२२. चूणि में संक्षिप्त व्याख्या होने पर भी गाया ११.५ (टी)।
का संकेत नहीं मिलता।
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--
सूत्रकृमि नियुक्ति १८०, नाम ठवणा दविए, अदिच्छ' पडिसेहए य भावे य ।
एसो पच्चक्खाणस्स, छब्बिहो होति निक्लेवो ।। १८१. मूलगुणेसु य पगयं, पच्चक्खाणे इह अधोगारो। होज्ज हु तप्पच्चइया', 'अप्पच्चक्खाकरिया उ* ॥
पच्चक्षाणफिरियाए निजुत्ती समता नाम ठवणायारे, दस्खे भावे य होति नायवो । एमेव य 'सुत्तस्स वि, चउठिवहो होति निक्खेको । 'आयार-सुतं भणियं, वज्जेयवा सया अणायारा । अबहुसुयस्स 'हु होज्जा', विराहणा एत्थ जतितव्वं ॥ एतस्स उ पडिसेधो, इहमज्झयणम्मि होति नायथ्यो। तो अणगारसुतं ति य, 'होइ नामं तु एतस्स ।।
आयारमुयस्त निन्जुत्ती समता १८५. नामई ठवणई', दव्वई व होति भावई ।
एसो खलु 'अहस्स उ', चम्विहो होति निक्खेवो ।। १८६. उदगई सारई, छवियह वसद्द 'तहा सिलेसई"।
एतं दब्बई खलु, 'भावेण उ'" होति" रागई ।। १८७. एगभविय बद्धाउगे य अभिमुहए" य नामगोत्ते" य ।
एते तिन्नि पगारा,५ दवद्दे होति नायब्वा ।। १८. अहपुरे अद्दसुतो", नामेणं अहगो त्ति अणगारो ।
तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं 'अद्दइज्ज ति ।। १. अदित्य (द)।
९. अहस्सा (अ,द), अद्दम्मि य (स) । २, ०इमं (ब)।
१०. वस्तु तहा सिले (द), खलु वसा सिले (स)। ३. अपच्चक्खाणस्स किरियाओं (दक), ११. भावेणं (टी), भावेण य (अ,ब,स)। किरियासु (स)।
१२. होति (अ,ब)। ४. सुत्तस्सा निस्खे यो चउविहो होति (टी)। १३. मुहिय (क)। ५. आपार के वर्णन हेतु देखें दधनि १५४-६१ १४. गोए (अ,क,टी)। ___ तथा श्रुत के वर्णन हेतु देखें उनि० २९ । १५. वि देसा (अ.स.)। ६. ह होज्ज (टी), होज्जा हु (क)। १६. अईसुमा (क)। ७. नामतो होइ अज्झयणं (स)।
१७. अदओ (टी), अइय (अ) । ८. माम ठवणामहं (अ,ब,टी)।
१८. ०ज्ज त्ति (ब)।
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१८९.
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१९३.
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१९५.
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१९८.
( स. ब) |
काम दुवालसंगं, जिणवयणं सासतं सव्वज्भयणाणि तहा, सखरसन्निवाया
४. वाति ( अ, ब ) |
अज्जद्दएण
जह हरियतावसाणं
गामे बसंतपुरए, सामइओर धरिणिसहितो भिक्खायरिया दिट्ठा, ओभासिय
संवेगसमावन्नो, माई भत्तं चतु चइऊणं अद्दपुरे, अद्दसुओ अद्द पीती य दोहदुओ, पुच्छ्र अभयस्स 'तेण व' सम्मद्दिट्टित्ति, होज्ज पडिमा
५. सामंतिओ (अ) |
६. माय ( स ) । ७. पत्थवे (स) ।
तह वि य कोई अत्थो, उप्पज्जति तम्मि तम्मि समयम्मि । 'पुध्वभणितो अणुमतो'' य, होति इसिभासितेसु जहा || गोसाल - भिक्ख-बंभवती ४ तिदंडीणं । कहिय वोच्छं ।
इणमो तहा
संबुद्धरक्खिओ य आसाण पवइयंतो" धरितो, रज्जं न करेति को
१२
१. ०णाई (ब, टी) |
२. उ ( अ, ब ) १०९ २०० तक की गाथाओं
का संकेत चूर्ण में नहीं मिलता, किन्तु कथानक के रूप में भावार्थ प्राप्त है। ३. भणिओऽणुमओ (अ), भणिओ तु तहाणुमओ
अगतो निक्खतो, विहरति पडिमा 'दारिगा सुवरणवसुधाराम्रो रणो कहणं च
तं नेति पिता तोमे, पुरुछण कहणं न वरण जाणाहि पादनिनं, आगमणं "
कण
पडमागतस्समीचे, सपरीवारा" अभिक्ख 'भोगा सुताण पुच्छण,
१६
निर्युक्तिपंचक
पट्टवे" सो वि । 'रहम्मि गता ॥
महाभागं ।
य े ।।
१५. परित्र ० ( स )
निवखतो ।
भतहासं ॥
वाण पलातो । अन्तो ? ।।
I
दियलोए । जातो ॥
वरिओ" । देवी य ॥
पडिवय" ।
सुतबंध पुणो" य निगमणं ॥
दोबारे । निगमणं ॥
८
तणाव (टी) |
९. रहसगतं ( अ, ब, स क ) । १०. परवाचतो (टी) |
११ दारिंगपतिओ (अ. क ), दारिंग वरियो ( ब द ): १२. सुवण्णव सुहाराओ (टी) |
१३. आगमण ( स ) |
१४. सपरि ० ( स द क ), सप्परी० (टी) |
१६. पुच्छं ( ब ) ।
१७. गोमुले पुच्छण सुरूवं व पुच्छे ( स ) ।
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सूत्रकृतांग निर्मुक्ति
१९९.
२००.
२०१.
२०२.
२०३.
२०४.
२०५.
२०६.
रायगिहागम' चोरा, रायभया कहण तेसि दिक्खा था । 'गोसाल - भिक्खु-बंभीतिदंडिया तावसेहि सह वादो" ॥
यं
वादे पराजियाए', सच्चे वि सरणमभुवगता ते । असहिया सवे, जिणवीरसगासे निता |
न दुक्करं वा नरपासमोयणं, ' गयस्स मत्तस्स वर्णाम्म रायं । जहा 'उवत्तावलिएण'' तंतुणा, 'सुदुक्कर में'", पडिभाति मोयणं ।। अइज्जस्स निम्ती समता नामअलं ठवणलं, दव्बअलं चैव होति भावलं | एसो अलसम्म उ चजबिहो होइ
निखेवो ॥
भवे
पज्जत्तीभावे खलु पढमो बितिओ ततिओ वि य पडिसेहे, अलसद्दो होइ डिसेणगा रस्सा, इणि चेय " रायगिहे " 'नगरम्मि य २ नालंदा
नालंदाय समीवे, मणो रहे" अयणं उदगस्स उ
पुच्छिताइओ
पासाववज्जो सावगपुच्छा धम्मं, सोतुं १६
असो । होति बाहिरिया | 'भासितिभूतिणा । तेणं " नालंदइज्जं ति१७ || नालंदइज्जस्स निवृत्ती समत्ता
१. ०गमण ( अ ) |
१०.
( स ) |
२. हत्थी म तेसि कहणं, जिणवीरसगास निक्ख- ११. ०हिं (द) ।
मणं (अ,ब,द,क) ।
४. रणपास ( अ, ब, स ) ।
६. य वसा लिएण ( स )
७. तं दुषरं जं ( द ) 1
१२. गरम्मी (टीस) । ३. पइसा (टी), पराईयावे ( अ ), ०इयाते ( क ) | १३. मनोहरे (द.क) ।
४. य (स), (ब) ।
५० सदम्मी ( स ) ० सदस्सा ( अ, ब, क ) | ९. उ (टी) ।
अज्जगोतमं उदगो । कहियम्मि उवसंता ॥ सूयगडस निज्जुती समत्ता
अलंकारे ।
नायवो ॥
उ (टी) । १५. य ( स ) | १६. एयं (टीस) ।
१७. तु (घ) ।
१८. सोक ( अ ) ।
३५५
१४. भासियंदभूतीणं ( अ, ब, क ), मासिहंदभूइणा
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१. तीर्थकर, अहंत्, सूत्रकार तथा गणधरों को नमस्कार कर मैं मूत्रकृतांग की नियुक्ति का प्रतिपादन करूंगा।
२. 'सूत्रकृत' यह अंगों में दूसरा अंग है। उसके ये गुणनिष्पन्न नाम है--सूतकृत, सूत्रकृत, सूचाकृत !
३. द्रव्यसूत्र है-कार्पास से उत्पन्न सूत । भावसूत्र है-सूचक ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञानसूत्र चार प्रकार का है--संज्ञासूत्र, संग्रहसूत्र, वृत्तनिबद्ध तथा जातिनिबद्ध । जातिनिबन के चार प्रकार है-कथ्य, गद्य, पद्य तथा गेय आदि ।
४. करण, कारक और कृत--इन तीनों के छह-ग्रह निक्षेप है । कारक शब्द के छह निक्षेप हैंजामकारक, स्थापनाकारक, द्रव्यकारक, क्षेत्रकारक, कालकारक और भावकारक 1 भावकारक जीव है।
५. द्रश्यकरण के दो प्रकार हैं-प्रयोगकरण तथा वित्रसाकरण । प्रयोगकरण दो प्रकार का है--मूलकरण तथा उत्तरकरण । जिस उपस्कर--सहकारी सामग्री से पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है, वह उत्तरकरण है, (जैसे-दंड, चक्र आदि मे वट' की अभिव्यक्ति होती है ।) कर्ता का जो उपकारक है, वह सारा उपस्कर है।
६. औदारिक आदि पांच शारीर मूलकारण हैं । औदारिक, वक्रिय तथा आहारक---इन तीन शरीरों के कर्ण, स्कंध आदि अंगोपांग की निष्पत्ति उत्तरकरण है । औदारिक शरीर की द्रव्येन्द्रियां मूलकरण है । विष, औषधि आदि से उनमें पटुता आदि का निष्पादन करना उत्तरकरण है।
७, अजीवाश्रितकरण के चार प्रकार हैंसंघातकरण-वस्त्र में ताने-बाने के रूप में तन्तुओं का संघात । परिशाटकरण--करपत्र आदि से शंख का निष्पादन 1 मिश्रकरण (संघातपरिणाटकरण)--शकट' आदि । तमयनिषेधकरण स्थूणा-खंभे को ऊंचा-तिरछा निष्पादित करना।
८. द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अभ्र, विद्युत् आदि कारें में परिणत पुद्गल दृष्य विससाकरण है।
९ आकाश के बिना (उत्क्षेप, अवक्षेप अदि) कुछ भी नहीं किया जा सकता। अतः क्षेत्र आकाश है । यही क्षेत्रकरण है । व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से क्षेत्र के इक्षुक्षेत्रकरण', शालिक्षेत्रकरण आदि अनेक भेद होते हैं। १. कथ्य-उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, ऋषि- २. पुरुष की प्रवृत्ति से निष्पन्न ।
भाषित आदि। गद्य आचारांग आदि। पद्य- ३. शकट में कोलिका आदि की संघातना तथा छान्दोनिबद्ध। गेय--स्वर-संचार से गाया लकड़ी को खोलने की परिपाटना होती है। जाने बाला । जैसे-उत्तराध्ययन का आठवां ४, हल आदि से क्षेत्र को संस्कारित करना कापिलीय अध्ययन ।
क्षेत्रकरण है।
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नियुक्तिपंचक १०-१३. (काल का कोई मुख्य करण नहीं होता। उसका औपचारिक करण होता है) जिस क्रिया के लिए जितना काल अपेक्षित होता है, वह उसका कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है । यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है१.बव ५. गर
९. चतुष्पाद २ बालब ६. वणिज
१०. नाग ३. कोलब ७. विष्टि
११. किस्तुघ्न ४. तेत्तिल
६. शकुनि इनमें प्रथम सात अब अर्थात् चल तथा शेष चार ध्रुव हैं । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड' में सदा शकुनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्ध भाग में 'चतुष्पादकरण' और दूसरे अर्धभाग में 'नामकरण' होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अधभाग में विस्तुध्नकरण' होता है। ये चार करण इन तिथियों के साथ निश्चित रहते हैं, इसलिए ये ध्रुवकरण हैं। ___ 'विष्टिकरण' सदा वर्जनीय है।
१४. भावकरण दो प्रकार का है--प्रयोगभावकरण तथा विरसाभामकरण । प्रयोगभावकरण दो प्रकार का है.--मूलकरण तथा उत्तरकरण | उत्तरकरण के चार भेद हैं-ऋमकरण-शरीर की निष्पत्ति के पश्चात् होने वाली बाल्म, योवन आदि अवस्थाएं। श्रुतकरण--भागे से आगे श्रत का परिज्ञान । यौवनकरण-काल कृत अवस्था विशेष | वर्णगंधरसस्पर्शकरण-भोजन आदि में विशिष्ट वर्ण, रस, गन्ध आदि का निष्पादन करना वर्णकरण है।
१५. जो वर्ण, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि दूसरे वर्णादिकों से मिलते हैं वह विनसाकरण है । ये स्थिर भी होते हैं असंख्येय काल तक रहते हैं तथा अस्थिर भी होते हैं जैसे संध्या की लालिमा, इन्द्रधनुष आदि । श्राया, आतप, दूध आदि पुद्गलों के विस्रसापरिणाम से होने वाला परिणाम विरसा भावकरण है। स्तन से निकलने के पश्चात दूध प्रतिक्षण गाहा और अम्ल होता जाता है । यह दूध आदि का विस्रसा मावकरण है।
१६. श्रुत का मूलकरण है--त्रिविध योग तथा शुभ-अशुभ ध्यान । प्रस्तुत में शुभ अध्यबसाम से प्रत स्वसिद्धान्त से युक्त यह ग्रन्थ सूत्रकृत प्रासागक है
१७. (सूत्रकृतांग के रचनाकार को कामिक अवस्था-विशेष का निरूपण) इस सूत्र की रचना गणधरों ने की है । उनके कमों की स्थिति न जघन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मों का अनुभाव-विपाक मंद था । बन्धन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभाव से बंध करते हए, निकाचित तथा निधत्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्घ स्थिति वाली कमप्रकृतियों को अल्प स्थिति वाली करते हुए, बंधने बाली उत्तर प्रकृतियों का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाले कर्मों की उदीरणा करते हुए तथा आयुष्य कम की अनुदीरणा करते हुए, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति आदि कमों की उदयावस्था में वर्तमान, पुवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधरों ने इस सूत्र की रचना की। १. तिथि का आधा कालमान 'करण' कहलाता तक दो करण पूर्ण हो जाते हैं।
है। तिथि के आरम्भ से तिथि की समाप्ति
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
३६१ १८, तीर्थंकरों के मत-मातृकापद को सुनकर गणधरों ने क्षयोपशम तथा शुभ अध्यवसायों से इस सूत्र की रचना की। इसलिए यह सूत्रकृत कहलाया।
१९. तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की । अनेक योगों (लब्धियों) के धारक गणधरों ने अपने बचनयोग से जीव के स्वाभाविव गुण अर्थात् प्राकृतभाषा में उसको निरूपित किया।
२०. अक्षरगुण से मतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों का परिशाटन-इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई, इसलिए यह 'सूत्रकृत' है।'
२१. सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सुत्रित (पिरोए हुए) हैं, कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं। वे सभी अर्थ युक्ति युक्त हैं । आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त वे अर्थ प्रसिद्ध, स्वतः सिद्ध और अनादि
२२. सूत्रकृतांग आगम के दो श्रुसस्कन्ध तथा तेवीस अध्ययन हैं (१६+७) । उसके तेतीस उद्देशन कारन हैं।' इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना है।'
२३. (पहले श्रुतस्कंध का एक नाम है-गाथा षोडशक ।) 'गाथा' के चार निक्षेप हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा 'षोडशक' शब्द के छह निक्षेप है—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । 'श्रुल' तथा 'स्कन्ध' के चार-चार निक्षेप हैं।
२४-२८. प्रथम तस्कंघ क. सोलाइ अायगनों का अधिकार (मिय) इस प्रकार है१. स्वसमय तथा परसमय का निरूपण । २. स्वसमय का बोध । ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना । ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन । ५, उपसगंभीरू तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात | ६. जैसे माहात्मा महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय प्राप्त करने के उपाय
कहे हैं, वैसा प्रयत्न करना।
७. जो मुनि निःशील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्मों की सेवा करता है, वह शीलवान होता है। १. स्वाभाविक्रेन गुणेन--स्वस्मिन् भावे भवः ३. प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों के २६ स्वाभाविक: प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्त उद्देशक इस प्रकार है--पहले अध्ययन के ४, भवति । (सूटी ५. ५)
दूसरे अध्ययन के ३, तीसरे अध्ययन के ४, २, अथवा वाग्थ्योग तथा मनोयोग से यह चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो तथा सूत्र कृत है, इसलिए सूत्रकूत है । अथवा शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशाक यह तस्मश्रुत से भावत का प्रकाशन है। जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों के हैं, वैसे-वैसे कर्म-निर्जरा होती है। जैसे-जैसे सात उद्देशक हैं। कर्म निर्जरा होती है, वैसे-वैसे सूत्र-रचना ४, आचारांग से दुगुना परिभरण अर्थात् छत्तीस का उपम होना है। (सूटी पृ. ५)
हजार पद-परिमाण ।
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३६२
नियुक्तिपत्रक ८. दो प्रकार के वीर्य (बालवीर्य और पंडितबीम) को जानकर पंडितवीर्य में प्रयत्न करना चाहिए।
५ समान मग । १०. समाधि का प्रतिपादन। ११. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का निरूपण ।
१२. चार वादों-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा वनयिकबाद में सभवसृत तत्वों का निराकरण ।
१३. सर्ववादियों के कुमार्ग के निरूपण का प्रतिपादन ।
१४. अन्य नामक अध्ययन में शिष्यों के गुणों तथा दोषों का कथन तथा नित्य गुरुकुलवास में रहने का उपदेश।
१५. 'आदानीय' अध्ययन में पूर्व उपन्यस्त आदानीय पद का संकलन तथा सम्यक् चारित्र का वर्णन ।
१६. पूर्वोक्त अध्ययनों में अभिहित सभी अर्थों का संक्षिप्त कथन ।
प्रथम अध्ययन : समय
२९-३१. पहले अध्ययन के चार उद्देशक हैं । पहले उद्देशक के छह अधिकार है-१. पंच महाभूतों का वर्णन, २. एकात्मवाद (आत्मा-अद्वैतवाद), ३. तज्जीव-तच्छरीरसाद, ४. अकारकवाद, ५. आत्मषष्ठवाद, ६. अफलवाद । दूसरे उद्देशक के चार अर्थाधिकार है...-१. नियतिवाद, २. अज्ञानवाद, ३. ज्ञानवाद, ४. भिक्षुसमय अर्थात् शाक्य आगम में चारों प्रकार के कर्मों का उपचय नहीं होता, इसका प्रतिपादन । तीसरे उद्देशक में दो अर्थाधिकार है--१. आधाकर्म तथा २. कृतवादियों के बाद का प्रतिपादन । चौथे उद्देशक बा अर्थाधिकार है-अविरत अर्थात् गृहस्थों के कृत्यों से परतीथिकों को उपमित करना।
३२. 'समय' शब्द के बारह निक्षेप है :--- १. नाम समय ५. कान समय
९. गण समय २. स्थापना समय ६. कुतीयं समय
१०. संकर समय ३. द्रव्य समय ७.संगार समय
११. गंडी समय ४. क्षेत्र समय ८. कुल समय
१२. भाव समय ३३. पृथ्वी आदि पांचों भूत अलग-अलग गुण वाले हैं। उनके संयोग से चेतना, भाषा, संक्रमण आदि गुण उत्पन्न नहीं होते । पांच इन्द्रियों के पांच स्थान अथवा पांच उपादान कारण भी अचेतन हैं। उनके समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इन्द्रियां प्रत्येक भूतात्मक हैं। एक का जाना हुआ दूसरी नहीं मान सकती। (इनमें संकलनात्मक प्रत्यय नहीं होता ।)
१. स्थानानि----अवकाशाः । स्थानानि-उपादान कारणानि।
(सूटी पृ ११) इन्द्रियों के स्थान-उपादामकारण इस प्रकार
हैं--श्रोथेन्द्रिय का आकाश, घ्राणेन्द्रिय का पृथ्वी, चक्षुइन्द्रिय का तेजस्, रसनेन्द्रिय का पानी, स्पानेन्द्रिम का वायु ।
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सूनाताग नियुक्ति
३४. अकृत का वेदन कौन करता है ? (यदि अकृत का वेदन हो तो) कुतनाम की बाधा आएगी। पांच प्रकार की गति-नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव तथा मोक्ष-भी नहीं होगी। देव या मनुष्य आदि में गति-आगति भो नहीं होगी। जातिस्मरण आदि क्रिया का भी अभाव होगा।
३.. अफलाच, स्तोककसत्व तथा मनिश्चितकालफलत्व--ये अदुम (वृक्ष का अभाव) के साधक हेतु नहीं है। अदुग्ध या स्तोकदुग्ध भी गोत्व का अभाव साधने वाले हेतु नहीं है। (इसी प्रकार सुप्त, मूच्छित अदि अवस्था में कथंचित निस्क्रिय होने पर भी मारा को शुक्रिय नहीं कड़ा जा सकता। दूसरा अध्ययन : बैतालोय
३६,३७. दूसरे अध्ययन के तीन उद्देशकों का अधिकार इस प्रकार है प्रथम उद्देशक में संबोधि वथा अनित्यत्व का कथन है। दूसरे उद्देशक में मान-वर्जन तथा अनेक प्रकार के अन्यान्य बहुविध विषय हैं। तीसरे उद्देशक में अज्ञान से उपचित कमों के अपचय का तथा यतिजनों के लिए सदा सुखप्रमाद के वर्जन का प्रतिपादन है ।
३८, प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'विदारक' है। (यह क्रियापदवाचक नाम है। क्रियापद के सर्वत्र तीन घटक होते हैं-कर्ता, करण और कर्म) । इसके आधार पर विदारक, विदारण और विदारणीय-ये तीन घटक बनते हैं। इन तीनों के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-न्ये चार-चार निक्षेप है। द्रव्यविदारक बह है, जो काष्ठ आदि का विदारण करता है। भावविदारक है वह जीव, जो कर्मों का विदारण करता है।
३९. द्रष्य विदारण है परशु आदि । भाव विदारण है-~दर्शन, ज्ञान, तप और संयम (क्योंकि इनमें ही कर्म-विदारण का सामर्थ्य है1) द्रव्य विदारणीय है-काठ आदि तथा भाव विदारणीय है--आठ प्रकार का कर्म ।
४०. प्रस्तुत अध्ययन में कमों के विदारण का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'विदारक' है । यह बैतालीय छन्द में निबद्ध है, इसलिए इसका अपर नाम वैतालीय है।
४१. यह अभ्युपगम है कि सारे आगम शाश्वत हैं और उनके अध्ययन भी शाश्वत हैं। फिर भी ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर अपने अट्ठान पुत्रों को संबोधित कर इस अध्ययन का प्रतिपादन किया । इसको सुनकर वे सभी पुत्र भगवान के पास प्राजित हो गए।'
४२. द्रव्यनिद्रा है-निद्रादेद-निद्रा का अनुभव 1 भावनिद्रा है-शान, दर्शन, चारित्र की शून्यता । द्रध्यबोध है-व्यनिद्रा में सोए व्यक्ति को जगाना। भावबोध है-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयम का भावबोध । प्रस्तुत में बोध-ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्र का प्रसंग है । १. भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर अवस्थित के प्रतिपादक प्रस्तुत अध्ययन को सुनाया। थे। चक्रवती भरत द्वारा उपहत अट्ठान पुत्र सब विषयों के कटु विपाक तथा ऋषभ के पास आए और भगवान् से बोले-~- नि:सारता को जान, मत्त हाथी के कर्ण की भंते ! भरत हमें आज्ञा मानने के लिए बाध्य भाति चपल आयु तया गिरिनदी के वेग की कर रहा है। हमें अब क्या करना चाहिए? सरह यौवन को जान, भगवष् आशा ही भगवान् ने अंगारदाहक के दृष्टान्त के माध्यम श्रेयस्करी है, ऐसी अवधारणा कर वे सभी से बताया कि भोगेच्छा कभी शांत नहीं होती। पुत्र भगवान् के पास दीक्षित हो गए। बह आगे से आगे बढ़ती जाती है । इस अर्थ
(सूटी. पृ. ३६)
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३६४
निर्मुक्तिक
४३. महर्षियों ने अपने आत्म- उन्नयन के लिए जप, तप, संयम और ज्ञान में होने वाले मान को भी त्याग दिया है, तो भला आत्मोत्कर्ष हेतु दूसरों की निन्दा के त्याग की तो बात ही क्या है ? ४४. मदों का मंथन करने वाले अहतों ने निर्जरामद का भी प्रतिषेध किया है, इसलिए अवशिष्ट सभी मदस्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए ।
तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिक्षा
४५,४६. इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रतिलोम तथा दूसरे उद्देशक में अनुलोम उपसर्गं प्रतिपादित हैं। तीसरे उद्देशक में अध्यात्म का विशेष उपदर्शन तथा परवादिवचन का निरूपण है। चौथे उद्देशक में हेतु सदृश अहेतुओं के द्वारा जो अन्यतीर्थिकों से व्युद्ग्राहितप्रताड़ित हैं, उन शील-स्वलित व्यक्तियों की प्रज्ञापना है ।
४७. उपसर्ग शब्द के नाम स्थापना आदि छह निक्षेप हैं। द्रभ्य उपसर्ग के दो प्रकार हैं ---चेतनकृत तथा अवेतन कृत । जो आगन्तुक उपसर्ग हैं, वह (शरीर तथा संयम का ) पीड़ाकारी होता है ।
४८. जिस क्षेत्र में सामान्यत: अनेक भयस्थान होते हैं, (जैसे― चोर, क्रूर व्याधि तथा देश) है। उपसर्ग एकान्त दुष्षमाकाल आदि । कर्मों का उदय भाव उपसर्ग है । वह दो प्रकार का है---औधिक तथा औपक्रमिक ।
४९. ऋमिक उपसर्ग संयम - विघातकारी होता है । द्रव्य कोपॠमिक उपसर्ग चार प्रकार का है - दैविक, मानुषिक, तैर्यश्चिक तथा आत्मसंवेदन प्रस्तुत में ओपक्रमिक उपसर्ग का प्रसंग है ।
५० प्रत्येक के बार-बार प्रकार हैं। दैविक आदि चार प्रकार के अनुकूल तथा प्रतिकूल के भेद से आठ भेद होते है । दैविक यादि चार भेदों के चार-चार प्रकार करने से ४ x ४ सोलह भेद होते हैं। इन उपगों का संबंध होना तथा उनको सहने के प्रति यतना रखना- यह इस अध्ययन में प्रतिपादित है। यही इसका अर्वाधिकार है ।
५१. कोई पुरुष मंडलाय से किसी मनुष्य का शिरछेद कर पराङमुख होकर बैठ तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा ?
जाए
५२. कोई व्यक्ति विष का घूंट पीकर चुपचाप बैठ जाए और वह किसी के दृग्गोचर भी न तो क्या वह उस विष के प्रभाव से नहीं मरेगा ?
५३. कोई व्यक्ति भांडागार से रत्नों को चूराकर उदासीन होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा ?
१. आदि शब्द से जो जिस क्षेत्र में दुःखोत्पादका हो ( ग्रीष्म, शीत आदि) ।
२. औषिक - - अशुभ कर्म प्रकृति से उत्पन्न reale | औपक्रमिक — दण्ड, शस्त्र आदि द्वारा सावेदनीय का उदय होना । ३. दैविक हास्य से, प्रद्वेष से विमर्श से तथा पृपय् विमात्रा से । मानुषिक हास्य से,
प्रवेष से विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना से । संयश्चिक – भय से प्रद्वेष से आहार से तथा संतान-संरक्षण से । आत्मसंवेदन --- घट्टना से संश्लेष से, स्तंभन से तथा गिरने से । अथवा वात, पित्त, कफ तथा सन्निपात से उत्पन्न । ( सूट वृ. ५२ )
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
३६५ चौथा अध्ययन : स्त्री-परिक्षा
५४. चौधे अध्ययन के दो उद्देशक हैं । पहले उद्देशक का प्रतिपाद्य है—स्त्रियों के साथ संस्तव तथा संलाप करने से शील की स्खलना होती है। दूसरे उद्देशक में स्खलित व्यक्ति की इसी जन्म में होने वाली अवस्था तथा कर्मबंधन का प्रतिपादन है।
५५. स्त्री शब्द के ये पांच निक्षेप है--
(१) द्रव्यस्त्री। (२) अमिलापस्त्री-स्त्रीलिंगी शब्द, जैसे--सिद्धि, शाला, माला आदि । (३) चिह्नस्त्री-चिह्नमात्र से जो स्त्री होती हैं। चिह्न है--स्तन, वेश आदि ।
अथवा जो स्त्रीवेद से शून्य हो गया है वैमा छमस्थ, केवली अथवा अन्य कोई
स्त्री वेशधारी व्यक्ति। (४) वेवस्त्री-पुरुषाभिलाष रूप स्त्रीवेदोदय ।
(५) भाबस्त्री-स्त्रीवेद का अनुभव करने वाली। ५६. पुरुष शब्द के दस निक्षेप है(१) नामपुरुष-नाम का अर्थ है--संज्ञा । जो पदार्थ पुल्लिग है----घट, पट आदि ।
अथवा जिसका नाम पुरुष हो । (२) स्थापनापुरुष-प्रतिमा आदि । (३) द्रव्यपुरुष । (४) क्षेत्रपुरुष-तद्त क्षेत्र में होने वाला पुरुष---सोराष्ट्रिक शादि। (५) कालपुरुष–जितने काल तक पुरुष वेद वेद्य कर्मों का वेदन करता है। (६) प्रजननपुरुष प्रजनन का अर्थ है-शिश्न-लिंग । लिंग प्रधान पुरुष । (७) कर्मपुरुष-कर्मकर गादि। (4) भोगपुरुष-- चक्रवती आदि । (९) गुणपुरुष-पराक्रम, धैर्य आदि गुणयुक्त पुरुष ।
(१०) भावपुरुष-पंवेद के उदय का अनुभव करने वाला।
५७. अभयकुमार, प्रद्योत, कलबाल आदि अनेक पुरुष अपने आपको शूर मानते थे । वे भी कृत्रिम प्रेम दिखाने में समर्थ तथा मायाप्रघान स्त्रियों के वशीभूत हो गए।
५६. स्त्री-संसर्ग से होने वाले दोषों का जो वर्णन प्रथम उद्देशक में है, दूसरे उद्देशक में भी उनकी पर्यालोचना कर स्त्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए इसका प्रतिपादन है।
५९. भुसमर्थ व्यक्ति भी स्त्रियों के चशीभूत होकर असमर्थ और अल्पसत्त्व वाले हो जाते हैं । यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि अपने बापको शूर मानने वाले पुरुष नारी के वशीभूत होने पर शूर नहीं रहते।
१. देखें परि. ६ कथा सं. १-३। अभयकुमार
स्वयं को बहुत बुद्धिमान मानता था।
चंठप्रद्योत को अपने पराक्रम पर गर्व था और कूलवाल को तपस्वी होने का अहं था।'
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नियुक्तिपंचक ६०. धर्म में जो दृहमति वाला होता है, वहीं शूर है, सात्त्विक है और वीर है। धर्म के प्रति निरुत्साही व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली होने पर भी शूर नहीं होता।
६१. स्त्री-संसर्ग से होने वाले जो दोष पुरुषों के लिए कहे गए हैं, वे ही दोष पुरुष-संसर्ग से स्त्रियों के लिए कथित हैं । इसलिए, विरागमार्ग में प्रवृत्त स्त्रियों के लिए अप्रमाद ही श्रेयस्कर
पांचवा अध्ययन : नरक-विभक्ति
६२,६३. नरक शब्द के छह निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यनरक--जो इसी जन्म में पापकारी प्रवृत्तियों में संलग्न हैं, वे अथवा नरक सदृश
यातना के स्थान । क्षेत्रनरक-काल, महाकाल आदि नरकावास । कालनरक-नारकों की काल स्थिति । भावनरक---जो जीव नरकायुष्क का अनुभव करते है अथवा नरक प्रायोग्य कर्मोदय ।
नरक के दुःखों को सुनकर तरश्चरण-संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील रहना चाहिए। ६४. विभक्ति शब्द के छह निक्षेप है-नाम, पिना, कान
६५. नारकीय प्राणी नरकावासों में तीन वेदना को उत्पन्न करने वाले पृथ्वी के स्पर्श का अनुभव करते हैं । वह वेदना दूसरों के द्वारा अचिकित्स्य होती है। पहले तीन नरकवासों में अत्राण नैरमिक परमाधार्मिक देवों द्वारा कृत वध-हनन का अनुभव करते हैं। शेष चार नरकावासों में नरयिक क्षेत्र-विपाकी और परस्पर उदीरित वेदना का अनुभव करते हैं। ६६,६७. पन्द्रह परमाधार्मिक' देवों के नाम इस प्रकार हैं--- (१) अंब (६) उपरौद्र
(११) कुम्भी (२) अम्बरिसी (७) काल
(१२) वालुका (३) श्याम
(१३) वैतरणी (४) शमल (९) असि
(१४) खरस्वर (५) रोद्र
(१०) असिपरधनु (१५) महाघोष । ६८. अंग परमाधामिक देव नैरयिकों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर दौड़ाते हैं, इधरउधर घुमाते हैं, उनका हनन करते हैं, शूलों में पिरोते हैं, गला पकड़कर भूमि पर औंधे मुंह पटकते हैं, आकाश में उछालकर नीचे गिराते हैं।
६९. मुद्गरों से आहत, खड्ग आदि से उपहत तथा मूच्छित नारकियों को अबरिषी परमाधामिक देव करवत से चीरकर या टुकड़े-टुकड़े कर छिन्न-भिन्न करते हैं।
७०. श्याम परमाधार्मिक देव तीव्र असातावेदनीय कर्म का अनुभव करने वाले नारकियों के अंगोपांग का छेधन करते हैं, पहाड़ से नीचे बचभूमि में गिराते हैं, शूल में पिरोकर व्यथित १. पवनपति देवों में अत्यंत अधम देवों को सुराधविशेषाः परमाधार्मिकाः । परमाधार्मिक देव.कहा जाता है-भवनपल्य
• (सूटी. पृ.८३)
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सूत्रकृतांग नियुक्ति करते हैं, रज्जु से बांधते हैं, लता आदि के प्रहारों से नाडित करते हैं। इस प्रकार की बहुविध प्रवृत्तियों करते हैं।
७१. शबल परमाधामिक देव पापी नैरयिकों की आंतों के "फिल्फिस' (मांस विशेष) को. इदय को. कलेजे को तथा फेफडे को बाहर निकाल देते है तथा चमी उधेड कर उन्हें कष्ट
७२. रोद्रकर्मकारी रौद्र नरकपाल नैरयिकों को विविध प्रकार के शस्त्रों-असि, शक्ति (सांग, तलवार), भाला, तोमर--भाने का एक प्रकार, शूल. त्रिशूल, सूई आदि में पिरोते
७३. पापकर्म में रत उपरोद्र नरकपाल नरयित्रों के अंग और उपांगों को तथा शिर, ऊस, बाहु, हाथ तथा पैरों को मरोड़ते हैं, तोड़ते हैं और करवत से उनको चीर डालते हैं ।
७४, काल नरकपाल मीराओं-दीर्घ धल्लिकाओं, शुंठिकाओं-भाजन विशेषों, कन्युकाओं, प्रचंडकों में तीन ताप से नारकीय जीवों को पकाते हैं तथा कुम्भी-ऊंट की आकृति वाले वर्तन और लोहे की काहियों में उनको रचकर (जीवित मछलियों की भांति) भूजते हैं।
७५. पापकर्म में निरत महाकाल नरकपाल नरयिकों के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं तथा उनको स्वयं का मांस खिलाते हैं।
७६. असि नामक नरकपाल नारकों के हाथ, पैर, करू, बाहु, सिर, पावं आदि अंगप्रत्यंगों के अत्यधिक टुकड़े करते है।' . .
७७. असिपत्रधनु नामक नरकपात नारक जीवों के कर्ण, ओष्ठ, मासिका, हाथ, चरण, दांत, स्तन, नितम्ब, ऊरू तथा बाहु का छेदन-भेदन और शाटन करते हैं।"
७८. कुम्भ (भी)---नामक नरकपाल नारकों ना हनन करते हैं तथा उमको फुम्मियों में, कलाहों में, लोहियों में- मोह के भाजन विशेष में तथा कन्दुलोहिकुंभियों--लोहमय पात्र-विशेष में पकाते हैं।
७९. बालुका नरकपाल नारकों को सफा बालुमा से भरे हुए बर्तन में 'तहतक' की आवाज करते हुए चनों की भांति भूनते हैं तथा कदम्ब पूष्प की आकृति वाले वर्तन के उपरितन में उन नारकों को गिरा कर आकाश में उछालते हैं। १. कागिणीमंसगाणि--छोटे-छोटे मांसखंश। दसवें का नाम 'असिपत्रधनु' है। (काकिणीमांसकानि---एक्षणमासबण्डानि--- ४. ये देव असिपत्र नामक वन की विकुणा सूटी. पृ.८४)।
करते हैं। नारकीय जीव छाया के लोभ से २. सीहपुग्छाणि--पीठ की चमठी (सीहपुच्छा- उन वृक्षों के नीचे आकर विश्राम करते हैं।
नित्ति--पृष्ठीयस्ता -सूटी पृ. ८४)। तब हवा के झोंकों से असिघारा की भांति ३. समवाबो में नौवें परमाघार्मिक का नाम तीखे पत्ते उन पर पड़ते हैं और वे घिद जाते 'असिपत्र' और इसमें का नाम 'धणु' है । सूनि है। (सूटी. पृ. ८४) में नाचें परमाधार्मिक का नाम 'असि' तया
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नियुक्तिपंचक
२०. वैतरणी नरकपाल नारकों को वैतरणी नदी में बहाते हैं। वह नदी पीब, मधिर, केश और हष्ठियों से भरी रहती है। उसमें खारा-गरम पानी बहता है। वह कलकलायमान जलबाली महाभयानक नदी होती है।
८१. खरस्वर परमाधार्मिक देव नारको शरीर को करक्तों से चीरते है तथा नारकों को परशुओं मे परस्पर छीलने के लिए प्रताड़ित करने हैं। थे उनको (वनमय भीषण कंटकों से समाकीर्ण) शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिए मजबूर करते हैं।
२. जैसे पशुवध के समय पशु भयभीत होकर दौड़ते हैं तब नधक उनको वहीं रोक लेते हैं वैसे ही भयभीत होकर पलायन करने वाले नारकों को महाघोष नरकपाल चारों और से घेर कर वहीं रोक लेते हैं। पश्ययन ; नाराबोर सानि.
८३. महत् पाद प्राधान्य अर्थ में है। इसके छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।' वीर शब्द के चार निक्षेप हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव' ।
४. 'स्तुति' शब्द के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । आगन्तुक की स्तवना, कटक, केयूर, चन्दन, माला आदि भूषणों से की जाने वाली स्तवना द्रव्यस्तुति है। विद्यमान गुणों का कीर्तन करना भावस्तुति है।
८५. जम्मू ने आर्य सुधर्मा से भगवान् महावीर के गुणों के विषय में पूछा तब आर्य सुधर्मा ने महावीर के गुण बताए और कहा- . महात्मा महावीर ने जिस प्रकार संसार पर विजय प्राप्त की तुम भी उसी प्रकार प्रयत्न करो । सातवां अध्ययन : कुशोलपरिभाषित
६६. 'शील' शम के वार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्यशील-फलनिरपेक्ष होकर आदतन उन-उन क्रियाओं में प्रवर्तन करना, जमे-प्रावरण का प्रयोजन न होने पर १. महावीरस्तव इत्यत्र यो महन्छन्दः स प्राधान्ये प्रधान होता है। वर्तमानो गृहीतः । (मुटी. पृ९५)
३. १. द्रव्यवीर-संग्राम में श्रर अथवा वीर्यवान २. द्रव्यमहत्-यह सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्य । नीयंकर, चक्रवती आदि का बल तीन प्रकार का होता है 1 सचित्त में तीर्थकर, अथवा विष आदि द्रव्यों का सामथ्र्य । अधिस में बेडयं आदि मणि तथा मिश्र में २. क्षेत्रवीर-जो जिस क्षेत्र में असाधारण अलंकृत विभूषित तीर्थकर 1
काम करने वाला है वह तथा जो जिस क्षेत्र क्षेत्रमहत्-सिद्धिक्षेत्र । धर्माचरण की अपेक्षा । में बीर माना जाता है। से महाविदेह तथा मुखों की दृष्टि से देवकुरु ३. कालवीर-जिस काल में जो चीर होता आदि क्षेत्र प्रधान होते हैं।
है। वह । कालमहत्-काल की दृष्टि से एकान्त सुषमा ४. भाववीर-क्षायिक वीयं सम्पन्न व्यक्ति आदि काल प्रधान होता है।
जो कषायों एवं उपसगों से अपराजिस होता भावमहत-पांचों भावों में क्षायिकभाष
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सूत्रकृतांग निर्मुक्ति भी प्रावरण स्वभाव वाला होना प्रावरणशील है। इसी प्रकार आभरणशील तथा भोजनशील होते हैं।
अथवा जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वह द्रव्यशील है।
भावशील के दो प्रकार है-ओषशील तथा आभीक्ष्यसेवनापील अर्थात अनवरतसेवनाशील ।
E७. ओघशील-ओष का अर्थ है सामान्य । जो सावध योग से विरत अथवा विरतअविरत है, वह ओपशीलवान है । जो अविरत है, यह अशीलवान् है। जो निरन्तर या बार-बार शील का आचरण करता है, वह आभीक्ष्ण्यसेवनाशील है। उसके दो प्रकार है-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावशील है-धर्म विषयक प्रवृत्ति, अनवरत अपुर्व ज्ञानार्जन करना तथा विशिष्ट तपस्या करना । अप्रशस्तभावशील है-अधर्म तथा क्रोध आदि में प्रवृत्ति करना । आदि शब्द से अवशिष्ट कषाय तथा चोरी, अभ्याख्यान, कलह आदि गहीत हैं।
८८. प्रस्तुत अध्ययन में कुशील अर्थात् परतोषिको का तथा जो कोई अविरत है, उनका प्रतिपादन है । 'सु' यह प्रभासा और शुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे—सुराष्ट्र । 'कु' दुगुंछा तथा अशुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे—कुराज्य ।
६९. जो अप्रासुक प्रतिसेवी होते हैं, वे धृष्टता से अपने आपको शीलवादी कहते हैं। यथार्थ में जो प्रासुकसेषी होते हैं, वे शीलवादी होते हैं । जो अप्रासक का उपभोग नहीं करते. वे शीलवादी
९०. जो गौतम-गोवतिक' हैं, जो रंडदेवता'-यत्र-तत्र वर देने वाले अथवा हाथ में चक्र रखने वाले हैं, जो वारिभद्रक--सेवाल बाने वाले अथवा शौचवादी हैं, जो अग्निहोत्रवादी- अग्नि से ही स्वर्गगमन की इच्छा रखने वाले तथा जलशौचवादी' --भागवत परिव्राजक आदि हैं-ये सारे अप्रासुकभोजी होने के कारण कुशील हैं। गाथा में 'च' शब्द से स्वयूथिक पार्श्वस्थ आदि गृहीत
आव्यो अध्ययन : बोयं
९१. 'वीर्य" शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । तव्य वीमं तीन प्रकार का है-सचित्त, अचित्त और मिश्र ।
सचित्त द्रव्यवीर्य के तीन भेद हैं - १. द्विपद-आर्हत्, उक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य अथवा स्त्रीरत्न का बीयं अथवा जिस
द्रव्य का जो वीर्य हो वह । १. गौनतिक मशकजातीय धर्मसम्प्रदाय के मोक्ष की स्थापना करते थे। वे बार-बार
संन्यासी होते हैं । वै प्रशिक्षित लघु बैल को हाथ पैर धोने, स्नान करने में रत रहते थे । सेकर भिक्षा के लिए घर-घर घूमने वाले वे जल से बाह्य शुद्धि के साथ आंतरिक शुद्धि होते हैं।
भी मानते थे। २. टीकाकार ने 'चंडदेवगा' पाठ स्वीकृत किया ४ 'वीर्य' विषयक विशेष जानकारी के लिए
देखें-सूयगडो १, आठवें अध्ययन का ३. जलशोचवादी सचित्त जल के उपयोग में आमुख ।
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निर्मुक्तिपंचक
२. चतुष्पद - अश्वरत्न, हस्तिरत्न का वीर्य अथवा सिंह, व्याघ्र, शरभ आदि का बीर्य अथवा वहन करने, दौडने आदि का वीर्यं ।
३. अपद -गोशीचन्दन आदि का शीत-उष्णकाल में उष्ण-शीतवीयं परिणाम ।
९२,९३. अचित्त व्यवीर्य के तीन प्रकार है-आहारवीर्य, आवरणवीर्यं तथा प्रहरणवीयं । (औषधि की शस्योद्धरण, व्रण-संरोहण, विषापनयन, मेधाकरण आदि जो शक्तिया है- वह रसवीयं है ।) विपाकवीर्य के विषय में आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों में जो वर्णन है, वह यहां ग्राह्य है । आहार की शक्ति, जैसे- सद्यः बनाए हुए 'घेवर' प्राणकारी, हृद्य तथा कफ का नाश करने वाले होते हैं ।
आहारवी
• आवरणवीयं -- कवच आदि के शस्त्र प्रहार को फैलने की शक्ति |
प्रहरणवीर्य आदि शस्त्रों की प्रहार-शक्ति |
क्षेत्रवीर्य क्षेत्रगत शक्ति, जैसे— देवकुरु, उत्तरकुरु आदि क्षेत्र में उत्पन्न सभी द्रव्य
उत्कृष्ट शक्ति वाले होते हैं । अथवा दुर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्र में अत्यधिक उल्लसित होता है, वह अथवा जिस क्षेत्र में वीर्य की जाती है, वह क्षेत्रवीर्य है ।
जिसका वीर्य व्याख्या की
कालवीयं – एकान्त सुषमा आदि काल में अथवा विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति ।
O
D
९४, ९५. भाववीर्य - वीर्यशक्ति से युक्त जीव में वीर्य विषयक अनेक प्रकार को लब्धियां होती हैं। उनके मुख्य तीन प्रकार है- औरस्यबल – शारीरिक बल इन्द्रिय बल तथा आध्यात्मिक बल । ये तीनों बल बहुत प्रकार के होते हैं।
1
१. शारीरिक बल के अन्तर्गत मनोवीयं, बावीर्यं कायवीर्य तथा आनापान वीर्य का समावेश होता है । यह वीर्य दो प्रकार का है— संभव मोर संभाव्य ।
२. इन्द्रिय बल - -श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय के ग्रहण का सामर्थ्य | इसके भी दो भेद हैं- संभव और संभाव्य ।
१. ( क ) वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुरुश्चान्ते ॥ (ख) ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसंन्प्रवयुता मेघावनखेऽम्बरे,
तुल्या शर्करया शरमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । ferrer शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां,
( सुटीपृ. १११ )
अत्यन्त पटु होता है । दे अनुत्तरोपपातिक देवों का
पुंसा प्राप्य हरीतकी मिव गदा, नश्यन्तु ले शत्रवः ॥ २. संभव, जैसे - तीर्थंकर और अनुत्तरोपपातिक देवों के मनोद्रव्य तथा मनः पर्यवज्ञानी प्रश्नों का उत्तर द्रच्य मन से ही देते हैं।
सारा व्यवहार मन से होता है ।
संभाव्य, जैसे- जो आज ग्रहण करने में पढ़ नहीं है, उसकी बुद्धि का परिकर्म होने पर बहु ग्रहण-पट हो जाता है ।
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
२६. आध्यात्मिक बल के अनेक प्रकार हैं
. उद्यम-शान आदि के अनुष्ठान में उत्साह । ० अति-संयम में स्थिरता, चित्त का समाधान ।
धीरत्व कष्टों में अक्षुब्धता। ० शौण्डीर्य-त्याग करने का उत्कट सामथ्यं, जैसे चक्रवर्ती का मन अपने षट्खंड राज्य
को छोड़ते समय भी नहीं पता। आपदाओं में अविषण्णता । • क्षमा-दूसरों पर क्षुब्ध न होने का सामर्थ्य । • गांभीर्य-परीषहों तथा उपसगों को सहने में अधुष्टता अथवा अपने चमत्कारी
अनुष्ठान में भी अहंकारशून्यता । - उपयोग-आठ प्रकार के साकार उपयोग तथा चार प्रकार के अनाकार उपयोग से
युक्त। • योग-मनोवीर्य, वचनवीर्य तथा कायवीर्य से युक्त । ० तप-न्यारह प्रकार के तपोनुष्ठान को अग्लानभाब से करना ।
. संयम--सतरह प्रकार के संयम में प्रवृत्ति ।' ९७ सारा भाववीयं तीन प्रकार का है-पंडितवीर्य, बालवीर्य तथा बाल-पंडितवीर्य । अथवा वीर्य के दो प्रकार हैं-अगारवीर्य तथा अनगारवीयं ।
९८, (चौथे श्लोक के अन्तर्गत आए 'सत्थ (शस्त्र)' पद की व्याख्या) पास्त्र--खड्ग आदि प्रहरण । इसी प्रकार विद्याधिष्ठित, मंत्राधिष्ठित तथा दिव्य क्रियानिष्पादित-ये भी शस्त्र हैं। ये पांच प्रकार के हैं—पाथिय, वारुण, आग्नेय, वायव्य तथा मिश्र । नौवां अध्ययन : धर्म
९९. धर्म का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। प्रस्तुत में भावधर्म का प्रसंग है। यही भावधर्म है और यही भावसमाधि तथा समाधिमार्ग है।
१७०. धर्म के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रश्य और भाव । द्रव्यधर्म के तीन प्रकार है सचित्त, अचित्त और मिश्र । गृहस्थों का कुलघमं, ग्रामघर्म तथा जो सनका दानधर्म है, वह द्रव्यधर्म है।
१.१. भावधम दो प्रकार का है लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है-गृहस्थों का तथा अन्यतीथिकों का । लोकोत्तर धर्म के तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । ये तीनों पांच-पांच प्रकार के हैं।'
१. विद्याप्रवादपूर्व में अनन्त प्रकार के बीर्यों का वर्णन है । उसमें केवल वीर्य का ही प्रति
पादन है। २. देखें-दशनिगा ३६-४० । ३. ज्ञान के पांच प्रकार-मति, श्रुत, अवधि,
मनःपर्यव तथा केवल ।
दर्शन के पांच प्रकार-औपमिक, सास्वादन, क्षायोपसमिक, वेदक और क्षामिक । चारित्र के पांच प्रकार सामायिक. छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात ।
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नियुक्तिपंचक
१०२. मुनि के लिए पावस्थ, अवसन्न तथा कुशील मुनियों के साथ संस्तव करना उचित नहीं होता। इसलिए सूत्रकृतांग में इस 'धर्म' नामक अध्ययन में धर्म का नियमन किया है, उसकी सीमाओं का निर्धारण किया है।
बसवां अध्ययन : समाधि
१०३. आदानपद (प्रथम पद) के आधार पर इस अध्ययन का नाम है-आघ । इसका गुणनिष्पन्न नाम है-समाघि । इस अध्ययन में 'समाधि' शब्द के निक्षेप प्रस्तुत कर भाव समाधि का प्रतिपादन किया है।
१०४. 'समाधि' शब्द के छह निक्षेप है नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१०५.१०६. द्रव्यमाधि-इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में तत्-तत् विषय की प्राप्ति से उसउस इन्द्रिय की जो तुष्टि होती है, वह द्रव्यसमाधि है । जिस क्षेत्र में समाधि उत्पन्न होती है, वह क्षेत्रसमाधि है । जिस काल में समाधि प्राप्त होती है, वह कालसमाधि है। भारसमाधि के चार प्रकार हैं:-दर्शन समाधि, ज्ञान समाधि, तप: समाधि और चारित्र समाधि ।' जो चतुर्विध भावसमाधि में समाधिस्थ है, वही मुनि सम्यक् चारित्र में व्यवस्थित है। अथवा जो सम्धचरण में व्यवस्थित है, वहीं चारों प्रकार की भावसमाधि में समाहित होता है । ग्यारहवां अध्ययन : मार्ग
१०७. मार्ग शब्द के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव । १०८. द्रव्यमार्ग के चौदह प्रकार हैं१. फलकमार्ग ५. रज्जुमार्ग
९. कीलकमार्ग, २. लतामार्ग
६. दवनमार्ग
१०. अजमार्ग, ३. आंदोलन मार्ग
७. रिलमार्ग
११. पक्षिमार्ग, ४. वेत्रमार्ग
. पाशमार्ग
१२. छत्रमार्ग
१. शान समाधि-जैसे-जैसे व्यक्ति श्रुत का
अध्ययन करता है, वैसे-वैसे अत्यन्त समाधि उत्पन्न होती है।
ज्ञानार्जन में उद्यत व्यक्ति कष्ट को भुल जाता है। नये-नमे शेयों की उपलब्धि होने पर उसका जो समाधान होता है, वह अनिर्वचनीय होता है। दर्शन समाधि -- जिन-प्रवचन में जिसकी बुद्धि श्रद्धाशील हो जाती है, उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता। उसकी स्थिति पवनशून्य गृह में स्थित दीपक की भांति
निष्कम्प हो जाती है। चारित्र समाधि-चारित्र समाधि की निष्पत्ति है-विषय सुखों से परामुखता । अकिंचन होने पर भी चरित्रवान् साधु परमसमाधि का अनुभव करता है। तपः समाधि- इससे साधक विकृष्ट तप करता हुआ भी खिन्न नहीं होता। वह झुत्, पिपासा आदि परीषहों से क्षुब्ध नहीं होता। वह आभ्यन्तर तप में अभ्यस्त साधक ध्यान अवस्था में निर्वाणस्थ की भांति सुख-दुःख से बाधित नहीं होता।
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
१३. जलमार्ग
१४, आकाशमार्ग ।' १.१. फलकमार्ग-कीचड़ आदि के भय से
फलक द्वारा पार किया जाने वाला मार्ग या गढ़ों को पार करने के लिए बनाया
गया फलक मार्ग। २. लतामार्ग-नदियों में होने वाली ससाओं (वेत्र आदि) का आलंबन लेकर पार करने का मार्ग । जैसे गंगा आदि नदियों को वेत्र लताओं के सहारे पार किया जाता था। ३. आंदोलनमार्ग-यह संभवत: झलने वाला मार्ग रहा हो । विशेषतः यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया हुआ होता था। व्यक्ति झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच जाता । व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच
जाते। ४. बेनमार्ग... यह मार्ग नदियों को पार करने
में सहायक होता था। जहां नदियों में वेत्र लताएं (बेंत की लताएं) सघन होती थीं, वहाँ पथिक उन लताओं का अवष्टम्न लेकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक
पहुंच जाता था। ५. रज्जुमार्ग-रस्सी के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का मार्ग । यह अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम
आता था। ६. दवनमार्ग-दवन का अर्थ है याम-वाहन ।
उसके आने-जाने का मार्ग दवनमार्ग है। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह
मार्ग काम आता था । ७. बिलमार्ग-ये गुफा के आकार वाले मार्ग
थे। इनको "मूषिक पय' भी कहा जाता था। ये पहाडी मार्ग थे, जिनमें चद्रान काट कर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं। इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना होता था । ८. पाशमार्ग....णिकार के अनुसार यह बह
मार्ग है, जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को
रज्जु से बांधकर रज्जु के सहारे आये बढ़ता था। "रसकूपिका" (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के
सहारे ही पुनः बाहर आना होता था। ९. कीलकमार्ग-ये वे मार्ग थे, जहां स्थान
स्थान पर संभे बनाए जाते थे और पथिक उन खंभों के अभिज्ञान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। ये खंभे उसे मार्ग भूलने से बचाते थे। विशेष रूप से ये मार्ग मरुप्रदेश में, जहां बाल के टीलों की
अधिकता होती थी, वहां बनाए जाते थे । १०. अजमार्ग- यह एक ऐसा संकरा पथ होता
था, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछडे के चलने जितनी पगडंडी भाव होती थी। यह मार्ग विशेषतः पहाड़ों पर होता था। जहां बकरों और भेडों का यातायात होता
या। इसे 'मेंढपथ" भी कहा जाता था। ११. पक्षिपथ--यह माकाश-मार्ग था । भारुण्ड
आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे इस मार्ग से यातायात होता था। वह मार्ग सर्वसुलभ न भी रहा हो परन्तु कुछ श्रीमन्त या विद्याओं के पारगामी व्यक्ति इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन
के रूप में करते हों, ऐसा संभव लगता है। १२. छत्रमार्ग-यह एक ऐसा मार्ग था, जहां
छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था । संभव है यह जंगल का मार्ग हो और जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। वे पशु छत्ते से उरकर इधर-उधर
भाग जाते हों। १३. जलमार्ग-जहाज, नौका आदि से याता
यात करने का मार्ग, जिसे “वारिपथ"
भी कहा जाता है। १४. आकाशमार्ग-चारणलन्धि सम्पन्न
मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आनेजाने का मार्ग। उसे "देवपथ" भी कहा जाता था।
(सुटी पृ१३१)
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नियुक्तिपंचक
१०९. जिस क्षेत्र में जो मार्ग है, वह क्षेत्रमार्ग है। जिस काल में जो मार्ग है, यह कालमार्ग है । भावमार्ग के दो प्रकार है-प्रशस्तभावमार्ग, अप्रशस्तभावमार्ग। दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं। प्रशस्तभावमार्ग के तीन प्रकार-सम्यज्ञान, सम्यगुदर्शन और सम्यग्चारित्र । अप्रशस्तभाव मार्ग के तीन प्रकार :-मिथ्यात्य, अविरति तथा अज्ञान ।
११०, इन दोनों भागों का विनिश्चय फल से होता है । प्रशस्त मार्ग सुगतिफल वाला होता है और अप्रशस्त मार्ग दुर्गतिफल वाला । यही सुगतिफल वाला मार्ग प्रासंगिक है।
१११. दुर्गतिफलवादियों के तीन सौ तिरसठ भेद हैं। (कियावादियों के १६०, अक्रियाबादिमों के ८४ अज्ञानवादियों के ६७ सय बगायकवादियों के ११) धगा व शिप
(१) क्षेम-क्षेमरूप-से-चोर, सिंह आदि के उपद्रव रहित तथा वृक्ष आदि से
आच्छन्न मार्ग । (२) क्षेम-अक्षेमरूप-जैसे—उपद्रवरहित किन्तु पथरीला, कण्टकाकीर्ण मार्ग । (३) अक्षेम-क्षेमरूप-जैसे-चोर आदि के भय से युक्त किन्तु सम मार्ग । ४) अक्षेम-अक्षेमरूप-जैसे-सिंह, चोर आदि के उपद्रव से युक्त तथा पथरीला और
ऊबड़-खाबड़ मार्ग । भावमार्ग के चार विकसक्षेम-क्षेमरूप---शान मादि से समन्वित मुनि वेशधारी साधु । क्षेम-अक्षेमरूप--भाबसाधु द्रव्यलिंग से रहित । बक्षेम-क्षेमरूप-निल्लव ।।
अक्षेम-अक्षेमरूप-परतीर्थिक, गृहस्थ आदि ।
११२. ज्ञान, दर्शन और चारित्र-यह तीन प्रकार का भावमार्ग सम्यगदृष्टि व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण है। चरक, परिव्राजक आदि द्वारा आचीर्ण मार्ग मिथ्यात्व मार्ग है, अप्रशस्त मार्ग है।
११३. जो व्यक्ति ऋद्धि, रस, साता-इन तीन गौरवों से भारीकर्मा हैं, जो षड्जीवनिकाय की बात में निरत हैं, वे कुमार्ग का उपदेश देते हैं और उसी कुमार्ग का आश्रय लेते हैं।
११४. तप और संयम में प्रधान तथा गुणधारी मुनि जो सद्भाव यथार्थ का निरूपण करते हैं. वह जगत् के सभी प्राणियों के लिए हितकारी है, वही सम्यक् प्रणीत मार्ग है।
११५. मोक्षमार्ग के ये तेरह एकार्थक शब्द हैं
१. पंथ–सम्यकत्व की प्राप्ति । २. न्याय–सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । ३. मार्ग-सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति। ४. विधि- सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की युगपद प्राप्ति।
५. धृति-सम्पदर्शन के होने पर सम्पग्धारित्र की प्राप्ति । १. असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होई चुलसीई ।
अण्णाणिय ससट्ठी, श्रेणइयाणं च बत्तीसं ।। (सूटी. पृ. १३१)
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
६. सुगति-ज्ञान और क्रिया का संतुलन । ७. हित-मुक्ति या उसके साधनों की प्राप्ति । ८. सुख-उपशाम श्रेणी में आरुष्ट होने का सामर्थ्य । ९. पथ्य----क्षायक श्रेणी में आरूढ़ होने का सामर्थ्य । १०. श्रेणी-मोह की सर्वथा उपशांत अवस्था । ११. निवृति-क्षीण मोह की अवस्था । १२. निर्वाण-केवलज्ञान की प्राप्ति ।
१३. शिवकर-शैलेशी अवस्था की प्राप्ति । बारहवां अध्ययन : समवसरण
११६. समवसरण' पारद के नाम आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्य समवसरण के तीन प्रकार हैं सचित्त, मचित्त तथा मिश्र । क्षेत्र समवसरण वह है, जहां द्विपद-चतुष्पद आदि समवसृत होते हैं । जिस काल में जो सम्बसरण होता है, वह काल समवसरण है।
११७. भाव समवसरण है . औदयंत्र आदि भादों का समवसरण । अथवा किया वादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, वैनायकवादी-इन चारों वादों का भेद-प्रभेद सहित आक्षेप कर जहां विक्षेप किया जाता है, वह भाव समवसरण है।
११८. जीव आदि पदार्थों का सद्भाव है-यह क्रियावादियों का कथन है। जोव आदि पदार्थों का सबभाव नहीं है-यह अक्रियावादियों का कथन है । अजान को ही श्रेयस्कर बताने वाले अज्ञानवादी हैं और विनय से ही स्वर्ग मोक्ष मिलता है ऐसा कहने वाले विनयवादी हैं ।
११९. क्रियावादियों के १८० भेद हैं । अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और विनयवादियों के बत्तीस भेद हैं।
१२०, प्रस्तुत अध्ययन में इन दर्शनों द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों का निरूपण है। उन सिद्धान्तों के परमार्थ का निश्चय करने के लिए समवसरण अध्ययन निरूपित है।
१२१. क्रियावादी सम्यग्दृष्टि है । शेष तीनों वाद मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यावाद का रयाग कर, इस सत्यवाद (क्रियावाद) को अंगीकार करना चाहिए। तेरहवां अध्ययन : याथातथ्य
१२२. तथ्य शब्द के चार निक्षेप है-नामतथ्य, स्थापनातथ्य', द्रव्यतथ्य तथा भावतथ्य । द्रव्यतथ्य है-द्रव्य का स्वभाव, स्वरूप 1
१२३. अवश्यंभावतया औदयिक आदि छह प्रकार के भावों में होना भावतध्य है । ___ अथवा आन्तरिक भावतथ्य चार प्रकार का है-जानतथ्य, दर्शनतथ्य, चारित्रतथ्य और विनयतथ्य ।
१. समवसरण का अर्थ है-एकीभाव से मिलना, एकत्र मेलापा ।
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३.७६
१२४. भावतथ्य दो प्रकार का है— प्रशस्त तथा अप्रशस्त वैसा ही आचरण – यह प्रशस्त भावतथ्य है । यहीं याथातथ्य है। है । याथातथ्य नहीं है ।
१२५,१२६. आचार्य - परंपरा से जो भगत है, व्याख्यात है, उसको यदि कोई अपनी तर्कबुद्धि या निपुणबुद्धि से दूषित करता है तो वह छेकवादी - पंडितमानी जमालि निन्हव की भांति नष्ट हो जाता है, पथच्युत हो जाता है । वैसा व्यक्ति संयम और तप में पराक्रम करता हुआ भी (दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मुनि को आत्मोत्कर्ष - अहंकार का वर्जन करना चाहिए ।
चौदहवां अध्ययन : ग्रंथ
निर्युषिक
जैसा सूत्र बसा हो अर्थ और वैसा न हो तो वह जुगुत्सित
१२७. ग्रंथ के विषय में पहले (उत्तराध्ययन के क्षुल्लक निग्रंथीय अध्ययन में ) कहा जा चुका है। शिष्य के दो प्रकार हैं :- प्रव्रज्या शिष्य, शिक्षा शिष्य । यहां शिक्षा शिष्य का प्रसंग है ।
१२८. शैक्ष दो प्रकार का होता है-प्रहणक्ष, आसेवनाशैक्ष। ग्रहणक्ष के तीन प्रकार है— सूत्रग्रहणशैक्ष, अर्थग्रहणक्ष, तदुभयग्रह्णणैक्ष
१२९. आसेवनाशैक्ष के दो प्रकार हैं- मूलगुण असेवनाशैक्ष, उत्तरगुण आसेवना शैक्ष मूलगुण आसेवना शैक्ष पांच प्रकार का है ( पांच महाव्रतों के कारण ) । उत्तरगुण आसेवनाशैक्ष के बारह प्रकार हैं ।
१३०. आचार्य के दो प्रकार हैं- प्रव्रज्या आचार्य तथा शिक्षक आचार्य । शिक्षक आचार्य के दो प्रकार हैं- ग्रहण शिक्षा आचार्य तथा आसेचना शिक्षा आचार्यं ।
१३१. ग्रहणशिक्षा आचार्य के तीन प्रकार हैं-सूत्र के ग्राहक आचार्य, अर्थ के ग्राहक आचार्य तथा तदुभय ग्राहक बाचार्य | आसेवनाशिक्षा आचार्य के मूल तथा उत्तरगुण की अपेक्षा दो प्रकार हैं ।
पन्द्रहवां अध्ययन : आदानीय
१३२. आदान तथा ग्रहण- इन दोनों शब्दों के चार-चार निक्षेप होते हैं | आदान और ग्रहण – ये एकार्थक भी हैं और अनेकार्थक भी । प्रस्तुत में आदान का प्रसंग है ।
१३३. प्रस्तुत अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदिपद होता है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'आदानीय' है। यह इस अध्ययन का अपर नाम है।
१३४. आदि शब्द के चार निक्षेप हैं—नामजादि स्थापना आदि द्रव्यआदि तथा भावआदि । द्रव्य की अपने पर्याय में जो प्रथम परिणति विशेष होती है, वह द्रव्य आदि है ।
१. उनिगा ३३४-३७ ।
२. समवायांग में इस अध्ययन का नाम 'यमकीय'
मिलता है । चूर्णिकार ने इसके दो नाम बताए हैं— आदानीय और संकलिका ( सूट २३८ )
वृतिकार ने मुख्य नाम आदानीय तथा विकल्प में यमकीय और संकलिका—ये दो नाम माने हैं । ( सूटीपृ १६९ )
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
१३५. गणधरों ने भावआदि के दो प्रकार बतलाए हैं-आगमतः तथा नोआगमतः । नोआगमतः भावआदि के पांच प्रकार है-(प्राणातिपात विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रह विरमण)।
१३६. आगमतः भावआदि है-गणिपिटक, द्वादशांगी। द्वादशांगी के आदिग्रन्थ का आदिलोक, उसका आदिपद, उसका आदिपाद, उसका आदिअक्षर-ये सारे भावआदि है। सोलहवां अध्ययन : गाया पोग्राक
१३७. गाथा शब्द के चार निक्षेप हैं-नामगाथा, स्थापनागाषा, व्यगाथा, भावगाथा । द्रव्यगाथा है-पुस्तक-पन्नों में लिखित अक्षर ।
१३८. क्षायोपशभिक भाव से निष्पन्न जो साकारोपयोग गाथा के प्रति व्यवस्थित है, वह भावगाथा है । वह मधुर उपवारण से युक्त होती है इसलिए उसे गाथा कहा जाता है।
१३९ जहां बिखरे अर्थो को पिडीकृत -एकत्रित किया जाता है अथवा जो सामुद्रिकछन्द' में निबद्ध होती है, उसे गाथा कहा जाता है। इसका दूसरा निरुक्त- तात्पर्याय यह है जो गाया जाता है अथ्वा जो गाथीकृत है, वह गाया है।
१४०. पूर्व के पन्द्रह अध्ययनों में जो अर्थ एकीकृत है, पिडित है, उसमें से यधावस्थित पिण्डितार्थवचन के द्वारा इस अध्ययन का ग्रन्थन हुआ है, इसलिए इसका नाम गाथा है।
१४१. प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में (पूर्व अध्ययनों में उक्त) अनगार के गुणों का पिण्डितार्थ से वर्णन किया गया है। इसलिए गाया षोडशक नाम वाले इस अध्ययन का प्रतिपादन करते हैं।
दूसरा श्रुतस्कंध पहला अध्ययन : पुण्डरीक
१४२. महत् शन्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । १४३. अध्ययन के भी छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव ।
१४४. पुण्डरीक शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भाव।
१४५. जो भव्य जीव पौण्डरीक (श्वेत कमल) में उत्पन्न होने वाला है, वह द्रव्य पुण्डरीक है। पुंडरीक का ज्ञाता भाव पौडरीक है ।
१४६. प्रस्तुत तीन विकल्प द्रव्य पोण्डरीक के हैं—एकभषिक, बदायुष्क तथा अभिमुख
नामगोत्र
१४७. तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवताओं में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे पौंडरीक है, शेष कंडरीक
१. अनिबद्धं च यल्लोके, गाथेति तत्पण्डित:
प्रोक्तम्'--सूटी पृ १७५ २. एफ भव के बाद पुंडरीक में उत्पन्न होने वाला एकभविक । जिस जीव के पुंडरीक का
आयुष्य बंध हो गया है, वह बद्धायुष्क तथा कुछ ही समय पश्चात् पुंडरीक में उत्पन्न होगा, वह अभिमुखनामगोत्र है।
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नियुक्तिपत्रक १४८. जलघर, स्थलचर तथा खेचर में जो श्रेष्ठ और कान्त होते हैं और जो लोगों द्वारा स्वभावत: अनुमत होते हैं, वे नियंञ्चों में पौंडरीक होते हैं।
१४९. अर्हत्, चक्रवर्ती, चारणश्चमण, विद्याधर, दशार और जो अन्य ऋद्धिमान व्यक्ति है, वे मनुष्यों में पौंडरीक होते हैं ।
१५०. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों में जो प्रधान हैं, वे देवताओं में पौंडरीक होते हैं।
१५१. जैसे धातुओं में कांस्य प्रधान है वैसे ही वस्त्र, मणि, मौक्तिक, शिला तथा प्रवालों में ओ प्रधान है, वे अचित पौंडरीक होते हैं। ये सारे द्रव्य पौडरीक हैं 1
१५२. अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों में जो प्रबर है, वे पौंडरीक होते हैं, शेष कंडरीक होते
१५३. लोक में जो क्षेत्र शुभ अनुभाव वाले होते हैं-जैसे देवकुरु, उत्तरकुरु आदि वे प्रवर क्षेत्रपौंडरीक होते हैं।
१५४. जो प्राणी भवस्थिति तथा कालस्थिति से प्रवर हैं, वे काल पौंडरीक होते हैं तथा शेष कंडरीक होते हैं।
१५५. गणना में पौंडरीक है--रज्जु की संख्या । संस्थान में पौंडरीक है-समचतुरस्र संस्थान । ये सारे पौंडरीक और शेष सारे बांडरीक है।
१५६. औवधिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिकइन भावों में जो प्रबर होते हैं, वे भाव पौडरीक है।
१५७. अथवा ज्ञान, दर्शन, पारित्र, विनय तथा अध्यात्म धर्मघ्यान आदि में जो मुनि प्रबर होते हैं, वे भाव पौंडरीक है।
१५८. प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य पौंडरीक-वनस्पतिकाय का तथा भाव पौंडरीक-श्नमण का अधिकार है।
१५९. यहाँ पौंडरीक का दृष्टान्त दिया गया है ।' उसी पुंडरीक के उपचय अर्यात् सभी अवयवों की निष्पत्ति होने पर उसका सम्पाटन होता है। दान्तिक अधिकार यह है कि चक्रवर्ती आदि भन्यों की सिद्धि-प्राप्ति जिनेश्वरदेव के उपदेश से होती है। १. भवस्थिति से पौंडरीक है-अनुतरोपपातिक पपातिकदेव, औपशर्मिक भाव' में समस्त
देव क्योंकि वे उस पूरे भव में सुख का ही उपशान्तमोह वाले व्यक्ति, क्षायिक भाव में अनुभव करते हैं। उनमें शुभानुभाव ही होता है।
केवलज्ञानी, क्षायोपशामिक भाव में विपुल२. कायस्थिति से शुभकर्म वाले मनुष्य जो सात- मति, चौदह पूर्वधर, परम अवधिज्ञानी. पारि
आठ भव में निर्वाण प्राप्त करने वाले होते हैं, णाभिक भाष तथा सानिपातिक भाव में वे मनुष्यों में पौंडरीक है 1
सिद्ध आदि प्रवर होते हैं। ३, औदायिक भाव में तीर्थकर तथा अनुत्तरी- ४. देखें-परि. ६, कथा सं ४
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सूत्रकृतांग नियुक्ति
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१६०. देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नैरयिक-इन चार गतिवाले प्राणियों के मध्य मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो चारिष के स्वीकार और पालन में समर्थ होता है। उनमें भी महाजन के नेता चक्रवर्ती का यहां प्रसंग है।
१६१. जो भारीकर्मा जीव हैं तथा निश्चित ही उत्कृष्ट नरक स्थिति का बंध कर नरकगामी जीप है.. मी जिनामा देश है नती मन में सि हो जाते हैं।
१६२,१६३. एक पुष्करिणी है। वह अत्यंत गहरी, पकिल, अनेक प्रकार की वल्लियों से संकीर्ण है । वह जंघाओं, बाहुओं तया नौकाओं से दुस्तर है। उसके बीच एक पद्म है । उसको पाने वाले व्यक्ति को प्राण गंवाने पड़ सकते हैं। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे कि पौडरीक को प्राप्त कर पुष्करिणी को सकुशल पार किया जा सके ?
१६४. (प्रज्ञप्ति आदि) विद्या के बल पर, देवता-कर्म के द्वारा अथवा आकाशगामिनी लब्धि से उस पदमबर पौण्डरीक को लेकर सकुशल आया जा सकता है परंतु यह जिनाख्यात उपाय नहीं है।
१६५. जिनेश्वर देव की विज्ञानरूप विद्या ही शुद्ध प्रयोग विद्या है। भव्यजन पौंडरीक उस विद्या-प्रयोग से सिद्धिगति को प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा अध्ययन : क्रिया-स्थान
१६६. (क्रियाओं का वर्णन पहले आवश्यक निर्मुक्ति में किया जा चुका है तथा) प्रस्तुत अध्ययन में क्रियाओं का प्रतिपादन है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है। (क्रिया स्थानों से कुछ व्यक्ति कर्मों से बंधते हैं और कुछ मुक्त होते हैं। इसलिए यहां बंधमार्ग और मोक्षमार्ग का प्रसंग है।
१६७. द्रव्य क्रिया है-प्रकम्पन । भाव क्रिया के आठ प्रकार हैं-प्रयोगक्रिया, उपायक्रिया करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ईर्यापयत्रिया, सम्यक्त्वक्रिया, सम्यमिथ्यात्वकिया तथा मिथ्यात्वक्रिया ।' १. १. प्रयोगक्रिया- मन, वचन और काया की समोगिकेवली तक होने वाली क्रिया, __ प्रवृत्ति ।
ग्यारहवें गुणस्थान तक होने वाली सूक्ष्म २. उपायक्रिया -द्रव्य की निष्पत्ति से होने क्रिया । यह तीन समय की स्थिति वाली _वाली उपायात्मक किया ।
होती है-प्रथम समय में बंध, दूसरे में ३, करणीयक्रिया-जिस द्रव्य की निष्पत्ति जैसे संवेदन और तीसरे में निर्जरण। यह वीतहोती है वैसी क्रिया करना । जैसे-मिट्री से राग अवस्था की क्रिया है।
ही घर बनता है, पथरीली बाल से नहीं। ६. सम्यक्स्वक्रिया सम्यग्दर्शनयोग्य ४. समुदानक्रिया-गृहीत कमपुद्गलों को प्रकृतियां हैं, उनको बांधने वाली क्रिया। प्रकृति, स्थिति. अनुभाव और प्रदेश रूप में ७. सम्यगमिथ्यास्त्रक्रिया -७४ प्रकृतियों का व्यवस्थित करना । यह क्रिया असंयत, संयत, बन्ध करने वाली किया।
अप्रमत्त संयत, सकषाय व्यक्ति के होती है। ८. मिथ्यात्वक्रिया–१२० प्रकृतियों का बन्ध ५. ईर्यापथक्रिया--'उपशान्त मोहावस्था से करने वाली क्रिया ।
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३८.
निर्मुक्तिपंचक १६८. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप है१. नाम स्थान ६. ऊर्च स्थान
११. योध स्थान २. स्थापना स्थान ७. उपरति स्थान
१२. अचल स्थान ३. द्रव्य स्थान ८. वसति स्थान
१३. गणना स्थान ४. क्षेत्र स्थान ९. संयम स्थान
१४. संधना स्थान ५. काल स्थान १०. प्रग्रह स्थान
१५. भाव स्थान। १६९. प्रस्तुत प्रकरण में सामुदानिक क्रियाओं तथा सम्यक् प्रयुक्त भावस्थान का अधिकार है। इन सभी स्थानों और क्रियाओं से पूर्वोक्त सभी पुरुषों तथा प्रावादुकों का परीक्षण करना चाहिए। तीसरा अध्ययन : आहारपरिज्ञा
१७०. आहार शब्द के पांच निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र और भाव ।
१७१,१७२. द्रव्य आहार के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मित्र । क्षेत्र आहारजिस क्षेत्र में आहार किया जाता है, उत्पन्न होता है, व्याख्यायित होता है, अथवा नगर का जो देश धान्य, इन्धन आदि से उपभोग्य होता है, वह क्षेत्र आहार है। (जैसे- मथुरा का निकटवर्ती देश परिभोग्य होने पर वह मथुरा का आहार कहलाता है।)
भाव आहार (आहारक की अपेक्षा से) के तीन प्रकार हैं१. ओज आहार-अपर्याप्तक अवस्था में तैजस और कार्मण शरीर से लिया जाने वाला
आहार, जब तक अपर औदारिक या वैक्रिय शरीर की निष्पत्ति नहीं हो जाती। २. लोम आहार-चारीर पर्याप्ति के उत्तरकाल में बाह्य त्वचा तथा लोम से सिया जाने
बाला आहार । ३. प्रक्षेप आहार- कवल आदि के प्रक्षेप से किया जाने वाला आहार ।
१७३. ओज आहार करने वाले सभी जीव अपर्याप्तक होते है। पर्याप्तक जीव लोम आहार वाले तथा प्रक्षेप आहार वाले अर्थात कबलाहारी होते हैं।'
१७४. एकेन्द्रिय जीवों, देवताओं तथा नारकीय जीवों के प्रक्षेप आहार नहीं होता। शेष संसारी जीवों के प्रक्षेप आहार होता है।
१७५. एक, दो अथवा तीन समय तक तथा अन्तर्मुहूर्त और सादिक-अनिधन-शैलेशी अवस्था से प्रारंभ कर अनन्तकाल तक जीव अनाहारक होते हैं। १. पर्याप्तिबंध के उत्तरकाल में सभी प्राणी होता तथा वह प्रतिसमयवर्ती है।
लोम आहार वाले होते हैं। स्पर्शन इन्द्रिय से, २. ये जीव पर्याप्तिबंध के बाद स्पर्शनेन्द्रिय से उमा आदि से, शीतल वायु से, पानी आदि ही आहार ग्रहण करते हैं। देवताओं द्वारा से गर्भस्थ प्राणी भी तृप्त होता है, यह सारा मन से गृहीत शुभ पुद्गल संपूर्ण काया से लोम आहार है । कवल आहार तो जब-तब परिणत होते हैं। इसी प्रकार नारकीय लिया जाता है, सदा-सर्वदा नहीं होता। वह जीवों के अशुभ पुद्गल परिणत होते हैं। शेष नियतकालिक है। लोम आहार वायु आदि के सभी औदारिक शरीर वाले लियंच और स्पर्श से निरंतर होता है। वह दृष्टिगत नहीं मनुष्य प्रक्षेप आहार करते हैं।
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सूत्रांग निर्बुक्ति
३८१
१७६. केवली के अतिरिक्त प्राणी एक अथवा दो समय तक अनाहारक होते हैं।' केवती के समुद्घात के समय मन्यान के प्रारंभ में तथा उसके उपसंहार काल में (अर्थात् तीसरे तथा पांचवे समय में दो समय तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अनाहारक होते हैं। इस प्रकार केवली तीन समय अनाहारक रहते हैं ।
१७७. शैलेशी अवस्था का कालमान है अन्तर्मुहूर्त । वह काल अनाहारक होता है। सिद्धावस्था सादे कि अनन्तकाल की होती है। सिद्ध अनाहारक होते हैं।
१७८. जीव सबसे पहले तेजस ओर कामंण शरीर से आहार ग्रहण करता है। तदनन्तर जब तक शरीर की निष्पत्ति नहीं हो जाती तब तक औहारिक free reवा वैक्रियमिश्र ने आहार ग्रहण करता है ।
१७९. परिक्षा शब्द के चार निक्षेप है—नाम स्थापना द्रव्य तथा भाव द्रव्यपरिक्षा के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित तथा मिश्र । भावपरिक्षा के दो प्रकार है-परिक्षा तथा प्रत्याख्यान परिक्षा ।
I
चौथा अध्ययन प्रत्यास्थानक्रिया
१८०. प्रत्याख्यान शब्द के छह निक्षेप है नाम प्रत्याख्यान स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, अदित्सा प्रत्याख्यान, प्रतिषेध प्रत्याख्यान तथा भाव प्रत्याख्यान ।
१५१ प्रस्तुत में भाव प्रत्याख्यान का अधिकार है। मूलगुण है-प्राणातिपात विरमण आदि प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करना आवश्यक है। यदि मूलगुण से संबंधित प्रत्याख्यान नहीं होता है तो उसके निमित्त से अप्रत्याख्यान क्रिया उत्पन्न होती है। (इसलिए प्रत्याख्यान क्रिया करनी चाहिए)।
पांचवा अध्ययन : आचारभूत
7
१०२. आचार तथा श्रुतइन दोनों शब्दों के चार बार निक्षेप है नाम स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१८३. आचार और श्रुत' का प्रतिपादन किया जा चुका है। अनाचार का सदा वर्जन करना चाहिए। अबहुश्रुत-अगीतार्थ की ही विराधना होती है। इसलिए सदाचार तथा उसके परिज्ञान में प्रयत्न करना चाहिए।
१०४. अनाचार का प्रतिषेध प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित है (अनगार सम्पूर्ण अनाचार का प्रतिषेध करता है) इसलिए इस अध्ययन का नाम 'अनगारचुत' भी है।
छठा अध्ययन आर्द्रकीय
१०५. 'जाई' शब्द के चार निक्षेप है-नाम आई, स्थापना आई, दव्य भाई तथा भाव
आर्द्र
१. तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से ।
२. आचार के वर्णन हेतु देखें दर्शानिया १५४-६१ ।
३. यु के वर्णन हेतु देखें-उनिया २९ । श्रुत
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नियुक्तिपंधक
१८६. द्रव्य आई के उदाहरण
७ उदकाई-पानी से मिट्टी आदि द्रश्य को आद्रं करना । • साराई–बाहर से शुष्क तथा मध्य में आई, जैसे-श्रीपर्णी फल । • छविआई-स्निग्ध त्वचा वाले द्रव्य, जैसे-मुक्ताफल, रक्त अशोक आदि। ० वसाई वसा- चर्बी से आई। • इलेषाद्र-स्तंभ, कुड्य आदि बज लेप से लिप्त ।
. भावाई-राम भाव से आई। १५७. द्रव्याद्रं के तीन प्रकार ये भी है• एकभविक-जीव स्वर्ग से आकर यहां मनुष्य भव में आर्द्रकुमार के रूप में
उत्पन्न होगा। • बद्धायुष्क-जिसने आर्द्रकुमार के रूप में उत्पन्न होने का आयुबंध कर लिया है।
० अभिमुखनामगोत्र-जो अनन्तर समय में ही आईक रूप में उत्पन्न होगा। १८८. आर्द्रकपुर में आई राजा का पुत्र आईक नाम वाला था। वह अनगार बना । इसलिए आद्रक से समुत्पन्न इस अध्ययन का नाम आर्द्रकीम हुआ।'
१८९. द्वादशांग रूप जिनवचन शाश्वत है, महान् प्रभाव वाला है। इसी प्रकार सभी अध्ययन तथा सर्वाक्षर-सन्निपात भी शाश्वत है, प्रभावशाली हैं।
१९.. सवपि राष्ट्र व्यार्थतः शामत है, फिर भी इसका अर्थ उस-उस समय में, उस-उस काल में भाविर्भूत होता है। पहले भी यही प्रकरण, किसी दूसरे नाम से प्रतिपादित तथा अनुमत हुआ है, जैसे-ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि में ।
१९१. आईक अनगार ने गोशालक, भिक्षु, ब्रह्मवती, त्रिदण्डी तथा हस्तितापसों को जो कहा, उसी को मैं यहां कहूंगा।
१९२. बसन्तपुर नामक गांव में सामयिक नाम का गृहपति अपनी पत्नी के साथ धर्मपोष आचार्य के पास प्रवजित हुआ। उसने अपनी पत्नी साध्वी को भिक्षा के लिए जाते देखा और पूर्वक्रीडित क्रीड़ाओं की स्मृति हुई। साध्वी भक्त-प्रत्याख्यान द्वारा पंडित मरण कर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई । (वहां से बसन्तपुर नगर में एक सेठ के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई)।
१९३. मुनि को संवेग उत्पन्न हुआ। उसने मायापूर्वक भक्त प्रत्याख्यान किया और मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवन कर आई कपुर नगर में आई राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम आर्द्र ककुमार रखा गया।
१९४-२०१. एक बार आककुमार के पिता ने प्रीतिवश महाराज श्रेणिक के पास उपहार भेजा। आईककुमार ने पूछा-क्या श्रेणिक के कोई पुत्र हैं ? ज्ञात होने पर उसने भी उपहार भेजा। अभयकुमार ने पारिणामिकी बुद्धि से जान लिया कि आर्द्रक कुमार सम्यग्दृष्टि है। उसने आर्द्रक कुमार के लिए प्रतिमा भेजी । आर्द्रककुमार को प्रतिमा देखते ही जातिस्मृति ज्ञान हुआ । वह संबुद्ध हो गया । वह प्रवजित न हो जाए, इसलिए राजा के आदेश से पांच सो राजपुत्र उसकी रक्षा करने लगे। वह अश्ववाहनिका के बहाने से पलायन कर गया। प्रख्या के समय देवता ने कहा-अभी १. देखें परि. ६, कथा सं५ ।
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मूत्रकृतांग नियुक्ति
३८३ दीक्षित मत बनो । देवता के कथन की अवमानना कर बाह प्रवजित हो गया। विहरण करते-करते वह बसन्तपुर नगर में आया और प्रतिमा में स्थित हो गया । पूर्वभव की पत्नी श्रेष्ठीपुत्री ने मुनि का वरण कर लिया। देवताओं ने हिरण्यवृष्टि की । राजा ने उस धन को ग्रहण करना चाहा, तब देवता ने निषेध किया। पिता ने उस हिरण्य का संगोपन कर रख लिया । उस दारिका का वरण करने के लिए अन्य लोग आए । लड़की ने अपने पिता से उन आगंतुकों के प्रयोजन के विषय में पूछा। पिता ने बात बताई । कन्या बोली-तात ! कन्या का विवाह एक बार ही होता है, दो बार नहीं। पिता ने पूछा- क्या तू अपने पति को पहचानती है ? उसने कहा-'मैं उनको पैरों के चिह्नों से जानती हूं।' मुनि का आगमन हुआ । दारिका ने पहचान कर अपने पिता से कहा। पश्चात् वह दारिका अपने परिवार के साथ प्रतिमा में स्थित मुनि के पास गई। मुनि ने उसे स्वीकार कर लिया। वह उसके साय भोग भोगने लगा । एक पुत्र उत्पन्न हुआ। आद्रक ने तब अपनी पत्नी से कहा-अब तुम पुत्र के साथ रहो। मैं पुनः प्रवजित होना चाहता हूं। पुत्र ने तब आईक को सूत से बांध दिया। सूत के बारह बंध थे। आर्द्रक उतने वर्षों तक घर में रहा, अवधि पूर्ण होने पर वह घर से निकल कर प्रवजित हो गया।
वह एकाकी विहार करता हुआ राजगृह की ओर प्रस्थित हुआ। आर्द्रक राजकुमार के पलायन कर जाने पर, राजा के भय से ये पांच सौ रक्षक राजपुत्र अटवी में आकर चोर बन गए । अटवी में उन्होंने मुनि आईक को देखा। पूछा । वे सभी पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर प्रवजित हो गए । राजगृह नगर-प्रवेश पर आर्द्र क मुनि ने गोशालक, बोद्धभिक्षु, ब्रह्मवादी, त्रिवंडी तथा तापसों के साथ वाद किया । सभी वाद में पराजित हो गए । वे सभी उसकी शरण में आ गए । मुनि आईक सहित वे सभी परतीथिक भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् के शासन में प्रवजित हो गए।
(मनि आइक के दर्शन मात्र से एक मदोन्मत्त हाथी मुक्त होकर वन में चला गया। राजा द्वारा गजबंधन-मुक्ति के विषय में पूछने पर मुनि आईक बोले)-राजन् ! मनुष्य के पाश से बद्ध मदोन्मत्त हाथी का मुक्त होकर वन में चले जाना उतना दुष्कर नहीं है जितना दुष्कर है धागों से आवेष्टित मेरा विमोचन । मुझे यह दुष्फर प्रतीत होता है।
सातवां अध्ययन
२०२. अलं शब्द के चार निक्षेप हैं नाम अलं, स्थापना अलं, द्रव्य अलं और भाव अलं । २०३. अलं शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में होता है(१) पर्याप्ति भाव-सामर्थ्य, जैसे- अलं मल्लो मल्लाय । (२) अलंकार—अलंकृत करने के अर्थ में अलंकृतं (देव महावीर ने शातकुस को अलंकृत
किया)। (३) प्रतिषेध-अलं मे गृहवासेन-अब मैं गृहवास में रहना नहीं चाहता ।
२०४. प्रस्तुत में प्रतिषेधवाची अलं शब्द का प्रसंग है। नालंदा शब्द स्त्रीलिंगी है। नालन्दा राजगृह नगर का उपनगर था।
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निर्य क्तिपंचक
२०५. नालंदा के समीप मनोरथ नाम के उद्यान में इन्द्रभूति ने निर्बंध उदय के प्रश्न के समाधान में इस अध्ययन का कथन किया। नालन्दा के समीप उद्यान में इसका प्रतिपादन होने के कारण यह अध्ययन नालन्दीय कहलाया ।
२०६. पापत्वीय उचका में आर्य गौतम से भावक के विषय में पूछा। गौतम से आपक का धर्म सुनकर उदक संदेह रहित हो गया ।
३८४
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दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति
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विषयानुक्रम
*
* * *
*
३२.
छछेदसूत्रकार प्रथम भद्रबाहु को नमन । धौथी दशा : गणि-संपदा द्रव्य तथा भावदशा का उल्लेख।
२५. द्रव्यगणी तथा भावमणी का स्वरूप । आयू के आधार पर जीव की दस २६. जात शब्द के एकार्थक तथा आचार्य के अवस्थाएं ।
शानी होने का निर्देश । अध्ययन दशा के कथन की प्रतिज्ञा ।
आचार्य के 'आचारधर' होने का उल्लेख । विविध प्रकार से क्शा का उल्लेख ।
२८, गणि आचार्य की विशेषता । आधारवशा का स्थविरों द्वारा निर्वृहण का २९. संपदा शब्द के निक्षेप । संकेत ।
आचार्य को हाथी की उपमा तथा उसका प्रस्तुत गंध के अध्ययनों को कथन की प्रतिज्ञा।
उपसंहार। दश अध्ययनों के नाम ।
पांचवी दशा : चित्तसमाधिस्थान पहली दशा : असमाधिस्थान
चित्त तथा समाधि शब्द के निक्षेप । द्रव्य तथा भाव-समाधि का स्वरूप ।
द्रव्य चित्त का स्वरूप । १०. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप 1
भाव चित्त का स्वरूप । बीस असमाधिस्थान के अतिरिक्त भी २३३२. ट्रम्प तथा भाव समाधि कास्तरूप ! मसमाधि स्थानों का उल्लेख ।
चित्त समाधि के स्थानों में यतना करने का बूसरी वशा : सबल दोष
निर्देश। द्रष्प तथा भाव सबल का स्वरूप ।
छठी दशा: उपासक-प्रतिमा सबल दोष की मर्यादा ।
उपासकों के प्रकार तथा द्रव्य और तदर्थक घडे एवं वस्त्र की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं
उपासक का स्वरूप। द्वारा विराधना का वर्णन ।
मोह उपासक का स्वरूप । तीसरी दशा : आशातना
भाव उपासक का स्वरूप। आशातना के दो भेदों का उल्लेख। ३८, केवली द्वारा अगार और अनगार धर्म का लाभ आसादना का स्वरूप।
उपदेश। द्रव्य आदि आसादना का उल्लेख ।
उपासक और प्रावक में अन्तर ।
प्रतिमाओं के भेद । छठे और आठवें पूर्व में 'आ' उपसर्ग के
उपासक तथा भिक्षु प्रतिमाओं की संख्या वर्णन का उल्लेख तथा आशातना का
का उल्लेख निरुक्त।
४३. गृहस्थ धर्म तथा साधु धर्म का आशातना का स्वरूप ।
मुखावोध । उत्कर्ष (अभिमान) के परित्याग का ४४. साधओं को तप, संयम में उद्यम करने का निर्देश ।
निदेगा। पारीकर्मा जीव का स्वरूप ।
उपासक की बारह प्रतिमाओं का आशातना किसकी?
नामोल्लेख । हलुकीं जीव का स्वरूप ।
सातवी वसा : भिक्षु-प्रतिमा गुरु की आशातना से ज्ञान, दर्शन आदि ४५. भिक्ष, उपधान और प्रतिमा शब्द के का नाश तथा विराधना ।
निक्षेप।
OY
.
४१.
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________________
५५.
३८८
नियुक्तिपंचक समाधि आदि पांच प्रतिमाओं का १०१. अनंतानुबन्धी क्रोध आदि कषायों का नामोल्लेख
उपशमन । आचारांग आदि आगमों में वर्णित १०२. अनंतानुबंधी काय आदि चार कषायों की प्रतिमाओं की संख्या का निर्देश।
स्थिति एवं गति।
१०३. मान, माया ओर लोभ की उपमाओं का बत-समाधि प्रतिमा तथा चारित्र-समाधि
निदेश। दतिमा का उल्लेख
क्रोध, मान आदि कषायों के उदाहरणों का भिक्षु और उपासक प्रतिमा का सूत्र में
उल्लेख । वर्णन होने का निर्देश तथा विवेक प्रतिमा
१०४.१. सद्गति हेतु नित्य उपशांत रहने का निर्देश । का उल्लेख ।
१०५-१२. क्रोध में मरक, मान में अचंकारियभट्टा, प्रतिसलीन तथा एकाकीवहार प्रतिमा का
माया में साध्वी पौड़रा तथा लोभ में मंभु उल्लेख।
आचार्य का उदाहरण । ५१,५२. एकलविहार प्रतिमा ग्रहण करने वाले मुनि
कषायों के दुष्परिणाम जानकर उनसे की विशेषताएं।
निवृत्त होने का निर्देश । आठवीं कशा : पर्युषणाकल्प
चातुर्मास में प्रायश्चित्त वहन करने की ५३,५४ पर्युषणा शब्द के एकार्थक ।
सुविधा। स्थापना शब्द के निक्षेप ।
प्रथम और अन्तिम तीथंकरों की पर्यषणा भावस्थापना का स्वरूप । ५६,५७.
का निर्देश ।
११६-१९. चातुर्मास में प्रवेश और विहार के नियमों ११६ वर्षा के समय भिक्षाचर्या करने और न
करने के कारणों का निर्देश । के कथन की प्रतिज्ञा।
उत्तरकरण का स्वरूप । ५९-६३. चातुर्मास के अतिरिक्त विहार करने के
नवी दशा : मोहनीयस्थान नियम।
१२१.
मोह शब्द के पार निक्षेपों का उल्लेख आषाढ़ी पूर्णिमा को वर्षावास स्थापित करने
तथा भावस्थान का अधिकार। का निर्देश तथा मिगसर कृष्णा दशमी तक
१२२. दव्य मोह के भेद-प्रभेद 1 वहां रहने का उल्लेख
१२३. आठौं कर्मों का प्रदों में वर्णन का उल्लेव।। चातुर्मास योग्य क्षेत्र की विशेषताएं।
१२४-२६. कर्म शब्द के एकार्थक । चातुर्मास स्थापित करने के नियमों एवं
नयमा एव १२७,१२८. महामोह कर्मबंध के कारणों का उल्लेख कारणों का निर्देश।
तथा उनके वर्जन का उपदेश । ७०. ज्येष्ठावग्रह (छ: मास तक एक स्थान पर क्सवीं वशा: आजातिस्थान रहना) का उल्लेख ।
आजाति' शब्द के निक्षेप।। ७१-७५. वर्षावास के बाद विहार करने और न करने १३०, द्रव्य तथा भाव आजाति के भेद-प्रभेद। के कारणों का उल्लेख ।
१३१. जाति और नाजाति का स्वरूप । चातुर्मास काल में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा।।
प्रत्याजाति का स्वरूप। ८०-८८. द्रष्य स्थापना के सात द्वार और उनका १३३ निदान से मोक्ष में बाधा । विवरण ।
१३४-१३६. मोक्ष-प्राप्ति के उपायों का उल्लेख ८९. आचार की स्खलनाओं का प्रायश्चित्त तथा
१३७. निदान शब्द के एकार्थक । कषाय के उपशमन का निर्देश ।
द्रव्य बंध के भेद 1 ९०,९१. वर्षाकाल में हिंसा की सम्भावना से समिति १३९, क्षेत्र और कालबंध का स्वरूप । आदि में जागरूकता का निर्देश ।
१४०,१४१. भावबंध के प्रकार । १२-१००. कलहशमन में दुरूतक, प्रद्योत एवं द्रमक १४२. अनिदानसा की श्रेष्ठता का उल्लेख । की कथा का निर्देश।
१४३. संसारसागर को पार करने के उपाय |
६५-६९.
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१.
२.
३.
४.
५.
धू
७.
८.
दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति
पन्भार-'
वंदामि भवा, पाण चरिम- 'सयल सुयनाणि । सुतस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे यववहारे ॥ आज विवागज्भयणाणि भावओो दवओो उ वत्थदसा । दस आउविवागदसा, वाससयाओ दसह छेत्ता ॥ बाला 'मंदा किड्डा, बला य पण्णा य हायणि पवंचा । र 'मुम्मुही सयणी नामेहि य लक्खणेहि दसा ॥ आज विवागदसा, नामेहि य लक्खणेहि एहिति । एतो अज्झयणदसा, अह्नकम कित्तइस्सामि ॥ उहरीओ तु इमाओ, अज्भयणेसु महईको अंगेसु । सु वयविनूसावतामिव । डहरीओ तु इमाओ, निज्जूढाओ अणुगट्टाए । थेरेहि तु दसाओ, जो दसा जाणओ जीवो ॥ 'दसाणं पित्थो'", एसो मे वणितो समासेणं । एसो एक्केषक 'पि य", अभयणं कित्तइस्लामि ।। असमाहि य सबलत्तं, अणसादण " गणिगुणा भणसमाही । सावग - भिक्खूपडिमा कप्पो मोहो निदाणं च ।।
१. चरम (बी) ।
२. ० नाणी (पंचभा १ ) ।
३. सुत्तस्य (पंचभर ) |
४. दसाण (पंचभा), दसाणु (च) ।
५
-
५. ० ज्वणा (चू) |
६. किड्डा मंदा (पंचभा २५२ ) ।
७. मुम्मुहुति सयणी ० ( अ ), मुम्मुही वि य सयणी दसमा य णॉयब्वा (पंचभा), तंदुल ३१, ठाणं १०।१५४, निभा ( ३५४५) में यह गाया कुछ अंतर के साथ मिलती है-
बाला मंदा किड्डा, पचा पारा या
पबला पण्णा य हायणी । मुम्मुही सायणी तहा ॥ (बी) ।
८.
यहवंति (ला), x
९. णायादीसु (ला) ।
१०. एसो दसाणतोहो, (च) ।
११. पुण (चू) ।
१२. अणा० (म), छंद की दृष्टि से अणसादण पाठ स्वीकृत किया है ।
१३. चूर्ण को ध्याख्या में सातवीं और आठवीं गाथा में क्रमव्यत्यय है ।
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ए.
निक्तिपंचक दव्यं 'जेण व" दवेण, समाधी माहितं च ज दव्वं । भावो सुसमाहितया, जीयस्स पसत्थजोगेहि ।। नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उद्ध' उवरती वसही । संजम-परगह-जोहे, अचल-आणण-संधणा भावे ॥ वीसं तु णवरि णेम्म, अइरेगाई तु तेहि सरिसाई । नायम्वा एएसु य, अन्नेसु य एवमादीसु ।।
असमाहिट्ठाणनिजुत्तो समत्ता दव्वे चित्तलगोणादि, एसु" भावसबलो खुतायारो । वतिक्कमे अइक्कमे, अतियारे" भावसबलो उ॥ अवराधम्मि पतणुए, जेण उ भूल न वच्चए साहू । 'सबलेइ तं चरितं, तम्हा सरलत्तणं" बेति ।। बाले राई दालो, खडे बोडे खुते य भिन्ने य । कम्मासपट्टसबले,५ सध्या वि विराहणा भणिया ।।
सबलनिज्जुत्ती समत्ता आसायणा उ दुविहा, मिच्छापरिवज्जणा य लाभे य । लाभे छक्कं तं पुण, इद्रुमणिटुं दुहेक्के ।। 'साधू तेणे ओग्गह,१७ कतार-वियाल-विसम सुहवाही । 'जे लद्धा ते ताणं, भणंति८ आसादणा तु जगे। दव्वं माणुम्माणं," होणहियं" जम्मि खेत में कालं ।
एमेव छविहम्मी, भावे पगयं तु भावेण ।। १. जेणेव(बी)।
१२. लेई तं (मु), लेइमं (बी)। २, तु०दशनि ३०४ ।
१३. सबल ति णं (ला)। ३. उद्ध (अ)।
१४. खुत्ते (मु)। ४. ओवरह (अ), रई (मु)।
१५. कम्मग० (बी)। ५. जोहो (वी, अ)।
१६. पडिवत्तितो (चू)। ६. आनि १८५, उनि ३७९,५१६, सूनि १६८। १७. साधू तेणोगह (च) । ७. ति (अ)।
१५. जे लद्धा दम्बादी भणंति (ला), जे लढा ५, मं (अ)।
दव्वादी इट्ठाणिट्ठा (चूपा)। ९. दव्वं (ला, मु)
१९. माणे (बी)। १०. एस (बी)।
२०. हीणाहियं (बी, म)। ११. तियारे (ला)।
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पक्षाश्रुतस्कंध नियुक्ति
१८.
छवट्ठमपुटवेसु, आउवसग्गो त्ति सम्बजुप्तिकओ । पयरथविसोहिकरो, दिन्नो आसायणा तम्हा ।। मिच्छाडिवत्तीए, जे भावा जत्य होति सन्भूता । तेसि त वितहपरिवान्जाए आसायणा तम्हा' ।। न करेति दुरखमोक्खं, उज्जममाणो वि संजम-तवेसु' । तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेतव्यो पयत्तेणं' ।। जाणि भणिताणि सुत्ते, ताणि जो कुणति अकारणज्जाए । सो खलु भारियकम्मो, न गणेति गुरुं गुरुट्ठाणे । दसण-नाण-चरितं, तवो य विणो य होति गुरुमूले । यिणी गुरुमूले त्ति य, गुरुणं आसायणा तम्हा ।। जाई भणियाइं सुत्ते, ताई जो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुटाणे' ।। सो गुरुमासायंतो, दसण-णाणधरणेसु सयमेव । सीयति कतो आराहणा, से तो ताणि रज्जेज्जा ।।
भासायनिज्जुत्ती समत्ता दम्वं सरीरभविओ, भावगणी गुणसमन्नियो दुविहो । गणसंगहुवग्गहकारओ य धम्मं च जाणतो ।। नातं गणितं गुणितं, गतं च एगट्ट एवमादीयं । नाणी गणित्ति तम्हा, धम्मस्स वियाणओ भणियो । आयारम्मि अधीते, जनाओ होति समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, मण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ।। गणसंगहुवग्गहकारओ, गणी जो पभू गणं धरि । तेण गयो छक्क, संपयाएँ पगयं चउसु तत्थ ॥
२६.
२८.
१. निमा २६४८ ।
गाथा मिलती है लेकिन चूर्णिकार ने इस गाथा १. पदेसु (नि)।
की व्याख्या नहीं की है। ला, अ और बी 1. जतिजणेणं (सूनि १२६) ।
प्रति में यह गाथा उपलब्ध है। विषय की ४. गुरुहि (ला, बी)।
कमवद्धता की दृष्टि से यह गाथा नियुक्ति की
होनी चाहिए। ६. प्रकाशित चूणि की गापाओं के क्रम में यह ७. घरेउ (ला, बी)।
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नियुक्तिपंचक दवे भावे य सरीरसेपया अविघा य भावम्मि । दग्वे खेत्ते काले, भावम्मि य संगपरिण्णा ॥ बध गयकुलसंभूतो, गिरि-कंदर-कडग-विसमदुग्गेसु । परिवहह अपरितंतो, निययसरीरुगए दंते' ।। तह पवयणत्तिगओ, साहम्मियवच्छलो असढभावो । परिवहइ असहुवग्गं, खेत्त-विसम-काल-दुग्गेसु' ।
गणिसंपयानिनुत्ती समत्ता नाम ठवणा चित्तं, दवे भावे य होइ बोधष्वं । एमेव समाहीए,' निवखेवो चम्बिहो होइ । जीवो तु व्यपि, हिला दह पति यः दाणे:
नाणादिसु सुसमाही, धुवजोगी भायओ चित्तं ।। ३३।१. अकुसलजोगनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं ।
एयं तु भावचितं, होइ समाही इमा चउहा ।। दव्वं जेण व दज्वेण, समाही आहितं च ज दव्वं । भावे समाही चउम्विह, दंसण-नाण-तव-चरित्ते ।। भावसमाधी चित्ते, ठितस्स ठाणा इमे विसिट्टतरा । होइ जओ पुण चित्ते, चित्तसमाहीए जइयग्छ ।
चिससमाहिट्ठागनिज्जती समत्ता दश्वतदवोवासग, मोहे भावे उवासगा चउरो । दहवे' सरीरभविओ, तट्टिओ ओयणादीसु ।। कुप्पवयणं कुधम्म, उवासए मोहुवासगो सो उ ।
हंदि तहिं सो सेयं, मण्णति 'सेयं च* नत्थि तहिं ।। ३७. भावे उ' सम्मदिदी, सम्ममणो जउवासए समणे ।
तेण" सो गोष्णं नाम, उवासगो सावगी व त्ति ।। १. पंकमा १९१५, व्यमा १९४७ ।
नहीं की है। आदशों में यह गाथा नहीं २. पंकभा १९९६, ध्यभा १९४८ ।
मिलती है। ३. हीण (बी)।
६. दब्बं (बी, ला)। ४. यह गाथा केवल 'अ' प्रति में मिलती है। ७. x (बी, ५)।
चूणि में यह अव्याख्यात है। संभव है अहस्त... भावओ (बी)।
प्रति में यह गाथा प्रसंगवश जोड़ दी गयी हो। ९. जो (बी)। ५. यह गाया प्रकाशित पूणि मैं गाथा के क्रम में १०. तेणं (बी)।
मिलती है लेकिन इसकी व्याख्या चूर्णिकार ने
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वायुतस्कंध नियुक्ति
__ काम दुवालसंग, पत्रयणमणगारऽगारधम्मो य ।
ते केबलीहिं पसूया, प-उवसग्गो पसूर्यति ।। तो ते सावग तम्हा, उवासगा तेसु होंति भत्तिगया । अविसेसम्मि विसेसो, समणेसु पहाणया भणिया ।। कामं तु निरवसेस, सम्बं जो कुणति तेण होइ कयं । तम्मि ठितामो समणा, नोवासगा सावगा गिहिणो ।। दवम्मि सचित्तादी, संजतपडिमा तहेव जिणपडिमा । भावो संताण' गुणाण, धारणा जा जहिं भणिया ।। सा दुविधा छश्विगुणा, भिक्खूण उवासगाण एगणा । उरि भणिया भिक्खूणुवासगाणं तु वोच्छामि । तत्यहिगारो तु सुह, गाउं आइक्खिो व गिहिधम्म । साहूणं च तव-संजमम्मी संवेगकरणाणि ।। जइ ता गिहिणो वि य उज्जमंति नणु साहुणावि कायव्वं । सब्वत्थामो तव-संजमम्मि इय सुट्ठ नाऊण ।। दसण-वय-सामाइय-पोसहपडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ-पेस-उट्ठियजए समणभूए य ।।
उवासगपडिमाए निम्जुत्ती समता भिक्खूणं उवधाणे, पगयं तत्थ व हवंति निक्खेवा । तिन्नि य पुन्वदिवा, पगये पुण भिक्खुपडिमाए ॥ समाधिओवहाणे य, विवेगपडिमाइया ।
पडिसलीणा य तहा, एगविहारे य पंचमिया ।। ४७. आयारे बायाला, पडिमा सोलस य वग्णिया ठाणे ।
चत्तारि य ववहारे, मोए दो चंदपडिमाओ ।। १. संजम० (बी, चू)।
गाथा की व्याख्या नहीं की है। संभव है २. सभाव (बी), संताव (ब)।
चूणि कार के सामने यह गाथा नहीं दी ३, सुख (म)।
प्रसंगानुसार बाद के आचार्यों ने इसे बाद में ४. चूणि की मुद्रित प्रति को गाथाओं में यह जोड़ दी है। गाथा दो बार उल्लिखित है तथा आदर्शों में ५. या (ला, बी)। भी यह गाथा मिलती है। पूर्णिकार ने इस ६. ०पडिमाइ य (अ) ।
४४१.
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३९४
नियुक्तिपंचक एवं तू सुयसमाधिपरिमा छावढिया य' पण्णता । सामाइयमाईया,' चारित्तसमाहिपद्धिमाओ' ।। भिक्खणं उवहाणे, उवासगाणं च वणिया सुत्ते । गणकोवाइविवेगो, सभितरबाहिरो दुविहो ।। सोतिदियमादीया, पडिसलीणा' घउत्यिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य, एगविहारिस्स पंचमिया ।। दढसम्मत्तचरित्ते, मेघावि बहुस्सुए य अयले य । मरइरइसहे दविए, खता भयभेरवाणं च ॥ परिजित' कालामंतण, खामण-तव-संजमे य संघयणे । भत्तोवहिनिक्खेवे, आवन्ने लाभ-गमणे य ।।
मिलनुपडिमाए निज्जुत्तो समता पज्जोसमणाए' अक्खराई, होति उ इमाइ गोग्णाई । परियायववत्थवणा, पज्जोसमणा य पागइया ।। परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा" य वासवासो य । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठर ।। ठवणाए निक्लेदो, छक्को दवं च दन्वनिक्खेवे । 'खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ ॥ ओदइयादीयाण," मावाणं जा" जहिं भवे ठवणा । भावेण बेण य पुणो, ठविज्जए" भावठवणा तु"। सामित्ते करणम्मि य, अहिंगरणे चेय होति छम्भेया । एगत्त-पुहत्तेहिं," दवे खेत्तऽद्ध भावे य॥ कालो समयादीओ, पगयं समम्मि " तं परूवेस्सं । निक्खमणे य पवेसे, पाउस-सरए य वोच्छामि ॥
९, निमा ३१४.। २. सामाईय० (पू)।
१०. उदइयाई (अ), उदहयाणं (ब)।
११. जो (निभा)। ४. पदिसलीणया (मु)।
१२. वेज्जते (निभा), उविजह (ब) । १. परिचिय (मु)।
१३, निभा ३१४१ । ६. सवणाए (बी, निभा ३१३८) सर्वत्र । १४. पुरसेहि (अ)। ७. •सवणा (निभा, ३१३९}।
१५. खेते य (निभा ३१४२) । ८, वेत्तम्मि (ला)।
१६. कालम्मि (निमा ३१४३)।
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३९५
दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
ऊणातिरित्तमासे, अट्ट विहरिऊण गिम्ह-हेमंते । एगाहं पंचाहं, मासं च जहासमाहीए' ॥ काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण कणा ते । चिखल्ल* वास रोहेण, 'वावि तेण"डिया कणा ॥ वासाखेत्तालभे, अद्धागादीसु 'पत्तहिगा तु । साधगवाघातेण' , अपडिक्कमित्तु जइ क्यति ।। पडिमापडिवन्नाणं, एगाह पंच होताहालंदे" । जिण-सुद्धाणं मासो, निकारणतो य थेराणं ।। ऊणातिरित्तमासा, एवं थेराण अ?" नायज्वा । 'इतरे अट्ठ विरिलं,' नियमा चत्तारि अच्छंति" । आसाढपुषिणमाए, वासाबासम्मि" होति ठातव्यं५ ।
मगसिरबहुलदसमोओ, जाव एक्काम छाम ।। ६४।१. विज्जो ओसह निवयाहिवई पासंड भित्र सज्झाए ।
चिखल्ल" पाणथंडिल्ल, वसही गोरसजणाउलो ॥ ६५. 'बाहि ठिता वसहिं, खेतं गाहेत्तु वासपाओग्गं ।
कप्पं कहेतु ठवणा, सावण सुद्धस्स पंचाहे ।। १. निभा ३१४।
१६. चिखिल्ल (ब)। २. उ (निभा ३१४५)।
१७. प्रस्तुत गाथा चूणि में ध्याख्यात नहीं है। ३. पिक्खिहल (ब)।
किन्तु आदों में प्राप्त है। निशीथ भाष्य ४. वाचि तीए (निभा), दोषि तेण (बी)।
में दशाश्रुतस्कन्ध के पजोसवणाकप्य ५. महिगातो (च)।
की सभी निर्यक्ति-गाथाएं उद्धृत ६. साग० (ब)।
है। चालू क्रम में यह गाथा निशीय में भी ७. अप्पडिकम्म तं (निभा ३१४६) 1
नहीं मिलती है, तया विषयानुसार प्रासंगिक 5, पटिवन्नगाणं (अ)।
भी नहीं है इसलिए हमने इसे नियुक्तिगाथा ९. एगाहो (निभा ३१४७) ।
के क्रम में नहीं जोड़ा है। आदशों में पूर्वार्ध १०. हुंतिहालंदे (न)।
चिखल्ल' ....."है तथा उत्तराध विज्जो... ११. हुंति (ब)।
है। किन्तु छंद की दृष्टि से क्रमव्यत्यय होना १२. इतरेसु अट्ठ रियितुं (ब)।
चाहिए। १३. निमा ३१४८ ।
१८. बाहिट्ठिता (निमा), वसहिट्ठिया (बी)। १४. ०वासं तु (मु), वासासु (निभा ३१४९)। १९. सादणबहुलस्स (निभा ३१५०, ममा ४२८१)। १५. अतिगमणं (बुभा ४२८०)।
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निर्युक्तिपंचक एत्यं तु' अभिग्गहिय, वीसतिराई सवीसती' मासं । तेण परमभिग्गहियं, गिहिणातं कत्तिओ जाव ।। असिवादिकारणेहि, अहगार वासं न सुठ्ठ आरद्धं । अभिवढियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसतो मासो॥ एत्य तु पणगं पणगं, कारणियं जा सवीसती मासो । सुखदसमीठियाणव, आसादीपुण्णिमोसरणं" ।। 'इय सत्तरी'८ जहण्णा, असीति नउती दसुत्तरसयं च । जइ वासति मगसिरे दस राया" तिनि उक्कोसा" ।। काऊण मासकप्पं, तस्थेव “ठियाणतीऍ मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासितो तु जेट्ठोग्गही होति" ॥ जदि अस्थि पदविहारो, 'चउपादिवम्मि होइ गंतव्य'५ । अहवा वि 'अणितस्सा, आरोवण' पुन्वनिद्दिट्ठा ।। काइयभूमी संथारए य संसत्त दुल्लभे भिक्खे ।
एतेहि कारणेहिं, अप्पत्ते होति निग्गमणं' ।। ७३. राया 'सप्पे कंथ', अगणि-गिलाणे य थंडिलस्सऽसती।
एतेहि कारणेहि, अप्पत्ते होति निग्गमणं ॥दारं।। १. म (ब, बृभा ४२८२) ।
रूप में कोई उल्लेख नहीं किया है। २. रायं (मु, भा))।
पण्णासा पाडिति, चउण्ह मासाण मज्झओ। ३. सवीसति (निमा ३१५१), सवीसगं (बृभा)। ततो उ सत्तरी हो, जहष्णो वासुवगहो ।। ४. गहीयं (ब)।
१२. ठियाण तीतमग (निभा ३१५६), ठियाण ५. अब न (निभा ३१५२), सभा ४२८३ । जाव मग्ग० (ला)। ६. दसमिष्ट्रियाण (ब, मु)।
१३. भणितो (निभा), बृभा ४२८६ । ७. मोसवणा (निभा ३१५३, बृभा ४२८४)। १४, अह (बृभा ४२८७)। ८. ईय सत्तरि (ब)।
१५. चउपडिवयम्मि होइ णिग्गमणं (निभा ९. मिग (मु)।
३१५७, बृभा)। १०. रायं (बी, ला)।
१६. अणितस्स आरोवणा (निमा), यह गाया ना ११. निभा ३१५४, बुमा ४२८५। निशीथ और बी प्रति में अनुपलब्ध है ।
भाष्य में पर्यषणाकल्प की सभी नियुक्ति- १७. संसतं (निभा ३१५९)। गाथाएं उधत है। गाथा ६९ के बाद निमा १८. निशीथ भाष्य में ७२ और ७३ की गाथा में (३१५५) में निम्न गाथा मिलती है। यह क्रमव्यत्यय है। गाथा दशावृतस्कंध की प्रतियों में उपलब्ध १९. कुंथू सप्पे (निमा ३१५८) । नहीं है। चूर्णिकार ने भी इसका गापा के
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दवाश्रुतस्कंध नियुक्ति
वासं' व 'न उवरमती',' पंथा वा दुग्गमा सचिमिखल्ला । एतेहि कारणेहि, अइकते होत्ति निग्गमणं' ।। असिवे ओमोयरिए, रायादुठे भए 4 गेलण्णे । एतेहिं कारणेहिं, अइक्कते होय निग्गमणं ।। उभो वि अजोयण, समदकोस" च तं हयति खेतं । होति सकोसं जोयण, मोत्तूणं कारणज्जाए । उपमहे तिरियम्मि य, 'सकोसयं सम्वतो हति' खेत्तं । इंदपदपादिएK, छद्दिसि सेसेस" चउ पंच" || तिण्णि दुवे एगा वा, वाघातेणं दिसा हयति खेत्तं" । उजाणाड परेणं, छगमनं तु अक्खेत्तं ।। दगघट्ट तिण्णि सत्त व, उडुवासासु ण हणंति तं खेत्तं । चउरट्टाति हणतो, 'जघदेवको वि तु परेणं" दारं। दवढवणाहारे, विगती-संथार-मत्तए लोए । सन्मित्ते अच्चित्ते, वोसिरणं गहण-धरणादो ।। पुश्वाहारोसवणं, जोगविवड्ढो ये सत्तिउगहणं । 'संचइय असंचइए'", दम्वविवड्डो पसत्थाओ" ॥ विगति विगतोमोतो, वितिगयं जो उ भुंजते भिक्खू । विगती विगयसभावं" विगतो विर्गात बला नेइ ।।
१. वासा (बी)।
९. एसू (निभा)। २. न मोरमती (म), णो रमई (ला)। १०. इपरेसु (अ)। ३. निमा ३१६० ।
११. खेत्ते (निभा ३९६४)। ४. रायदुळे (अ, निमा ३१६१),
१२. ते (निभा ३१६५), ५. होह निगमणं (मु), कुछ प्रतियों में इस गाथा १३. निभा ३१६५
के पश्चात् 'कारण मासकम्प' (गा.७१) १४. समणं (ला)। वाली गाया है।
१५. ससिमोगणं (निभा ३१६७) । १. दुहको (ब)।
१६. ० इयमसंच (निभा)। ७. अड० (निभा ३१६२)।
१७. पसत्या उ (मु)। ८. सक्कोस हवंति सबतो (निभा ३१६३), १८. गिहए (अ,ब,बी,सा)। सकोसं हो। सवओ (ला)
१९. वितिसहावा (निभा ३१६८)।
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३९५
८२/१
८३.
८४.
८५.
५६.
५७.
८५.
८९.
१०.
निर्युक्तिपंचक
सत्यविगतिग्रहणं, तत्थ वि य असंचय उजा उत्ता । संचय ण गेहंती, गिलाणमादीण कज्जडा' ।। पसत्य विग तिम्गहणं, गरहितविगतिग्गहो य' कज्जम्मि गरहा लाभपमाणे, पच्चय पावप्पडीघात ॥ कारणओ* उडुगहिते, उज्झिऊण गेण्हति अष्णपरिसाडी' । दाजं गुरुस्स तिष्णि उ, सेसा गेण्हति एक्क्कं ॥ उच्चार पासवण - खेलभत्तए, तिष्णि तिष्णि गेष्हति । संजय * आएसठ्ठा 'मुंजेज्जब से स उभंति ॥ घुवलोओ उ जिणाणं, निच्च थेराण वासवासासु । असहू गिलाणगस्स व 'नातिक्कामेज्ज तं रर्याणि ।। मोत्तुं पुराण- भावित सड्ढे, संविग्ग सेसपडिसेहो " | 'मा होहिति निम्मो, " भोयणमोए य उड्डाहो || दारं ॥ डगलच्छारे लेवे, घड्डण गहणे तहेव धरणे व पुंछण- गिलाण भायणभंगादिहेतु से ॥ इरिएसण मासाणं, मण- वयसा काइए" अहिकरण-कसायाणं, संवछरिए कामं तु सव्वकालं पंचसु समितीसु होति जतियन्वं । 'वासासु अहोगारो, ४ बहुपाणा मेदिणी जेणं ॥
मत्तग,
ग
१. ८२३१ की गाथा निभा ३१६९ में ही मिलती है। आयारदशा की हस्तप्रतियों में यह गाया अप्राप्त है। पूणि में भी इस गाथा की व्याख्या नहीं मिलती है । इस गाथा के सम्बन्ध में दो बातें संभव है । प्रथम तो स्वयं निशीथ भाष्कर ने स्पष्टता के लिए यह गाथा लिख दी हो। दूसरा यह भी संभव है कि आयारदशा निर्मुक्ति के लिपिकारों द्वारा यह गाथा छूट गई हो। पुष्ट प्रमाण के अभाव में इसे निर्युक्ति गाथा के क्रम में नहीं रखा है । २. विगतीए गहणम्मि वि ( निभा ३१७०) ।
३. व ( निभा, ब ) ।
४. कारणे ( विभा ३१७१) ।
५. ० साडि ( निभा), परिपाटी (बी) ।
६. संजम (ला, निभा ३१७२ ) । ७. य (अ निभा ३१७३) ।
5.
९.
यदुच्चरिते । faraj ||
०वासा उ (बी) ।
तं रर्याणि तु णऽतिक्कामे ( निभा ) । नातिकमेज्जा तं० (श्री) ।
१०. सच्चित्त से० ( ला निमा ३१७४) | ११ मा निनो भविस्स (मु.अ ) | १२. प्रस्तुत गाया आयारदशा की चूर्णि की मुद्रित पुस्तक में तथा कुछ आदशों में नहीं मिलती है। किन्तु चूर्णि में इसकी व्याख्या मिलती है। इसके अतिरिक्त निशीथ भाष्य (३१७५) में भी इस क्रम में यह गाथा उपलब्ध है। हमने इसे नियुक्ति गाथा के क्रम में सम्मिलित किया है ।
१३. कायए (निमा ३१७६) ।
१४. वासावासं अहिगारो ( ब ) |
१५. निभा ३१७७ |
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३९९
९२.
दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
भासणे' संपातिवहो,' दुण्णेओ नेहछेए। ततियाए । इरियचरिमासु दोसु वि, अपेह 'अपमजणे पाणा* ।। मण-वयण-कायगुत्तो, दुच्चरियाई तुर खिप्पमालोए । 'अहिकरणम्मि दुख्यग', पज्जोए चेव दमए य ।।
माया नही पासह तुझे हि 'डज्झ खलहाणे' । 'हरणे झामणजत्ता, माणगमल्लेण घोसणया" ।। अप्पिणह तं बइल्लं, दुरूतगा !" तस्स ! कुंभकारस्स । मा भे डहीहि घण्णं," अन्नाणि वि सत्तवासाणि" ॥ चंपा 'कुमार नंदी',५ पंचऽच्छर थेर नयण दुमऽवलए। विह" पास णयण' सावग, इंगिणि उववाय दिसरे८ ।। बोहण पडिमोद्दायण, पभावउप्पाय देवदत्तद्दे" । मरणुवबाते तावस, नयणं 'तह भीसणा'५ समणा ।। गंधारगिरी देवय, पडिमा गुलिया गिलाण-पडियारणं । पज्जोयहरण पुक्खर,५ 'रणगणे मेज्ज ओसवणा' । दासो दासीवतिओ, छत्तट्टो५ जो घरे य वत्थब्यो । आण कोवेमाणे, हंतव्वो बंधियवो य ।।
१. भासण (अ)
१३. गाम (अ.मु)। २. संपाइम वहो (मु)।
१४. ० वरिसाणि (निमा) । ३. छेदु (निभा ३१७८), नेहच्छेत्री (ब)1 १५. अणंगसेगो (निभा ३१८२) । ४. अपमज्ज पाणाणं (बी)।
१६. विहि (ला)। ५. च (बी,अ), व (घ, निभा)।
१७. पासणया (मु)। ६. णिच्चमालोर (ब, निभा ३१७९) । १८. मंदिवरे (निभा ३१८२) । ७. अहिकरणे तु दुरूवग (निभा) गरणे य० १९. पडिमा उदयण (अ)। (अ,बी) ।
२०. देवदत्ताते (अच), देवया अहे (ला.बी)। ८. एगबतिल्लं भंड (निमा ३१८०), ल्ला २१. तहा भेयणं (ला, बी)। गड्डी (अ)।
२२. व्यरेण (अ)। ९. इझतख० (निभा), सत्तन० (बी)। २३. दोक्खर (अ,मु)। १०. हरणेज्झामण भाणग, घोसणता मल्लजुद्धेसु २४. रणगहणे शामओसवणा (निभा ३१८४), करणं (बी, निभा)।
गहणेण ओसवणा (ला,बी)। ११. दुरूवगा (निभा ३१८१), दुरुवतम (बी)। २५. छत्तट्ठी (निभा ३१८५), छत्तट्ठिय (अ)। १२. डइहिति (निभा)।
२६. वत्तब्बो (निभा)।
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Yoo
नियुक्तिपंचक खद्धाऽऽदाणिय गेहे, पायस 'दट्ठ दमचेडरूवाई" । पितरोभासण खीरे, जाइय 'रदेण सेणा उ"। पायसहरण छेत्ता, 'पञ्चागय दमग असियए' सीस। भाउय सेणाहिवचिसणा, य सरणागतो जत्य ।। वाओदएण' राई, नासति कालेण सिगय पुढवीणं ।
जासति दगस्सराई, पव्यतराई तु जा सेलो॥ १०२. उदगसरिछाई पक्खेणऽवेति चतुमासिएण सिगयसमा।
वरिसेण पुढविराई, आमरणगती उ" पडिलोमा | १०३. सेल टू-थंभ-दारुय, लता य वंसी" य मिंड गोमुत्त ।
अवलेहणिया किमिराग-कद्दम-कुसुंभय-हलिहा" ॥ १०४. एमेव यंभकेयण, वत्थेसु पस्वणा गतीओ य ।
'मरुय-अचंकारिय" पंडरज्ज-मंगू य माहरणा" ।। १०४।१. चउसु कसाएसु गती, साहिरिम मासे य देवगत।।
उवसमह णिच्चकालं, सोगाइमग्गं बियाणंता" ।। १.५. अवहंत गोण मरुए, चउण्ह वप्पाण उक्करो उरि ।
__ 'योदूं मए मुवट्ठाऽतिकोवे' '८ देमु पच्छित्तं ।। 1. बमसरुवा दर्दू (निभा ३१८६) दण १४. मश्यऽचंकारिय (ब,मु)। - चेड० (म,मु)।
१५. निभा ३१९०। २. सद्धे य रोणा न (अ, मु), रखें य तेणा तो
निशीथ भाष्य में १०३ और १०४ को गाथा (निभा)।
में क्रमम्पत्यय है। निभा में एमेव चम ३. मसियए (बी)।
(३१९०) के बाद सेलऽट्टि (३१९) की गाथा ४. पयागय असिथएण सीसं तु (निभा ३१८७)।
है। लेकिन विषय वस्तु की दृष्टि यह ५. चिसणाहि (निभा), सेणावतिखि (मु)।
क्रम संगत नहीं लगता। ६. वामोदएहि (निभा ३१५८)।
१६. गाथाओं के चालू क्रम में प्रस्तुत गाषा केवल ७. सिगइपु. {ला, बी)।
निशीष भाष्य (३१९२) में मिलती है। ८. उदगस्स सति (निभा), उदगस्त सती (मु)।
आयारदशा की नियुक्ति में यह गाथा अप्राप्त ९. सरिच्छी (ला,बी)।
है। संभव है पह निणीय भाडयकार द्वारा १०. य (ल,बी, निभा ३१८९)।
भाष्य में बाद में जोड़ दी गई हो। ११. वसे (निभा)।
१७. छूढो मओ उवट्ठा अति० (निभा ३१९३), १२. मेंड गोमुत्ती (निभा)।
• सुवट्टाति (मु)। १३. निभा (३९९१) में गाथा का, उत्तरार्ध इस १८, णो (म)।
प्रकार है-अवलेहणि फिमि कदम कुसुंभरागे १९. देसु (ला, बी)। इलिय।
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४०१
दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति १०६. वणिधूयाऽचंकारियभट्टा' अट्ठसुयमम्मतो जाया ।
'वरग पडिसेह सचिवे, अणु यत्तीह' पदाणं च ।। १०७. निवचित विकालपडिच्छणा य दारं न देमि निवकणा ।
खिसा निसिनिग्गमण, चोरा सेणावतीगहणं ॥ १०८. नेच्छति जलगवेज्जगगहणं 'तं पि य अणिच्छमाणी उ*।
"गिण्हावेइ जलूगा, धणभाउग कहण मोयणया' । १०९. सयगुणसहस्सपागं, वणभेसज्ज जतिस्स जायणता।
तिक्खुत्त वासिभिदण, न य 'कोव सयंपदाणं च | पासस्थि पंडरज्जा, परिण गुरुमूल गातअभियोगा ।
'पुच्छा तिपडिक्कमणे'," पुन्वन्भासा चम्मि१२ ।। १११. अपडिक्कमसोहम्मे, 'अभिओगा, देवि सक्कओसरणे ।
हत्यिणि वाणिसम्गो," गोतमपुच्छा य५ वागरणं । ११२. महुरा मंगू आगम, बहुसुत बेरग्ग सड़लपूया" य ।
सातादिलोभ णितिए, मरणे 'जीना य१णिद्धमणे" ।। ११३. अब्भुवगत गतवेरे, णातुं गिहिणो वि मा हु अधिगरणं ।
कुज्जा हु कसाए वा, अविगडितफलं च सि सोउ । ११४. पच्छित बहुपाणा, कालो बलिओ चिरं तु" ठायव्वं ।
सज्माय-संजम-तवे, 'णियं अप्पा'२२ नियोतव्वो।
११०
१. धूय अचंकार (म), धूयाच्च• (मु), ११. पुन्छति य पडि. (मु,ब,अ) ।
धूप अचं (ला,जी), घणधूपमर्चका (निभा १२. चउत्थं पि (निभा, ३१९८)। ३१९४)।
१३. अभिउग्गा देव (निभा ३१९९) । २. चरणपडिसेव (निभा)।
१४. वाउस्सगे (निभा), वाउनि० (ला, बी)। ३. व्यत्तीहिं (निभा)।
१६. तु (निभा) ४. दाणं (बी, निभा ३१९५) ।
१६. सद्धपूया (अ)। ५. कण (निभा)। ६. गमणं (ब),।
१७. जीहाइ (निभा ३२००)। ७. तम्मि य मणिच्छमाणम्मि (अ.म)।
१८. शिद्धिमणे (मु)। 5. गिण्हावे बलूगवणा भाउयदूए कहण मोए १९. हि (निभा ३२०१)।
(निमा ३१९६), गाहावइ जलगा० (म)। २०, पचिरते बहुपाणो (मु,बी)। २. पतीसु (अ,मु)।
२१. च (निभा ३२०२)। १०. कोबो सय० (अ), कोहो सयं च दाणं च २२. धणियप्पा (ब)।
(निमा ३१९७)।
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४०२
नियुक्तिपंचक
__ पुरिम-चरिमाण' कप्पो, मंगल्लं' वद्धमाणतिस्थम्मि ।
ता' परिकहिया जिण-गणहराइयेरावलिचरित' ।। सुते जहा निबद्ध,५ वग्धारिय भत्त-पाणअग्गहणं ।
णाणट्ठि तवस्सी, महियासि वग्घारिए गहण ।। ११७. संजमखेत्तत्र्याणं, णाद्वि-तवस्सि अहियासाणं ।
आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जतितब्बं ।। ११८. उपिणयवासाकप्पो, लाउयपायं च लभए" जत्य ।
सज्झाएसणसोही, वरिसति" काले य तं खेत्तं ।। ११९.
पुष्वाधीतं नासति, नवं च छातो अपश्चलो घेत्तुं । खमगस्स य पारणए, वरिसति" असहू य बालादी। बाले सुत्तं सूई, कुडसीसग छत्तए" 'य पंचमए'५ । णाणट्ठि-तवस्सी अणहियासि अह उत्तरविसेसो"।
पज्जोसवणाकप्पस्स मिजुत्ती समत्ता १२१. खाम उम्णा लोहो, दो शारे ८ होति बोधन्यो।
ठाणं पुवुद्दिठं, पगयं पुण भावठाणेणं ।। १२२. दठवे" सच्चित्तादी, सयणधणादी दुहा हवइ मोहो।
ओघेणेगा पगडी, अणेगपगडी भवे मोहो।। १२३. अविध पि य फम्म, भणियं मोहो तिजं समासेणं ।
सो पुग्वगते भणिओ, तस्स य एगट्टिया इणमो । १२४. पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य ।
संगे सल्ले अरए, निरए घुत्ते य एगट्ठा ।।
१२०.
१. चरमाण (बी)।
११. वासति (अ,ला,बी)। २. तु मंगलं (निभा ३२०३)।
१२. ण पच्चलो (निभा ३२०७)। ३. इह (मा,मु) ।
१३ बरसति (ला,बी,निभा) । ४. जिपपरिकहा म थेरापली वोन्छ (अ,ब) । १४. छित्तए (ब), य पच्छि० (निभा ३२००) । ५. णिबंधो (निभा, चू)।
१५. अपच्छिमए (अ.मु)। ६. मग्गहण (निभा ३२०४), अग्गहणे (मु)। १६ बिसेसा (निभा) । ७. णाणट्ठी (मु)।
१७. दम्ब (ला, मी)। ८. यणहि० (निभा)।
१८. गा. १२४ से १३० तक की गाथाएं चूणि में ९. निभा ३२०५ ।
ज्याच्यात नहीं है । चूणि की मुद्रित प्रति में १०. लम्भती (निभा ३२.६) ।
तथा प्राचीन आदशों में ये गायाएं उपलब्ध है।
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४०३
१२६.
१२९.
बमाश्रुतस्कंध नियुक्ति १२५. कम्मे य किलिसे य, समुदाणे खलु तहा मइल्ले य ।
माइणो अप्पाए य, दुप्पक्छे तह संपराए य॥ असुभे' दुहाणुबंधे, दुम्मोए खलु चिरद्वितीए य ।
घण-चिक्कण-निब्वेया, मोहे य तहा महामोहे ।। १२७. कहिया जिणेहि लोगो, पगासिया भारिया इमे बंधा ।
साहु-गुरु-मित्त-बंधव, सेट्ठी-सेणावइवधेसु य ।। १२८. एत्तो गुरुआसायण, जिणक्यणविलोवणेसु पडिबंछ । असुहे दुहाण बंधोति, तेण तो ताई बज्जेज्जा ।।
मोहणिज्जस्स निम्जुत्ती समता माम रक्षा को बारे - और बोधया ।
'ठाणं पुवुद्दि→',' पगयं पुण भावठाणेणं ।। १३०. दव दव्वसभावो, भावो अणुभवण ओहतो दुविहो ।
अणुभवण छविहो ओहओ उ ससारिओ जीवो ।। जाती आजातीया, पच्चाजाती य होइ बोधवा ।
जाती ससारत्था, आजाती जम्ममन्नयरं ॥ १३२.
जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणो वि जह हबति जम्म ।
सा खलु पच्चाजाती, मणुस्स-तेरिच्छिए' होइ ।। १३३. कामं असंजतस्सा. नत्थि ह मोक्खे धुवमेव आजाई।
केण विसेसेण पुणो, पावइ समणो अणायाई ।। १३४. मूलगुण-उत्तरगुणे, अप्पडिमेवी इहं अपडिबद्धो ।
भत्तोवहि-सयणासविवित्तसेवी सया पयओ ।। तित्थंगर-गुरु-सासु, भत्तिमं हत्थ-पायसंलीणो । पंचमिओ कलह-झंझ-पिसुण-ओहायरओ य ।। पाएण एरिसो सिज्झह त्ति, कोई पुण आगमेस्साए । केण ह दोसेण पुणो, पावइ समणो वि आयाई ॥
१३५.
१३६.
१. असृत्ते (ला.अ.मु)। २. दुह पुण बधा (अ,बी)। ३. ठाणं की नियुक्ति गाथा के लिए देखें
सूनि १६८, आनि १८५, दनि १.।
४. हवंति (बी)। ५. पञ्चागात्ति ति (ला,बी,अ)। ६. तेरिम्चए (म) । ७. असंजमस्सा (ब), असंजइस्सा (ला)।
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४०४
नियुक्तिपंचा १३७. जाणि भणियाणि सुत्ते, तहागएK 'नव य" निदाणाणि ।
संदाण निदाणं ति य, पन्नो' ति य होंति एगट्ठा ।। १३८. दवप्पओग-वीससप्पभोग स-मूलउत्तरे चेव ।
मूलसरीरसरीरी, सादोय अणादिए। चेव ।। १३९. निगलादि उत्तरो वीससा उ साई अणादिओ चेव ।
खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो अहिं जो उ ।। १४०. दुविहो य भावबंधो, जीवमजीवे य होइ बोधव्यो ।
एक्केको दि य तिथिहो, विवाग अविवाग-तदुभयगों ।। भावे कसायबंधो, अहिगारो बहुविहेसु अत्थेसु ।
इहलोग-पारलोगिय, पगयं परलोगिए बधे ।। १४२. पावइ धुवमायाति, निदाणदोसेसु' उज्जमतो वि ।
विणिवायं पि य पावइ, तम्हा अनियाणता सेया ।। अपासत्थाए' अकुसीलयाए अकसाय-अप्पमाए य । अणिदाणयाइ साहू, संसारमहण्णवं तरई ॥
नियाणट्ठाणस्स निज्जुसी समता
१. सहा (अ.मु)।
३. सादी उ अणा (ला), साती अणातिए(अ)। २. बादशों में तथा मुद्रित पूणि की नियुक्ति ४. तदुभहगो (अ)।
गाथाओं में 'पन्यो' पाठ मिलता है । लेकिन ५. १४१ और १४२ की गाथा में ला और बी चूर्णिकार ने 'संताणं ति वा निवाणं ति वा प्रति में क्रमव्यत्यय है। बंधो तिवा' ऐसा उल्लेख किया है । संभव है ६. दोसेण (ला, बी)। चर्णिकार के सामने कोई भिन्न आदर्भ या ७. अप्पा (ला), • त्या (बी) जहां पर्व के स्थान पर बंध पाठ होगा। . तर (ला)।
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१. मैं प्राचीनगोत्रीय, अन्तिम श्रुतज्ञानी (चतुर्दशपूर्वी -सकल श्रुतज्ञान के ज्ञाता ) भद्रबाहु को वंदना करता हूं। वे दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प तथा व्यवहार - इन तीनों सूत्रों के कर्ता थे ।
२४. (दशा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । ) भावदशा के दो प्रकार हैं- आयुविपाकदशा तथा अध्ययनदशा । द्रव्यदशा है - वस्त्र की किनारी । आयुविपाकदशा के दस प्रकार हैं । शतायु व्यक्ति के आयुष्य के दस विभाग किए हैं। वे ये हैं-
(१) बालादणा
(२) मन्दादशा
(३) क्रीडादशा
(४) बलादशा
(५) प्रभावशा
(६) हायनीदशा
(७) प्रपंचदशा
(८) प्रारभारादशा
मुम्बुम (१०) शायनीदशा
ये दस आयुविपाकदशाएं हैं। ये स्व-स्व नाम और लक्षणों से जानी जाती हैं। आगे 'क्रमशः में अध्ययनदशा — दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों का क्रमशः वर्णन करूंगा ।
५. अध्ययनदशा के दो प्रकार हैं-छोटी और बड़ी छोटी अध्ययनदशा है - प्रस्तुत आचारदशा | बड़ी अध्ययनदशा है ज्ञालाधर्मकथा आदि छह भंग आगम - ( ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण तथा विपाकश्रुत) । जिस प्रकार वस्त्र की विभूषा के लिए उसकी दशा — किनारी होती है, वैसे ही ये दशाएं हैं ।
६. स्थविर – आचार्य भद्रबाहु ने शिष्यों पर अनुग्रह कर ये छोटी अध्ययनदेशाएं इस आचारदशा में निर्यूह की है। जो जीव दशाओं को जानने में उपयुक्त है, वह भावदशा है ।
७. मैंने दशा का समुच्चयार्थ संक्षेप में कहा है। अब प्रत्येक अध्ययन का वर्णन करूंगा । म. प्रस्तुत सूत्र के दस अध्ययनों के नाम ये हैं
(१) समाधि
(४) गणि-गुण
(२) शबलत्व
(५) मनः समाधि
(३) अनाशातना
(६) श्रावक - प्रतिमा
१. आचार्य भद्रबाहु ने दृष्टिवाद के नौवें पूर्व के असमाधिस्थान नामक प्राभृत से 'असमाधिस्थान' का तथा अन्यान्य सभी दशाओं का
(७) साधु- प्रतिमा
(5) कल्प
(९) मोह (१०) निदान
प्रथमदशा : असमाधि स्थान
९. जिस द्रव्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा एक या अनेक द्रव्यों का परस्पर अविरोध अथवा तुलारोपित द्रव्य के साथ जो द्रव्य आरोपित होकर तुला के दोनों पलड़ों को सम रखता है, यह द्रष्म, द्रव्यसमाधि है । जीव के प्रशस्त योगों से होने वाली सुसमाहित अवस्था भावसमाधि है।
उन-उन नाम वाले प्राभूतों से निर्यूहण किया । (दश्रुचू प० ३)
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निर्मुक्तिपंचक
१०. स्थान शब्द के १५ निक्षेप हैं
१. नामस्थान ६. ऊठवस्थान ११. योधस्थान २. स्थापनास्थान ७. उपरतिस्थान १२. अचलस्थान ३. द्रव्यस्थान
८, वसतिस्थान १३. गणणस्थान ४.क्षेत्रस्थान ९ संयमस्थान
१४. संधनास्थान ५. अद्धास्थान १०, प्रग्रहस्थान
१५. भावस्थान ११. प्रथम दशा में चणित बीस असमाधिस्थान केवल निम्म-आधारमात्र हैं। इनके सदृश अग्य भी असमाधिस्थान हो सकते हैं। इस प्रसंग में तथा अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिए । दूसरी वशर : शबल
१२. शबल शव के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्वथ्य शबल है-- चितकबरा बैल आदि। आचार को चितकबरा करने वाला कशील अथवा जो आषाकर्म आदि में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार का मेनन गरता है, नहूँ " व बारा
१३. अथवा लघु अपराध में शबलस्क होता है। जो मुनि प्रायश्चित्त के रूप में मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त न होकर छेदपर्यन्त प्रायश्चित्त पाता है, वह अपने चारित्र को भी शबल बना देता है । उसे शबलचारित्री कहा जाता है। १४. (अखंड घट जल से परिपूर्ण होता है।) खंडित घट के अनेक रूप हैं
० बाल-बाल जितने छिद्र वाला। • राजि-छोटी सी दरार वाला।
दालि-बड़ी दरार वाला। • खंड-एक भाग खंडित । .बोड-जिसमें एक भी कोना न हो। • खुत-छिद्रों वाला ।
• भिन्न-बड़े छिद्रों वाला फूटा हुआ घट । इन घड़ों से पानी क्रमश: अधिक, अधिकतर झरता है अतः ये दोषपूर्ण हैं। इसी प्रकार शबल दोषों से देश-आंशिक और सर्व विराधना होती है।
यहां 'कम्मासपट्ट" के दृष्टांत से भी शबल और उससे होने वाली विराधना बताई गई है। (पट्ट के कई प्रकार है-कम्मासपट्ट, वक्रदंडपट्ट, वृत्तपट्ट आदि ।)
१५. 'आसायणा' के दो प्रकार है-मिथ्यापतिपत्ति तथा लाभ | लाभ आसादना के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद है-इष्ट
और अनिष्ट । १. निम्मं आधारमात्र । दश्रुचू. प ६ । प्रकार चारित्र में भी छोटी बड़ी स्खलना से २. जैसी सूती वस्त्र पर छोटा या बड़ा धब्बा है। शनल दोष लगता है, जिससे आश्विक मा सर्व
तो वह वस्त्र मलिन ही कहा जाता है। उसी विराधना होती है।
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दशायुतस्कंध नियुक्ति
१६. चोरों द्वारा साधुओं की चुराई हुई उपधि का पुन: लाम' होना अनिष्ट द्रव्य आसादना है । एषणा शुद्धि से उपधि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इसी प्रकार क्षेत्र, कान्तार, ग्रामानुग्राम विहरण, विषमभिक्ष आदि में अप्रासुक द्रव्य-ग्रहण अनिष्ट द्रश्य आसादना है तथा प्रासुक द्रव्य ग्रहण इष्ट द्रव्य वासादना है। दुर्भिक्ष आदि में आहारादि की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा सुमिव में आहारादि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। ग्लान आदि के लिए बनेषणीय की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा एषणीय की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति के आधार पर यहां आसादना कही गयी है।
१७. मान-उन्मान-प्रमाण युक्त द्रव्य की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है तथा हीन अधिक की प्राप्ति अनिष्ट द्रष्य आसादना है। जिस क्षेत्र और काल में इष्ट-अनिष्ट द्रव्य दिया जाता है अथवा उसका वर्णन किया जाता है. वह क्षेत्र और काल की इष्ट-अनिष्ट आसादना है। भाव आसादना के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, शायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सानिपातिक । यहां भाव आसादना का प्रकरण है।
१८, छठे सत्यप्रवाद पूर्व के अक्षरप्राभूत में तथा आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के आठवें महानिमित्तप्राभूत में 'आ' उपसर्ग वर्णित है । वह अपने अर्थ से युक्तिकृत पद के अर्थ का विशोधिकर है । यह अकस्मात् होने वाली लाभ आसादना है।
१९. मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् स्वीकार न करना । जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है ।
२०. इस प्रकार आचरण करता हया शिष्य भले फिर वह संयम और तप में उद्यम कर रहा हो, वह दुःखमुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मदस्थानों से होने वाले अपने वात्मोत्कर्ष को प्रयत्न-पूर्वक वर्जित करना चाहिए।
२१. सूत्र में जिन आशातनाओं का वर्णन किया गया है, शिष्य बिना किसी कारण से उनका उपयोग न करे। जो शिष्य गुरु को गुरुस्थानीय नहीं मानता, गुरु के प्रति होने वाली आशातनाओं का वर्जन नहीं करता, वह भारीकर्मा होता है।
__ २२ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। विनय गुरुमूलक होता (तथा दर्शन आदि गुण गुणमूलक होते हैं ।) जो गुरु की आशातना करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है
२३. सूत्र में जो आशातनाएं वर्णित हैं, उनको जो शिष्य प्रयोजनक्श करता है तथा जो गुरु को गुरुपद के उच्चस्थान पर गिनता है, वह भारीकर्मा नहीं होता।
२४. जो गुरु की आशातना करता है, वह स्वयमेव दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता, उनका विकास नहीं कर सकता। उसके लिए शान, दर्शन आदि की आराधना की तो बात ही क्या ? इसलिए आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए।
२५. (गणी शन्दो चार निक्षेप हैं --नामगणी, स्थापनागणी, द्रव्यगणी और भावगणी ।) द्रव्यगणी है-गणिनागकर्म के अभिमुख आदि। भावगणी है-गणी की आठ संपदाओं से युक्त । वह दो प्रकार का है-आगमतः, नोआगमतः । नोआगमत: के दो प्रकार है-गणसंग्रहकारक, उपग्रहकारक तथा जो धर्म-गणिस्वभाव अर्थात गणिसंपदा को जानता है।
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नियुक्तिपंधक २६. ज्ञात, गणित, गुणित और गत-ये सारे शब्द एकाधक हैं । इसलिए जो धर्म-गणिसंपदाओं का ज्ञायक होता है, वह ज्ञानी गणी कहलाता है।
२७. आचारांग को पढ़ने पर श्रमणधर्म ज्ञात होता है । इसलिए आचारधर-आचारांग को जानने वाला प्रथम गणिस्थान कहलाता है।
२८. जो गणसंग्रहकारक तथा उपग्रहकारक'- दोनों होता है। यह गण को धारण करने में समर्थ होता है। उसी का प्रस्तुत में प्रसंग है। गणिसंपदा के छह निक्षेप है-नामसंपदा, स्थापनासंपदा, द्रव्यसंपदा, क्षेत्रसंपदा, कालसंपदा, भावसंपदा । प्रस्तुत में द्रव्य आदि चार संपदाओं का प्रसंग है।
२९. संपदा के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंपदा और भावसंपदा । (इसी प्रकार क्षेत्रसंपदा और कालसंपदा भी है।) द्रव्यसंपदा है-शरीरसंपदा । भावसंपदा के छह प्रकार है-औदयिक आदि छह भाव । संग्रहपरिज्ञा के छह निक्षेप है-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।)
३०,३१. जैसे गजकुल में उत्पन्न हस्ती अर्थात् अरण्यहस्ती अपने शरीर से उद्गत विशाल दांतों से अथान्त होता हुआ गिरि, कंदरा, कटक तथा विषम दुर्ग-स्थानों में उनको वहन करता है, वैसे ही प्रमचन-शक्ति से ओतप्रोट, रामधार्मिक वात्सल्य से परिपूर्ण, अशढभाव से युक्त तथा गणिसंपदाओं से संपन्न गणी असमर्थ साधु-संघ को अनार्य क्षेत्र, विषम काल, विषम पथ और दुर्ग में सुखपूर्वक वह्न करता है।
३२. चित्त शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इसी प्रकार समाधि शब्द के भी चार निक्षप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
___ ३३. द्रव्यचित्त है-जीव । चित्तोत्पादक द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों में चित्त उत्पन्न होता है, वह भी द्रब्यचित्त है। भावचित्त है-ज्ञान आदि में सुसमाधि तथा भुवयोग ।
३३/१. अकुशल योगों का निरोध तथा कुशल योगों की उदीरणा-यह भी भावचित्त है । समाधि के ये चार प्रकार हैं।
३३/२. जिस व्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों का अवलम्बन पाकर समाधि प्राप्त होती है, वह द्रव्यसमाधि है। भावसमाधि के चार प्रकार हैं-दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र।
१. इसके चार विकल्प होते हैं
१. कुछ गणसंग्रहकारक होते हैं, उपग्रहकारक __नहीं होते। २. कुछ उपग्रहकारक होते हैं, गणसंग्रहकारक
नहीं होते। ३. कुछ दोनों होते हैं।
४. कुछ दोनों नहीं होते। २. णओ-सि नीतिर्नयः अहिगार इत्यर्थ:
-श्रुचू प १७
३. व्यसंग्रहपरिक्षा-संघ के लिए वस्त्र, पात्र
आदि की याचना करना अथवा उनकी उपलब्धि के उपाय जानना । क्षेत्रसंग्रहपरिमा- पथ (गमन) की विधियों को जानना। योग्य, अयोग्य क्षेत्र को जानना। कालसंग्रहपरिमा-दुभिक्ष आदि की विधियों को जानना। भावसंग्रहपरिज्ञा-पलान आदि की सेवा-विधि को जानना।
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दशाशुतस्कंध निर्युक्ति
३४. जब भावसमाधि में विस आहित ( युक्त) और स्थित होता है तब ये सभी स्थान वित्त में विशिष्टतर होते जाते हैं। इसलिए चित्तसमाधि के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
३५. उपासक के बार प्रकार हैं- द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक तथा भावोपासक । द्रव्योपासक है— उपासक नाम गोत्र कर्म के बंध के कारण भविष्य में होने वाला उपासक । तदर्थोंपासक वह है, जो ओदन आदि द्रव्य के लिए उपासना करता है ।
३६. जो कुप्रवचन, (कुधर्म में अपना श्रेय मानता
धर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक है । खेद है, वह उसमें है, परन्तु वहां उसका श्रेय नहीं होता |
३७. जो सम्यग्दृष्टि है,
सम मन वाला है तथा श्रमणों की उपासना करता है, वह भावोपासक है। इसके दो गोण नाम हैं- उपासक और श्रावक ।
३८. द्वादशांगी प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन है - अनगारधर्म और अगारधर्म ( श्रावकधर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'पूर प्राणिप्रसवे' से प्रसूत शब्द निष्पक्ष होता है ।
३९. केवली धर्मं सुनाते हैं, इसलिए वे श्रावक हैं। साधु और गृहस्य उनकी उपासना करते हैं. इसलिए उपासक हैं । उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी श्रावक हैं। इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों धावक हैं। विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और भावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं।
४०. यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है। (मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं ।) इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ ही श्रावक और उपासक दोनों होते हैं। (असम्पूर्ण श्रुत के कारण गृहस्थ नित्य श्रवण और उपासना करते हैं अतः वे श्रावक हैं ।)
४९. (प्रतिमा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ) । द्रव्य प्रतिमा के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र ।
संयतप्रतिमा- प्रव्रज्या लेने के इच्छुक गृहस्थ अथवा उत्प्रव्रजित व्यक्ति का द्रव्य लिंग । जिनप्रतिमा-तीर्थंकर की प्रव्रज्या ।
भावप्रतिमा – जिन प्रतिमाओं के जो गुण कहे गये हैं, उनको यथार्थरूप में धारण करना ।
४२. भावप्रतिमा के दो प्रकार हैं – भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा । भिक्षुप्रतिमा के बारह तथा उपासकप्रतिमा के ग्यारह प्रकार हैं। भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन आगे किया जाएगा । उपासक प्रतिमाओं का वर्णन यहां करूंगा |
४३. उपासक और साधुओं के गुणों (प्रतिमाओं) का पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ये साधु हैं तथा ये उपासक हैं, इस प्रकार सुखपूर्वक जान लिया जाता है। यह गृहस्थ धर्म है और यह साधुधर्म - यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। साधुओं के लिए तप और संयम परम संवेग के साधन हैं ।
१. मुनि जब केवलज्ञानी हो जाते हैं, तब किसी की उपासना नहीं करते और जब
चतुर्दशपूर्वी हो जाते हैं तब किसी का नहीं सुनते । वे कृतकृत्य हो जाते हैं ।
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नियुक्तिपंचक
४४. यदि गृहस्थ भी तप-संयम आदि शीलगुणों (उपासक प्रतिमाओं के पालन) में प्रयत्न करते हैं तो फिर साधुओं को यह जानकर कि ऐसा आचरण उत्तम है, उन्हें अपने समस्त पराक्रम से तप, संयम में उद्यम करना चाहिए ।
४/१. उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं ये है-दर्शन, प्रत, सामायिक, पौषध, एकरात्रिकी प्रतिमा, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, बारभवजेन, प्रेष्यारंभवर्जन, उद्दिष्टवर्जन और श्रमणभूत ।
४५. प्रस्तुत में भिक्षु प्रतिमा का प्रसंग है । (भिक्षप्रतिमा यह द्विपद शब्द है ।) भिक्षु और प्रतिमा के चार-चार निक्षेप है । तीन निक्षेपों का वर्णन पहले किया जा चुका है। प्रस्तुत में भावभिक्षुप्रतिमा का वर्णन है।
४६. प्रतिमा के पांच प्रकार है-समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनताप्रतिमा, एकलविहारप्रतिमा।
___४७. आचाराम (भाचारांग तथा धूलिका) में बयालीस प्रतिमाएं, स्थानांग में सोलह प्रतिमाएं, व्यवहार में चार प्रतिमाएं-दो मोकप्रतिमाएं तथा दो चंद्रप्रतिमाएं वर्णित हैं।
४८, इस प्रकार श्रुतसमाधि की छासठ प्रतिमाएं प्रतिपादित है तथा पांच चारित्रसमाधि की प्रतिमाएं -सामायिकचारित्र प्रतिमा, छेदोपस्थापनीयचारित्र प्रतिमा, परिहारविशुद्धिचारित्र प्रतिमा, सूक्ष्मसंपरायचारित्र प्रतिमा तथा यथाख्यातचारित्र प्रतिमा ।
४९. भिक्षु के उपघाम-विशिष्टतप संबंधी ग्यारह प्रतिमाएं तथा उपासकों की बारह प्रतिमाएं सूत्र में वर्णित हैं । कोध आदि का अपहार करना विवेक प्रतिमा है। उसके दो प्रकार हैंआभ्यन्तर तथा बाह्म । आभ्यन्तर का संबंध क्रोध आदि से है तथा बाह्य का संबंध गण-संघ
५०. प्रतिसलीनता प्रतिमा चौथी प्रतिमा है। उसमें श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांचों इन्द्रियों का विषय-निरोध होता है। उसके दो प्रकार हैं- इन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा तथा नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा । आठ गणिसंपदाओं (गुणों) से उपपेन भिक्षु की एकलविहार प्रतिमा पांचवी प्रतिमा है।
५१.५२. एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार करने वाले के गण-सम्यक्त्व और चारित्र में दृढ रहने वाला, मेधावी, बहश्रत, अचल, अरति और रति को सहन करने वाला, द्रव्य-राग-द्वेषरहित, क्षमाशील, भय तथा भैरव को सहन करने वाला, अपने आपको पांच तुलाओं-तप, सत्त्व, श्रुत, एकांत तथा बल से तोलने वाला, कालश, गण को बामंत्रित कर खमाने वाला, तपस्या में स्थिर, संयम कार्यों में अचपल, संहनन से सम्पन्न, भक्तपान में पवित्र, उपधि आदि के निक्षेप को जानने बाला, मानसिक दोष के लिए भी प्रायश्चित्त लेने वाला, लाभ-प्रव्रज्या न देने वाला, गमनतृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या तथा विहार के लिए जाने वाला'-जो इन गुणों से युक्त होता है, वही एकलबिहार प्रतिमा को ग्रहण कर सकता है।
___ ५३. पर्युपशमना आदि शम्दों के अक्षर तो गुण-निष्पन्न होते हैं। श्रमणों की पर्यायव्यवस्थापना पर्युपशमना के आधार पर व्यक्त की गई है । १. दश्रुघू. प ४३ ।
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दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
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५४. पर्युषणा के ये गौण-एकार्थक नाम है --मरियसना, पष, पशु, पिस, . प्रथम समवसरण, स्थापना तथा ज्येष्ठावग्रह ।
१. परिबसना-चार मास तक एक स्थान पर रहना । २. पर्यषणा-किसी भी दिशा में परिभ्रमण का वर्जन । ३. पर्यपशमना-कषायों से सर्वथा उपशान्त रहना । ४. वर्षावास-वर्षाकाल में चार मास तक एक ही स्थान पर रहना। ५. प्रथम समवसरण-नियत वर्षावास क्षेत्र में प्रथम आगमन । ६. स्थापना-ऋतुबद्ध काल के अतिरिक्त काल की मर्यादा स्थापित करना । ७. ज्येष्ठावग्रह-चार मास तक या छह मास तक एक स्थान पर रहना।
५५. स्थापना शब्द के छह निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जिन द्रव्यों का परिभोग किया जाता है अथवा परिहार किया जाता है, वह द्रव्य स्थापना है । जिस क्षेत्र में स्थापना की जाती है, वह क्षेत्र स्थापना है तथा जिस काल में स्थापना की जाती है, बह काल स्थापना है।
५६. औदयिक मादि भावों की स्थापना भाव स्थापना है अथवा जिस भाव से जो स्थापना की जाती है, वह भाव स्थापना है।
५७. द्रव्य के स्वामिस्व, करण और अधिकरण की दृष्टि से एकत्व और पृथक्त्व के आधार पर यह भेद होते हैं । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का वर्णन करना चाहिए।
५८. काल है समय, आवलिका आदि । प्रस्तुत काल अधिकार में जो कास प्ररूपित है, मैं उसकी प्ररूपणा करूंगा । मासकल्प क्षेत्र से निष्क्रमण. वर्षावास क्षेत्र में प्राबकाल में प्रवेश तथा उसकी समाप्ति होने पर शरद् ऋतु में उससे निर्गमन-ये विषय मैं कहता हूं।
५९. मुनि प्रीष्म ऋतु में चार मास तथा हेमन्त में चार मास-इन आठ मासों में विहरण करता है । ये आठ मास समाधि के अनुसार एक अहोरात्र, पांच अहोरात्र अथवा न्यूनातिरिक्त मास हो सकते है।
६०. आषाढ महीने में मासकल्प रह चुकने के पश्चात् कारणवश वहीं वर्षावास करना पड़े तो न्यून आठ मास का ही विहरण काल होता है (क्योंकि मृगसिर से ज्येष्ठ तक का ही विहरण हआ है) 1 इसी प्रकार जहां वर्षावास बिताया है वहां से यदि कुछेक कारणों से विहार नहीं हो पाता है तो न्यून आठ मास का विहरण होता है । वे कारण हैं—मार्गों का कीचड़मय हो जाना, वर्षा का बंद न होना, गांव पर यात्रु राजा का आक्रमण हो जाना आदि ।
[ऐसी स्थिति में मृगशिर मास तक वहीं रहना होता है तब एक मास न्यून हो जाता है]
६१. आषढी पूर्णिमा तक वर्षावासयोग्य क्षेत्र न मिलने पर (उसकी गवेषणा करते-करते दिन अधिक बीत जाने पर) अथवा साधु मार्गगत हैं-घलते-चलते वर्षावासयोग्य क्षेत्र में विलम्ब से पहुंचने पर, कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् साधक नअत्र न मिलने पर अथवा अन्य व्यापात के कारण कार्तिक पूर्णिमा से पूर्व विहरण करने पर अतिरिक्त आठ मास का विहरण होता है। १. देखें-गाथा ६२ ।
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नियुक्तिपंचक ६२. प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि एक क्षेत्र में एक अहोरात्र, यथालंदक मुनि पांच अहोरात्र, जिनकल्पिक मुनि एक मास, शुद्धपारिहारिक मुनि एक मास तथा स्थविरकल्पी मुनि निष्कारण भी एक मास रह सकती है। कारण होने पर न्यून वास मा अतिरिक्त भास भी रहा जा सकता है ।)
६३. स्थविरकल्पी मुनि के लिए न्यूनातिरिक्त आठ मास का विहरण काल है । इतर अर्थात् प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि, यथालन्दक मुनि, विशुद्ध पारिहारिक मुनि तथा जिनकल्पिक मुनि ययाकल्प आठ मास तक विचरण कर नियमित चार मास तक वर्षावास करते हैं।
६४, बर्षावास की स्थापना आषाढी पूर्णिमा को कर लेनी चाहिए । उसी क्षेत्र में मृगसिर कृष्णा दशमी तक रहा जा सकता है ।
६४.१ (प्रस्तुत प्रलोक में वर्षायोग्य क्षेत्र का निरूपण है। जहां बंध हो, मोषध की उपलब्धि हो-धान्य की प्रचुरता हो. राजा सुरक्षाकारी हो, पाषण्ड-अन्यतीर्थिक न्यून हों, भिक्षा की सुलभता हो, स्वाध्याय की बाधा न हो, कीचड़ न हो, वीन्द्रिय आदि प्राणियों की प्रचुर उत्पत्ति न हो, स्थंडिल भूमि की सुविधा हो, जहाँ दो-पार रहने योग्य वसति हो, गोरस की प्रचुरता हो तथा जहा के परिवार जनाकुल हों ऐसा स्थान वर्षावास के योग्य माना जाता है।
६५. जहां आषाढमासकल्प कर लिया वहां अथवा वृषभमुनि निकट में वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र की भावना करते हैं यहां आषाढी पूर्णिमा को प्रवेश कर प्रतिपदा से पांचवें दिन-श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणाकल्प कहकर वहीं वर्षाकाल सामाचारी की स्थापना करनी चाहिए।
६६,६७. आषाढी पूर्णिमा अथवा श्रावण कृष्णा पंचमी को वर्षावास की पर्युषणा कर लेने पर भी गृहस्थ के पूछने पर मुनि बीस दिन-रात अथवा एक मास बीस दिन तक कह सकता है कि
लिए अभी अनभिग्रहीत है। उसके पश्चात् पूछने पर कहे-यह क्षेत्र कार्तिक पूर्णिमा तक अभिगहीत है। ऐसा कहने के दो कारण है-कदाचित अशिव आदि अनेक कारण उत्पन्न हो जाएं अथवा बर्षा सम्यक् न होने पर लोगों में अपवाद प्रारम्भ हो जाए। इन दोषों के कारण अभिवदित वर्ष में बीस रात-दिन तथा चन्द्र वर्ष में एक मास बीस दिन-रात की सीमा रखी
६८. आषाढी पूर्णिमा तक वर्षावास योग्य क्षेत्र न मिलने पर पांच-पांच दिन के अन्तराल से गवेषणा करते-करते एक मास और बीस दिन बीतने पर अर्थात् भाद्रव शुक्ला पंचमी तक पर्युषणा कर ले-एक स्थान पर स्थित हो जाए । निकट में वर्षावास योग्य क्षेत्र है तो आषाढी पूर्णिमा को ही पर्युषणा की स्थापना करे । जहाँ आषाढ़ मासकल्प किया है और वह क्षेत्र वर्षावास-प्रायोग्य है तो वहां आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास के लिए स्थित हो जाए और आषाढी पूर्णिमा को पर्युषणा फरे।
६९. जो भाद्रव शुक्ला पंधी को वर्षावास के लिए स्थित होते हैं उनके जघन्यतः सत्तर दिन का, जो भाद्रव कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं उनके अस्सी दिन का, जो श्रावणी पूर्णिमा को पर्युषणा करते हैं उनके नब्बे दिन का, जो धावण कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं, उनके एक सौ दस दिन का ज्येष्ठावग्रह होता है । यह सारा मध्यम ज्येष्ठावग्रह है। कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को वर्षावास पूर्ण हो जाने पर भी यदि मंगसिर में वर्षा हो रही हो तो उसे दस-दस दिन तीन बार
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अशावतस्कंध निर्यक्ति
४१५ अर्थात् पूरे मृगसिर मास तक वहां रहा जा सकता है । यह एक क्षेत्र में वास की उत्कृष्ट कालमर्यादा है।
७०. किसी क्षेत्र में मासकल्प अति आषाढ़ मास पूरा रहकर उसी क्षेत्र में वर्षावास जिताए और मृगसिर का मास भी दुर्भिक्ष आदि के कारण वहीं पूरा करे तो यह सालंबन रूप में यह मास का ज्येष्ठावग्रह होता है।
७१. वर्षावास से चतुष्प्रातिपदिक (चार मास की चार प्रतिपदाओं) के पश्चात् वहां से भृगसिर की प्रतिपदा को विहार कर लेना चाहिए। यदि वहां से गमन न हो तो पूर्व निर्दिष्ट आरोपणा आदि प्रायश्चित्त आता है ।
७२,७३. कायिकी भूमि तथा संस्सारक जीवों से संसक्त हो जाए, भिक्षा दुर्लभ हो, राजा दुष्ट हो, सपं आदि वसति में प्रविष्ट हो जाएं, कुंथुओं से वसति संसक्त हो जाए, अग्नि का उपद्रव हो, ग्लान की परिचर्या न हो पाए तथा स्थहिल भूमि का अभाव हो यदि ये कारण प्राप्त हों तो वर्षावास सम्पन्न न होने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन कर देना चाहिए।
७४,७५. वर्षा न रुक रही हो, मार्ग दुर्गम तथा कीचड़मय हो गये हों, अन्यत्र अशिव तथा दुभिक्ष हो, राजा का उपद्रव हो, घोर दाफुओं का भय हो, ग्लान की असमर्थता हो-इन कारणों से वर्षावास अतिक्रांत हो जाने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमद नहीं हो पाता।
७६. वर्षावास क्षेत्र से चारों ओर हाई कोस तक भिक्षाचर्या आदि के लिए क्षेत्रावग्रह होता है। आने-जाने में एक योजन तथा एक कोस अर्थात् पांच कोस प्रमाण क्षेत्र है। अपवाद कारण को छोड़कर यह क्षेत्र-मर्यादा है।
७७. क्षेत्रावग्रह छह दिशाओं में होता है, जैसे-ऊर्वदिशा, अघोदिशा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन छहों दिशाओं में एक योजन अथवा एक कोस का क्षेत्रावग्रह होता है। इन्द्रपद अथवा गजान पर्वत से छहों दिशाओं में क्षेत्र हैं। अन्यान्य पर्वतों से चार-पांच दिशाओं में क्षेत्र
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७८, किसी घ्याघात के उपस्थित होने पर एक, दो अथवा तीन दिशाओं में क्षेत्रावग्रह होता है। जिस दिन व्याघात हो उस दिन उद्यान तक क्षेत्रावग्रह होता है। उससे आगे विनमउंब अर्थात् जिस गांव या नगर के चारों दिशाओं में कोई ग्राम या नगर न हो, वह अक्षेत्र होता है ।
७९. नदी आदि में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा-ऋतुबद्धकाल में तीन उदकसंघट्टन-अर्धजषा तक जल, वर्षावास में सात उदकसं घट्टन-इतने पानी में अवगाहन कर भिक्षाचर्या के लिए अन्यत्र जाने में तथा आने में क्षेत्रावग्रह का हनन नहीं होता। इसके अतिरिक्त ऋतुबद्धकाल में चार सदकसंघटन तथा वर्षावास में पाठ उदकसंघटन लगाने से क्षेत्रावग्रह का उपघात होता है । अर्धजंघा से अधिक उदक का एक बार भी अवगाहन करने से क्षेत्रावग्रह का अतिक्रमण होता है ।
१. पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है। अतः पर्वत पर मध्यस्थित ग्राम की अपेक्षा छह दिशाएं होती हैं।
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नियुक्तिपंचक ८०. द्रव्य स्थापना के सात द्वार हैं-आहार, विकृति (विगय), संस्तारक, मात्रक, लोचकरण, सचित्त तथा अचित्त का व्युत्सर्जन, ग्रहण तथा स्वीकरण ।
१. आहार विषयक मर्यादा-पूर्वाहार अर्थात् ऋतुबद्धकालीन माहार का परित्याग करे । अपनी शक्ति के अनुसार योगद्धि अर्थात् व्रतों में वृद्धि करे। (क्योंकि वर्षाकाल में कीचड़ हो जाने से भिक्षाचर्या कठिन हो जाती है तथा संज्ञाभूमि में जाना कष्टकर होता है, स्थंडिलभूमि हरियाली से छा जाती है आदि ।)
विगय के दो प्रकार हैं-संचयिका और असंचयिका । इनके दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त ।' पशस्त के ग्रहण से द्रव्य की सीमा होती है।
८२. जो विगतिमीत अर्थात् कुतियों-तियंञ्चगति, नरकगति आदि विविध गतियों से भयभीत है, वह भिक्षु यदि विकृति अथवा विकृति मिश्र भोजन करता है तो वह विकृति उस मुनि को विकृत स्वभाव वाला बना देती है और वह उसे बलात् विगति--नरकगति में ले जाती है ।
८१. मुनि सामान्यतः दूध, दही, नवनीत आदि जो प्रशस्त असंचयिका विकृतियां हैं, उन्हें ग्रहण करे । संचयिका विकृतियां ग्रहण न करे क्योंकि ये विकृतिमां ग्लान आदि के लिए प्रयोजनीय होती हैं । (सामान्यतः इनको लेने पर ग्लान आदि को ये प्राप्त नहीं होतीं।)
८३. मुनि प्रशस्तविकृति ग्रहण तथा अप्रशस्तविकृति ग्रहण प्रयोजनवश करे । अप्रशस्तविकृति का ग्रहण उतनी ही मात्रा में करे जितनी मात्रा बाल, वृद्ध अथवा रोगी के लिए आवश्यक हो तथा जिसके लेने से गर्दा न हो, दाता को विश्वास हो तथा उसके दोषयुक्त भावों का प्रतिघात
हो।
८४. ऋतूबद्धकाल में जो संस्तारक ग्रहण किए थे उनका वर्षावास काल में परित्याग कर दे तथा वर्षायोग्य अपरित्यजनीय संस्तारक ग्रहण करे । तीन संस्तारक-निवात, प्रवात तथा निवातप्रवात गुरु को देकर शेष मुनि (रत्नाधिक के क्रम से) एक-एक संस्तारक ग्रहण करे ।
५५ ऋतुबद्धकाल में उपचार-प्रस्रवण तथा प्रलेष्म के उपयोगी मात्रक ग्रहण किए थे, उनका परित्याग कर वर्षावास में प्रत्येक मुनि इन तीनों के लिए तीन-तीन मात्रक ग्रहण करे। संयमनिर्वाह के लिए, अतिथि के प्रयोजन के लिए तथा एक के फूट जाने पर मुनि बचे पात्र को काम में ले ।
८६, जिनकल्पिक मुनियों के लिए नित्य ध्रुवढंचन की परम्परा है । स्यविर मुनियों के लिए वर्षावास में ध्रुवलुचन की परम्परा है । जो असहनशील तथा ग्लान मुनि हैं, वे भी पर्युषणारात्रि का अतिक्रमण नहीं करते, अवश्य लुंचन कराते हैं।
१. मदि आवश्यकी में परिहानि न होती हो तो
चातुर्मासिक तप करे। यदि यह न कर सके तो तीन मास, दो मास, एक मास "आदि तप करे।
२. क्षीर, दधि, मांस, नवनीत आदि असंचयिका विकृति है तथा घृत, गुड़, मांस आदि
संचयिका विकृति है। ३. मधु, मांस, मद्य अप्रशस्त हैं तथा क्षीर, गुड़
आदि प्रशस्त हैं।
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दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
४१७ ५७. परम्परा से पुराना', भावितथाद्ध-श्रद्धा से ओत-प्रोत तथा वैरागी व्यक्ति को छोड़कर अन्य को चातुर्मास में प्रबजित करने का निषेध है । वर्षावास में इनको प्रवजित करने पर ये धर्मशून्य अर्थात बर्षा आदि में जाने-आने से काशील हो सकते हैं तथा मंडली में भोजन करने, मात्रक में प्रस्रवण आदि करने से उन नव प्रजित मुनियों के मन में उड्डाह-प्रवचन के प्रति तिरस्कार हो सकता है।
५५. वर्षाकाल में क्षार, डगल (पत्थर के टुकड़े), मात्रक आदि का ग्रहण, ऋतुबद्धकास में गहीत' का व्युत्सर्ग तथा क्षार आदि का संग्रह करना चाहिए । इनके बिना ग्लान की विराधना तथा लेप के बिना भाजन की विराधना होती है, इसलिए इनका ग्रहण अनुमत है । (यह एक सीमा हैकुछेक का ग्रहण, कुछेक का धरण, कुछेक का व्युत्सर्ग और कुछेक का ग्रहण-धरण-व्युत्सर्ग ।)
८९. ईर्यासमिति, एषणासमिति, भाषासमिति (आदाननिक्षेप समिति तथा परिष्ठापनासमिति) की स्खलना, मन, वचन, काय की गुप्ति में स्खलना, दुश्चरित्र, अधिकरण तथा कषायइनका सांवत्सरिक उपशमन हो ही जाना चाहिए ।
९०. यद्यपि मुनि को सभी काल में पांचों समितिहों मे ममित रहना चाहिए किंतु वर्षावास में इसका विशेष प्रसंग होता है क्योंकि उस समय भूमि प्राणियों से संकुल होती है।
९१. भाषा समिति में अनायुक्त होने पर संपातिम-उड़ने वाले प्राणियों का वध, तीसरी एषणा समिति में अनायुक्त होने पर दुर्शय उदक स्नेह बिंदुओं का व्याघात तथा ईर्यासमिति और अन्तिम दो-आदाननिक्षेप और परिष्ठापनिका समिति में अनायुक्त होने पर प्राणियों का दुष्प्रतिलेखन और दुष्प्रमार्जन होता है।
९२. मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति तथा कायगुप्ति- इनमें स्खनना हुई हो, विपरीत आचरण किया हो तो उसकी शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए। अधिकरण में शुरूतक, प्रद्योत तथा द्रमक के उदाहरण है।
९३,९४. (ग्रामवासियों द्वारा एक बल की चोरी कर मेने पर कुंभकार के पास एक बैल की गाड़ी रह गई । लोगों ने कहा-) देखो | एक बैल की गाड़ी है। (बैल चुराए जाने से उसने भी बलिहान के आग लगाकर कहा) देखो! खेत जल रहे हैं। एक दिन भाणकमल्ल द्वारा मल्लयुद्ध में यह घोषणा की गमी-हे दुरूतकवासियो ! कुंभकार का हृत बैल उसको सौंप दिया जाए, जिससे स्खलिहान न जलें । कुभकार से अमायाचना करते हुए ग्रामवासियों ने कहा-भो ! तुम अन्य सात वर्षों तक हमारा धान्य (खलिहान) मत जलाओ ।'
९५-९८. पंपा में अनंगसेन नामक स्वर्णकार । पंचशील द्वीप से दो अप्सराओं का आगमन हुआ। अनंगसेन उनमें आसक्त हो गया । एक स्थविर नाविक उसको पंचशील द्वीप के पास ले गया। वहाँ से वह वृक्ष की शाखा पकहकर पंचशील द्वीप पहुंच गया। हासा, प्रहासा नामक अप्सराओं ने उसे पुन: चंपानगरी पहुंचा दिया। मित्र नाइल द्वारा जिनोक्त धर्म का प्रतिबोध पर वह निदान करके इंगिनीमरण स्वीकार कर पंचशील द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ।
नंदीश्वर द्वीप में गमन । (वहां मित्र देव नाइल ने कहा)-बोध के लिए तुम किसी १. जिसको पहले दीक्षा दी जा चुकी हो। २. देखें परि० ६, कथा सं० १ ।
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४१५
निर्मुक्तिपंचक
स्थान पर विनप्रतिमा का अवतरण करावो राजा उद्रायण के यहां देवाधिदेव महावीर की प्रतिमा प्रकट हुई। अमंगल देखने पर प्रभावती द्वारा देवदत्ता दासी पर दर्पण का प्रहार । देवदत्ता की मृत्यु । उसका देव रूप में उत्पन्न होता। प्रभावती देव द्वारा उग्रायण को तापस नाश्रम में ले जाना, वहां भमोत्पत्ति | शरण के लिए श्रमणों के पास जाना ।
I
गंधार जनपद में धावक दीक्षा लेना चाहता था। देवाराधना द्वारा उसके यहाँ प्रतिमा का प्रकटीकरण । देवता द्वारा ८०० गुटिकाओं की प्राप्ति । श्रावक का वीतभय नगर में जाना। वहां देवायतन में कृष्णपुटिका दासी द्वारा सेवा (गुटिका के प्रभाव से वह कृष्णगुटिका से स्वर्णगुटिका बन गई ) राजा प्रयोत द्वारा स्वर्णगुटिका एवं देवप्रतिमा का हरण पुष्करतीर्थ की उत्पत्ति राजा उनाण एवं प्रयोग में युद्ध (प्रद्योत को बंदी बनाकर उसके लालट पर यह अंकित किया ) - यह दास है, दासीपति है, बनार्थी है, हमारे यहां बंदी रूप में रह रहा है। जो कोई राजा की जाजा का भंगकर उसे कुपित करता है, यह तथ्य और बंधनयोग्य है।'
I
1
पिता से खीर का आगमन | से शिरच्छेद ।
९९,१०० धनाढ्य के घर खीर का भोजन देखकर दरिद्र के बच्चों द्वारा का आग्रह पिता ने दूसरों से दूध बादि की याचना कर खीर बनाई चोरों खीर को चोर ले गए। द्रमक ने चोरों का पीछा किया। चोर सेनापति का तलवार भाई को सेनापति बनाया गया। (स्वजनों ने कहा) यदि तुम भाई के घातक को नहीं मारते हो तो तुम्हें धिक्कार है। पकड़े जाने पर नमक बोला- जहाँ शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारा जाए। प्रमक की मुक्ति । "
-
१०१.१०२. क्रोध कषाय के चार प्रकार है-पानी की रेखा के समान, बालु की रेखा के समान भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान प्रथम तीनों प्रकार के कुछ ही समय में नष्ट हो जाते हैं परन्तु चौथे प्रकार का क्रोध जब तक पर्वत है, तब तक बना रहता है । अर्थात् यह जीवन पर्यंत बना रहता है जो फोध पानी की रेखा के समान होता है वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपनांत हो जाता है जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है वह कोध बालु की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवन पर्यंत नष्ट नहीं होता। इनकी गति इस प्रकार है-पर्वत की रेखा सदृश श्रोधी मनुष्य की नरकयति, भूमि की रेखा सदृश की तियंच गति, बालु की रेखा सदृश की मनुष्य गति और उदक रेखा सबुश की देवगति होती है ।)
१०२. मान के चार प्रकार हैं-पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान काष्ठस्तम्भ के समान तथा लता-स्तम्भ के समान ।
माया के चार प्रकार बांस के समान मेंडे के सींच के समान, योमूत्रिका के समान, तथा खिलते बांस के समान लोभ के चार प्रकार हैं- कृमिराग के समान, कर्दम के समान, कुसुंभराग के समान तथा हरिद्राराव के समान ।
१०४. इसी प्रकार स्तम्भ के समान मान, केतन के समान माया तथा वस्त्रराग के समान लोभ – इन तीनों की भी चार-चार प्रकार की प्ररूपणा की गई है। प्रत्येक प्रकार में गति का क्रम
१. देखें परि० ६ ०२
२. देखें परि० ६ कथा सं० ३।
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४१९
दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति यह है-नरकगति, तिर्यगति मनुष्यगति और देवति । क्रोध के विषय में मरुक, मान के विषय में अस्वकारी भट्टा, माया के विषय में पंडरज्जा तथा लोभ के विषय में आर्य मगु का दृष्टांत है ।
१०४।१ चारों कषायों के चार-चार प्रकारों में प्रत्येक प्रकार की गति का क्रमश: कम यह है-नरकगति, तियंञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । सुगति के मार्ग को जानने वाले मुनियों को इन कषायों का सदा तपशमन/क्षय करना चाहिए !
१०५.बैल श्रोत होकर गिर गया। मरुक ने चार केदारों के देनों से उसे पीटा।बल मर गया । ब्राह्मणों ने कहा-तुम अति क्रोधी हो अतः तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे।'
१०६.१०८ आठ पुत्रों के पीछे धन वणिक् के एक पुत्री हुई, जिसका नाम अत्वकारी भट्टा रखा। कोई शादी को तैयार नहीं। आखिर मंत्री उसकी शर्त को मानने के लिए तैयार हुआ। (अत्वंकारी ने मंत्री को सूर्यास्त से पहले आने के लिए कह रखा था) एक दिन राजा ने मंत्री को रात्रि में देर तक रोक लिया। उसने कहा-मैं द्वार नहीं खोलंगी। फिर क्रोधावस्था में द्वार खोलकर यह रात्रि में ही घर से बाहर निकल गयी और चोर सेनापति के चंगुल में फस गई । उसने उसकी पत्नी बनना स्वीकार नहीं किया। सेनापति ने जलूक वैद्य को बेच दिया। उसने भी उसे पत्नी बनाना चाहा पर उसने अस्वीकृत कर दिया। तब जलक वैद्य ने कहा-पानी से जलूका ग्रहण करो। एक दिन भाई का आगमन । सारा वृत्तान्त भाई को कहा । भाई ने मुक्ति दिलवाई।
१०९. (अत्वकारी भट्टा स्वस्थ होकर पुन: मंत्री की पत्नी के रूप में घर चली गई।) उसके घर में लक्षपाक तैल के घट भरे थे। एक बार एक यति ने प्रण-संरोहण के लिए उससे तेल की याचना की। दासी द्वारा तीन बार घट नष्ट हो गए । भट्टा दासी पर कुपित नहीं हुई। चौथी बार स्वयं उसने साधु को दान दिया।
११०,१११. पांडरा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारिणी साध्वी । समय आने पर गुरु के पास भक्तप्रत्याश्यान का स्वीकरण । मंत्र शक्ति से लोगों की भीड़ । गुरु के द्वारा पूछने पर उसने तीन बार प्रतिक्रमण किया। चौथी बार फिर मंत्रशक्ति का प्रयोग किया । प्राचार्य के पूछने पर कहा कि पूर्वाभ्यास से लोग आते हैं अतः प्रतिक्रमण नहीं किया। मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावण हाथी की अग्रमहिषी बनी। महावीर के समवसरण में हथिनी के रूप में वातनिसर्ग-चिंघाड़ने लगी। गौतम द्वारा पूछने पर महावीर ने पूर्वभव बताया।
११२. मथुरा में आर्य मंगु बहुश्रुत, वैरागी एवं श्रद्धालुओं द्वारा पूजित आचार्य थे। सुखसाता में प्रतिबद्ध होकर श्रावकों को नित्य भिक्षा करने लगे। दिवंगत होने पर प्रतिमा में प्रवेश कर संबी जीभ निकालकर कहते--मैं लोलुपता वश अधर्मी ब्यन्तर धना हूं कोई लोलुपता मत करना ।'
११३. कषायों के दोषों को जानकर गृहस्थ भी उनसे विरत हो जाते हैं, यह सोचकर कोई भी संयमी साधु-साध्वी अधिकरण न करे तथा कषायों के दरे परिणामों को सुनकर/जानकर उनसे निवृत्त हो जाए।
१. देखें परि०६, कथा सं०४। २. वही, कथा सं०५।
३. वही, कथा सं०६। ४. वहीं, कथा सं०७।
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निर्युक्तिपंचका
११४. जो प्रायश्चित्त ऋतुबद्ध काल में संचित हुआ है, उसका वहन वर्षावासकाल में सुखपूर्वक होता है क्योंकि वर्षाऋतु में प्राणियों की उत्पत्ति अत्यधिक होती है, इसलिए गमनागमन नहीं होता । चिरकाल तक वहां निवास होता है । वर्षाकाल की शीतलता से उन्मन्त इन्द्रियों के दर्प का परिहार करने के लिए प्रायश्वित में प्राप्त तप उस समय किया जाता । इसलिए वर्षाकाल में स्वाध्याय, संयम और तप के अनुष्ठान में आत्मा को अत्यधिक नियोजित करना चाहिए । ११५. प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय में कल्प --- - पर्युषणा अर्थात् वर्षावास अवश्य होता है। मध्य तीर्थंकरों के समय में वास विकल्प से होता है । वर्द्धमान के तीर्थ में मंगल के निमित्त वर्षाऋतु में जिनेश्वर देवों, गणधरों तथा स्थविरों के चरित्र का निरूपण होता है ।
११६. सूत्र में यह प्रतिपादित है कि मुनि 'अग्वारिय वर्षा' अर्थात् ऐसी वर्षों जो वर्षांकल्प को भेदकर भीतर भी गीला कर दे, में भक्तवान ग्रहण न करे, भिक्षा के लिए न जाए, किन्तु ज्ञानार्थी, तपस्वी और भूख को न सह सकने वाला मुनि वर्षा में भी भक्तमान ग्रहण कर सकता है, भिक्षा के लिए जा सकता है ।
११७. पार्थी तगडी
रहने में समर्थ मुनि यदि संयम क्षेत्र ( वर्षावास के योग्य क्षेत्र) से च्युत हो जाते हैं तो वे भिक्षाकाल में उत्तरकरण (देखें गाथा १२० ) के द्वारा भिक्षाचर्या कर सकते हैं ।
११८. संयमक्षेत्र वह होता है, जहां मौणिक वर्षाकल्प तथा अलाबु पात्र प्राप्त होते हैं, जहां स्वाध्याय तथा एषणा की शुद्धि होती है और कालोचित वर्षा होती है ।'
११९. जहां वर्षा के कारण भिक्षाचर्या न होने पर पूर्व अधीत ज्ञान विस्मृत हो जाता है। नष्ट हो जाता है, नया ज्ञानार्जन करने में सामर्थ्य नहीं रहता, तपस्वी के पारणक में बाधा आती है तथा बाल मुनि आदि भूख सहने में असमर्थ होते हैं, वह संयमक्षेत्र नहीं होता ।
१२०. (वर्षा बरस रही हो और क्षुधा सहने में असमर्थ मुनि के लिए अथवा किसी रोगी के प्रयोजन से भिक्षा के लिए जाना पड़े तो ) बालों से बने वर्षाकल्प अथवा सौत्रिक वर्षाकल्प से आवृत्त होकर जाए। इनके न होने पर ताढ़सूची (ताड़पत्रों ) अथवा पलाश आदि के पत्तों से बने सिरत्राग से सिर ढक कर अथवा छत्र धारण कर भिक्षा के लिए जाए। यह ज्ञानार्थी, तपस्वी तथा क्षुधा को सहन न करने वाले मुनियों के लिए उत्तरविशेष - विशेष विधि या उत्तरकरण है ।
atri दशा: मोहनीयस्थान
१२१. मोह शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव | स्थान के विषय में पहले कहा जा चुका है। यहां भाव स्थान का प्रसंग है ।
१. वग्वारिय—वग्वारियं नाम जं भिन्नवासं पडति, वासकष्पं भेत्तूण मंतो कार्य तिम्मेति । (दबू प ६३) वर्षा होती है, भिक्षाकाल तथा
२. कालोचित वर्षा – रात्रि में दिन में नहीं होती । अथवा
संज्ञाभूमि में जाने के समय को छोड़कर वर्षा होती है अथवा वर्षाऋतु में वर्षा होती है, ऋतुबद्ध काल में नहीं ।
( निभा ३२०६, चूर्णि पृ. १५४ )
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दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
४२१ १२२. द्रव्य मोह के दो प्रकार है सचित्त, अपित। सचित्त है-स्वजन धन आदि, (अचित्त है-मद्य मादि) । भावमोह के दो प्रकार है-ओघ और विभाग । ओष में मोहनीयकर्म की एक प्रकृति गृहीत है तथा विभाग में अनेक प्रकृतियां-संपूर्ण मोहकर्म गृहीत है।
१२३-१२५. पाठ प्रकार के कर्मों को संक्षेप में 'मोह' कहा गया है। इसका वर्णन पूर्वगत -कर्मप्रवादपूर्व में है। उसके एकार्थक ये हैं पाप, वज्यं (अवध), वैर, पनक, पंक, क्षोभ, असाता. सङ्ग, शल्प, अरस, निरत, धुत्त, कर्म, क्लेश, समुदान, मलिन, माया, मल्पाय, द्विपक्ष तथा संपराय।
१२६. यह मोहनीय तथा महामोहनीय कर्म अशुभ है । इसका अनुबंध दुःखमय होता है। इससे दुःखपूर्वक छुटकारा होता है और यह वीर्घ स्थिति वाला होता है। इसका अनुभागबंध सघन और चिकना होता है।
१२७. जिनेश्वर देव ने लोगों को ऐसा कहा है और प्रकाशित किया है कि साधु, गुरु, मित्र, बांधव, श्रेष्ठी. सेनापति मादि के वध से सघन मोहनीय कर्म का बंध होता है।
१२८. इससे महती आशातना तथा जिनवचन के विलोपन की प्रतिबद्धता होती है तथा अशुभ कर्म बंध और दुःख का बंध होता है, इसलिए मोहनीय कर्मबंध के सभी कारणों का वर्जन करना चाहिए। कश्या या निशा
१२९. आजाति तथा स्थान शब्द के चार-चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । स्थान का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । प्रस्तुत में भावस्थान का प्रसंग है।
१३०. द्रव्य आजाति का अर्थ है-द्रव्य का स्वभाव । भाव आजाति है-अनुभवन । उसके दो प्रकार हैं- ओघतः आजाति भौर विभागतः आजाति । विभागत: आजाति के छह प्रकार हैं । ओषतः आजाति है--संसारी जीव ।
१३१. आजाति के तीन प्रकार हैं—जाति, आजाति और प्रत्याजाति । जाति हैसंसारस्थ प्राणियों की नरक आदि गतियों में उत्पत्ति । नाजाति है-सम्मूछनज, गर्भ और उपपात से जन्म ।
१३२. एक भव से च्युत होकर पुन: उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है । यह केवल मनुष्य और तिर्यचों के ही होती है।
१३३. एकान्ततः असंयत का मोक्ष नहीं होता । निश्चित ही उसकी माजाति होती है। किस विशेषता से थमण अनाजाति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है ?
१३४-१३६. जो श्रमण मूलगुणों और उत्तरगुणों का अप्रतिसेवी होता है, उनका नाश नहीं करता, इहलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता, सदा विविक्त भक्त-पान, उपधि, शयनासन का सेवन करता है, प्रयत्नवान--अप्रमत्त होता है, तीर्थकर, गुरु और साधुओं के प्रति भक्तिमान् होता है, हस्तपाद से प्रतिसंलीन, पांच समितियों से समित, कलह, झंझा, पैशुन्य से विरत तथा अवधानविरतस्थिर संयमवाला होता है, वह प्रायः उसी भव में सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई श्रमण भविष्यत् काल में सिद्ध होता है। किस दोष के कारण श्रमण आजाति को प्राप्त होता है।
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निर्मुक्तिपंचक
१३७. तीर्थंकरों ने सूत्रों में जो निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला श्रमण आजाति को प्राप्त होता है। संदान, निदान और बंध —ये एकार्थक हैं ।
१३. (बंध के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) द्रव्य बंध के दो प्रकार हैं- प्रयोगबंध और विस्रसाबंध | प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं-मन का मूल प्रयोगबंध, वचन का मूल प्रयोगबंध तथा काया का मूल प्रयोगबंध कायप्रयोग बंध के दो प्रकार हैं-मूलबंध और उत्तरबंध । शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध है । वह दो प्रकार का होता है - सादि और अनादि ।
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१३९. निगड़ आदि उत्तरबंध है । विश्वसाबंध सादि और अनादि वो प्रकार का होता है । जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्र बंध है और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है ।
१४०. भावबंध के दो प्रकार है- जीवभावबंध और अजीवभावबंध । दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं – विपाकज, अविपाकज तथा विपाक - अविपाकज ।
१५. जीवभाव है-कथय उसके प्रयोजन अनेक है। जैसे -- इहलौकिक प्रयोजन पारलौफिक प्रयोजन । प्रस्तुत में पारलौकिक बंध का प्रसंग है ।
१४२. जो मुनि निदान दोषों में प्रयत्नशील होता है, वह निश्चित ही आजाति को प्राप्त होता है। वह विनिपात अर्थात् संसार में भ्रमण करता है । इसलिए अनिदानता ही श्रेयस्करी है । संसार-समुद्र से तरने के ये पांच उपाय हैं
४. अप्रमाद ।
५. अनिदान ।
१४३. साधु के लिए (सभी के लिए) १. पार्श्वस्थता
२. अकुशील आचार
३. अकषाय
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परिशिष्ट
१. भाग्य-गाथाओं का समीकरण
दशवैकालिक भाष्य
• उत्तराध्ययन भाष्य
•
२. पदानुक्रम ३. एकार्थक
४. देशी शब्द
५. निक्षिप्त शब्द
६. कथाएं
७. परिभाषाएं
८. सूक्त - सुभाषित
९. उपमा और दृष्टान्त
१०. दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य
११. अन्य ग्रंथों से तुलना
१२. विशेषनामानुक्रम १३. वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम १४. वर्गीकृत विषयानुक्रम
१५. प्रयुक्त ग्रंथ सूची
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परिशिष्ट
वशवकालिक भाष्य की गाथाओं का समीकरण
हाटी
मागा
हाटो
हस्तप्रतियों में दशवकालिक नियुक्ति के साथ ही दशवकालिक भाष्य की गाथाएं मिलती हैं । हस्त आदशों में गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख नहीं मिलता है । टीका की मुद्रित पुस्तक में भाष्य गाथा का अलग से निदश किया गया है । पाठ-सपादन में हमने गाथाओं के बारे में गहराई से अनुचिंतन किया है । हाटो को मुद्रित पुस्तक में अनेक गाथाएं नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित हैं लेकिन वे भाष्य को गाथाएं होनी चाहिए । अनेक ऐसी गाथाएं हैं, जो भाष्य के क्रम में प्रकाशित हैं पर वे नियुक्ति के क्रम में होनी चाहिए । यहां हमने उनका चार्ट प्रस्तुत कर दिया है, जिससे पाठकों को गाथा ढूढने में सुविधा हो सके । भागा बसमि माया बरामि
शनि १२३३२ १९४२
१४० १२३३३ ८९।३
१२३५४ १४२ १२३१५ १४३ १२३१६ १४४ १२३७ १४५ १२३।८ १४६ १२३३१
१४७ १२३।१० ९५२
१२३।११
१७६ १०४
४५
ANH
* * * * * * * * * * *
१४८
१०२
९६२
* *
३०१२ ३०१३
१९८
४७११
१३२
*
१२०11 १२-१२ १२०१३ १२०४ १२३१
४८१
३०
२०३
३३
१३४ १३८
xxxx
* *
१.टीकाकार ने इस गाया के लिए 'आह च भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। किंतु मुदित प्रति में 'भाष्यम्' का उल्लेख होने पर भी यह निगा के क्रमांक में है।
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४२६
जागा हाटी दशनि
५०।१
३३
५०२
३४
५१
५२
५३
**
५५
५६
५७
५८
५९
६०
६१
३५
३६
३७
३८
३९
४०
४१
४२
४३
४४
४५
१.
२.
३.
४.
२०४
२०५
x
X X X :
X
X
X
X
X X X X X
x
भरगा
६२
६३
૬૪
६५
६६
६७
६८
६९
७०
७१
७१/१
७१।२
७२
हाटी
४६
૪૧૭
४५
एस पन्नासुद्धी, सब्भावेण
४९
५०
५.१
५२
५३
૪
"जयंति,
५५
५६
५८
दशमि
X X X X
x
x >
X
X
X
x
X
२०१
२१०
X
भागा
७३
७३।१
98
७५
७६
७७
وا
७९
८०
८०११
८१
८२
हाटी
५९
६०
६१
२३४
२३६
दशवैकालिक भाष्य
जह जिणसासरिया, धम्मं पार्लेति साहवो सुद्धं । न कुतिस्थिरसु एवं दीसह परिपालनोवाओ ॥ तेसु वि य धम्मसद्दो, धम्मं नियगं च ते पसंति । नणु भणिओ सावज्जो, कुतित्थिधम्मो जिणवरेह || जो तेसु धम्मसद्दो, सो उवयारेण निच्छाएण इहं । पाहष्णुवयारओऽण्णस्थ' ।। हिसाइए पंचसु वि । विसुद्धी इमा
जह
सी हस सोहे,
ऊ
तरथ ।।
२३७
२३८
२३९
૨૪૨
६२
२४२
६५
निर्युक्तिपंचक
दशनि
X
२१६
X
२१७/३
२१८१
२१८२
२१८३
२१५/४
२१९/१
२२०
२२०/१
Y
९. १-३ ये तीनों गाथाएं टीका में निगा के क्रमांक में व्याख्यात है। हमने इनको भाष्य-गाया के अन्तर्गत माना है (देखें दर्शन ८९ । ३ का टिप्पण) ।
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परिशिष्ट-१
४२७
४१.
जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि सयणासणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितमोई ॥ अप्फासुयकय-कारित-अणुमय उद्विभोइणो हंदि ! | तसपावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पति' ।। एसा हेउविसुद्धी, दिट्ठतो तस्स चेव य विसुबी । सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उ इयमन्ना ।। अग्गिम्मि हवी ह्यइ, आइच्चो तेण पोणिओ संतो। वरिसइ पयायिठें, तेजोसहिलो परोहंति ॥ किं दुम्भिक्खं जायइ ?, जई एवं अह मवे दुरिठं तु । कि पायइ सव्वत्या, दुन्भिक्त्रं अह भवे दो।। वासइ तो कि विग्छ, निग्धायाईहिं जायए तस्स ।
वाराह उत्समए, न वासई तो तणट्ठाए । कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महयरिंगणट्ठा ।। तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुष्वविहियस्स । उदएणं पुष्फफलं, निवत्तयंती इमं चन्न' ।। जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देति पुष्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददति गुरुराह अत एव ।। समणऽणुकंपनिमित्तं, पुण्णनिमितं च गिहनिवासी उ । कोई भणेज्ज पागं, करेंति सो भण्णइ न जम्हा ।। उवसंहारविसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुच्चंति साहणोत्ति य, जेणं ते महुयरसमाणा ॥ तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहि भमरोग्य अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ ति, उक्किळं मंगलं धम्मो ।। निगमणसुद्धी तित्यंतरावि धम्मत्यमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति ॥
१. मुद्रित टीका में ४१,२ ये दोनों गाथाएं २. ६-८ के लिए देखें टिप्पण दशनि ९५।३ ।
भाष्य २,३ के क्रमांक में है किन्तु दोनों ३. ९,१० के लिए देखें टिप्पण दशनि ९॥२॥ चूणियों में ये निगा के रूप में व्याख्यात है ४. ११ के लिए देखें टिप्पण दनि ९७१। (देखें टिप्पण दशनि ९१)।
५. १२ के लिए देखें टिप्पण पनि ९९।१।
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४२
नियुक्तिपंचक न य उग्गमाइसुद्ध, मुंजती महुयरा वष्णुवरोही । नेव प तिगुत्तिगुत्ता, अह साहू निच्चकालं पि' । धम्मो मंगलमुक्किट्ठति पइण्णा अत्तवयनिहेसो । सो य इहेव जिणमए, नन्नत्य पइण्णपविभत्ती ॥ सुरपूइओत्ति हेऊ, धम्मट्ठाणे ठिया उ जं परमे । हेविभती निरुवहि, जियाण अवहेण य जियंति ॥ जिणवयणपदु→ वि हु, ससुराईए अधम्मरुइणो वि । मंगलबुद्धीइ जणो, पणमइ आईदुयविवक्खो । बितियदुयस्स विवक्खो, सुरेहिं पुजति जण्णजाई वि। बुद्धाई वि सुरणया, वृच्चंते णायपडिवक्यो । एवं तु अवयवाणे, चउण्ड परिवक्ल पंचमोऽवयवो । एतो छट्ठोऽवयवो, विवक्खपरिसेह तं वोच्छं ।। सायं सम्मत्त पुमं, हास-रइ-आउनामगोयसुहं । धम्मफलं आइदुगे, विवक्खपडिसेह मो एसो । अजिइंदिय सोवहिणो, वधगा जइ ते वि नाम पुज्जति । अग्गी वि होज्ज' सीओ, हेविभत्तीण पडिसेहो ।। बुद्धाई उवयारे, पूयाठाणं जिणा उ सम्भावं । दिळंतपहिस्सेहो, छुट्टो एसो अवयवो उ॥ अरिहंत मग्गगामी, दिट्ठतो साहुणो वि समचित्ता । पागरएसु गिहोसुं, एसते अवमाणा उ ।। तत्थ भवे आसंका, उहिस्स बई वि कीरए पागो । तेण र विसम नायं, वासतणा तस्स पहिसेहे ॥ तम्हा उ सुरनराणं, पुज्जता मंगलं सया धम्मो । दसमो एस अवयवो, पइन्नहे: पुणो वयणं'। अट्ठारस उ सहस्सा, सोलंगाणं जिणेहिं पण्णत्ता । तेसि परिरक्खणट्ठा, अवराहपए उ बजेज्जा'।
२८.
1. १३-१६ के लिए देखें टिप्पण देशनि १२०१। १२३६१ । २. मा.१७-२७के लिए देखें टिप्पण पानि ३. देखें टिप्पण दशनि १५१०१।
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४२९
३०॥२.
परिशिष्ट-१
जीवाहारो भण्णइ, आयारो तेणिमं तु आयायं । छज्जीवणियज्झयणं, तस्सऽहिगारा इमे होति' । नाम ठवण गयाओ, दवे गुणपज्जवेहि रहिउ ति ।
तिचिह्नो य होह भावे, ओहे भव तब्भवे वेद ।। ३०॥१. संते आउयकम्मे, धरती तस्सेव जीवती उदए ।
तस्सेव निज्जराए, मओ त्ति सिद्धो नयमएणं ।। जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ मवाउ संकमई।
जाणाहि तं भवाउं, चम्विहं तन्भवे दुविहं ।। ३०३. दुविधा में होंति जीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि ।
मुहमा य सब्दलोए, दो बेव य वायरविहाणा"। सुहमा य सव्वलोए, परियावण्णा भवंति नायव्वा । दो चेव बायराणं, पज्जत्तियरे य नायव्या ।। लक्खणमियाणि दारं, चिचं हेऊ अ कारणं लिगं । लक्खणमिति जीवस्स उ, आयाणाई इमं तं च ।। लक्विज्जइत्ति नज्जइ, पच्चक्खियरो व जेण जो अस्थो । तं तस्स लक्षणं खलु, धूमुहाइ व्व अग्गिस्स ।। अयगार कर परसू, अग्गि सवण्णे म खीरनरवासी। आहारो दिलैंता, आयाणाईण जहसंखं । देहिदियाइरित्तो, आया खलु गझगाहगपओगा। संडासा अपिंडो, अययाराइव्व विन्नेओ ।। देहो सभोत्तिो खलु, भोज्जत्ता ओयणाइथालं । अन्नप्पत्तिगा खलु, जोगा परसुज्य करणत्ता ।। उवओगा नाभावो, अग्गिय सलक्षणा परिचागा ।
सकसाया गाभागो, पज्जयगमणा सुवणं व ।। ३८. लेसाओ णाभावो, परिणमणसमावओ य खीरं व ।
उस्सासा णाभावो, समसम्मावा खउव्व नरो॥ अक्खाणेयाणि परत्यगाणि वासाइवेह करणत्ता ।
गहवेयगनिजरओ, कम्मस्सऽनो जहाहारो॥ १. टीकाकार ने इस गाथा के लिए "आह च होने पर भी यह निगा के क्रमांक में है।
भाध्यकार:" का उल्लेख किया है। किन्तु २. ३०।१,२ के लिए देखें टिप्पण दानि १९६। टीका की मुद्रित प्रति में माध्यम का उल्लेख ३. देखें टिप्पण दशनि १९८ ।
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४३०
नियुक्तिपंचक चित्तं तिकालविसर्य, चेयण पच्चक्खसष्ठमणुसरणं । विण्णाणऽणगभेयं, कालमसंखेयरं धरणा ।। अत्यस्स कह बुद्धी, ईहा चेट्टत्यअवगमो उ मई । संभावणत्थतक्का, गुणपच्चक्खा घडोवऽस्थि ॥ जम्हा चिसाईया, जीवस्स गुणा हवंति पच्चक्खा । गुणपच्चक्रवत्तणओ, घडव्व जीवो अओ अत्यि ॥ अयि त्ति दारमहुणा, जीविस्स भत्यि विज्जए नियमा । लोगायतमयघायत्यमुच्चए तत्थिमो हेऊ।। जो चितेइ सरीरे, नत्यि अहं स एव होइ जीवो त्ति । न ह जीथंमि असंते, संसयउप्पायो अन्नो ॥ जीवस्स एस धम्मो, जा ईहा अस्थि नत्थि वा जीवो ।
खाणुमणस्माणुगपा, बद ईता देवदत्तस्स ।। ४५।१०
सिद्ध जीवस्स अस्थित्त, सद्दादेवाणुमीयते । नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवइ केवलो' ।। अस्थित्ति निविगप्पो, जीवो नियमाउ सद्दओ सिद्धी । कम्हा? सुद्धपयत्ता, घडखरसिंगाणुमाणामो॥ सुद्धपयत्ता सिद्धी, जइ एवं सुण्णसिद्धि अम्हें पि ।
तं न भवइ संतेणं, जं सुन्नं सुन्नगेहं व ॥ ४७।१. मिच्छा भयेउ सम्वत्या, जे केई पारलोइया ।
कत्ता चेवोपभोत्ता य, जदि जीवो न विज्जइ' ।। ४६. पाणिदया-तव-नियमा, बंभं दिक्खा य इंदिनिरोहो ।
सव्वं निरत्ययमेयं, जई जीवो न विज्जई ।। ४८।१. लोइगा वेइगा चेव, तहा सामाइया विऊ ।
निच्चो जीयो पिहो देहा, इति सन्के वस्थिया ।। ४९. लोगे अच्छेज्जभेज्जो, वेए सुपरीसदगसियालो ।
समएज्जहमासि गओ, तिविहो दिन्वाइसंसारो॥ ५०. अत्थि सरीरविहाया, पइनिययागारयाइभावाओ ।
कुंभस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाओ । १. देखें टिप्पण दशनि २०१।
३. देखें टिप्पण दशनि २.३ । २. देखें टिप्पण दशनि २०२ ।
४७.
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________________
परिशिष्ट १
५०११
५०/२.
५१
५२.
५.३.
५४.
५५.
५६.
५७.
५८.
५९
६०.
६१.
६२.
फरिसेण जहा
वाऊ,
नाणादीहि तहा जीवो,
मंसचक्खणा !
अणदिगुणं जीवं, दुष्णेयं सिद्धा पासति सब्वन्नू, नाणसिद्धा य साहूणो || अत्तवयणं तु सत्यं दिट्टा य तमो अइंदियाणं पि ।
सिद्धगणाई, तव जीवस्स विष्णेया ॥ अण्णत्तममुत्ततं निवत्तं चैव भण्णए समयं । कारण अविभागाईदेऊ ह माहि गाहा ॥
अन्नत्ति दारमहुणा, अन्नो देहा तज्जीवतस्सरी रियमयवायत्थं
गिहाउ पुरिसो व्व । इमं भणियं ।।
गिज्झतो गिज्झतो
देह दियाइरितो, आया खलु तदुवलद्धअत्याणं । विगमे विसरणओ, गेहगवखेहि पुरिसोय ||
न उइदियाई उबलद्धिमंति विगएसु जह गेहगवक्खेहि, जो अणुसरिया अदियत्ता
संसाराओ आलोयणात तह
भंग विघायत्यं
भणिअं
लोगे वैए समए, इहरा संसाराई,
कायसंसितो | काय संसितो' ॥
संपयममुत्तदारं, रुवाईविरहओ वा, छउमत्थाणुवलंभा, तहेव सुब्वष्णुवयणओ चैव । लोयाइपसिद्धीबो, जीवोऽमुत्तो ति नायब्वो ॥ निच्च त्ति दारमहुणा, णिच्चो अविणासि सासओ जीवो । भावते सर जम्माभावाउ नहं व विन्नेओ ।।
हे उप्पभवो बंधो, तज्जोग विरओ
१. देखें टिप्पण दशनि २०४ ।
विसयसंभरणा । स उबलद्वा ।।
अछेयभेयत्ता । अाइपरिणामभावाभो ॥
निभ्वो जीवो सम्बंधि 7
पञ्चभिन्नभावाओ ।
तेलोक्कसीहि ।।
कारण अविभागाओ कारण अविणासओ य जीवस्स । निच्चत्तं आगांसपडाणुमाणाओ ।।
विन्तेयं,
विभासको अहं ।
जुज्जए
तस्स ॥
जम्माणतरहयस्स नो जुतो । चोराइघडाणुमाणाम ||
खलु,
२. देखें टिप्पण दर्शन २०५ ।
४३१
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________________
४३२
नियुक्तिपंचक अविणासी बलु जीवो, विगारणुवलभगो जहागासं । उवलब्भंति विगारा, कुंभाइविणासिदवाणं । रोगस्सामयसन्ना, बालकयं जं जुवाऽणुसंभरइ' । जं कयमन्नंमि भवे, तस्सेवन्नत्यवत्थाणा ॥ णिच्चो अणिदियत्ता, खणिो न वि होइ जाइसंभरणा | थणअभिलासा य तहा, अमओ नउ मिम्मउथ्य घडो ।। कत्तत्ति दारमहणा, सकम्मफलमोइणो जओ जीवा । वाणिकिसीवला इव, कविलमनिसेहणं एयं ।। वावित्ति दारमहणा, देहव्वावी मोऽग्गिउण्हं व । जीवो नर सव्वगओ, देहे लिंगोवलंभाओ। अहुणा गुणित्ति दारं, होइ गुणेहि गुणित्ति बिन्नेओ । ते भोग-जोगउवओगमाइ रुवाइ व घडस्स ।। उड्ढंगइत्ति महणा, अनुरुल हुत्ता सभावउडगई । दिद्रुतलाउएणं, एरंडफलाइएहि च ॥ अमओ य होइ जीवो, कारणविरहा जहेव आगासं । समयं च होयऽनिच्चं, मिम्मयघडतंतुमाईयं ।। साफल्लदारमहणा निच्चानिच्चपरिणामिजीवम्मि ।
होइ तय कम्माण, इहरेगसभावओजुतं ।। ७१.
जीवस्स उ परिमाणं, वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु |
भोगाहणा य सुहमा, तस्स पएसा असंखेज्जा ।। ७१०२. पत्थेण व कुडवेण व, अह कोइ मिणेज्ज सव्वधनाई ।
एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अणंता उ॥ ७२.
विस्थाविद्धत्या, जोणी जीवाण होइ नायत्वा ।
तस्थ अविद्धपाए, वुक्कमई सो य अन्नो वा ।। ७३. जो पुण मूले जीवो, सो निव्वत्तेति जा पढमपत्तं ।
कंदाइ जाव बीयं, सेसं अन्ने पकुवति ॥ ७३।१. सेसं सुप्तप्फासं, काए काए अहष्कम बूया ।
मज्झयणत्या पंच य, पगरणपयवंजणविसुद्धा ॥
१. ७१।१२ के लिए देखें टिप्पण दशनि २०९। २. देखे टिप्पण दशनि २१६ ।
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________________
परिशिष्ट-१
७४.
७५.
७७.
मूलगुणा वक्खाया, उत्तरगुणअवसरेण आयायं । पिडझयणमियाणि, निक्खेवे नामनिष्फन्ने ॥ पिद्धो य एसणा या, दुपयं नामं तु तस्स नायव्यं । चउचनिक्खेवेहिं, परूवणा तस्स कायब्धा' ।। पिचि संघाए जम्हा, ते उइया संहया य संसारे । संघातयंति जो, फम्मेणटप्पगारेण ।। दब्वेसणा उ तिविहा, सचित्ताचित्तमीसदग्याणं । दुपयचउप्पयअपया, नरगयकरिसावणदुमाण ॥ भावेसणा उ दुविहा, पसत्य स्पसत्यगा य नायब्वा । नाणाईण पसस्था, अपसस्था कोहमादीणं ।। भावस्सुवगारित्ता, एत्यं दब्वेसणाइ अहिगारो। तीइ पुण अत्थजुत्ती, वत्तव्या पिंडनिज्जुत्तो' । सा नवहा दुह कीरइ, उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । छसु पढमा बोयरइ, कीतियम्मी विसोहो उ ॥ कोडीकरणं दुविह, उपगमकोडी विसोधिकोडी य । उगमकोडी छक्क, विसोधिकोडी भवे सेसा ।। कम्मुद्देसियचरिमतिग, पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ । अझोयर अविसोही, विसोहिकोडी भवे सेसा ।। अधिगारो पुखुत्तो, चतुम्विहो बितियचूलियज्झयणे । सेसाणं दाराणं, अहक्कम धोसणा होति।।
८०.
५०।१.
१.
१. देखें टिप्पण दशनि २१७१।।
४. देखें टिप्पण दशनि २२० । २. ७६-७९ के लिए देखें टिप्पण दशनि ५. देखें टिप्पण दशनि २२०॥१॥ २१८.१-४॥
६. देखें टिप्पण दशनि ३४५ । १. देखें टिप्पण दशनि २१९।१ ।
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उत्तराध्ययन पर कोई माष्य उपलब्ध नहीं है । केवल क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अध्ययन के प्रसंग में निर्ग्रन्थ एवं उसके भेदों की व्याख्या हेतु कुछ भाष्य गाथाएं प्राप्त होती हैं। ये भाष्य गाथाएं किसके द्वारा लिखी गयीं इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है। संभव लगता है कि व्याख्या के प्रसंग में अन्य भाष्य गाथाओं से ये गाथाएं यहां उद्धृत कर दी गयी हों ।
हस्त दाइशों एवं वांत्याचार्य को टीका में प्रकाशित भाष्य गाथाओं के क्रम में थोड़ा अन्तर है । हमने हस्त आदर्शों के आधार पर गाथाओं का क्रम रखा है । उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की प्रकाशित टीका में २५७-५९ इन तीन पत्रों में ये गाथाएं मिलती हैं ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
उत्तराध्ययन भाष्य
५.
पुलाग - बकुस कुसीला, णिग्गंथ - सिणायगा य एएस पंचण्ड वि होइ विभासा इमा होइ पुलागो दुविहो, लद्धिपुलागो तहेव लागो संघाइकज्ज इतरो तु
णायव्वा । कमसो' |
लिंगपुलागो अन्नं, णिक्कारणतो करेति मणसा अकपियाई, णिसेवओ
इयरो य । पंचविहो ||
णाणे दंसण चरणे, लिंगे अहासुहुम य बोध | णाणे दंसण धरणे, तेसि तु विराण असारो ॥
जो लिंगं । होतऽहासुमो ॥
सारीरं उचकरणे, बाउसियत्तं दुहा समयस्वायं । क्वित्याणि धरे, देसे य सव्वसरीरम् ॥ आभोगमणाभोगे, संबुद्धमसंडे मासु । gविहो उ बाउसो खलु, पंचविहो होति णायव्वो ।
बाभोगो जाणतो, करेति दोसं तहा अणाभोगो । मूलुत्तरेहि संवुड, विवरीय असंबुडो होति || अच्छिमुह मज्जमाणो, होइ महामुदुमओ तहा बउसो | डिसेवणाकसाए होइ कुर्सीलो दुहा एसो ॥
१. इस गाथा से पहले शान्त्याचार्य की मुद्रित टीका में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है
तस्थ नियंठ पुलाती, बकुल कुसील नियंठ पहातो म ।
तस्य पुलाओ दुविहो, मासेषण लद्धितो चेव ॥
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________________
परिशिष्ट १
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
जाणे दंसण चरणं तवे य अहसुहृमए य बोधब्वे । पडिसेवणाकुसीलो, पंचविहो ऊ मुणेो ॥ गाणादी उवजीवति, अहसुहुमो अह इमो मुणेयब्वो । सातिज्र्ज्जतो रागं गच्छति एसो तवच्चरणी ||
एमेव कसायम्मि वि, पंचविहो होइ ऊ कोण विज्जादी, परंजए एव
कुसीलो उ । माणादी ||
एमेव दंसणम्मि वि, सावं पुण देति ऊ चरितम् । मणसा कोहादीणि उ, करेति अह सो महासुमो ||
पढमग अपढम चरिमा, अर्धारिमो सहुमो य होइ णायव्वो । णिग्गंथे पंचविहो, सिणाए पुण केवली भणिता ॥
पढमाढमा चरिमे, अचरिमसहूमे य होंति णिग्गंथे । अच्छवि अस्सबले था, अकम्मसंसुद्ध अरहजिणो ।। निमगयगंध नियंठो, अंतमुहुत्तं दुहा मुणेयो । उवसंत कसायो वा, खीणकसायो य पंचविहो || तो मुहुत्तद्धाए, पढमेयर रिम अचरिम नियंठो । समएसु महासुमो, णायक्वो संपराएसु ।। हाल एक्कं समयं, चक्कम त्रिसुद्धहायगो होइ । मस्थ विसयल कम्मे, णाणादिविसुद्धचरिम जिणो' ॥ संजम - सु-पडिसेवण, तिथे लिंगे य लेस उनवाए । थाणं च पतिविसेसो, पुलागादीण तु जोएज्जा ।। सामाइय-छेयसंजमा होंति । होति कसायकुसीलो, परिहारे सुडुमरागे य ॥ जिग्यो य सिपामो, अहखाए संजमे मुणेयब्वा । दसपुव्वधरुक्कोसा, डिसेवलाय उसा य ।।
पुलाब कुसकुसीला,
चोपुव्यधरादी, कसायणियंठा य होंति ranसुतो उ केवल मूलगुणा सेवओ
१. ३, १५, १६, १७ ये चारों गाथाएं मुद्रित टीका में नहीं हैं ।
पायया ।
पुल ||
चित्तलवत्यासेवी बलाभिओगेण सो भवे
मूलगुण उत्तरगुणे, सरीरबउसो
मुणे
बउसो ।
॥
८३५
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________________
४३६
नियुक्तिपचक पहाय कसायकुसीले, निग्गंथाणं च नत्यि पडिसेवा । सम्वेसं तित्थेसं, होति पुलागादि य णियंठा ।। लिगे उ भावलिग, सध्वेसि दवलिंग भयणिज्जा । लेसाउ पुलागस्स य, उरिल्लातो भवे तिण्णि ।। बकुसपडिसेवगाणं, सव्वा लेसाउ होंति णायब्वा । परिहारविसुद्धोणं. तिण्डवरिल्ला कसाए उ॥ णिग्गंथसहमरागे, सुक्का लेसा तहा सिणाएसुं । सेलेसि पडिवण्णो, लेसातीए मुणेयम्बो ॥ सहस्सार-अच्चम्मि, अणुतराणुत्तरे य मोक्खम्मि । उक्कोसेणं हीणा, सोहम्म नव उ पल्लाओ ।। संजमठाणाणि य संखासखादीणि होति जीवस्स । जणियाणि कसाएहि, पुलगकसादीणि वोच्छामि ।। पुलागस्स सहस्सारे, सेवगबउसाण अच्चुए कप्पे । सकसायणियंठाणं, सवढे पहायगो सिद्धो । पुलागकुसीलाणं, सव्वजहण्णाई होति ठाणाई । वोलीणेहि असंखेहि, होइ पुलागरस वोच्छित्ती॥ कसायकुसीलो उरि, असंखिज्जाई तु तत्थ ठाणाई । पडिसेवणबउसे वा, कसाय कुसीलो तओऽसंखा ।। वोच्छिण्णे ऊ बउसो, उरि पडिसेवणाकसाओ य । गंतुमसखिज्जाई, छिज्जइ पडिसेवणकुसीलो ॥ उरि गर्नु छिज्जति, कसायसेवी ततो हु सो णियमा । उद्धं एगट्ठाणं, णिग्गंथसणायगाणं तु ।। उक्कोसतो नियंठो, जहन्नमओ चेव होइ णायन्यो । अजहन्नमणुक्कोसो, होति नियंठा असंखेज्जा ।।
१.२७,२८ और ३४ मे तीन गाथाएं मद्रित टीका में नहीं है।
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परिशिष्ट २
पदानुक्रम
अइसेस इङ्यिायरिय अंग दस भाग भेदे बंगापमवा जिगासिया बंगाणं कि सारो अंतगमफिफिसाणिय अंतोमुत्तमद्ध अंती सादीयाओ अंबग्य-निसाया अंजे अंबरिसी चेष अकुसलजोगनिराहो अक्खरगुण मतिसंघातणाए अक्खीण दिर्जतं बक्सेवणि अविखत्ता अगणी णिवावणे चेब अगणेतो निक्वंतो अग्गविय मूलबीया अग्गिम्मि हवी हूयह अविरुणतए य सूरिए अच्चित्तं पूर्ण विरियं अच्चित्तमीसगेसं अचिई दियसोहिणो अजीवकम्मनोदव.. अजीवपयोगकरण अज्जद्दएण गोसाल मझप्पस्साणयणं अज्झयणगुणी भिक्खु अज्झयणे निक्लेवो अद्रुपदेसो स्यगो अट्ठमए य विमोक्नो अदुबिर्ष कम्मचयं अविध पिय कम्म
अट्टविहं कम्मरयं देशनि १५७१
अट्टविहकम्ममणस्स अन १५८ विहम्मसार:
उनि ४ अटुबिहकम्मरोगा'... आनि १६
अट्ठसु वि समितीसुय सुनि ७१ अद्वारस उ सहस्सा सूनि १७७
अट्ठारसठाणाई आनि ४५
अट्ठावयमुज्जिते आनि २२
अट्ठी जहा सरीरम्मि
अणगारमादिणो पूढवि सुनि ६६
अणगारे निक्लेवो दनि ३३।१
अभिग्गहिता भासा सूनि २०
अणसणभूणोयरिया उनि २८४
अणसातणा व भत्ती दशनि १७८
अणिएयं पतिरिक्त उनि ४५०
अणिदियगुणं जीवं सूनि १९६
अणिगृहितबलाविरियो आनि १३०
अणिच्चे पवए रुप दशनि ९५६१
अणुपुध्विगमादेसो उनि १३५
अणुपुग्विविहारीणं
अणुसमयं च पवेसो सूनि १५२
अणुसमयनिरंतरमनीचि दशनि १२३७ मतसि-हरिमंथ तिपुडग उनि ५३२
अतिरित्तअधिगमासा उनि १८७ अतिसेसे उप्पन्ने
सूनि १९१ अत्तउवनासम्मि य दशनि २६, उनि ६
अत्थकहा कामकहा दनि ३२५
अत्थबहुल महत्थं उनि ५३८
अत्थमहंती वि कहा आनि ४२ अस्थि ति जा विलक्का
आनि ३२ अस्थि ति किरियवादी दशनि २९४ अस्थि बहु गाम-नगरा दनि १२३ अस्थि बहू दणसंडा
दशनि ३०,२८०, उनि ११
उनि २८० आनि १८८ दशनि ३४२
उनि ४५६ दशनि १५१११ दशनि २४३ आनि ३५४
आनि ८५ आनि १००, मुनि ८९।१
जनि ५४१ दशनि २५३
दशनि ४४ दशनि ३०३ दशनि ३४७ दशनि २०५ दशनि १६१ आनि ३६४ आनि २८६ आनि २७५
आनि १० उनि २०८ दशनि २३० दशनि ३३६
उनि २५२ दशनि ७९ दशनि १६२ दशनि १५० दशनि १७ दशनि ७३ सूनि ११८ दशनि १०२ दशनि ९७
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४३८
नियुक्तिपंचक
अपुरे असुतो अध ओवयारिओ पुण अधिगम्मति व अत्था
अधिगारो पुब्बुत्तो अन्नं पिय सि नाम अन्नावदेसओ नाहियवाई अन्नो वि य अणगारी अपडिक्कम सोहम्मे अपरक्क्रममादेसो अपासस्थाएं अकुसीलयाए अपुहत्तपुहत्ताई अप्पिणह तं बइस्लं अप्फासुय-कय-कारित अप्फासुयपडिसेबी अभासदत्ति छंदाण बत्तण अभितरगा खुभिता अन्मुडाणं अंजलि अबभुवमतगतवेरे अभयं तुज्म नरवती अभयकरो जीवाणं अभिषेतमणभिपेतो अभिलावे संजोगो अयलपुरे जुवराया अरती अचेल इत्थी अरती इ दुगुछाए अरहंत चक्कबट्टी अरहंत मम्गमामी अवणे ति नवेण तमं अवदाली उत्तमओ अवराधम्मि पतणुए अवहंत गांण मरुए अवि भमरमधुकरगणा अवि य ह भारियकम्मा अविरयभरण बालमरणं अविसुद्धभावलेसा अब्बोगडो उ भणिओ असंजतेहि भमरे हि
सनि१८असमणण्णस्स विमोक्खो दशनि २९६ असमाहि म सबलत्तं उनि ७, २७, असिंपत्ते घणु कुंभे
दशनि २७ असिवादिकारणे हिं दशनि ३४५ असिये ओमोयरिए दशनि १४१ असि-सत्ति-कोंत-तोमर
दशनि ७६ असीतिसयं किरियाणं उनि १०६ असुभे दुहाणुबंधे दनि १११ अह अन्नया कयाई आनि २९४ अह आगतो सपरिसो दनि १४३ अह आसगतो राया दशनि ४ अह एगराइयाएं दनि ९४ अह वीस पुण मिहत्या दशनि ९१ अह केसरमुजाणे
सूनि ८९ अह तस्स पिया पत्ति दशनि २८९ अह हव्वसम्म इच्छा
उनि १३३ अह देहति रायसुतो दशनि २८८, २९८
___ अह पेच्छह रायपहे दनि ११३ अह पोंडरीयनामं उनि ३९५ अह मणई अणगारो आनि २०७ अह भणई जयघोसं उनि ४३ अह भणति सम्निनाणी उनि ४५ अह मोणमस्सितो सो उनि ९९ अह रूविणीएं सहिओ उनि ७६ अहवा वि इमो हेऊ उनि ७७ अहवा वि दुष्पणिहिदियो सूनि १४९ अहवा वि नाण-दसण दशनि १२३३१
अह सा सस्थाहसुथा दशनि २९५
अह्यिा सित्तबसम्गे उनि ४८४
दनि १३ दनि १०५
आइक्खिउं विभइउं दशनि ११४
आई मझवसाणे सूनि १६१ आउज्ज कटुकम्मे उनि २१६ आउट्रिम उक्किण्णं उनि ५३६ आउरचिष्णाई एयाई आनि ३१२ आउबिवामझयणाणि दशनि ११५ आउस्स वि दाराई
आनि २७१
दनि सूनि ६७ दनि ६७ दनि ७५ सूनि ७२ सूनि ११९
दनि १२६ उनि ४०६,४२६,४३३,४६२
उनि २८५ उनि ३९१ उनि ४६८ ! दशनि १०१ . उनि ३९० । उनि ४३१ । आनि २१८ उनि ४०८ उनि ४०७ उनि २८६ उनि ४७२ उनि ४७० उनि ४३४ उनि ३९३ उनि ४३२
दशनि ८३ दशनि २७४१
सूनि १५७ उनि ४२८ आनि २५२
आ
आनि ३१५
दशनि २ आनि १४७ दशनि १४३ उनि २४२।१
दनि २ बानि १०६
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परिशिष्ट २
आगमतो उवउसे आगमतो आदी पुण आगम-नोआगमतो
आणंद सुपातं वादाणपणावति
आदाणपदेणाऽऽ
आदर्णिय संकलिया
आदाणे गम्मिय
आदाणे परिभोगे आदिको आदेसंसि
आदेसी पुण दुविध
आभरण छायण व सगाण
आमंत णि आणवणी
आय - परसरीरगया
अयप्पवासपुवा
आयरिओ तारिसओ
आवरण दुविध आयरियपरंपरएण आयरियसीस पुत आयाणपदेणेदं
यार अंग सुयबंध
आयारामस्यो
आयापकप्पो पुण
आयारम्मि अधीते
श्रयारम्मि अहीए यार सुतं भणियं
आगारस्स भगवतो
मापारे अंग थ
बाारे निक्खेवो
बाबारे बायाला
धाबारे ववहारे
आया अंगाणं
आयारो आचालो मारंभ रस गिडी आराणी उ दब्बे
आलवणे य काले
आलस्स-मोह -ऽवण्णा
दर्शन ३१६ सूनि १३६
सूनि १३५.
दर्शन ३४९
मानि २३९
सूनि १०३
सूनि २८
सूनि १२२
दशनि १९९
उनि ४८
उनि ५०
उनि ५३३
दनि २५२
दर्शन १७२
दशनि १५ उनि ५९
सूनि १३०
सूनि १२५
उनि ५८
उनि ४९८
आनि २
आनि १२
जानि ३११
दनि २७
आनि १०
सूनि १८३
आनि ३६६
अनि ५
उनि ४७९
दनि ४७
दर्शन १६७
आनि ९
आनि ७
आलवण पहरण भूसणे आवरणे कवचादी
उनि २४२
दशनि २४८
अवीचि ओहि अंतिय
आसंदी य अकरणं
आसापुष्णिमाए आसाणा उदुविहा
आसेवण दुविधो
आहरणं तसे
आहार- उहि पूया
आहार-भय- परिभ्गह
आहारे उबकरणे आहारेण विरहिओ
इंगाल - अगणि- अच्ची
इंदगेयी जम्मा इंदपुरे रुद्दपुरे इंदियलची निव्वत्तणा
इंद्रिय-विस कसाया
इत्यादि साममे
इच्छा सत्यमपसत्यिगर इच्छा मिच्छा तहक्कारो
इ-रस-सात गुरुगा इड्ढीए निम्तो
इत्थीरमण पुरोहि
इस कारपो
इमं च एरिस तं च
इस सत्तरी जण्णा
इरि एस भासाणं
ईसर-तलवर - माडबियाण
आनि ३३१
उक्कल - कलिंग गोतम
उनि १६३ उक्कलिया मंडलिया
इतरेतरसंजोगो
इत्यं पुण अधिगारो
इत्यिकहा भत्तकहा इत्यीण कहत्य वट्टती
इत्यपरिग्गहामो
४३९
आनि ९३
सूनि ९३
उनि २०५ आनि २६३
दनि ६४
दनि १५
सूनि १२९
दर्शन ६९
आनि २२५
आनि ३९
आनि १४६
आनि २९३
आनि ११८
आनि ४३
उनि ३४४
उनि १६२
दशनि १५१
उनि ४८१
दशनि १३९
उनि ४७८।१
सूनि ११३
उनि ४१५
उनि ३५
उनि २२९ दर्शन १८०
उनि ३२१
दशनि ३१५/१
उनि ३४८
आनि २०३ उनि १२२
दनि ६९
दनि ५९
उनि ३०८
आनि ३२३
आनि १६६
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नियुक्ति चक
दशनि ८ दशनि ११९
सूनि २५ सूनि ४७ आनि २५१ उनि १०१ उनि २५१ उनि ३५५ उनि ३६० उनि ३५३ मानि ११३
दनि ६३
दनि ५९ उनि १७२११४
उक्कोसो उ नियंठो उम्गमदोसा पहामिल्लुगम्मि उग्गेणं खत्ताए उच्चबद सरीराओ उच्चार-पासवण-खेलमत्तए उशाहपालणाए उज्जम-धिति-धीरतं उधाणे तिदुगम्मि उज्वेणि कालखमणा उज्जेणि हस्थिमितो उज्जेणीश्वणमिसो अहमहे तिरियम्मिय उणियमासाकप्पो उत्तरकरणेण कयं उत्तरायणाणेसो उदएण समुष्पज्जाइ उदगई सारई उदगसरिच्छा पत्रण उद्दिद्वकर्ड भुजति उद्देसम्मि चउत्थे उद्देसम्म य तत्तिए उद्देसो गुरुवयणं उन्नंदमाणयिओ उप्पन्न-विगस-मौसम उम्भामिगा य महिला उभी वि अजजोयण उरग-गिरि-जलण-सागर उरमाउणामगोयं उस्लो सुक्को य दो छूता उनओग-जोग-अझवसाणे उवकमिए संजमविम्धकारए उवमा खलु एस कता उवमा पोंडरीएण उवयारेण उ पगयं उवलम्भम्मि मिगावद उवसंपया य काले उपसंहारविसुद्धी
उनि २३३ उपसंहारो देवा आनि ३२६ उपसंहारो भमरा मानि २६ उपसरगभीरुणो थीयसस्स आनि ३४४ उवसम्गम्मि य छक्कं
दनि ५ उपसग्गा सम्माणय आनि ३६३ उसभपुरं रायगिहं
सूनि ९६ उसभस्स भरहपिउणो उनि ३२० उसुथारनाममरेयं उनि १२० उसुयारपुरे नगरे उनि ९० उसयारे निक्लेवो उनि ९१ अस्सिचण-गालण-धोवणे दनि ७७ दनि ११८ ऊणातिरित्तमासा उनि १७६ ऊणातिरित्तमासे
उनि २७ ऊहाए पण्णत्तं दशनि ३३९
सूनि १८६ एए पंच वयंसा दनि १०२ एए समणा धुत्ता
दशनि ३३२ एएहि कारणे हिं आनि १९९, २१६, २७३ एएहिं सरीरेहि
सूनि ३७ एक्कं च दो व समए
उनि ५७ एक्कारस ति ति दो दो उनि ४०५ एकेक्क) य बसविहो दशनि २५१ एगंतपसत्था तिण्णि दानि ८४ एगंतरिए इणमो दनि ७६
एगबहल्ला मंडी दशनि १३२ एगभविए य बद्धाउए
उनि २४० एगभविम बद्धाउगे य
आनि २३३ एगमुकंदा तुरं आनि ८४,१५७ एगरस-एगवणे
सूनि ४९ एगविहो पुण सो संजमो दशनि ११६ एगस्स उ ज महर्ण सूनि १५९ एगस्स खीरभोयण आनि ३०६ एगस्स दोण्ह तिण्ह व दशनि ७२ एगा मणुस्सबाई उनि ४७८१२ एगिदिय देवाणं दशनि १२०११ एगणतीसे आवस्सग
उनि ३२९
उनि ३६४ आनि ९४,११२,१२२
आनि ८३,१३५ सुनि १७५,१७६
आनि ३६८
सूनि ५० उनि २२८ आनि २३ दनि, ९३ सृनि १४६ सूनि १८७ उनि १५२
उनि ३३ आनि ३१३ आनि १३७
उनि २९३ आनि २,१४२,१४३
आनि १९ सुनि १७४ उनि २५
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परिशिष्ट २
जनि १५० आनि २१४ दान २७८ दशनि ३०१
भो
सूनि ८७ जनि ४९,५६.सनि १५६
आनि १८४
दनि ५६ उनि १२३ उनि २२३ आनि ३०३ सूनि १७३ उनि २४१ उनि ५१ आनि १ जनि १४७
मुनि ६९ दशनि २५॥ १, उनि २८।१
एगो कायो दुहा जातो एतं ससल्लमरण एतस्स उपडिसेधो एताई तु खुहाई एसाइंपाबाई एता चेव कहाओ एतासि व अट्ठण्ह एते चेव य दोसा एतेहि कारणेहि एतो उत्तरकरणं एसो गुरु आसायण एत्मं पुण अधिकारी एत्थं पुण अधिंगारो एत्य तु अभिग्गहियं एस्थ तु पणा पण एत्य य भणेज्ज कोई एत्थ व सहसम्मुझ्य एत्य समणा सुविहिया एमेव ओहिमरणं एमेव कामविणी एमेव चविगप्पो एमेव संभकेयण एमेक भावसुद्धी एवं पहाणं एवं एवं वियाणिकणं एमाई पहवेडं एयासि लेसाणं एवं चितयंतस्स एवं तु अवयवाण एवं तु इहं आया एवं तु समणु चिणं एवं तु सुयसमाधि एवं नाणे घरणे एवं भमराहरणे एवं लग्गति दुम्मेहा एवं विकप्पियाणं एवं सर जीवस्स वि एसणमणेसणिज्ज
दशनि ११११ एसा न हण कंडुं
उनि २१३ एसेव य उवदेसो मूनि १८४ एसो दुदिहो पणिधी उनि ३७२ एसो भे परिकहितो उनि ३८४ दशनि १५१ ओचे सील विरती आनि::. ओदइय श्रोनरापित
सुनि ६१ ओदइयं उपदिट्टा उनि १६४, आनि १४५ ओदइयादीयाणं उनि १८५
अोधाविउकामोऽदि य दनि १२८
ओधि च आइयंतिय दशनि २१२ ओधुणण घुणण नासण सूनि १५८
ओयाहारा जीवा दनि ६६
ओरम्भे म कागिणी दनि ६८
ओवस मिए य खइए दशनि ९४ ओसहि तण सेवाले
ओसिर-हिरिबेराण दशनि १०४
ओहतहते प निहते उनि २०९
ओहो चं सामन्नं दशनि २९० दनि ५७
कंचग पज्जुण्णम्मिय दनि १०४
कंडू अमत्त छंदो
कनारे दुनिभक्खे दशनि २६२
मंदादी सस्चित्तो उनि १४
कंपिल्लं गिरितडग आनि १०४ दशनि ६
कंपिल्लपुरवरम्मि
कंपिल्लपुरा हिवई उनि ५४० उनि ४०९
कंपिल्ले मलयवती दशनि १२३१५
कंसाणं दूसाणं दशनि ५९
कडगासणपरिभोगो आनि ३०४
कढगे ते कुंडले य ते दनि ४८ कण्णोट्ट-नास-कर-चरण 'उनि ६० कत्तो कस्स ब दवे दशनि ९३ कत्यह पंचावयवं आनि २३४ कत्थइ पुरुचति सीसो
आनि ५५ कपंति करकएहिं दशनि ६१.६२ कम्पति कागिणी मंसगाणि
उनि १ कप्पणि कहाडि असिमग
-
उनि ३५२
उनि ५ दशनि १००
उनि २९१ उनि ३३६ उनि ३८८ उनि ३९४ उनि ३३४ सूनि १५१ आनि २५० उनि १३९ सनि ७७
उनि ६९ दशनि ४७ दशनि ३५ सुनि ८१ सूनि ७५ आनि १४९
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४४२
कमउत्तरेण पगतं
कम्मगसरीरकरणं
कम्मपगडी सा
कम्मध्वायब्बे कम्मम्मिय निक्लेवो
कम्मयददेहि सम कम्मुद्देमिय चरिम लिग
कम्मे य किलिसे य
करकंडू कलिंगेसु
करणं च कारणों या
करण लिए जोगत्तिए कविलाजणामगोतं
कविलो निचिचयपरिवे सिपाइ
कस्स बुढी एसा कह नाम सो तवोकम्म
कहिऊण ससमयं तो
कहिया जिणेहि लांगो
कामभूमी संधारा य
काऊण तवच्चरणं
काऊ मासॠप्प
काऊण व सामण्णं
काऊण समणरूवं
काम असंजतस्सा
कामं तू निरवसेसं
कामं तु सव्वकाल कामं तु सात मि कामं दुबालसंग कामाण तु क्लेिवो कामो चउवीसतिविहो कार्य कार्य च मणं च कारण उड़गहिते
कारण विभाग कारणविणास
का
बहुमा कालो जो जावइओ कालो य नालिया ह
कालो सममादीओ विदुमा पुती
उनि ३
उनि १९७
उनि १७
उनि ७०
उनि ५२२
जानि २७९
दर्शन २२०/१
दनि १२५
उनि २५७
सूनि ४
दशनि ३१५
उनि २४५
उनि २४७ दशनि ९६।१
आनि २९२
दर्शन १६९
दनि १२७
दनि ७२
उनि ३९५, ४३६
दनि ६०, ७०
उनि ३५७
उनि ३६१
दनि १३३
दनि ४०
दनि ९० सूनि ४१
सूनि १०९, दनि ३८
उनि २००
दशनि २३६ दशनि १२१
दनि ४ दशनि २०६ दशनि १५८
उनि १२९ सूनि १०
दशनि ५८
दनि ५८
दनि ९६
किंची सका
कि दुभिक्ख जाय
कि
पुर्ण अवसेसे ह
किण्हचउसिरति
कितिकम्मं भावकमं
किन्तु गिही रंघती
किरियाओ भणियाओं
किह में होज्ज अवंझो कुंभीयपणे य
कुक्कुडरव तिलपत्ते कुणमाणो विनिविति
कुमाणो विकिरियं
कुष्पवयणं कुधम्मं
कुमारए नदी लेणे
कुसुमे सभावपुष्फे केई वहति अट्ठा
केई सयं वर्धेति
केणं ति नत्थि आया
केवलिपरिसं तत्तो सिचि नाणसणा
कोडि पि देमि अज्जे ति
कोडीकरणं दुविहं कोठे माणे माया
कोल्लयरे वत्यन्यो
को वेदेई अकयं ?
कोसंवि कासवजसा कोसंबीए सेट्ठी
कोसंबी जण्णदत्तो
कोहं माणं माय
तस्स दंतस्थ जिई दियस्स
खंती य मद्दवऽज्जव
स्वधे
यदुपदेसा दिए
निर्युक्ति पंचक
आनि ९६,११४,१२४, १५०,१७१, दमनि २१४
दशनि २५ २ आनि २९८
उनि १९२
अनि १९४
दर्शन ९९
सूनि १६६
मानि ३६२ सुनि ७८
उनि ३५१
आनि २२१
आनि २२०
दनि ३६
उनि ८८
दशनि ११८
आनि १६२
आनि १०१
दशनि ७५
उनि २९४
आनि ६३
उनि २५०
दशनि २२०
दर्शन २५०, उनि २३५
उनि १०७ सुनि ३४ उनि २४६
उनि १००
उनि १०९
दर्शन २७५
आनि २३२
दशनि २२५.३२४
उनि १८१, सूनि
८
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परिशिष्ट २
उनि २६० उनि ४४८ उनि ४४७ आनि ७५
बनाऽऽदाणिय गेहे बवगे य खीणमोहे बहुग पायसमास घेतं काल परिसं वेतं तुजम्मि खेत्ते स्वेत्त-वत्यू धण-धष खेतम्मि अबक्कमण खेतम्मि जम्मि खेत्ते देते काले य तहा वेत्ते बहुओघभयं चमेणं संपत्तो
उनि २८८
गंगाए दोकिरिया गंडी गली मराली गंथो पुट्टिो गंधगमोसचंग गंधारगिरी देवय गज्ज पज्ज गेयं गणणाए रज्जू बलु मणसंगडवग्गहकारओ मणियं निमित्त जुत्ती गणियाघरम्मि एकको गम्म-पसु-देस-रज्जे गहण नदीकुरुंग महणुग्गहम्मि अपरिम्गहस्स मामे बसंतपुरए गारवपंक निबुड्डा गावी महिसी उट्टी गाहावति संजोगे गाहावितो तिविधी गाहीकता य अत्या गिदादिभक्खणं गिदपिष्ट्र गिहिणो विसयारंभग गुणमाहप्पं इसिनाम... गुणिजइतगतित्ते या गुत्ता गुत्तीहिं सव्याहिं गूढसिरागं पत्तं
दनि ९९ गोळेगणस्त मजमे आनि २२४ गोतमकेसीओ या आनि २२८ गोतमनामागोयं दशनि १८८ गोमेज्जए य रुयगे आनि २४७ उनि २३६ घेत्तूण पोंडरीयं दशनि ५२ सूनि १०९
गरण संकपयं उनि ४७
चउकारणपरिसुद्ध सूनि ४८ उनि ४२९
चउत्थम्मि धुवणविही चसधा खलु आहरणं
चउदीसं चउवीस उनि १६९
उसु कसाएसु गती उनि ६५
चकमणे य ठाणे सूनि १२७
चंदप्पभवेरुलिए उनि १४५
चंपाए पुग्णभद्दम्मि दनि ९७
चंपाए सत्थवाहो दशनि १४६
चंपाएं सुनंदो नाम सूनि १५५
चंपाएं सुमणभद्दो दनि २८
चंपा कुमार नंदी आनि ३५५
चक्का भम्जमाणस्स उनि १०३
चतुकारणपरिसुद्ध दशनि ३९
चत्तारि उवघ्नासे उनि ३४२
पत्तारि विचित्ताई आनि ३४२ घरग-मरुगादियाणं सुनि १९२ चरणदिसावजाणं उनि २१२ चरणम्मि होति छक्क दशनि २३४ चरण छक्को दवे आनि २५३ चरितं च कम्पितं या मूनि १३१ चरिमसरीरो साहू सूनि १३९ चरिया य विचित्ता एक्कवीसे
चरिया सेज्जा य परीसहा दशनि ३१२ चलणं कम्मगई खलु आनि ३५६ चाउसिरत्तीए दशनि १९४ चारो चरिया चरणं आनि १०५ चित्तं चेयण सण्णा आनि १४० चित्ते य विज्जुमाला
आनि २४३ आनि ३३२ आनि २५७
दशनि ५० दशनि २२ दनि १०४१
आनि ९२ आनि ७६ उनि २७१ उनि ४२५ उनि ११५
उनि ९४ दनि ९५ आनि १३९ दशनि ३२७ दशनि ५० आनि २८९ दशनि ३०७१
आनि ३ आनि २९ उनि ३७७ दशनि ४९ उनि २८३
उनि २३ आनि २९९ दसनि १११
सूनि १३ आनि २४६ दशनि २०० उनि ३३१
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________________
૪૪
चित्ते संभूताउं चित्ते भूमि चिरसंसद्धं चिरपरिचियं
बोट्सवासाई तदा
बोट्स सोलस बासा
चोल्लग पास धन्ने
छतमत्थमरण - केवलि
छक्कं पर एक्केव
छक्काया समितीम
छज्जीवणिकाए खलु जीवणिया पढ
म
उत्त
छट्ठे पडघाओ संजमाओ
छप्पय जीवनिकाये
धम्मासे उमरपो
छहि मासेहि अधी
जता गिहिणो वि य उज्जमंति
जइ ताय निज्जरमदो
अपई कीस पुणो
जं फिर दब्बं बुज्जे
जं च तवे उज्जुता
जं पढमस्सं तिमए
जं पष्प नेगमणओ
जं भणसि नत्थि भावा
जं भत्त-पाण- उबगरण जं भिक्खमेत्त वित्ती
जं चक्कं वदमाणस्स
जणवय- सम्मय-ठवणा घर सम्मि
तो चुओ भाओ जत्य य जं जाणेज्जा
जत्य य जो पष्णवओ
जय राया सयं चोरो
अदा ते पेतिए रज्जे
उनि ३२४
उनि ३२२
उनि २९६
उनि १७२।१
उनि १७१ उनि १६१
उनि २०६
आनि ३४७
दर्शन २८५
दर्शन १९०
अनि १५
दनि १८ आनि २७४
आनि २६१
आनि २२७
उनि २५१
दर्शन ३४८
दनि ४४ सूनि ४४
दर्शन ९७|१
उनि ४८५
दशनि १२२
सूनि १३३ उनि ५२
दशनि ६७
जवा रज्जं च र च
जदि अस्थि पदविहारो जध गयकुलसंभूतो
Tr दारुकम्म कारो
जध नाम आतुर सिह
जध नाम मंडलग्गेण
जब गाबिसगं जमदग्गिजडा हरेणुया
जमह दिया ये रातो
जम्मं मतंगतीरे
जम्मा भिसेग-निक्खमण
जयबोसा अणगारा
जयमाणस्स परो जं
जया सम्यं परिच्चज्ज
जलचर- थलचर- खद्दचारिए जलमाल कद्दमालं
जस्स जओ आहच्चो जस्स पुण दुष्पणिहिताण
जस्स विम दुप्पणिहिता जह एत्य चेव इरिया ...
जह एसो स
जह खलु कुसिरं कट्ठ
आनि ५१ उनि १३४
उनि २७०
जह खलु मलिणं वत्थं जह जिणसासनिरया
जह तुम्भे तह अम्हे जह दीवा दीवसयं
अह दुमगणा उ तह नगर
जह देवस्स सरीरं
दशनि २०
दशनि ३१९ जह देहुपरीणामो
दशनि २६४ जह धातु कणगादी जह नाम गोतमा रंड
दशनि २४९
उनि ३५०
जह नाम सिरिधराओ
दनि १३२
जहन्नं सुत्तरं खलु
आनि ४ जह भमरो त्ति य एत्वं
जाह मन्ने एतम
जह मम न पिये दुक्खं
जह वक्कं तह भासा
निर्युक्तिपंचक
उनि २६९ दनि ७१
दनि ३०
दर्शन ३११
दर्शन ३४१
सूनि ५१
सूनि ५२
उनि १४६
उनि १२७
उनि ३१७
आनि ३५३
उनि ४५९
आनि ३४८
उनि २७१
सुनि १४८
सूनि १६२
जाति ४७
दशनि २७४
दशनि २७६
दर्शन १२०
वशनि २७३
आनि २३५
आनि ३०२
दर्शनि ८९११
उनि ३०१
दनि २८ उनि
दर्शन ११७ अनि १६७
आनि १९९
उनि ३४
सूनि ९०
सूनि ५३
उनि २
दर्शन ९२
उनि २९७
वनि १२९
आनि ३३६
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परिशिष्ट २
जह वस्साबो हत्यि मह वा तिलसक्कुलिया जह सगलसरिसदाणे मह सवपायवाण जह सुर्स वह अत्यो बह सुत्त-मस्त-मुच्चिय जह हत्यिस्स सरीरं जहा लामो तहा सोभो जाई खेत्ताई खलु आई भणियाई सुत्ते जाणग पुच्छा पुच्छति जाणगभवियसरीरा जाणगसरीरभत्रिए
दशनि ६० जा ससमयवज्जा खलु
दशनि १७० आनि १३२ जिणवमणं सिद्धं चेव
दशनि ४६ आनि १३१ जिणवयणपढ़े विह
दशनि १२३३ आनि १७ जिणबयणम्मि परिणए
दशनि २४०११ जियसंजमो य लोगो
मानि ३३ आनि २१३ जीवकरणं तु दुविह
उनि १९५ अन... जीवम्स अत्तजणितेहि
आनि २८० उनि २४९ जीवस्स उ निक्खेवो
दशनि १९३ जीवस्स उ परिमाण
दशनि २०२ मुनि १५३ जीवाजीवाभिगमे
दशनि १८९ दनि २३ जीवाजीवाभिगमो
दशनि २१७ उनि २३ जीवाणमन्जीवाण य
उनि ५३१ उनि ५२६ जीवा भवद्वितीए
सुनि १५४ उनि ६७,२३२,२३९, जीवो छक्कायपहबणा
आनि ३५ २४४,२५४,२७४, जीवो तु दम्वचित्तं
दनि ३३ ३१२,३२३,३५४, जुत्ती सुवण्णगं पुण
दशनि ३२९ ३६८,३८६,४००, जे अश्मयणे भणिता
दशनि ३३० ४१८,४३८,४४६, जे किर गुरुपडिणीया
उनि ४८८ ४५३,४५५,४५८, वे किर चसदसपुवी
उनि ३१० ४७८,४८०,४८३, ४९२,४९४,४९६, जे किर भवसिद्धीया
उनि ५५२ ५००,५०२,५०६, जे जिणवरा अतीता
आनि २२६ ५१०,५१२,५१५, जेट्ठासासु मासेसु
उनि १३० ५३९,५४२,५४५, जेद्रा सुर्दसण जमालि
उनि १७२।२ ५४७ जेण जीवंति सत्ताणि
उनि १३१ उनि ५२३ जेण भिक्खं बलि देमि
उनि १२४ उनि ५३०,५४९ जेण म धरति भवगती
दशनि १९७ आनि ६४ जेण रोहंति बीयाणि
उनि १२६ उनि १५५ जेण व जंव पडुच्चा
दशनि १२ दनि २१, १३७ जेण सुहप्पज्झयणं
उनि २८१३ दनि १३१ जे तिवपरीणामा
आनि २०४ उनि ३४७ जे बादरपज्जत्ता आनि ६,१०९,१२०,१४५,१६८ उनि ५३४ जे वादरे विधाणा
आनि ७९ उनि ११५ जे भावा अकरणिज्जा
उनि ३८३ उनि १३२ जे भावा दसकालियसुत्ते
दशनि ३०७ आनि ३१७ जे मंदरम्स पुरवेण
आनि ४९ दशानि १७१ जेसि पि अस्थि आया
दशनि ७१
जाणगसरीरमबियं जाणगसरीरभविया जाणति सयं मतीए जाणावरणपहरणे जाणि भणिताणि सुत्ते जाती जातीया जातीपगासण निवेयण जा दश्वकम्मलेसा जायणपरीसहम्मी जाव वुत्थं सुहं बुत्थं जाबोरगहपडिमानो जा ससमएण पूठिय
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________________
नियुक्तिपंचक
जेसि तु पमाएम जे होंति अभवसिद्धा जो इंदकेउं समलंकियं तु जोगुवओग-कसाए जोगे करणे सण्णा जो चूयरुक्खं तु मणाभिराम जो चेव होति मोक्खो जो अश्या तित्थगरो जो जीवो भविओ बलु जोणिन्भूते बीए जो तेसु धम्मसद्दो जो पुढवि समारभते जो पुछ उवदिट्टो जो पुग्वि उद्दिट्टो जो भिक्खू गुणरहितो जो संजतो पमत्तो जो सनिवाइनो खलु जो सो अरिनेमी जो सो नमितित्थयरो
उनि ५२० तं कसिणगुणोवेतं उनि ५५३ तंतिसमं चण्णसमं उनि २६२ तं न भवइ जेण दुमा उनि ४२० तं नेति पिता तीसे दनि १५२ तं पासिंकण इद्धि
उनि २६८ तं वयणं सोऊणं मानि ३६५ तं सोकण कुमारो बानि २९५ तगराए अरहमित्तो
सुनि १४५ तडतडतहत्ति भज्जति दशनि २१५, आनि १३८ तण्हाछहाकिमत
दशनि ०९।३ सतिए आयारकहा
आनि १०२ ततिए आहाकम दशनि २६९ ततिए एसो अपरिग्गहो दशनि २२२ ततिए खलुकभावो दशनि ३३१ ततिए जयंतछलणा दशनि १५४ सतिमम्मि' अंगचेद्रा उनि ५२,५४ ततियम्मि अदायणमा
उनि ४४२ ततं जीवाजीवा उनि २६५ तत्तो दोन्नि दुगुछ
तत्तो य चुया संता
तस्य अकारि करिस्स दनि ५५
तत्य असंपत्तस्यो दशनि ६३
सस्थाऽज्झयणं पड़म सूनि १७
तत्य भवे आसंका दनि ८८ तत्यहिगारों तु सुहं आनि २०९ तस्थाहरणं दुविहं दनि ५,६ तम्हा उ सुरनराणं
तम्हा कम्माणीयं दनि ४८ तम्हा खलंगभावं
उनि १४४ सम्हा खलुपमाय उनि १४२,१४३ तम्हा जिणपण्णते दशनि १२५,३४९।१ तम्हा जे अज्झयणे
उनि ६६ तम्हा तु अप्पसत्थं उनि ४०१ तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहि आनि १११ तम्हा घम्मे रतिकारगाणि
तम्हा न 8 वीसंभो सूनि ४६५ तव-संजम गुणधारी
दशनि ३२८ दशनि १४९ दशनि ९६२ मूनि १९७ उनि २९२ उनि ३६३ उनि ३३९ उनि ९३ सूनि ७९ उनि ३२६ दशनि २०
सूनि ३१ आनि २३७ आनि २५५ आनि ३२७ आनि २७२ आनि ३३५ आनि ३५७ उनि ३२७ उनि ३५८
आनि ६७ • दनि २३७
उनि २८ दशानि १२३३१०
दनि ४३ दपानि ४७।१ यशनि १२३।११
आनि २२२ उनि ४९० उनि ५२१
उनि ५५४ दशनि ३३३ दशनि २०४ दशनि १२०१२ दशनि ३४४
सूनि ५८ दशनि १५३
ठवणाए निक्लेवो ठवणाकम्म एक्क विति-अणुभावे बंधण
डमलच्छारे लेवे उज्झति तिव्यकसाओ डहरीओ तु इमाओ
णातं आहरण विम णामंग ठवणगं णाम ठवणा दविए णायम्मि गिव्हियब्वे णासो परीसहाणं णिदस्स णि ण दुहाहिएण व्हाणे पियणे तह धोवणे
तं मनमनघायं
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________________
परिशिष्ट २
४७
सूनि १२० दशनि ८९२ उनि ३१२
दनि ३९ दशनि १३१
सूनि ४ आनि ३०७ दशनि १७५
उनि ७१
तव-संजम-नाणेसु सब संजमप्पहाणा तन्यत्युगम्मि पुरिसो तसकाए दारा तसकाए समारंभण तस्स य वेसमणस्सा तस्सेगट्ठ-पवत्तण तह पवयणभत्तिगओ सह विय कोई अत्यो तिण्णि दुवे एगा वा तिम्णे ताई दविर तिपणे तायी दविए तिगह अणगाराणं तिण्हं पि नेगमणओ तिस्पकर-सिद्ध-कुल गण तित्थकरे म जिणवरे तित्थगर केवलीणं विस्थगर-गुरु-साहू तित्थगराण भगवओ तित्थगरो चउनाणी तिबिधा य दव्यसुखी तिविहं तु भावसम्म तिबिहा तिविहा जोणी तिविहा य दवसेज्जा तुझ पिता मह पिउणो तुममेव य अंब हे ! लवे से उ पतिण्णविभत्ती तेजस्स वि दारा तेएण कम्मएणं तेत्तीसइमे कम्म तेरसपवेसियं खलु तेरसमे य नियाणं तेरिच्छिमा मणुस्सा तेर्सि उत्तरकरणं तेसि च रक्खणट्ठाय तेसि दोण्ह वि पुतो सेसि पुत्ता घरी
सूनि ४३ तेसि मताणुमतेणं मूनि ११४ तेसु वि य धम्मसद्दो दशनि १ तेहि य पच्वइयवं आनि १५२ तो ते साबग नम्हा आनि २६० ती समणो जइ सुमणो उनि २८७
आनि थुति निक्खेवो चउहा दनि ३१ धेरेहिष्णुग्गहवा मूनि १९० थोवं पिपमायक दनि ७८
दसण-नाण-सरितं दनि १३५ दशनि ३२०
दसण-नाण-चरित्ताणि
दसण-नाण-चरित्ते उनि १०२
दसणमोहे दंसपपरीसहो दशनि ३०२
दसण-वय-सामाइय सूनि १
दंसमसगस्समाणा उनि ३०९
दक्षत्तणगं पुरिसस्स दनि १२५
दक्खिण्णं पत्थतो आनि ३५२
दगघट्ट तिणि सत्त ब आनि २९७
दटुं संबुद्धो रखियो दशनि २६०
दह्ण चेडिमरणं आनि २१९ आनि १५५
दळूण तहि समणे आनि ३२२
दढसम्मत्तचरित्ते दशनि ८२
दया य संजमे लज्जा उनि १३६
दवियं कारणगहियं दशनि १२३
दबहरियाओ ति विहाँ आनि ११६ दव्वं गंधंग-तिलाइएसु सूनि १७८ दवं च अस्थिकायो उनि २६ पव्वं च परमुभादी आनि ४१ दब्बं जाणण पच्चक्खाणे उनि २१ दम्वं जेण व दवेण सुनि १४७ दव्य तु पोंडगादी उनि १८३ दव्वं दवसभावो आनि ३१६ दवं निद्दावेदो उनि ४०४ बब्वं माणुम्माण उनि ४४१ दश्च संठाणादी
दनि २२
दशनि २८१ दशनि १५६,२६३,२९१ आनि १५६,३५१
उनि ७८ दनि ४४।१
उनि ४८७ दशनि १६४ उनि २४०
दनि ७१ सूनि १९५
उनि ९६ उनि ३६५
दनि ५१ उनि १५९ दशनि ५४ आनि ३२९ आनि ३४९ दशनि ३७
सूनि ३९
आनि ३७ दशनि ३०४. दनि ९,३३०२
सूनि ३ दनि १३०
दनि १७ बानि ३४६
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________________
४४
नियुक्तिपंचक
सूनि ५५
दबा सत्यग्गिमिसं
पनि २१३, आनि ३६ दसआउविवागदसा दन्वं सरीरभविओ
आनि २८,७०, दनि २५ दसकालियं ति नाम दब्धकरण तु दुविहं
उनि १७८ दसकालियस्स एसो वध्वगुणो दब्वं चिय
आनि १८० दसपुर नगरुन्छुघरे दग्वट्ठवगाहारे
दनि ८० ससु य छक्के दवे दव्व-तदट्ठोवासग
दनि ३५ दसाणं पिंडत्यो दव्वप्पओग-वीससप्पओग
दनि १३८ दहणे पयावणे पगासणे दश्वमरणं कुसुंभादिए
उनि २०२ दाणेति दत्त गिण्हण दवम्मि सचित्तादी
दनि ४१
दासो दासीवतिओ दवरती खलु दुविहा
दशनि ३३७
दाहिणपासम्मि उ दाहिणा दयविमोक्खो निगलादिएस्
आनि २७७
दाहिणपासम्मि य दाहिणा
दिद्रुतसुद्धि एसा दव्वसुम पोंडगादी
उनि ३०५ दव्वाण सव्वभावा
दशनि २९२
दिद्वैतो अरहता
दिने कोडिन्ने या दन्वादिएहि निच्चो
दशनि ५५
दुग्गतिफल वादीणं दग्वाभिलाव चिचे
दुपएसादि दुरुत्तर दवावाए दोन्नि उ
दशनि ५१ दम्बुग्गहो उ तिविही
आनि ३४०
दुपय-चतुपय-धण-घल
दुप्पणिधियजोगी पुण दवहाणं सयणे
आनि ३०१
दुमाउणाममोत्त दव्ये अद बहाउस
दशनि १०
दुमपत्तेजोवम्म दन्वे किरिएजणमा
सूनि १६७
दुमपुष्फिमनिज्जुत्ती दम्ने खेसे काले बशनि ३३४, आनि १७९,
दुमपुस्फियादओ खलु १९२, १९२२१,
दुमपुफिया य आहार २६५-६७,३२१,३३९
दुमा य पादया रुक्खा दवे चित्तलगोणादि
दनि १२
दुविधा य होंति जीवा दग्वे तिविधा गहणे
दशनि २४७
दृविधो य होई गंथो दम्चे निधाणमादी
दशनि २७०
दुविहं पओगकरणं दखे पोगवीसस
- सूनि ५ दुविह तवोमग्गगती दवे भावे यसरीरसंपया
दनि २९ विहम्मि वितिगभेदो दघे भावे वि य मंगमाणि
दशनि ४१ विह वणस्सतिजीवा दव्ये सच्चित्तादी
दशनि ३३५, आनि ३८, विहा उ आउजीवा
सूनि १७१, दनि १२२ दुविहा उ भावलेस्सा दब्वेसणा उ तिविहा
दशनि २१८१२ दुविहा उ वाउजीवा दवे सरीरभविओ
दशनि ३४६ दुविहा खलु तसजीवा बब्बे सीतलदव्यं
आनि २०१ दुविहा वादरपुढवी दरोगाहण आदेस
आनि ३०५ दुविहा य तेउजीमा
दनि ४ दशनि ७ दशनि २४ उनि १७२।१० उनि ३७४
दनि ७ आनि १२१ दशनि ११३
दनि ९८ आनि ५२ आनि ४८ दशनि १०६ दशनि ८७ उनि २८९ मूनि १११
आनि ४४ दशनि ३१४ दशनि २८२ उनि २७५ उनि २७६ दशनि १२४ दशनि १८ दशनि ३४ दशनि ३२ दशनि १९८ अनि २३४ उनि १२ उनि ५०८ सूनि ११० आनि १२७ आनि १०७ उनि ५३५ आनि १६५ आनि १५३ आनि ७२ आनि ११७
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________________
परिशिष्ट २
४४९
सूनि २७
सूनि ६८ दशनि १०७
दनि ६
दुविहा 4 पुढविजीवा दुपिहा य 'भावसेज्जा दुबिहो परमाणू णं दुविहो भावविमोखो दुविहीं य भावबंधो दुविहो य होइ दीवो वृविहो य होति मोहो दुविहो लोगुप्तरिओ देवकुरुसुसमसुसमा देवीण मणुईणं देवीय नागदसा देसविमोक्खो पगर्य दो अज्झयणा चुलिम दो चेव मुतक्वंधा दोनि व तिमि व घसारि दोनि वि नमी विदेहा दो रयणीओ महिंद.... दो वि य जमला.भाग
आनि ७१ धम्मो समाहि मग्गो आनि ३२४ धाडेति पधाति म
उनि ३६ धारेइ तं तु दव्वं आनि २७८ धुवलोओ उ जिणाण दनि १४० उनि १९८ न करेति दुक्तमोक्वं आनि १८९ नस्थिय सि अंगुबंगा दशनि ४०
नत्यि य सि कोइ बेसो आनि १८२ नदि-खेड जणव उल्लुग
न दुक्करं वा नरपासमोयणे जनि १३२ परिमाणामागेलं आनि २९४ नमिपव्वज दुमपत्तयं प दशनि २३ न य उग्गमाइसुद्ध
मूनि २२ नवकोडीपरिसुद्धं उनि २२१ नव वऽद्वारसगं उनि २६४ नव चेव तहा चउरो उनि १४९
नवबंभचेरमाइओ उनि ४६१
नवमासा कुच्छिषालिए नववाससए वासाहिए
न वि अस्थि न वि महोही अनि ३३३
न विणा आगासेणं दशनि २२९
न हु अफलयोवनिच्छित दशनि २२७
नाऊण निच्छयमती दशनि १६६ नाणं भविम्सई ब"
नाणं सिक्खति नाणी मुनि ६० नाणस्स दसण स्स य आनि २०५ नाणावरण वेदे दशनि २४१ नागाविहसंठाणा
उनि ४२ नाणाविहोरकरणं
उनि १८० नाणेण दसणेण य दशनि १७९,२४० नातं गणितं गुणितं
दशनि २२६ नातिविकिदो उ तवो दशनि ८६ नामअलं ठवण अलं
सुनि ९९ नाम ठवणम्झयणे दशनि २२३ नाम ठवणपमादे दशनि १२३१ नाम ठवणपरिणा
धणदेवे वसुमित्ते अन्नाणि घउनीसं धमाणि रतण-थावर धम्मकहा बोधवा धम्मस्थिकायधम्मो धम्मम्मि जो बदमती धम्मम्मि जो पमायति धम्मस्स फलं मोक्खो धम्मादिपदेसाणं अम्माधम्मागास धम्मो अत्थो कामो धम्मो एसुवदिट्ठो धम्मो गुणा अहिंसादिया धम्मो पुब्बुट्टिो धम्मो बावीसतिविहो धम्मो मंगलमुक्किड़े
सूनि १२६, दनि २०
आनि ९८ दशनि १३० उनि १७२१६ सुनि २०१ उनि २५५
उनि १४ दशनि १२०१४
दशनि १०५ दशनि २२१
उनि ४० आनि ११ उनि १३७ उनि ४४४
उनि ३०२ उनि १८६, सुनि ९
सूनि ३५ उनि ४११ आनि ३५९ दशनि २९३ दशनि २९
उनि ७४ आनि १३३ दशनि २३५ उनि ४१३
दनि २६ आनि २९० सूनि २०२
उनि ५ उनि १७३ मुनि १७९
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________________
४५०
नाम ठेवणविमोक्खो
नाम ठवणसकारो
नामं ठवणसरीरे नाम ठवणाइरिया
नामं ठवणाकम्मं
नामं ठवणाकामा
नामं ठवणागाधा
नामं ठवणाचितं
नामं ठवणा जाई
नामं ठवणाजीबो
नाम दवणा दविए
नाम ठषणाधम्मो नाम ठेवणाfist
नाम वाढवी
नामंठवणाभिन् नाम वणामोहो नामं ठवणायारे
नामं ठेवणासम्म
नामं ठवणासीयं
नाठवणासुद्धी
नाठवणुवहाणं
नामण-धोवण- कासग
नामतद्दं रावणतहं नामदुम ठवणम नामद्दं ठवणद्दं नामपदं ठवणपदं
आनि २७६
दशनि २०५
दशनि २११
आनि ३२८
जानि १९३
दर्शन १३७
सूनि १३७ दनि ३२
दनि १२९
दशनि १९५
दनि ८,९,१३६ १४३, १९१,
१९२
उनि १,१७७,२०१,
२३०, ३७३, ३७९, ४१६,५१६
आनि ४०,१८५, १९१ सूनि ३२,५६,६४,
१०४, १०७, १४२, १४३, १४४,१६८,
१७०,१८० दनि १०
दपानि ३६, सूनि १००
दशनि २१५
आनि ६९
दर्शन ३०९
दनि १२१
सूनि १८२
आनि २१७
आनि २००
नामम्मिय खेत्तम्मि य नामादिचउभेयं
दशनि २५९
अनि ३००
दशनि १५५
नामादी ठवणादी
नालंदाय समीवे
निडणी उहवति कालो
निक्कंपया य नवमे
निखतो गयपुरातो
निक्खम पवेसकालो
निक्वेट्ट निरुत्त
निक्खेवो अप्पमाएँ
निक्खेवो व अजीये
निक्खेयो उ उरकभे
निक्लेव उ गतीए
निक्लेवो जीवम्मि य
निखेचो तु चक्को
निवत्रेयो नियंठम्मि
निक्लेवो पनडीए
निषखेवो पवयम्मि
निखेको भिक्खुम्मी
निक्लेवो मम्मम्मि वि
निक्खेवो मोक्खम्मि य
निखेोम मियाए
निम्खेवो य सुयम्मी
सूनि १२२
freat विभत्तीए
दनि ३१ सूनि १८५ निक्खेवो संजइज्जम्मि
दशनि १४२ निक्खेवो सामम्मि य
निक्लेवो उतबम्मी
निक्खेको उ दुमम्मी
निक्खेवोउ नमिम्मी
निक्लेव उपमाए निक्लेवो बिहीए
निक्वेवो कबिलम्मी निक्लेवो खलंकम्म निक्खे वो गाधाए निक्खेवो गोतमम्मि निक्खेवो चरणम्मी निक्खेदो जण्णम्मि य
निर्मुक्ति पंचक
उनि ५७
दशनि २५|२
सूनि १३४
सूनि २०५ आनि ६९
उनि २०
उनि १०८
आनि १५९
दशनि ५
उनि ४९९
जनि ५४६
उनि २३५
उनि ४९५
उनि ५०५
उनि २७३
उनि २५३
उनि ५१४
उनि ५११
उनि २४३
उनि ४५२
सूनि २३
उनि ४४५
उनि ५०९
उनि ४५७
उनि ५४४
दशनि २४५
उनि २३१,४१७
उनि ५२५
उनि ४५२
उनि ३६७
उनि ४९३
उनि ४९१
उनि ३९९
उनि ५०१
उनि ५४६
उनि ३८३
उनि ४७७
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परिशिष्ट २
निगमणसुद्धी तित्यंतरा निगलादिउत्तरो बीससा निसपसंसाए निष्फाइया य सीसा निरए अपकं दव्वनिरया निरामयाऽऽमयभावा निर्वाचत विकालपडिपणा निब्वाण सुहं सायं निस्संकिय-निक्कंखिय निस्संग य छठे निस्सील-कुसीलजढो नेच्छति जलूगवेज्जम नेरइय-तिरिय-मणुया नोकम्मदव्वकम्म नोकम्मदवलेसा नौकम्मम्मिय तिचिहो नोकम्मे दवाई नोमाउग पि दुविह नो य विवक्खापुब्बो भोसण्णाकरण पुण नोसुयकरणां दुविह
दशनि १२०१३ पगति-ट्रिति अणुभागो
दनि १३९ पगती एस गिहीण दशनि ३०६ पमती एस दुमाणं आनि २८८ पगती चउक्कगाणंतरे
सुनि ६२ पगयं तु भावचरण दशनि २०७ पच्चक्वाण सेयं दनि १०७ एचयओ य बहुषिहो आनि पहिरनहुपागा दशनि १५७ पज्जं पिहोति तिविह
आनि ३४ पज्जत्तीभाव खलु सुनि २६ पज्जोसमणाए अक्स्वराई दनि १०८ पडिवोदितो य कविओं आनि १५४ पडिमागतस्समीवे उनि ५२४ पडिमापडिवनगाणं उनि ५३७ पडिरूवो खलु विणओ
उनि ६८ पटिलोमे जह अभी उनि ५२७ पडिलोमे सुद्दादी दशनि १४५ पहिसेहेणऽगारस्सा दशनि ६८ पढ़मं अधम्मजुतं उनि १७९ पदमझयणं दुमपुफियं उनि १९६ पदम-दितिया चरित्ते
पढमम्मि अट्टभंगा सूनि १६३ पढमम्मि य पडिलोमा उनि ३९ पढमे उवागमण निगमो सूनि ३३ पदमे महणं बीए आनि २५९ पढमे धम्मपसंसा आनि ३०९ पढमे नियविधुणणा
उनि ४६७ पतमे विणो वितिए दशनि २२४ परमे संथव-संलावाइहि आनि १४,३१४ पढमे संबोधि मणिच्चया
उनि १७५ पत्रमे सम्मावाओ उनि १७२ पढमे सुत्ता अस्संजत उनि ११४ पणयालीसा बारस मानि १८६ पणिधाणजोगजुत्तो भूनि १०५ पण्णरससु अज्झयणेसु
उनि ७२ पण्णवग दिसट्टारस सूनि ११५ पण्णवगदिसाए पुण उनि १९२।१ पण्णवण वेद रागे
उनि ५२८ दशनि १०३ दशनि ९८ आनि २१
उनि ५१३ उनि १७२।१२
उनि ६१ दनि ११४ दनि १४८ सूनि २०३
दनि अनि २८७ मुनि १९८
दनि ६२ दनि २९७,३००
दशनि ७८ आनि २४ सूनि २०४ दशनि ७७ दशनि २५ दशनि २५८
उनि ७२ सूनि ४५ आनि ३३४ आनि ३३८ दशनि १९ आनि २५० उनि १८ सूनि ५४ सूनि ३६ आनि २१५ आनि १९
उनि ४१ दशनि १५९ सुनि १४० आनि ६१ आनि ६२ उनि ४१९
पउम उल्लंधे पंचग वारसगं खसु पंचण्हें संजोगे पंचमए अष्टुपदेणं पंचमगस्स घउत्थे पंचमहब्बयजुत्तो पंच य अणुव्वयाई पंच य महवयाई पंचविहो य पमादो पंचसया खुलसीया पंचसया जंतेणं पंचसु कामगुणेसु य पंचसु विय विसएसुं पंचेव आणुपुवी पंथो णायो मग्गो पक्व तिघयो दुगुणिता
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४५२
नियुक्तिपंचा
पणाऽपणाणपरीसह पतिखड्एण पगतं पत्तेगा साधारण पत्तेया पज्जत्ता पत्थेण व कुडवेग व परमाणुपुग्गला खलु परलोगु मुत्तिमग्गो परवइ वागरणं पुण परिजित कालामंतण परितंतो वायणाए परिभासिता कुसीला परिमंडले य बट्टे परिपट्टियलावणं परिबसणा पञ्जुसणा पलहत्थिया अपत्था पपदंति य अणगारा पवाए अणगारे पवज्ज गागिलिस्स य पब्बजानिक्खेवो पसत्यविगसिम्पर्ण पाएण एरिसो सिरमा पाणवह-मुसाबाग पाधन्ने महसहो पायच्छित्तं विणओ पायच्य ण-भेयण पायसहरणं छेत्ता पायह धुवमायाति पावसमणिज्ज तह संजइज्ज पावाणं कम्मा गं पावाण बज्जणा खलु पावे छक्क दन्वे पावे बज्जे वेरे पावोबरते अपरिग्गहे पासस्थि पंढरज्जा पासस्थोसण्ण कुसील पासावच्चिज्जो पुच्छिताइओ पाहण्णेण उ पगयं
उनि १५, पारणे भरे दशनि १५४ पिहेसणाए जा आनि १२८ पिसणा य सम्बा
आनि १३४ पिडो य एसणा या आनि ५७,१४४,२१० पिडि संघाए जम्हा
उनि ३७ पिसुणा परोवतावी दानि २४२ पीती य दोण्ह दुमो आनि ६६ पुच्छाए कोणिओ बलु
दनि ५२ पुच्छिसु जंबुणामो उनि १२१ पुट्ठो जहा अबद्धो सूनि ८८ पुडविं समारमंता उनि ३८ पुढवि-दग-अगणि-मारुय उनि ३०० पुढविफासं अण्णाणु.... बनि ५४ पुतवी आउक्काए उनि १०
पुढवीए जे दारा आनि ९९ पूवीए निक्लेवो दशनि १३४,३२१ हवी य सक्करा बालुगा उनि २७८
पुप्फाणि य कुसुमाणिय उनि २५६ पुप्फुत्तरातो चवणं दनि ८३,८२१ पुरिर्मतरंजि भुमगुह
पनि १३६ पुरिमचरिमाण कम्प आनि ३५० पुवं बुद्धीइ पैहित्ता
सूनि ५३ पुदानवे संखस्स उ दशनि ४५ पूब्वभवे संघडिया आनि ९७
पुब्बाधीतं नासति दनि १००
पुण्या य पुम्बदक्षिण
पुब्वाहारोसवणं उनि १५ पोराण य गयदप्पो दशनि १७४
उनि २२ उनि ३८०
फलगलतंदोलण-वेत्त दनि १२४
फलोदएणं म्हि गिहं पविट्ठो आनि २४९
फरिसेण जहा वाऊ दनि ११० सूनि १०२ बंभगुणा पणवीसे सूनि २०६ बभन्मी उ चक्क आनि २६९ बद्धो य बंधहेऊ
आनि २६ आनि ३१ दशनि २१९ दशनि २११ दशनि २१८॥
अनि ४६९ सूनि १९४ दशनि ७४
सूनिकर. उनि १७२।११
आनि १०३ वशनि ४३
सूनि ६५ आनि १२३ आनि १२६ आनि ६ आनि दशनि ३३ उनि २६६११ उनि १७२७
दनि १११ दशनि २६८ उनि ३१४ उनि ३५६ दनि ११९ आनि ५६ दनि १ उनि २१
दनि १४२
सूनि १०८ आनि २३० दशनि २०४
उनि २४ आनि १८, उनि ३७५
आनि ३५०
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परिशिष्ट २ बलकोट्टे बसकोट्टी बवं च बालब देव बहुयाणं सहयं सीच्चा बहुरय जमालिपभवा बहुरम-पदेस-अश्वत्त बहु सुए पूजाए य बहुस्सुतं चित्तक बायरपुडविक्काइय को समासे अहिर बारसविहम्मि वि तवे बाला मंदा किडा वाले राई दाली बाले सुत्ते सूई बावत्तरिकलाओ य बावीसं बादरसंपराए बाहि ठिता वसभेहि बितिउद्देसे अदढो बितिए निमतीवाओ बितिए मग्गविजहणा दितिको वि नमीराया वितिनो वि स आदेसो वितियंतरिए नियमा वितियदुयस्स विवक्यो वितियपाइण्णा जिणसासणम्मि बितियस्स य पंचमए बुद्धाई उदयारे बोडियसिवभूतीए बोहण पडिमोहायण
उनि ३१८ भवणबति-वाणमंतर उनि १९०, सूनि ११ भवति तु असच्चमोसा
उनि २६७ भवसिद्धिया उ जीवा उनि १६८
भावइरियाओ दुविहा
भावंग पि य दुविधं उनि १६७
भावकरणं तु दुविह उनि ३०३
भाषगई कम्मगई उनि १२५
भावतह पुण नियमा मानि ९१ भावपदं पि य दुविह अनि ५९ भावपरिण्णा दुविहा
दानि १६० भावप्पमायपगयं दर्शन ९।१, दनि ३ भावबहगेण बहुगा
दनि १४ भावम्मि विभत्ती खलु दनि १२० भाक्समाधि पतुविध उनि ४३. भावसमाधी चित्त उनि ८० भाबसमोसरणं पुण दनि ६५
भावसुयं पुण दुविह आनि १९७
भावस्सुवगारित्ता
भावा आगरिसे कालंतरे सूनि ३०
भावे उ निरयजीवा आनि २५४ भावे उ वत्थिनिम्गहो
उनि २६६ भावे उ सम्मदिट्ठी दशनि १७, उनि ५५ भावे कसायबंधो
आनि २५ भावे गति आहारे दशनि १२३४
भावे जीवस्स सीरियस्स दमनि ८९ भावे पमोगवीसस
आनि ३०० भावे पसस्थमियरो दशनि १२३ भावे पावं इणमो उनि १७२।१५ भावे फलसाहणता दनि ९६
भावेसणा उ दुविहा
भासणे संपातिवहो सनि ७३ भिदंतो य जह खुध
उनि १०५ मिक्खं पविटण मएब दिदै उनि २१९,२८१ भिक्खविसोधी तव संजमस्स
उनि ३१९ भिक्खुस्स य निक्खेबी उनि ४२१ भिक्षणं उवधाण
सुनि १५० दशनि २५७ उनि ३०६ आनि ३३० उनि १५६ उनि १९३ दशनि १०९
मूनि १२३ दनि १४४ आनि २६८ उनि ५१७ उनि ३०४ उनि ५५१ सूनि १०६ दनि ३४ सूनि ११७
उनि ५०३ दशनि २१८६४
इनि ४२१
सूनि ६३ उनि ३७६
दनि ३७ दान १४१ मानि३० सूनि १४ सूनि १४
उनि २ उनि ३८१
आनि २४१ दशनि २१८३
दनि ९१ दशनि ३१८ आनि २२९ दशनि २१ दशनि ३००
पनि ४५
भजति अंगमंगाणि भगव पि थूलभद्दो अत्तपरिण्णा इंगिणि भद्दगेणेव होय भव-आगरिसे कालंतरे
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૪૫
भिक्खू उपहाणे
भिक्खेण न मे कज्जं
भीते पलायमाणे
भूमि घर-रुगणा य भेताऽऽगमोवउत्तो
भेता य भेषणं वा भेदतो भेदणं चेव
मइउग्गहे प गणुग्गहे
पंसस केइ अड्डा
सादी परिभोगो
मगहापुरनगराओ मग्गगईण दोह वि
मगती दोह वि
मज्जं विसय कसाया
मण पशुच्च सेज्जं भवेण
मणपज्ज बोहिनरणी
म
मण वयण काय आण...
मण वयण कायगुत्तो मणुया तिरिया काया
मधुरं हेतुनिजुतं
मरणं च होइ समो
मरणम्मि एगमेगे मरणविभत्तिपरूवण मरणविभत्ती पुर्ण पंचमम्मि
मरणे अनंतभागो
मह पंचभूत एकप्पए महराए उदत्तो
महुराए कालवेसिय
महराए संखो खलु महुरा मंगू आगम
माणुस धम्मसुती माणुस खेत्त जाती
मातम्मि उ भिक्खेवो
माया- गारसहितो माया में लिपिया में
दनि ४९
उनि ४७५
सूनि ८२
दशनि २३३
दशनि ३१७
उनि ३६९
दनि ३१०
आनि ३४१ आनि १६१
अनि १६
उनि २७७ उनि ५४३
उनि ५०७
उनि १७४
दर्शन १४
उनि २१७
सुनि ९५
दनि ९२ आनि ६०
दशनि १४७
दर्शन २३८
उनि २०४
माया य सहसोमा
मालाविहारम्मि मएज्ज विट्ठा
मिगआउनामगोमं
उनि १६० उनि ४५४
दनि २७९ अनि १९६
मिगदेवी पुत्ताको
मिच्छतं वेदंतो
जीवा
मिच्छादिट्टी जीवो मिच्छ्रादिट्ठी तसथावराण
मिच्छाविसीए
मिच्छा भवेज सव्वत्था
मिहिलाए धिरे महिलापतिस्स नमिणो
मीरा मुंए
मुणिण छकायदया वरेण
मुणिसुच्वयंतदासी
मूलकरणं पुण सुते मूलकरणं सरीराणि
मूलगुण- उत्तरगुणे मूलगुणेय पराय लेक खंधे
मूले छक्क बब्वे
भोप
मोक्खो मग्गो य गती
मोत्तुं अकम्मभूमग
मोत्तुं पुराणभावित ''''
मोतून ओहिमरणं
मोरी नजलि बिराली
उनि २०२
उनि १९
उनि २२५
सूनि २९
उनि ११९
उनि ११६
रज्जाणि उ अबहाया
उनि ३१५ रणाणि चतुवीसं
दनि ११२ रमणुप्पया य विजओ
उनि १५७
रकारपरसुमादी
रहने मिनामगोय
रहने मिस्स भगवतो
रहनेमी निक्लेवो
रवीरपुरं नयरं
नियुक्ति पंचक
उनि ९७
आनि २३१
उनि ४०१
उनि ४०२ दनि १८२
उनि ३०७
उनि १६४
दशनि ३१३
दनि १९
दशनि २०२
उनि १७२२५ उनि २६३
सूनि ७४
आनि ३४५
उनि ११३
सूनि १६
सूनि ६
दनि १३४
सूनि १८१
उनि ३२
आनि १८३
उनि २७२
उनि ४९७
उनि २१४
दनि ८७
उनि २१५ उनि १७२३९
उनि ४७३
दशनि २३१
उनि ३४६
उनि ३७०
उनि ४३९
उनि ४४३
उनि ४३७
उनि १७२ । १३
I
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परिशिष्ट २
४५५
राईसरिसबमेताणि रागद्दोसा दंडा रागाई मिच्छाई रायगिह-मिहिल-हत्यिणपुरं रामगिहम्मि वयंसा रायगिहागम चोरा रागिहे गुणसिलए रायगिहे मालारो राया उसुयारो राया य तत्थ बंभो राया य बंभदत्तो राया सप्पे कुंथ रुक्खा गुच्छा गुम्मा रुक्खाणं गुच्छाणं एवं वयो य वेसो
लंघण-पवण-समत्थो लक्षणमेयं चेव ज लज्जाए गारवेण म मेसा-कसाय-वेदण लेसाणं निवखेवो लोइगा वेइगा चेव लोइय-लोजसरिओ लोगम्मि कुसमएस सोगसत्याणि. लोगस धम्मसारो लोगस्स य को सारो लोगस्स य निफ्लेवो लोगस्स म विजयस्स य लोगागासपएमे लोगे चउम्विहम्मी लोगे संपारम्मिय लोगो त्तिय विजयोत्तिय लोगो भणितो दवं लोगोवयारविणयो
उनि १४०
उनि ३७१ दइजोगेण पभासित दशनि २२१११ वदामि भट्याई उनि ३४५ बंदित्तु सध्यसिद्धे
उनि १२ वक्कं तु पुषभणियं सूनि १९९ वक्कं वयणं च गिरा उनि १७२।३ वाघस्स मए भीतेण उनि १११ बग्घो वा सम्पो वा नि ३१९ वरपुरम-भवलयं उनि ३२८ वणहत्थी य कुमार उनि ३३० वणियाऽचकारिय
दनि ७३ वणे रामे पुरे भिक्खा आनि १२९ बणम्मि य एक्केक्के
आनि ५० वष्ण-रस-रूव-फासे दशनि १६५ वण-रस-रुव-फासेसु
वण्णादिमा य वण्णादिगेम उनि १२९
वयधक्कं कायछक्कं आनि १५८
वयणवित्तिअकुसलों उनि २११
वयणविभत्तिकुसलस्स उनि ५३
बयणविभत्तीकृसलो उनि ५२९ बयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि दशनि २०३ बवहरमाणस्स तहिं
सूनि १०१ वस-पूय-रुहिर-केसऽट्ठि मानि २४२ बस य इंदकेऊ दशनि २०२१ वाउस्स वि दारा
आनि २४५ वाओदएण राई आनि २४४ वाघातिममादेसो आनि १७६ वाणासिनगरीए आनि १७४ वादे पराजियाए
आनि ८८ वारेय उवारण आनि २४८ बासह तो कि विग्धं
उनि ८६ वास कोडीसहियं आनि १७५ बासं वन उवरमती आनि १७७ वासम्गसो य तिण्हं वशनि २८७ वासति न तस्स कते
वाससहस्सं उग
सूनि १९ दनि
आनि १ दशनि ३४० दशनि २४६ उनि १२८ उनि १०४ उनि ३४० उनि ३४१ दनि १०६ उनि ८९
आनि ७८ उनि १९४, आनि ७७
दशनि २६१
मूनि १५ दशनि २४४ देशनि २६६ दशनि २६५ दशनि २६७ दशनि २२ उनि ४२७
सूनि १० उनि २५८ आनि १६४ दनि १०१ आनि २८५ उनि ४६० सूनि २००
दशनि ६६ दशनि ९५१३ आनि २९१ दनि ७४ उनि ८४ दशनि ९५ उनि ११८
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________________
नियुक्तिपंचक
वासाखेत्तालभे विगति विगतीभीतो विच्छ्य सप्पे मूसग विजितो कसायलोगो विज्जा चरणं च तवो बिज्जा व देवकम्म विज्जा-सिप्पमुवाओ विज्जो ओसह निवयाहिवह विणयसुयं च परीसह विणयस्स समाधीए विणयो पुरुबुद्दिट्ठो विधुवण वेहाणस हत्यकम्म यिण धमणाभिधारण क्यिणे य तालविटे बिरिए सबके दब्वे विमघानी रसायणमंगलत विस-तिणिस-बात-बजुल विसयसुहेसु पसत्तं विहगगई चलणगई विहमागास भण्णा वीयभय देवदत्ता वीरिय विउवणिड्डी वीसे उक्कोसपदे वीसंत नकरि गम्म वीस जिजकण आसं बुडि त्र हाणि च ससीव दटुं वेणइया पढ़मया मालियं इह देसितं ति वेयालियम्मि वेयालगो देरगमच्पमाओ
दनि ६१ संघातणा य परिसाजणा
दनि ६२ संघायण-परिसाहण उनि १७।८ संजमखेत्तच्याणं आनि १७८
संजमजोगविसपणा दशनि १६८
संजमनाम गोतं सूनि १६४
संजाणतो भणती दशनि १६३ दनि ६४।१ संजुत्तगसंजोगो
उनि १३ संजोगे निक्लेवो दशनि २८६ संजोगे सोलसगं
उनि २९ संते आउयकम्मे आनि २५६ संदीणमसंदीणो आनि १६९ संबंधणसंजोगे आनि १७० संबंधणसंजोगो
सुनि ९१ संबुद्धो सो भगवं दानि ३२६ सवेगजणितहासो दशनि १३३ सवेगसमावन्नो दशनि १४० संवेगो निव्वेओ दशनि ११० संसार खेत्तुमणो शनि १०८ संसारपारगमणे
उनि ९५ संसारस्स उ मूल दशनि १७३ सगडुदिसंठियाओ
उनि ८३ सच्चप्पवायपुरवा दनि ११ सज्झाय-संजम-तवे उनि ३९२ सण्णातिगमणबियडे उनि २६११ सणासिद्धि पप्पा दशनि १७७ सत्तरसविहाणाई
सुनि ४० सहि हि चउपउहि सूनि ३८ सत्तमे य तिनि पलया आनि ३६१ सत्तेक्कमाणि एकसरगाणि
सप्लेक्फगाणि सत्त वि उनि १९१, सूनि १२ सत्य तु असियगादी
आनि १८१ सत्यपरिष्णा अत्यो
उनि २२४ सत्थपरिण्णा लोगविजको • दशनि २३२ सत्याहसुओ दक्षत्तणेण . उनि ३४९ सद्द-रस-रूव-गंधा
सूनि ७,१८६
उनि १८४ दनि ११७ उनि २१ उनि ३८७ उनि ४५४ उनि ३१ उनि ३०
आनि २० दशनि १९६ उनि १९९
उनि ६४ उनि ४६,६२,६३
उनि ४३५ उनि ४१४ सुनि १९३ दशनि ३२३ आनि १२५ उनि ४५१ आनि १९०
आनि ४६ दधनि १६ दशनि ३४३
उनि ११० दशनि ११२ उनि २०७ आनि ३६७ आनि २६२ आनि ३४३ आनि ३१० सूनि ९८ आनि १३
आनि ३१ दशनि १६३१ दशनि १३८,३३८
सउणि चतुप्पय नाग संकुचितविसिततं संखमसंखमणता संखो तिणिसागुरु-चंदणाणि संगामे अत्थि भेदो
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परिशिष्ट २
आनि ३१९ दशनि २५४ उनि २२७ उनि २२२ आनि ३३३ आनि ३३७ आनि ३२५
आनि८ आनि ५०
आनि २९६ दशनि १२६, ३४९।६
सद्देसु य रुबेसु य सपरक्कममादेसो सपरक्कमे य अपरक्कमे सप्पो वि कुललवसगो सम्पो वि य कुररेणं समकड़गातो अहवी समणऽणुकंपनिमित समणस्स उ निक्लेवो समणे चउक्कनिक्खेवो समणेण कहेतच्या समणो सि संजता असी समाधि-ओवहाणे य समाधीए चक्क समिईओ जण्णहज समुतारो श्वसु दुविहो समुदाणियाणिह तमो समुद्दपालिबा समुदंण पालियम्मि समोसरणे वि अक्क सम्मत्तमप्पमादो सम्मत्तुप्पत्ती सावए सम्मट्टिी किरियावादी सम्माठिी जीवो सम्मट्टिी तु सुतम्मि सम्मप्पणीतमग्गो सयगुणसहस्सपाग सयणे अवढस बीयगम्मि सयमेव य लुक्ख लोविया सरीरेणोयाहारो सवं पियतं तिविध सम्वष्णुवदित्ता सम्वभिचार हेतुं सम्वमिणं चाइकणं सबस्स धूलगुरुए सबा बोसधजुत्ती
दशानि २७१ सव्वा वयणविसोही आनि २३ सध्या वि य सा दुविधा आनि २८२ सच्चे एते दारा उनि ४६४
सच्चे भवत्थजीवा उनि ४६३
सब्दे वि ईरिय क्सिोहि
सन्ये वि य अयणविसोहि उनि ३३७
सच्चे वि य सेज्जविसोहि ... दनि ९९१
सम्वेसि आयारो दशनि १२८
सव्वेसिं उत्तरेणं उनि ३८२
सव्वेसि तवोकम्म दशनि १५६ सब्वेसि पि नयाण उनि १४१ ससमयपरसमयपरूवणा
दनि ४६ सागते चंडडिसमस्स जॉन ३७८ साडण-पाडण-तोदण उनि १६ सा दुविधा छन्दिगुणा उनि ७३
साधु अहिंसाधम्मो
साधु संवासेती सूनि १६९
साधू तेणे ओग्गह उनि ४२४
साधु ल्हे य तथा उनि ४२३
सा नवहा दुह कीरइ सूनि ११६
सामण्णपुश्वगस्स तु उनि ५०४ सामपणमणुचरंतस्स आनि २२३ सामाइयअणु कमओ सूनि १२१ सामित्त करणम्मिय उनि १६६ सामुत्थाणी कविला दशनि २५६ सायं सम्मत्त पुमं सूनि ११२ सारो परूवणाए दनि १०९ सावजगंयमुक्का आनि १७३ सावत्थी उसभपुर उनि १३८ सावत्थाएं कुमारो सूनि १७२ सावत्थी जियसत्तू
सूनि ९७ सा सगडतित्तिरी वसम्मि दशनि २०८ साहारणमाहारो दशनि ६४ साहुक्कारपुरोगं उनि ३९६ सिंगाररसुत्तइया आनि २४० सिक्खगअसिक्खगाणं उनि ४४ सिक्खावए य लिगे म
अनि ३२५ सनि ७० दनि ४२ आनि ३६० उनि २८२
दनि १६ दशनि ३२२ दशनि २१९।१ दनि १२७ दशनि २७७ दशनि ११
दनि ५७
आनि ५७ दशनि १२३१६
आनि १७ उनि २३७,४२२
उनि १७० उनि ११७ उनि ११२ दशनि ५ आनि १३६ दशनि ७० दशनि १८५ दशनि ५३ उनि ४४९
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४५८
सिद्ध जीबस्स अल्पितं सिद्धाणमसिहाण य सिद्धिगतिमुवगयाणं सिद्धी य देवलोगो साउण्ह-फास-सुह-दुह सीतं परीसह पमादुवसम सीतातो परिनिती सीमधरो य राया सीयाणि य उपहाणि य सीले वतुक्क दब्वे मीसं उरो य उदरं सीहगिरि भगुत्तो सीहत्ता निमिर्ड सुग्गीवे नयरम्मिय सुचिरं पि बंकडाई मुतबंधे निक्खेब सुतधम्मे पुण तिविधा मुत्ता अमुणिओ सया सुते बहा निबद्ध सुत्तेण सूइत त्ति य सुईण चिसादीए मुद्धप्पयोगविश्जा सुद्धोदगे य ओसा सुपतिठे कुसकुंडि सुप्पणिधितजोगी पुण मुयनाणं अणुयोगेण सुरपूइओ ति हेऊ मुर मणुय-तिरिय निरको सुसमत्था वि असमत्था सुह-दुक्खसंपओगो सूयगडं अंगाणं सूरा मो मपणंता सेज्जभवं गणधरं सेज्जा-इरिया तह उम्गहे सेतं सुजातं सुविभतसिंग सेबवि पोलासा सेलऽष्टुि धंभ दारुय
नियुक्तिपरक दशनि २०१ सेवाल-ऋत्य-भाणिय
आनि ११ उनि ५५० सेसं सुत्तफार्स
दशनि २१६ दशनि १ सेसाई दाराई आनि ११५,१२५,१५१,१६३,१७२ दशनि १७६ सेसाणं मरणाणं
उनि २२६ आनि २१० सोइंदियरस्सीहि उ
दशनि २७२ आनि २०२ सो उज्जाणनिसनो
उनि ४६९ आनि २०६ सोळण जिणवरमतं
सुनि १८ उनि ३६६ सोऊण तं अरहती
उनि २९५ आनि २११ सोऊण तं भगवतो
उनि २८४,२९९ सूनि ८६ सोऊण म सो घम्म
उनि ३९७ उनि १५३,१८२।१ सो एवं पडिसिद्धो
उनि ४७१ उनि ९८ सो गुरुमासायतो
दनि २४ सोतिदियमादीया
दनि ५० उनि ४०३ सोरियपुरम्मि नगरे
उनि ४४० उनि ४८६
सो लदबोहिलाभो उनि १२
उनि ४१० सोलस दक्खा भागा दशनि २५५
उनि १५१ सोलसमे अझयणे
सुनि १४१ आनि २१२ सोलस विय तिरिय दिसा
आनि ५९ वनि ११६ सोवपकमो य निरुवककमी
उनि २२० सूनि २१ सो समणो पब्वइको
उनि ४६६,४६७ आनि २७ सो सिक्दगो तु दुविधो
सुनि १२८ सूनि १६५ सोहम्मती अमच्चो
उनि ३३८ आनि १०८ उनि ३४३ दशनि २८३ हत्थे-पादे-अरु बाहू
सूनि ७६ दशनि ३ हपमारूतो राया
उनि ३८९ दशनि १२३४२ हरउवमा तव-संजम
आनि २२८ सूनि १६० हरिएसनामगोयं
उनि ३१३ सूनि ५१ हरिएसा गोदत्ता
उनि ३३५ दशनि ५६ हरिएसा चंडाला
उनि ३१६ सूनि २ हरिएसे निक्लेवो
उनि ३११ सूनि ५७ हरियाले' हिंगुप्लए
आनि ७४ दशनि १३ हल-कुलिय-विस-कुद्दाला
आनि १५ आनि ३२० हसित-ललितोवगृहित
दशनि २३९ उनि २५९ हिंसय-विसयारंभग
आनि २३६ उनि १७२।४ हिसाए पडिवक्खों
दशनि ४२ दनि १०३ हित-मित-अफरुसमासी
दशनि २९९
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परिशिष्ट २
४५९
इसरिसेहि अहेतुएहि हेवा नैरझ्याणं हेटा पादतलाणं हेदिल्याण उत्थं
सूनि ४६ हॉति उबंगा कण्णा आनि ५८ होति पहुप्पन्नविणासम्मि मानि ५४ होति पुण भावगाधा उनि २९०
उनि १५४,१८२२२
पनि १५ सूनि १३८
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परिशिष्ट ३
एकार्थक
(उनि १५८)
(उनि २०८)
(उनि ६५)
(उनि ६५)
(उनि ९)
अंग-अवयव ।
अंग दस भाग भेदे, अवयव असगल य चुणिया खंडे ।
देस' पसे पच्चे, साह पउल पज्जय खिसे य ।। अयुसमय-निरन्तर।
अणुसमयनिरंतरमवीचि-सन्नियं । मल्स-अश्व ।
अस्से गोणे य होंति एगट्ठा । आइन-विनीत ।
पाइण्णे य विणीए य भहए यावि एगट्ठा । माय-लाभ।
आउ सि आगमो ति य लाभो सि य होति एगट्ठा। आयार-झाचार।
आयारो आचालो, आगालो आगरो य आसासो ।
आदरिसी अंग ति य, वाहण्णाऊजाइ आमोक्या ।। सवसंत-उपशांत।
सीतीभूतो परिनिम्तो य संतो तहेव पल्हाओ
होउपसंतकसानो। ओघुण-अवधुनन ।
ओधुणण धुणण नासण, विणासणं झवण बयण सोहिकर।
छेयण भेयण फेडण, उहणं धुवणं च क्रम्माण ॥ कन्म-कर्म।
पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य ।
संगे सल्ले अरए, निरए घुत्ते य एगट्ठा । बाप-प्रसिदि।
खाय-जस-कित्ती। फित्तन-कीर्तम।
कित्तण-संपूयणा-थुणणा।
(आनि ७)
(मानि २०६)
(आनि ३०३)
(दनि १२४)
(उनि ४३५)
(आनि ३५२)
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परिशिष्ट ३
(उनि ६५)
(आनि २४६)
(दशनि २१७)
(दनि २६)
(शनि ३२०-२२)
गरी- दुष्ट भाव या बैल।
गंडी गली मराली होति एगट्ठा । चार-चर्या ।
चारो चरिया घरणं एगळें । जीवाणीवाभिगम-रावकालिक के चौथे अध्ययन का नाम ।
जीवादीभिगमो, मा . जानपणनी'
तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा ।। पात-बात।
नातं गणितं गुणितं गतं च एगटे । तिष्ण-तीर्ग, साधु ।
तिण्णे तायी दविए, बती य खते य दंत विरते य । मुणि-तावस-पण्णवगुजु, भिक्खू बुद्ध जति विदु य ।। पवइए अणगारे, पासंडी चरग बंभणे चेव । परिवायगे य समणे, निग्गंथे संजते' मुत्ते ।। साधू लूहे य तहा, तीरट्ठी होति चेव नातब्बे ।
नामाणि एवमादीणि, होसि तव-संजमरताणं ।। बमा---पा, हिंसा।
दया य संजमे लज्जा, दुगुंछाऽछलणा इय।
तितिक्वा य अहिंसा य, हिरी एगट्टिया पदा । दुम-क्ष।
दुमा य पादवा रुक्षा, विडिमी य अगा तरू।
कुहा महीरुहा वच्छा, 'रोवगा भंजगा वि य ।। दुमपुष्फिया-प्रथम मध्ययन का नाम (मपुष्पिका)।
दुमपुफिया य आहारएसणा गोयरे तया उंछे।
मेस' जलोया सप्पे, वणऽख-इसु गोल पुत्तुदए । नात-सात (जवाहरग)।
नातं आहरणं ति य दिळंतोवम्म निदरिसणं तह य ।। निम्बाणसुह–निर्माणसुख।
निश्वाणसुहं सायं सीतीभूयं पयं अणावाहं । पंग- मान।
पंथो णायो मग्गो, विधी धिती सोग्गती हित सुहं च। पत्थं सेयं नियति, निब्वाणं सिपकरं चेव ॥
(उनि १५९)
(दशनि ३२)
(दशनि ३४)
(दशनि ४८)
(आनि २०८)
(सूनि ११५)
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नियुक्तिपंचक
पञ्चोप्तमण-पर्युषण ।
पम्जोसमणाए अखाराई, होंति उ इमाइ गोण्णाई। परिमायषवत्पवणा, पज्जोसमणा य पागइया ।। परिबसणा पासणा, पज्जोसमणा य वासवासोय । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा ।।
(दनि ५३,५४)
(दशनि ३३)
(दशनि २४६)
(दनि १३७)
पुष्पाणि म कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होति पसवाणि ।
सुमगाणि प सुहमाणि य, पुष्फाणं होति एगट्ठा । बक्क-वाय, भाषा।
वर्ष वयण च गिरा, सरस्सतो भारतीय गो वाणी ।
भासा पण्णवणी देसणी य बइजोग जोगे य ।। खंबाम
संदाण निदाणं ति य पवो ति य होति एगट्ठा ।। समण-(ममण) साधु ।
एव्यहए अणगारे, पासंडी परक तावसे भिक्खू । परिवायए य समणे, निग्गथे संजते मुते ।। तिण्णे वाई दबिए, मुणीय खते य दंत विरए य ।
लहे तीरट्ठी वि य, हवति समणस्स नामा ।। सुपपर-सूत्रहतांग।
सूतगर सुत्तकडं सूयगर चेव गोण्णाणि । सूर-बोर।
सूरो सत्तिओ य बीरोय। हरिएस-बाल।
हरिएसा चंडाला, सोवाग मयंग बाहिरा पाणा | साणघणा में मपासा, सुसाणवित्ती य नीया य ।।
(पनि १३४,१३५)
(सूनि २)
(सूनि ६०)
(उनि ३१६)
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परिशिद४
देशो शब्द
मणुक चावल की एक जाति । (दशनि २२९) अस–खण्डित ।
(दनि १४) मह-दर्पण। (दनि ९६) पल्लय--छोटा।
(उनि २३० आग-दर्पण। (दशनि १३३) बह--कर्म ।
(दनि १२४) अडा–काल ।
(दशनि २५१) गंगी दुष्ट घोड़ा, अविनीत बैल। (उनि ६५) अकोष-वनस्पति विशेष । (उनि ३९०) गली-दुष्ट घोड़ा, अविनीतल। (उनि ६५) अम्मा-मां, माता। (उनि ४१४) गोष-बल ।
(उनि ६५, दनि १२) अवय--अनंतकाय वनस्पति । (आनि १४१) चंपणिया--अश्चिस्थान, मल- (उनि १०६) अवहेग- आंधा शीशी रोग । (उनि १५०)
विसर्जन भूमि उंबर-चूहा।
(दशनि १३३) बजार--बढ़ा-चढ़ाकर कहना। (दशनि १८७) उहकारि--अबहेलना करने वाला।
चकुलग-खण्ड-खण्ड किया हुआ। (सूनि ६९)
(उनि १३९) विक्सल कदम, कीचड़ । (दनि ६०) उत्तश्य-उत्तेजित। (दशनि १८५) चिस्मिल्ल-कीचड़ ।
(दनि ७४) मोसा-ओस । (आनि १०८) बोयाल—चवालीस ।
(उनि १७१) कंगु-धान्य विशेष।
(दशनि २२९) बोल्लग-भोजन, क्रम से घर-घर करप- अनन्तकाय वनस्पति । (आनि १४१) में किया जाने वाला भोजन । काइय-मूत्र। (दनि ७२)
(उनि १६१) कालेज्या हृदय का मांस बण्ड। (मूनि ६१) जल्ल--मेल ।
(उनि ११८) किल्य-वर्षा काल में घड़े आदि में ।
उगल पत्थर के टुकड़े। (दनि ८) होने वाली एक प्रकार की काई (आनि १४१) तुक्कगहकना, तक्कन । (दनि ६३) कुलंग - बांस का झुरमुट । (उनि ३४२) विकिप-वृषभ की गर्जना। (उनि २६०) कुडिय–चुराई हुई वस्तु की खोज
तलवर- नगररक्षक, कोतवाल। (उनि ३०५) करने वाला।
(उनि १०८) तिपुरग-धान्य विशेष । (दशनि २३०) कुहारि-कुल्हाड़ी, फरसा । (आनि १४१) लि-रेखा।
(दनि १४) कोस—समुद्र, सागर । (आनि ११३) यग्ग--दम्पति ।।
(सनि ३६०) बदावागिय- धनी, समृद्ध । (दनि ९९) धणिय-अधिक ।
(दनि ११५) बलुंक- अविनीत बल, दुष्ट । (उनि ४८२. घणीय- अत्यन्त गाड़। (दशनि ६८) आनि २५५) धृत-कर्म ।
(दनि १२४) 1- छोटा शिष्य।
__उनि ९० नालिएर-नारियल । (आनि १३३) खाग--छोटा शिष्म। (आनि २२८) मासीर-शिकार !
(उनि ३८८) पाप-छोटा। (उनि ११) पगण-कर्म ।
(दनि १२४)
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४६४
निर्यक्तिपंचक
पणय-अनन्तकाय बनस्पति',
मरासी दुष्ट छोड़ा, अविनीत बैल । कर्दम, काई। (आनि १४१)
(उनि ६५) पतिरिक-शून्य एकात । (दनि ३४७) मोरा-बड़ा चूल्हा ।
(सूनि ६४) पाग- चण्डाल।
(उनि ३१६) मो—पाबपूरक अव्यय । (दशनि १२३/६) पारासर बाह्मण ।
(उनि ११५) र—निश्चयार्थंक अव्यय। (दशनि १२३/१०) पिउर-खाद्य पदार्थ विशेष । (उनि १७२/३) पाण-वृक्ष । (उनि १४६, आनि ८०) पुण्यपत्त--खुशी से हुत वस्त्र। (उनि ३४२) लिड लीड।
(दशनि ५४) पोंड-फल । (उनि १५२) सुन्ध'-वृक्ष ।
(उनि १३८) पॉडग---कपास का सूत। (उनि ३०५, सूनि ३) बम्बारिय-बघारा हुआ। (दनि ११६) पोसा--पुरुष का मांस खाने
बत्ता--सूत्रवेष्टन यंत्र। (सूनि २०१) बाला। (उनि ३६४) पिरिमी-वृक्ष ।।
(दशनि ३२) फिपिफस-आंतस्थित मांस विशेष। (सूनि ७१) विछोटा तालाम | (उनि १३८) इंफग-करीषारिन । (दनि १८५) वोलंत--जाते हुए ।
(उनि ४०७) फुफ्फुस-उदरवर्ती आत विशेष। (सूनि ७१) संमार-संकेत ।
(मूनि ३२) बहरुल-पल। (दनि ९३) संघश्य---मित्र।
(उनि ३५६) बाहिर---चंडाल की जाति । (उनि ३१६) सम्म मल।
(दशनि ६३) बोर खण्डित घट। (दनि १४) साल-शाखा।
(उनि ३२) बोग्य-जैन सम्प्रदाय विशेष ।
साह-कहना।
(दशनि ८१) (उनि १६२/१५) साह–अंश ।
(उनि १५८) मंडी-गाडी। (पनि ९३) सुसम---फूल !
(दशनि ३३) माणिय---अनंतकाय वनस्पति । (आनि १४१) सेटि'- सेठ ।
(उनि १००) भेश-निविष सर्प। (उनि ३१९) सेहि-शक्ष साध्वी।
(उनि १३९) महलित-मैला, गंदा। (उनि १०६) हा--अनन्त काय वनस्पति। (आनि १४१) महाल-कर्म।
(दनि १२५) हरतणु-पृथ्वी को भेदकर निकलने वासे मागत-पीछे।
(दनि १०६) जलबिंदु । (आनि १०८) मल्लग--पात्र विशेष । (मानि ५९) हरिमंष--चना :
(दशनि २३०)
।
१,२. पाइपसहमहुग्णवों में इसे देशी नहीं माना है लेकिन यह देशी होना चाहिए ।
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परिशिष्ट ५
निक्षिप्त शब्द
अंग (अङ्ग) अम्ग (अग्र) अवीव (अजीय) अज्झपण (अध्ययन)
अज्झीण (अक्षीण) अणगार (अनगार) अह (आद्र) अप्पमाद (अप्रमाद) अन (अल) अवाय (अपाय) अहिसा (अहिंसा) आजाइ (आजाति) आदाण (आदान) आदि (आदि) आय (आय) आयार (आचार)
(उनि १४४-५६, आनि २) उवासग (उपासक)
(दनि ३५-३७) (आनि ३०५, ३०६) उसुयार (इधुकार) (उनि ३५३, ३५४) (उनि ५४६, ५४७) एक (एक) (दशनि ८, १९१, उनि (दशनि २५।२, ३०,
१४२, ३७३) उनि ५-११, ५३८, ५३९, एक्कग (एकक) (उनि १४२, ३७३) सूनि १४३) एसणा (एषणा)
(दशनि २१७१, (उनि ५)
२१८०२,३,४) (उनि ५४१, ५४२) कड (कृत)
(सूनि ४) (सूनि १८५-६७) कम्म (कर्मन्) (उनि ५२२-२४, आनि (उनि १७३, ४९९)
(सूनि २०) मन (करण) नि ... नि.) (दनि ५१-५३) कविल (कपिल) (उनि २४३,२४४) (दशनि ४२) कसाय (कषाय)
(आनि १९१) (दनि १२९, १३०) काम (काम)
(दशनि १३७-३९, (सूनि १३२)
उनि २००) (सूनि १३४-३६) कारग (कारक)
(सूनि ४) (दशा नि २९, उनि ५) काल (काल)
(वनि १०) (दशनि १५४-६१, उनि किरिया (क्रिया)
(सूनि १६७) ४७९, ४८०, आनि ५, केसि (केगिन्)
(उनि ४४७) सनि १२) खंध (स्कन्ध)
(सूनि २३) (सूनि १७०, १७१) खलंक (दे.)
(उनि ४८२, ४०३) (सूनि ५५) खुहुग (दे)
(उनि २३०, ४१६) (आनि ३२८-३३०) खुल्लय (दे.) (दशनि १५३, उनि २३०) (आनि ३३९-४२) गह (गति)
(दशनि १०९-११) (आनि २००) गणि (गणिन्)
(दनि २५) (उनि १-३) गति (गति) (उनि ४९५,४९६,५०७,५४३) (उनि २३८, २३९) गहण (ग्रहण)
(सूनि १३२) (आनि ४७-४९) गाधा (गाथा) (सूनि २३.१३७,१३८) (आनि ३००-३०२) गुण (गुण)
(आनि १७९) (दशनि ५७, ५८) गोतम (गौतम)
(उनि ४४५-४७)
आहार (आहार) इत्थी (स्त्री) हरिया (पर्या) उम्गह (अवग्रह) उण्ह (उष्ण) उत्तर (उत्तर) उरम्भ (उरभ्र) उवसम्ग (उपसर्ग) उबहाण (उपधान) उवाय (उपाय)
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४६६
नियुक्तिपंचक
पा (चतुर)
(उनि १४३) पत्त (पत्र) चरण (चरण) (उनि ३७७,५०९,५१०, पद (पद)
आनि. २९,३०) पमाय (प्रमाद) बार (चार)
(आनि २४६) पर (पर) निस (चित्त) (उनि ३२२,३२३, दनि परिपणा (परिक्षा)
३२-३३३१) चूलिया (चूलिका) (दशनि ३३४,३३५) परीसह (परोषह) छक्क (षट)
(उनि ३७४) पवमण (प्रवचन) छक्कग (षट्क)
(दशनि १९२) पग्वज्जा (प्रवज्या) जगण (मक्ष)
(उनि ४५७,४५८) पाय पात्र) जाय (जात)
(आनि ३३६) पालिय (पालित) जीव (जीव) (दशनि १९०,१९५-१९७, पाव (पाप)
उनि ५४४,५४५) पाहण्ण (प्राधान्य) झवणा (क्षपणा)
(उनि ५,११) पिड (पिंड) ठबणा (स्थापना)
(दनि ५५-५८) पुढवी (पृथ्वी) ठाण (स्थान) (उनि ३७९,५१६, आनि, पुत्त (पुत्र)
१८५, सूनि १६८, दनि १०) पुप्फ (पुष्प) तव (तपस्)
(उनि ५०५,५०६) पुरिस (पुरुष) तह (तथ्य)
(सूनि १२२,१२३) पुब्बग (पूर्वक) युति (स्तुति)
(सूनि २४)
पूमा (पूजा) दसग (दशक)
(दशनि ९)
पोंडरीय (पुंडरीक) दसा (हशा)
(दनि २)
बंध (बंध) दिसा (विक्)
(मानि ४०-४२) दुम (दुम) (दशनि ३१, उनि २७३,२७४)
बंभ (ब्रह्मन्) धम्म (धर्म)
(दशनि ३६-४०, सूनि १००,१०१)
बह (बहु) नमि (नमि)
(उनि २५३,२५४)
बोह (बोध) निकाय (निकाय)
(दनि १९०)
भावणा (भावना) नियंठ (निम्रय) (उनि २३१,२३२,४१७,४१८)
भासा (भाषा) निद्दा (निद्रा)
(सूनि ४२) निरय (निरय)
(सूनि ६२,६३)
भिदियव्य (भिदितव्य) निसीहिया (निशीपिका) (आनि ३४३) भिक्खु (भिक्षु) पडि (प्रकृति)
(उनि ५२५-२८) पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान) (सूनि १८०) भेत्तापरिमा (प्रतिमा)
(दनि ४१,४२) भेयण (भेदन) বলিম্বি (মথি) (दशनि २६९-७१) मंगल (मंगल)
(उनि २७५) (दशनि १४२-४५) उनि १७३,५१४,५१५)
(आनि ३४७) (मानि ३७,२६७,२६८,
सूनि १७९) (उनि ६६-६८) (उनि ४५.२,४५३)
(उनि २५६) (आनि ३३८)
(उनि ४२३) (उनि ३८७,३८१)
(आनि २६४) (दशनि २१७॥१,२१८)
(आनि ६९,७०)
(उनि ४०१) (दशनि ३१)
(सूनि ५६) (दशनि १२७-३६) (उनि ३०३,३०८,३०९)
(सूनि १४४-४६) (दनि १३८.४१) (उनि ३७५, ३७६,
आनि १८-२८) (उनि ३०३,३०४)
(सूनि ४२)
(आनि ३४२) (दशनि २४५,२४७,
मानि ३३६) (उनि ३६९,३७०) (दशनि ३०१-१६, उनि ३६७, ३६८ दनि ४५) (उनि ३६९, ३७०) (उनि ३६८,३६९)
(दशनि ४१)
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परिशिष्ट ५
४६७
मग (मार्ग) (उनि ५४३,४९३,४९४,५०७ संजत (संयत)
(दशनि ३४६) सूनि १०७-१०१) संजोग (संयोग)
(उनि ३०-६४) मरण (मरण) (उनि २०१,२०२) संपया (संपदा)
(दनि २८) मह (महद्) (सूनि ८३) संधूत (संभूत)
(उनि ३२२,३२३) महंत (महद) (दशनि १५३, संसार (संसार)
(आनि १९२) उनि २३०,४१६, सकार (सकार)
(दशनि ३०५) आनि २६४-६६, सूनि १४२) सण्णा (संज्ञा)
(आनि ३८) मात (मातृ)
(उनि ४५४,४५५) सत्थ (शस्त्र) (दशनि २१३, आनि ३६) मिया (मृगा) (उनि ३९९,४००) सह (सब्द)
(आनि ३४६) मूल (मूल) (आनि १८३,१८४) सबल (शबल)
(दनि १२) मोख (मोक्ष)
(उनि ४९१,४९२) समण (श्रमण) (दशनि १२८, उनि ३८२) मोह (मोह) (दनि १२१,१२२) समय (समय)
(सूनि. ३२) रति (रति)
(दशनि ३३७.३३८) समाधि (समाधि) (दशनि २८६,३०४, उनि 'रहनेमि (रथनेमि) (उनि ४३७,४३८)
३७८, सूनि १०४-१०६) लाम (लाम) (दनि १५) समाहि (समाधि)
(दनि ९,३३६२,३४) लेसा (लेश्या) (उनि ५२९,५३०) समुद्द (समुद्र)
(उनि ४२३) सोग (लोक)
(आनि १७६,१७७) समोसरण (समवसरण) (सूनि ११६.११७) अक्क (वाक्य) (दशनि २४५,२४७) सम्म (सम्यक् )
(आनि २१७-१९) वत्थ (वस्त्र) (आनि ३३८) सरीर (शरीर)
(दशनि २११) विजय (विजय) (आनि १७७) साम (सम्यक)
(उनि ४७७.४७८) विणय (विनय) (दनि २८६) सामण्ण (श्रामण्य)
(दशनि १२७) विभत्ति (विभक्ति) (उनि ५४८,५४९ सार (सार)
(आनि २३९) सूनि ६४) सीय (शीत)
(आनि २००,२०१) विमोक्ख (विमोक्ष) (आनि २७६-७८) सील (शील)
(सूनि ८६,८७) वियालणिय (विदारणीय) (सूनि ३८,३९) सुतखंध (श्रुतस्कध) (उनि १२, आनि २) विरिय (वीर्य)
(मूनि ९१-९४) सुत्त (सूत्र) (आनि ३००, सूनि ३,१८२) विहंगम (विहंगम) (दशनि १०७) सुद्धि (शुद्धि)
(दशनि २५९-६२) विहि (विधि)
(उनि ५११,५१३) सुय (श्रुत) (उनि २९,३०३,३०५,५०१ दीर (वीर) (मुनि ८३)
५०३, सूनि २३) वेयालग (वैतालक) (सूनि ३०) सेज्जा (शय्या)
(आनि. ३२१-२४) वेयालण (विदारण)
(सूनि ३८) हरिएस (हरिवेषा) (उनि ३११,३१२) संजइज्ज (संयतीय) (उनि ३८५,३८६)
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परिशिष्ट
कथाएं
दशवकालिक-निर्यक्ति की कमाएं
२८. भक्ति और बहुमान १. शय्यंभव और मनक
२१. उपधान २. रत्नवणिक
३०. गुरु का अपलाप ३. अनर्थ का मूल-धन
उत्तराध्ययन-नियुक्ति की कथाएं ४. क्षेत्र और काल अपाय (दशाहवर्ग बार द्वैपायन ऋषि)
१. अहं से अहंम् (सनत्कुमार चक्रवर्ती) ५. क्रोध का दारुण परिणाम
२. क्षुधा परीषह ६. सत्यप्रतिज्ञ' महिला (अभयकुमार और ३. पिपासा परीषह वृक्षकुमारी)
४. शीत परीषह ७. हिंगुशिव
५. उष्ण परीषह (अहनक) +. उपाय से अपाम का निवारण (गांधविक) ६. दंशमशक परीषह ९ सुभद्रा का शील
७. अचेल परीषह १०, आर्या चन्दना का अनुशासन (मृगावती) ८-९. अरति परीषह ११. कृत्रिम चक्रवर्ती (कोणिक)
१०, स्त्री परीषह (स्थूलिभद्र मुनि और सिंह१२. आश्वासन (गौतम और महाबीर)
गुफावासी यति) १३. मलदाम जुलाहे की बुद्धिमत्ता
११. पर्या परीषह १४. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार
१२. निषीधिका परीषह १५. गोविंद आचार्य
१३. पाग्या परीषह १६. उपाय कथन का विवेक (पिंगल स्थपति)
१४. आक्रोश परीषह (अर्जुनमाली) १७. व्यसनों की श्रृंखला (बौद्ध भिक्षु) १५. वध परीषह (स्कन्दक) १०. अयथार्थ आश्चर्य
१६. याचना परीषह (बलदेव) ११. स्वर्ण खोरक
१७. अलाभ परीषह (ढण मुनि) २०. हेतु उपन्यास
१८. रोग परीषह (कालवैशिक मुनि) २१. धूर्त पत्नी
१९. तृणस्पर्श परीषह २२ लोक का मध्य २३. शकटतित्तिरी
२०. जल्ल परीषह (सुनंद) २४ धूर्तता से पूर्तता का निरसन
२१. सत्कार-पुरस्कार परीषह (इंद्रदत्त पुरोहित) २५. दक्षता का उदाहरण (चार मित्र)
२२. प्रज्ञा परीषह (आचार्य कालक) २६. दुर श्रद्धा
२३. अज्ञान परीषह (अशकट पिता) २७. स्वाध्याय-काल में काल और अकास का २४. ज्ञान परीषह (आचार्य स्थूलिभद्र) विवेक
२५. दर्शन परीषह (आषाढभूति)
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४६९
परिशिष्ट
२६. चौल्लक २७. पाशक २८. धान्य २९. धूत ३०. रत्न ३१. स्वप्न ३२. मक ३३. धर्म ३४. युग ३५. परमाणु २६, जमालि और बहरतबाद ३७. तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद ३८. आचार्य अषाद के शिष्य और अव्यक्तवाद ३९. अश्वामित्र और समुच्छेददाद ४०. आचार्य गंग और वैक्रियवाद ४१. रोहगुप्त और राशिकवाद ४२. गोष्ठामाहिल और अबदिकवाद ४३. शिवभूति और बोटिकवाद ४४. उरन ४५. काकिणी ४६. अपत्थं अंबगं भोच्या ४७. तीन वणिक पुत्र ४८, कपिल पुरोहित ४९. करकंडु ५०. दुर्मुख ५१. नमि ५२. नम्पति ५३. गौतम की अधीरता ५४. हरिकेशवल ५५,५६, चित्र-संभूत ५७. भूगु पुरोहित ५८. राषि संजय ५९. मृगापुत्र
६०. समुद्रपाल ६१. रथनेमि-राजीमती ६२. जयघोष-विजयघोष
___ आधारांग-नियुक्ति को कथाएं १. जातिस्मरण-१ २. जातिस्मरण-२ ३. जातिस्मरण-३ ४. दृष्टि का महत्त्व ५. सकुंडलं वा वयणं न व ति ६. आयं वच का अनशन ७. आर्य समुद्र का अनशन ८. आचार्य तोसलि का अनशन ९. आचार्य की तीक्ष्ण आज्ञा १०. द्रव्य शय्या
सूत्रकृतांग-नियुक्ति को कथाएं १. अभयकुमार बंदी बना २. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार ३. कूलवाल ४. पोंडरीक ५. आद्रंककुमार ६. गौतम और उदक की चर्चा ७. ऋषभ के अट्टानवे पुत्र
दशा तस्कंध-नियुक्ति की कपाएं १. क्षमादान : महादान २. उद्रायण ओर प्रद्योत ३. हरिद्र किसान और चोर सेनापति ४. क्रोध का दुष्परिणाम ५. विशा ही बदल गई (मत्वकारीमट्टा) ६. आराधक : विराधक (पटरज्जा साहवी) ७. करणी का फल (आर्य मग)
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शालिनत की कमाएं
१. शरयंभव और ममक'
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अंतिम तीथंकर महावीर स्वामी के तीसरे पट्टधर आर्य प्रभव थे। चितन उत्पन्न हुआ कि मेरे बाद गण को धारण करने में कौन समर्थ होगा? संघ पर दृष्टि डाली पर कोई भी परम्परा को अविच्छिन्न निभाने वाला पट्टधर नहीं मिला। फिर उन्होंने गृहस्थ समाज पर दृष्टि टिकाई उपयोग लगाने पर उन्होंने राजगृह नगर में शय्यंभव ब्राह्मण को यज्ञमंडप में यज्ञ करते देखा। आचार्य प्रभव राजगृह नगरी में आए और अपने शिष्यों को यज्ञ मंडप में भिक्षार्थं भेजा । आचार्य प्रभव ने कहा- 'वहां तुम्हें जब प्रवेश के लिए निषेध करें तो तुम कहना - 'अहो ! कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते - खेद है, सत्य को नहीं जानते। साधु वहां गए उन्हें द्वार पर ही रोक दिया गया तब उन्होंने कहा- 'अहो कष्टं तत्वं न ज्ञायते' नव्यंभव ब्राह्मण द्वार पर ही खड़ा था। उसने यह बात सुनी। उसने सोचा - ये उपसांत तपस्वी असत्य भाषण नहीं करते अतः तत्काल अपने अध्यापक के पास जाकर उसने पूछा- 'तत्व क्या है ?' अध्यापक ने कहा'वेद ।' तब शय्यंभव ने भ्यान से तलवार निकालकर क्रोध में आकर कहा--'यदि तुम मुझे सही तस्व नहीं बतायोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा तब अध्यापक बोला- 'मेरा समय पूरा हो गया है। वेदार्थ में यह प्रतिपादित है कि सिरच्छेद का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर सत्य की अभिव्यक्ति कर देनी चाहिए। अब मुझे यथार्थ का गोपन नहीं करना चाहिए। अध्यापक ने कहा- इस स्तूप के नीचे एक स्वर्णमयी अत् प्रतिमा है अतः आत धर्म तत्व है। तब शय्यंभय अध्यापक के चरणों में गिर पड़े। शय्यंभव ने यज्ञबाद के सारे उपस्कर अध्यापक को दे दिए । शय्यंभव उन साधुओं की गवेषणा करते हुए आचार्य के पास पहुंच गए। जाचार्य को वंदना करके साधुओं को कहा- मुझे धर्म का उपदेश दो ।' माचार्य ने उपयोग लगाया और उन्हें पहचान लिया । तब आचार्य ने उन्हें साधु-धर्म की जानकारी दी। शय्यंभव संबुद्ध होकर प्रवजित हो या कालान्तर में चतुर्दशपूर्वी हुए । जब वे प्रव्रजित हुए तब उनकी भार्या गर्भवती श्री । शव्यंभव के प्रव्रजित हो जाने पर लोग यह कहते अरे देखो, यह अपनी तरुण पश्नी को छोड़कर प्रव्रजित हो गया है। यह निःसंतान है । वे लोग उसकी पत्नी को पूछते - 'क्या गर्भस्थ कुछ है ?' वह कहती - प्रतीत होता है मिना कुछ है। समय बीता। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। बारह दिन बीतने पर स्वजनों 'पुत्र का नाम 'मनक' रखा क्योंकि गर्भकाल में स्वजनों द्वारा पूछने पर वह कहती थी 'मणगं अर्थात् कुछ है।
ने
जब बालक मनक आठ वर्ष का हुआ तब उसने अपनी मां से पूछा- 'मेरे पिता कौन है ?' वह बोली- 'तुम्हारे पिता प्रवजित हो गए ज्ञाव नहीं है अब वे कहते हैं ?' बालक अपने पिता की १. आगे अनुवाद में एक और दो कथा के नम्बर नहीं लगे हैं। यहां १ नम्बर की कथा को कथा सं० ३ पर पढ़ें |
एक बार उनके मन में उन्होंने अपने गण और
To
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परिशिष्ट-६: कथाएं
खोज में घर से निकल पड़ा । आचार्य उस समय चंपा में विहरण कर रहे थे। बालक मनक भी चंश में आ गया। प्राचार्य जब मंज्ञा भमि में जा रहे थे तब उन्होंने बामक को देखा । हालक ने आचार्य को बंदना की।बालक को देखते ही आचार्य के मन में बालक के प्रति स्नेह उमर आया । चालक के मन में भी आचार्य के प्रति अनुरक्ति जाग गयी। पार्य ने पूछा- 'वत्स ! तुम हो से
आए हो?' बालक बोला-'राजगृह नगरी से।' आचार्य ने पूछा - 'राजगह नगरी में तुम किसके पुत्र या पात्र हो ?' बालक ने कहा- मैं शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूं।' आचार्य ने पूछा-'तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो ?' बालक बोला- मैं भी दीक्षित होना चाहता हूं।' बालक ने आचार्य से पूछा - 'क्या आप मेरे पिता को मानते हैं ?' आचार्य ने कहा- मैं उनको जानता हूं.' बालक ने फिर पूछा 'वे अभी कहा हैं?' आचार्य बोले- मेरे एक शरीरभूत बभिन्न मित्र हैं। तुम मेरे पास प्रवजित हो जाओ। उसने अपनी स्वीकृति दे दी। माचार्य उसको साथ लेकर उपाश्रय में आए और सोचा-यह सचित्त उपलब्धिहई है।' उन्होंने बालक को प्रजित कर दिया।
दीक्षित करने के बाद आचार्य ने अपने ज्ञान-बल से उसका आयुष्य जानना चाहा । ज्ञान से उन्होंने जाना कि इसका आयुष्य केवल छह मास काहीहै। माचार्य ने सोचा-'इसका आयुष्य बहुत कम है अत: क्या करना चाहिए? वे जानते थे, चतुर्दशपूर्वी किसी भी कारण के उपस्थित होने पर अवाय ही पूर्षों से ग्रंथ का नियूं हण करते हैं । अन्तिम दशपूर्वी भी अवश्य ही नियूं हण करते हैं। भाचार्य ने सोचा- मेरे सामने भी कारण उपस्थित हुआ है अतः मुझे नियूं हग करना चाहिए। उन्होंने पूर्वो से नि!हण करना प्रारम्भ कर दिया । नि हण करते-करते विकास की वेला आ गई, दिन कुछ ही अवशिष्ट रहा इस अध्ययनों का नियूहण सम्पान हा. इसलिए इस ग्रन्ध का नाम 'दसवेआलिय' रखा गया ।' २ रत्नवणिक
एक गणिक दारिद्रप से अभिभूत था । एक बार वह घूमते इए रत्मद्वीप में पहुंचा। वहाँ उसने लोक्य सुन्दर अमूल्य रत्नों को देखा । उनकी गटरी बांध वह घर की ओर चल पड़ा । लम्बे रास्ते में चोर आदि के भय से उन्हें सफशल घर ले जाना सम्भव नहीं था। बुद्धि-कौशम से उसने एक उपाय किया । उन रत्नों को एक स्थान पर गाहकर अपने हाथ में जीर्ण-शीर्ण पत्थरों को लेकर पागल के वेश में 'यह रत्नवणिक जा रहा है', 'यह रत्नवणिक जा रहा है'-थों चिल्लाता हुआ चोरों की पल्ली के पास से गुजरा । आगे जाकर पुनः लौटते हुए उन्हीं शब्दों को दोहगता हुआ यहां से गुजरा। उसने तीन बार ऐसे ही किया। चोरों ने उसे देखा पर पागस समझकर उस ओर ध्यान नहीं दिया। चौथी बार वह गडे रत्नों को लेकर सुखपूर्वक चोर-पल्ली को पार कर गया। अटवी लंबी थी अतः वह तीन प्यास से अभिभूत हो गया । अरबी मैं उसने एक गड्ढा देखा । गहढे मैं थोड़ा पानी था। उस पानी में अनेक हिरण मरे थे। इसलिए सारा पानी बसामय हो गया था। उसने श्वास रोककर स्वाद न लेते हुए उस पानी को पीया | पास शांत हुई । वह रत्नों के साय सुरक्षित रूप से घर पहुंच गया।
१. दशअच पृ. ४,५, हाटी प. १०-१२
२. दशअचू पृ. ८, हाटी प. १९।
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नियुक्तिपंचक
३. अनर्थ का मूल-धन
एक नगर में दो भाई रहते थे। वे बहत गरीब थे। एक बार वे घनार्जन के लिए मालव देश से सौराष्ट्र गए। वहां उन्होंने एक हजार रुपए कमाए। जब वे पुनः अपने घर लौटने लगे तो रुपयों की नौली की बारी-बारी से सूरक्षा करने लगे। एक बार जब एक भाई के पास नौली थी तब दूसरा सोचने लगा-'अच्छा हो इसको मार दूं, जिससे ये सारे रुपये मुझे मिल जाएंगे।' ऐसा ही चिन्तन दुसरे भाई के दिमाग में भी आया । परस्पर एक दूसरे को मारने की चिन्ता में बे चले और अपने ग्राम के समीप बहने वाली नदी के तट पर विश्राम करने ठहर गए।
सहसा छोटे भाई के विचार बदले और वह रोने लगा। दूसरे भाई ने कारण पूछा तो वह बोला-'मुझे धिक्कार है । मैं धन के लिए अपने भाई को मारने के लिए भी तैयार हो गया। दूसरे भाई ने कहा-'मेरे दिमाग में भी तुझे मारने की बात आई थी पर अब मेरा विचार बदल गया है।' इस धन के कारण ही हमारे मन में बुरे विचार आए ऐसा सोचकर उन दोनों भाइयों ने रुपयों की नौसी को नदी में बहा दिया । वहां से चलकर वे अपने घर पहुंच गए।
नदी में गिरी हुई उस नौली को एक मत्स्य निगल गया। प्रातः धीवर ने मछलिया पकडने के लिए नदी में जाल फेंका । संयोगवश बही मत्स्य उसके जाल में फस गया और मर गया। धीवर उसे बाजार में बेचने के लिए ले आया। इधर उन दोनों भाइयों की माता ने अपनी लड़की से कहा--'आज तुम्हारे भाई आए हैं अत उनके लिए मत्स्य ले आओ।' बह गई और संयोगवश उसी मत्स्य को ले आई, जिसके पेट में वह नौली थी।
मत्स्य को काटते समय लड़की ने वह नौली देखी और उसे अपनी गोद में छिपा ली। उसकी यह क्रिया बूढ़ी मां देख रही थी । उसने पूछा---'बेटी ! तुमने गोद में क्या छिपाया है ?' लोभवश लड़की ने कुछ नहीं बताया। बड़ी मां उठी और लड़की के पास आकर छीना-झपटी करने लगी । लड़की को आवेश आ गया। उसने अपनी बढ़ी मां के मर्मस्थल पर ऐसा प्रहार किया कि वह तत्काल मर गई। भाई बाहर बैठे थे । उन्होंने मां बेटी की तकरार सुनी। वे अन्दर आए । नौली को जमीन पर पड़ी देख वे मां की मृत्यु का कारण जान गए । 'यह धन दोष-बहुल है । इसने हमारी नहीं तो मां की जान ले ली।' यह सोच उनका मन उद्विग्न हो गया । वे विरक्त हो गए । उस लड़की का विवाह कर ये प्रश्नजित हो गए। ४. क्षेत्र और काल अपाय (वशाहवर्ग और वैपायन ऋषि)
दशाह हरिवंश में उत्पन्न राजा थे। कंस ने मथुरा नगरी का विनाश कर दिया । इधर राजा जरासंध का भय बढ़ा तब उस क्षेत्र को अपाय-बहुल समझकर दशावगं मथुरा से चलकर द्वारवती नगरी में आ गए ।
एक बार भगवान् कृष्ण ने अरिष्टनेमि से पूछा-भगवन् ! द्वारवती (द्वारिका) का विनाश कब होगा? भगवान अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया-द्वैपायन ऋषि के द्वारा इस नगरी का विनाश वारह वर्षों में होगा। पायन ऋषि ने उद्योतवरा नगरी में यह बात कर्णकणिकया सूनी। 'मैं इस नगरी का बिनापाक न बनूं, अत: इस कालावधि तक कहीं अन्यत्र चला जाऊं, यह सोच वे द्वारिका १. दशनि ५१, अचू पृ. २१, हाटी प. ३५,३६ ।
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परिशिष्ट ६
नगरी छोड़कर उत्तरापथ में चले गए ।
कालमान की विस्मृति हो जाने के कारण वे बारहवें वर्ष मे ही द्वारिका पुन लौट आए। यादव कुमारों ने उन्हें अनेकविध कष्ट पहुंचाए रुष्ट होकर ऋषि ने निदान कर लिया। मरकर वे देव बने और उस नगरी का विनाश कर डाला।
४७३
५. क्रोध का दारुण परिणाम
एक क्षपक अपने शिष्य के साथ मिक्षाचर्या में गया। मार्ग में उसके द्वारा एक मेंड़की मर गई। शिष्य ने कहा- 'आपके द्वारा एक मेंढ़को मर गई है।' क्षपक बोला-रे दुष्ट शिष्य मैने कब मारी ? यह तो कब से ही भरी पड़ी थी। इसके बाद वे दोनों अपने स्थान संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय जब क्षपक ने मेंड़की की आलोचना नहीं की तो सचेष्ट करते हुए कहा- आप उस मेंढ़की की आलोचना करें ।' उसकी इस बात पर क्षपक रुष्ट हो गया और श्लेष्म शराब लेकर शिष्य को मारने दौड़ा दौड़ते हुए वह एक खंभे से टकराया और पृथ्वी पर गिरते ही मर गया।
वहां से युत होकर वह दृष्टि विषस के कुल में दृष्टिविष सर्व के रूप में पैदा हुआ। एक दिन एक सर्प नगर में इधर-उधर घूम रहा था। उसने राजकुमार को काट लिया। सर्वविद्या विशारद एक सपेरे ने विद्याबल से सभी सप को आमंत्रित किया और विद्याबल से निर्मित मंडल में उनको प्रविष्ट कर बोला- 'अन्य सभी सर्प अपने-अपने स्थान पर चले जाएं। वही सर्प यहां ठहरे। जिसने राजकुमार को काटा है। सभी सर्प चले गए एक सर्प उस मंडल में ठहरा सवेरे ने उसको कहा- 'या तो तुम वान् विष को पी लो अन्यथा इस अग्नि में गिरकर भस्म हो जाओ। वह सर्प अगन्धन कुल का था। उसने अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्याग दिये परन्तु वान्त विष का पान नहीं किया। विष का अपहार न होने से राजकुमार की मृत्यु हो गई। राजा अत्यन्त कुपित हो गया । उसने राज्य में यह घोषणा करवाई कि जो कोई मुझे सर्प का शिर लाकर देगा, उसे प्रत्येक शिर क एक दीनार मिलेंगी। दीनार के लोभ में लोग सर्पों को मारने लगे ।
१. दर्शन ५२ हाटी प. ३६, ३० विस्तार हेतु देखें उनि कथा सं० १६ ।
पर पहुंच गए। शिष्य ने उन्हें
अपक का जीव देवलोक से युत होकर जिस सपंकुल में जन्मा था, वह जातिस्मृतिज्ञान से सम्पन था । सर्प ने जातिस्मृति से अपना पूर्व जन्म देख लिया 'मेरे देखने मात्र से व्यक्ति भस्मसात् हो जाता है यह सोचकर वह दिन भर बिल में रहता और रात को बाहर घूमता एक बार कुछ सपेरे सांपों की खोज में रात को निकले। वे अपने साथ एक प्रकार का गंध द्रव्य ले गए जिससे रात्रि में निकलने वाले रूपों की खोज सुखपूर्वक हो सके। उन्होंने घूमते-घूमते उस क्षपक सर्प का बिल देखा। उन्होंने बिन-द्वार पर बैठकर औषधि का प्रयोग किया और सर्प को आह्वान किया। सर्प सोचने लगा- 'मैंने कोध का कटु परिणाम देख लिया है। मैं मुंह की ओर से बाहर निकलूंगा तो किसी को जला डालूंगा अतः पूछ से निकलना ही उचित है वह पूंछ की तरफ से बाहर निकलने लगा ? उसके शरीर का जितना भाग बाहर निकलता वे सपेरे उसको काट डालते। वह निकलता गया और सपेरे उसके टुकड़े करते गये। शिरच्छेद होते ही वह मर गया ।
'
यह सर्प देवता परिगृहीत था । देवता ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा - 'राजन् !
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४७४
नियुक्तिपंचक सपो को मत मारो । नागकुल से निकलकर वह सपं तुम्हारा पुत्र होगा। उसका नाम नागदत्त रख देना।
वह क्षपक सर्प प्राण परित्याग कर उसी राजा का पुत्र हुआ। बालक का नाम नागवत रखा गया । वह छोटी अवस्था में ही प्रजित हो गया। परन्तु पूर्वभव में सियर होने के कारण उसे भूख बढ़त लगती थी। वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता ही रहता । वह अत्यन्त उपशांत और धर्म के प्रति अति आस्थावान था।
जिस गच्छु में वह था, उसमें चार क्षपक थे । वे चारों तपस्वी थे। उनमें से एक चातुमासिक तपस्या करता, दूसरा त्रैमासिक तप करता, तीसरा द्विमासिक तप और चौथा मासिक तप करता था | एक बार रात्रि में वहां एक देव बंदना करने आया । वहाँ सबसे आगे चातुर्मासिक तप करने वाला क्षपक बैठा मा । उसके पास क्रमशः मासिक द्विमासिक और एकमासिक तप करने वाले तीनों क्षपक बैठे थे । इन सभी के अन्त में वह नित्यभोजीक्षपक बठा था । देवता ने इन सभी तपस्वी क्षपकों का अतिक्रमण कर उस नित्यभोजी क्षुल्लक को बंदना की । यह देखकर सभी तपस्वी अपक कुपित होगा । टेरता जाने लगा तब चातुर्मासिक लपक ने उसके वस्त्र को पकड़ते हुए कहा-'हे कटपूतने ! हम तपस्वियों को वन्दना न कर. इस निस्वभोजी क्षपक को बंदमा करते हो, यह गलत है।' देवता बोला- 'मैं तो भाव-पक को वंदना करता हूं । जो शपक पूजा-सत्कार के इच्छुक हैं तथा अहंकार ग्रस्त हैं उन शपकों को वंदना नहीं करता ।
तत्पश्चात वे तपस्वी क्षपक उस नित्यमोजीक्षपक से ईष्या करने लगे । देवता ने सोचा'ये तपस्वी इस क्षल्लक की भत्सना न कर सकें इसलिए मुझे इस क्षगक के निकट ही रहना चाहिए । तभी मैं इनको बोध दे पाऊगा।'
दूसरे दिन बक्षस्लफ भिक्ष आज्ञा लेकर पय षित अन्न (बासी भोजन) लेने के लिए गया। भिक्षाचर्या से निवृत्त होकर वह अपने स्थान पर आया और गमनागमन की आलोचना कर आहार ग्रह्ण करने के लिए चातुर्मासिक तपस्वी को निमन्त्रण दिया । उसने अपफ के भोजन-पात्र में थूक दिया । शुल्लक मुनि ने हाथ जोड़कर कहा-'भंते ! मेरा अपराध क्षमा करे । मैं समय पर 'श्लेष्म पा' (थूकदानी) प्रस्तुत नहीं कर सका, इसलिए आपको इस भिक्षापात्र में थूकना पड़ा।' तब क्षुल्लक मुनि ने आहार पात्र में पड़े प्लेष्म को ऊपर से दूर कर श्लेष्म पात्र में डाल दिया। स्वयं पूर्ण समभाव में रहा । तत्पश्चात् उसने शेष तीनों तपस्वियों को आहार करने का निमन्त्रण दिया । तीनों क्षपकों ने पूर्ववत् आहारपात्र में थूका । क्षुल्लक मुनि श्लेष्म को श्लेष्म पात्र में हालता मया।
__अन्त में वह क्षुल्लक मुनि शान्त भाव से आहार-पात्र से कवस लेने के लिए तत्पर हुआ तब एक क्षपक ने उसकी दोनों भुजाओं को पकड़ लिया । उस समय भी यह शुल्लक मुनि प्रसन्न रहा । उसके परिणाम और लेश्याएं उत्तरोत्तर विशुद्ध होती गई । उस स्थिति में आवारक कर्मों के क्षीण होने पर उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।
___ सत्काल देवता ने प्रकट होकर क्षपकों से कहा-'तुम वन्दनीय कैसे हो सकते हो ? तुम निरन्तर क्रोधाविष्ट रहते हो, क्रोध से अभिभूत रहते हो।' यह सुनकर ये सभी तपस्वी क्षपक संवेग से ओतप्रोत होकर अपने कृत्य को निन्दा करते हुए बोले- 'अहो! यह क्षुल्लक मुनि फितना
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परिशिष्ट कथाएं
४७५ शान्तचित्त है। असदकृत्य करने वाले हमने इसकी बाशातना की है। वे मन ही मन पश्चात्ताप करने लगे । इस प्रकार शुभ अध्यबसायों के कारण उनके बादारक को कामय हुआ और उन सबको कैवल्य की प्राप्ति हो गई।' ६. सत्यप्रतिज्ञ महिला (अभयकुमार और वृद्धकुमारी)
राजगह नाम का नगर था। वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था। रानी ने एक बार राजा कहा-'तक खंभे वाला प्रासाद निर्मित करवाएं।' राजा ने भनेक बढ़यों को प्रासादनिर्माण का आदेश दिया। वे बढ़ई उपयुक्त काठ की खोज करने जंगल में गए। अभयकुमार साथ में था। यहां उन्होंने सीधा-सरल एक महान् वृक्ष देख। । बह लाक्षणिक था। उन्होंने वहां धूप-दीप कर कहा- 'जो इस वृक्ष का अधिष्ठाता देव है, वह हमें दर्शन दे तो हम इस वृक्ष को नहीं काटेंगे । पदि देव साक्षात् दर्शन नहीं देंगे तो हम इसे काट डालेंगे।'
वृक्षवासी वाणच्यंतर देव अभय कुमार को दर्शन देकर बोला--'मैं राजा के लिए एक खंभे वाला प्रासाद बना दूंगा और सभी ऋतुओं के अनुकल सब प्रकार की पनजालियों से युक्त एक नमीचा भी बना दूंगा । तुम इस वृक्ष को मत काटो। इस प्रकार देव ने एक खंभे वामा प्रासाद निर्मित कर दिया और साथ ही साथ एक सुन्दर बगीचा भी बना दिया ।
एक बार एक चाण्डालिन को अकाल में आम खाने का शोहद उत्पन्न हुआ। उसने अपने पति से आम लाने को कहा। उस समय आम का मौसम नहीं था। चण्डाल राजा के उस सर्व ऋतुओं में पुष्पित और फलित रहने वाले उद्यान के पास गया और अबनामिनी विद्या के द्वारा आम की शासानीचे की। फल तोडे और उन्नामिनी विद्या से शाखा को पूर्ववत करके चला गया।
प्रातः राजा ने देखा कि आमों की चोरी होईपर किसी मनुष्य के पदचिन्ह वहाँ नहीं है। राजा ने सोचा-क्या कोई मनुष्य यहाँ चोरी कर गया। बया उसमें यह शक्ति है कि वह आए और पदचिन्ह अंकित न हो । यदि ऐसा शक्तिधर कोई मनुष्य है तो वह मेरे अन्तःपुर में भी धृष्टता कर सकता है।
राजा ने तत्काल अभयकुमार को बुलाकर कहा--'सात दिनों के भीतर चोर को पकड़कर नहीं लाओगे तो तुम जीवित नहीं रह सकोगे । यह सुनकर अभयकुमार चोर की खोज में लग गया।
एक दिन अभयकुमार ने देखा कि एक स्थान पर नर्तक तत्म करना चाहता है और लोग इकट्ठे हो रहे हैं । वहां जाकर अभयकुमार ने एकत्रित लोगों से कहा- 'नट तयार होकर आता है सब तक मेरी एक कथा सुनो
एक नगर में एक दरिद्र सेठ रहता था । उसकी पुत्री वृद्धकुमारी अत्यन्त रूपवती थी। वह श्रेष्ठ पति के लिए कामदेव की अर्चना करती थी । एक दिन चोरी से फूल तोड़ते समय मासी ने उसे देख लिया। जब माली उसको पकड़कर कदर्थना करने लगा तब वह बोली-'तुम्हारे भी बहिन, भानजी हैं, उनकी तरह ही मुझको समझो और मुझ कुमारी की गदर्थना मत करो | माली
१. दशअचू पृ. २१,२२ हाटी प, ३७-३९ ।
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नियुक्तिपंचक बोला कि एक शर्त पर मैं तुझे छोड़ सकता हूं कि जिस दिन तुम्हारा विवाह हो, उसी सुहागरात्रि में पति द्वारा अनुपभुक्त ही तुम मेरे पास आओ।
बुद्धकुमारी ने शतं स्वीकार कर ली। माली ने उसको छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद उसका विवाह हो गया । वह सुहागरात्रि में अपने अपवरक (ओरा) में गई और पति को सारी बात बता दी। पति ने उसे माली के पास जाने की अनुमा दे दी । मार्ग में जाते समय उसको चोरों ने पकड़ लिया। सारी स्थिति समझाने पर चोरों ने भी उसे छोड़ दिया। आगे एक राक्षस मिला जो छह महीनों से आहार लेता था | उसने वृद्धकुमारी को पकड़ लिया । सही बात बताने पर राक्षस ने भी उसे छोड़ दिया । वह माली के पास पहुंच गई।
माली ने सवा और विस्मित होकर बोला—'कैसे आई हो ?' बद्धकुमारी ने शतं की बात याद दिलाई तब माली ने पूछा--'तुझे तेरे पति ने कैसे भेज दिया ?' बुद्धकुमारी ने सारी बात सुना दी। मानी सोचने लगा-'यह महिला कितनी सत्यप्रतिज्ञहै?' इसने व्यक्तियों ने इसे छोड़ दिया है तो फिर मैं इसको दुषित कैसे करूं यह सोचकर उसने भी उसे मुक्त कर दिया।
घर लौटते समय भी यह राक्षस और चोरों के मध्य होती हई गजरी पर उसकी सत्यता से प्रसन्न होकर सबने उसे छोड़ दिया। वह अपने पति के पास अक्षत आ गई। कथानक सुनाकर अभयकुमार ने पूछा-'बोलो, इस कथानक में सबसे कठिन काम किसने किया?' ईर्ष्यालु बोले"उसके पति ने।क्षधार्स बोले-राक्षस ने'। पारदारिक बोले-मालाकार ने और वह हरिकेश चांडाल बोला—'चोरों ने।'
अभयकुमार ने समझ लिया कि यह चोर है। उसे पकड़कर राजा के सामने उपस्थित कर दिया । राजा ने चोरी का कारण पूछा तो उसने सब कुछ सही-सही बता दिया। राजा बोला'यदि तुम अपनी विद्याएं मुझे सिखा दो तो प्राण बण्ड नहीं मिलेगा। चण्डाल ने स्वीकृति दे दी
और विद्या का रहस्य समझाने लगा। राजा के कोई बात समझ में नहीं आई तो उसने कहा'विद्या सिद्ध क्यों नहीं हो रही है?'
चाण्डाल सोला---'राजन् ! आप आसन पर बैठे हैं और मैं नीचे भूमि पर। इस प्रकार अविनयपूर्वक पड़ने से विद्या नहीं आती है।' राजा तत्काल नीचे बैठ गया। दोनों विधाएं सिद्ध हो गई।
७, हिंगुशिव
एक नगर में एक मालाकार रहता था। एक दिन वह करण्डक में फूल' लेकर बेचने को निकला। रास्ते में मलोत्सर्ग की आशंका से पीड़ित हो गया। उसने वहां शीघ्रता से उत्सर्ग कर करण्डक के सारे फूल उस पर डाल दिए । लोगों ने देखा और पूछा-'यह क्या है ? जो तुम इस प्रकार फूल बढ़ा रहे हो ?'
____ मालाकार बोला-देवता ने मुझे दर्शन दिए हैं। यहां अभी हिंगुभिव नामक व्यन्तर देव उत्पन्न हुआ है। लोगों ने उसकी बात स्वीकार कर ली और वे भी उसकी पूजा करने लगे। आज भी पाटलिपुत्र में हिगुशिव व्यन्तर का मंदिर प्रसिद्ध है।' १. दशनि ५८, अचू पृ. २२,२३, हाटी प. ४१,४२ । २. दशनि ६३, अचू पृ. २४, हाटी प. ४४ ।
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परिशिष्ट ६
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६. उपाय से अपाय का निवारण (गांधविक)
एक ग्राम में एक वणिक रहता था। उसके घर में बहुत सी बहन, बेटियां और बहुएं थीं। उसके घर के पास ही राजकुल से सम्बन्धित (संगीत के आचार्य) गान्धर्विक दिन में तीन बार संगीत करते थे। वे घर की स्त्रियां संगीत के मधुर शब्दों द्वारा गोधर्तिकों में आसक्त हो गई अतः वे समय पर कुछ भी काम नहीं करती थी। उस बणिक ने सोचा कि येत. विनष्ट हो रही है। अब ऐसा कौन सा उपाय किया जाए जिससे ये कुल-परम्परो को अक्षुण्ण रखें। यह सोचकर उसने अपने एक मित्र को सारी बात बताई।
मित्र बोला-'तुम अपने घर के पास व्यन्तरदेव का मंदिर बनवा लो।' उसने वैसा ही किया और पह बजाने बालों को एपमा देकर मह बजवाने लगा । गान्धर्विक जिस समय संगीत करते उस समय वे पटहवादक पटह, बांसुरी आदि बजाते और साथ-साथ गायन आदि भी करते 1 इससे गांधषिकों के संगीत में विघ्न होने लगा। पटह शब्द के कारण मीत शब्द सुनाई नहीं देते थे अतः उन गांधविकों ने राजा के समक्ष शिकायत की। राजा ने उस वणिक को बुलाकर पूछा-'तुम इनके काम में विघ्न क्यों करते हो?' वह बोला-'मेरे घर में एक देव-मंदिर है 1 मैं तीनों समय पूजा के लिए पटह बजाता हूं और कुछ नहीं करता। तब राजा ने कहा-'गांधविकों ! तुम अन्यत्र जाकर संगीत करो। प्रतिदिन देव-पूजा में बाधा क्यों डालते हो? गांधविक वहां से चले गए। घर की बहु-बेटियां अपनी मूल स्थिति में आ गई ।' है. सुभद्रा का शील
चंपा नामक नगरी में सुश्रावक जिनदत्त के सुभद्रा नामक लड़की थी । वह अत्यन्त रूपवती थी। एक बौद्ध उपासक ने उसे देखा । वह उसमें आसक्त हो गया। उसने जिनदत्त से सुभद्रा की याचना की । जिनदत्त बोला-'मैं मिध्यादष्टि को अपनी पुत्री नहीं दूंगा।'
यह सुनकर वह बौद्ध उपासक साधुओं के पास गया और धर्म की बात पूछी 1 साधुओं ने धर्मदेशना दी । उसने कपटपूर्वक श्रावकधर्म को स्वीकार कर लिया। उसने साधुओं को बता दिया कि मैंने उस लड़की के लिए कपटपूर्वक धर्म ग्रहण किया था । अब मुझे अणुव्रतों का स्वीकरण करा दो। अणुव्रत स्वीकार करने के बाद वह लोक में स्पष्ट रूप से श्रावक हो गया।
समयान्तर में 'यह श्रावक है ऐसा जानकर जिनदत्त ने सुभद्रा का उसके साथ विवाह कर दिया । कुछ समय बाद वह बोला-'मैं लड़की को अपने घर ले जाऊंगा ।' तब जिनदस बोला'तुम्हारा सारा कुल उपासक है, यह उसका अनुवर्तन नहीं करेगी तो अपमान होगा अतः तुम इसे वहां मत ले जाओ । अत्यन्त आग्रह करने पर जिनदत्त ने सुभद्रा को उसके साथ भेज दिया। वह उसे लेकर घर गया और अपना अलग घर बनाकर रहने लगा । सुभद्रा भिक्षुओं (बौद्ध श्रमणों) की भक्ति नहीं करती है यह जानकर उसकी सास और ननद उससे द्वेष करने लगी।
एक बार उन्होंने सुभद्रा का पति से कहा कि यह सुभद्रा श्वेतपटधारी (जैन मुनि) से संसक्त है। श्रावक ने उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं किया। एक दिन एक मुनि उसके घर भिक्षा लेने आए । मुनि की आंख में रजकण गिर गया था। सुभद्रा ने अपनी जीभ से उस रज कण को निकाल
१.शनि ६५, अच प्र. २४,हाटी प.४५ ।
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नियुक्तिपंचक
दिया । सुभद्रा ने सिन्दूर का तिलक लगा रखा था। वह मुनि की आंख से रजकण निकालते समय क्षपक के ललाट में लग गया। उपासिकाओं ने श्रावक को दिखाया। उसे विश्वास हो गया । अब वह उसके साथ पहले जैसा बर्ताव नहीं करता था।
सुभद्रा ने सोचा- मैं गृहस्थ हूं, मेरा अपमान हुआ है इसमें क्या आश्चर्य है? पर यह जिनशासन की अवहेलना मुझे दुःख दे रही है। उस राषि को वह कायोत्सर्ग करके लेट गई। देवता बाया और बोला- आशा दो, मैं क्या करू ?' सुभद्रा बोली- मेरा यह अपयश दूर कर दो ।'
देव ने स्वीकृति देकर कहा मैं इस नगर के चारों द्वार बंद कर दूंगा और घोषणा करूंगा कि जो पतिव्रता होगी वह इन दरवाजों को खोल सकेगी। वहां तू ही इन दरवाजों को अनावृत कर सकेगी। अपने परिवार वालों को विश्वास दिलाने के लिए चलनी से पानी निकालना, देव प्रभाव से एक बूंद भी नीचे नहीं गिरेगी, ऐसा आश्वासन देकर देव चला गया ।
देव ने रात्रि के समय नगर के द्वार बंद कर दिए। द्वार बन्द देखकर नगरवासी अधीर हो गए। सहसा आकाशवाणी हुई 'नागरिकों! निरयंक देश मत करो। यदि शीलवती स्त्री चलनी से पानी निकाल कर उस पानी से द्वार पर छोटे लगाएगी तो द्वार खुल जाएंगे।
नगर के अनेक श्रेष्ठियों और सार्थवाह की पुत्रियों तथा पुत्रवधुओं ने उस ओर चरण बढ़ाने का प्रयत्न भी नहीं किया तभी सुभद्रा ने अपने परिवार वालों से यह काम करने की अनुमति मांगी। वे भेजने के लिए राजी नहीं हुए। उपासिका ने कहा ओह! अब यह भ्रमण में आसक्त सुभद्रा द्वारों को खोलेगी! किन्तु जब सुभद्रा ने कुए के पास जाकर जलनी से पानी निकाला और एक बूंद भी पानी नीचे नहीं गिरा तो उपासिका सास विषण्ण हो गई । घर वालों को विश्वास हो गया। उसे जाने की अनुमति प्राप्त हो गई। वह घर से घसी उसके हाथ में पानी से मरी चलनी थी।
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महान् लोगों द्वारा सस्कारित सुभद्रा नगरद्वार के पास गई, अरिहन्त भगवान् को नमस्कार करके द्वार पर पानी के छींटे लगाए और तत्काल महान् शब्द करते हुए टीमों द्वार बुन गए। उत्तर का द्वार अभी भी बन्द था उस पर पानी के छीटे न लगाकर वह बोली 'जो मेरे जैसी भीतवती नारी होगी, वह इस द्वार को खोलेगी। कहा जाता है वह द्वार आज भी बन्द पड़ा है। नागरिक जन सुभद्रा का जयजयकार करते हुए बोले- 'बहो ! यह महासती है। हो! यह साक्षात् धर्म है । "
आर्या चन्दना का अनुशासन ( मुगावती )
प्रवजित होते ही साधी मृगावती आर्या चन्दना की शिव्या बन गई। एक बार भगवान् महावीर बिहार करते-करते कौशाम्बी नगरी पछारे चन्द्र और सूर्य अपने विमानों सहित भगवान् को नमन करने बाए | चतुष्णौदिक समवसरण कर अस्मन मेला में वे लौट गए। उनके जाते ही मृगावती संभ्रान्त हो गई बोर समीपस्थ साध्वियों से बोली- 'अरे ! विकाल हो गया है ।' वह तत्काल वहां से उठी और साध्वियों के साथ बर्या चंदना के पास पहुंची। तब तक अन्धकार हो गया था। आर्या चन्दना आदि साध्वियों ने उस समय प्रतिक्रमण भी कर लिया था। आर्या कन्दना ने १. दशअ पृ २४, २५ हाटी प. ४६-४८ ।
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परिशिष्ट ६
साध्वी मृगावती को उपालम्भ देते हुए कहा-'उत्तम कुल में पैदा होकर भी तुम ऐसा करती हो ? गा नया है।'
साध्वी मृगावती उनके घरों में गिरकर अत्यन्त विनम्रता से क्षमा मांगने लगी । वह बोली-'करुणाई हृदये ! मेरा यह अपराध क्षमा कर दें। मैं ऐसा फिर कभी नहीं करूंगी।' उस समय आर्या चन्दना संस्तारक पर लेटी हुई थी। मृगावती पास में बैठी थी । परम संवेग को प्राप्त होने से उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
रात बीसती गई और अन्धकार बढ़ता गया। दोनों के मध्य से एक सर्प आ रहा था। उस समय प्रवर्तिनी चन्दना के प्रलम्बमान हाय को मृगावती ने उठाया । चन्दना जाग गई और बोली'ऐसा क्यों?' मुगावती ने उत्तर दिया - कोई सर्प की जाति आ रही है।
चन्दना-तुमने कैसे जाना? क्या कोई अतिशय जान हआ है? मगावती-हां। चन्दना-ज्ञान प्रतिपाति है या अप्रतिपाति ? मगावती–अप्रतिपाति । आर्या चन्दना ने मुगावती साध्वी से अमायाचना की।
११. कृत्रिम चक्रवर्ती (कोणिक)
राजा कोणिक ने भगवान से पूछा-भंते ! काम-भोगों का त्याग नहीं करने वाले चक्रवर्ती राजा कालमृत्यु को प्राप्त कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
भगवान् ने कहा---पक्रवसी सातबी नरक भूमि में उत्पन्न होते हैं। कोणिक-भगवन् ! मैं कहां उत्पन्न होऊंगा? भगवान्-ट्ठी नरक भूमि में । कोणिक-मैं सातवीं नारकी में क्यों नहीं जाऊंगा? भगवान् सातवीं नारकी में चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। कोणिक-मेरे पास भी चौरासी लाख हाथी हैं, मैं चक्रवर्ती कसे नहीं है? भगवान तुम्हारे पास निधियां और रत्न नहीं हैं।
यह सुनकर महाराज कोणिक कृत्रिम रत्न बनवाकर दिग्विजय के लिए निकले। जब वे तमिना गुफा में प्रवेश करने लगे तो किरिमालक देव ने कहा---'बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं। तुम यह काम करोगे तो विनष्ट हो जाओगे ।' रोकने पर भी वह नहीं रुका। फिरिमालक देव ने उस पर प्रहार किया और वह मरकर छट्ठी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ। १२. आश्वासन (गौतम और महायोर)
जब गोतम स्वामी अपने द्वारा दीक्षित मुनियों को केवली पर्याय में देखकर अधीर हो गए तब भगवान बोले--'गौतम ! तुम मेरे चिरसंसृष्ट हो, चिरपरिचित हो और घिरभावित हो । तुम अधीर मत बनो, अन्त में हम दोनों समान हो जाएंगे।" १ दशनि ७२, अच पृ. २५ हाटी प. ४९,५०। ३. दशनि ५४, अचू पृ. २६, हाटी प. ५१, २. दशनि ७४, अचू पृ. २६, हाटी प. ५०.५१। विस्तार के लिए देखें उनि कथा सं० ५३ ।
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नियुक्तिपंचक १३. नलबाम शुलाहे की पुषिता
चाणक्य ने नन्द राजा को उत्थापित करके चन्द्रगुप्त को राज्य-सिंहासन पर बिठा दिया। इधर चन्द्रगुप्त राजा का चोरमाह (चोरों को पकड़ने वाला) नन्द के आदमियों से मिल गया और नगर में चोरी करने लगा। चाणक्य को दूसरे चोरगाह की खोज करनी थी। वह त्रिदण्ड लेकर परिव्राजक के वेश में नगर में घूमने लगा।
वहां यह नलदाम नामक तन्तुवाय (जुलाहे) के पास गया और उसकी अयनशाला में ठहर गया। उस तन्तुवाम के बच्चे को मार्ग में खेलते समय मकोडों ने काट खाया । वह रोता हुआ पिता के पास आया। सारा वृतान्त जानकर नलदाम ने बिल खोदकर मकोडों को जला दिया।
चाणक्य बोला--इन्हें श्यों जला रहे हो? जुलाहे ने उत्तर दिया--इन्हें समूल नष्ट नहीं कर दूंगा तो ये फिर काट खाएंगे ।
चाणक्य ने सोचा--यह उपयुक्त चोरगाह मुझे मिल गया है। यही नन्द के चोरों का समूल उच्छेद कर सकेगा। चाणक्य ने उसे चोरमाह बना दिया ।
उस जुलाहे ने चोरों को विश्वास दिला दिया कि हम मिलकर चोरी करेंगे। उन चोरों ने दूसरे चोरों का अता-पता भी बता दिया और उन्होंने फिर दूसरे पोरों का क्योंकि उन्होंने सोचा-'अब हम सब मिलकर सरलता से चोरी कर सकेंगे।' सब चोरों का पता लगने पर उस चोरमाह जुलाहे ने उन सब चोरों को मरवा दिया ।' १४. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार
___अभय और राजा प्रयोत की कथा के लिए देखें सूनि की कथा सं. ३। १५. गोविंब आचार्य
गोविंद नामक एक बौद्ध भिक्ष थे। वे एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में अठारह बार पराजित हुए। पराजय से दुःखी होकर उन्होंने सोचा कि जब तक मैं इस सिद्धांत को नहीं जानूंगा तब तक इन्हें नहीं जीत सकता । इसलिए हराने की इच्छा से शानप्राप्ति के लिए उसी
आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया। सामायिक आदि ग्रंथों का अध्ययन करते हुए उन्हें सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उन्हें व्रत-दीक्षा दी । दीक्षित होने पर गोविंद मुनि ने सरलता पूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बतला दिया। १६. उपाय कथन का विवेक (पिंगल स्थपति)
एक राजा ने एक तालाब बनवाया जो समूचे राज्य में सारभूत-श्रेष्ठ था। वह तालान प्रतिवर्ष भरने के बाद फूट जाता । एक बार राजा ने अपने मंत्रियों तथा अन्यान्य बुद्धिमान् व्यक्तियों को एकत्रित कर पूछा- ऐसा क्या उपाय किया जा सकता है जिससे कि यह तालाब न फूटे, भरा का परा रह जाए।' वहा एक कापालिक भी उपस्थित था। उसने कहा---'महाराज ! जिस व्यक्ति के शिर तथा वाढी-मूंछ के बाल कपिल (पीले) हों, उसे जीवित अवस्था में वहां गाढ दिया जाए जहां से तालाब फूटता है तो भविष्य में तालाब नहीं फूटेगा। सभी ने यह उपाय सुना । कुमारामात्य १. दशनि ७७, अच पृ. २६, हाटी प. ५२ । २. दशनि ७८, निभा ३६५६, 'यू. पृ. २६० ।
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परिशिष्ट ६
ने तत्काल कहा-'राजन् । यह जिस प्रकार के आदमी की बात कह रहा है, वैसा यह स्वयं है। दुसरा वैसा मिलना कठिन है। तब राजा ने उसी कापालिक को जीवित ही वहां गढ़वा दिया।
नीतिकार कहते है ऐसा उपाय नहीं बताना चाहिए जिससे स्वयं को मरना पड़े।' १७. व्यसनों की श्रृंखला (बोस भिक्ष)
कोई बोस भिक्षुक हाथ में जाल लेकर मत्स्य मारने के लिए चला । रास्ते में एक धूर्त मिला। उसने कहा-आचार्य ! आपकी कंथा बिद्रों वाली है। भिक्ष बोला --'यह तो मछलियों को पकड़ने का जाल है।'
धूर्त-क्या आप मछली खाते हैं ? भिक्षु-हां, मैं उन्हें मध के साथ खाता हूं। धूसं--क्या आप मदिरा भी पीते हैं ? भिक्षु-मैं अकेला मदिरा नहीं पीता, वेश्या के साथ पीता हूं। पूर्त-क्या आप वैश्या के पास भी जाते हैं ? भिक्षु-शत्रुओं के गले पर पैर रखने के लिए वहां भी जाता हूं। धूर्त-क्या आपके शत्रु भी है ? भिक्षु हो, जिनके घरों में मैं संघ लगाता हूं, वे मेरे शत्रु हैं। धूर्त-क्या आप चोर हैं? भि-जुए में धन चाहिए उसके लिए चोरी करता हूं। धर्त--तो आप जारी भी है?
भिक्षु हो, क्योंकि मैं दासी-पुत्र हूं।' १८. अयपार्थ आश्चर्य
एक देवकुल में कुछ काटिक मिले और बोले-किसी ने घूमते हुए कोई आश्चर्य देखा हो तो बताए । उनमें से एक कार्पटिक बोला--मैंने देखा है पर यहां कोई श्रमणोपासक न हो तो बताऊं। शेष कार्पटिकों ने कहा- 'यहाँ श्रमणोपासक नहीं है।' इसके बाद वह बोला
_ 'पूर्व वैतालिक में मैं एक समुद्रतट पर घूम रहा था। वहां एक बहुत बड़ा वृक्ष था। उस वृक्ष की एक शाखा समुद्र में थी और एक शाखा स्थलभाग में । उसके जो भी पत्ते पानी में गिरते वे जलचर जीव बन जाते और जो स्थल में गिरते वे स्थलचर जीव बन जाते ।'
सुनने वाले कार्पटिक बोले-'अहो ! आर्य भट्टारक ने बहुत बड़ा आश्चर्य बताया ।' बहाँ एक कार्पटिक श्रावक भी था। उसने पूछा जो पत्ते मध्य भाग में गिरते उनका क्या होता? वह कापंटिक क्षुब्ध होकर बोला-'मैंने पहले ही कह दिया था कि यहां श्रावक होगा तो मैं नहीं बताऊंगा। १६. स्वर्ण खोरक
एक नगर में एक परिश्राजक रहता था। वह एक स्वर्ण-खोरक (तापस-भाजन) लेकर १. दशनि ७९, अचू पृ. २६, हाटी प. ५३,५४ । ३. दशनि ८१, अचू पृ. २७, हाटी प. ५५ ॥ २. दशनि ७९, अचू पृ. २७, हाटी प. ५४ ।
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मियुक्तिपंचक
घूमता था । वह कहता था कि जो मुझे असुनी बात सुनाएगा उसे मैं यह स्वर्ण-खोरक दे दूंगा। एक श्रावक ने यह घोषणा सुनी । उसने परिधाजक से कहा---
तुझ पिया मम पिउणी, धारेई अणुणयं सयसहस्सं ।
जह सुयपुष्व दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देहि । तुम्हारे पिता ने मेरे पिता से लाख रुपए उधार लिए थे। यह बात तुम्हारी सुनी हुई है तो वे रुपए लौटा दो और यदि नहीं सुनी हुई है तो यह स्वर्ण स्वोरक दे दो।' २०. हेतु उपन्यास
एक व्यापारी यव खरीद रहा था। दुसरे व्यक्ति ने पूछा--यवों को क्यों खरीद रहे हो? उसने कहा-'मे खरीदने से ही मिलते हैं, मुफ्त नहीं।' यद खरीदने का यह हेतु है ।' २१. धूतं पस्नी
एक वणिक अपनी स्त्री को साथ ले प्रत्यंत देश में चला गया। प्रत्यंत देश में वे जाते हैं जो दरिद्र हैं, भाग्यहीन हैं, अपराधी हैं अथवा जो विपरीत कलाओं में निष्णात् है । वणिक् की स्त्री कुलटा थी । वह एक पुरुष में आसक्त थी। उस बणिक पति को अपने बीच व्यवधान समझकर एक दिन वह बोली--'व्यापार करने के लिए जाओ।' वणिक् बोला-'क्या लेकर जाऊं?' बह बोली- डाः, (जय मागग) लेकर उज्जयिनी जाओ और एक एक दीनार में एक एक लिण्डिका को बेचो।' स्त्री का अभिप्राय यह था कि वणिक लम्बे समय तक वहीं रह जाए।
वह बेचारा कंद के मींगनों से भरकर एक गाडी उज्जयिनी ले गया। बाजार में मींगनों का ढेर लगाकर ग्राहक की प्रतीक्षा करने बैठ गया पर किसी ने कुछ नहीं पूछा। अचानक वहाँ मूलदेव आ गया। उसने देखा और पूछा तो वणिक् ने सारी बात बता दी।
मूलदेव ने सोचा कि यह बेचारा अपनी पत्नी के द्वारा छला गया है। उसने कहा-'भाई ! मैं इन सबको बिकवा दूंगा यदि तुम आधा हिस्सा मुझे दे दो तो?' वणिक ने स्वीकार कर लिया। मूलदेव तब पिशाच का रूप बनाकर आकाश में उड़ गया। वह नगर के बीच में ठहरकर भोला-'मैं वेव हूं। जिस बच्चे के गले में उष्ट्र लिडिका बंधी हुई नहीं होगी उस बच्चे को मैं मार दूंगा।' तब सभी भयभीत लोगों ने एक एक दीनार में उष्ट्र-लिडिका खरीद ली। वणिक् का सारा माला बिक गया । उसने आधा हिस्सा मूलदेव को दे दिया ।
मूलदेव बोला-तेरी स्त्री तो किसी धूर्त से लगी हुई है, इसीलिए उसने तेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है । वणिक् को विश्वास नहीं हुआ तो मूलदेव ने कहा-'आओ, हम वहां पलें । तुझे विश्वास न हो तो प्रत्यक्ष विखा देता हूं।'
ये दोनों वेष बदलकर वहां गए और विकाल का बहाना कर ठहरने के लिए स्थान मांगा। उस स्त्री ने स्थान दे दिया। वे एक ओर ठहर गए । कुछ समय पश्चात् घर में स्त्री उसके साथ मदिरापान करने लगी। इसी बीच में वह गाने लगी
'लक्ष्मी के मन्दिर का पुजारी मेरा पति वाणिज्य के लिए गया है वह सैकड़ों वर्षों तक जीए पर जीता हुआ घर न आए।' १. दशनि ८२, अचू पृ. २७, हाटी प. ५६ । २. दशनि ८२, अचू पृ. २८, हाटी प, ५६,५७ ।
नरमा
सात घर में बंटतं आया और
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
अन्य वेशधारी मूलदेव बोला- 'हे कदलीपत्रों से वेष्टित नारी ! इसका उत्तर यह है कि जो जोर से गर्जता है, उसका अस्तित्व मुहूर्त मात्र का ही होता है। तब मूलदेव ने वणिक् से कहा - 'देख लिया, तुम्हारी स्त्री धूर्त हैं।'
वह वणिक मूलदेव के साथ प्रातः घर से चला गया और कुछ समय पश्चात् अपने घर आ गया। वह स्त्री सहसा अपने पति को घर आया देखकर संभ्रात होकर उठी। इसके बाद भोजन आदि करते समय वणिक् ने गीत गाने तक की सारी बात उसे याद दिला दी।
२२. लोक का मध्य
एक परिव्राजक घूमता रहता था। वह यह प्ररूपणा करता था कि समक्षेत्र में दिया गया दान आदि सफल होता है, इसलिए समक्षेत्र में दान करना चाहिए। मैं लोक का मध्य भाग जानता हूं, दूसरा कोई नहीं जानता। लोग उसका बहुत आदर-सत्कार करते थे। जब उसे लोक का मध्य पूछा जाता तब चारों दिशाओं में कीलें गाड़कर और रस्सी से मापकर वह मायावी कहता - ' यह लोक का मध्य है ।' लोग विस्मित होकर कहने लगते - 'आश्चर्य है, इन्होंने लोक का मध्य जान लिया है।'
वहां एक श्रावक रहता था। उसने सोचा- 'यह धूर्त लोगों को कैसे ठग रहा है?' मैं भी इसके साथ वंचनापूर्वक व्यवहार करूं।' ऐसा निश्चय कर श्रावक ने उसे कहा- भाई! यह लोक का मध्य भाग नहीं है, तुम भ्रांत हो गए हो। ' तत्पश्चात् उस श्रावक ने रस्सी से मापकर दूसरे स्थान को लोक का मध्य भाग बताया। लोग प्रसन्न हो गए। श्रावक ने उस परिव्राजक को निरुत्तर कर दिया।
२३. शकटतित्तिरी
एक ग्रामीण काठ से गाड़ी भरकर नगर में जा रहा था। रास्ते में उसने एक मरी हुई तित्तिरिका देखी । वह उसे गाड़ी के ऊपर रखकर नगर में गया। वहां एक नगर धूर्त ने उसको के द्वारा '' पूछा- 'यह शकट - तित्तिरी कितने में मिल सकती है?' ग्रामीण बोला- 'मध्यमान सत्तुक वह धूर्त मध्यमान सत्तुक देना स्वीकार कर लोगों को साक्षी बना तित्तिरी सहित शकट ले जाने लगा। अब वह ग्रामवासी दुःखी होकर बैठ गया। इतने में उधर से मूलदेव जैसा कोई व्यक्ति आया । वह बोला- ' अरे देवानुप्रिय ! क्या सोच रहे हो ? ' ग्रामीण ने बताया कि मुझे एक व्यापारी ने इस प्रकार ठग लिया है। वह बोला- 'डरो मत। तुम उपचार से मध्यमान सतुक मांगो।' इसके बाद . उसने ग्रामीण को कैसे माया करनी है सिखा दिया। 'ऐसा ही होगा' यह कहकर वह ग्रामीण उस धूर्त के पास गया। वहां जाकर वह बोला- 'यदि तुमने मेरा शकट ले लिया है तो अब सोपचार मध्यमान सत्तुक तो दिलाओ।' अच्छा कहकर वह धूर्त उसे अपने घर ले गया और अपनी स्त्री को आदेश दिया कि वह आभूषणों से अलंकृत होकर परम विनय से इसको मध्यमान सत्तुक दे। कहने के साथ ही वह आ उपस्थित हुई। शाकटिक बोला 'मेरी अंगुली कटी हुई है, इस पर पट्टी बंधी हुई हैं इसलिए मैं सत्तू को मध नहीं सकता। तुम मथकर दे दो।' यह सुनकर उस स्त्री ने मधिका हाथ में ली। ग्रामीण उसे हाथ से पकड़ अपने गांव की ओर जाने लगा। उसने लोगों से कहा-'मैं
१. दर्शन. ८४ अचू. पू. २८, हाटी. प. ५७,५८ । २. दशनि. ८४, अचू. पृ. २८, हाटी. प. ५८, ५९ ।
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नियुक्तिपंचक
अपनी शर्त के अनुसार सतित्तिरीक शकट के बदले में यह सत्तुमथिका लेकर जा रहा हूं।' यह देखकर उस धूर्त ने शकट लौटा, ग्रामीण को राजी कर, अपनी स्त्री को छुड़ा लिया। २४. धूर्तता से धूर्तता का निरसन
एक आदमी ककड़ी से भरी हुई गाड़ी लेकर नगर में गया। वहां उसे एक धूर्त मिला। वह बोला-'जो भारली इस ककरिडलों में भी गड़ो के रूप में तुम क्या दोगे?' गाड़ीवान् ने उस धूर्त से कहा-'मैं उसे इतना बड़ा लड्डू दूंगा जो इस नगर-द्वार से बाहर न निकल सके।'
वह धूर्त बोला-'मैं तुम्हारे इस ककड़ी से भरे शकट को खा लेता हूं तुम मुझे वह लड्डू देना जो नगर के द्वार से न निकल सके।' शाकटिक की स्वीकृति मिलने पर उस धूर्त ने कुछ लोगों को साक्षी बनाया। इसके बाद वह शकट पर बैठा और उन ककड़ियों का एक-एक टुकड़ा खाता गया। इस प्रकार सभी ककड़ियों के टुकड़े खा लेने के पश्चात् उसने शाकटिक से मोदक मांगा। शाकटिक बोला- 'तुमने सारी ककड़ी नहीं खाई हैं।' भूर्त बोला-..' यदि नहीं खाई हैं तो तुम इनका विक्रय करो।'
शाकटिक उन्हें बेचने के लिए बैठा। ग्राहक आए और उन खंडित ककड़ियों को देखा। ग्राहक बोले-'इन खाई हुई ककड़ियों को कौन खरीदेगा?' ऐसा कहने से यह प्रमाणित हो गया कि ककड़ियां खाई हुई हैं । शाकटिक हार गया। तब उस धूर्त ने अपना मोदक मांगा। बेचारा शाकटिक दुःखी हो गया। इसी बीच कुछ जुआरी उधर से निकले। उन्होंने शाकटिक को दु:खी जानकर दुःख का कारण पूछा तो शाकटिक ने सारी बात बता दी। उनमें से एक बोला—'तुम नगर-द्वार के बीच में एक छोटा सा मोदक रख दो और उसे द्वार में से बाहर निकलने के लिए कहो।' शाकटिक ने ऐसा ही किया। वह धूर्त से कहने लगा-'लो यह मोदक, यह नगर-द्वार से बाहर नहीं निकल रहा है। तुम इसे ले जाओ।' वह धूर्त पराजित हो गया।
२५. दक्षता का उदाहरण (चार मित्र)
राजकुमार, अमात्यपुत्र, श्रेष्ठिपुत्र और सार्थवाहपुत्र ये चारों मित्र थे। एक बार वे चारों एक स्थान पर मिले और आपस में पछने लगे कि कौन किस आधार से जीता है?
राजपुत्र ने कहा- मैं अपने पुण्य के आधार पर जीता हूं। अमात्यपुत्र ने कहा--मैं अपने बुद्धिबल से जीता हूं। श्रेष्ठिपुत्र ने कहा-मैं अपने सौंदर्य से जीता हूं। सार्थवाहपुत्र ने कहा-मैं अपनी दक्षता से जीता हूं।
अपने-अपने अभिमत की पुष्टि के लिए वे दूसरे नगर में गए जहां उनको कोई नहीं जानता था। वहां वे एक उद्यान में ठहरे। सबसे पहले सार्थवाह पुत्र की दक्षता का परीक्षण करने का निश्चय हुआ। उसको खाने-पीने की व्यवस्था करने का आदेश मिला। सार्थवाह पुत्र बाजार में जाकर एक बूढ़े वणिक् की किराने की दुकान के बाहर जाकर बैठ गया। उस दिन कोई बड़ा उत्सव था इसलिए
१. दर्शान.८५, अचू.प. २८, हाटी.प. ५९.६०।
२. दशनि. ८५, अचू.पृ. २९, हाटी.प. ६१ |
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४८.४
नियुक्तिपंचक
अपनी शर्त के अनुसार सतित्तिरीक शकट के बदले में यह सत्तुमधिका लेकर जा रहा हूँ ।' यह देखकर उस धूर्त ने शकट लौटा, ग्रामीण को राजी कर, अपनी स्त्री को छुड़ा लिया। २४. धूर्तता से धूर्तता का निरसन
एक आदमी ककड़ी से भरी हुई गाड़ी लेकर नगर में गया। वहां उसे एक धूरत मिला। वह बोला-'जो आदमी इस ककड़ियों से भरी हुई गाड़ी को खा ले तो तुम क्या दोगे?' गाड़ीवान ने उस धूर्त से कहा- मैं उसे इतना बड़ा लड्डू दूंगा जो इस नगर द्वार से बाहर न निकल सके।'
_वह धूर्त बोला-'मैं तुम्हारे इस ककड़ी से भरे शकट को खा लेता हूं तुम मुझे वह लड्डू देना जो नगर के द्वार से न निकल सके।' शाकटिक की स्वीकृति मिलने पर उस धूत ने कुछ लोगों को साक्षी बनाया। इसके बाद वह शकट पर बैठा और उन कड़िवों का एक-एक टुकड़ा खाता गया। इस प्रकार सभी ककड़ियों के टुकड़े खा लेने के पश्चात् उसने शाकटिक से मोदक मांगा। शाकटिक बोला- 'तुमने सारी ककड़ी नहीं खाई हैं।' धूर्त बोला-'यदि नहीं खाई है तो तुभ इनका विक्रय करो।'
शाकटिक उन्हें बेचने के लिए बैठा। ग्राहक आए और उन खंडित ककड़ियों को देखा। ग्राहक बोले-'इन खाई हुई ककड़ियों को कौन खरीदेगा?' ऐसा कहने से यह प्रमाणित हो गया कि ककड़ियां खाई हुई हैं। शाकटिक हार गया । तब उस धूर्त ने अपना मोदक मांगा। बेचारा शाकटिक दु:खी हो गया। इसी बीच कुछ जुआरी उधर से निकले। उन्होंने शाकटिक को दु:खी जानकर दु:ख का कारण पूछा तो शाकटिक ने सारी बात बता दी। उनमें से एक बोला-'तुम नगर-द्वार के बीच में एक छोटा सा मोदक रख दो और उसे द्वार में से बाहर निकलने के लिए कहो।' शाकटिक ने ऐसा ही किया। वह धूत्तं से कहने लगा--'लो यह मोदक, यह नगर-द्वार से बाहर नहीं निकल रहा है। तुम इसे ले जाओ।' वह धूर्त पराजित हो गया।' २५. दक्षता का उदाहरण (चार मित्र)
राजकुमार, अमात्यपुत्र, श्रेष्ठिपुत्र और सार्थवाहपुत्र ये चारों मित्र थे। एक बार वे चारों एक स्थान पर मिले और आपस में पूछने लगे कि कौन किस आधार से जीता है?
राजपुत्र ने कहा-मैं अपने पुण्य के आधार पर जीता हूं। अमात्यपुत्र ने कहा-मैं अपने बुद्धिबल से जीता हूं। श्रेष्ठिपुत्र ने कहा-मैं अपने सौंदर्य से जीता हूं। सार्थवाहपुत्र ने कहा--मैं अपनी दक्षता से जीता हूं।
अपने-अपने अभिमत की पुष्टि के लिए वे दूसरे नगर में गए जहां उनको कोई नहीं जानता था। वहां वे एक उद्यान में ठहरे। सबसे पहले सार्थवाह पुत्र की दक्षता का परीक्षण करने का निश्चय हुआ। उसको खाने-पीने की व्यवस्था करने का आदेश मिला। सार्थवाह पुत्र बाजार में जाकर एक बूढ़े वणिक् की किराने की दुकान के बाहर जाकर बैठ गया। उस दिन कोई बड़ा उत्सव था इसलिए १. दशनि.८५, अचू.पृ. २८, हाटी.प. ५९,६०। २. दशनि. ८५, अचू.पृ. २९, हाटी.प. ६९ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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ग्राहक बहुत आ रहे थे। वह वृद्ध ग्राहकों को निपटाने में असमर्थ था। वहां बैठा हुआ सार्थवाह पुत्र अपनी दक्षता से जिस ग्राहक को जिस चीज (घी, गुड़, लवण, तेल, सोंठ, मिर्च आदि) की अपेक्षा होती, वही चीज दे देता। इससे वृद्ध को बहुत लाभ हुआ। वृद्ध प्रसन्न होकर बोला-'तुम यहां के वास्तव्य हो या आगंतुक ?
सार्थवाह पुत्र ने कहा-'हम तो आगंतुक हैं।' तब वृद्ध बोला- हमारे घर चलो, आज का भोजन वहीं करना है।' सार्थवाह पुत्र ने कहा-'मेरे और भी साथी हैं। वे उद्यान में ठहरे हुए हैं, मैं उनके बिना भोजन नहीं करूंगा।' तब वृद्ध वणिक् ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-'उन सबको साथ ले चलो।' सार्थवाह पुत्र ने सबको बुला लिया। वे सब उसके घर गए 1 वणिक् ने सबको भोजन कराया। तत्पश्चात् ताम्बूल आदि से सत्कार कर उनका बहुमान किया। उसने पांच रुपयों का खर्च किया।
दूसरे दिन रूपवान् वणिकपुत्र को भोजन की व्यवस्था करनी थी। वह शरीर को सज्जित कर वेश्या बाड़े में गया। वहां देवदत्ता नाम की वेश्या थो। वह पुरुषों से बहुत द्वेष करती थी. अत: राजपुत्र और श्रेष्ठिपुत्रों द्वारा अभिलषित होने पर भी वह किसी को नहीं चाहती थी। उस वणिक् पुत्र के सौन्दर्य को देखकर वह क्षुब्ध और चंचल हो गई।
एक दासी ने वेश्या की माता से जाकर कहा कि आज तुम्हारी पुत्री एक सुन्दर युवक पर आसक्त हो गई है। वेश्या की माता ने कहा-'जाओ. श्रेष्ठिपत्र को कहो कि वह हमारे घर नि:संकोच आए और आज का भोजन यहीं करे।' उसने भी पूर्ववत् अपने साथियों की बात कही, सबको वहां बुलाया। वेश्या ने सबको अच्छा भोजन कराया। उसने सौ रुपए खर्च किए।
तीसरे दिन बुद्धिमान् अमात्यपुत्र से कहा-'आज तुम्हें सबके भोजन की व्यवस्था करनी है।' वह नगर की करणशाला-न्यायशाला में गया, जहां विवादों का निपटारा होता था। वहां तीन दिन से एक विवाद का निपटारा नहीं हो पा रहा था। विवाद यह था- दो सौतें थीं। उनका पति मर गया। उनमें एक के पुत्र था, दूसरी के नहीं। जो अपुत्रा थी वह स्नेह से पुत्र का लालन-पालन करती और कहती-'यह पुत्र मेरा है।' पुत्र की वास्तविक माता कहती-'यह पुत्र मेरा है 1' यह विवाद समाहित नहीं हो रहा था। अमात्यपुत्र बोला-'मैं इस विवाद को निपटा देता हूं। इस बच्चे के दो खंड करके एक-एक खंड दोनों माताओं को दे दो।' यह सुनते ही पुत्र की असली माता बोली-'न तो मुझे धन चाहिए और न यह बालक । दोनों उसी को दे दो। मैं बालक को जीवित देखकर ही संतष्ट हो जाऊंगी।'दसरी स्त्री कुछ भी नहीं बोली। तब अमात्यपत्र ने उस बालक को उसकी असली मां को सौंप दिया। बालक की मां द्वारा अमात्यपुत्र को भोजन का निमन्त्रण मिला। सभी मित्रों को भोजन कराया। इसमें एक हजार का व्यय, हुआ।
___चौथे दिन राजपुत्र से कहा-'राजपुत्र! आज तुम्हें पुण्यबल से हम सबका योगक्षेम वहन करना है।' राजकुमार ने स्वीकृति दी। वहां से चलकर वह एक उद्यान में ठहरा। उस दिन नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। मंत्रियों ने तब एक घोड़े की पूजा कर, उसे अधिवासित कर, नगर
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निर्युक्तिपंचक
में
जिस वृक्ष के नीचे
सो रहा था उस वृक्ष की छाया स्थिर थी। घोड़ा वहां आकर रुका और हिनहिनाने लगा। वह राजकुमार उस नगर का राजा बन गया। उसने सभी मित्रों को बुला भेजा । वह विपुल संपत्ति का स्वामी बन गया।
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२६. दृढ़ श्रद्धा
राजा श्रेणिक के सम्यक्त्व की प्रशंसा देवराज इन्द्र ने की। एक देवता उस प्रशंसा को सह नहीं सका। वह नगर के बाहर एक तालाब के किनारे साधु के रूप की विकुर्वणा कर मछलियों को पकड़ने बैठ गया । श्रेणिक उसको निवारित करता है और समझाता है। पुनः वह देव एक गर्भवती साध्वी के रूप में श्रेणिक के सामने उपस्थित होता है। श्रेणिक उसे तलघर में ले जाकर प्रसूतिकर्म करवाता है । उस प्रसूतिकर्म को पूर्णरूप से गुप्त रखने के लिए सारा कार्य वह स्वयं करता है। देव मरी हुई गाय जैसी दुर्गन्ध की विकुर्वणा करता है लेकिन श्रेणिक का मन सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता । साध्वी का रूप छोड़कर, प्रसन्न होकर दिव्य ऋद्धि वाले देव ने कहा- 'भो श्रेणिक ! तुम्हारा, जन्म सफल हैं, जो प्रवचन पर तुम्हारी इतनी दृढ़ भक्ति है।
२७. स्वाध्याय में काल और अकाल का विवेक
(क) एक मुनि कालिकश्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया । उसे इसका भान नहीं रहा । वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यग्दृष्टि देवता ने सोचा कि यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा कोई मिध्यादृष्टि देव इसको ठग न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने वाले ग्वाले का स्वांग रचा। छाछ लो, छाछ लो- यह कहता हुआ वह ग्वाला उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता-जाता रहा। यह छाछ बेचने वाला मेरे स्वाध्याय में बाधा डाल रहा है- यह सोचकर मुनि ने कहा- ' अरे अज्ञानी! क्या यह छाछ बेचने का समय है ? समय की ओर ध्यान दो।' तब उसने कहा- - मुनिवर्य ! क्या यह कालिकश्रुत का. स्वाध्याय -काल हैं? मुनि ने यह बात सुनी और सोचा- 'यह कालिकश्रुत का स्वाध्याय-काल नहीं है। आधी रात बीत चुकी हैं।' मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप-मिच्छामि दुक्कड' का उच्चारण किया। देवता बोला-'फिर ऐसा मत करना, अन्यथा तुम तुच्छ देवता से ठगे जाओगे। अच्छा है, स्वाध्यायकाल में ही स्वाध्याय करो न कि अस्वाध्याय-काल में । ३
(ख) एक गृहस्थ खेत में सूअरों को डराने के लिए सींग बजाता था। एक बार अवसर देखकर चोर उसकी गायों को चुराकर ले जा रहे थे। प्रतिदिन की भांति उस समय उसने सींग बजाया । सींग की ध्वनि सुनकर 'चौर गवेपक आ गया हैं' यह सोचकर चोर गार्यो को छोड़कर भाग गए। प्रातः काल उसने गायों को देखा और उन्हें घर ले गया। अब सींग बजाता हुआ वह क्षेत्र और गायों की रक्षा करने लगा। प्रतिदिन सोंग बजाते रहने के कारण चोर यथार्थ स्थिति समझ गए। उन्होंने रुष्ट होकर उसे पीटा और गावों को भी साथ में ले गए। *
१. दर्शन. १६४, अचू. पृ. ५४ हाटी.. १०७-१०९ । ३. दर्शन. १५८, अचू.पू. ५१, हाटी.प. १०३, १०४ । २. दर्शन. १५७, अनू. पू. ५०,५१, हाटी. प. १०२,१०३ । ४. दशनि. १५८, अचू. पृ. ५१ ।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
(ग) राजा के निर्गमन काल में एक शंखवादक ने शंख बजाया । ' अवसर पर शंख बजाया है' यह सोचकर राजा ने प्रसन्न होकर उसे एक हजार मुद्राएं दीं। अब वह बार-बार शंख बजाने लगा। एक बार राजा ने विरेचन की दवा ली। वह मल विसर्जन के लिए गया हुआ था। शंखवादक 'ने शंख बजाया। राजा ने सोचा कि शत्रु सेना ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। राजा मल विसर्जन के वेग के कारण उठ नहीं सका। उसका मन खिन्न हो गया। वहां से उठने के बाद राजा ने अकारण शंख बजाने के कारण उस शंखवादक को दंडित किया।
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(घ) एक वृद्धा ने व्यंतर देव की आराधना की। कंडों को उलटते हुए उसको रत्न प्राप्त हुए। वह समृद्ध हो गयी। उसने चतुःशाल घर बनवाया और उसमें अनेक शयन, आसन और रत्न आदि भर दिए। पड़ोसी वृद्धा ने जब यह सुना तो उसने समृद्धि का कारण पूछा। उसने यथार्थ स्थिति बता दी। उस पड़ोसी वृद्धा ने भी व्यंतर देव की आराधना की। देव प्रकट हुआ और पूछा—'तुम्हें क्या दूं?' उस वृद्धा ने कहा- 'मुझे यह वर दें कि मेरे पास पड़ोसिन से दुगुना हो जाए। पहली वृद्धा जो-जो सोचती दूसरी के दुगुना होता जाता । प्रथम स्थविरा ने जब यह सुना कि वरदान के कारण • पड़ोसिन के सब दुगुना होता जाता है तो उसने सोचा कि मेरा चतुःशाल भवन नष्ट हो जाए और उसके स्थान पर घास फूस की कुटिया बन जाए। दूसरी पड़ोसिन के दो चतुःशाल घर नष्ट हो गएं और उसके स्थान पर दो तृण-कुटिया हो गयीं। पहली ने सोचा कि मेरी एक आंख फूट जाए। उसकी एक आंख फूट गई और दूसरी की दोनों आंखें फूट गयीं। इसी प्रकार उसने देव से कहा- 'मेरा एक हाथ और एक पैर टूट जाए।' देव ने कहा- 'तथास्तु'। पड़ोसिन के दोनों हाथ और पैर टूट गए। यह असंतोष का फल है।
२८. भक्ति और बहुमान
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एक गिरि-कंदरा में शिव की मूर्ति थी । ब्राह्मण और भील- दोनों उसकी पूजा-अर्चा करते थे। ब्राह्मण प्रतिदिन स्नान आदि कर, पंवित्र होकर अर्चना करता था। अर्चना के पश्चात् वह शिव के सम्मुख बैठकर शिवजी का स्तुति पाठ कर चला जाता। उसमें शिव के प्रति विनय था, बहुमान नहीं। वह भील शिव के प्रति बहुमान रखता था । वह प्रतिदिन मुंह में पानी भर लाता और उससे शिव को स्नान करा, प्रणाम कर वहीं बैठ जाता। शिव प्रतिदिन उसके साथ बातचीत करते । एक बार ब्राह्मण ने दोनों का आलाप संलाप सुन लिया। उसने शिव की पूजा कर उपालंभ भरे शब्दों में कहा- 'तुम भी व्यन्तर शिव हो, जो ऐसे गंदे व्यक्ति के साथ आलाप संलाप करते हो ।' तब शिष ने ब्राह्मण से कहा- 'भील में मेरे प्रति बहुमान - आंतरिक प्रीति है, वह तुम्हारे में नहीं है।'
एक बार शिव ने अपनी आंखें निकाल लीं। ब्राह्मण अर्चा करने आया। शिव के आंखें न देखकर वह रोने लगा और उदास होकर वहीं बैठ गया। इतने में ही भील आ पहुंचा। शिव की आंखें न देखकर उसने तीर से अपनी दोनों आंखें निकाल कर शिव के लगा दीं। ब्राह्मण ने यह देखा 1 उसे शिव की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि भील में बहुमान का अतिरेक है।
३. दर्शन- १५८, अचू.पू. ५२, हाटी. ए. १०४ ।
१. दर्शन. १५८, अचू. पू. ५२ । २. दशनि. १५८, अचू.पू. ५२ ।
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४८८
निर्युक्तिपंचक
२९. गुरु का अपलाप
एक गांव में एक नापित रहता था। विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षुरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह विद्याबल से अपने त्रिदंड को आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से बड़े-बड़े लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-' भगवन् ! यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय ?' उसने कहा - ' यह विद्या का अतिशय है।' राजा ने पुन: पूछा-' आपने यह विद्या किससे प्राप्त की?' परिव्राजक बोला-'मैं हिमालय में साधना के लिए रहा। वहां मैंने एक फलाहारी तपस्वी ऋषि की सेवा की और उनसे यह विद्या प्राप्त की।' परिव्राजक के इतना कहते ही आकाश स्थित वह त्रिदंड भूमि पर आ गिरा।
उत्तराध्ययन निर्युक्ति की कथाएं
१. अहं से अर्हम् (सनत्कुमार चक्रवर्ती)
एक बार इन्द्र ने अपनी सभा में चक्रवर्ती सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा की। यह सुनकर दो देवताओं को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। वे ब्राह्माण का रूप बनाकर चक्रवर्ती के पास आए। देवताओं ने राजा को देखकर मस्तक झुकाया। राजा ने पूछा- 'पंडितजी ! आप क्यों आए हैं?" ब्राह्मण-रूप देवों ने कहा- ' हमने आपके रूप की प्रशंसा सुनी अतः देखने आए हैं। चक्रवर्ती ने सगर्व कहा - 'जब मैं स्नान कर, आभूषण पहनकर सभा मंडप में बैठूं तब आप मेरा रूप देखना ।'
चक्रवर्ती सनत्कुमार स्नान से निवृत्त हो अनेक आभूषणों से सुसज्जित होकर सिंहासन पर बैठे और ब्राह्मण देवों की ओर देखने लगे। उन्होंने सोचा, अब ये शायद मेरी प्रशंसा करेंगे। ब्राह्मण रूप देव बोले- 'पहले आपका शरीर सुन्दर और अमृतमय था । अब विषमय बन गया है। सारा शरीर कीड़ों से व्याप्त हो गया है। आप पात्र में थूक कर देखें।' चक्रवर्ती ने थूका । उस पर मक्खियां बैठते ही मर गयीं। इस घटना से चक्रवर्ती का अभिमान टूट गया। वे विरक्त होकर प्रब्रजित हो गए। कालान्तर में उनके शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हो गए। वे उन्हें समभाव से सहने लगे।
एक देव वैद्य के रूप में चिकित्सा के लिए आया। मुनि सनत्कुमार ने कहा- 'वैद्यराज ! आत्मा को अरुज करने में लगा हूं। शरीर का रोग तो मैं भी मिटा सकता हूं।' ऐसा कहकर उन्होंने अंगुलि पर थूक लगाया। कुष्ठ रोग से गलित अंगुलि कंचन के समान चमकने लगी । देव वैद्य आश्चर्यचकित रह गया ।
१. दशनि. १५८, अचू.पू. ५२, २६ से २९ तक की कथाओं का निर्देश आगे अनुवाद वाले टिप्पण में नहीं दिया है अत: क्रमांक में इन्हें सबसे अन्त में दिया है।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
४८९
मुनि सनत्कुमार अनेक लब्धियों से सम्पन्न थे। परन्तु उन्होंने अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उनका उपयोग नहीं किया। वे सात सौ वर्षों तक रोगों की असह्य वेदना को समभावपूर्वक सहते हुए अंत में निर्वाण को प्राप्त हो गए।
2. क्षुधापरीवह
उज्जयिनी नगरी में हस्तिमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी अत्यन्त प्रिय पत्नी का अकाल में वियोग हो गया। उसके हस्तिभूति नामक एक पुत्र था। पत्नी का वियोग होने पर संसार की नश्वरता देखकर दोनों पिता-पुत्र प्रद्रजित हो गए।
एक बार उन्होंने साधुओं के साथ उर्जायनी से भोगकट नगरी की ओर प्रस्थान किया। अटवी के मध्य पिता हस्तिमित्र के पैर में तीक्ष्ण कोल लगी। वेदना के कारण एक कदम चलना भी उनके लिए शक्य नहीं था। मनि ने अन्य साधओं को कहा- 'मैं तो अभी पैर की पीडा से पीडित हूं अतः चलने में असमर्थ हूं। लेकिन तुम सब लोग अटवी को पार कर यहां से चले जाओ। मेरे साथ रहने से भूख-प्यास से पीड़ित हो जाओगे तथा मारणांतिक कष्ट भी आ सकते हैं। मैं अब यहां भक्तप्रत्याख्यान कर पंडित-मरण की आराधना करूंगा।' साधुओं ने कहा-'आप विषाद न करें, हम आपको सेवा करेंगे क्योंकि ग्लान की सेवा करना निर्गन्ध-प्रवचन में सबसे बड़ा धर्म है।' मुनि हस्तिमित्र ने पुन: कहा-'मैं तो अवस्था प्राप्त हूं अतः तुम मेरे पीछे व्यर्थ ही कष्ट मत उठाओ।' ऐसा कहकर उसने सबसे क्षमायाचना की और गिरि कंदरा में एकान्त स्थान पर अनशन स्वीकार कर लिया। अन्य सभी साधुओं ने आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। हस्तिमित्र मुनि का पुत्र हस्तिभूति अपने पिता की सेवा में रहना चाहता था, लेकिन दूसरे साधु उसे बलपूर्वक अपने साथ ले गए।
___ कुछ दूर जाकर छोटा मुनि साधुओं को विश्वास दिलाकर लौट आया। वह पिता के पास गया। अपने पुत्र को देखकर पिता ने पूछा-'वत्स! तुम यहां वापिस क्यों आए? यहां रहने से तुम्हें भूख-प्यास की असह्य वेदना सहन करनी पड़ेगी।' भूख-प्यास की तीव्र वेदना से हस्तिमित्र मुनि का अनशन उसी दिन सम्पन्न हो गया। क्षुल्लक मुनि यह नहीं जान सका कि पिता मुनि की मृत्यु हो गई है।
मुनि मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और सोचा कि मैंने क्या दान किया है और कौनसा तप तपा है? अवधि का प्रयोग करते-करते उन्होंने अपना मृत कलेवर और उसके पास बैठे पुत्र को देखा। अनुकंपावश देव अपने कलेवर में प्रवेश कर पुत्र से बोला-'वत्स! अब भिक्षा के लिए जाओ।' बाल मुनि ने जिज्ञासा की-मुनिवर ! यहां भिक्षा के लिए कहां जाऊं? यहां तो कोई घर भी नहीं है।' देव रूप मुनि ने कहा-'यहां धव और न्यग्रोध के वृक्ष हैं। यहां वृक्षों पर रहने वाले भोजन पकाते हैं। वे तुम्हें भिक्षा देंगे।' अपने पिता की बात सुनकर वह वृक्ष के पास गया और वहां धर्म-लाभ दिया। उसी समब वृक्ष से सुसज्जित एक हाथ निकला और उसने मुनि को भिक्ष दी। इस प्रकार वह बालमुनि प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करने लगा।
१. उनि.८५, उशांटी, प. ७८ ।
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नियुक्तिपंचक
दूसरे वर्ष वे सभी साधु दुर्भिक्ष होने के कारण पुन: उज्जयिनी नगरी की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में वही अटवी पुनः आयी। साधुओं ने उस बालमुनि को देखा और सारी स्थिति की अवगति चाही। मुनि हस्तिभूति ने कहा-'मेरे पिता भी अभी तक जीवित है। वे उस कंदरा में हैं।' साधु वहां पहुंचे। उनका शुष्क शरीर देखा। मुनियों ने जान लिया कि स्वर्गस्थ मुनि ने देव होकर मोहानुकम्पा से पुनः इस शरीर में प्रवेश किया है। वे साधु उस बाल मुनि को अपने साथ ले गए। देवता भी अपने स्थान पर वापिस चला गया। ३. पिपासा परीषह
उज्जैनी नगरी में धनमित्र नामक वणिक् रहता था। उसके आठ वर्ष के पुत्र का नाम धनशर्मा था। अपने पुत्र के साथ धनमित्र दीक्षित हो गया। एक बार वे दोनों मुनि अन्यान्य मुनियों के साथ मध्याह्र में विहार कर एडकाक्षपथ की ओर जा रहे थे। मार्ग में लल्लक मुनि को णास लागी। यह प्यास से व्याकुल हो गया और धीरे-धीरे चलने लगा। उसका पिता धनमित्र मुनि पीछे से आ रहा था। अन्य मुनि आगे चले गए। विहार के बीच एक नदी आयी। धनमित्र ने पुत्रानुराग से कहा-'आओ वत्स! यहां पानी पी लो फिर प्रायश्चित्त कर लेना।' यह मेरे सामने पानी पीने में संकोच कर रहा है। यदि मैं दूर चला जाऊं तो यह पानी पी लेगा।' ऐसा सोच धनमित्र ने नदी पार कर ली।
- एकान्त पाकर वह छोटा मुनि नदी के पास गया। पानी से अंजलि भर ली। उसी समय उसने चिंतन किया--'मैं असंख्य जीवों से युक्त यह पानी कैसे पी सकता हूं? इससे कितने जीवों को कष्ट होगा? जिनेश्वर भगवान् ने एक बूंद पानी में असंख्य जीव बताए हैं। यह सोचकर बालमुनि ने दृढ़ वैराग्य भाव से पानी नहीं पीया । अत्यधिक प्यास के कारण वह बालमुनि शुभ अध्यवसायों से वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गया। देवगति में उत्पन्न होकर उसने अपना पूर्वभव तथा मृत शरीर को देखा। उसमें प्रविष्ट होकर वह अपने पिता मनि के पीछे-पीछे चलने लगा। पिता मानि भी उसे देख आश्वस्त हो गये।
उस देव ने समस्त प्यासे मुनियों की रक्षा के लिए अनुकंपावश वैक्रिय शक्ति से गोकुल की विकुर्वणा की। साधुओं ने वहां छाछ, दूध आदि ग्रहण किया। देव रूप बाल मुनि हर स्थान पर गोकुल की विकुर्वणा करने लगा। इस प्रकार वे सभी मुनि सुखपूर्वक जनपद के निकट पहुंच गए।
जनपद आने के अंतिम विहार के समय देव ने अपना परिचय कराने के लिए किसी साधु का आसन विस्मृत करवा दिया! एक साधु वहां वापिस आया। वहां उसने आसन तो देखा लेकिन गोकुल कहीं दिखाई नहीं दिया। वापिस आकर उसने सारी बात साधुओं को कही। साधुओं ने जाना कि यह देवकृत चमत्कार था। बाल मुनि देव रूप में प्रकट हुआ। उसने पिता को छोड़कर सबको वंदना की। साधुओं के द्वारा कारण पूछने पर उसने सारी घटना बतायी। देव ने कहा-'यदि मैं अपने पिता के कहने से पानी पी लेता तो अनन्त संसार में भ्रमण करता तथा विराधक बन जाता। इन्होंने मुझे सचित्त जल पीने की प्रेरणा दी इसलिए मैंने वंदना नहीं की।' ऐसा कहकर देव पुनः स्वर्गलोक चला गया। १. उनि.९०, उशांटी.प.८५, ८६, उसुटी.प. १८। २. उनि.११, उशांटी.प.८५, ८८, उसुटी.प. १९ ।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
४ शीत परीषह
राजगृह नगरी चार वणिक मित्र थे। वे बचपन से एक साथ खेले तथा बड़े हुए। एक बार भद्रबाहु स्वामी की देशना सुनकर चारों मित्र उनके पास दीक्षित हो गए। अनेक शास्त्रों का सम्यक अध्ययन करने के पश्चात् उन्होंने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की।
'ऋतु श्री । कड़ाके एक बार विहार करते हुए वे पुन: राजगृह नगरी में आए। इस समय हेमंत की सर्दी थी। चारों मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा लेकर पुनः वैभारगिरि पर्वत को ओर आने लगे। पहला मुनि जब गुफाद्वार तक पहुंचा तब चौथा प्रहर प्रारंभ हो गया, इसलिए वह वहीं प्रतिमा में स्थित हो गया। इसी प्रकार दूसरा मुनि उद्यान में तीसरा उद्यान के समीप, चौथा नगर के पास वे चारों मुनि प्रतिमा में स्थित हो गए।
गुफा के निकट ठहरे मुनि को अबाध शीत परीपह पीड़ित करता रहा। मुनि ने मेरु पर्वत की भांति दृढ़ मनोबल से उसे सहन किया और रात्रि के प्रथम प्रहर में ही स्वर्गस्थ हो गया। उद्यान में ठहरा मुनि शीत के कारण रात्रि के द्वितीय प्रहर में, उद्यान के समीप ठहरा मुनि रात्रि के तीसरे प्रहर में तथा नगर द्वार पर प्रतिमा में स्थित मुनि रात्रि के चौथे प्रहर में स्वर्गस्थ हुआ क्योंकि उसे नगर की उष्मा बचा रही थी। इस प्रकार चारों मुनि शीत परीवह को समतापूर्वक सहकर सद्गति को प्राप्त हुए।
५. उष्ण परीषह (अर्हन्नक)
तगरा नगरी में अर्हन्मित्र नामक आचार्य विहार कर रहे थे। एक बार दत्त नामक वणिक् अपनी पत्नी भट्टा तथा पुत्र अर्हन्नक के साथ आचार्य अर्हन्मित्र के पास दीक्षित हुआ । दत्त मुनि स्नेहवश अपने पुत्र को कभी भिक्षा के लिए नहीं भेजता था। आहार आदि के समय भी मन इच्छित आहार करवाता था। वह बालमुनि बहुत सुकुमार था लेकिन अन्य साधुओं को यह व्यवहार बहुत अखरता था। पर साधु कुछ कह नहीं सकते थे।
कालान्तर में दत्त मुनि स्वर्गस्थ हो गए। साधुओं ने दो तीन दिन बाद ही मुनि अर्हन्नक ऊपर, नीचे और को भिक्षा के लिए भेज दिया। सुकुमार होने के कारण ग्रीष्मऋतु के आतप से वे पार्श्व से झुलसने लगे। उस दिन वे प्यास से व्याकुल होकर छाया में विश्राम के लिए ठहरे। एक विरहिणी स्त्री ने उन्हें देखा। उसका पति परदेश गया हुआ था। | मुनि के सुकुमार और सुन्दर शरीर को देखकर वह स्त्री उसमें आसक्त हो गयी। स्त्री ने दासी द्वारा मुनि को ऊपर बुलाया। महिला ने पूछा- 'मुनिवर ! आपको क्या चाहिए?' 'मुनि ने उत्तर दिया- 'मुझे केवल भिक्षा चाहिए।' स्त्री ने भिक्षा में पर्याप्त लड्डू बहराए। पुनः उसने पूछा- आप इस दुष्कर व्रत का पालन क्यों करते हैं ? " मुनि ने सहजता से उत्तर दिया- 'सुख के लिए।' यह सुनकर स्त्री ने स्नेहयुक्त दृष्टि से मुनि को देखते हुए कहा- 'यदि सुख चाहते हो तो मेरे साथ रहो और भोगों का उपभोग करो। इस दुष्कर गर्मी से | व्याकुल मुनि चर्या का तो जीवन की अंतिम अवस्था में पालन कर लेना।' यह बात सुन श्रामण्य से च्युत हो गया। अब वह उस स्त्री के साथ भोग भोगने लगा। साधुओं ने सभी स्थानों पर १. उनि. ९२, उशांटी, प. ८९, उसुटी.प. २०१
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मुनि अर्हन्नक की खोज की लेकिन मुनि का कहीं पता नहीं चला क्योंकि वह गृहस्थ हो गया था। मुनि की माता साध्वी भट्टा पुत्र के शोक से व्याकुल हो गयी। वह अर्हन्नक- अर्हन्नक का विलाप करती हुई नगर के तिराहे-चौराहे में भ्रमण करने लगी। वह किसी भी व्यक्ति को देखती तो सबसे यही पूछती-'क्या तुमने अर्हन्नक को कहीं देखा है?' इस प्रकार विलाप करती हुई वह पागल की भांति इधर-उधर भ्रमण करने लगी।
एक बार उसके पुत्र अर्हन्नक ने गवाक्ष से अपनी माता को देखा। वह उसी समय नीचे उत्तरा और माता के चरणों में गिर पड़ा। वह बोला-'आपके कुल में कलंक लगाने वाला मैं आपका पुत्र अर्हन्नक हूं।' पुत्र को देखकर वह स्वस्थ हो गई। उसका चित्त शांत हो गया। उसने कहा-'पुत्र ! अब तुम पुनः दीक्षित हो जाओ। इस प्रकार दुर्गति में पड़कर जीवन बर्बाद मत करो। पुत्र ने कहा-'मां ! मैं अब संयम-पालन करने में असमर्थ हूं, परन्तु अनशन कर सकता हूं।' मां ने स्वीकृति देते हुए कहा-'असंयमो जीवन से अनशन करना अच्छा है। तुम असंयत होकर संसार-अटवी में परिभ्रमण करने वाले मत बनो।' तब अहंन्नक पादोपगमन अनशन स्वीकार कर एक तप्त शिला पर सो गया। मुहूर्त भर में उसका सुकुमार शरीर गर्मी से सूख गया। पहले अहंन्नक ने उष्ण परीषह को सहन नहीं किया, तत्पश्चात् उसने उसे समतापूर्वक सहन किया।
६. देशमशक परीषह
___ चम्पा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके युवराज का नाम सुमनभद्र था। धर्मघोष आचार्य के पास धर्म सुनकर वह कामभोगों से विरक्त होकर प्रवजित हो गया। युवराज सुमनभद्र ने दीक्षित होकर सूत्रों का अध्ययन किया और फिर दृढ़ मनोबल से एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर ली। एक बार वह अटवी में विहार कर रहा था। शरद ऋतु का समय था। वह अटवी में ही कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। रात्रि में मच्छरों का उपद्रव रहा। सारी रात मच्छर काटते रहे पर मुनि ने उनका निवारण नहीं किया। मच्छरों ने सारा रक्त चूस लिया। उसने मच्छर-दंश की पीड़ा को समभावपूर्वक सहा और उसी रात दिवंगत हो गया। ७. अचेल परीषह
दशपुर नगर में सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुद्रसोमा था। उसके दो पुत्र थे-आर्यरक्षित और फल्गुरक्षित । आर्यरक्षित पिता के कथनानुसार अध्ययन करने लगा। जब उसने देखा कि घर में अध्ययन करना संभव नहीं है, तब वह पाटलिपुत्र नगर में चला गया । उसने सांगोपांग चारों वेद पढ़े। जब उसका पारायण सम्पन्न हुआ तब वह शाखापारक विद्वान् बन गया। चौदह विद्यास्थानों को ग्रहण कर वह दशपुर नगर वापिस लौट आया। उसके पिता राजकुल के सेवक थे। आर्यरक्षित ने अपने आगमन की सूचना राजा को दे दी। राजा ने समस्त नगर को वजाओं से सजाया। राजा स्वयं उसकी अगवानी करने गया। उसको सत्कारित-सम्मानित किया और पारितोषिक दिया। नगरवासियों ने उसका अभिनंदन किया। वह हाथी पर आरूढ़ होकर अपने घर पहुंचा। वहां १. उनि.९३, उशाटी.प. ९०,९१ ठसुटी. प. २१॥ २ उनि,९४, उशांटी.प, ९२ उसुटी.ए. २२ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
भी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् के लोगों ने भावभीना स्वागत किया और पूजा-अर्चना की। उसका घर मित्रों, स्वजनों और उपहारों से भर गया। उसने इधर-उधर देखा। मां को वहां न देखकर वह सोधा घर के भीतर गया। मां ने उसे देखकर कहा-'पुत्र ! स्वागत है।' इतना कहकर वह मौन बैठ गई। आर्यरक्षित ने पूछा-'मां! क्या तुम मेरे अध्ययन से संतुष्ट नहीं हो? मैंने चौदह विद्यास्थानों को अधिगत कर लिया है। नगर मेरे अध्ययन से विस्मयाभिभूत है।' मां बोली-'पुत्र! मेरी तुष्टि कैसे हो? तुम अनेक जीवों को वधकारक विद्या सोखकर आये हो। इससे संसार का भ्रमण बढ़ता है इसलिए मुझे संतोष कैसे हो? क्या तुमने दृष्टिवाद का अध्ययन कर लिया?' 'मां के वचन सुनकर प्रार्यरक्षित ने सोचा-'वह दृष्टिवाद कितना बड़ा होगा? कितना ही बड़ा क्यों न हो, में उसे अवश्य पढ़ेगा, जिससे मां को संतोष हो सके । मुझे लोगों को संतुष्ट करने से क्या?' उसने मां से पूछा-'मां! यह दृष्टिवाद क्या है?' मां बोली-वह साधुओं का दृष्टिवाद है। यह सुनकर आर्यरक्षित उसके नक्षरार्थ का चिंतन करने लगा। उसने सोचा-'दृष्टियों का वाद है दृष्टिवाद । नाम सुन्दर है। यदि कोई मुझे इसका अध्ययन करायेगा तो मैं अवश्य अध्ययन करूंगा। माता भी संतुष्ट हो जाएगी। उसने न से पूछा-'मां ! कहां है दृष्टिवाद के ज्ञाता? मां बोली-'वत्स! अपने इक्षुगृह में आचार्य तोसलिपुत्र भाए हुए है। वे दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं।' आर्यरक्षित ने कहा-'मां! तुम उदासीन मत बनो। मैं कल ही दृष्टिवाद पढ़ने के लिए आचार्य के पास चला जाऊंगा।' वह सारी रात दृष्टिवाद शब्द के अर्थ का चिन्तन करता हुआ जागता रहा।
दूसरे दिन वह उषाकाल में ही घर से प्रस्थित हो गया। उसका एक प्रिय मित्र ब्राह्मण उपनगर में रहता था। जब उसने आर्यरक्षित के विद्याध्ययन कर घर लौटने की बात सनी तो वह उसका साक्षात् करने घर से निकल पड़ा। उसने सोचा-'कल मैं उसकी अभिवादन-सभा में नहीं नहुंच सका अत: आज मैं उसका साक्षात् करूं।' यह सोचकर अपने मित्र को उपहार देने के लिए नौ पूरे और एक आधा इक्षुदंड लेकर वह घर से निकला। दोनों आमने-सामने मिले। ब्राह्मण ने पूछा-'तुम कौन हो?' उसने कहा-'मैं आर्यरक्षित हूं।' तब ब्राह्मण ने अत्यन्त हर्ष से उसे गले लगाया और कहा-'स्वागत है, स्वागत है। मैं तुम्हें देखने के लिए ही आ रहा था।' आर्यरक्षित बोला-'आओ ! मैं अभी शरीर-चिंता से निवृत्त होकर आ रहा हूं। तुम ये इक्षुदंड माता को समर्पित कर देना और माता से यह कहना कि मैंने आर्यरक्षित को देखा है और मैं ही पहला व्यक्ति हूं आज उसे देखने वाला। वह ब्राह्मण अपने इक्षुदंडों के साथ आर्यरक्षित के घर गया। माता को इक्षुदंड समर्पित किए और सारा वृत्तांत बता दिया। मां बहत प्रसन्न हई। उसने सोचा-'मेरे पुत्र ने सुन्दर मंगलमय वस्तु देखी है। वह नौ पूर्व और उसका खंड ग्रहण कर सकेगा। आर्यरक्षित ने सोचा-'मैं दृष्टिवाद के नौ अध्ययन तथा दसवें का अंश ग्रहण कर सकूँगा 1 दसवां पूर्व पूरा ग्रहण नहीं कर पाऊंगा। वह वहां से इक्षुगृह के पास गया और सोचने लगा-'मैं यहां से अपरिचित हूं । क्या मैं अकेला ही चला जाऊं? यदि आचार्य का कोई श्रावक मिल जाए तो उसके साथ जाना अच्छा रहेगा-' यह सोच वह एक ओर ठहर गया।
वहां ढड्ढर नाम का एक श्रावक शरीरचिंता से मुक्त होकर उपाश्रय में जा रहा था। उसने दूरस्थित होकर तीन नैधिकी की। इसी प्रकार बाढ़स्वरों से 'इरिया' आदि की। आर्यरक्षित मेधावी
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था। उसने उस श्रावक को सारो क्रिया सीख ली। वह भी परिश्रम से भीतर गया और सभी साधुओं को वंदना की, पर ढड्ढर श्रावक को वंदना नहीं की। आचार्य ने देखा यह नया श्रावक आया है। आचार्य ने पूछा-'किसके साथ आए हो?' उसने कहा-'मैं इस श्रावक के साथ आया हं।' आचार्य ने साधुओं से कहा-'यह प्रावकपुत्र है और वही है जो कल हाथी पर आरूढ़ होकर आया था।' साधुओं ने पूछा-'तुम यहां कैसे आए हो?' आर्यरक्षित ने सारा वृत्तान्त सुनाया और कहा-'आर्यवर! मैं आपके पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने आया हूं।' आचार्य बोले-'यदि तुम मेरे पास प्रव्रज्या ग्रहण करो तो मैं तुम्हें अध्ययन करा सकूँगा।' आर्थरक्षित बोला-'जैसी आपकी आज्ञ।। मैं आपके पास दीक्षित हो जाऊंगा।' तब आचार्य ने कहा- 'मैं परिपाटी-क्रम से निश्चित काल में पढ़ाऊंगा।' उसने कहा-'मुझे यह स्वीकार हैं। परन्तु गुरुदेत । मैं गहरे पडजिा नहीं हो सकता। यहां का राजा और दूसरे लोग मेरे में अनुरक्त हैं । वे मुझे बलात् घर ले जायेंगे, इसलिए हम अन्यत्र कहीं चलें।'
. . आचार्य तब आरक्षित को साथ ले दूसरे गांव चले गए। यह उनके प्रथम शिष्य की निष्पत्ति थी। आर्यरक्षित ने दीक्षित होकर कुछ ही समय में ग्यारह अंग पढ़ लिए। उसने आचार्य तोसलिपुत्र के पास दृष्टिवाद का यह सारा अंश ग्रहण कर लिया जितना आचार्य को ज्ञात था। उसने सुना कि युगप्रधान आचार्य वज्र दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं, तन्त्र आर्यरक्षित आचार्य वज्र के पास जाने के लिए प्रस्थित हुआ। मार्ग में उज्जयिनी नगर आया। वहां वह स्थविर भद्रगुप्त के पास गया। उन्होंने उसे गले लगाकर कहा-'तुम धन्य हो, कृतार्थ हो। मैं अभी संलेखना कर रहा हूं। मेरा कोई निर्यामक नहीं है। तुम मेरे निर्यामक बनो।' आयंरक्षित ने स्वीकार कर लिया। स्थविर भद्रगुप्त मृत्युशय्या पर थे। वे बोले-'वत्स! 'तुम वज्रस्वामी के साथ मत रहना। किसी दूसरे उपाश्रय में रहकर अध्ययन करना क्योंकि जो व्यक्ति । एक रात भी वज्रस्वामी के साथ रह जाता है, वह मर जाता है।' आरक्षित ने यह बात मान ली। भद्रगुप्त के कालगत होने पर वह वज्रस्वामी के पास गया और उपाश्रय के बाहर ठहर गया।
वास्वामी ने उसी दिन स्वप्न देखा कि मेरा एक पात्र दूध से भरा हुआ है। एक आगंतुक आया और सारा दूध पीकर आश्वस्त हो गया, फिर भी कुछ दूध पात्र में अवशिष्ट रह गया। आचार्य ने अपने स्वप्न की बात साधुओं को बताई। वे सब परस्पर आलाप-संलाप करने लगे। आर्य वज्र - बोले-'तुम नहीं जानते आज मेरा नातीच्छिक आयेगा और वह कुछ न्यून दस पूर्व सीखेगा।' प्रात:काल होते ही आर्यरक्षित वहां आ पहुंचे। आचार्य ने पूछा-'कहां से आये हो?' आर्यरक्षित ने कहा-'आचार्य तोसलिपुत्र के पास से आया हूं।' आचार्य ने पुन: पूछा-'क्या तुम आर्यरक्षित हो?' उसने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया। आचार्य ने स्वागत करते हुए पूछा-'कहां ठहरे हो?' उसने कहा-'उपाश्रय से बाहर ठहरा हूं।' आचार्य बोले-'बाहर ठहरे व्यक्ति को अध्ययन कैसे . कराया जा सकता है क्या तुम यह नहीं जानते?' तब आर्यरक्षित बोले-'आर्य ! क्षमाश्रमण स्थविर. भद्रगुप्त ने मुझे कहा था कि तुम बाहर ही ठहरना। यह सुनकर आचार्य वन ने ज्ञान का उपयोग लगाया और जाना कि आचार्य किसी को कोई बात निष्कारण नहीं कहते। अच्छा, तुम बाहर ही ठहरो। आचार्य वन उसे वाचना देने लगे। कुछ ही समय में आयरक्षित ने नौ पूर्व पढ़ लिए। दसवां .
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पूर्व चल रहा था। तब आर्य वज्र ने एक दिन कहा-'इसके यधिक पढी। इस पूर्व का यही परिकर्म है। ये सूक्ष्म होते हैं।' आर्यरक्षित ने चौबीस यविक पढ़ लिए। आर्य वज्र उन्हें पढ़ाते रहे।
इधर आर्यरक्षित के माता-पिता उनके विरह से शोकाकुल हो गए। उन्होंने सोचा- 'आर्यरक्षित कहता था कि मैं उद्योत करूंगा परन्तु उसने अन्धकार कर दिया।' उन्होंने आर्यरक्षित को बुला भेजा, फिर भी वह नहीं आया। तब उन्होंने उसके अनुज फल्गरक्षित को भेजा। उसे कहा-'तुम जाओ, आर्य वज्र के पास जो भी जाता है, उसे वह प्रजित कर देता है।' फल्गुरक्षित को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह गया और प्रव्रजित होकर उनके पास पढ़ने लगा। आर्यरक्षित का अध्ययन चल रहा था। वह दसवें पूर्व की यविकाओं में अत्यन्त लीन था। एक दिन उसने आर्य वज्र से पूछा-'भगवन् ! दसर्वा पूर्व कितना अवशिष्ट रहा है?' आचार्य ने बिन्दु और समुद्र तथा सर्षप और मन्दर पर्वत का दृष्टान्त देते हुए कहा...' अभी तक तुमने बिन्दु मात्र ग्रहण किया है, समुद्र जितना शेष है। यह सुनकर वह विषादग्रस्त हो गया। उसने सोचा, मेरे में वह शक्ति कहां है कि मैं इस महासमुद्र का पार पा सकू?' वह आचार्य वज्र के पास जाकर बोला---'आर्य ! मैं जा रहा हूं, मेरा यह भाई फल्गुरक्षित आ गया है।' आचार्य बोले-'अधीर मत बनो। अध्ययन करते रहो।' किन्तु वह बार-बार एक ही प्रश्न पूछता रहा। तब आचार्य वज्र ने ज्ञानोपयोग से यह जाना कि मेरा आयुष्य थोड़ा ही शेष है। अाशित पुनः वाणिस शहां नहीं अागा आत : गेरे बाट दसवें पूर्व का उच्छेद हो जाएगा।
आचार्य की आज्ञा लेकर आर्यरक्षित दशपुर नगर में आ गया। उसने वहां माता, भार्या, भगिनी आदि सभी स्वजन वर्ग को दीक्षित कर दिया। जो वृद्ध पिता था, वह भी अनुरक्तिवशात् अपने प्रव्रजित स्वजनों के साथ रहने लगा। परन्तु लजावश उसने लिंग-मुनिवेश धारण नहीं किया। वह सोचता, 'मैं श्रमण कैसे बनें? यहां मेरे स्वजन हैं। मेरी बेटियां, पुत्रवधुएं, पौत्रियां आदि हैं। उनके समक्ष मैं नग्न कैसे रह सकता हूं?' वह गृहस्थ वेश में हो रहने लगा। अनेक मुनि और आचार्य उसे श्रमण बनने की बात कहते, तब वह वृद्ध कहता कि यदि मुझे युगल-वस्त्र, कमंडलु, छत्र,
कया जाए तो मैं प्रवजित हो सकता हूं, अन्यथा नहीं। आर्यरक्षित ने उसे उसी रूप में प्रजित कर दिया। उन्होंने सोचा कि चरणकरण का स्वाध्याय करते समय इसका निग्रह करना चाहिए। उन्होंने कहा-'ठीक है, तुम कटिवस्त्र धारण करो।' वह स्थविर बोला-'छत्र के बिना मैं रह नहीं सकता।' उन्होंने छत्र को अनुज्ञा दे दी। पुन: उसने अपनी मांग प्रस्तुत की-'पात्र के बिना मैं उच्चार-प्रस्रवण नहीं कर सकता।' उसे कमंडलु की भी आज्ञा मिल गई। मैं ब्राह्मणचिह्न-जनेऊ रखूगा।' आर्यरक्षित ने कहा- ठीक है।' इतना रखकर उसने अवशिष्ट का त्याग कर दिया।
एक बार आचार्य आर्यरक्षित चैत्य-वन्दन के लिए निकले। उन्होंने बालकों को यह सिखा दिया था कि वे इस प्रकार कहें-'हम सब बालक छत्रधारी मुनि को छोड़कर शेष सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि ने सोचा- ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वन्दनीय हैं, मैं कैसे अवन्दनीय रहूं?' वृद्ध ने उन बालकों से पूछा-'क्या मैं प्रजित नहीं हूं।' बालक बोले-'मुने ! क्या प्रव्रजित होने वाले जूते, कमंडलु, यज्ञोपवीत, छत्र आदि रखते हैं?' वृद्ध ने सोचा-'ये बालक
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मुझे लक्ष्य कर कह रहे हैं।' उसने तत्काल सभी वस्तुएं छोड़ने का निश्चय कर लिया। वह अपने पुत्र आचार्य आर्यरक्षित के पास गया और कहा--'मैं छत्र छोड़ दूंगा तो आतप में क्या करूंगा?' आचार्य बोले-'आतप में सिर पर कपड़ा डाल देना।' अगर कमंडलु छोड़ दूं तो? संज्ञाभूमि में पात्र ले जाते ही हैं। पुन: वृद्ध बोला-'मैं ब्राह्मण हूं अत: यज्ञोपवीत कैसे छोड़ दूं?' आचार्य ने समाधान दिया-'हम ब्राह्मण हैं, यह कौन नहीं जानता?' इस प्रकार उसने सभी वस्तुओं का परिहार कर डाला। इतने में बालक चिल्ला उठे–'कटिवस्त्रधारी मुनि को छोड़कर हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि रुष्ट होकर बोला--'तुम सभी मुझे वंदना मत करो। मुझे अन्य लोग वंदना करेंगे पर मैं यह कटिवस्त्र नहीं छोड़ेगा।'
एक बार वहीं एक मुनि भक्तप्रत्याख्यान कर कालगत हो गया। उसको निमित्त बनाकर आचार्य आर्यरक्षित ने उनका कटिवस्त्र उत्तरवाने के लिए कहा-'जो इस मृत मुनि का वहन करेगा, वह महान फल का आभागी होगा।' पूर्व प्रवजित मुनि बोले-'हम इसको वहन करेंगे।' वे सभी उपस्थित हुए। आचार्य ने कहा-'मेरा स्वजन -वर्ग निर्जरा का भागी न बने इसलिए तुम सब लोग इसको वहन करने के लिए कह रहे हो।' तब वृद्ध मुनि ने पूछा-'पुत्र ! क्या इसको वहन करने से बहुत निर्जरा होती है?' आचार्य ने उत्तर दिया- इसमें निर्जरा तो प्रत्यक्ष है, पूछना क्या है? तब स्थविर मुनि बोले-'मैं भी इसको वहन करूंगा।' आचार्य बोले-'इसमें उपसर्ग हो सकते हैं। बालक पीछे लग सकते हैं। यदि तुम इन उपसर्गों को सहन कर सको तो इसको वहम कर ले जाओ। यदि तुम सहन नहीं कर पाओगे तो अच्छा नहीं रहेगा।' इस प्रकार उसे स्थिर कर दिया।
वृद्ध साधु ने शव को उठाया। साधु आगे चल रहे थे। पीछे साध्वियां थीं । तब पूर्व योजना के अनुसार कुछ बालक आए और उस स्थविर मुनि का कटिवस्त्र खींच डाला। उसने लजावश मृतक को छोड़ना चाहा तब दूसरों ने कहा-'शव को बीच में मत छोड़ देना।' तब वृद्ध ने दूसरे कपडे से कटिवस्त्र बना डोरी से उसे बांध दिया। अब वह लज्जावश उसे वहन करते हुए सोचने लगा कि मार्ग में मुझे मेरी पुत्रवधुएं देखेंगी। यह उपसर्ग आया है' यह सोचकर उसने उसे सहन किया। फिर उसी अवस्था में उपाश्रय में आया। आचार्य ने पछा-'मने ! आज यह क्या?' तब वद्ध बोला-'पुत्र ! आज उपसर्ग आया था।' आचार्य ने कहा-'अच्छा, शाटक ले आओ।' वृद्ध बोला-'अब शाटक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब तो चोलपट्टक ही उचित रहेगा।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया। पहले उसने अचेल परीषह सहन नहीं किया, बाद में सहन किया। ८ अरति परीषह
__ अचलपुर नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसका पुत्र युवराज आचार्य राध के पास दीक्षित हुआ। एक बार वह विहार करता हुआ तगरा नगरी पहुंचा। उस समय आचार्य राध के स्वाध्याय अंतेवासी शिष्य आर्यराध श्रमण उज्जैनी में विहार कर रहे थे। राधश्रमण के कुछ शिष्य तगरा नगरी में आर्य राध के पास आए। आर्य राध ने आए हुए शिष्यों से पूछा- वहां कोई उपसर्ग १. उनि.९५-९८, उऑटो.प.१७,९८, उसुटी.प. २३-२५॥
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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तो नहीं है?' मुनियों ने उत्तर दिया-'भंते ! उज्जयिनी में राजपुत्र और पुरोहितपुत्र-दोनों मुनियों को बहुत कष्ट देते हैं।' आचार्य राय के प्रव्रजित युवराज शिष्य ने भी यह बात सुनी। उज्जयिनी का राजपुत्र उसका भतीजा था। उसने सोचा-'वह इस दुष्प्रवृत्ति से संसार में भ्रमण करेगा इसलिए उसे इससे मुक्त करना चाहिए।' यह सोचकर वह आचार्य से आज्ञा प्राप्त कर उन दोनों को प्रतिबोध देने के लिए उज्जयिनी की ओर प्रस्थित हो गया। वह उज्जयिनी पहुंचा। आचार्य राध श्रमण ने अतिथि मुनि का स्वागत किया। भिक्षा के समय वह भिक्षाचर्या के लिए तत्पर हुआ। आचार्य बोले'बैठो।' उसने कहा--'मझे उन दोनों प्रत्यनीकों का घर बता दें।' आचार्य ने एक क्षुल्लक को मुनि के साथ भेजा। क्षुल्लक ने उन दोनों का घर बता दिया। मुनि विश्वस्त होकर घर में प्रविष्ट हुए। वहां राज-परिजन विस्मित होकर खड़े हुए और मुनि को देखकर बोले-'मुने ! आप शीघ्र ही यहां से निकल जाइए अन्यथा कुमार आपकी हंसी करेंगे, अपमान करेंगे। मुनि ने नि:संकोच भाव से बाढस्वर में 'धर्मलाभ' का उच्चारण किया। राजपुत्र और मंत्रिपुत्र दोनों ने यह शब्द सुना। वे बोले'अहो ! आज हमारे अहोभा' कि तुम जैसे मुनि हमार घर आ गए। हमारी वंदना स्वीकार करो। 'मुने ! क्या तुम नाचना जानते हो?' मुनि बोले-'हां, मैं नाचना जानता हूं, तुम वाद्य बजाओ।' वे वाद्य बजाने लगे पर वे बजाना नहीं जानते थे। मुनि बोले-'ऐसे ही ढोंगी हो तुम, बजाना भी नहीं जानते।' वह सुनकर दोनों कुपित हो गए। वे दोनों उस पर प्रहार करने दौड़े। मुनि ने उन दोनों के शरीर के संधि-स्थलों को क्षुभित कर दिया। पहले उन दोनों की पिटाई की। पोटे जाने पर वे दोनों जोर-जोर से चिल्लाने लगे। अनेक परिजन इकट्ठे हो गए।
मुनि के जाने के बाद परिजनों ने देखा कि वे दोनों ने तो जीवित हैं और न मृत। उनकी दृष्टि स्थिर है। राजा को सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ। राजा ने दोनों को मुक्त कर दिया। फिर राजा अपनी सेना के साथ मुनियों के पास आया। वह मुनि भी एक ओर बैठा-बैठा आगमों का परावर्तन कर रहा था। राजा ने आचार्य के चरणों में प्रणिपात कर प्रार्थना के स्वरों में कहा-'भगवन् ! आप कृपा करें।' आचार्य बोले-'मैं कुछ भी नहीं जानता। यहां एक अतिथि मुनि आया है, संभव है यह उसी का काम हो।' राजा उस मनि के पास गया और उसे पहचान लिया। मनि ने ओजस्वी वाणी में राजा से कहा-'तुमको धिकार है। राजा होकर भी तुम अपने पुत्र पर अनुशासन नहीं कर सके ।' राजा अनुनय-विनय करने लगा। मनि ने कहा-'यदि दोनों प्रव्रजित हो जाएं तो मुक्त हो सकते हैं। यह सुनकर राजा और परोहित दोनों ने दीक्षा की अनुमति दे दी। जब दोनों स्वस्थ हो गए तो दीक्षा के बारे में पूछने पर वे सहर्ष तैयार हो गए। पहले उन दोनों का लोच किया फिर उनको मुक्त करके दीक्षित किया। दीक्षित होकर राजपुत्र शुद्धभाव से चारित्र पालन करने लगा। पुरोहितपुत्र को जाति का मद था। वह सोचता था कि हमें बलात् दीक्षित किया गया है। फिर भी संयम-जीवन यापन कर वे दोनों देवलोक में उत्पन्न हुए।
___उस समय कौशाम्बी नगरी में तापस नामक सेठ रहता था। वह मरकर अपने ही घर सूअर की योनि में उत्पा हुआ। शूकर के भव में उसे जातिस्मृति ज्ञान हो गया। सेठ के पुत्रों ने उसी दिन उस सूअर को मार दिया। वह पुनः अपने ही घर में सर्प के रूप में पैदा हुआ। सांप के भव में भी उसे जातिस्मृति ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। सांप किसी को डस न ले इसलिए उसे मार डाला गया।
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वहां से मरकर वह अपने ही पुत्र के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वहां भी जातिस्मृति होने से उसने सोचा-'मैं अपनी पुत्रवधू को मां तथा पुत्र को पिता कैसे कहूंगा?' यह सोचकर उसने मौनव्रत स्वीकार कर लिया। माता-पिता ने अनेक उपाय किए लेकिन वह नहीं बोला।
___ जब वह बड़ा हुआ तब चार ज्ञान के धनी स्थविर मुनि वहां आए। उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि यह संबुद्ध होगा। साधु उसके घर जाकर बोले-'तापस! इस मौन व्रत को स्वीकार करने से क्या? धर्म के रहस्य को समझकर उसे स्वीकार करो।' साधुओं की बात सुनकर वह विस्मित हो गया कि इन्होंने मेरे मन की बात कैसे जानी? उसने प्रणाम करके पूछा-'आपने यह कैसे जाना?' साधुओं ने कहा-'हमारे गुरु सब जानते हैं।' 'वह आचार्य के पास आया। उनके चरणों में वंदना की और श्रावकधर्म स्वीकार किया। उसका मूल नाम अशोकदत्त था लेकिन फिर मूक हो गया।
इधर पुरोहितपुत्र जो देवलोक में उत्पन्न हुआ था, उसने महाविदेह क्षेत्र में जाकर सीमधर स्वामी से पूछा-'मैं सुलभबोधि हूं या दुर्लभबोधि?' सीमंधर स्वामी ने उत्तर दिया-'तुम दुर्लभबोधि हो।' पुनः उसने पूछा-'मैं यहां से च्युत होकर कहां उत्पन्न होऊंगा?' भगवान् ने कहा-'कौशाम्बी नगरी में तुम मूक के भाई बनोगे। तुम्हारा वह मूक भाई दीक्षित हो जायेगा।'
वह देव भगवान् को वंदना कर मूक के पास गया। बहुत- सा धन देकर उसने मूक से कहा--'मैं देवलोक से च्युत होकर तुम्हारे भाई के रूप में उत्पन्न होऊंगा। उस समय माता को आम खाने का दोहद उत्पन्न होगा। मैंने अमुक पर्वत पर सदाबहार आम का वृक्ष आरोपित कर दिया है। तुम माता को कह देना कि तुम्हारे पुत्र होगा। यदि म दोहद के लिए आम मांगे तो तुम कहना कि यदि तुम उत्पन्न होने वाले पुत्र को मेरे साथ दीक्षित कर दोगी तो मैं आम ला दूंगा। मेरे जन्म के पश्चात् ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे मुझे धर्मबोध मिलता रहे तथा मैं संबुद्ध होता रहूं।' मूक ने यह बात स्वीकृत कर ली। देव भी संतुष्ट होकर वापिस चला गया।
कुछ समय पश्चात् वह देव (पुरोहित-पुत्र) वहां से मूक की माता के गर्भ में उत्पन्न हुआ। माता को अकाल में आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ। मूक ने सभी कार्य वैसा ही किया जैसा देव ने कहा था। समय आने पर बालक का जन्म हुआ। वह मूक अपने छोटे भाई को बचपन में ही. साधुओं के यहां वंदना करने ले जाता। साधुओं के चरणों में सिर रखने पर वह रोने लगता, वंदना नहीं करता। कुछ समय बाद संतों से प्रतिबोधित होकर परिश्रान्त और संतप्त मक ने दीक्षा ग्रहण कर ली। वह श्रामण्य का सम्यक् पालन करके देवलोक में उत्पन्न हुआ। देव ने अवधिज्ञान से भाई की अवस्था देखी तो प्रतिबोधित करने के लिए उसके पेट में जलोदर को व्याधि उत्पन्न कर दी। रोग के कारण वह उठ भी नहीं सकता था। सभी वैद्य उपचार करके हार गए।
कुछ समय बाद डोंब का रूप धारण कर वह देव वहां आया। डोंब ने घोषणा की-'मैं सभी रोगों को शांत कर सकता हूं।' तब यह दर्द से तड़फते हुए बोला-'मेरा उदर-रोग शांत कर दो।' देव रूप वैद्य ने कहा-'तुम्हारा रोग असाध्य है। यदि तुम मेरे साथ चलो तो तुम स्वस्थ हो सकते हो।' वह उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। वैद्य ने उसे शस्त्रों का थैला लेकर चलने
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
के लिए कहा। वह थैला देव-माया से धीरे-धीरे भारी होता गया। लेकिन वह उसे लेकर चलने लगा। रास्ते में उन्होंने कुछ साधुओं को पढ़ते हुए देखा। वैद्य ने कहा- 'यदि तुम दीक्षा ले लो तो तुम्हें इस भार से मुक्त कर सकता हूं, अन्यथा नहीं।' भार से खिन्न होकर उसने दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ समझा। उसने दीक्षा की स्वीकृति दे दी। उसी समय बालक ने मुनि के पास दीक्षा ले ली।
देव के चले जाने पर वह शीघ्र ही श्रामण्य से खिन्न हो गया और गृहस्थ बन गया । देव अभिज्ञान से देखा तो पुनः उसके उदर में जलोदर पैदा कर दिया और उसी उपाय से पुन: दीक्षित किया। इस प्रकार दो-तीन बार इसी उपाय से पुनः प्रतिबोधित किया। तीसरी बार वह मूक देव उसी के साथ रहने लगा ।
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एक बार देव ने दूसरा उपाय सोचा। विहार के समय देव ने मनुष्य की विक्रिया की और वह हाथ में घास का गट्ठर लेकर जलते हुए गांव में प्रवेश करने लगा। यह देखकर मुनि बोला- 'मूर्ख ! तुम तृणभार को साथ में लेकर जलते गांव में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' देव ने कहा- 'तुम मुझसे ज्यादा मूर्ख हो क्योंकि तुम क्रोध, मान, माया और लोभ से जलते हुए गृहवास में प्रविष्ट हो रहे हो ।' ऐसा कहने पर भी मुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ। कुछ समय बाद वे दोनों अटवी में एक साथ चल रहे थे। चलते-चलते वह देव मार्ग को छोड़कर अटवी के उत्पथ की ओर जाने लगा। मुनि ने कहा- 'अरे मूर्ख ! तुम मार्ग को छोड़कर कुमार्ग की ओर क्यों जा रहे हो?' देव ने मौका देखकर कहा-'मैं तो अज्ञानी हूं लेकिन तुम मुनि होकर मोक्ष मार्ग को छोड़कर संसार रूपी अटवी में क्यों प्रवेश कर रहे हो ?' ऐसा कहने पर भी भुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ।
पुनः प्रतिबोध देने के लिए देवता ने व्यंतर का रूप बनाया और देवकुल में ऊपर से नीचे गिरने लगा। यह देख मुनि बोला- 'आश्चर्य है यह व्यंतर देव कितना दुर्भाग्यशाली है जो ऊपर रहता हुआ भी बार-बार नीचे गिर रहा है।' व्यंतर देव ने व्यंग्य में कहा - 'तुम मुझसे भी ज्यादा दुर्भागी हो । मुनिपद के अर्चनीय स्थान को छोड़कर संयम से बार-बार स्खलित हो रहे हो ।' यह बात सुन मुनि ने पूछा- 'तुम कौन हो?" देवता ने अपना मूल मूक का रूप बनाया और पूर्वभव का सारा वृत्तान्त कहा। मुनि ने कहा- 'इसका क्या प्रमाण है कि पूर्वभव में मैं देव था।' विश्वास दिलाने के लिए देव उस मुनि को वैताद्य पर्वत पर ले गया। वहां सिद्धायतन कूट पर पहले ही संकेत चिह्न कर दिया था। वहां सिद्धायतन की पुष्करिणी में नामांकित कुंडल युगल दिखाए। अपने नामांकित कुंडल युगल को देखकर मुनि को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह संबुद्ध होकर पुन: दीक्षित हो गया। अब उसके मन में संयम में रति उत्पन्न हो गयी।
१०. स्त्री परीषह
प्राचीन काल में क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक नगर था। जब वह उजड़ गया तब चणकपुर नाम का नगर बसाया गया। उसके उजड़ने पर ऋषभपुर, फिर राजगृह, फिर चंपा और अन्त में पाटलिपुत्र
नगर बसाया गया।
१. उनि. ९९.१००, उशांटी.प. १००-१०३. उसुटी. प. २५-२७।
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नियुक्तिपंचक
पाटलिपुत्र नगर में नंद वंश का नौवां राजा नंद राज्य करता था। वहां कल्पक वंश में उत्पन्न चार बुद्धियों से युक्त शकडाल नाम का मंत्री था। उसके दो पुत्र थे-स्थूलिभद्र और श्रीयक। वहां वररुचि नामक एक भट्टपुत्र रहता था। वह प्रतिदिन प्रशंसावाचक १०८ श्लोकों से राजा की स्तुति करता था। राजा प्रसन्न हुआ। उसने अपने मंत्री शकडाल की ओर देखा लेकिन उसकी आंखों में प्रशंसा के भाव नहीं थे अत: राजा ने उसे पारितोषिक रूप में कुछ भी नहीं दिया। वररुचि ने इसका कारण जाना और शकडाल की पत्नी को कहा कि आप शकडाल को कहें कि वे मेरे द्वारा पढ़े हुए श्लोकों की राजा के सामने प्रशंसा करें। अनुकूलता देखकर पत्नी ने शकडाल से यह बात कही। शकडाल ने सोचा-'यह ठीक नहीं है, फिर भी पत्नी की बात मानकर शकड़ाल ने उसके पढ़े हुए श्लोकों पर ताली बजा दी। शकडाल को ताली बजाते देख राजा ने वररुचि को १०८ दीनारें पुरस्कार के रूप में दी। राजा प्रतिदिन उसे १०८ दीनारें देने लगा। शकडाल ने सोचा कि इस प्रकार प्रतिदिन दीनारें देने से राज्यकोष रिक्त हो जायेगा।
एक दिन शकडाल ने नंद से कहा- आप उसे प्रतिदिन इतको स्वर्ण-मुद्राएं क्यों दे रहे हैं?' राजा ने कहा-'तुमने ही तो प्रशंसा की थी।' शकडाल ने कहा-'यह लौकिक काव्य अस्खलित रूप से पढ़ता है इसलिए मैंने इसकी प्रशंसा की थी। राजा ने पूछा-'क्या ये लौकिक काव्य हैं?' शकडाल ने कहा- मेरी यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेणा, बेणा और रेणा-ये सातों पुत्रियां भी इस काव्य को पढ़ना जानती है । यक्षा एक बार सुनते ही ग्रहण कर लेती थी। यक्षदत्ता दो बार सुनकर किसी भी चीज को अस्खलित सुना देती थी। यावत् रेणा सात बार सुनकर सुना देती थी।
दूसरे दिन राजा ने अत:पुर में पर्दे के पीछे सातों कन्याओं को बिठा दिया । समय पर वररुचि आया और प्रशस्ति-श्लोक पढ़ने लगा। उसके बाद राजा के आदेश से यक्षा ने ये सारे श्लोक सुना दिए। इस प्रकार सातों कन्याओं ने क्रमश: वे श्लोक सुना दिए। राजा को विश्वास हो गया, अत: वररुचि को पुरस्कार देना बंद कर दिया। वररुचि ने दुःखी होकर एक उपाय सोचा । उसने एक यंत्र बनाया और गंगा नदी के बीच रख दिया। उसमें ८०० दीनारों की एक पोटली रखकर यह प्रचारित किया कि गंगा नदी मेरा स्तुति-पाठ सुनकर स्वर्णमय हाथों से ८०० दीनारें देती है। लोगों ने कई बार उस दृश्य को देखा। राजा के पास भी गंगा द्वारा दीनार दिए जाने की बात पहुंची। वररुचि गंगा स्नान कर उस यंत्र के पास खडा रहकर गंगा का स्तुतिपाठ करता और यंत्र को पैर से दबाता। इतने में ही एक कनकमय हाथ दीनारों की थैली लिए ऊपर उठता और वररुचि दीनारों की पोटली ले लेता। लोगों को यंत्र की बात ज्ञात नहीं थी। 'गंगा वररुचि को ८०० मुद्राएं देती है', राजा ने मंत्री को यह बात कही। शकडाल ने सोचा कि यह यंत्र के प्रयोग से ऐसा कर अपनी झूठी प्रशंसा कर रहा है। मंत्री ने राजा से कहा-'यदि मेरे सामने गंगा स्वर्णमुद्राएं देगी तो मैं विश्वास करूंगा।'
सन्ध्या के समय मंत्री ने अपने विश्वस्त व्यक्ति को प्रच्छन्न रूप से गंगा के तट पर भेजा। वररुचि स्नान करने आया और चारों ओर किसी व्यक्ति को न देखकर यंत्र में स्वर्णमुद्रा की पोटली रखकर अपने घर वापिस आ गया। वररुचि के लौट जाने पर व्यक्ति ने यंत्र से पोटली निकालकर मंत्री को दे दी। प्रातःकाल मंत्री के साथ राजा गंगा के किनारे आया। वररुचि ने गंगा की स्तुति की।
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शिष्ट : कथाएं
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जमने पैर से यंत्र को दबाया पर कुछ भी नहीं मिला। वह तिलमिला उठा। राजा ने उसके दंभ को देखकर उसकी भर्त्सना की। मंत्री ने लोगों के सामने वह पोटली दिखा दी और सायंकाल वाली सारी बात बता दी। लोगों ने भी उसका तिरस्कार किया। 'द्वेष को प्राप्त वररुचि मंत्री के दोषों को ढूंढ़ने लगा। वह पुनः राजा के पास आने-जाने लगा। राजा को मंत्री के दोष बताने लगा लेकिन राजा ने विश्वास नहीं किया।
एक बार श्रीयक के विवाह में राजा को भेंट देने के लिए तैयारी की जाने लगी। वररुचि ने एनपी से यह जानकः पिया किसी के जिला मोगा और अन्य सरंजाम किया जा रहा है। वररुचि ने सोचा कि यही अवसर है। उसने बच्चों को मोदक देकर यह गाथा याद कराई
रायनंदु न वि याणइ, जं सगडालु करेसइ। रायनंदुं मारेत्ता, सिरिय रजि ठवेसई ॥
'राजा नंद नहीं जानता कि यह शकडाल क्या करने वाला है? यह नंद को मारकर श्रीयक को राजा बनाएगा।' बच्चे गली-गली में यह गाथा गाने लगे। राजा ने यह सुना और खोज करवाई। 'शकडाल के यहां सारा सरंजाम है' यह जानकारी मिली। राजा कुपित हो गया। जैसे जैसे शकडाल राजा के पैरों में झुकने लगा वैसे-वैसे राजा और अधिक पराङ्मुख होता गया। उसका क्रोध शांत नहीं हुआ। शकडाल ने सोचा-'राजा का क्रोध अत्यंत अनियंत्रित, विकराल और अज्ञात है। इस क्रोध का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है? मेरे एक के वध से कुटुम्ब का वध रुक सकता है-यह चिंतन करके शकडाल अपने घर पहुंचा और राजा के अंगरक्षक अपने पुत्र श्रीयक से कहा-'संकट का समय उपस्थित हुआ है । उसका समाधान तथा राजा को विश्वास दिलाने का उपाय यह है कि जैसे ही मैं राजा के चरणों में प्रणाम करूं वैसे ही तुम तत्काल मेरा शिरच्छेद कर देना।' यह सुनकर श्रीयक रोने लगा। वह बोला-'क्या मैं कुल का क्षय करने के लिए उत्पन्न हुआ हूं जो आप मुझे ऐसा जघन्य कार्य करने का आदेश दे रहे हैं? अधिक क्या कहूं? आप राजा के समान मेरा शिरच्छेद कर डालें। कुल के ऊपर आए उपसर्ग के लिए मेरो बलि दे डालें।' मंत्री ने कहा-'तुम कुल का क्षय करने वाले नहीं, बल्कि कुल के क्षय का अंत करने वाले हो। मुझे मारे बिना तुम कुल-क्षय के अंतकर नहीं होओगे, इसलिए मेरे आदेश का पालन करो। श्रीयक ने कहा-'जो होगा वह देखा जाएगा लेकिन में गुरुस्थानीय पिता का वध नहीं करूंगा।' तब मंत्री ने कहा-'ठीक है, मैं स्वयं तालपुट विष खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा। फिर तुम मरे हुए मुझ पर खड्ग चला देना। 'बड़ों का वचन अलंघनीय होता है ' अत: तुम्हें यह कार्य करना होगा। यह समय आक्रन्दन करने का नहीं है। तुम संकट में पड़े कुल का उद्धार करो और मुझे अयश के कीचड़ से बाहर निकालो।'
श्रीयक ने सोचा-'मेरे जीवन में कैसा संकट उत्पन्न हुआ है। एक ओर गुरुवचन का उल्लंघन है और दूसरी ओर गुरु के शरीर का व्यापादन। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है कि मुझे क्या करना चाहिए। यदि मैं स्वयं का घात कर लूं फिर भी कुलक्षय और अयश तो वैसा ही रहेगा।' 'बड़ों के वचन अलंघमीय होते हैं ' ऐसा सोचकर उसने पिता की बात स्वीकार कर ली। श्रीयक राजा के पास गया। उसके पीछे-पीछे शकडाल आ गया। शकडाल को देखकर राजा ने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया। शकडाल ने राजा से बात करनी चाही पर राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
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नियुक्तिपंचक
शकडाल राजा के चरणों में गिर पड़ा। रोष से राजा ने अपना मुंह फेर लिया। मंत्री ने जैसे ही तालपुर विष मुंह में लिया श्रीयक ने अपने पिता शकडाल का शिरच्छेद कर दिया। सभा में हाहाकार मच गया। राजा ने कहा-'यह क्या किया?' श्रीयक ने कहा-'देव! यह आपकी आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले हैं इसीलिए चरणों में गिरने पर भी आप इन पर प्रसन्न नहीं हए। मैं राजा का अंगरक्षक हूं अत; जो राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह चाहे पिता ही क्यों न हो, मुझे नहीं चाहिए। आपने मुझे ऐसे स्थान पर नियुक्त किया है अत: मुझे यह करना पड़ा। राजा ने सोचा-'ऐसे निस्पृह लोगों के बारे में भी लोग अन्यथा सोचते हैं। निश्चित ही यह वररुचिकत प्रपंच है। ओह! मैंने कैसा अकार्य कर डाला जो शकडाल जैसे मंत्री की उपेक्षा करता रहा। अब मैं श्रीयक को मंत्रीपद पर स्थापित करूंगा। राजा बोला-'श्रीयक! विषाद मत करो। मैं तुम्हारे सारे कार्य संपादित करूंगा। इस प्रकार आश्वासन देकर राजकीय वैभव के साथ शकडाल का अग्नि-संस्कार किया गया।
शकडाल की मृत्यु के पश्चात् नंद ने श्रीयक को मंत्री-पद स्वीकार करने के लिए कहा। श्रीयक ने कहा-'मेरे बड़े भाई बारह वर्षों से कोशा के यहां हैं अत: पहले आप उनसे पद-ग्रहण करने के लिए कहें।' स्थूलिभद्र को मंत्रीपद देने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि मैं चिन्तन करूंगा । स्थूलिभद्र अशोक-वाटिका में जाकर चिंतन करने लगे। उन्होंने चिंतन किया कि ये कामभोग मूर्ख और विक्षिप्त व्यक्तियों के लिए हैं। इनसे व्यक्ति नरक की यातनाएं भोगता है। संसारअटवी में परिभ्रमण करता है। कामभोग आपातभद्र और परिणाम--विरस होते हैं। ऐसा सोचकर उसी समय पंचमुष्टि लोच कर वे प्रव्रजित हो गए और ओढ़े हुए कम्बल को फाड़कर उसका रजोहरण बना लिया।
दीक्षित होकर स्थूलिभद्र राजा के पास आए। राजा ने उनके चिन्तन की सराहना की। मुनि स्थूलिभद्र महल से बाहर जाने लगे। राजा के मन में शंका उभरी कि यह मुनि तो बन गया है पर वेश्या से मोह नहीं छूटा होगा अतः राजा ने प्रासाद के ऊपरी भाग पर चढ़कर देखा लेकिन स्थूलिभद्र तो पूर्ण विरक्त हो गए थे। वे चले जा रहे थे। रास्ते में एक मृत कलेवर पड़ा था। स्थूलिभद्र मुनि समभाव से उसके पास से गुजर गए। गजा ने सोचा कि लोग मृत कलेवर से दूर हटकर चल रहे हैं । अपने नाक को दंक रहे हैं पर स्थूलिभद्र मुनि समभाव से चल रहे हैं । निश्चित ही इनमें विरक्ति प्रगाढ़ हैं तब राजा ने छोटे भाई श्रीयक को मंत्री बना दिया। श्रीयक भाई के स्नेह से कोशा वेश्या के पास गया पर वह स्थूलिभद्र के अतिरिक्त किसी पर अनुरक्त नहीं हुई।
कोशा की छोटी बहिन का नाम उपकोशा था। वररुचि उसके साथ रहता था। श्रीयक वररुचि का छिद्रान्वेषण करने लगा। वह अपनी भोजाई कोशा से बोला-'इस वररुचि के कारण पिता की मृत्यु तथा भाई का वियोग हुआ है। तेरा भी स्थूलिभद्र से वियोग हो गया। अब तुम इसको कभी सुरापान कराना।' तब कोशा ने उपकोशा से कहा—'तुम सुरापान कर मत्त हो जाना। यह वररुचि अमत्त रहेगा। तुम मदिरा पिलाना चाहोगी फिर भी वह अयथार्थ प्रलाप करेगा। लेकिन तुम उसे सुर! पिला देना। दूसरे दिन उपकोशा ने उसे सुरा पिलाना चाहा। वररुचि ने आनाकानी की । वह बोली-'अब तुमसे मेरा क्या प्रयोजन?' तब वररुचि ने उसके वियोग को सहन न कर सकने के कारण उपकोशा
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
की इच्छा को बहुमान देते हुए चन्द्रप्रभ नामक सुरा पी ली। लोगों ने जाना कि यह दूध पी रहा है। कोशा ने सारा वृत्तांत श्रीयक को बता दिया।
एक बार राजा ने श्रीयक से कहा-'श्रीयक ! तुम्हारे पिता शकडाल मेरे बहुत हितैषी थे।' श्रीयक बोला-'हां, राजन् ! किन्तु इस मत्त वररुचि ने सारा अनर्थ कर डाला।' राजा बोला-'क्या वररुचि मद्यपान करता है?' श्रीयक बोला-हां। राजा ने पछा-कैसे ? श्रीयक बोला-'आप स्वयं उसे देखें।' इतने में ही वररुचि राजा के समक्ष आ गया। तब राजा ने एक व्यक्ति को मदनफल से भावित कमल पुष्य देकर कहा–'जाओ, यह पुष्प वररुचि को दे आओ और ये दूसरे फूल दूसरों को दे देना।' उस व्यक्ति ने सभा में आए वररुचि को पुष्प दे दिए। उसने उनको सुंघा। यह मद्यपान करता है, यह जानकर तिरस्कार करके उसे सभा से बाहर निकाल दिया। चतुर्वेद को जानने वाले ब्राह्मण ने उसको प्रायश्चित्त दिया। उसे गर्म शीशा पिलाया, जिससे वह मर गया।
स्थूलिभद्र मुनि सम्भूतविजयजी के पास दीक्षित हो गए। वहां घोर तपश्चर्या करने लगे। एक बार विहार करते हुए उनका संघ पाटलिपुत्र पहुंचा। वहां तीन साधुओं ने अभिग्रह स्वीकार किए। पहले साधु ने आचार्य को निवेदन किया कि मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताऊंगा। दूसरे ने सर्प की बांबी पर तथा तीसरे ने कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास करने की प्रतिज्ञा ली। स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करने की प्रार्थना की। आचार्य ने चारों को स्वीकृति प्रदान कर दी।
पहले साधु की साधना से सिंह उपशांत हो गया। दूसरे की साधना से दृष्टिविष सर्प शांत हो गया। तीसरे ने निर्भयता से कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास बिताया। स्थूलिभद्र को अपनी चित्रशाला में देखकर कोशा की प्रसन्नता का पार नहीं रहा। उसने सोचा-मुनि परीषह से पराजित होकर यहां आए हैं। कोशा वेश्या ने करबद्ध पूछा-'मैं आपको क्या सेवा करूं?' स्थूलिभद्र ने नीचे दृष्टि करके संयतवाणी में कहा--'मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास बिताना चाहता हूं अत: उद्यान में स्थान की अनुमति दो।' उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने उद्यान में स्थान की व्यवस्था कर दी। रात्रि में कोशा सोलह शृंगार कर उद्यान में मुनि के पास आयो । अनेक प्रकार के हावभाव से मुनि को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया लेकिन मुनि स्थूलिभद्र मेरु की भांति अपने संयम में अप्रकंप रहे । मुनि ने कल्याण की भावना से धर्म-वार्ता सुनायी। धर्म सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गयी तथा उसने श्रावक-व्रत स्वीकार कर लिए। उसने संकल्प लिया कि राजाज्ञा के अतिरिक्त पैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगी।
चार महीनों का उपवास कर सिंह गुफावासी मुनि आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य ने कुछ उठकर कहा-'स्वागत है दुष्कर कार्य संपादित करने वाले तम्हारा और सर्प की बांबी पर चातर्मास सम्पन्न कर आए मुनि का।' जब स्थूलिभद्र चातुर्मास सम्पन्न करके आए तब आचार्य ससंभ्रम उठे
और बोले- स्वागत है, स्वागत है, अति दुष्कर अति दुष्कर कार्य सम्पन्न करने वाले तुम्हारा !' उन मुनियों ने जब यह देखा तो सोचा कि आचार्य का मुनि स्थूलिभद्र पर अमात्य-पुत्र होने के कारण अधिक स्नेह है इसीलिए इसका इतना स्वागत किया है। आचार्य ने पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है। १. नियुक्तिगाथा तथा शान्त्याचार्य टीका में कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास करने वाले मुनि की बात नहीं है। केवल
चूणि में यह प्रसंग मिलता है।
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५०४
नियुक्तिपंचक
दूसरे वर्ष चातुर्मास के लिए सिंहगुफावासो मुनि ने आचार्य से निवेदन किया कि इस वर्ष मैं कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करना चाहता हूं । आचार्य ने ज्ञान द्वारा मुनि का भविष्य देखा इसलिए उसे बहुत मना किया। लेकिन मुनि आचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर कोशा वेश्या के यहां गया। वहां उसने चातुर्मास व्यतीत करने की आज्ञा मांगी। वेश्या ने स्वीकृति दे दी।
कोशा बिना श्रृंगार के भी नैसर्गिक रूप से बहुत रूपवती थी। कुछ ही दिनों में मुनि उसके अप्रतिम सौन्दर्य पर आसक्त हो गया। कोशा ने अपने अनुभवों से मुनि की आंतरिक इच्छा को जान लिया लेकिन वह श्राविका बन चुकी थी। मुनि के द्वारा भोगों की प्रार्थना किए जाने पर कोशा ने कहा-'इसके बदले तुम मुझे क्या दोगे?' मुनि ने कहा-'मैं तुम्हें क्या दूं?' वेश्या बोली-'शतसहस्र दें। अब मनि शतसहस्र (लाख मद्राएं) प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। कोशा ने कहा-'नेपाल देश का राजा श्रावक है। उसके पास जो व्यक्ति सर्वप्रथम पहुंच जाता है,उसे वह सवा लाख रुपयों के मूल्य वाला कम्बल देता है । वह कम्बल मुझे लाकर दो तो तुम्हारी प्रार्थना पर सोच सकती हूं।'
मुनि कम्बल के लिए नेपाल देश गया। श्रावक राजा ने उसे शतसहस्र मूल्य वाला कम्बल दिया। कम्बल प्राप्त करके पुन: कोशा के पास आने के लिए उसने नेपाल देश से प्रस्थान किया। चलते-चलते एक स्थान पर चोरों की पल्ली आयी। चोरों ने वहां मार्ग अवरुद्ध कर रखा था। एक पक्षी अपनी सांकेतिक भाषा में बोला-'यह व्यक्ति सवा लाख मूल्य की वस्तु लेकर जा रहा है। सेनापति बाहर आया लेकिन मुनि को देखकर वापिस लौट गया। पक्षी की आवाज पुनः सुनकर सेनापति मुनि के पास आया। मुनि ने चोर सेनापति को यथार्थ बात बता दी। सारी बात सुनकर सेनापति ने मुनि को छोड़ दिया।
मुनि कोशा के पास आया और बहुमूल्य कम्बल उसके हाथों में थमा दिया। कोशा ने कंबल से पैर पोंछकर उसे नाली में डाल दिया। यह देखकर मुनि ने कहा-'यह इतना क्रीमती कम्बल है, इसे मैं कितने परिश्रम से लाया हूं? लेकिन तुमने इसका नाश कर डाला।' अवसर देखकर कोशा ने कहा-'मुनिवर ! आप भी तो ऐसा ही कार्य कर रहे हैं। संयम-रत्न को छोड़कर काम- भोग रूपी कीचड़ में फंसना चाह रहे हैं।' समय पर दी गई वाणी की चोट से मुनि की धार्मिक चेतना जाग गयी। मुनि आचार्य के पास आए और आलोचना कर, प्रायश्चित्त ले शुद्ध होकर विहार करने लगे। आचार्य ने अनुशासना देते हुए कहा-'व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीड़ा दे सकते हैं पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र को खण्डित करने में समर्थ नहीं हैं। मुनि स्थूलिभद्र ने सचमुच दुष्कर-महादुष्कर कार्य किया है क्योंकि पहले इसका गणिका के प्रति बहुत अनुराग था। अब वह श्राविका बन चुकी है।' आचार्य ने उस मुनि को उपालम्भ देते हुए कहा-'तुमने दोषों की अवगति प्राप्त किए बिना यह उपक्रम किया, यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर नहीं था।" ११. चर्या परीषह
कोल्लकर (कोल्लाक) नामक नगर में संगम नामक बहुश्रुत आचार्य विहार कर रहे थे। उस नगर में दुर्भिक्ष का प्रकोप हो गया। आचार्य का जंघाबल क्षीण हो गया था अतः वे अन्यत्र विहार
१. उनि.१०१-१०६, उशांटी.प. १०५-१०७, उसुटी.प.२८-३१ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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करने में असमर्थ थे। उन्होंने सिंह नामक शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बना सुभिक्ष में विहार करने का आदेश दे दिया। वे उसी नगर के नौ भाग करके वहां भी मासकल्प से विहार करते थे। इस प्रकार वहां विहार करते हुए आचार्य को बारह वर्ष बीत गए । उनको साधना से प्रभावित होकर नगरदेवी उनकी सेवा में ही रहती थी।
उत्तराधिकारी सिंह मुनि ने दत्त नामक शिष्य को सुखसाता पूछने के लिए भेजा 1 वह शिष्य आचार्य के पास आया । दत्त मुनि ने सोचा कि आचार्य यहां नित्यत्रास करते हैं अत: इनके साथ रहने में दोष होगा यह सोचकर वह उपाश्रय के बाहर उहरा और बिना भक्ति-बहुमान के बंदना की। भिक्षा के समय वह आचार्य के साथ गया। दुष्काल के कारण अज्ञात उंछ से यथेप्सित आहार प्राप्त नहीं हुआ। वह मन ही मन विक्षुब्ध हो गया। उसने सोचा-'आचार्य मुझे सामान्य घरों में ले जा रहे हैं इसलिए आहार नहीं मिल रहा है। गुरु ने ज्ञान से शिष्य के मन की बात जान ली।
शिष्य को संक्लेश से बचाने हेतु दोनों एक श्रेष्ठि के यहां गए। वहां व्यंतर देवी के प्रभाव से उनका बच्चा छह महीने से निरंतर रो रहा था। उसे देखकर आचार्य ने चुटकी बजाकर कहा-'तुम मत रोओ।' इतना कहने मात्र से बालक व्यंतर के प्रभाव से मुक्त हो गया। पारिवारिक लोगों ने प्रसन्न मनसेयसित साहार दिवाकर आसमाने शिष्य को दे दिया। वे स्वयं बहुत समय तक घूमकर अंत-प्रांत भोजन लेकर आए। शिष्य ने सोचा कि गुरु ने मुझे तो केवल एक ही घर बताया है अन्य घरों में तो वे स्वयं गए हैं।
संध्या के समय में प्रतिक्रमण के समय गरु ने दत्त से कहा-'वत्स! आज आहार की आलोचना करो।' दत्त ने कहा–'मुझे कोई बात याद नहीं जिसकी आलोचना करूं।' गुरु ने कहा-'शिष्य ! आज तुमने धात्रीपिंड आहार ग्रहण किया है।' शिष्य कुपित हो गया और उसने दोष की आलोचना नहीं की। उसने गुरु से कहा कि आप सूक्ष्मता से अपने दोषों की आलोचना करें। यह कहकर क्रोधावेश में वह अपने स्थान पर चला गया। यह गुरु की अवहेलना करता है इसलिए उसको सम्यक प्रतिबोध देने के लिए देवता ने अर्धरात्रि में अंधकार और भयंकर जल-वर्षा प्रारम्भ कर दी।
शिष्य ठंडी वायु से क्षुब्ध हो गया। उसने आचार्य को आवाज दी। आचार्य ने वत्सलता से कहा-'शिष्य ! यहां आ जाओ।' लेकिन उसे अंधकार में कुछ दिखाई नहीं दिया। दत्त ने कहामुझे अंधकार के अलावा कुछ नहीं दिखता है । आचार्य ने अपनी अंगुली दिखाई। वह दीप की भांति प्रकाशित हो रही थी। शिष्य ने सोचा-'आचार्य दीपक भी रखते हैं।' उसके ऐसा चिंतन करने पर देवता ने उसकी भर्त्सना की। भयभीत होकर वह आचार्य के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना की। गुरु ने उसे नगर के नौ भागों की बात बताई। सारी बात सुनकर शिष्य को पश्चात्ताप हुआ। उसने गुरु से अपने दोषों की आलोचना की तथा स्वयं को शुद्ध कर लिया।
१२. निषीधिका परीषह
हस्तिनापुर नगर में कुरुदत्त नामक श्रेष्ठीपुत्र था। वह सर्वगुणसम्पन्न आचार्य के पास दीक्षित हो गया। एक बार कुरुदत्त मुनि एकलविहारप्रतिमा स्वीकार कर साकेत नगर में सभवसृत हुए। अन्तिम
१. उनि.१०७, उशांटी.प.१०८, उसुटी.प.३२।
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नियुक्तिपंचक
प्रहर में मुनि चौराहे पर प्रतिमा में स्थित थे। उस समय गायों को चुराकर कोई व्यक्ति उधर से गुजरा। गायों को खोजते हुए व्यक्ति वहां आए। उन्होंने मुनि को देखा । वहां से दो मार्ग जाते थे। वे मार्ग नहीं जानते थे। उन्होंने मुनि से पूछा-'चोर किस रास्ते से गए हैं?' मुनि ने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। उत्तर न पाकर वे कुपित हो गए। वे मुनि के सिर पर मिट्टी की पाल बांधकर उसमें जलती हुई चिता के अंगारों को रख कर चले गए। मुनि ने समभाव पूर्वक उस परीषह को सहन किया।
१३. शय्या परीषह
कौशाम्बी नगरी में यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण था। उसके सोमदत्त और सोमदेव नामक दो पुत्र थे। दोनों भाई संसार के कामभोगों से विरक्त होकर सोमभूति आचार्य के पास दीक्षित हो गए। वे बहुश्रुत और अनेक आगमों के ज्ञाता बन गए।
एक बार वे दोनों ज्ञाति लोगों की बस्ती में गए। उज्जयिनी नगरी में उनके माता-पिता रहते थे। एक बार वे वहां भिक्षा के लिए गए। वहां के ब्राह्मण मद्यपान करते थे। उन्होंने अन्य द्रव्य में मदिरा मिलाकर उन मुनियों को भिक्षा दी। अजानकारी में पानी समझकर वह शराब उन्होंने पी ली। शराब का नशा उन पर छाने लगा। बाद में उन्होंने चिंतन किया--'अहो! यह हमने अकृत्य का आसेवन किया है। हमने बहुत बड़ा प्रमाद किया है अत: प्रायश्चित्त स्वरूप अब भक्त प्रत्याख्यान करना ही श्रेष्ठ होगा।' दोनों ने नदी के किनारे एक काष्ठ पर भक्त प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन संथारा स्वीकार कर लिया। वहां अकाल में ही वर्षा प्रारम्भ हो गयी। नदी में बाढ़ आने से वे पानी में बहते हुए समुद्र में चले गए। कष्ट आने पर वे मानसिक रूप से भी विचलित नहीं हुए। दोनों मुनियों ने सम्यक् प्रकार से शय्या परीषह को सहन किया। १४. आक्रोश परीषह (अर्जुनमाली)
राजगृह नगरी में अर्जुन नामक माली रहता था। उसकी पत्नी का नाम स्कन्दश्री था। राजगृह नगर के बाहर मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर था। अर्जुनमाली को यक्ष पर प्रगाढ़ आस्था थी। वह कुलदेवता के रूप में उसकी पूजा करता था। माली के उद्यान के रास्ते में हो यक्ष का मंदिर था। अर्जुन प्रतिदिन ताजे फूल लाकर यक्ष की पूजा करने जाया करता था।
एक दिन स्कन्द श्री अपने पति को भोजन देने गयी। आते समय फूलों को लेकर वह घर जा रही थी। रास्ते में मंदिर में छह कामी पुरुषों ने स्कन्दश्री को देखा। वे उसके रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गए। उन्होंने सोचा, यह भोग भोगने के लिए उपयुक्त है, ऐसा सोचकर उसे पकड़ लिया और यक्ष की मूर्ति के सामने ही उसके साथ भोग भोगने लगे।
कुछ समय बाद अर्जुनमाली प्रतिदिन की भांति ताजे फूलों को लेकर यक्ष की अर्चना करने आया। अपने पति को देखकर उसने कहा-'मेरा पति आ रहा है। क्या तुम मुझे छोड़ दोगे?' कामी पुरुषों ने उसके मानसिक अभिप्राय को जानकर कहा-'हम अभी उसको रस्सी से बांध देंगे। तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।' उन लोगों ने अर्जुनमाली को रस्सी से बांध दिया। उसके सामने १. उनि.१०८, उशाटी.प. १०९, ११०, उसुटी.प. ३३। २. उनि,१०९, ११० उशांटी.प. १११, उसुटी.प. ३४ ।
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ही वे लोग उसकी पत्नी के साथ दुराचार करने लगे। स्कन्दश्री पति को उत्तेजित करने के लिए मोहोत्पादक स्त्री शब्दों में विलाप करने लगी।
अर्जुनमाली यह घृणित दृश्य देख नहीं सका। उसकी आत्मा विद्रोह करने लगी। उसने चिंतन किया-'मैं प्रतिदिन ताजे फूलों से यक्ष की पूजा-अर्चना करता हूं लेकिन फिर भी मैं इसके सामने इतना क्लेश और पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ। यदि यक्ष में कोई शक्ति होती तो इतना क्लेश नहीं पाता। आज यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह केवल काट की मूर्ति है, मुद्गरपाणी यक्ष की मूर्ति नहीं है।' इन शब्दों को सुनकर यक्ष ने अनुकम्मावश उसके शरीर में प्रवेश कर लिया। यक्ष के प्रभाव से उसके सारे बंधन तड़-तड़ टूट गए। उसने लोहमय मुद्गर लेकर उन छहों पुरुषों तथा अपनी पत्नी को यमलोक पहुंचा दिया। अब वह प्रतिदिन छह पुरुष और एक स्त्री को मारने लगा। जब तक वह सात व्यक्तियों को नहीं मार देता, राजगृह नगर से बाहर नहीं निकलता था।
एक बार राजगृह नगरी में भगवान् महावीर समवसृत हुए। उस समय सुदर्शन भगवान् महावीर को बंदना करने निकला। रास्ते में अर्जुनमाली ने उसे देख लिया । वह सुदर्शन की ओर दौड़ा। सुदर्शन की दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। सुदर्शन ने अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण लेकर वहीं सागारिक अनशन लेकर कायोत्सर्ग कर लिया और नमस्कार मंत्र का जाप करने लगा। अर्जुनमाली बहुत परिश्रम करके भी सुदर्शन का अनिष्ट नहीं कर सका। वह उसके चारों ओर घूमता हुआ परिश्रान्त हो गया। वह उस विशिष्ट पुरुष को अनिमेष दृष्टि से देखने लगा। यक्ष अर्जुन के शरीर से निकल मुद्गर लेकर अपने स्थान पर शौट गया। अर्जुनवानी नही मिना गिर पड़ा। सुदर्शन ने स्नेह-पूर्वक उसे उठाया और पूछा-तुम कहां जा रहे हो? सुदर्शन ने कहा-'भगवान् महावीर को वंदना करने जा रहा हूं।' अर्जुनमाली भी उसके साथ भगवान् को वंदना करने गया। महावीर के मुख से देशना सुनकर वह वहीं प्रवजित हो गया। जब वह भिक्षा के लिए घूमता तब लोग कहते-'यह हमारे स्वजन का घातक है। इस प्रकार वह अनेक प्रकार से तिरस्कृत होता। लेकिन मुनि अर्जुनमाली ने समतापूर्वक आक्रोश वचन सहन किए और कैवल्य प्राप्त कर लिया। १५. वध परीषद (स्कन्दक)
श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी धारिणी तथा युवराज स्कन्दक था। राजा की पुत्री का नाम पुरंदरयशा था। उसका विवाह कुंभकारकट नगर में दंडकी राजा के साथ किया गया। दंडकी राजा के पुरोहित का नाम पालक था। एक बार श्रावस्ती नगरी में मुनि सुव्रतस्वामी पधारे । उनके समवसरण में अनेक व्यक्ति उपस्थित हुए। स्कन्दक भी देशना सुनने गया। धर्मवार्ता सुनकर उसने श्रावक व्रत स्वीकार कर लिये।
एक बार पालक पुरोहित दूत के रूप में श्रावस्ती नगरी आया। सभा के बीच में ही वह जैन साधुओं की निंदा करने लगा। उस समय कुमार स्कन्दक ने अपनी तेजस्वी याणी से उसे निरुत्तरित कर राज्य से बाहर निकाल दिया। इस घटना से उसके मन में स्कन्दक के प्रति रोष उमड़ पड़ा। उसी दिन से पालक गुप्तचरों के माध्यम से स्कन्दक का छिद्रान्वेषण करने लगा। १. उनि,१११, उशांटी.प. ११२-११४, उसुटी.प. ३४, ३५ ।
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कालान्तर में कुमार स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनि सुव्रत तीर्थकर के पास दीक्षित हुए। वे ज्ञानाभ्यास से बहुश्रुत हो गए। उनकी योग्यता का मूल्यांकन करके कुछ समय बाद मुनि सुब्रत तीर्थंकर ने उन्हें पांच सौ शिष्यों का प्रमुख बना दिया।
एक बार स्कन्दक ने भगवान् को निवेदन किया कि मैं अपनी संसारपक्षीया बहिन पुरंदरयशा को प्रतिशोध देने वाला यहता हूँ। यह सुनकर तीर्थकर सुव्रत ने कहा-'वत्स ! वहां मारणान्तिक कष्ट आ सकता है।' 'उपसर्ग में हम सब आराधक होंगे या विराधक?' यह पूछने पर भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया-'तुमको छोड़कर अन्य सभी साधु आराधक होंगे।' उसने कहा-'अच्छा है, इतने मुनि यदि आराधक होते हैं तो शुभ है। भगवान् के मनाही करने पर भी आचार्य स्कन्दक अपने पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकारकट नगर में पहुंचे। सभी मुनि नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे।
पालक को जब स्कन्दक मुनि के आने का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने उद्यान में गुप्त रूप से शस्त्र छिपा दिए। दूसरे दिन पालक ने राजा के पास आकर उनको भ्रमित करने के लिए कहा-'स्कन्दक मुनि परीषहों से पराजित होकर यहां आया है। वह बहिन से मिलने के बहाने यहां आपको मारकर राज्य ग्रहण करना चाहता है। यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप उद्यान में जाकर देखें, वहां अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छिपाए पड़े हैं। राजा ने गुप्तचरों को उद्यान में भेजा। छिपे शस्त्रों की बात जानकर राजा का विश्वास स्थिर हो गया। राजा ने सभी मुनियों का निग्रह कर पालक पुरोहित को सौंप दिया। पालक ने एक-एक कर पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पोल दिया। सभी मुनियों ने समतापूर्वक उस वध परीषह को सहन किया। पूर्ण समाधिस्थ रहने से सबको कैवल्य उत्पन्न हुआ और सभी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए।
आचार्य स्कन्दक पास में खड़े थे। उन्होंने यह सारा दृश्य देखा। रुधिर से भरे कोल्हू यंत्र की ओर उनकी दृष्टि गई। उन्होंने कहा-'इस बाल मुनि को मैं यंत्र में पोलते हुए नहीं देख सकता अत: पहले मुझे पील दो।' पर उनके देखते-देखते छोटे शिष्य को यंत्र में पील दिया। यह दृश्य देखकर आचार्य स्कन्दक कुपित हो गए। उन्हें सबसे अंत में पीला गया। वे निदान कर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए।
उसी समय एक गृद्ध आचार्य स्कन्दक का रक्तलिप्त रजोहरण को पुरुष का हाथ समझकर उठाकर ले गया। साथ में पुरंदरयशा द्वारा दत्त कंबल भी था। वह रजोहरण पुरंदरयशा के सामने गिरा। रजोहरण और कंबल को देखते ही पुरंदरयशा ने पहचान लिया कि यह मेरे भाई का है। जब उसे ज्ञात हुआ कि मेरे भाई सहित सभी मुनियों को मरवा दिया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गयी। उसने राजा से कहा-'अरे पापिष्ट राजा! तुमने आज विनाश का कार्य किया है। अब मैं स्वयं भी दीक्षा लेना चाहती हूं।' उसकी प्रबल भावना जानकर देवों ने उसे मुनि सुव्रत स्वामी के पास पहुंचा दिया। उधर अग्निकुमार देव ने अपने पूर्वभव का बदला लेने के लिए पूरे नगर को जलाकर भस्म कर डाला। आज भी वह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाता है। १. उनि. ११२-१४, उशाटी.प. ११५. ११६, उसुटी.प. ३६, निभा.५७४० - ५७४३ चू.पू. १२७, १२८ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
१६. याचना परीषह
द्वारिका नगरी देवनिर्मित और स्वर्णमयी थी। वह सब प्रकार से समृद्ध थी। वहां अर्द्धभरत का चक्रवर्ती वासुदेव राजा राज्य करता था। उसके दो भाई थे-बलदेव और जराकुमार । वे दोनों उससे ज्येष्ठ थे। उनके पिता वसुदेव थे। उनकी पत्नी जरा से जराकुमार उत्पन्न हुआ। शाम्ब, प्रद्युम्न आदि सभी कुमार साढ़े तीन करोड़ कुमारों के साथ सांसारिक भोगों का अनुभव करते हुए राज्य का उपभोग करते थे।
एक बार सर्वज्ञ अरिष्टनेमि भगवान् भव्य लोगों के उद्धार हेतु वहां आए। देवताओं ने समवसरण की रचना की। चारों जाति के देव. यादव और वासुदेव भी भगवान् के दर्शनार्थ आए। भगवान् ने धर्म को देशना दो। धर्मकथा की समाप्ति पर वासुदेव ने पूछा-'धन, स्वर्ण, रत्न, जनपद, रथ और घोड़े से समृद्ध देवनिर्मित, यादवकुल को इस द्वारिका नगरी का किससे और किस निमित्त से विनाश होगा?' भगवान् ने कहा-'यहां द्वीपायन नाम का परिव्राजक है। वह मद्यपान में उन्मत्त शाम्ब आदि राजकुमारों से अपमानित होने पर द्वारिका का विनाश करेगा तथा यादवकुल का अंत करेगा।'
द्वीपायन पहले सोरियनगर के बाहर तापस आश्रम में पाराशर नामक तापस था। उसको एक अविनीत कन्या प्राप्त हुई। उसे लेकर वह यमुना नदी के द्वीप में अ गया इसलिए उसका नाम द्वीपायन पड़ गया। वह ब्रह्मचारी बेले. बेले का तप करता हुआ विचरण करता था।
दीपायन ऋषि ने सना कि सर्वज सवंदी भगवान अरिष्टनेमि ने कहा है कि मेरे निमित्त से द्वारिका नगरी तथा यदुवंश का विनाश होगा। यह दुष्ट कार्य मेरे द्वारा कैसे होगा यह सोचकर वह वन में चला गया। भगवान ने आगे कहा-'तुमने जो अपने मरण का कारण पूछा था, उसे सुनो-'तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता की पत्नी जरा से उत्पन्न जराकुमार से तुम्हारी मृत्यु होगी।' तब यादवों की जराकुमार पर विषाद एवं शोकपूर्ण दृष्टि रहने लगी। जराकुमार ने सोचा---'अत्यन्त खेद की बात है कि किस प्रकार मैं वसुदेव का पुत्र होकर स्वयं ही छोटे भाई के विनाश का कारण बनूंगा।''अहो! यह तो महापाप होगा' ऐसा सोचकर कृष्ण की रक्षा हेतु यादवजनों से पूछकर और उन्हें प्रणाम कर जराकुमार वनवास में चला गया। जराकुमार के जाने पर हरि आदि यादव स्वयं को शून्य जैसा मानने लंगे। तब भगवान् आरेष्ट नेमि को प्रणाम कर सारे यादव संसार की, विशेषतः द्वारिका नगरी की तथा यादववंश की अनित्यता का चिन्तन करते हुए अपनी नगरी में चले गए। नगर में प्रवेश करके वासदेव कृष्ण ने घोषणा करवाई-'शीघ्र ही सारी सुरा और मद्य कादम्बवन की गुफा में ले जाओ क्योंकि भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा है कि मद्यपान करके यादव कुमार द्वीपायन ऋषि को उत्पीड़ित करेंगे
और वह कुपित होकर द्वारिका नगरी का विनाश कर देगा। कर्मकरों ने कृष्ण की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया। सारी सुरा कादम्ब-वन के शिलाकुंडों पर डाल दी गयी। पूरा कादम्ब-वन सुरा से भर गया। वह गुफा कादम्ब-वन से आच्छन्न थी, इसलिए उसे कादम्ब-वन गुफा कहा जाता था इसीलिए सुरा का नाम भी कादम्बरी प्रसिद्ध हो गया।
बलदेव के भाई का नाम सिद्धार्थ था। उसके सारथि ने उसे स्नेहपूर्वक कहा-'भगवान्
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निर्युतिपंचक
ने कहा है कि जन्म- जरा और मरण से युक्त इस क्षणभंगुर संसार में कोई वस्तु स्थिर नहीं है। विशेषत: हमारा जीवन तो स्थिर हैं ही नहीं अतः आप मुझे भगवान् के पास श्रामण्य स्वीकार करने की अनुज्ञा दें। बलदेव ने उसके निश्चय को जानकर कहा-'ठीक है, तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो लेकिन विपत्ति में किसी भी प्रकार से तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' सिद्धार्थ ने स्वीकृति दे दी। वह अपने स्वजनों से पूछकर भगवान् के पास दीक्षित हो गया। घोर तपश्चर्या कर वह छह मास में ही दिवंगत हो गया। इधर कादम्बवन की गुफा के शिलाकुंडों में उंडेली हुई वह सुरा छह मास में पक्चरस वाली हो गयीं। वह स्वच्छ, स्वादु रस वाली, श्रेष्ठ, हृदय को सुख देने वाली और कर्केतन रत्न की आभा खाली हो गयी। शाम्बकुमार के पास रहने वाला मदिरालुब्ध पुरुष कादम्ब वन की गुफा के पास गया। उसने वहां वह सुरा देखी। प्रसन्न होकर वह उसे पीने लगा। स्वादिष्ट होने के कारण वह अंजलि से घूंट पीने लगा। मद्यपायी व्यक्तियों ने उसे देखा। वे भी शीतल, स्वच्छ और स्वादु मदिरा को पोकर निर्भय होकर क्रीड़ा करने लगे। वह व्यक्ति शाम्बकुमार के पास गया और मदिरा वाली बात बताई। शाम्बकुमार वहां आया। उसने वारुणी मंदिरा देखी। मदिरा पीने के बाद शाम्बकुमार ने चिंतन किया- 'कुमारों के बिना मैं अकेला मदिरा सुख का अनुभव नहीं कर सकता अत: कल मैं अपने साथ कुमारों को लेकर शान्त कुमारों को कादम्बरी गुफा के पास लेकर आया। उन्होंने श्रेष्ठ सुरा को देखा। उसने कर्मकरों की आज्ञा दी कि इस वारुणी शराब को लेकर आओ। आज्ञा प्राप्त कर वे शराब लेकर आ गए। वे विविध वृक्ष, कुसुम आदि से युक्त रमणीय उद्यान में आए। शाम्ब ने कहा- किसी भी प्रकार से छह मास से हमने यह सुरा प्राप्त की है अतः इच्छा के अनुसार सब पीओ।' सब मदिरा पीने लगे। वे उन्मुक्त होकर गाने, नाचने और परस्पर आलिंगन करने लगे । क्रीड़ा करते हुए वे पहाड़ के पास गये। वहां उन्होंने तप करते हुए द्वीपायन ऋषि को देखा। वे परस्पर बोलने लगे- 'यह वही दुरात्मा है जिसको भगवान् अरिष्टनेमि ने द्वारिका का विनाशक कहा है। इस पापी और निष्कारण वैरी को हम क्यों न मार डालें ?' तब वे रोषपूर्वक पैरों से, मुष्टि से तथा चपेटा के घात से निरपराध द्वीपायन ऋषि को मारने लगे। वह मरणासन्न जैसा धरती पर गिर गया। उसको पीटकर वे लोग द्वारिका आ गए।
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वासुदेव के निजी विश्वस्त पुरुषों ने सारी बात कृष्ण को बताई। कृष्ण ने सोचा- 'ये कुमार बहुत दुर्दान्त हैं । अहो ! यौवन की अदीर्घदर्शिता अब हम इन जीवन मात्र को धारण करने वाले कुमारों का क्या करें?' श्रीकृष्ण बलदेव सहित द्वीपायन ऋषि का अनुनय करने गए। उन्होंने कोप से कांपते हुए अधरों वाले द्वीपायन ऋषि को देखा। समयोचित सम्मान देकर वे बोले - भो महातापस ऋषि ! क्रोध सब गुणों का विनाश करने वाला है। महासत्व और दान्त मुनि क्रोध के वशवर्ती नहीं होते। अज्ञानवश मद्य प्रमत्त मूढ़ व्यक्तियों के अपराध पर महातपस्वी लोग ध्यान नहीं देते। इसलिए कुमारों ने जो दुश्चेष्टाएं की हैं उसके लिए हमें क्षमा कर दें।' इतना कहने पर भी द्वीपायन ऋषि ने जब रोष नहीं छोड़ा तो बलदेव ने कहा, भो नराधिप । अब प्रयत्न करना व्यर्थ है। जो इसने सोचा है वह उसे करने दो। क्या जिनेन्द्र की कही हुई बात अन्यथा हो सकती है?
'तब द्वीपायन ने कहा- 'मारे जाते हुए मैंने एक बड़ी प्रतिज्ञा की थी कि बलदेव और कृष्ण- इन दो को छोड़कर द्वारिका का कुत्ता भी विनाश से नहीं बच सकता। अतः न हो जिनेश्वर
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
भगवान् का वचन व्यर्थ है. ५ और न ही मेरी प्रतिज्ञा अगमा हो गकती है अत: आप जाएं, अधिक विचार करने से क्या?' तब महाशोक से संतप्त मन से बलदेव और वासुदेव नगरी में लौट आए। द्वीपायन के प्रतिज्ञा की बात पूरी नगरी में फैल गयी।
दूसरे दिन पूरे नगर में बलदेव ने घोषणा करवाई कि सभी लोग उपवास आदि तपस्या में निरत हो जाएं, धर्मध्यान में लीन हो जाएं। नगरी का वही परिणाम होने वाला है जो भगवान् ने कहा है। इसी बीच भगवान् अरिष्टनेमि विहार करते हुए पुन: रेवतक पर्वत पर समवसृत हुए। यादव लोग भगवान् को वंदना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। धर्मकथा के अंत में संसार की अनित्यता से संवेग को प्राप्त प्रद्युम्न, निषध, शुक, सारण, शांब आदि कुमार भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। रुक्मिणी भी पूर्व कर्मों के भय से उद्विग्न होकर वासुदेव को कहने लगी-' भो राजन्! संसार की ऐसी परिणति है और विशेषत: यादव कुल की अत: आप मुझे आज्ञा दें मैं दीक्षित होना चाहती हूँ।' तब कृष्ण ने वाष्पा आंखों से, बड़े दु:खी हृदय से रुक्मिणों को दीक्षा की आज्ञा दी। रुक्मिणी अन्य श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ प्रजित हो गयी। यादव लोग अरिष्टनेमि को वंदना कर शोकविह्वल होकर द्वारिका नगरी वापिस चले गए। वासदेव भी रुक्मिणी के विरह में स्वयं को श्रीविहीन समझने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि भी भव्य-जनों को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र चले गए।
वासदेव कृष्ण ने दूसरी बार पूरी नगरी में घोषणा करवाई-'नागरिको! द्वीपायन ऋषि का महान् भय उत्पन्न हो गया है अत: विशेष रूप से धर्म में रत रहो। हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को सभी यथाशक्य छोड़ें। आम्बिल, उपवास, बेला, तेला आदि तप सभी यथाशक्य करें। नागरिक भी वासुदेव की बात स्वीकृत कर धर्म में संलग्न हो गए। द्वीपायन ऋषि भी अति दुष्कर बाल तप करके द्वारिका के विनाश का निदान कर भवनपति देवों में अग्निकुमार देव बना। उसने यादवों के कत्य को याद किया। वह द्वारिका के विनाश हेत आया पर विनाश करने में समर्थ नहीं हो सका क्योंकि सभी यादव तपस्या में निरत थे। वे देवता की अर्चना एवं मंत्रजाप में तत्पर थे अत: उनका कोई पराभव नहीं कर सका।
द्वीपायन ऋषि छिद्रान्वेषण करने लगा। बारह वर्ष बीत गए। द्वारिका के लोगों ने सोचा कि द्वीपायन ऋषि अब निष्प्रभ और प्रतिहत तेज वाला हो गया है अत: वे पुन: आमोद-प्रमोद और क्रीड़ा करने लगे। वे कादम्बरी के पान से मत्त होकर रति-क्रीडा में मस्त हो गए। तब अग्निकमार देवयोनि में उत्पन्न द्वीपायन ऋषि ने द्वारिका का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया। उसने अनेक प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ कर दिए। द्वीपायन ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। प्रलयकाल के समान चलने वाली हवा से काष्ठ, तृण और पत्तों के समूह आवाज करते हुए नगर के अन्दर इकट्ठे होने लगे। ऋषि ने भीषण अग्नि प्रज्वलित कर दी। वह अधम देव बार-बार उद्यान से तर, काष्ठ, लता और तृण आदि फेंकने लगा। धूएं और अग्नि के कारण एक घर से दूसरे घर में जाना भी संभव नहीं हो सका। पूरी द्वारिका नगरी चारों ओर से जलने लगी। अनेक मणि, रत्न और सोने से बने प्रासाद तड़-तड़ टूटकर पृथ्वी पर गिरने लगे। भेड़, हाथी, बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट आदि पशु अग्नि से जलते हुए भीषण दारुण शब्द करने लगे। यादव लोग अपनी प्रियतमाओं के साथ जलने लगे। उनकी अंगनाएं हाहाकार और रुदन का दारुण शब्द करने लगी। बलदेव और वासुदेव जलती हुई द्वारिका
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नियुक्तिपंचक
को देखकर विलाप करते हुए अपने पिता के घर आ गए। शीघ्र ही रोहिणी, देवकी और पिता को रथ पर बिठाकर तीव्र गति से चलने वाले बैल को उसमें जोड़ा पर वे अग्नि में जलते हुए रथ को खींचने में समर्थ नहीं हुए अत: बलदेव और वासुदेव स्वयं ही रथ को खींचने लगे। इसी बीच हा महाराज कृष्ण! हा बलराम! हा वत्स! हा नाथ ! ऐसा करुण-विलाप सब घरों में सुनाई देने लगा। तब बलदेव और कृष्ण शीघ्रता से नगरद्वार के पास रथ को ले गए पर वहां दोनों रथ इंद्रकील (द्वार का एक हिस्सा) के द्वारा अवरुद्ध हो गए। उस इंद्रकील को बलदेव ने पैर से चूर्ण कर दिया तब वह द्वार अग्नि में जलने लगा।
इसी बीच दीपायन ऋषि ने घोषणा की-'अरे! मैंने पहले ही कहा था कि बलदेव और कृष्ण तुम दो को छोड़कर कोई भी नहीं बच सकेगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है।' तब वासुदेव ने अपने पैरों से आहत कर एक कपाट को धरती पर गिरा दिया और धूं-धूं कर जलते हुए दूसरे कपाट को बलराम ने गिरा दिया। तब वसुदेव ने देवकी और रोहिणी को कहा-'तुम्हारे जीवित रहने से यादव कुल की पुन: समुन्नति हो जाएगी। अत: शीघ्रता से तुम निकल जाओ। माता-पिता के वचन सुनकर करुण विलाप करते हुए यादव लोग वहां से निकल गए। बाहर भग्न उद्यान में स्थित होकर वे जलती हुई द्वारिका को देखने लगे।
दीपायन ऋषि ने देवशक्ति से नगरी के सारे द्वार बंद करके पूर्ण रूप से द्वारिका नगरी को जला दिया। बलराम का प्राणवल्लभ कब्जवारक नामक छोटा लड़का चरिम शरीरधारी था, वह अपने भवन में ऊपर चढ़कर बोला-'अरे पावस्थित देवताओ ! मैं जिनेन्द्र अरिष्टनेमि का शिष्य हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति दया रखने वाला हूँ। मैं चरिमशरीरी हूं अत: इसी भव में मोक्ष जाऊंगा। यदि भगवान् के ये वचन सत्य हैं तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है?' इसके ऐसा कहने पर जृम्भक देव वहां आए। उन्होंने जलते हुए भवन से उसे निकाला और पल्हवदेश में भगवान् के पास ले गए। कृष्ण की सोलह हजार देवियों ने समभाव पूर्वक अनशन कर लिया। सभी धर्मपरायण यादव महिलाओं ने अग्नि के भय से भक्त प्रत्याख्यान कर लिया। द्वीपायन ने नगर की ६० और ७२ कुलकोटियों को जला दिया। इस प्रकार छह मास तक उसने द्वारिका नगरी को जलाया। फिर पश्चिम समुद्र में उसको प्लाचित कर दिया।
बलदेव और वासुदेव-दोनों ने अत्यन्त शोक एवं व्याकुल मन से द्वारिका नगरी को देखा। आंसू से गीले नयनों से द्वारिका को देखकर उन्होंने सोचा-'अहो! यह संसार की असारता है। कर्मों की गति का वैचित्र्य है। सारा कार्य नियति के अधीन होता है।' कृष्ण ने कहा-'सब परिजनों से रहित शोकाकुल और मरणासन्ना तथा भय से उद्विग्न लोचन वाले हम अब कहां जाएं?' बलराम ने कहा-'पराक्रमी पांडव हमारे बांधव हैं अतः दक्षिण समुद्र में स्थित मथुरा नगरी चलते हैं।' कृष्ण ने कहा-'द्रौपदी के लाने के समय महागंगा उतरने के लिए उन्होंने हमें रथ को नहीं भेजा अत: सर्वस्व हरण कर हमने उन्हें निकाल दिया था। ऐसी स्थिति में हम उनकी नगरी में कैसे जाएं?'
बलदेव ने कहा-'वे महापुरुष हमारे ही कुल में उत्पना परमबंधु हैं । वे किसी को परिभव बुद्धि से नहीं देखते। नीचकर्मा या क्रूरकर्मा व्यक्ति भी यदि घर पर आ जाए तो वे उसके साथ निष्ठर आचरण नहीं करते।' तब कृष्ण ने बलराम की बात स्वीकार कर ली। वे शरीर कांति को छिपाते
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हुए पैदल ही पूर्व दिशा की ओर चलने लगे। सौराष्ट्र देश को पारकर वे हस्तिनाकल्प नगरी के बाहर पहुंचे। कृष्ण ने बलदेव से कहा-'मैं भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा हूं।' तब बलदेव ने कहा-'मैं शीघ्र ही आपके लिए भक्तपान लाने के लिए जा रहा हूं। तुम भी जागरूक होकर यहां बैठे रहना। यदि मेरे इस नगरी में जाने पर कोई आपत्ति आई तो मेरा महाशब्द सुनकर तुम आ जाना।' ऐसा कहकर बलदेव हृदय में वासुदेव की स्मृति करता हुआ हस्तिनाकल्प नगर गया।
वहां धृतराष्ट्र का पुत्र अच्छंदक' नाम का राजा राज्य करता था। बलदेव ने अपने श्रीवत्स को वस्त्रों से आच्छादित कर नगरी में प्रवेश किया। वहां लोकापवाद हो गया कि नगरी में अग्नि से बलदेव वासुदेव आदि सभी बंधु जल कर नष्ट हो गए हैं। बलदेव को प्रमाण से भी अधिक सुरूप देखकर लोग विस्मित होकर कहने लगे-'अहो रूपसंपदा', 'अहो चन्द्रमा के समान कांति और सौम्यता!' इस प्रकार स्लाबा को प्राप्त करता हु मालदेव भोजनाया । वहां अंगूठी बेचकर उसने भोजन और हाथ के कटक देकर मदिरा प्राप्त की। वह वहां से प्रस्थित होकर नगर-द्वार पर पहुंचा। उसे देखकर द्वार-आरक्षकों ने राजा को निवेदन किया-'कोई बलदेव जैसा पुरुष चोर की भांति दूसरों के चुराए हुए कटक और अंगूठी बेचकर भक्त-पान खरीदकर जा रहा है। तब अच्छंदक राजा सशंकित होकर अपनी सेना के साथ वहां गया और बलराम से लड़ना प्रारम्भ कर दिया । बलराम ने कृष्ण को जताने के लिए महाशब्द किया। यह युद्ध का सांकेतिक शब्द था। वह भक्त और पान को छोड़कर पास के हाथी पर चढ़कर अच्छंदक की सेना को विदीर्ण करने लगा। तब तक कृष्ण भी शीघ्र ही वहां आ गए। नगर-द्वार को तोड़कर अर्गला को हाथ में लेकर उन्होंने अच्छंदक की सेना को विदीर्ण कर दिया और अच्छंदक को अपने वश में कर लिया। उन्होंने कहा-'अरे! दुराचारिन् ! क्या तू हमारे बाहुबल को भी नहीं पहचान पाया? अच्छा, हम तुम्हें मुक्त करते हैं। तू अपने राज्य का स्वच्छंदता से उपभोग कर।'
उन्होंने अपना व्यतिकर बताया और वे वनखंड से शोभित उद्यान में चले गए। वहां वे अश्रुपूरित नेत्रों से 'नमो जिणाण' कहकर लाए हुए अन्न-पानी को ग्रहण करने लगे। दोनों ने सोचा, पूर्वकाल में हम किस प्रकार से भोजन करते थे, उसका अनुभव करते हुए भी हमें आज इस प्रकार भोजन करना पड़ रहा है। सच है, क्षुधा और पिपासा को सहन करना अत्यन्त कठिन होता है। हमें ऐसा क्यों सोचना चाहिए? भगवान् ने स्वयं कहा है-'प्रत्येक जन्म में सभी भावों की अनित्यता होती है।' ऐसा सोचकर कुछ आहार- पानी करके वे लोग दक्षिण दिशा में जाने लगे। चलते-चलते वे कोसुंब नामक वन में पहुंचे। मद्यपान एवं लवण युक्त भोजन करने से ग्रीष्मकाल में अत्यधिक पसीना निकल जाने से, शोकाकुल होने से तथा पुण्य-क्षय होने के कारण वासुदेव को अत्यधिक प्यास की अनुभूति हुई। कृष्ण ने बलराम से कहा-'भातृवत्सल भाई बलराम ! प्यास से मेरा मुंह सूख रहा है। मैं शीतलवन तक जाने में भी समर्थ नहीं हूं।' यह सुनकर बलदेव ने कहा-'अति प्राणवल्लभ भाई ! तुम थोड़ी देर पेड़ की छाया में विश्राम करो तब तक मैं तुम्हारे लिए जल लेकर आता हूँ।'
कृष्ण ने कौशेय वस्त्र से स्वयं को ढका और एक पैर को जानु के ऊपर रखकर सो गए। बलदेव ने कहा--'प्राणवल्लभ! तुम यहां जागरूक रहना।' बलदेव ने वन-देवताओं से कहा-'यह
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मेरा भाई सभी लोगों को अत्यधिक प्रिय है विशेषत: मेरे दु:खी हृदय का प्राणवल्लभ है. अत: मेरा भाई तुम्हारी शरण में है तुम इसकी रक्षा करना।' यह कहकर बलराम पानी लेने चला गया।
इसी बीच व्याध वेशधारी जराकुमार धनुष को हाथ में लिए हुए, प्रलंब केश धारण किए हुए, व्याघ्रचर्म से प्रावृत मृग को मारने के उद्देश्य से वहां आया। एक वृक्ष के नीचे कृष्ण तृषातुर होकर बैठे थे। उनको हरिण समझ कर जराकुमार ने धनुष चढ़ा तीक्ष्ण बाण फेंका। उस बाण ने कृष्ण के पैर के मर्मस्थान को बींध दिया। श्रीकृष्ण वेग से उठे और बोले-'बिना अपराध के ही किसने मेरा पैर बाण से बीधा है? मैंने पहले किसी भी अज्ञातबंश वाले पुरुष को नहीं मारा है अतः जिसने यह बाण छोड़ा है वह शीघ्र ही अपना गोत्र बताए।' तब जराकुमार ने कुडंग के अंदर बैठेबैठे सोचा-'यह कोई हरिण नहीं है। यह तो कोई पुरुष है, जो मुझसे गोत्र पूछ रहा है। इसलिए इसे मैं अपना गोत्र बताऊं।' जराकुमार ने कहा-'मैं हरिवंश कुल में उत्पन्न वसुदेव और जरा देवी का पुत्र तथा पृथ्वी के एक-मात्र वीर श्रीकृष्ण का ज्येष्ठ भ्राता जराकुमार हूं। 'श्रीकृष्ण की मृत्यु जराकुमार से होगी' अरिष्टनेपि के इन वचनों को सुनकर मैं अपने बंधुवर्ग को छोड़कर एक बन से दूसरे वन में घूम रहा हूँ। मुझे घूमते हुए बारह वर्ष बीत गए हैं। अब तुम अपना परिचय दा कि तम कौन हो?'कष्ण ने कहा-'आओ-आओ प्रिय सहोदर! मैं जनार्दन हैं। तम्हारा और बलदेव का छोटा भाई हूँ। तुम मेरे प्राणों की रक्षा के लिए घूमते--घूमते यहां आए लेकिन तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ हो गया इसलिए तुम शीघ्र ही मेरे पास आओ।'
तब जराकुमार कृष्ण के पास आया। उसने कृष्ण की अवस्था देखी तब आंसू बहाता हुआ विलाप करने लगा- 'हा! मैंने मेरे भाई को मार डाला । मैं दुरात्मा हूं । हे पुरुषसिंह ! तुम वहां कहां से आ गए? क्या द्रोपायन ने द्वारिका जला दी? यादव नष्ट हुए या नहीं?' तब कृष्ण ने जैसा देखा और सुना था वह सब सुना दिया। जराकुमार विलाप करने लगा-'मैं पापी हूँ। मैंने अच्छा किया कृष्ण का आतिथ्य-सत्कार ! अब मैं कहां जाऊं? मेरी सुगति कैसे होगी? भाई के घातक मुझको कौन देखना चाहेगा? हे केशव! लोग तुम्हारा नाम अपने कंठों में धारण कर रखेंगे। मैं वनवासी बन गया पर मैंने क्रूरता से विपरीत आचरण कर डाला। अब मुझ पापी की बहुत अधिक गर्दा होगी। कहां हैं वे राजा? कहां हैं उनकी हजारों रानियां? हे जनार्दन ! वे कुमार कहां हैं?' तब कृष्ण ने उसे आश्वस्त करते हए कहा-'अरे जरानंदन! भगवान् अरिष्टनेमि ने पहले ही कह दिया था कि संसार में सब प्राणी अपने-अपने कर्मों से अनेकों कष्ट पाते हैं। जो व्यक्ति इस भव में या परभव में जैसा शभ या अशभकर्म करता है उसका फल उसे प्राप्त करना होता है। दसरा तो निमित्त मात्र होता है इसलिए तुम उद्वेग मत करो। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है यह तो कर्मों की विचित्र परिणति है । जिनेन्द्र का कथन कभी अन्यथा नहीं होता अतः तुम वक्षस्थल पर स्थित मेरी कौस्तुभ मणि को लेकर पांडवों के पास जाओ और उनको तुम सारी बात बता देना।' मेरी ओर से पांडवों को कहना कि द्रौपदी को ले जाने के समय सामर्थ्य का परीक्षण करने के लिए उन्होंने रथ नहीं भेजा तब मैंने उनका सर्वस्व हरण करके उनको बहिष्कृत कर दिया इसलिए वे मुझे क्षमा करें। 'सत्पुरुष क्षमाप्रधान होते हैं और विशेषत: बंधुजन तो क्षमाप्रधान होते ही हैं।' कृष्ण के कहने पर भी जराकुमार जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब कृष्ण ने पुन: कहा-'महाभाग ! शीघ्र जाओ। तुम जानते हो बलदेव
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का मेरे ऊपर बहुत अधिक स्नेह है। वह मेरी प्यास बुझाने हेतु जल लेने गया हुआ है। वह आते ही मुझे मरणावस्था में देखकर तुम्हें मार देगा अत: इन्हीं पैरों से तुम शीघ्रता से यहां से चले जाओ।'
तब पादतल से बाण निकालकर जराकुमार वहां से चला गया। वासुदेव ने भी वेदना समुद्घात उत्पन्न होने पर नमस्कार महामंत्र का जप प्रारम्भ कर दिया। परमपूजा के योग्य अर्हतों को नमस्कार ! सुख और समृद्धि से युक्त सिद्धों को नमस्कार! पांच आचारों का पालन करने वाले आचार्यों को नमस्कार ! स्वाध्याय-ध्यान में रत उपाध्यायों को नमस्कार ! साधना में संलग्न साधुओं को नमस्कार ! जिनेन्द्र अरिष्टनेमि को नमस्कार जो सकल आसक्तियों का त्याग करके महामुनि बन गए।
कृष्ण ने तृण-संस्तारक बनाकर अपने शरीर को कपड़े से ढका और वीरासन में स्थित होकर सोचने लगे-'शांब, प्रद्युम्न, निरुद्ध, सारण आदि कुमार, यादव एवं स्वमणी आदि रानियां मन्य हैं, जिन्होंने सारे संगों का त्याग कर भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण की है। मैं हतभागी तप और चारित्र का पालन किए बिना ही मर रहा हूँ। अचानक जीवन के अंतिम समय में कृष्ण ने शुभ भावों को विस्मृत कर दिया। वे सोचने लगे-'इस अकारण वैरी द्वीपायन ने नगरी को जला कर सारे यादवकुल का नाश कर दिया इसलिए वह महापापी मारने योग्य है । इस प्रकार अशुभ परिणामों से मृत्यु प्राप्त कर वे तीसरी नारकी में उत्पन्न हुए।
इधर बलदेव शीघ्रता से कमलिनी के पत्तों का दोना बनाकर उसमें पानी लेकर कृष्ण की दिशा में चले । विपरीत शकुन हुए। वे वहां आए। जल को नीचे रखकर बलदेव ने सोचा-'मेरे हृदय को आनन्द देने वाला यह कृष्ण अभी सो रहा है । यह जब जागकर उठेगा तभी मैं इसे पानी दूंगा।' अत्यंत स्नेह होने के कारण, व्याकुल मन के कारण बलदेव कृष्ण की मौत को नहीं जान सके । कुछ समय बाद कृष्ण के शरीर के चारों ओर काली मक्खियां भिनभिना रही हैं, यह देखकर भयभीत होकर बलदेव ने कृष्ण के मुख से कपड़ा हटाया। 'अरे यह तो मर गया है ' ऐसा सोचकर बलदेव पृथ्वी पर मूर्छित होकर गिर पड़े। मूर्छा टूटने पर बलदेव ने तीव्र सिंहनाद किया। उससे सारे पशु, पक्षी और वन कांप उठा।
बलदेव ने विलाप करना प्रारम्भ किया—'यह मेरा भाई हृदयवालभ, पृथ्वी का एकमात्र वीर, जिस निर्दयी और दुष्ट व्यक्ति के द्वारा मारा गया है,वह यदि मेरा सच्चा हितैषी/सच्चा योद्धा है तो मेरे सामने आए। इस सुप्त, प्रमत्त और प्यास से व्याकुल मेरे भाई को क्यों मारा? निश्चित ही वह पुरुषों में अधम है, जिसने ऐसा जघन्य कार्य किया है। इस प्रकार उच्च शब्दों में बोलता हुआ बलदेव वन में चारों ओर घूमता हुआ पुनः गोविंद के पास आया। वहां आकर वह उच्च स्वर में रोने लगा-'हा मेरे भाई ! हा जनार्दन ! हा समर्थ योद्धा! हा महारथी ! हा हरिचंद ! तुम्हारी किस-किस बात पर रोऊँ? क्या सौभाग्य था? क्या धीरज, बल, वर्ण और रूप था? तुम कहते थे 'बल' मेरा प्रिय भाई है। आज ऐसी विपरीतता क्यों? जिससे तुम उत्तर भी नहीं दे रहे हो? तुम्हारे विरह में मैं मंदभाग्य अकेला क्या करूंगा? अब कहां जाऊं? कहां रहूँ? किसको कहूं? किसको पूर्वी? किसकी शरण में जाऊं? किसको उपालम्भ दूं? किससे रोष करूं? मेरे लिए तो सारा संसार ही नष्ट हो गया।
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अरे वन देवताओ ! मैंने जनार्दन को तुम्हें समर्पित किया था, तुम्हारी ऐसी उपेक्षा क्या उचित है? अरे जनार्दन! आओ तुम सुना-अनसुना क्यों कर रहे हो? मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? देवताओ ! यह मेरा भाई कृष्ण मुझ पर कुपित हो गया है अत: करुणा से इसे प्रसन्न करो। हे सहोदर ! सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है । उठो, संध्योपासना का समय हो गया है। उत्तमपुरुष संध्यावेला में नहीं सोते। अत: उठो, अंधियारी काली रात आ गई है। क्रूर हिंसक प्राणी चारों ओर घूम रहे हैं। गोदड़, सियार शब्द करते हुए घूम रहे हैं। इस प्रकार प्रलाप करते हुए प्रातः हो गया। बलदेव पुनः कृष्ण को संबोधित कर कहने लगे-'भाई ! उठो, सूर्य उग गया है।' जब कृष्ण नहीं उठे तो स्नेह से विमूढ़ बना हुआ बलदेव कृष्ण के मृतक शरीर को अपने कंधे पर रखकर गिरि कानन में घूमने लगा। घूमते-घूमते वर्षाकाल आ गया।
बलदेव का सिद्धार्थ नामक सारथि देवलोक को प्राप्त हुआ। अवधिज्ञान लगाकर उसने बलदेव को देखा। अत्यंत खेद के साथ उसने चितन किया-'स्नेहानुराग से किस प्रकार बलदेव वासुदेव कृष्ण के मृतक शरीर को ढो रहे हैं? इसलिए भातृवत्सल इस बलदेव को मैं प्रतिबोध दूंगा।' तब देव ने पर्वत पर रथ को उतारते हुए एक पुरुष की त्रिकुर्वणा की। वह रथ टेढ़ा-मेढ़ा चलता हुआ पर्वत पर भग्न नहीं हुआ बल्कि समभूमि पर उसके सैकड़ों टुकड़े हो गए। वह देव उन टुकड़ों का संधान करने लगा। यह देख बलदेव ने कहा-'अरे मूढ़पुरुष ! यह रथ गिरितट पर भग्म नहीं हुआ लेकिन सपमार्ग पर भग्न हुआ है अत: खंड-खंड बने इस रथ का तुम कैसे संधान कर सकते हो?' देव ने कहा-'यह कृष्ण अनेक हजार योद्धाओं के द्वारा भी पराजित नहीं हुआ वह आज युद्ध के बिना भी मर गया है। जब यह जीवित हो जाएगा तो रथ भी पुन: नवीन हो जाएगा।' पुनः वह पुरुष शिलापट्ट पर पद्मिनी को रोपने लगा। बलदेव ने कहा-'शिलापट्ट पर रोपी हुई पद्मिनी कैसे उगेगी?' देव ने कहा--'जब यह तुम्हारे कंधे पर स्थित मृतक जी उठेगा तब कमलिनी भी उग जाएगी।' थोड़ी दूर जाने पर एक ग्वाले को केवल अस्थिमय गायों को हरी घास देते हुए देखा। बलदेव ने कहा-'ये गायें हड्डियों का ढांचा मात्र हैं क्या ये हरी घास से पुन: जी सकती हैं?' देव ने कहा-'जब यह तुम्हारा भाई कृष्ण जी उठेगा तब गायें भी जो जाएंगी।' तब बलदेव के ज्ञानतंतु झंकृत हुए और उसने सोचा-क्या मेरा अपराजित भाई मर गया? वनान्तर में स्थित कौन मुझको ऐसा कह रहा है? तब देव सिद्धार्थ के रूप में उपस्थित होकर बोला-'मैं पूर्वभव में आपका सारथि सिद्धार्थ था। तीर्थकर अरिष्टनेमि की कृपा से मैं देवगति में उत्पन्न हुआ। आपने मुझे पहले कहा था-'जब मैं विपत्ति में पड़ तब तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' इसीलिए मैं आपको प्रतिबोध देने यहां आया हूं। आप शोक को छोड़कर धैर्य को धारण करें। यदि आप जैसे पुरुष भी शोक से विह्वल होंगे तब संसार में कौन स्थिर रह पाएगा? धैर्य आत्मगुण है। संसार में कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जिसने इस स्वच्छंद और वैरी यमराज से कदर्थना प्राप्त न की हो। इसलिए अपने
आपको स्थिर करो 1 स्वामी अरिष्टनेमि ने पहले ही कह दिया था कि जराकमार से कृष्ण की मृत्यु होगी। वैसा ही हो गया। बलदव ने पूछा-जराकुमार ने कृष्ण को कब मारा? देव ने जराकुमार की सारी बात बतायी और उसे पांडवों के पास भेजा तब तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
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बलदेव ने सिद्धार्थ का आलिंगन कर स्नेहपूर्वक कहा-'अब क्या करना चाहिए?' देव ने +:-'सका है. पति को होड़कर भाग ग्रामण्य को स्वीकार करें और तीर्थकर अरिष्टनेमि के वचनों को याद करें?' तब बलदेव ने कहा-'तुमने जो कहा वह मैं भलीभांति स्वीकार करूंगा। तुमने भगवान् के वचन याद दिलाकर अच्छा किया। अब कृष्ण के कलेवर का क्या करें?' देव ने कहा-'दो नदी के बीच के तट पर इसे जलाएंगे। तीर्थकर, चक्री, बलदेव और वासुदेव पूजा के योग्य होते हैं अत: पूजा करेंगे। तब उन्होंने दो नदी के संगम स्थल पर कृष्ण के मृत शरीर को रखा, पुष्प, गंध, धप आदि से पूजा की और शरीर को जला दिया।
अरिष्टनेमि ने बलदेव के प्रव्रज्या सभय को जानकर विद्याधर भ्रमण को वहां भेजा। उनके पास बलराम ने प्रव्रज्या ग्रहण की। तुंगिया पर्वत के शिखर पर वे तपश्चरण करने लगे। सिद्धार्थ देव पूर्व स्नेह के कारण बलराम की रक्षा में वहीं रहने लगा।
इधर जराकुमार दक्षिण मथुरा में पहुंचा। उसने पांडवों को देखा और पांडवों को कौस्तुभ मणि दे दी। उसने द्वारिका विनाश से लेकर पांडवों तक पहुंचने का सारा वृत्तान्त पांडवों को सुनाया पांडवों ने अत्यन्त विलाप और दु:ख के साथ एक वर्ष तक उनका प्रेत्यकार्य किया फिर जराकुमार को राज्य देकर स्वयं भगवान् अरिष्टनेमि के पास चले गए।
भगवान अरिष्टनेमि ने चार ज्ञान के धनी धर्मघोष अनगार को अनेक भ्रमणों के साथ पांडवों की प्रव्रज्या के लिए भेजा। पांडव उनके पास दीक्षित हो गए। दीक्षित होकर पांडव भगवान् के पास जाने के लिए प्रस्थित हुए। वे बेला, तेला, चोला (चार दिन की तपस्या), पंचोला ( पांच दिन की तपस्या), पक्ष, मास, छह मास को तपस्या करते हुए चले जा रहे थे। उस समय भगवान् बारह योजन दूरी पर स्थित थे। उन्होंने चिन्तन किया कि कल अरिष्टनेमि भगवान् के दर्शन करेंगे अतः रात्रि वहीं बिताई । प्रात:काल उन्होंने जनप्रनाद सुना कि उज्जयंत पर्वत पर भगवान् मोक्ष चले गए। तब वे अत्यन्त दुःखी हुए और पुंडरीक पर्वत पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
समद्रविजय आदि नव दशार, भगवान की माता, गजसकमाल के साथ दीक्षित होकर देवलोक में गयीं। रुक्मिणी आदि रानियां मोक्ष गयीं। द्रौपदी भी राजीमती के साथ दीक्षा ग्रहण कर मृत्यु को प्राप्त कर अच्यूत कल्प में उत्पन्न हई। द्वारिका जलन के समय वसुदेव, रोहिणी और देवकी देवलोक में उत्पत्र हुए।
बलदेव ऋषि तुंगिया पर्वत के शिखर पर अत्यन्त कष्टप्रद एवं घोर तप कर रहे थे। वे सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा कर रहे थे। सप्तसप्तमिका प्रतिमा इस प्रकार है--'प्रथम सात दिन भोजन में एक दत्ती ग्रहण करना तथा पानी की भी एक दत्ती ग्रहण करना। दूसरे सप्ताह भोजन पानी की दोदो दत्ती ग्रहण करना, तीसरे सप्ताह भोजन और पानी को तीन-तीन दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार सातवें सप्ताह सात दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार ४९ रात दिन में १९६ भोजन और पानी को दत्ती ग्रहण करना। इस प्रतिमा की बलदेव मुनि ने भली भांति अनुपालना की। इसकी संपन्नता होते ही दूसरी अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा प्रारम्भ कर दी। प्रथम आठ दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण करना, दूसरे आठ दिनों में भोजन और पानी की दो-दो दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार
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आठवें अष्टक में भोजन और पानी की आठ आठ दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार यह अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा ६४ दिन-रात में पूरी होती है तथा दो सौ अट्ठासी दत्ती ग्रहण की जाती है। इस प्रकार बलऋषि ने अष्ट अष्टमिका, नवनवमिका और दशदशमिका प्रतिमा भी की।
बलराम प्राय: एक पक्ष या एक मास से वन काटने वाले लकड़हारों से जो कुछ प्रासुक एषणीय मिल जाता,वही ग्रहण करते। उन लकड़हारों ने जनपद में आकर राजा से कहा- कोई महान् शक्तिशाली दिव्यपुरुष वन में तप कर रहा है।' तब वह राजा संबुद्ध होकर सोचने लगा-'कोई राज्य का अभिलाषी व्यक्ति तप कर रहा है अथवा कोई विद्या साध रहा है अतः जाकर उसे मार डालना ही श्रेष्ठ है। यह सोचकर राजा अपनी सेना के साथ कवच से सन्नद्ध, अनेक प्रकार के शस्त्रों से सज्जित, अनेक यान-वाहन पर आरूढ होकर बलराम मुनि के पास आए। इधर रक्षक देव सिद्धार्थ ने बलराम ऋषि के पास भयंकर मख वाले. बीभत्स दिखाई देने वाले तीक्ष्ण नखान वाले, दारुण तथा केशर सटा से युक्त सिंहों की विकुर्वणा की। तब वे राजा दूर से ही भयभीत होकर उस महाप्रभावी बलदेव ऋषि को प्रणाम कर शीघ्र ही अपने-अपने घर चले गए। लोक में बलदेव नरसिंह के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इस प्रकार बलदेव मुनि प्रतिदिन उपशांत भाव में लीन रहते । बलराम के स्वाध्याय, ध्यान और धर्मदशा माकृष्ट होकार
अ
ग नीले, खु. गोर , संवर, हरिण आदि उपशांत हो गए। उनमें कुछ श्रावक हो गए. कुछ भद्र प्रकृति वाले हो गए, कुछ ने अनशन स्वीकार कर लिया, कुछ कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। वे मांसाहार का त्याग करके बलदेव ऋषि की उपासना करने लगे।
वहां एक युवा हरिण भगवान् बलराम मुनि के पूर्वभत्र का परिचित था। उसे जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त था। वह अत्यन्त संवेग को प्राप्त था। वह भिक्षा आदि के समय भगवान् के पीछे-पीछे दौड़ता था। एक बार बलदेव भी मासखमण के पारणे हेतु नगर में गए। वहां एक तरुणी कुएं से जल निकाल रही थी। उसने पानी निकालते हुए बलदेव को देखा। बलदेव के दिव्य रूप में वह अत्यन्त आसक्त हो गई। उसकी सारी चेतना बलदेव के रूप-लावण्य में उलझ गई। वह अपना भान भूल गई। उसने घड़े के कंठ में कुंडी लगाने के बदले कटि पर स्थित अपने छोटे पुत्र के गले में वह कुंडी लगाकर रस्सी बांधकर उसे कुएं में लटका दिया।
बलदेव ने यह देखा। वह संवेग को प्राप्त होकर सोचने लगे-'मेरा शरीर भी प्राणियों के लिए अनर्थ का कारण है।' अनुकम्पावश बालक को मुक्त कराकर उन्होंने प्रतिज्ञा को–'जहां स्त्रियां नहीं होंगी, वहां यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं।' बलदेव वापिस वन में चले गए।
एक दिन अच्छी लकड़ी काटने के निमित्त से कुछ रथकार वन में आकर वृक्ष काटने लगे। कुछ समय पश्चात् वे भोजन करने बैठे। उसी समय मुनि बलदेव भी मासखमण के पारणे के लिए वहां आ पहुंचे। हरिण भी उनके साथ-साथ गया। मुनि बलदेव को देखकर रथकार स्वामी ने सोचा–'हमारे पुण्यों का उदय हुआ है इसीलिए मरुस्थल में भी कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है। अहो! १. एक अन्य मत के अनुसार अभिमानवश बलदेव ने सोचा कि अपने ही नौकरों से भिक्षा कैसे ग्रहण करूं?
यह सोचकर वे ग्राम के बाहर लकड़हारों से ही भिक्षा ग्रहण करने लगे।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
इसके रूप, उपशम और तेज की संपदा कैसी है? मैं कृतार्थ हो गया। मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ हैं इसीलिए ये महान् ऋषि भिक्षा के लिए यहां आए हैं। इनको भिक्षा देकर मैं स्वयं को कलुष रहित कर लंगा!' ऐसा सोचका पक्षकार ने पृथ्वी पर जानु रखकर उन्हें वंदना की और भक्त पान लेकर उनके सामने गया। मुनि ने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से शुद्ध भिक्षा जानकर उसे ग्रहण कर ली। उस रथकार ने शुद्ध दान देने से देवलोक का आयुष्य बांध लिया। अत्यधिक भक्ति से हरिण की आंखों से आंसू निकलने लगे । वह रथकार और मुनि की ओर प्रसन्न और मंथर दृष्टि से बारबार देखता हआ सोचने लगा-'अहो! यह वनछेदक धन्य है। इसका मनष्य जन्म सफल हो गया है। मैं दुर्भाग्य एवं कर्मदोष से तिर्यंच जाति में उत्पत्रा हुआ हूं। मैं इस महातपस्वी को दान देने से वंचित हूँ। मेरी इस तिर्यक् योनि को धिक्कार है।' इसी बीच तेज वायु से प्रहत होकर एक वृक्ष वनछेदक, बलदेव और हरिण के ऊपर गिरा। वे तीनों मरकर ब्रह्मकल्प के पद्मोत्तर विमान में उत्पन्न हुए। बलदेव भी सौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर विशिष्ट देवलोक में उत्पन्न हुए।
देव बनकर बलदेव ने अवधिज्ञान से स्नेहपूर्वक कृष्ण को देखना प्रारम्भ किया। उसने अत्यंत दु:ख के साथ कृष्ण को तीसरी नारकी में देखा। शीघ्र ही वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करके वे कृष्ण के पास गए। बलदेव ने दिव्य पणि की प्रभा का उद्योत करके जनार्दन को देखा। बलदेव ने कहा- 'अरे भातृवत्सल कृष्ण ! अब मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' कृष्ण ने कहा- मैं पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न दुःख का अनुभव कर रहा हूं ! कोई भी इसका प्रतिकार करने में समर्थ नहीं है।' तब बलदेव ने अपनी दोनों भुजाओं से कृष्ण को उठा लिया। आतप में नवनीत की भांति उनका शरीर पिघलने लगा। तब कृष्ण ने कहा--'मुझे छोड़ो। मुझे बहुत कष्ट की अनुभूति हो रही है। तुम अब भरतक्षेत्र में वापिस लौट जाओ। वहां जाकर गदा, खड्ग, चक्र और शंखधारी, पीले वस्त्र पहने हुए तथा गरुडध्वज हलमुसल को धारण किए हुए ,नीले वस्त्र पहने हुए अपने आपको सब लोगों को दिखाना। बलदेव ने श्रीकृष्ण की बात को स्वीकार कर लिया। दिव्य विमान में आरूढ़ होकर बलराम ने भरत क्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण और बलदेव के रूप की विकुर्वणा करके लोगों को दिखाया। विशेषतः शत्रुलोगों के सामने यह रूप दिखाया। बलदेव ने कहा-'तिराहे, चौराहे और चत्वरों पर हमारा प्रतिरूप स्थापित करो। हम स्वर्ग संहारकारी हैं। हम देवलोक से आए हैं और अब वहीं जा रहे हैं। वहां हम नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में रत रहते हैं। द्वारिका नगरी हमारे द्वारा निर्मित है। पुनः हमने ही उसका संहार करके समुद्र में फेंक दिया है। इसलिए हम ही कारण पुरुप विधाता हैं । लोगों ने ससंभ्रम इस बात को स्वीकार कर लिया और जैसा कहा था वैसा किया 1 फिर परम्परा से वह बात प्रसिद्ध हो गयी। बलदेव भी ऐसा कर पुनः देवलोक चले गए। वहां से च्युत होकर अमम तीर्थकर जो कृष्ण का जीव है उनके पास शासन में सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होंगे। नगर के समृद्ध कुलों में भिक्षा की याचना उतनी दुष्कर नहीं है, जितनी अरण्य में तृणहारक और काष्ठहारक के यहां से भिक्षा लेनी। बलदेव रे जैसे याचना परीषह सहन किया वैसे ही सबको सहन करना चाहिए।
१. उनि.११५ उशांटी.प. १७७, उसुटी.प. ३७-४५ ॥
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नियुक्तिपंचक
१७. अलाभ परीषह (ढंढण कुमार)
एक गांव में एक ब्राह्मण कृषि कुशल अथवा शरीर से कृश होने के कारण कुशल था। वह 'कृषि पाराशर' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वह ब्राह्मण उस ग्राम में राजा के खेत की जुताई के लिए नियुक्त था। बैल दिन भर की जुताई से थक जाते, छाया में विश्राम करना चाहते और चारापानी पाने की अभिलाषा करते। आहार आ जाने पर जब वह उनको मुक्त करना चाहता तब सोचता कि एक हलबंभ की जुताई और कर लूं। बैल भूख से पीड़ित रहते । इस प्रकार उसने ६०० बार उन बैलों से खेत की अतिरिक्त जुताई कराई। इससे उसके बहुत सघन अंतराय कर्म बंध गए।
वहां से मरकर वह अपने किसी अन्य पुण्य के प्रभाव से वासुदेव कृष्ण के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम ढण्ढ रखा गया। समय आने पर वह तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हो गया । दीक्षित होने के बाद अपने पूर्वभव में बंधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आ गया। जब ढंदण मुनि आहार के लिए जाते तो घूमने पर भी विशाल द्वारिका नगरी में शुद्ध आहार नहीं मिलता। यदि कभी आहार मिलता तो वह ऐसे-वैसे कारणों से प्राप्त होता।
एक बार ढंढण मुनि ने भगवान् से इसके बारे में पूछा। भगवान् से पूर्व भव का सारा वृत्तान्त जानकर दंढण मुनि ने अभिग्रह किया कि मैं दसरे के प्रभाव से प्राप्त आहार का उपयोग नहीं करूंगा। एक बार अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी आए। वासुदेव कृष्ण उन्हें वंदना करने गए। वासुदेव कृष्ण ने अरिष्टनेमि से पूछा-'अभी इन अठारह हजार साधुओं में दुष्कर तपश्चयां अथवा साधना कौन कर रहा है?' भगवान् ने उत्तर दिया-'हंढण मुनि सबसे कठोर साधना कर रहा है क्योंकि वह अलाभ परीषह को बहुत समता से सहन कर रहा है।' ढंढण मुनि के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करने पर अरिष्टनेमि ने कहा-'जब तुम नगर में प्रवेश करोगे तो ढंढण मुनि तुम्हें रास्ते में मिलेगा। भगवान् को वंदना कर जब वासुदेव वापिस जाने लगे तो रास्ते में कृश शरीर किन्तु प्रशान्त वदन वाले ढंढण मुनि को देखा। मुनि को देखकर वासुदेव ने हाथी से नीचे उतरकर मुनि को वंदना की। अपने हाथ से उनके चरणों का प्रमार्जन किया तथा सुखपृच्छा की। वासुदेव को वंदना करते हुए एक सेठ ने देख लिया। उसने मन में सोचा यह बहुत बड़ा महात्मा है, तभी वासुदेव नीचे उतरकर वंदना कर रहे हैं।
संयोग से मुनि ने उस दिन भिक्षा के लिए उसी सेठ के यहां प्रवेश किया। सेठ ने अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति से भिक्षा में लड्डु बहराए। भिक्षा से लौटकर मुनि ने भगवान् को आहार दिखाकर पूछा-'भंते ! क्या मेरा अलाभ परीषह क्षीण हो गया?' भगवान् ने कहा-'वत्स! तुम्हारा अलाभ परोषह अभी क्षीण नहीं हुआ है। आज तुम्हें वासुदेव के प्रभाव से आहार मिला है।' अपने संकल्प के अनुसार अनासक्त भावों से मुनि ने आहार का परिष्ठापन कर दिया लेकिन प्रतिज्ञा को भंग नहीं किया। आत्म-धरातल पर चिंतन करते हुए शुभ अध्यवसाय से उन्हें कैवल्य-लाभ हो गया।'
१८. रोग परीषह (कालवैशिक)
मथुरा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसो नगर में काला नामक वेश्या रहती १. हल से विदारित भुमि रेखा।
२. उनि.११५, उाटी.प. ११५, उसुटो.५. ४५, ४६!
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थी। वह बहुत सुन्दर थी अत: राजा ने उसे अपने अंत:पुर में रख लिया। उस वेश्या के कालवैशिक नामक एक पुत्र हुआ। वेश्या की एक पुत्री भी थी जिसका विवाह हतशत्रु सजा के साथ हुआ।
एक बार कालवैशिक कुमार श्रमणों के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकृत की। विहार करते हुए कालवैशिक मुनि अपनी बहिन की ससुराल मुद्गशैलपुर पहुंचे। वहां उनके अर्श (मस्सा) रोग उत्पन्न हो गया। रोग के कारण मुनि बहुत पीड़ित थे। पीड़ा देखकर बहिन ने वैद्य से 'उपचार पूछा 1 वैद्य ने कुछ दवाइयां दी और कहा कि आहार के साथ इस औषध को मिलाकर मुनि को भिक्षा में दे देना। उसने मुनि को औषध मिश्रित आहार भिक्षा में दे दिया। मुनि ने गंध से जान लिया कि मोह के वशीभूत हो मेरी बहिन ने औषध मिश्रित आहार बहराया है तथा मेरे निमित्त हिंसा की है।
___मुनि ने चिंतन किया कि ऐसे जीवन से क्या लाभ? ऐसा चिन्तन करके मुनि ने मुद्गशैल शिखर पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया । कालवैशिक मुनि जब बालक थे तब उन्होंने रात्रि में सियार के शब्द सुनकर अपने व्यक्तियों से पूछा-'यह आवाज किसकी हैं?' व्यक्तियों ने उत्तर दिया- 'ये सभी जंगली सियार हैं।' कुमार ने सियार को बांधकर लाने की आज्ञा दी। राजपुरुष सियार को पकड़कर ले आए। कुमार कालवैशिक उसको पीटने लगा। पीटने से सियार ‘खी, खी' की आवाज करने लगा। आवाज सुनकर कुमार को बहुत प्रसन्नता हुई। इस प्रकार अत्यधिक पीटने से सियार मर गया। अकाम निर्जरा के कारण वह व्यन्तर देव के रूप में पैदा हुआ।
___ व्यन्तर देव ने अनशन में स्थित कुमार कालवैशिक मुनि को देखा तो तीव्र वैर उत्पन्न हो गया। उसने वैक्रिय शक्ति से सियार के बच्चों की विकुर्वणा की। अपने बच्चों सहित वह सियार रूप देव 'खी-खो' शब्द करके मुनि के शरीर को नोंचने लगा। इधर राजा ने जब मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान की बात सुनी तो राजपुरुषों को रक्षा के लिए भेज दिया। राजपुरुष वहां रहते तो देव चला जाता। जब आवश्यक कार्य के लिए वे जाते तो 'खी-खी' शब्द करता हुआ वह देव रूप सियार मुनि के शरीर को खाने लगता। इस प्रकार मुनि ने रोग परीषह को समता-पूर्वक सहन किया।
१९. तृणस्पर्श परीषह
श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा था। राजकुमार का नाम भद्र था! दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की। विहार करते हुए एक बार वह वैराज्य में पहुंचा। गुप्तचर समझकर सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। परिचय पूछने पर मुनि मौन रहे अत: सैनिकों ने मुनि को बहुत पीटा। शरीर लहुलुहान हो गया. फिर सैनिकों ने उस पर नमक छिड़क कर घास से वेष्टित कर छोड़ दिया। तब रक्त मिश्रित दर्भ के कारण उसे अत्यन्त वेदना होने लगी। उसने उस परीषह को समभावपूर्वक सहन किया। १. उनि.११६, उशांटी.प.१२०. १२१, उसुटी,प.४७। २. उनि.११७, उशांटी.प.१२२, उसुटी.प.४७।
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२०. जल्ल (मैल) परीषह (सुनंद)
___ चंपा नगरी में सुनन्द नामक वणिक् श्रावक रहता था। वह मैले-'कुचेलों से घृणा करता था। उसकी दुकान पर बहुविध वस्तुएं मिलती थीं । वह साधु को यथेच्छित वस्तुएं अवज्ञापूर्वक देता। औषध, भेषज आदि भी दान देता था।
एक बार ग्रीष्म ऋतु में पसीने से लथपथ मैले शरीर वाले कुछ मुनि दुकान पर आए। मुनि के शरीर से इतनी दुर्गन्ध निकल रही थी कि सुगंधित चीजें भी उस दुर्गध के नीचे दब गयौं । सुनन्द ने मन में चिंतन किया-'साधुओं का सारा आचार अच्छा है। यदि मैल धारण न करते तो कितना अच्छा होता।' सुनंद उस चिंतन की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल-कवलित हो गया और कौशाम्बी नगरी में श्रेष्ठी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। धर्म के महत्व को जानकर काम-भोगों से विरक्त हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षित होते ही उसके पूर्वबद्ध कर्म उदय में आ गए। मुनि के शरीर से भयंकर दुर्गन्ध निकलने लगी। वे भिक्षा के लिए जाते तो लोग उपहास तथा अवमानना करते। इसलिए अन्य साधुओं ने उन्हें भिक्षा के लिए भेजना बंद कर दिया। परेशान होकर मुनि ने रात्रि में देवता की आराधना की, कायोत्सर्ग किया। देव प्रभाव से मुनि के शरीर में सुगंधित द्रव्यों की खुशबू आने लगी। लोग फिर अवमानना करने लगे कि यह मुनि होकर सुगंधित द्रव्यों का सेवन करता है। मुनि ने पुनः देवता की आराधना को इससे मुनि का शरीर स्वाभाविक हो गया।' २१. सत्कार-पुरस्कार परीषह (इन्द्रदत्त पुरोहित)
चिरकाल से प्रतिष्ठित मथुरा नगरी में इन्द्रदत्त नामक पुरोहित रहता था। वह जैन धर्म का विरोधी था। जब कोई साधु उसके घर के नीचे से गुजरता तो वह अपने दोनों पैर लटका कर मानता कि मैंने साधु के शिर पर पैर रख दिए हैं। यह एक श्रावक ने देखा। उसे बहुत क्रोध आया कि यह साधुओं के ऊपर अपने पैर रखता है। उसने प्रतिज्ञा ली कि मैं अवश्य इस पुरोहित के पैर काटूंगा। वह उसका छिद्रान्वेषण करने लगा लेकिन उसे कोई मौका नहीं मिला।
एक दिन वह श्रावक आचार्य के पास गया, वंदना कर उसने सारी बात कही। आचार्य ने शिक्षा देते हुए कहा-'मुनि को सत्कार-पुरस्कार परीषह सहन करना चाहिए।' श्रावक ने पुन: निवेदन किया-'गुरुदेव! मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं उसके पैर का छेदन करुंगा। जो व्यक्ति शासन की अवहेलना करे उसे दंड मिलना चाहिए इसलिए आप मुझे कोई उपाय बतायें।'
यह सुनकर आचार्य ने पूछा कि इस पुरोहित का क्या अपना कोई घर है? श्रावक ने उत्तर दिया कि पुरोहित ने अभी नया प्रासाद बनवाया है। जिस दिन वह अपने प्रासाद में प्रवेश करेगा, उस दिन राजा को भोजन के लिए आमंत्रित करेगा। यह सुनकर आचार्य ने कहा-'राजा जब घर में प्रवेश करे तब तुम राजा का हाथ खींच कर उसे बाहर ही रख देना। मैं अपने विद्याबल से भवन गिरा दूंगा।' श्रेष्ठी मन ही मन प्रसन्न हुआ। उसने वैसा ही किया जैसा आचार्य ने निर्देश दिया। हाथ १. उनि. ११८, 'ठशांटी.प. १२३, १२४ उसुटी.प. ४८ ।
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खींचने का कारण जब राजा ने पूछा तो श्रेष्ठी श्रावक ने कहा- 'राजन् ! यह आपको मारना चाहता था। देखिये, वह भवन गिर गया है। राजा को उसकी बात पर विश्वास हो गया। राजा ने पुरोहित को सेठ को सौंप उचित दंड देने के लिए कहा। सेठ ने उसके पैरों में पहले इंद्रकील डाली फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पैर काट डाले। वह श्रावक सत्कार पुरस्कार परीषह सहन नहीं
कर सका।"
२२. प्रज्ञा परीषह (कालकाचार्य)
उज्जयिनी में कालकाचार्य विहार कर रहे थे। वे चरण-करण की आराधना में तत्पर तथा बहुश्रुत थे। उनके शिष्यों में किसी को अध्ययन की रुचि नहीं थी। सभी शिष्य अविनीत और प्रमादी
। वे सूत्रार्थ का अध्ययन नहीं करते थे। साधु की सामाचारी में भी आलस्य करते थे। मृदुवाणी में सारणा करने पर भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। भर्त्सना करने पर वे मन में वैर और कलुषता उत्पन्न कर लेते थे। आचार्य ने सोचा- 'इनको बार-बार अनुशासित करने पर मेरे सूत्रार्थ की हानि होती है और कर्मों का बंधन होता है।' आचार्य शिष्यों से परेशान हो गए। उन्होंने शय्यातर को अपना अभिप्राय बताकर सुवर्णभूमि की ओर विहार कर दिया।
सुवर्णभूमि में उनके पौत्र शिष्य आर्य सागर विहार कर रहे थे। नहीं पहचानने के कारण आचार्य सागर और उनके शिष्यों ने उठकर अभिवादन नहीं किया। आचार्य ने पूछा- 'आप कौन हैं?' कालकाचार्य ने कहा- 'मैं उज्जयिनी से आया हूं।' आचार्य कालक आर्य सागर के साथ एक वृद्ध के रूप में रहने लगे। आचार्य सागर को अपनी प्रज्ञा पर बहुत अभिमान था। एक बार सागर क्षमाश्रमण नै आर्य कालक से पूछा- 'वृद्ध मुने ! क्या तुमको कुछ समझ में आता है?' आचार्य कालक ने स्वीकृति में सिर हिलाया। आर्य सागर अपने शिष्यों के साथ उन्हें भी वाचना देने लगे।
I
उधर उज्जयिनी में प्रभातकाल में जब शिष्यों ने आचार्य कालक को नहीं देखा तो वे खोज करने लगे। उन्होंने शय्यातर से पूछा । शय्यातर ने कहा- आप लोग ऐसे अकृतज्ञ, प्रमादी और दुर्विनीत हैं, जो अपने गुरु के इंगित का पालन भी नहीं कर सकते।' शय्यातर ने डांटते हुए वास्तविक बात शिष्यों को बतायी। शिष्यों को बहुत ग्लानि हुई। सभी शिष्यों ने सुवर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। मार्ग में लोग पूछते कि यह किस आचार्य का संघ जा रहा है? साधु उत्तर देते कि यह कालकाचार्य का संघ जा रहा है। जनश्रुति से यह संवाद आर्य सागर के पास पहुंचा। इससे उन्हें प्रसन्नता हुई। उन्होंने आर्य कालक से कहा- 'मेरे गुरु के गुरु आ रहे हैं।' कालकाचार्य ने उत्तर दिया- 'मैंने भी ऐसा सुना है लेकिन उन्होंने अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया ।
सभी आगंतुक साधुओं ने आचार्य सागर को वंदना करके अपने आचार्य के बारे में पूछा । आर्य सागर ने शंकित होकर कहा कि कुछ दिनों पूर्व एक वृद्ध मुनि यहां आए थे लेकिन मैं आर्य कालक को आकृति से नहीं पहचानता । साधुओं ने अपने आचार्य को पहचान लिया। वे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। सभी ने गुरु से क्षमायाचना की। आर्य सागर को जब वास्तविकता ज्ञात हुई तब उन्होंने कालकाचार्य के चरणों में प्रणिपात कर क्षमायाचना की तथा आशातना के लिए मिथ्या दुष्कृत किया ।
९. उनि ११९, उशांटी.प. १२५, १२६ उसुटी.प. ४९ ।
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कुछ दिनों बाद आचार्य सागर ने कालकाचार्य से पूछा-गुरुदेव! मैं वाचना कैसी देता हूँ? आचार्य ने कहा-वाचना तो सुन्दर देते हो लेकिन इसके साथ गर्व मत करना। क्या पता कब-कौन सुनने आ जाए। आचार्य ने धूलिपुंज के दृष्टान्त से प्रतिबोध दिया कि जैसे अंजलि से भरी धूलि कुछ न कुछ कम होती जाती है, वैसे ही तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त ज्ञान भी कम होता जाता है। परम्परागत होने से इसके कितने ही पर्यायों का क्षरण हो जाता है। इसी प्रकार कीचड़ पिंड को भिन्न-भिन्न स्थान पर रखने से वह कम होता जाता है। इन दोनों उदाहरणों को हृदयंगम कर प्रज्ञा का मद नहीं करना चाहिए। आर्य कालक ने समतापूर्वक प्रज्ञा परीषह सहन किया। ज्ञात होने पर भी अपने प्रशिघ्य से वाचना लेते रहे लेकिन अपने आपको प्रकट नहीं किया। २२. अशा परीषड
___गंगा के किनारे दो भाई रहते थे। दोनों भाइयों ने विरक्त होकर मुनि दीक्षा स्वीकार कर ली। उनमें एक भाई बहुश्रुत हो गया तथा दूसरा अल्पश्नुत ही रहा। बहुश्रुत मुनि साधुओं को अध्यापन कराता था। उसे अनेक बार वाचना देनी पड़ती। दिन में वह अध्यापन में व्यस्त रहता तथा रात्रि में भी वह अच्छी तरह सो नहीं पाता। एक दिन नींद के कारण परेशान होकर बहुश्रुत आचार्य ने चिंतन किया- 'अहो! मेरा भाई कितना भाग्यशाली है, जो आराम करता रहता है और रात्रि में भी अच्छी तरह सोता है। मैं कितना मंदपुण्य हूं कि अच्छी तरह सो भी नहीं सकता।' इस चिंतन से उनके सघन ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हुआ। चिन्तन की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही वे स्वर्गस्थ हो गए।
___कालान्तर में वे देवलोक से च्युत होकर एक ग्वाले के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। क्रम से बालक बड़ा हुआ। यौवन आने पर माता-पिता ने एक सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री थी। एक बार दोनों-पिता और पुत्री दूसरे ग्वालों के साथ घी की गाड़ी भरकर बेचने जा रहे थे। उस गाड़ी को वह कन्या हांक रही थी। अन्य ग्वालों के लड़के उसके रूप पर आसक्त हो गए और वे भी अपनी बैलगाड़ियां उसके बराबर चलाने लगे। गाड़ी चलाते हुए वे उसको बार-बार देख रहे थे। इस असंतुलन के कारण शकट उत्पथ में चलने लगे। वे सब टूट गए। इस वारदात से उन्होंने लड़की का नाम असगडा (अशकटा) रख दिया। उसका पिता असगडपिता के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस घटना से ग्वाले को वैराग्य हो गया। उसने अपनी लड़की का विवाह कर दिया। घर की सारी सम्पत्ति उसे देकर वह दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने उत्तराध्ययन के तीन अध्ययन तो सीख लिए लेकिन चौथा अध्ययन सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आ गया। मुनि ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन सफलता नहीं मिली। मुनि ने आचार्य को निवेदन किया। आचार्य ने सारी बात बताकर कहा कि अभी तम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का उदय अतः जब तक कर्म क्षीण न हो तब तक आयम्बिल करते रहो । मुनि अदीन भाव से आयम्बिल करने लगे। इस प्रकार उसने बारह वर्षों तक अदीन भाव से आयम्बिल किया और उतने काल में उत्तराध्ययन का केवल चौथा अध्ययन असंखयं' सीखा। इस प्रकार उनका ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो गया। उसके बाद वे बहुत ज्ञान प्राप्त करने लगे। १. उति-१२०, उशांटी.प. १२७, १२८, उसुटी.प. ५०। २. उनि.१२१ उशांटी.प. १२९, १३०, उसुटी-प. ५१ ।
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२४. ज्ञान परीषह (स्थूलिभद्र)
स्थूलिभद्र एक बहुश्रुत एवं चतुर्दशपूर्वी आचार्य थे। उनके गृहस्थ-काल का एक बहुत घनिष्ठ मित्र था। विहार करते हुए एक बार आचार्य उनके यहां गए। मित्र घर पर नहीं था। उसकी पत्नी से आचार्य ने अपने मित्र के बारे में पूछा। महिला ने उत्तर दिया कि वे आजीविका कमाने के लिए गए हुए हैं।
जब आचार्य ने दीक्षा ली तब उनका मित्र बहुत सम्पन्न था, लेकिन तब आचार्य ने उसकी विपन्न अवस्था देखी। चारों ओर गरीबी दिखाई दे रही थी। उसके पूर्वजों ने एक खंभे के नीचे बहुमूल्य द्रव्य गाड़ रखे थे। आचार्य ने ज्ञानबल से वह गड़ा हुआ धन देख लिया। आचार्य उस खंभे की और हाथ कर बोले-'यह ऐसा है, वह वैसा है।' आचार्य के ऐसा कहने पर लोगों ने यह समझा कि घर पहले सम्पन्न था अब विपन्न है, शटित-गलित है। आचार्य अनित्यता का निरूपण करने के लिए ऐसा कह रहे हैं।
वह मित्र इधर-उधर भ्रपण कर घर लौटा। उसकी पत्नी ने आचार्य के आगमन की सारी बात बताई। महिला ने कहा-'आचार्य ने और कुछ नहीं कहा, केवल खंभे की ओर हाथ से संकेत करके कुछ कहा।' यह सुनकर वह वणिक् पूरा रहस्य समझ गया। उसने उस स्थान को खोदा। यहां रत्नों से भरे अनेक कलश निकले। वह पुनः सम्पन्न हो गया। आचार्य अपने ज्ञान परीघह को सहन नहीं कर सके।
२५. दर्शन परीषह
वत्सभूमि में आर्य आषाढ़ नामक बहुश्रुत आचार्य थे। उनका शिष्य परिवार बहुत बड़ा था। उनके संघ में जो शिष्य कालगत होते उन्हें वे पहले भक्तप्रत्याख्यान अनशन करवाते और कहते–'तुम देव बनकर अवश्य ही मुझे दर्शन देना।' अनेक मुनि अनशनपूर्वक दिवंगत हुए पर कोई वापस लौट कर नहीं आया। एक बार एक अत्यन्त प्रिय शिष्य मृत्यु-शय्या पर था। आचार्य ने उसे भक्तप्रत्याख्यान कराते हुए स्नेहपूर्वक कहा-'देवलोक में उत्पन्न होते ही शीघ्र यहां आकर दर्शन करना, प्रसाद मत करना।' उसने कहा-'आऊंगा।' मुनि दिवंगत हो गया लेकिन वह भी लौटकर नहीं आया। आचार्य ने सोचा-'यह निश्चित है कि परलोक है ही नहीं। अनेक लोग विश्वास दिलाकर गए पर कोई वापस नहीं आया। यह कष्टपूर्ण व्रतचर्या निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही भोगों का परित्याग किया।' आचार्य का मन डांवाडोल हो गया। वे उसी वेश में गण का परित्याग कर पलायन कर गए।
इसी बीच उस प्रिय शिष्य ने अवधिज्ञान से आचार्य की स्थिति को जाना । गुरु को प्रतिबोध देने हेतु उसने मार्ग में एक गांव की रचना की और सुन्दर नृत्य का आयोजन किया। नाटक को देखते हुए छह मास बीत गए। नाटक को देखते हुए आचार्य को न भूख सताती थी, न प्यास और न श्रम । देवता के प्रभाव से छह मास का काल बीतना भी उन्होंने नहीं जाना। देवता ने अपनी माया समेटी। आचार्य वहां से चले। देवता ने उनके संयम के परिणामों को परीक्षा करने हेतु षड्जीवनिकाय के
१. उनि.१२२, उशांटी. प. १३०, १३१, उसुटो. प. ५२।
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नियुक्तिपंचक
नाम से छह बालकों की विकुर्वणा की । वे बालक सब अलंकारों से अलंकृत थे। सबसे पहले आचार्य के पास पृथ्वीकाय नामक बालक आया । आचार्य ने सोचा-'यदि मैं इसके सारे गहने ले लूं तो जीवन सुखपूर्वक बीतेगा।' आचार्य ने बच्चे से कहा-'तुम्हारे गहने उतारकर दे दो।' बालक गहने देने से इन्कार हो गया।' आचार्य ने उसे गले से पकड़ा। बालक भयभीत होकर बोला-'भंते ! इस भीषण अरवी में मैं आपकी शरण में आया हूं अत: आप मेरी रक्षा करें। कहा है अनालंच का आलंबन, विपत्तिग्रस्त व्यक्ति का उद्धार तथा शरणागत की रक्षा-ये तोन रत्न हैं । इन तीनों से पृथ्वी समलंकृत है। आचार्य उसका गला पकड़ने लगे तब बालक बोला-'पहले मेरी कथा सुनें फिर आपको जो इच्छा हो वह करना।'
पृथ्वीकाय कथा सुनाते हुए बोला-एक कुंभकार मिट्टी को खोद रहा था। अचानक ऊपर की मिट्टी से वह आक्रान्त हो गया। लोगों ने पूछा-'यह क्या है?' कुंभकार बोला-'जिससे मैं भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढ़ा हूँ. इतिजनों का एषः" करना पृषी क्राप्त कर रही है। ओह! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है। इसी प्रकार आप भी मझ शरणागत पर प्रहार कर रहे हैं।' आचार्य ने कहा-'बोलने में तुम बहुत पंडित दिखाई दे रहे हो'-ऐसा कहकर बलपूर्वक उसके सारे आभरण लेकर पात्र में डाल लिए।
थोड़ी देर बाद अप्काय नामक दूसरा बालक आया। वह भी आभूषणों से अलंकृत था। आचार्य ने उससे भी गहनों की मांग को। अपकाय ने एक आख्यानक सनाते हुए कहा-'एक पार नामक तालाचर अनेक प्रकार की कथाएं सुनाकर आजीविका चलाता था। एक बार वह गंगा नदी को पार कर रहा था। इतने में नदी का तीव्र प्रवाह आया और वह पाटल बहने लगा। लोगों ने कहा-'जब तक तुम बहते-बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो।' उसने कहा-'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं । ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' इतना सुनने पर भी आचार्य ने उसके आभषण उतार लिए।
तीसरा बालक तेजस्काय सामने आया। उसने भी आचार्य को एक आख्यानक सुनाया। एक जंगल में एक तापस रहता था। वह प्रतिदिन अग्नि की पूजा करता, आहूति देता। एक बार उसी आग से उसकी झोपड़ी जलकर राख हो गयी। उस तापस ने कहा-'जिस अग्नि को मैं दिन-रात मधु-घृत से सींचता रहा हूं, उसी अग्नि ने मेरी पर्णशाला जला दी। शरण देने वाला भयप्रद हो गया।' दूसरा उदाहरण सुनाते हुए उसने कहा-'एक व्यक्ति जंगल में जा रहा था। इतने में व्याघ्र आता हुआ दिखाई दिया। उसने अग्नि की शरण ली। वह अग्नि जलाकर वहां बैठ गया। व्याघ्र अग्नि को देखकर भाग गया पर उसी अग्नि ने उसे जला डाला। जिसे शरण माना था वही अशरण हो गया।' आचार्य ने उसके गहने लिए और उसे छोड़ दिया।
चौथे बालक का नाम था-वायुकाय । आचार्य ने उसे भी आभूषण देने के लिए कहा। उसने आनाकानी की। आचार्य ने उसे मार डालने की धमकी दी। बालक बोला-'पहले मेरा आख्यानक सुनें फिर आपकी इच्छा हो वह करना। एक युवक शक्तिसम्पन्न और शरीर-संपदा से युक्त था। एक बार उसे वायुरोग हो गया। शीतल वायु भी उसे पीड़ित करने लगी। लोगों ने पूछा-'मित्र! पहले तुम कूदने-दौड़ने में समर्थ थे। अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीड़ित
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परिशिष्ट ६ :
कथाएं
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हो?" वायु रोग से पीड़ित मित्र ने कहा- 'जेठ और आषाढ़ मास में जो सुखद वायु चलती थी उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया। जिस वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा शरीर टूट रहा है।'
इतने में पांचवां बालक वनस्पतिकाय आया। उसने कहा- 'भंते! जंगल में एक विशाल वृक्ष पर अनेक पक्षी विश्राम करते थे। उस पर पक्षियों के अनेक घोंसले थे। घोंसले में अनेक बच्चे
। एक बार उसी वृक्ष के सहारे एक लता ऊपर उठी और पनपने लगी। धीरे-धीरे उसने सारे वृक्ष को आच्छादित कर दिया। एक दिन एक सर्प उस लता के सहारे चढ़ा और घोसले में स्थित सभी अंडों को खा गया। तब पक्षियों ने कहा- 'हम इस वृक्ष पर रहते थे तब यह निरुपद्रव था । किन्तु मूल से लता उठी और यह शरण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया।' आचार्य ने उसके भी आभूषण ले लिए और उसे छोड़ दिया।
इतने में छठा बालक सकाय आया। ज्योंहि आचार्य उसके आभूषण उतारने लगे वह बोला- 'गुरुबर ! यह आप क्या कर रहे हैं? मैं तो आपका शरणागत हूँ। मैं आपको एक आख्यानक सुनाता हूं। एक नगर पर शत्रु सेना ने चढ़ाई कर दी। शत्रु सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतर रहने वाले लोगों ने बाहर वालों को भीतर घुसने नहीं दिया। अंदर वाले लोगों ने कहा- ओं मातंगो ! अब तुम दिशाओं की शरण लो। जो नगर शरणस्थल था, वहीं भय का कारण बन रहा है। दूसरा आख्यानक सुनाते हुए उसने कहा- 'एक नगर में राजा, पुरोहित और कोतवाल तीनों ही चोर थे। जनता उनसे संत्रस्त थी। लोगों ने कहा--' जहां राजा स्वयं चोर हो, पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को वन की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि शरण भयस्थान बन रहा है।' दो आख्यानक सुनने पर भी आचार्य ने जब उसे नहीं छोड़ा तो उसने तीसरा आख्यानक सुनाना प्रारम्भ किया
एक ब्राह्मण के एक पुत्री थीं। बौवन प्राप्त होने पर वह अत्यन्त रूपवती दिखलाई पड़ती थी । ब्राह्मण पिता अपनी पुत्री में आसक्त हो गया। उस चिंता में उसका शरीर कृश हो गया। ब्राह्मणी ने इस बारे में पूछा। उसने सहजता से सारी बात बता दी। ब्राह्मणी ने कहा- आप अधीर न बनें। मैं ऐसा उपाय करूंगी, जिससे आपका मनोरथ पूरा हो जाए।' एक दिन ब्राह्मणी ने अपनी पुत्री से कहा--' पुत्री ! हमारे कुल की यह परम्परा है कि पुत्री का उपभोग पहले यक्ष करता है फिर उसका विवाह किया जाता है। इस मास की कृष्णा चतुर्दशी को यक्ष आएगा। तुम उसका अपमान मत करना। वहां प्रकाश भी मत रखना। लड़की के मन में यक्ष के प्रति कुतूहल जाग गया। कौतुकवश उसने दीपक पर ढक्कन दे दिया। रात को यक्ष के स्थान पर उसका पिता आया। वह उसके साथ रतिक्रीड़ा कर वहीं सो गया। लड़की ने कुतूहल- वश दीपक से ढक्कन उठाया। उसने अपने पास सोये पिता को देखा। उसने सोचा माता ने मेरे साथ छल किया है। जो कुछ होना है वह होने दो। इस समय यही पति हैं अतः लज्जा क्या लाभ? वे दोनों पुनः रतिक्रीड़ा में संलग्न हो गए। सूर्योदय होने पर भी वे जागृत नहीं हुए। मां ने मागधिका में एक गीत गाया- 'उदित होते सूर्य का चैत्य स्तूप पर बैठे कौए का तथा भींत पर आए आतप का सुख की बेला में पता नहीं चलता।' पुत्री ने उत्तर देते हुए कहा -'मां तुमने ही कहा था कि आए हुए यक्ष की अवमानना मत करना । यक्ष ने पिता का हरण कर लिया है अब दूसरे पिता का अन्वेषण करो।' ब्राह्मणी ने पुन: कहा - ' जिसको मैंने
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नियुक्तिपंचक
न मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे पति का हरण कर लिया। शरण मेरे लिए अशरण बन गया।'
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पुनः सकाय एक और कथानक कहने लगा। एक ब्राह्मण ने एक तालाब खुदवाया। उसके निकट उसने एक मंदिर और बगीचा बनवा दिया। वहां यज्ञ में बकरे मारे जाते थे। वह ब्राह्मण मरकर वहीं बकरा बना। उसके पुत्र उसी बकरे को तालाब के देवालय में यज्ञ में बलि देने के लिए ले गए। बकरे को जातिस्मृति हो गयीं। वह अपनी भाषा में बुड़बुड़ाने लगा। उसने मन ही मन सोचा - 'ओह ! मैंने ही तो देवमंदिर बनाया और मैंने ही यह यज्ञ प्रवर्तित किया।' कांपते हुए बकरे को एक अतिशय ज्ञानी ने देखा। मुनि ने बकरे को कहा - " -'तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो?' इस बात को सुनकर वह बकरा चुप हो गया। ब्राह्मणपुत्रों ने मुनि से पूछा - 'ग्रह बकरा तुम्हारे कुछ कहने मात्र से चुप कैसे हो गया?' साधु ने कहा -- 'यह तुम्हारा पिता है।' उसने पूछा- 'इसकी पहचान क्या है ?' मुनि ने कहा- 'पूर्वभव 'तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ जो धन गाड़ा है, इसे यह जानता है।' बकरा उस स्थान पर गया और अपने पैरों से उस पृथ्वी को कुरेदने लगा । पुत्र को विश्वास हो गया और उसने उस बकरे को मुक्त कर दिया। साधु के पास धर्म सुनकर बकरे ने भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार किया और मरकर देवलोक गया। उस ब्राह्मण ने यज्ञ और मंदिर को शरण मानकर उनका निर्माण किया लेकिन वे अशरण ही निकले ।
आचार्य ने उसकी बात सुनकर कहा तुम बोलने में अति चतुर और वाचाल हो। ऐसा कहकर आचार्य आषाढ़ उसका गला मरोड़ने लगे। उसने सुभाषित सुनाया - 'जो अंधों, हीन तथा लूलोंलंगड़ों पर, बाल-वृद्ध, क्षमाशील तथा विश्वस्त जनों पर, रोगियों तथा शरणागतों पर, दुःखी, दीन तथा दरिद्रों पर निर्दयता से प्रहार करते हैं वे अपने सात कुलों को सातवी नरक में ले जाते हैं।' तुम अति वाचाल हो, यह कहकर आचार्य ने उसके आभूषण भी ग्रहण कर लिए। देव ने सोचा- 'आचार्य. चारित्र से तो शून्य हो गए हैं अब इनके सम्यक्त्व की परीक्षा करनी चाहिए।' छहों के आभूषण लेकर आचार्य आगे चले। देव ने साज-श्रृंगार किए हुए एक गर्भवती साध्वी की विकुर्वणा को विभूषित साध्वी को देखकर आचार्य आषाढ़ ने कहा- 'अरे! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कुंडल हैं, आंखों में अंजन आज रखा है, ललाट पर तिलक हैं। हे प्रवचन का उड्डाह करने वाली दुष्ट साध्वी! तू कहां से आई है?' साध्वी कुपित होकर बोली- 'हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे दोषों को भी देख लेते हो किन्तु अपने बिल्व जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते।' साध्वी ने आगे कहा- आप श्रमण हैं, संयत हैं, ब्रह्मचारी हैं, कंचन और पत्थर को समान समझते हैं, वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी । हे ज्येष्ठायें! कृपा कर बताएं आपके पात्र में क्या हैं ?' साध्वी के ऐसा कहने पर आचार्य लज्जित होकर आगे-आगे चलने लगे। आगे चलने पर उन्होंने एक सेना को आते देखा। वे दंडनायक के सम्मुख गए। दंडनायक ने हाथी से उतरकर आचार्य को वंदना की और कहा - 'भंते! आज मेरा परम सौभाग्य है कि इस जंगल में आपके दर्शन हुए। आप मुझ पर अनुग्रह करें और ये प्रासुक मोदक मेरे हाथ से ग्रहण करें।' आचार्य ने उपवास की बात कहकर लेने से इंकार कर दिया। उसने बलपूर्वक पात्र ग्रहण किया और मोदक डालने लगा। झोली
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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में आभरण देखकर वह कुपित होकर भृकुटि चढ़ाकर बोला-' हे अनार्य! ये मेरे पुत्रों के आभरण हैं। तुमने उनको मारकर ये आभरण ग्रहण किए हैं? अभी तुम कहां जा रहे हो?' आचार्य भय से कांपने लगे और कुछ नहीं बोल सके । तत्काल देवता ने अपनी लीला समेटी और प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होकर बोला-'आप जैसे विशिष्ट आगमधरों के लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है कि परलोक नहीं है। देवलोक में अपार सुख हैं अत: सुख का उपभोग करते हुए बीते हुए काल का ज्ञान नहीं हो पाता। आप भी देव द्वारा कृत नाटक छह महीने तक खड़े-खड़े देखते रहे पर आपको काल का ज्ञान नहीं हुआ।'
__ आचार्य आषाढ़ परम संवेग को प्राप्त हुए और स्वयं की निंदा करने लगे। देव भी वंदना करके पुन: देवलोक चला गया। आचार्य भी आलोचना-प्रतिक्रमण करके वैराग्य की वृद्धि करते हुए विहरण करने लगे। २६. चोल्लक
कांपिल्य नामक नगर था। वहां के राजा का नाम ब्रह्म और पटरानी का नाम चुलनी था। उनका पुत्र ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती बना। जब वह कुमार था तब राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गयी। रानी चुलनी और राजा दीर्घ के आपस में प्रगाढ़ सम्बन्ध था अत: उनके भय से वह अपने मित्र वरधनु
गया। उस समय स्थान-स्थान पर घूमते हुए उसके सामने अनेक विपत्तियां आई लेकिन एक कार्पटिक ब्राह्मण ने उसकी बहुत सेवा की और उसे अनेक विपत्तियों से बचाया। कालान्तर में ब्रह्मदत्त राजा बन गया।
बारह वर्ष तक अभिषेक का कार्यक्रम चला। अभिषेक की बात सुनकर कार्पटिक वहां आया पर उसे वहां आश्रय नहीं मिला । अभिषेक का बारहवां वर्ष चल रहा था। कार्पटिक ने एक उपाय सोचा। वह अपने जूतों को बांधकर ध्वजारोहकों के साथ दौड़ने लगा। राजा ने उसे देखा और निकट वाले व्यक्ति से पछा-'यह किसकी ध्वजा लिए दौड रहा है। उन्होंने कहा-'राजन! हम नहीं जानते।' तब राजा ने उसे बुलाया। वह आया। राजा ने पहचान लिया कि यही मेरे सुखदुःख में सहायक रहा है। राजा तत्काल हाथी से नीचे उतरा। उसे गले लगाया और कुशलक्षेम पूछा।
राजा ने कार्पटिक से कहा-'जो चाहो मांग लो।' उसने कहा-'राजन् ! मैं अपनी पत्नी से पूछकर मांगूगा।' वह अपने गांव गया। पत्नी से कहा-'राजा संतुष्ट हुआ है । मैं जो कुछ मांगूगा, वह देगा। मैं क्या मांग?' पत्नी ने सोचा. इसे यदि समद्धि मिल जाएगी तो मेरा मल्य कम हो जायेगा अत: वह बोली-'अधिक परिग्रह से क्या? पूरे भारतवर्ष में प्रतिदिन सबके यहां भोजन और दक्षिणा में दीनार-युगल मांग लो।' कार्पटिक राजा के पास गया और बोला--'राजन् ! मुझे करचोलग दो अर्थात् मैं पहले दिन आपके प्रासाद में भोजन करूं फिर बारी-बारी से भारतवर्ष में आपके राज्य के सभी संभ्रान्त कुलों में भोजन प्राप्त कर पुनः आपके प्रासाद में भोजन करूं।' राजा ने मुस्कराकर कहा-'इस तुच्छ याचना से तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक देश का राज्य अथवा १. उनि.१२३-४१ उशांटी.प. १३३-३९ उसुटी.प. ५२-५५ ।
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निर्युक्तिपंचक
भंडार दे सकता हूं, जिससे तुम जीवन-भर हाथी के हाँदे पर सुखपूर्वक विचरण कर सको।' कार्पोटिक बोला- 'मुझे इतने विशाल परिग्रह से क्या करना है? मुझे इतने में ही संतोष है।' राजा ने सोचाजो जत्तियस्स अत्थस्स, भायणं तस्स तत्तियं होई ।
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वुडे वि दोणमेहे, न डुंगरे पाणियं ठाई ॥
- जिस व्यक्ति में जितने धन की पात्रता होती है, उसे उतना ही प्राप्त होता है। मूसलाधार
वर्षा होने पर भी डूंगर पर पानी नहीं ठहरता।
राजा ने करचोल्लग की बात स्वीकार कर ली। उसने पहले दिन राजा के यहां भोजन किया। राजा ने उसे दो दीनार भी दिये। अब वह बारी-बारी से नगर-कुलों में भोजन करने लगा। उस नगर में अनेक कुलकोटियां थीं। नगर के घरों में क्रमश: भोजन करता हुआ वह कब उनका अन्त ले पाएगा? उस नगर के पश्चात् सभी गांवों का तथा सम्पूर्ण भारत का क्रम वह कैसे पूर्ण कर पाएगा? संभव है किसी उपाय या देवयोग से वह सम्पूर्ण भारत के घरों का पार पा जाए पर मनुष्य जन्म को पुनः प्राप्त करना दुष्कर है ।!
२७. पाशक
पक ग्राम था वह
गोल्ल देश में था। एक बार उसके घर साधु ठहरे। ब्राह्मण के यहां दाढ़ा सहित पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चाणक्य रखा। ब्राह्मण ने उसे साधु के चरणों में वंदना करवाई। साधुओं ने कहा- 'यह राजा बनेगा।' ब्राह्मण ने सोचा यह दुर्गति में न चला जाए इसलिए उसके दांत घिस दिए। फिर भी आचार्य ने कहा- इतने पर भी यह पूरा राजा नहीं तो बिंबांतरित राजा अवश्य बनेगा।
जब बालक चौदह वर्ष का हुआ तब चौदह विद्यास्थानों में पारंगत हो गया । श्रावक उसके अध्ययन से बहुत प्रसन्न हुआ। एक दरिद्र ब्राह्मण कुल की कन्या के साथ चाणक्य का विवाह कर दिया गया। एक बार अपने भाई के विवाह प्रसंग में वह पीहर गयी। उसकी अन्य बहिनों का विवाह समृद्ध घरों में हुआ था। वे सब विवाह के अवसर पर आभूषणों से अलंकृत होकर आयी थीं। परिवार के लोग उनसे आलाप संलाप कर रहे थे। चाणक्य की पत्नी अकेली उदास बैठी रहती थी। दारिद्र्य के कारण वह अधीर हो गयी। जब वह पुनः अपने ससुराल आई तो चाणक्य ने उसकी उदासी का कारण पूछा। वह कुछ नहीं बोली केवल आंसुओं से अपने कपोल गीले करती हुई निःश्वास छोड़ती रही। चाणक्य बहुत आग्रहपूर्वक उसके दुःख का कारण पूछने लगा। उसने गद्गद वाणी से पीहर में घटित स्थिति बता दी। चाणक्य ने चिंतन किया- 'निर्धनता अपमान का कारण हैं इसलिए पीहर में भी लड़की का ऐसा परिभव होता है। मुझे किसी भी प्रकार से धन कमाना चाहिए। पाटलिपुत्र में नंद राजा ब्राह्मणों को धन देता हैं अतः वहां जाना चाहिए। वहां जाकर चाणक्य कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्वन्यस्त आसन पर सबसे पहले जाकर बैठ गया। वह आसन पल्लीपति के लिए बिछाया
जाता था।
१. उनि . १६९, उशांटी. प. १४५, १४६, इसुटी. प. ५६, ५७।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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नंदराजा के साथ सिद्धपुत्र वहां आया और बोला-'यह ब्राह्मण नंदवंश की मर्यादा का अतिक्रनाम कर बैठा है।' बासी - १६ गम से कहा...'भगवन् ! आप दूसरे आसन पर बैठे।' चाणक्य ने दूसरे आसन पर कुंडिका, तीसरे पर दंड और चौथे पर गणेत्रिका (रुद्राक्ष का बना हुआ हाथ का आभूषण विशेष) तथा पांचवें आसन पर यज्ञोपवीत रख दिया। यह ब्राह्मण धीठ है' ऐसा कहकर नंद ने उसे बाहर निकाल दिया। चाणक्य अत्यंत क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा के स्वर में बोला-'नंद
का कोश और भृत्यसमूह बद्धमूल है। इसका वंश और मित्र वर्ग वृद्धिंगत है । मैं नंद राज्य की वैसे ही उखाड़ कर निर्मूल कर दूंगा, जैसे उन पवन महावृक्ष को उखाड़ देती है।'
पन्य वहां से उस व्यक्ति की खोज में निकला,जो उसका सहयोग कर सके। उसने अपने बारे में प्रतिज्ञा बनने की बात सुनी। नंद के मोरपोषक एक गांव में रहते थे। चाणक्य परिव्राजक के रूप में उस गांद में गया। उसी दिन गांव के मुखिया की बेटी को चांद को खीर पोते हुए देखने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह भिक्षाटन करता हुआ वहां गया। दोहद की बात ज्ञात होने पर उसने कहा--'यदि तुम बालक मुझे दे दोगे तो मैं चांद को खीर पीता हुआ दिखा दूंगा।' मुग्लिया ने बात मान ली। चाणक्य ने कपड़े का तंबू ताना और उसके बीच में छेद कर दिया। उस दिन पूर्णिमा थी। आधी रात में अनेक द्रव्यों से मिश्रित खीर की थाली भरी और जहाँ चन्द्र का प्रतिबिम्ब उस छिद्र में से पड़ रहा था, उस पट-मण्डप के नीचे उसे रख दी। लड़की को बुलाया। उसने चांद का प्रतिबिम्ब देखा और यह भी देखा कि वह थाली से खीर पी रहा है, खा रहा है। फिर पूर्व निर्दिष्ट पुरुष ने उस छिद्र को ढंक दिया। दोहद पूर्ण होने पर कालक्रम से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। धीरे धीरे वह बढ़ने लगा। वह बच्चों के साथ खेलता और आनन्द में रहता था। चाणक्य वहां से चला गया। वह नंद की घात के लिए छिद्र देखने लगा। कालान्तर में वह लौटकर वहां पर आया। उसने चन्द्रगुप्त को देखा। चाणक्य के पास शस्त्रास्त्र थे। चन्द्रगुप्त ने कहा-'हमें भी दो'। चाणक्य बोला-'कोई तुम्हें इनसे मार न दे।' चन्द्रगुप्त ने उत्तर दिया-यह पृथ्वी वीरभोग्या है। जो वीर होगा, वही इसका उपभोग कर सकेगा।
चाणक्य ने जान लिया किोस बालक के पास शक्ति के साथ विज्ञान भी है। पूछा, यह बालक कौन है? लड़कों ने कहा-'यह परिव्राजक का पुत्र है।' तब चाणक्य ने कहा-'मै ही हूं वह परिखाजक।' यह बात सुन सबको आश्चर्य हुआ। चाणक्य ने बालक से कहा-'चलो, मैं तुम्हें राजा बनाऊंगा।' वह चाणक्य के साथ चला गया। चाणक्य ने लोगों को एकत्रित कर पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। नंद ने उसको छिन्न-भिन्न कर दिया। परिव्राजक भाग गया। नंद के अश्वारोह उसके पीछे पड़े । चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को एक पद्म सरोवर में छिपा कर स्वयं रजक का वेश धारण कर लिया। अश्वारोहियों ने उसे देखा। इतने में नंद का एक अश्वारोही वहां पर आया। वह जात्यश्व पर आरूढ था। उसने रजक वेशधारी चाणक्य से पूछा-'कहां है चन्द्रगुप्त?' चाणक्य बोला-'चन्द्रगुप्त इस पद्मसरोवर में छिपा हुआ है।' अश्वारोही ने देखा। उसने अपना वस्त्र चाणक्य को सौंप तलवार हाथ में ले ली। वह अपना कवच उतारकर जल में उतरने लगा। इतने में ही चाणक्य ने उसके हाथ से तलवार खींच कर उसके धड़ को अलग कर दिया। फिर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को पुकारा। चन्द्रगुप्त छुपे स्थान से बाहर निकला। दोनों उस जात्यश्व पर चढ़कर वहां से पलायन कर गये।
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नियुक्तिपंचक
चाणक्य ने चंद्रगुप्त से पूछा-'जिस समय मैंने तुम्हें जो कहा, क्या तुमने उस विषय में कुछ सोचा?' उसने कहा-'यही अच्छा हुआ। आप सब कुछ जानते हैं।' चाणक्य ने तब मन ही मन सोचा-'यह योग्य पुरुष है। यह कभी विपरिणत नहीं होता।'
___ चन्द्रगुप्त क्षुधातुर हुआ। चाणक्य उसे एक स्थान पर बिठा, स्वयं भोजन की गवेषणा करने गया। उसके मन में यह भय था कि यहां हमें कोई पहचान न ले। चलते चलते वह एक विप्र के घर पहुंचा। विप्र घर से बाहर गया हुआ था। उसके पुत्र को स्फेटित कर घर से दही मिश्रित अंदन लेकर चाणक्य चन्द्रगुप्त के पास आया और उसकी भूख शांत की।।
एक बार वे घूमते-घूमते एक गांव में आए। उन्होंने देखा कि एक घर में वृद्धा ने बर्तन में अपने पुत्रों को तरल खाद्य पदार्थ परोसा है। एक पुत्र ने खाने के लिए बीच में हाथ डाला। उसका हाथ जल गया। वह रोने लगा। वृद्धा ने कहा-'चाणक्य के समान मूर्ख मेरे वत्स! तुम खाना भी नहीं जानते?' चाणक्य द्वारा कारण पूछने पर वृद्धा बोली-'गर्म चीज किनारे से खानी चाहिए फिर खाते-खाते मध्य तक पहुंचना होता है। उस घटना से प्रेरणा लेकर चाणक्य हिनवसंकूट में गया। वहां पर्वतक राजा से मैत्री की। चाणक्य ने कहा-'नंद राज्य को हम ग्रहण कर आधा-आधा बांट लेंगे।' पर्वतक ने चाणक्य की बात स्वीकार कर ली। उसने तैयारी प्रारम्भ कर दी। परन्तु एक भी नगर हस्तगत नहीं हो रहा था। त्रिदंडी परिव्राजक चाणक्य वहां गया । इन्द्रकुमारियों को देखा। उसने सोचा कि इनकी तेजस्विता के कारण नगर का पतन नहीं हो रहा है। उसने छल-कपट कर उन इन्द्रकुमारियों को वहां से बाहर निकाल दिया। नगर हस्तगत हो गया। फिर उसने पाटलिपुत्र नगर पर आक्रमण किया। नंद ने धर्मद्वार मांगा। चन्द्रगुप्त ने कहा-'एक रथ में जितना ले जा सको, ले जाओ।' नंद तब अपनी दो पलियों, एक कन्या तथा कुछ धन लेकर बाहर निकल गया। रथ में पलायन करते समय वह नंद-कन्या बार-बार चन्द्रगुप्त की ओर देखने लगी। तब नंद बोला-'जा तू उसी के पास चली जा। वह नंद के रथ से उतरी और ज्योंहि चन्द्रगुप्त के रथ पर आरूढ़ हुई, उसी समय उस रथचक्र के नौ अर टूट गए। चन्द्रगुप्त ने अमंगल मानकर उसे निवारित करना चाहा। तब चाणक्य बोला-'अरे ! इसे मत रोको। नौ पुरुषयुगों तक तुम्हारा वंश चलेगा।' यह सुनकर चंद्रगुप्त ने उस नंदकन्या को स्वीकार कर लिया। वह उसके अंत:पुर में चली गई।
नंद राज्य के दो भाग कर दिए गए। एक भाग में एक विषकन्या रहती थी। महाराज पर्वतकं ने उस भाग की इच्छा की। उसे वह मिल गया। पर्वतक उस रूपवती विषकन्या के प्रेमजाल में फंस गया। अग्नि के स्पर्श की भांति विष के प्रभाव से वह मरने लगा। पर्वतक ने चंद्रगप्त से कहा-'मित्र! मैं मर रहा हूं।' चन्द्रगुप्त ने उसे विषमुक्त करने का प्रयत्न किया। सब चाणक्य ने भृकुटि तानकर इस नीतिवाक्य का स्मरण कराते हुए कहा
तुल्यार्थ तुल्यसामर्थ्य, मर्मज्ञ व्यवसायिनम्।
अर्द्धराज्यहरं भृत्य, यो न हन्यात् स हन्यते॥ 'वत्स ! इस नीतिवचन को याद रखो। जिसका प्रयोजन समान हो. अथवा ऐश्वर्य की समानता हो, जो समान बल वाला हो, मर्मज्ञ हो, पुरुषार्थ करने वाला हो, आधा राज्य लेने वाला
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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हो, उसकी यदि घात न की जाए तो व्यक्ति स्वयं मारा जाता है।' यह सुनकर चंद्रगुप्त अपने विचारों से विरत हो गया। महाराज पर्वतक मर गया। नंद का पूरा राज्य चंद्रगुप्त के अधीन हो गया।
___ नंद के अनुचर चोरी के आधार पर आजीविका चलाते थे। वे राजद्रोह करते थे। चाणक्य एक उग्र चोरग्राह (चोरों को पकड़ने वाला) की खोज में था। वह नगर के बाहर गया। वहां नलदाम जुलाहे को देखा। उसके पुत्र की एक मकोड़े ने खा लिया। उसने कुपित होकर मकोड़े का बिल खोदकर अग्नि जलाकर सब मकोड़ों को नष्ट कर दिया। चाणक्य ने यह दृश्य देखा। उसने सोचा कि यह श्रेष्ठ चोरगाह बन सकता है। चाणक्य ने उसे बुलाया और ससम्मान आरक्षक बना दिया। सबसे पहले मलदाम ने उन चोरों का विश्वास प्राप्त किया। भोजन, पानी आदि के उपचार से उन्हें विश्वस्त कर दिया। एक बार उन सबको सकुटुम्ब भोजन पर बुलाया और सबको मरवा दिया। राज्य निष्कंटक हो गया।
कोश को समद्ध करने के लिए चाणक्य ने समृद्ध लोगों के साथ मद्यपान करना प्रारम्भ कर दिया। उस समय विशेष वाद्य बजने लगे। वह सबमें भय पैदा करने के लिए नाचते हुए गाने लगा
दो मज्झ धाउरत्ताई, · कंचणकुंडिया तिदंडं च।
राया वि मे वसवत्ती, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मेरे दो भगवा वस्ख हैं-कंचन कुंडिका तथा त्रिदंड। राजा भी मेरे वशवर्ती हैं। यहां मद्यपान करते समय भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए।
दूसरा व्यक्ति इन वचनों को सहन नहीं कर सका। वह अपनी ऋद्धि को प्रदर्शित करते हुए नाचते हुए बोला
गयपोययस्स मत्तम्स, उप्पइयस्स य जोयणसहस्स।
पए पए सयसहस्स, एत्य वि ता मे होलं वाएहि ॥ मत्त हस्तिशावक जो सहस्त्र योजन तक जा चुका है। उसके एक-एक पग पर हजार-हजार मुद्राएं देता हूं। इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। तीसरा व्यक्ति बोला
तिलआवयस्स बुत्तस्स, निष्फन्नस्स बहुयसइयस्सर ।
तिले-तिले सयसहस्स, एत्थ वि ता मे होल पाएहि ॥ मैंने एक आढक तिल बोए। उससे अनेक शत आढक तिल निष्पन्न हुए। एक-एक तिल पर एक-एक लाख की मुद्रा देता हूं। यहां भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। चौथा व्यक्ति बोला
णवपाउसम्भि पुन्नाए, गिरिनदियाए सिग्यवेगाए। एगाह महियमेत्तेण, नवीएण पालिं बंधामि॥ एत्य व ता मे होल वाएहि ।
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नियुक्तिपंचक
वर्षाकाल पूर्ण हो जाने पर पर्वतीय नदियों के शीघ्रगामी प्रवाह को रोकने के लिए मैं नवनीत की पाल बांधता हूं। इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। पांचवां व्यक्ति बोला
जच्चाण णवकिसोराण, तदिवसेण जायमेवाण।
केसेहि नभं छाएमि, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ तत्काल उत्पन्न जात्य अश्व किशोरों के केशों से मैं नभ को आच्छादित कर देता हूं। इस पर भो होल नामक वाद्य बजना चाहिए। छठा व्यक्ति बोला--
दो मज्झ अस्थि रयणाई, सालिपसूई य गद्दभीया य।
छिन्ना छिन्ना वि रुहंति, एत्थ वि ता मे होल वाएहि ॥ मेरे पास दो रत्न हैं --सालिप्रसूति और गर्दभिका (विद्याविशेष), जो काट लेने पर भी बारबार उगते रहते हैं। इस पर भी होल नायक वाद्य बजना चाहिए। सातवां व्यक्ति बोला
सय सुक्किल निच्चसुर्यधो, भज्ज अणुव्यय णत्थि पवासो।
निरिणो य दुपंचसओ, एत्थ वि ता मे होल वाएहि ॥ मुझे सदा श्वेत शालि धान का भोजन मिलता है। पत्नी अनुगामिनी हैं। प्रवास नहीं है। ऋण-मुक्त हूं। पास में हजार स्वर्णमुद्राएं हैं। यहां भी होल नामक वाद्य चजना चाहिए।
चाणक्य ने यह सब सुना। सबसे यथोचित धन की याचना की। शालि से कोष्ठागार भर दिए, जिनके प्रभाव से बार-बार काटने पर भी खेती ज्यों की त्यों बनी रहती थी। एक दिवसजात अश्वों की मांग की। एक दिवसीय नवनीत मांगा। स्वर्ण-उत्पादन के लिए चाणक्य ने यंत्रमय पाशक बनाए । एक दक्ष व्यक्ति को पाशे चलाने सिना दिए। उसने दीनारों से एक थाल भरा । वह दक्ष व्यक्ति धाल को लिए घोषणा करने लगा-'जो कोई मुझे जुए में जीत लेगा, मैं उसे दीनारों से भरा यह थाल दे दूंगा। यदि मैं जीतूंगा तो केवल एक दीनार लूंगा।' लोग लोभाविल हो उसके साथ जुआ खेलने लगे। दक्ष पुरुष की इच्छानुसार पाशे गिरते। सदा वही जीतता। कोई उसे पराजित नहीं कर सका।
कदाचित् कोई उस दक्षपुरुष को पाशे में जीत भी सकता है पर दुर्लभ मनुष्य जन्म पुनः मिलना दुर्लभ है।
२८. धान्य
भरत क्षेत्र के सभी धान्यों को पिंडित करके ढेर लगा दिया। उसमें एक प्रस्थ सरसों के दाने डाल दिए। वृद्धा सूर्प लेकर सरसों के दानों को अलग करने लगी। क्या वह पुनः सारे सरसों १. उनि. १६१, उसुटी. प. ५७-५९ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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के दानों को पृथक् कर पाएगी? दिव्यप्रसाद से वह वृद्धा दानों को पृथक कर भी ले परन्तु पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुष्कर है। २९. चूत
एक राजा था। उसका सभामंडप एक सौ आठ खंभों पर आधृत था। एक-एक खंभा एक सौं आठ कोणों से युक्त था। एक बार राजकुमार का मन राज्य-लिप्सा से आक्रान्त हो गया। उसने सोचा-'राजा वृद्ध हो गया है अत: उसे मारकर राज्य ग्रहण कर लूंगा।' अमात्य को यह बात ज्ञात हो गयी। उसने राजा को इस बात की अवगति दी। राजा ने सोचा- लोभ से आक्रान्त व्यक्ति के लिए कुछ भी अकरणीय नहीं होता। राजा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा-'हमारे वंश की परम्परा है कि जो राजकमार राज्य -प्राप्ति के अनक्रम को सहन नहीं करता टसे जुआ खेलना होता है और उस जुए को जीतने पर हो उसे राज्य प्राप्त हो सकता है। जीतने का क्रम यह है कि जुए में एक दांव तुम्हारा होगा और शेष दांव हपारे होंगे। यदि तुम एक दांव में एक सौ आठ खंभों के एक एक कोण को एक सौ आठ बार जोत लोगे तो राज्य तुम्हारा हो जाएगा।'
रेसा होना ही है.किरी यति देगे से ऐसा हो जाए और राजकुमार जीत जाए तो भी विनार मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है।
३०. रल
एक वृद्ध वणिक् के पास अनेक रत्न थे। उसी नगर में अन्य अनेक कोट्याधीश वणिक् जनक मकानों पर पताकाएं फहराती थीं। उस वणिक के घर पर पताकाएं नहीं फहराती थी। एक बार वृद्ध देशान्तर चला गया । वृद्ध के जाने पर पुत्रों ने सारे रत्न विदेशी व्यापारियों को बेच डाले। पुत्र खुश थे कि हमारे घर पर भी पताकाएं फहरेंगी। वृद्ध देशान्तर से आया और रत्नों के विक्रय की बात सुनकर चिंतित हो गया। उसने पुत्रों का डांटा और कहा -'बेचे हुए सारे रत्न शीघ्र ही वापिस लेकर आओ।' पुत्र परेशान हो गए, क्योंकि उन्होंने सारे रत्न परदेशी व्यापारियों को बेचे थे। व्यापारी फारस आदि देशों में वापिस लौट गए थे। पुत्र रत्नों को एकत्रित करने इधर-उधर घूमने लगे। जैसे व्यापारियों से रत्न एकत्रित करना असंभव था वैसे ही मनुष्य जन्म पुन: प्राप्त करना असंभव
३१. स्वप्न
उज्जयिनी नगरी में सभी कलाओं में कुशल, अनेक विज्ञान में निपुण, उदारचित्त, कृतज्ञ, शूरवीर, गुणानुरागी, प्रियवादी, दक्ष तथा रूप-लावण्य से युक्त मूलदेव नामक राजपुत्र रहता था। वह घृत न्यसन के कारण पिता द्वारा अपमानित होकर पाटलिपुत्र से भ्रमण करता हुआ उञ्जयिनी आया। उज्जयिनी में गुटिका के प्रयोग से वामन रूप बनाकर, वेश परिवर्तन कर विचित्र कथाओं, गंधर्व आदि कलाओं तथा अनेक कौतुकों से वह लोगों को विस्मित करने लगा। लोगों में उसकी बहुत प्रसिद्धि हो गई। १. उनि.१६१, उसुटी.प. ५९। २. उनि.१६१, उसुटी.प. ५९। ३. उनि.१६१, उसुटी प. ५९ ।
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नियुक्तिपंचक
उज्जयिनी नगरी में रूप लावण्य और विविध कलाओं से गर्वित देवदत्ता नामक प्रधान गणिका रहती थी। मूलदेव ने लोगों से सुना कि वह आत्मगर्विता गणिका किसी सामान्य व्यक्ति से प्रसन्न नहीं होती। मूलदेव ने कुतूहलवश गणिका को विचलित करने के लिए प्रात:काल उसके घर के समीप मधुर स्वरों में आरोह-अवरोह के साथ गायन प्रारम्भ कर दिया । देवदत्ता ने उस संगीत को सुना। उसने सोचा- 'अहो ! यह तो अपूर्व ध्वनि है, विशिष्ट ध्वनि हैं। यह कोई दिव्य पुरुष होना चाहिए। मनुष्य का स्वर नहीं हो सकता उसने अपनी वासियों को गायक पुरुष की खोज में भेजा। दासियों ने वामन रूप मूलदेव को देखा। उन्होंने सारी बात देवदत्ता को बताई । मूलदेव को बुलाने के लिए देवदत्ता ने मानवी नामक कुब्जा दासी को भेजा । दासी ने विनयपूर्वक मूलदेव से कहा- 'भो महासत्त्व! हमारी स्वामिनी देवदत्ता ने आपको संदेश भिजवाया है कि आप हमारे घर पधारने की कृपा करें।' मूलदेव ने उस निपुण कुब्जा दासी से कहा- 'नीतिकारों का वचन है कि विशिष्ट लोगों को वेश्याओं के साथ सम्पर्क नहीं रखना चाहिए अतः गणिका के यहां जाने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं है और न ही अभिलाषा हैं। कुब्जा दासी ने अपने वाक् कौशल से मूलदेव का चित्त प्रसन्न कर लिया और आग्रहपूर्वक हाथ पकड़कर घर ले जाने लगी। चलते-चलते वामन रूपधारी मूलदेव ने कला कुशलता और विद्याप्रयोग द्वारा हस्त- ताड़न से उस कुब्जा को स्वस्थ बना दिया। उसका कुब्जपना मिटा दिया। विस्मय से क्षिप्त चित्तवाली कुब्जा दम्मी मूलदेव को भवन में ले गई। देवदत्ता ने अपूर्व लावण्यधारी उस वामनरूप मूलदेव को देखा । देवदत्ता वेश्या ने त्रिस्थित होकर उसे आसन और ताम्बूल दिया। वह आसन पर बैठ गया। माधवी ने देवदत्ता को अपना परिवर्तित रूप बताया और पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर देवदत्ता अत्यन्त विस्मित हुई । अब देवदत्ता और मूलदेव दोनों में परस्पर मधुर और पांडित्यपूर्ण संलाप शुरू हो गया। मूलदेव ने उसके हृदय को आकृष्ट कर लिया ।
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इसी बीच एक वीणावादक वहां आया और वीणा बजाने लगा । देवदत्ता उसे सुनकर अत्यन्त अनुरक्त हो गयी। देवदत्ता ने कहा- 'अरे वीणावादक ! तुम्हारी वीणावादन की कला बहुत सुन्दर है।' मूलदेव ने व्यंग्य में कहा-'उज्जयिनी के लोग बहुत निपुण हैं, जो सुन्दर और असुन्दर का विवेचन कर सकते हैं।' देवदत्ता ने कहा- 'इसमें हानि क्या है ?' मूलदेव ने कहा - ' इस वीणा का बांस अशुद्ध है तथा तंत्री सगर्भा है।' देवदत्ता ने विस्मय से पूछा - ' यह तुमने कैसे जाना?' मूलदेव ने कहा—'मैं अभी दिखाता हूं।' देवदत्ता ने वीणा मूलदेव के हाथ में थमा दी। मूलदेव ने बांस से पत्थर के टुकड़े को निकाला। फिर तंत्री से बाल निकालकर वीणा बजाने लगा। मूलदेव ने परिजन सहित देवदत्ता को अपने अधीन कर लिया। पास में ही एक हथिनी बंधी हुई थी। वह सदा चिंघाड़ती रहती थी। वह भी वीणा के स्वर सुनकर उत्कर्ण हो गयी। देवदत्ता और वीणावादक - दोनों ही अत्यधिक विस्मित हुए। देवदत्ता ने सोचा- 'यह प्रच्छन्न वेश में विश्वकर्मा हैं।' देवदत्ता ने वीणावादक को पारितोषिक देकर भेज दिया। भोजन बेला आई। देवदत्ता ने कहा- ' अंगमर्दक को बुलाओ । हम दोनों - मैं और मूलदेव अपना अंगमर्दन करवाएंगे।' मूलदेव ने देवदत्ता से कहा- 'मुझे आज्ञा दें, मैं ही आपका अभ्यंगन करूं।' देवदत्ता ने पूछा- 'क्या तुम अंग-मर्दन भी जानते हो?' मूलदेव ने
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
कहा--'मैं भली भांति तो नहीं जानता लेकिन अंगमर्दन के ज्ञाता लोगों के पास रहा हूँ।' दासी चंपक का तेल लेकर आई। मूलदेव ने अभ्यंगन प्रारम्भ कर दिया। वह मूलदेव के दशवर्ती हो गयी।
देवदत्ता ने सोचा-'अहो इसके पास विज्ञान का अद्भुत अतिशय है । इसकी हथेली का स्पर्श भी अपूर्व है । यह निश्चित ही प्रच्छन्न रूप से सिद्धपुरुप होना चाहिए। प्रकृति से इस रूप वाले का इतना प्रकर्ष नहीं हो सकता अरा : इसके मूल रूप को प्रकट करवाऊंगी।' देवदत्ता भूलदेव के चरणों में गिर पड़ी और बोली-'महानुभाव ! आपके असाधारण गुणों से ही मैंने आपको पहचान लिया है कि आप उत्तमपुरुप हैं. वात्सल्ययुक्त हैं तथा उदार हैं अत: आप अपना मूल रूप प्रकट करें। आपके मूल रूप का दर्शन करने हेतु मेरा हृदय अत्यंत उत्कंठित है।' बहुत अधिक आग्रह करने पर मुस्कराकर मूलदेव ने वेश-परावर्तिनी गुटिका निकाली। गुटिका के प्रयोग से वह मूल रूप में आ गया। सूर्य के समान दीप्त तेज, कामदेव के समान मोहित रूप तथा नव यौवन और लावण्य से युक्त उस मूलदेव को सबने देखा। हर्ष के कारण रोमांचित होकर देवदत्ता मूलदेव के चरणों में पुन: गिर पड़ी। देवदत्ता चोली-'आपने अपने हाथों से अभ्यंगन किया यह मुझ पर अत्यंत कृपा की है। स्नान करने के बाद दोनों ने अच्छी तरह भोजन किया, देवाय पहना और वार्तालाप करने एक स्थान पर बैट गए। देवदत्ता ने कहा-'महाभाग ! तुमको छोड़कर कोई भी दूसरा पुरुष मेरे भन को अतरंजित नहीं कर सका। नोतिविदों ने यह सच ही कहा है
नयणेहि को न दीसह ?, केण समाणं न होंति उल्ल्यवा।
हिययाणंदं जं पुण, जणेइ तं माणुसं विरलं ।। 'आंखों से कौन दिखाई नहीं देता? किसके साथ आत्लाप-संलाप नहीं होता? किन्तु हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला पुरुष विरल ही होता है। मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि आप प्रतिदिन मेरे घर आया करें।' मूलदेव ने कहा.-'गुणानुरागिणी देवी! अन्य देश से आए मुझ जैसे निर्धन से प्रतिबद्धता रखना आपके लिए शोभास्पद नहीं है। ऐसा स्नेह स्थिर नहीं रहता है क्योंकि सभी व्यक्ति प्रयोजनवश ही स्नेह करते हैं।' देवदता बोली- 'सत्पुरुषों के लिए स्वदेश और परदेश जैसा कुछ नहीं होता अत: आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।' देवदत्ता का आग्रह देखकर मूलदेव ने उसको प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन दोनों का आपस में स्नेहयुक्त संबंध हो गया।
एक बार देवदत्ता ने राजा के समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत किया। उसमें मूलदेव ने वाद्य बजाए । राजा उससे बहुत संतुष्ट हुआ और एक वरदान दिया । देवदत्ता ने राजा से कहा-'आप मेरा यह वरदान धरोहर के रूप में रखें। समय आने पर मांगी।'
मूलदेव अत्यन्त धूत व्यसनी धा। वह पहनने के कपड़े भी दांव पर लगाने से नहीं चूकता था। देवदत्ता ने अनुनयपूर्वक मधुर स्वर में मूलदेव को कहा-'प्रियतम ! चन्द्रमा में कलंक की भांति तुम इस व्यसन को क्यों धारण किए हुए हो? तुम सब गुणों से अलंकृत हो पर द्यूत रूप कलंक से कलंकित हो । द्यूत सभी दोषों का घर हैं अत: मेरे आग्रह से तुम इस व्यसन को पूर्ण रूप से छोड़ दो।' द्यूत में अत्यधिक रस होने के कारण मूलदेव उसे छोड़ नहीं सका।
देवदत्ता के प्रति वहीं का निवासी अचल नामक सार्थवाह-पुत्र भी अत्यधिक आग्यतः !!
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नियुक्तिपंचक
वह देवदत्ता को इच्छानुसार वस्तुएं देता था। समय-समय पर वस्त्र-आभरण आदि भी भेजता रहता था वा के प्रति प्रदेश रखता था। वह निरन्तर उसके दोष खोजने की ताक में रहता था। उसके कारण मूलदेव अवसर के बिना देवदत्ता के घर नहीं जा सकता था। देवदत्ता की मां ने अपनी पुत्री से कहा-'बेटी ! इस मूलदेव को छोड़ दे। इस निर्धन से तुम्हारा कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है । वह उदार महानुभाव अचल बार-बार तुम्हारे लिए विविध प्रकार की सामग्री भेजता है अत: पूर्ण प्रणय से उसी को अंगीकार करो। एक ही म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। अलूणी शिला को कोई नहीं चाटता। इसलिए तू जुआरी मूलदेव को छोड़ दे।' देवदत्ता ने कहा-'अम्मा! मैं एकान्त रूप से धन की अनुरागिनी नहीं हूं। मेरी प्रतिबद्धता गुणों के साथ है।' मां ने पूछा-'उस जुआरी में ऐसे क्या गण हैं. जिससे त उस पर इतनी आसक्त है?'देवदत्ता ने कहा-'मां! वह गणों का भण्डार है । वह धीर, उदारचरित, अनुकूल, कलानिपुण, प्रियभाषी, कृतज्ञ, गुणानुरागी और विशेषज्ञ है अतः मैं उसे नहीं छोड़ सकती।' कुट्टिनी ने अनेक दृष्टान्तों से देवदत्ता को प्रतिबोध दिया कि जो अलक्तक मांगने पर नीरस वस्तु देता है, इक्षुखंड मांगने पर उसके छिलके मात्र देता है, फूल मांगने पर वृन्तमात्र देता है। वह जैसा है वैसा ही तुम्हारा प्रियतम है फिर भी तुम उसको नहीं छोड़ रही हो।' देवदत्ता ने सोचा-'मेरो मां मूढ़ है, इसीलिए ऐसे दृष्टान्त दे रही है।'
एक दिन देवदत्ता ने अपनी मां से कहा-'मां! आप अचलकुमार से इक्षु मंगवाएं।' उसने अचल को इक्षु लाने को कहा। अचल ने शकट भरकर इक्षु भेज दिए। देवदत्ता ने कहा-'क्या मैं हथिनी हूं जो इस प्रकार के पत्तों और डालों से युक्त प्रभूत इक्षु भेजे हैं।' देवदत्ता की मां ने कहा-'पुत्री ! अचलकुमार बहुत उदार है इसीलिए उसने शकट भरकर इक्षु भेजे हैं। उसने यह भी सोचा होगा कि वह दूसरों को भी इक्षु बांटेगी इसलिए प्रभूत इक्षु-दंड भेजे हैं।'
दूसरे दिन देवदत्ता ने अपनी दासी माधवी से कहा-'हले ! जाकर मूलदेव को कहो कि मेरी इक्षु खाने की इच्छा हो रही है अत: वह इक्षु भेजे।' दासी ने जाकर सारी बात बताई। मूलदेव ने बाजार में जाकर दो इक्षुदंड खरीदे। उसको छोलकर उसने दो-दो अंगुल प्रमाण टुकड़े किए। इलायची से उन्हें सुगंधित किया। कपूर आदि द्रव्यों से उन्हें वासित किया। एक शूल से थोड़ा छेद करके उन्हें माला के रूप में धागे में पिरो दिए। एक बर्तन में उन्हें रखकर ढक्कन देकर देवदत्ता के पास भेज दिए। माधवी ने वे इक्षुखंड देवदत्ता को उपहत किए। देवदत्ता ने उन इक्षु खंडों को अपनी मां को दिखाते हुए कहा-'देखो मां! दोनों पुरुषों में कितना अंतर है? गुणों के कारण ही मैं मूलदेव पर अनुरक्त हूं।' मां ने सोचा-'यह मूलदेव पर अत्यंत अनुरक्त है अत: यह स्वयं उसे नहीं छोड़ेगी। मुझे कोई न कोई उपाय करना चाहिए, जिससे यह कामुक यहां से चला जाए।' उसने अचल से कहा-'तुम बहाना बनाकर ग्रामान्तर जाने की बात देवदत्ता को कहो। फिर मूलदेव के यहां आने पर अपने लोगों के साथ यहां आकर उसका अपमान करो। अपमानित होने पर वह देशत्याग कर देगा। फिर तुम देवदत्ता के साथ ही रहना। मैं तुम्हें सारी सूचनाएं भेज दूंगी।' अचल ने यह बात स्वीकार कर ली। दूसरे दिन उसने वैसा ही किया। वह नामान्तर जाने के बहाने घर से निकल पड़ा। मूलदेव निर्भय होकर देवदत्ता के यहां आया। देवदत्ता की मां ने अचल को मूलदेव के आगमन की बात कहलवा दी। वह अपनी साधन-सामग्री के साथ वहां आ गया। देवदत्ता ने अचल
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
को अपने भवन में प्रवेश करते देखा । उसने मूलदेव से कहा-'प्रतीत होता है कि मां ने अचल द्वारा प्रेषित सामग्री स्वीकार कर ली है अत: तुम कुछ क्षणों के लिए पलंग के नीचे छिप जाओ।' वह पलंग के नीचे छिप गया। अचल ने उसे पलंग के नीचे छिपते देख लिया। अचल पलंग पर बैठ *गया और देवदत्ता से बोला-'स्नान की सामग्री तैयार करवाओ।' देवदत्ता ने कहा-'ठीक है, तुम उठो और अपने कपड़े उतारो जिससे शरीर में तेलमर्दन किया जा सके। अचल बोला-'आज मैंने स्वप्न देखा है कि कपड़े पहनकर ही मैंने तेलमर्दन करवाया है तथा पलंग पर आरूढ़ होकर ही स्नान किया है। इसलिए मेरे इस स्वप्न को सत्य करो।' देवदत्ता ने कहा-'इससे यह बहुमूल्य रूई का गद्दा और तकिया नष्ट हो जाएगा। अचल ने कहा-'मैं तुमको इससे भी अधिक विशिष्ट और कीमती बिछौना ला दूंगा। देवदत्ता की मां ने कहा-'ठीक है, तुम्हारी इच्छा पूरी करो।' अचल ने वहीं पलंग पर बैठकर अंगमर्दन और उबटन करवाया तथा गर्म पानी से स्नान किया। नीचे बैठा मूलदेव पानी से भीग गया। तत्काल आयुध ग्रहण किए हुए अनेक पुरुष वहां आ गये। देवदत्ता की मां ने अचल को मूलदेव का संकेत कर दिया। उसने मूलदेव के बालों को पकड़कर बाहर निकाला और कहा'अरे ! बोल इस समय तेरा कोई शरण है?' मूलदेव ने अपने चारों ओर देखा। तीक्ष्ण तलवारों को हाथ में लिए अनेक मनुष्य उसे घेरे हुए थे। उसने सोचा-'मैं आज इन लोगों से बच नहीं सकता अत: मुझे वैर-निर्यातन-वैर-शुद्धि कर लेनी चाहिए। मैं इस समय नि:शस्त्र हूं अत: यह पौरुष दिखाने का अवसर नहीं है।' मूलदेव ने चिंतन करके कहा-'जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो।' अचल ने सोचा-आकृति से तो यह कोई उत्तम पुरुष प्रतीत होता है। संसार में महापुरुष भी व्यसन से आक्रान्त हो जाते हैं। कहा भी है-'संसार में कौन ऐसा व्यक्ति है,जो सदा सुखी है, किस व्यक्ति के पास लक्ष्मी स्थिर रही है? कौन ऐसा व्यक्ति है, जिससे स्खलना नहीं होती? कौन ऐसा है जो विधि-भाग्य के द्वारा दुःखी या कदर्थित न हुआ हो?' अचल ने कहा-'भूलदेव ! मैं तुम्हें इस अवस्था में मुक्त कर रहा हूँ। भाग्यवश मैं भी कभी ऐसी विपत्ति में फंस जाऊं तो तुम भी ऐसा ही बर्ताव करना।
तब मूलदेव दु:खी मन से नगर के बाहर चला गया। उसने सोचा, ओह ! किस प्रकार मैं अचल से छला गया हूं। उसने सरोवर में स्नान किया और कुछ खाया. पीया । मूलदेव ने चिंतन किया कि मैं विदेश जाऊं। वहां जाकर इस अपमान का प्रतिकार करूं । वह वेन्नातट की ओर चला। ग्राम, नगर आदि के मध्य से जाते हुए वह बारह योजन लम्बी अटवी के पास पहुंचा। उसने सोचा कि यदि चलते हुए कोई वामित्र मिल जाए तो सुखपूर्वक अटवी पार हो जाए। थोड़ी देर में वहां विशिष्ट आकृति वाला, पाथेय हाथ में लिए हुए 'टक' ब्राह्मण मिला। मूलदेव ने पूछा-'अरे ब्राह्मण ! कितनी दूर जाओगे?' उसने कहा-'अटवी के परे वीरनिधान नामक गांव है, वहां जाऊंगा।' ब्राह्मण ने पूछा-'तुम कहां जाओगे?' मूलदेव ने कहा-'मैं वेन्नातट पर जाऊंगा।' ब्राह्मण ने कहा-'आओ, हम दोनों साथ चलें।' मध्याह्न के समय चलते हुए उन्होंने एक सरोवर देखा। टक्क ब्राह्मण ने कहा—'यहां क्षणभर विश्राम कर लें।' वे पानी के पास गए और हाथ-पैर धोए। मूलदेव नदी के किनारे स्थित वृक्ष की छाया में बैठ गया। टक्क ब्राह्मण ने अपना पाथेय का थैला खोला और सत्तृ को पात्र में डाला । उसको जल में घोलकर वह खाने लगा। मूलदेव ने सोचा-'यह ब्राह्मण जाति
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नियुक्तिपंचक
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भूखप्रधान होती है।' ब्राह्मण खाना खाकर अपनी पोटली बांधकर आगे चलने लगा। 'यह मध्याह्न में मुझे देगा' ऐसा सोचकर मूलदेव उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोपहर को उसने खाना खाया पर मूलदेव को नहीं दिया। यह कल मुझे कुछ खाने को देगा' इस आशा से मूलदेव आगे चला। आगे चलते हुए रात हो गयी। रास्ता पार कर वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। प्रात:काल पुन: प्रस्थान किया। मध्याह्न में वे थक गए। टक्क ने भोजन किया लेकिन मूलदेव को नहीं दिया। तीसरे दिन मूलदेव ने सोचा कि अब तो अटवी लगभग पार हो गयी है, आज तो यह अवश्य मुझे कुछ खाने के लिए देगा। किन्तु ब्राह्मण ने कुछ नहीं दिया। उन लोगों ने अटवी पार कर ली। ब्राह्मण ने कहा-'दोनों के अलग-अलग मार्ग आ गए हैं, यह तुम्हारा मार्ग है और यह मेरा अत: तुम इस मार्ग से चले जाओ।' मूलदेव ने कहा-'ब्राह्मणदेव ! मैं आपके प्रभाव से यहां तक आ गया हूँ। मेरा नाम मूलदेव है। यदि आपका कोई प्रयोजन मेरे से सिद्ध हो तो वेन्नातट पर आ जाना।' मूलदेव ने पूछा-'आपका नाम क्या है?' ब्राह्मण ने कहा-'मेरा नाम सद्धड़ (श्राद्ध) है। लोगों के द्वारा मेरा नाम निघृणशर्मा किया गया है।
ब्राह्मण अपने गांव चला गया। मूलदेव भी वेन्नातट की तरफ चला गया। इसी बीच उसने एक बस्ती देखी। वह भिक्षा के लिए परे गांव में घमा। उसे उडद के अलावा कोई धान्य नहीं मिला। वह जलाशय की तरफ गया। वहां उसने तपस्या से कृशदेह, मासखमण का पारणा करने के लिए आने वाले एक महातपस्वी को देखा। तपस्वी को देखकर मूलदेव अत्यधिक हर्षित हुआ। मूलदेव ने सोचा-'अहो, मैं कृतार्थ हूँ, जो इस तपस्वी के आज दर्शन हुए हैं। अब अवश्य ही मेरे जीवन का कल्याण होगा। जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष, दरिद्र के घर स्वर्ण-वृष्टि, मातंग के घर ऐरावत का होना सौभाग्य है, वैसे ही यहां मुनि के दर्शन मेरे लिए अत्यन्त कल्याणप्रद हैं। ये साधु ज्ञान, दर्शन से युक्त तथा स्वाध्याय, ध्यान और तप में निरत हैं अत: ये सुपात्र हैं। इनको दान देना अनंत सौभाग्य का कारण है। आज अवसर है अत: मैं यह उड़द का भोजन इन्हें दूंगा। इस गांव में कोई दाता नहीं है, इसीलिए ये महात्मा कुछ घरों में दर्शन देकर पुनः लौट जाते हैं। मैं दो तीन बार इस गांव में जाऊंगा तो मुझे उडद मिल जायेंगे। दसरा गांव पास ही है अत: ये सारे उडद मैं इनको ही दे दूंगा।' यह सोचकर मूलदेव ने मुनि को वंदना की और वे उड़द मुनि के समक्ष प्रस्तुत कर दिए। साधु ने द्रव्यशुद्धि और उसके परिणामों के प्रकर्ष को देखकर कहा--'वत्स ! थोड़े देना, सभी मत डाल देना, ऐसा कहकर पात्र नीचे रख दिया। मूलदेव ने प्रवर्धमान भावों से मुनि को उड़द दिए । इसी बीच आकाश के बीच से ऋषिभक्त देवता मूलदेव की भक्ति से प्रसन्न होकर बोला-'मूलदेव ! तुमने सुन्दर काम किया है। तुम एक गाथा के पश्चार्ध से जो चाहो वह मांग लो। मैं तुम्हारी सारी कामना पूर्ण करूंगा। मूलदेव ने कहा-'गणियं च देवदत्तं, दंतिसहस्सं च रज्ज च'- मुझे देवदत्ता गणिका, एक हजार हार्थी और राज्य चाहिए। देवता ने कहा-'वत्स ! तुम निश्चित रहो। इस तपस्वी मुनि के प्रभाव से शीघ्र ही तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।' मूलदेव ने कहा-'बस इतना ही'। ऋषि को वंदना कर मूलदेव लौट गया और ऋषि भी उद्यान में चले गए। मूलदेव ने गांव से दूसरी भिक्षा प्राप्त कर ली। भोजन कर मूलदेव ने वेन्नातट की ओर प्रस्थान कर दिया। चलते-चलते वह वेन्नातट पहुंचा और रात्रि में पांथशाला में ही ठहर गया। अंतिम प्रहर में उसने एक स्वप्न देखा कि वह एक स्थान पर अनेक कार्पटिकों के साथ बैठा हुआ है। निर्मल चांदनी से युक्त, पूर्ण मंडल वाला चन्द्रमा पेट
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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में प्रवेश कर रहा है। दूसरे कार्पटिकों ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा। उसने अन्य कार्पटिकों को वह स्वप्न कहा। उनमें से एक कापटिदा हाड़ा-'आज तुम घी और गुट से युक्त एक बड़ी रोटी प्राप्त करोगे।' यह सुनकर मूलदेव ने सोचा, ये स्वप्न के परमार्थ को नहीं जानते इसलिए उसने अपने स्वप्न का आर्थ नहीं बताया। स्वप्नद्रष्टा कार्पटिक भिक्षा के लिए गया। उसे छावनी में घी और गुड़ से संयुक्त बड़ा रोट मिला। वह प्रसन्न हो गया। उसने कार्पटिकों से यह बात कही।
मूलदेव भी एक उद्यान में चला गया। वहां फूलों का ढेर लिए एक माली आ रहा था। उसने मूलदेव को पुष्प और फल दिए । उनको लेकर मूलदेव सरोवर पर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वप्न-पाठकों के पास गया। उनको प्रणाम कर कुशलक्षेम पूछा। स्वप्न-पाठकों ने भी उसे बहुमान देते हुए आने का प्रयोजन पूछा । मूलदेव ने करबद्ध होकर स्वप्न का सारा वृत्तान्त बताया। स्वप्नपाठक उपाध्याय ने प्रसन्न होकर कहा-'मैं तुम्हें शुभ मुहूर्त में स्वप्न का फल बताऊंगा। आज तुम हमारे अतिथि बनकर रहो।' मूलदेव ने उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। स्नान आदि से निवृत्त होकर बहुत आदर और सत्कार के साथ उसने वहां भोजन किया। उपाध्याय ने कहा-'पुत्र ! यह मेरी कन्या विवाह योग्य है, अतः मेरे अनुरोध से तुम इसके साथ विवाह कर लो' । मूलदेव ने कहा-'महाशय ! आप अज्ञात कुल-शील वाले मुझको जामाता कैसे बना रहे हैं?' उपाध्याय ने कहा-'वत्स ! बिना बताए ही आचार से कुल जाना जा सकता है।' उसने अनेक सुभाषितों से उसको समझाकर शुभ मुहूर्त में अपनी कन्या का विवाह मूलदेव के साथ कर दिया।
स्वप्न का फल बताते हुए उपाध्याय ने कहा---'तुम सात दिन के भीतर राजा बन जाओगे'। यह सुनकर मूलदेव अत्यन्त आनन्दित हुआ और वहीं सुखपूर्वक रहने लगा। पांचवें दिन वह नगर के बाहर घूमने गया । वह एक चंपक वृक्ष की छाया में विश्राम करने बैठ गया। अकस्मात् ही नगरी का राजा उस दिन मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था। अमात्य ने पांच दिव्य-हाथी, अश्व, स्वर्णमय जलपात्र, चामर और पुंडरीक को अधिवासित कर नगर में भेजा। वे पांचों नगर के बाहर अपरिवर्तित छाया में विश्राम कर रहे मलदेव के पास आकर ठहरे। मलदेव को देखकर हाथी चिंघाडने लगा, घोड़ा हिनहिनाने लगा, स्वर्णमय पात्र से मूलदेव का अभिषेक किया गया, चामर डुलाए गए और उस पर कमल रखा गया। लोगों ने जय-जयकार किया। हाथी ने उसे अपनी पीठ पर चढ़ा लिया
और नगरी में घुमाया। मंत्री, सामन्त आदि ने उसका अभिषेक किया। आकाश से देववाणी हुई कि यह महानुभाव सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत, देवताधिष्ठित शरीर वाला, विक्रमराज नामक राजा है, जो इसके अनुशासन में नहीं रहेगा उसको मैं क्षमा नहीं करूंगा। नगरी के सभी सामंत, मंत्री और पुरोहित मूलदेव की आज्ञा के अधीन हो गए। वह विपुल सुख का अनुभव करता हुआ रहने लगा। मूलदेव ने उज्जयिनी के राजा विचारधवल के साथ संव्यवहार प्रारम्भ किया। उन दोनों में निरन्तर प्रीति बढ़ती गई।
इधर देवदत्ता अचल द्वारा मूलदेव के प्रति की गई विडम्बना को याद कर अचल से विरक्त हो गयी। उसने अचल को फटकारते हुए कहा-'मैं वेश्या हूं, तुम्हारी पत्नी नहीं हूं। फिर भी तुम मेरे घर में रहते हुए ऐसा व्यवहार करते हो? अब तुम मेरी इच्छा के विरुद्ध प्रणय-याचना मत करना।' यह कहकर वह राजा के पास चली गई। राजा के चरणों में प्रणाम कर वह बोली
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नियुक्तिपंचक
'राजन् ! आप मुझ पर कृपा करें।' राजा ने कहा-'बोलो, क्या चाहती हो? क्या कुछ अभद्र हो रहा है?' देवदत्ता ने कहा-'मूलदेव को छोड़कर कोई दूसरा पुरुष मेरे घर न आए। इस अचल का मेरे घर आना रोक दें।' राजा ने कहा-'जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा पर यह तो बताओ कि वृत्तान्त क्या है?' तब माधवी ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर राजा अचल पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। राजा ने कहा-'मेरी नगरी में दो रत्न हैं-देवदत्ता वेश्या तथा मूलदेव । उनकी भी निर्भर्त्सना होती है?' राजा ने तब अचल को बुलाया और उसको तिरस्कृत करते हुए कहा-'क्या तुम इस नगरी के राजा हो जो ऐसा व्यवहार करते हो? तुम बताओ, अब किसकी शरण लेना चाहते हो? मैं तुम्हें प्राणदंड देता हूँ। देवदत्ता ने कहा--' राजन् ! कुत्ते की मौत मरे हुए को मारने से क्या लाभ? अत: इसे मुक्त कर दें। तब राजा बोला-'अरे अचल ! देवदत्ता के कहने से मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं। तुम्हारी शुद्धि तो तब होगी जब तुम मूलदेव की खोज कर उसे यहां ले आओगे।' अचल राजा के चरणों में गिरकर राजकुल से बाहर चला गया। वह चारों दिशाओं में मूलदेव की खोज करने लगा। कहीं उसका अता-पता नहीं मिला तन्त्र वह भांडों से वाहनों को भरकर अनुभव के आधार पर व्यापारार्थ फारसकुल की ओर प्रस्थित हो गया।
कुछ समय के बाद मूलदेव ने देवदत्ता और वहां के राजा के लिए एक लेखपत्र और अनेक उपहार भेजे। उसने राजा के लेखपत्र में लिखा-'मेरा स्वभावतः देवदत्ता से बहुत प्रेम है। यदि आपको रुचिकर लगे और देवदत्ता की इच्छा हो तो देवदत्ता को यहां भेजने का अनुग्रह करें।' राजा ने दूत से कहा-'विक्रम राजा ने यह क्या बड़ी बात लिखो? हमारे लिए उनसे विशेष कोई चीज है क्या? देवदत्ता क्या सारा राज्य भी उसका ही है।' राजा ने देवदत्ता को बुलाया और सारी बात बताते हुए कहा कि यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम उसके पास जा सकती हो। देवदत्ता ने कहा-'आपने मुझ पर अत्यन्त कृपा की। आपकी अनुज्ञा से मेरे मनोरथ फल गए।' राजा ने अपार वैभव से देवदत्ता का सत्कार कर उसे मूलदेव के पास भेज दिया। मूलदेव ने भी बहुत सम्मान और राजकीय वैभव के साथ उसका नगर में प्रवेश करवाया । इस आदान-प्रदान से दोनों आपस में एक हो गए। देवदत्ता के साथ विषय-सुख का अनुभव करता हुआ वह आनंदपूर्वक रहने लगा।
अचल फारस देश पहंचा। वहां भांडों का विक्रय कर अपार संपत्ति अर्जित की। उसे नौका में भरकर वह वेत्रातट पर आया। वह नगर के बाहर रुका। अचल ने लोगों से पूछा-'यहां के राजा का क्या नाम है?' लोगों ने कहा-'विक्रम'। वह सोने, चांदी और मोती के थाल भरकर राजा को भेंट करने गया। राजा ने उसे आसन दिया और पहचान लिया। अचल ने नहीं जाना कि यह वहीं मूलदेव है। राजा ने पूछा-'श्रेष्ठिवर ! आप कहां से आए हैं?' अचल ने कहा-'मैं फारसकुल से आया हूं ।' राजा के द्वारा सत्कार किए जाने पर अचल ने कहा--'राजन्! आप अपने निरीक्षक को भेजें, जो भांडों का निरीक्षण कर सके।' राजा ने कहा-'मैं स्वयं देखने के लिए चलूंगा।' राजा पंचों के साथ वहां गया। अचल ने अपने जहाज में भरे सभी द्रव्य एक-एक कर राजा को दिखाए। पंचों के समक्ष राजा ने यूछा-'श्रेष्ठीवर ! क्या आपके पास इतना ही सामान है?' अचल ने कहा-'राजन् ! इतना ही है। राजा ने तब कहा- थैलों को मेरे सामने तोलो और आधा सेठ को दे दो।' राजपुरुषों ने उसे तोला। पादप्रहार तथा वंशवेध करने से यह ज्ञात हुआ कि मंजिष्ठ के भीतर बहुमूल्य
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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पदार्थ छिपाए हुए हैं । राजा ने थैलों को फड़वाया। भैलों को फाड़ने पर यह देखकर राजा को आश्चर्य हुआ कि कहीं सोना, कहीं चांदी तथा कहीं मणि, मोती, प्रवाल आदि बहुमूल्य पदार्थों के भांड रखें हुए हैं। उसे देखकर राजा ने रुष्ट होकर अपने व्यक्तियों को आदेश दिया कि यह प्रत्यक्षतः चोर है। इसे बांधकर ले जाओ। अचल थर-थर धृजने लगा। आरक्षकों ने उसे बांधा। राजा यान पर चढ़कर अपने भवन में चला गया। आरक्षक उसे राजा के पास लाए। उसे गाढ़ बंधन में बंधा देखकर राजा ने कहा-'अरे ! इसे छोड़ दो।' आरक्षकों ने उसे मुक्त कर दिया। राजा ने पूछा-'क्या तुम मुझे पहचानते हो?' अचल बोला- त्र! अशरत में नि: हैं : आगो कौन नहीं जानता हैं?' राजा ने कहा-'औपचारिक बातों को छोड़ो। यदि तुम जानते हो तो स्पष्ट कहो।' अचल ने कहा-'मैं आपको परी तरह नहीं जानता। तब राजा ने देवदत्ता को वहां बलाया। वह अलंका से अलंकृत होकर वहां आई। अचल ने उसे पहचान लिया। उसे देख वह मन ही मन लज्जा का अनुभव करने लगा। देवदत्ता ने कहा--'यह वही मूलदेव है, जिसको तुमने कहा था कि भाग्यवश यदि मेरे में कभी ऐसी विपत्ति आ जाए तो तुम मेरो सहायता करना। यह अवसर हैं। राजा (मूलदेव) ने तुमको बंधनमुक्त कर दिया है। यह सुनकर अचल लज्जित होकर बोला-'आपने मुझ पर महान् अनुग्रह किया है।' ऐसा कहकर वह राजा और देवदत्ता के चरणों में गिर पड़ा। सकल कलाओं से परिपूर्ण, निर्मल स्वभाव वाले पूर्णिमा के चन्द्रमा की मैंने राहु जैसी कदर्थना की है अत: हे राजन् ! मुझे क्षमा कर दें। आपकी कदर्थना करने से कुपित होकर महाराज ने भी मुझे उज्जयिनी में प्रवेश नहीं दिया। मूलदेव ने कहा-'मैंने और देवी देवदत्ता ने तुम्हें क्षमा कर दिया है। वह फिर उन दोनों के चरणों में गिर पड़ा। देवदत्ता ने परम आदर से उसे स्नान करवाया, भोजन खिलाया
और उसे बहुमूल्य वस्त्र पहनाए । राजा ने उसे कर-मुक्त कर दिया। उसका सारा सामान उसको सौंप दिया। राजा विक्रम ने उसे उज्जयिनी भेजा। राजा मूलदेव के द्वारा अभ्यर्थित होने के कारण उज्जयिनी के राजा विचारधवल ने भी उसे क्षमा कर दिया। निघृणशर्मा ने जब सुना कि मूलदेव राजा बन गया है तो वह भी वेन्नातट पर आ गया। मूलदेव ने उसकी अदृष्ट सेवा से प्रसन्न होकर एक गांव उसे पुरस्कार के रूप में दे दिया। वह राजा को प्रणाम कर कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने गांव चला
इधर उस कार्पटिक ने सुना कि मूलदेव ने मेरे जैसा ही स्वप्न देखा था पर वह स्वप्नादेश से राजा बन गया। उसने सोचा--'मैं वहां जाऊं, जहाँ गोरस-दही, छाछ, आदि प्राप्त होते हैं। उन्हें पीकर सो जाऊं। सोऊंगा तो पुन: वैसा ही स्वप्न देखूगा।' संभव है वह पुनः उस स्वप्न को देख ले, लेकिन मनुष्य भव पुनः मिलना दुर्लभ है।
३२. चक्र
___ इन्द्रपुर नगर में इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य करता था। उसकी प्रिय रानियों के बावीस पुत्र थे। राजा को सभी पुत्र अपने प्राणों से अधिक प्रिय थे। राजा के अमात्य की एक पुत्री थी। विवाह के अवसर पर राजा ने उसे देखकर पूछा...' यह कौन है?' लोगों ने कहा-'यह आपकी देवी (रानी) है।' राजा उस अमात्य-पुत्री के साथ एक रात रहा। ऋतुस्नाता होने से वह गर्भवती हो गयी। अमात्य १. उनि. १६१, वसुटी.प. ५९-६५। २. कुछ मान्यता के अनुसार एक ही रानी के बावीस पुत्र थे।
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निर्युक्तिपंचक
ने अपनी पुत्री को कहा- 'जब तुम्हें गर्भ की अनुभूति हो तब मुझे कह देना।' एक दिन अमात्यपुत्री ने अपने पिता को दिन, मुहूर्त आदि बताते हुए राजा द्वारा किया गया बादा कह सुनाया । अमात्य ने उसे सारा एक पत्र में लिखा और उस पत्र को छिपाकर रख लिया। अमात्य पुत्री का गर्भकाल पूरा हुआ। नौ महीनों के पश्चात् उसने एक पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा गया। उसी दिन उसके घर चार दास- -पुत्रों का जन्म हुआ। उनके नाम आग्निक, पर्वतक, बाहुलक और सागर रखे गए।
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राजा के सभी पुत्रों- सुरेन्द्रदत्त तथा दासीपुत्रों को कलाचार्य के पास शिक्षाग्रहण करने भेजा गया। कलाचार्य ने लेख, गणित आदि अनेक कलाओं का शिक्षण दिया। जब कलाचार्य दासीपुत्रों को शिक्षण देते तब वे आचार्य को आकुल व्याकुल करते। अविनय और उद्दंडता के कारण वे शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए। वे बावीस राजकुमार कलाचार्य के द्वारा डांटे जाने पर आचार्य की पीट देते या अशिष्ट वचनों का प्रयोग करते। जब आचार्य उनको पीटते तो वे अपनी माता को जाकर आचार्य की शिकायत कर देते। तब राजा आचार्य को तिरस्कृत करते कि हमारे पुत्रों को आप क्यों पीटते हैं ? माता-पिता के हस्तक्षेप से वे बावीस पुत्र सम्यक् रूप से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सके। लेकिन सुरेन्द्रदत्त ने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली क्योंकि वह विनीत और गंभीर था।
मथुरा के राजा जितशत्रु के निर्वृति नामक लड़की थी। विवाह के योग्य होने पर उसे अलंकृत करके राजा के सामने उपस्थित किया गया। राजा ने अपनी पुत्री से कहा- 'तुम्हें जो वर प्रिय हो, उसका वरण कर लो।' उसने कहा- 'जो शूर वीर और विक्रान्त हो, वही मेरा पति होगा।' राजा ने कहा- ' जिसे तुम पसंद करोगी उसे राज्य भी दिया जाएगा।' वह सेना और वाहन को लेकर इन्द्रपुर नगर गयी। वहां इन्द्रदत्त राजा के बहुत पुत्र थे । इन्द्रदत्त ने संतुष्ट होकर सोचा- 'अन्य राजाओं से इस लड़की का पिता अच्छा है। यह स्वयं यहां आई है।'
इन्द्रदत्त ने नगर की पताकाओं से सजाया। एक स्थान पर उसने एक अक्ष पर आठ चक्र बनाए। उनके आगे एक पुतली रख दी और उसकी आंख बींधने की शर्त रखी गयी। इन्द्रदत्त राजा सन्नद्ध होकर अपने पुत्रों के साथ वहां आया। निर्वृति राजकुमारी भी सर्वालंकार से विभूषित होकर वहां बैठ गयी। जैसे द्रौपदी के स्वयंवर में राजाओं और योद्धाओं का रंग जमा था वैसा ही रंग उस 'स्वयंवर में जमा । इन्द्रदत्त राजा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्रीमाली था। राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र कहा - ' इस कन्या और राज्य को ग्रहण करना चाहिए अत: तुम दत्तचित्त होकर पुतली का लक्ष्यवेध करो।' वह राजकुमार अनभ्यास के कारण लोगों के मध्य धनुष को उठाने में भी समर्थ नहीं हुआ। किसी प्रकार उसने धनुष को उठाया। उसने बाण छोड़ा लेकिन बाण चक्र से भग्न हो गया। इस प्रकार किसी ने एक अर (चक्र) को पार किया, किसी ने दूसरे का तथा किसी-किसी का बाण तो बाहर से ही निकल गया। तब राजा इन्द्रदत्त अधीर होकर अपने आपको अपमानित महसूस करने
लगा।
अमात्य ने कहा- 'आप अधीर क्यों होते हैं?' राजा बोला-' इन पुत्रों के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा है। इन पुत्रों ने मुझे तुच्छ बना डाला है।' तब मंत्री बोला- 'मेरी पुत्री से उत्पन्न आपका एक अन्य पुत्र भी है, जिसका नाम सुरेन्द्रदत्त हैं। वह इस लक्ष्य को बींधने में समर्थ
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
है।' अमात्य ने पहचान के चिह्नों की बात कही। राजा ने पूछा - ' बताओ। ' तत्र अमात्य ने वह लिखित पत्र बताया। राजा ने सुरेन्द्रदत्त का आलिंगन करके कहा - ' आद रथचक्र में स्थित पुतलिका की आंख
बींधकर तुम राज्य और निर्वृति दारिका को प्राप्त करी । तब सुरेन्द्रदत्त ने 'जैसी आज्ञा' ऐसा कहकर धनुष को उठाया। चारों दिशाओं में स्थित दासपुत्र विघ्न उत्पन्न करने लगे। दोनों पार्श्व में खड्ग को ग्रहण कर दो व्यक्ति खड़े थे। यदि किसी प्रकार यह राजकुमार लक्ष्य को चूक जाए तो इसका शीर्षच्छेद कर देना है । उपाध्याय भी पास में स्थित होकर भय उत्पन्न करते हुए कहने लगा- 'यदि लक्ष्य चूक गए तो मारे जाओगे।' वे बावीस राजकुमार जो लक्ष्यभेद नहीं कर सके, वे भी विघ्न उपस्थित करने लगे। सुरेन्द्रदत्त ने इन सब विघ्नों की परवाह न करते हुए लक्ष्य में दृष्टि को स्थिर कर, मन को उसी में निविष्ट कर दिया। उसने आठ रथचक्र के भीतर पुतली की बांयी आंख को बीं डाला। तब लोगों ने उच्च स्वरों में उसका जय जयकार किया और धन्यवाद दिया।
जिस प्रकार उस पुतली की आंख को बींधना दुष्कर था, वैसे ही मनुष्य जन्म दुष्कर है।" ३३. चर्म
एक तालाब था । उसका विस्तार एक लाख योजन तक था। पूरे तालाब पर सवन शैवाल छाई हुई थी। ऐसा लगता था मानो वह शैवाल रूपी चर्म से अवनद्ध हो। वहीं एक कछुआ रहता था। एक बार उसने तालाब में एक छिद्र को देखा। छेद उतना ही बड़ा था. जिसमें उसकी गर्दन समा सके। उस कच्छप ने अपनी गर्दन को छेद से बाहर निकाला और ऊपर देखा। आकाश में चांद एवं तारे टिमटिमा रहे थे। चांदनी के प्रकाश में उसने फूल एवं फलों को भी देखा। कुछ क्षणों तक वह देखता रहा, फिर उसने सोचा, परिवार के सदस्यों को भी यह मनोरम दृश्य दिखाऊं । वह गया और अपने पूरे परिवार को लेकर आया। वह चारों ओर घूमता रहा, परन्तु उसे कहीं भी छिद्र दृष्टिगत नहीं हुआ। इसी प्रकार मनुष्यभव प्राप्त होना दुष्कर है।
३४. युग
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एक अथाह समुद्र के एक छोर पर जुआ है और दूसरे छोर पर उसकी कील पड़ी है। उस कील का जुए के छिद्र में प्रवेश होना दुर्लभ है। उसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो गयी। बहते बहते संभव है कि वह इस छोर पर आकर जुए के छिद्र . में प्रवेश कर ले, किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव का पुनः मनुष्य जन्म पाना दुर्लभ हैं।'
३५. परमाणु
(क) एक खंभा था। किसी देव ने उसको चूर्णित कर उस चूर्ण को एक नालिका में भरकर मंदर पर्वत पर जाकर फूंककर बिखेर दिया। स्तम्भ के सारे परमाणु इधर-उधर बिखर गए | क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुनः उन परमाणुओं को एकत्रित कर वैसे ही स्तम्भ का निर्माण कर सकता है? कभी नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो देने पर पुनः उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है।
१. उनि १६१, उसुटी प. ६५, ६६ । २. उनि. १६१, उसुटी. प. ६६ ।
३. उनि . १६१, उसुटी. प. ६६.६७।
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(ख) शताधिक स्तम्भों पर अवस्थित एक सभा- भवन है। कालान्तर में उस सभाभवन में आग लग गई और वह जलकर नष्ट हो गया। क्या कोई ऐसा समर्थ व्यक्ति है जो उन विनष्ट पुद्गलों को एकत्रित कर पुनः उस सभा-भवन का निर्माण कर सके? यह असंभव है। इसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है।
३६. जमालि और बहुरतवाद (केवलोत्पत्ति के १४ वर्ष पश्चात्)
भगवान् महावीर की बड़ी बहिन सुदर्शना कुंडपुरग्राम में रहती थी। उसके पुत्र का नाम जमालि था। भगवान् की पुत्री अनवद्यांगी उसकी भार्या थी। उसका दूसरा नाम प्रियदर्शना था। जमालि ने ५०० पुरुषों के साथ तथा प्रियदर्शना ने हजार स्त्रियों के साथ भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होकर उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया।
एक बार जमालि भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती नगरी चला गया। वहां तिंदुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुआ। अंत-प्रान्त आहार सेवन से उसका शरीर रोगाक्रान्त हो गया और दाहज्चर उत्पन्न हो गया। वह बैठने में भी समर्थ नहीं रहा। उसने श्रमणों से कहा-'मेरा शय्या संस्तारक (बिछौना) करो।' उन्होंने बिछौना करना शुरू किया। अधीर होकर उसने पूछा- क्या बिछौना कर दिया।' श्रमणों ने कहा-'कर रहे हैं।' जमालि के मन में शंका हो गई कि भगवान् तो क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित, उदीर्यमाण को उदीरित और निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैं, यह मिथ्या है। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि बिछौना क्रियमाण है पर कृत नहीं है, संस्तीयमाण है पर संस्तृत नहीं है। इस प्रकार वेदना-विह्वल जमालि मिथ्यात्व के उदय से निहव बन गया। उससे बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। कुछ साधुओं ने जमालि के कथन पर श्रद्धा की तथा कुछ ने श्रद्धा नहीं की। जिन्होंने श्रद्धा की वे जमालि के पास रहे। जिन्होंने श्रद्धा नहीं की वे बोले-'जमालि! भगवान् ने जो कहा है, वह तथ्य है। तुम जो कह रहे हो, वह मिथ्या है।' वे पुनः भगवान् महावीर के शासन में प्रवजित हो गए।
साध्वी प्रियदर्शना कुंभकार ढंक के यहां ठहरी हुई थी। वह जमालि के दर्शनार्थ आई। जमालि ने उसे सारी बात समझाई। जमालि के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसने जमालि के मत को स्वीकार कर लिया और अन्य साध्वियों को भी समझा दिया। जब कुंभकार को यह ज्ञात हुआ कि प्रियदर्शना उन्मार्ग में प्रस्थित हो गयी है तो उसने उसे सन्मार्ग पर लाना चाहा।
एक दिन प्रियदर्शना कुंभकार के यहां स्वाध्याय पौरुषी में रत थी। ढंक मृन्मय भांडों का उद्वर्तन कर रहा था। उसने एक अंगारा उछाला, उससे प्रियदर्शना की शाटिका का एक छोर जल गया। उसने कहा--'आर्य ! यह शाटिका जल गई। तब कुंभकार ढेक ने कहा–'तुमने ही तो प्ररूपणा की थी कि दह्यमान अदग्ध है फिर तुम्हारी शाटिका कैसे जल गई?' भगवान् महावीर के वचनानुसार १. उनि.१६१, उसुटी.प. ६७ । २. जमालि की दृष्टि के प्रति अनेक जीव रत-आसक्त थे, इसलिए वह बहुरतवाद कहलाया। अथवा एक कार्य
की सिद्धि बहुत समय सापेक्ष होती है, इस मान्यता में रत-आसक्त व्यक्ति बहरतवादी कहलाए। (उशांटी. प. १५७)।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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कहा जा सकता है कि दह्यमान दग्ध है न कि तुम्हारी मान्यता के अनुसार। प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हो गयी। वह जमालि को समझाने के लिए गयी पर जमालि ने अपने आग्रह को नहीं छोड़ा। तब साध्वी प्रियदर्शना एक हजार सात्रियों के साथ भगवान् की शरण में चली गयी।
भगवान् महावीर के समझाने पर भो जमालि को शंका दूर नहीं हुई। असत्प्ररूपणा एवं मिथ्या आग्रह के कारण वह दूसरों को भी शंकित एवं भ्रमित करने लगा। उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया तथा बेले-तेले आदि की विविध तपस्याएं की। १५ दिन की संलेखना एवं एक मास के संथारे में बह दिवंगत हो गया। अपने दोषों की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होकर वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाला देव बना।
३७. तिष्यगुप्त और जीव प्रादेशिकवाद (केवलोत्पत्ति के सोलह वर्ष पश्चात्)
राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। वे वहां अपने शिष्य तिप्यमुप्त को आमाप्रसवं पहारगे। इसके एक मापक में शिष्य ने आचार्य से पूछा-'भंते ! क्या जीव-प्रदेश को जीव कहा जा सकता है?' आचार्य ने कहा-'उसे जीव नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय तथा एक प्रदेश न्यून भी जीव नहीं कहे जा सकते। प्रतिपर्ण असंख्येय प्रदेशात्मक जीव को ही जीव कहा जाएगा।' वह उस प्रसंग से विप्रतिपन्न हो गया। वह मिथ्या प्ररूपणा करने लगा कि अंतिम प्रदेश ही जीव है । गुरु ने समझाया कि जब प्रथम प्रदेश जीव नहीं है तब अंतिम प्रदेश जीव कैसे होगा? जैसे एक तन्तु समस्त पट नहीं होता, सारे तंतु मिलकर समस्त पट बनते हैं वैसे ही एक प्रदेश जीव नहीं अपितु सारे प्रदेश समुदित रूप से जीव हैं। गुरु के समझाने पर भी वह विप्रतिपन्न रहा और अपनी असत् प्ररूपणा और मिथ्याअभिनिवेश से अन्य लोगों को भी विप्रतिपन्न करने लगा।
एक बार वह आमलकल्या नगरी में गया। वहां अंबशालवन में ठहरा। उस नगरी में मित्रश्री नामक श्रमणोपासक था। तिष्यगुप्त को संबोध देने के लिए उसने अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। तिष्यगुप्त वहां गया। मित्र श्री ने उसके समक्ष विविध खाद्य पदार्थ प्रस्तुत किए और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा खंड उसे दिया 1 चावल का एक दाना, सूप की दो-चार बिन्दु और वस्त्र का एक टुकड़ा दिया। तिष्यगुप्त ने सोचा कि यह बाद में पुन: देगा। मित्रश्री दे चुकने के बाद तिष्यगुप्त के चरणों में गिरा। उसने अपने स्वजनों को कहा-'वन्दना करो। आज हम दान देकर धन्य हो गए।' यह सुनकर तिष्यगुप्त बोला-'तुमने मेरा तिरस्कार किया है।' श्रावक ने कहा-'यह तो
आपका सिद्धान्त है कि अन्तिम अवयव ही वास्तविक अवयवी है। मैंने तो आपके सिद्धान्त का पालन किया है अत: तिरस्कार कैसे? यदि यह सत्य नहीं है तो मैं आपको भगवान् महावीर के सिद्धांतानुसार प्रतिलाभित करूं।' प्रतिबोध पाकर तिष्यगुप्त ने श्रावक मित्र श्री से क्षमायाचना की, तब मित्र श्री ने उसे
१. उनि.१७२९१.२. उशांटो.प. १५३-५७, उसुटी.प.६९,७०१
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नियुक्तिपंचक
प्रतिलाभित किया। वह शिष्य परिवार के साथ अपने पूर्व दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके विहरण करने लगा।
३८. आचार्य आषाढ़ के शिष्य और अव्यक्तवाद (वीर-निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात्)
श्वेतविका नगरी के पोलाषाढ़ उद्यान में आचार्य आषाढ वाचनार्थं समवसृत थे। वे आगाढ़योग से प्रतिपन्न अपने शिष्यों को वाचना दे रहे थे। एक बार वे अचानक विसूचिका रोग से ग्रस्त हो गये। वायु की प्रबलता के कारण वे निश्चेष्ट हो गए। उन्होंने किसी शिष्य को जागृत नहीं किया। वे दिवंगत होकर सौधर्म कल्प के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। अवधिज्ञान से उन्होंने अपने निश्चेष्ट शरीर और आगाढ़योग प्रतिपन्न शिष्यों को देखा। शिष्य उनकी मृत्यु से अनजान थे। तब देव उसी मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ और शिष्यों को जगाकर बोला-'वैरात्रिक करो।' दिव्य प्रभाव से अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया। जब शिष्य उस अध्ययन में निष्णात हो गए तब देव प्रकट होकर बोला-'श्रमणो! मुझे क्षमा करो। मैं असंयत होकर तुम सबसे वंदना आदि कराता रहा । मैं तो अमुक दिन ही काल-कवलित हो गया था। इस प्रकार क्षमायाचना कर देव चला गया। शिष्यों ने मृत शरीर का विसर्जन कर सोचा-'हमने इतने दिनों तक असंयत को वंदना की। यहां सब अव्यक्त है। कौन जाने कौन साधु है और कौन देव? कोई वंदनीय नहीं है। यदि वंदना करते हैं तो असंयमी को भी वंदना हो सकती है अत: अमुक संयमी है यह कहना मिथ्या है।' बहत समझाने पर भी शिष्यों ने अपना आशा कई छोटा सा स्थकि मुनियों में २७ २. १ कर दिया।
. एक बार विहार करते हुए वे राजगृह नगरी में आए । राजा बलभद्र ने उनको यकड़वा लिया और कहा-'कौन जानता है साधु वेश में कौन चारिक है? कौन चोर है? आज मैं आपका वध करूंगा।' संतों ने कहा-'हम तपस्वी हैं, आप संदेह न करें। ज्ञान और चर्या के आधार पर साधु
और असाधु की पहचान होती है। आप श्रावक होकर हम पर संदेह करते हैं?' राजा ने प्रत्युत्तर दिया-'जब आपको भी परस्पर विश्वास नहीं है तब मुझे ज्ञान और चर्या में कैसे विश्वास होगा?
आप श्रमण हैं या नहीं? आप अव्यक्त हैं। आप श्रमण हैं या चारिक कौन जाने? मैं भी श्रमणोपासक हूँ या नहीं? आप इस संदेह को छोड़कर व्यवहार नय को स्वीकार करें।' इस प्रकार युक्ति से राजा ने संबोध दिया। उन्होंने राजा से क्षमायाचना की। वे बोले-'हम निःशंकितरूप से श्रमण-निर्ग्रन्थ हैं।' राजा बोला-'मैंने आपको उपालंभ दिया, आपका तिरस्कार किया, कठोर वचन कहे, मृदु वचन भी कहे । यह सारा प्रतिबोध देने के लिए किया। आप क्षमा करें।' वे पुन: गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गए। ३९, अश्वमित्र और समुच्छेदवाद (वीर-निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात्)
मिथिला नगरी में लक्ष्मीगृह चैत्य था। वहां महागिरि आचार्य के शिष्य कौडिन्य रहते थे। कौडिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व के नैपुणिक वस्तु की वाचना दे रहे थे। छिन्न१. उनि.१७२/३, उशांटी. प. १५८-१६०, उसुटी. प. ७०,७१ । २. उनि.१७२/४ ठशांटी.प. १६०-६२, उसुटी. प. ७१।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
छेदTय की वक्तव्यता के अनुसार प्रथम समय के नारक विच्छिन्न हो जाएंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न हो जाएंगे। उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो जाती हैं अतः उच्छेदवाद में उसकी आस्था जम गई। गुरु ने कहा - ' यह बात ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से है। सब नयों की अपेक्षा से सत्य नहीं है।' गुरु के समझाने पर भी उसने गुरु के कथन को स्वीकार नहीं किया। निह्नव समझकर गुरु ने उसे संघ से अलग कर दिया। वह अपने शिष्यों के साथ समुच्छेदवाद की मिथ्या प्ररूपणा करता हुआ लोगों को भ्रमित करने लगा कि यह सारा लोक शून्य हो जाएगा।
बिहार करते हुए वे राजगृह नगरी में पहुंचे। वहां के खंडरक्ष आरक्षक श्रावक थे। वे शुल्कपाल थे। उन्होंने अश्वमित्र को उसके शिष्यों के साथ पकड़ लिया और सबको पीटने लगे। अश्वमित्र ने कहा कि तुम तो श्रावक हो फिर भी श्रमणों को इस तरह पीट रहे हो? तब श्रावकों ने कहा- 'जो प्रब्रजित हुए थे वे तो विच्छिन्न हो गए। तुम चोर हो या गुप्तचर कौन जाने? आपको कौन मार रहा है आप तो स्वयं विनष्ट हो रहे हो।' इस प्रकार भय और युक्ति से समझाने पर के संबुद्ध हो गए. और गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए !
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४०. आचार्य गंग और द्वैक्रियवाद ( वीर निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् )
उल्लुका नदी के एक तट पर उल्लुकातीर नामक नगर था और दूसरे तट पर 'खेटस्थान' था। वहां आचार्य महागिरि के शिष्य धनगुप्त रहते थे। उनका शिष्य आचार्य गंग था । वे नदी के उस तट पर उल्लूगातीर नगर में निवास कर रहे थे। एक बार आचार्य गंग शरद्काल में अपने आचार्य को वंदना करने नदी के उस तट पर स्थित खेटस्थान में जा रहे थे। वे नदी में उतरे। उनका सिर गंजा था। ऊपर सूरज से सिर तप रहा था और नीचे से पानी शीतल लग रहा था। उन्हें एक क्षण में सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। उनको शंका हो गयी कि सूत्र में कहा है कि एक समय में एक क्रिया का वेदन होता है पर मुझे तो दो क्रियाओं का अनुभव .हो रहा है। गुरु ने उसको समझाया कि समय, आवलिका आदि काल की सूक्ष्मता तथा मन की सूक्ष्म और शीघ्रगामिता के कारण तुम क्रिया की पृथक्ता का अनुभव नहीं कर सकते पर वे समझे नहीं। उनको संघ से पृथक् कर दिया गया। शिष्यों के साथ मिथ्या प्ररूपणा करते हुए वे दूसरों को भी शंकित करने लगे।
आचार्य गंग सघ से अलग होकर राजगृह नगर में आए। वहां महातपस्तीरप्रभ नामक एक झरना था। वहां मणिनाग नामक नागदेव का चैत्य था। आचार्य गंग ने उस चैत्य में परिषद् के सम्मुख एक समय में दो क्रियाओं के वेदन की बात कही। मणिनाग नागदेव ने परिषद् के मध्य प्रकट होकर कहा - 'तुम यह मिथ्या प्ररूपणा मत करो। मैंने भगवान् महावीर के मुख से सुना है कि एक में एक ही क्रिया का संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्या वाद को छोड़ो। इससे तुम्हारा अहित होगा।' आचार्य गंग प्रतिबुद्ध हो गए। वे गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त पूर्वक संघ में सम्मिलित हो गए।
समय
१. उनि. १७२५, उशांटी.प. १६२-६५. सुटी.प. ७५.७२९२ उनि १३२/६. उशांटी.प. १६५ ६८, उसुटी.प. ७५
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नियुक्तिपंचक
४१. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद (वीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात्)
अंतरंजिका नायक नगरी में भूतगृह नामक चैत्य था। वहां आचार्य श्रीगुप्त का प्रवास था। उस नगर के राजा का नाम बलश्री था। आचार्य श्रीगुप्त का शिष्य रोहगुप्त दूसरे स्थान पर रहता था। एक दिन वह आचार्य को वंदना करने आया। वहां एक परिव्राजक रहता था जो पेट पर लोहपट्ट को बांधकर जंबू वृक्ष की शाखा हाथ में लेकर घूमता हुआ कहता था कि ज्ञान से मेरा पेट फूट रहा है इसलिए मैंने पेट पर लोहपट्ट बांध रखा है। इस जंबूद्वीप में कोई मेरे साथ प्रतिवाद करने वाला नहीं है इसलिए मैं हाथ में जंबू वृक्ष की शाखा रखता हूं। लोगों ने उसका नाम पोदृशाल रख दिया। रोहगुप्त ने उस चुनौती को स्वीकार किया और सारी बात आचार्य को सुनाई। आचार्य ने कहा-'वह परिव्राजक वृश्चिक, सर्प आदि सात विद्याओं में निष्णात है । मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी मायूरी, नाकुली आदि सात विद्याएं सिखा देता हूं. जिससे तुम अजेय बन जाओगे।'
आचार्य ने उसे रजोहरण मंत्रित करके देते हुए कहा-'यदि परिव्राजक दूसरी कोई विघ्या का प्रयोग करे तो तुम रजोहरण घुमा देना। तुम अजेय हो जाओगे, इन्द्र भी तुम्हें नहीं जीत सकेगा।' रोहगुप्त इन विद्याओं को ग्रहण कर सभा में आया और परिव्राजक को बाद के लिए आमंत्रित किया। परिव्राजक ने सोचा इसकी इसी के सिद्धान्त से पराजित करना चाहिए इसलिए दो राशियों की स्थापना की। रोहगुप्त ने छिपकली की कटी पूंछ का उदाहरण देकर तीसरी राशि की स्थापना की। परिव्राजक निरुत्तर हो गया। उसने रुष्ट होकर अनेक विद्याओं का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने प्रतिपक्षी विद्याओं से उसको परास्त कर दिया।
विजयी होकर रोहगुप्त अपने आचार्य के पास आया तब गुरु ने कहा-'जीतकर तुमने परिषद् में यह क्यों नहीं कहा कि यह अपसिद्धान्त है। तीसरी नोजीव राशि नहीं होती। इस प्रकार की प्ररूपणा तीर्थंकरों की आशातना है अत: तुम पुनः परिषद् में जाकर कहो कि यह हमारा सिद्धान्त नहीं है किन्तु मैंने इसे बुद्धि से पराभूत किया है।' गुरु के बहुत समझाने पर भी अपमान के भय से उसने गुरु की बात को स्वीकृत नहीं किया। वह गुरु के साथ विवाद करने लगा। आचार्य ने सोचा-'यह स्वयं नष्ट होकर दूसरों को भी नष्ट करेगा अतः मैं लोगों के समक्ष राजसभा में इसका निग्रह करूंगा, जिससे लोगों में मिथ्या तत्त्व का प्रचार नहीं होगा।'
राजा बलश्री के समक्ष चर्चा प्रारम्भ हुई। चर्चा करते हए छह मास बीत गए। राजा ने कहा-'चर्चा से सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है, यह वाद कब समाप्त होगा?' आचार्य ने कहा-'मैंने जान-बूझकर इतना समय बिताया है। मैं कल ही इसका निग्रह कर वाद को समाप्त कर दूंगा।'
दूसरे दिन प्रात: वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने कहा-'यदि तीन राशि होती है तो कुत्रिकापण में चलें, वहां सभी वस्तुएं मिलती हैं। राजा के साथ वे सभी कुत्रिकापण पहुंचे। वहां नोजीव को मांगा। अधिकारी देव ने कहा-'यहां जीव और अजीव है। नोजीव की श्रेणी का कोई पदार्थ विश्व में नहीं हैं।' इस प्रकार आचार्य श्रीगुप्त ने १४४ प्रश्नों के द्वारा रोहगुप्त का निग्रह कर उसे पराजित किया। राजा ने उसको देश निकाला दे दिया, निव समझकर उसे संघ से भी पृथक् कर दिया।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
उसने वैशेषिक सूत्रों की रचना की। उसका गोत्र षडूलक था अत: वह षडूलक नाम से भी प्रसिद्ध हुआ।'
४२. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद ( वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् )
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देवेन्द्र वंद्य आर्यरक्षित विहरण करते हुए दशपुर नगर में पहुंचे। मथुरा में अक्रियवादी सक्रिय थे। लोग अक्रियवाद से भावित हो रहे थे। विशिष्ट व्यक्तियों ने संघ को एकत्रित किया पर वहां कोई वादी नहीं था। आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य हैं, ऐसा सोचकर उनको आमंत्रित करने साधुओं को भेजा गया। आर्यरक्षित वहां आए, उन्हें मारी बात बताई गयी। वे वृद्ध थे अतः उन्होंने गोष्ठमाहिल को वाद हेतु भेजा क्योंकि वह वाक्लब्धि सम्पन्न था। वह वहां गया और अक्रियवादी को पराजित कर दिया। श्रावकों के निवेदन करने पर गोष्ठामाहिल ने वहीं चातुमांस किया।
एक बार आचार्य आर्यरक्षित ने सोचा कि मेरे बाद गण को धारण करने वाला कौन होगा? क्योंकि जो जानते हुए अपात्र को अपना उत्तराधिकारी बना देता है, वह महापाप का भागी बनता है। उन्होंने दुर्बलिकापुष्यमित्र को इसके योग्य समझा। वहां आचार्य के अनेक स्वजन थे । वे गोष्ठामाहिल या फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी के रूप में योग्य मानते थे। आचार्य ने सबको बुलाकर दृष्टान्त देते हुए कहा - तीन प्रकार के घट होते हैं-चने से भरा घट तैल से भृत घट तथा घी से परिपूर्ण घट. 1 चने के घड़े को उल्टा करने पर सारे चने बाहर निकल जाते हैं। तैल के घड़े से तैल भी बाहर निकल जाता है पर उसका कुछ लगा रहा है के को उल्टा करने पर उसका बहुत अंश घड़े के ही लगा रह जाता है। दुर्बलिकापुष्यमित्र ने मुझे चने के धड़े के समान बना दिया है। उसने मुझसे सूत्र, अर्थ तथा उभय- सारा ग्रहण कर लिया है। फल्गुरक्षित द्वारा मैं तेल के घड़े के समान तथा गोष्ठामाहिल द्वारा मैं मृत घट के समान हुआ हूँ अतः दुर्बलिकापुष्यमित्र सूत्र और अर्थ से युक्त है। वह इस गण का आचार्य बने । आचार्य आर्यरक्षित के इस कथन को सभी ने एक स्वर से स्वीकार किया। आचार्य ने दुर्बलिकापुष्यमित्र से कहा- 'मैंने जैसा व्यवहार फल्गुरक्षित तथा गोष्ट माहिल के प्रति किया है वैसा व्यवहार तुम्हें भी रखना है। तदनन्तर सभी को संबोधित कर बोले- ' शिष्यो ! जैसा व्यवहार तुम सबने मेरे प्रति किया है, वैसा ही दुर्बलिकापुष्यमित्र के प्रति करना। मेरे प्रति किसी ने कुछ किया या नहीं, मैंने कभी क्रोध नहीं किया किन्तु दुर्बलिकापुष्यमित्र किसी को क्षमा नहीं करेगा।' इस प्रकार दोनों पक्षों को शिक्षा प्रदान कर आचार्य भक्तप्रत्याख्यान से पंडित मरण कर दिवंगत हो गए।
उस समय गोष्ठामाहिल कहीं अन्यत्र विहरण कर रहा था। उसने सुना, आचार्य आर्यरक्षित दिवंगत हो गए हैं। वह वहां आया और पूछा कि आचार्य ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया है? उसे तीन घड़ों का दृष्टान्त कह सुनाया। तब वह पृथक् उपाश्रय में उपधि आदि रखकर मूल उपाश्रय में आया। वहां स्थित मुनियों ने आदरभाव से कहा - ' आप हमारे साथ यहीं रहें ।' उसने वहां रहना स्वीकार नहीं किया। वह अलग उपाश्रय में ही रहा और अन्यान्य लोगों को बहकाने लगा । परन्तु
१. उनि ९७२ / ६९ उशांटी.प. १६८-७२, उसुटी. प. ७२, ७३ ।
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नियुक्तिपंचक
ने कहा- "इस आधी रात में जहां द्वार खुला मिाले वहीं चले जाओ।' नियति से उसने साधु के उपाश्रय के द्वार खुले देखे। वह उपाश्रय के अंदर गया। साधुओं को बंदना की और कहा कि मुझे भी प्रजित कर लो। साधुओं ने इन्कार कर दिया पर उसने स्वयं लोच कर लिया। साधुओं ने उसे मुनिवेश धारण करवा दिया। वे सभी वहां से विहार कर गए।
एक बार वे पुनः उसी नगरी में आए । राजा ने उसे कंबल रत्न दिया। आचार्य ने कहा- 'मुनियों को इससे क्या प्रयोजन है?' इस कंबल-रल को क्यों ग्रहण किया--ऐसा कहकर मुनियों ने बिना पूछ ही कंबल को फाड़ दिया और उसकी निषद्या बना दी। तब वह कुपित हो गया।
एक बार आचार्य जिनकल्पिक की चर्या का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा-'जिनकल्पिक मुनि दो प्रकार के होते हैं- पाणिपात्र और पात्रभर । सवस्त्र तथा अन्नस्त्र । इनके भो दो-दो प्रकार हैं।' शिवभूति ने पूछा---'आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता?' आचार्य बोले-'जिनकल्पिक आज व्युच्छिन्न हो गया है। उसने कहा-'मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं है। परलोकार्थी मुनि को वही ग्रहण करना चाहिए। सर्वथा निष्परिग्रह ही श्रेयस्कर है।' आचार्य के निषेध करने पर भी शिवभूति आग्रहवश अपने सारे वस्त्र छोड़कर वहां से निकल गया। उसकी बहिन उसको वंदना करने गई। उसको देखकर वह भी निर्वस्त्र हो गई। वह भिक्षा लेने गई। एक वेश्या ने उसे देखकर सोचा--'यह हमारी वेश्यावृत्ति को समाप्त कर देगी।' उसने उसे लज्जा-स्थान के आवरण के लिए एक वस्त्र दिया। वह नहीं चाहती थी। शिवभति ने कहा-'इसे ग्रहण कर लो। ऐसा मानो कि यह देव-प्रदत्त है।' शिवभूति ने दो शिष्य प्रजित किए-कौडिन्य और कोट्टवीर। आगे यह परम्परा चली।
४४. उरभ्र
एक सेट के पास गाय और उसका एक बछड़ा था। उसने एक मेंढ़ा भी पाल रखा था। वह मेंढ़े को खूब खिलाता-पिलाता। सेठ की बहुएं उसे प्रतिदिन स्नान कराती, शरीर पर हल्दी, अंगराग आदि का लेप करती थीं। सेठ के बच्चे भी उसके साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएं करते थे। कुछ ही दिनों में मेंढ़ा स्थूलकाय हो गया। बछड़ा प्रतिदिन मेंढ़े को देखता और मन ही मन चिंतन करता कि इस मेंडे का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है? सेठ हम पर इतना ध्यान क्यों नहीं देता? बछड़ा यह देखकर उदास हो गया और उसने स्तनपान करना भी छोड़ दिया। उसने अपनी माता गाय से पूछा-'सेठ इस मेंढ़े को जौ का भोजन देता है और हमें रूखी-सूखी घास । इसे विशेष अलंकारों से अलंकृत किया जाता है तथा पुत्र की भांति इसका लालन-पालन हो रहा है। दूसरी ओर मैं मंदभाग्य है कि कोई मझ पर ध्यान नहीं देता। सूखी घास भी कभी-कभी मिलती है, वह भी भर पेट नहीं मिलती। समय पर पानी के लिए भी कोई नहीं पूछता।' मां ने कहा-'वत्स ! मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है क्योंकि मरणासन्न प्राणी को पथ्य और अपथ्य जो कुछ वह चाहता है, दिया जाता है। बछड़े के सूखे तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है। इस मेंढ़े का मरणकाल निकट है।'
:. न. १७२:१३-१५. उशांटी. प. १७८. ८१, उसुटी.प. ४५, ७F !
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
कुछ दिनों बाद सेठ के घर मेहमान आए । बछड़े के देखते-देखते मेंढे के गले में छुरी चला दी गयी। उस मोटे ताजे में कर मांस पकाकर मेहमानों को खिलाया गया। बछड़ा भय से कांप उठा। उसने अपनी मां से पूछा- 'क्या मैं भी इस मेंढ़े की भांति भारा जाऊंगा?" मां ने कहा'वत्स ! डरो मत, जो रसगृद्ध होता है, उसे उसका फल भी भोगना पड़ता है। तू सूखी घास चरता अत: तुझे कटुविपाक नहीं भोगना पड़ेगा । "
४५. काकिणी
एक भिखारी ने भीख मांग-मांग कर एक हजार कार्षापण एकत्रित किए। एक बार वह उन्हें साथ लेकर सार्थ के साथ अपने घर की ओर चला। रास्ते में भोजन के लिए उसने एक कार्यापण को काकिणियों में बदलवाया। वह प्रतिदिन काकिणियों से भोजन खर्च चलाता। उसके पास एक काकिणी बची उसे वह पिछले स्थान पर भूल गया। सार्थ के जाने पर उसने सोचा- मुझे कार्षापण काकिणियों में बदलवाना पड़ेगा अतः कार्यापण की नौली एक स्थान पर गाढ़कर वह काकिणी के लिए दौड़ा। किन्तु वह काकिणी किसी दूसरे व्यक्ति ने चुरा ली थी। जब वह वापिस लौटा तो उसे नौली भी नहीं मिलीं क्योंकि नौली को गाड़ते हुए किसी व्यक्ति ने देख लिया और वह उसे लेकर भाग गया। वह भिखारी दुःखी मन से घर पहुंचा और पश्चात्ताप करने लगा ।
४६. अपत्थं अंबर्ग भोच्चा
आम अधिक खाने से एक राजा के आम का अजीर्ण हो गया और उससे विसूचिका - हैजा हो गया। वैद्यों ने बहुत श्रम से उसकी चिकित्सा की। राजा स्वस्थ हो गया। वैद्यों ने राजा को सावधान करते हुए कहा – 'राजन् ! यदि तुम पुनः आम खाओगे तो तुम्हारा जीवित रहना दुष्कर हो जाएगा।' राजा को आम बहुत प्रिय थे। उसने अपने राज्य के सारे आम्रवृक्ष उखड़वा दिए।
एक बार वह अपने मंत्री के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए निकला। अश्व बहुत दूर चला गया। जब वह थक गया तो एक स्थान पर रुक गया। वहां बहुत से आम के वृक्ष थे। मंत्री के मना करने पर भी राजा आम्रवृक्ष के नीचे विश्राम हेतु बैठा। हवा से राजा के पास अनेक आम गिर पड़े। राजा ने उन्हें हाथों से उठाया और सूंघने लगा। मंत्री के निषेध करने पर भी राजा ने आम खाने शुरू कर दिए । आम खाने से तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी।
४७. तीन वणिक् पुत्र
एक वणिक् के तीन पुत्र थे। पुत्रों की बुद्धि, व्यवसाय और पुण्य के परीक्षण के लिए उसने तीनों को हजार-हजार कार्षापण दिए और कहा-' इन रुपयों से तुम तीनों व्यापार करो और अमुक
१ उनि २४१ - २४२/१, उशांटी प. २७२, २७३, उसुटी.प. ११६. ११७ ॥
२ उनि २४१, उशांटी प. २७६, उसुटी. प. ११८ ।
३. उनि २४१, उशांदी. पं. २७७, उसुटी.प. ११८ ।
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नियुक्तिपंचक
काल तक अपनी-अपनी पूंजी लेकर मेरे पास आओ। वे तीनों मूल पूंजी लेकर अलग-अलग स्थान पर गए। पहले पुत्र ने सोचा कि पिता ने परीक्षा के लिए हमको व्यापारार्थ भेजा है अतः मुझे विपुल धन का उपार्जन करना चाहिए। भोजन, कपड़े पर उसने कम खर्च किया तथा द्यूत, मध आदि व्यसनों से परहेज किया। विधिपूर्वक व्यापार करने से उसने बहुत धन कमा लिया।
दूसरे पुत्र ने सोचा-'हमारे घर प्रभूत धन-सम्पदा है किन्तु उसका व्यय करने से एक न एक दिन वह सम्पदा नष्ट हो सकती है अत: मूल की रक्षा करनी चाहिए।' वह जी भी कमाता उसे भोजन, वस्त्र, अलंकार आदि में खर्च कर देता। उसने मूल धन की रक्षा की पर धन एकत्रित नहीं कर पाया।
तीसरे पुत्र ने चिन्तन किया कि सात पीढ़ी आराम से खाए इतना धन हमारे यहां पड़ा है फिर भी वृद्ध पिता ने अर्थ के लोभ से हमें परदेश भेजा है अत: अर्थार्जन का कष्ट क्यों किया जाए? उसने कोई भी व्यापार नहीं किया। केवल मद्य, द्यूत आदि व्यसनों तथा शरीर-पोषण में सारे धन को गंवा दिया।
निर्दिष्ट काल पर तीनों पुत्र अपने घर पहुंचे। पिता ने सारी बात पूछी। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा दी थी, उसे नौकर का कार्य सौंपा गया जिसने मूल पूंजी की रक्षा की थी उसे गृह-कार्य सौंपा गया। जिसने मूल की वृद्धि की, उसे गृहस्वामी बना दिया। ४८. कपिल पुरोहित
कौशाम्बी नगरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में चौसठ विद्याओं में पारंगत काश्यप नाम का ब्राह्मण रहता था। वह राजा के द्वारा बहुत सम्मानित था। उसकी पत्नी का नाम यशा तथा पुत्र का नाम कपिल था। कपिल जब छोटा था तभी काश्यप कालगत हो गया। काश्यप की मृत्यु के बाद राजा ने उसका पद किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया।
एक दिन वह ब्राह्मण घोडे पर आरूढ़ होकर, छन्त्र धारण करके उधर से जा रहा था। यशा उसे देखकर रोने लगी। कपिल ने माता से रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि तेरा पिता भी ऐसी ही ऋद्धि से सम्पत्र था। कपिल ने पूछा-'उनको ऋद्धि कैसे मिली'? यशा ने उत्तर दिया-'वे विद्यासम्पन्न थे।' कपिल बोला-'मैं भी विद्या का अभ्यास करूंगा।' यशा ने कहा-'यहां तुझे मत्सरभाव के कारण कोई नहीं पढ़ाएगा। यदि तुझे पढ़ना हो तो श्रावस्ती नगरी चले जाओ। वहां तेरे पिता के मित्र इन्द्रदत्त ब्राह्मण हैं, वे तुझे विद्याध्ययन करवाएंगे।' कपिल इन्द्रदत्त ब्राह्मण के पास गया। इन्द्रदत्त ने पूछा-'तुम कहां से आए हो?' कपिल ने सारी घटना बता दी और विनयपूर्वक विद्यादान की प्रार्थना की।
उपाध्याय ने भी पुत्र-स्नेह से उसका आलिंगन करते हुए कहा-'वत्स! तुम्हार विद्याग्रहण के प्रति अनुराग उत्तम है। विद्याविहीन पुरुष पशु के समान होते हैं । इहलोक और परलोक दोनों में विद्या कल्याणकारी है।' ब्राह्मण इन्द्रदत्त ने कहा-'तुम मेरे यहां सब प्रकार की विद्या सीखने में स्वतंत्र हो पर अपरिग्रही होने के कारण मेरे यहां भोजन की व्यवस्था नहीं हो सकती। भोजन के
१. उनि.२४१, उशाटो, प. २७८, २७९, उसुटी.प. ११९, १२० !
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परिशिष्ट : कथाएं
बिना पढ़ना भी संभव नहीं है।' कपिल ने कहा-'मैं भिक्षा से भोजन की व्यवस्था कर लूंगा।' ब्राह्मण ने कहा--'भिक्षावृत्ति से अध्ययन में बाधा आती है, पढ़ने को समय नहीं मिलता अतः तुम मेरे साथ चलो मैं किसी सेठ के यहां तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करा दूंगा।' वे दोनों शालिभद्र सेठ के पास गए। । उन्होंने सेठ को आशीर्वाद दिया। सेठ ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उपाध्याय ने कहा- 'यह मेरे मित्र का पुत्र है। विद्या ग्रहण की अभिलाषा से यह कौशाम्बी से यहां आया है। यह तुम्हारे यहां भोजन और मेरे यहां विद्या ग्रहण करेगा। विद्या में सहयोग देने से तुम महान् पुण्य के भागी बनोगे ।' सेठ ने सहर्ष उनकी बात स्वीकार कर ली।
कपिल उस सेठ के यहां प्रतिदिन भोजन करता और इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास अध्ययन करता । सेठ की एक दासी कपिल को भोजन कराती थी। वह हंसमुख थी। उसका दासी के साथ अनुराग हो गया । दासी कहती कि तुम मुझे प्रिय हो। मैं तुमसे और कुछ नहीं मांगती केवल तुम रोष मत किया करो। मैं वस्त्र का मूल्य पाने के लिए दूसरे के पास कार्य करती हूं, अन्यथा मैं तुम्हारी ही आज्ञा की अनुचरी हूं।
एक दिन दासियों का उत्सव आया। वह दासी उदास हो गयी। उसे नींद नहीं आई तब कपिल ने पूछा- 'तुम उदास क्यों हो?' वह बोली--' दासी का उत्सव आ गया है। मेरे पास पत्रपुष्प आदि के पैसे भी नहीं है, इसलिए सखियों के बीच में उपहास का पात्र बन जाऊंगी।' यह सुनकर कपिल भी अधीर हो गया। दासी ने कपिल को कहा- 'तुम अधीर मत बनो। यहां धन नामक एक दानवीर सेठ है। ब्रह्ममुहूर्त में जो उसको सबसे पहले बधाई देता है, उसको वह दो मासा सोना देता है। इसलिए आज तुम जाकर उसे बधाई दो।' कपिल ने उसका कथन स्वीकार कर लिया। मुझसे पहले कोई अन्य बधाई देने न चला जाए, इस लोभ से वह आधी रात को ही घर से निकल पड़ा। आरक्षक पुरुषों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रातः महाराज प्रसेनजित् के समक्ष उपस्थित किया। राजा के पूछने पर उसने यथार्थ बात बता दी। राजा कपिल के सत्यकथन से प्रसन्न हुआ और बोला- 'तुम जो कुछ मांगोगे वह मैं दूंगा।' कपिल ने कहा- 'मैं सोचकर मागूंगा।' राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। वह अशोक वाटिका में गया । एक वृक्ष के नीचे बैठकर चिन्तन करने लगा कि दो मासे सोने से क्या होगा? कपड़े, आभरण, यान, वाहन, बाजों का उपभोग कैसे होगा? घर पर आए हुए अतिथियों के सत्कार के लिए तथा अन्यान्य उपभोग के लिए उतने मात्र से क्या लाभ?' इस प्रकार चिंतन करते-करते करोड़ मुद्राओं से भी उसका मन संतुष्ट नहीं हुआ। मनन करते-करते यह शुभ अध्यवसाय से संवेग को प्राप्त हुआ। उसने सोचा, मैं विद्या ग्रहण करने हेतु माता को छोड़कर विदेश आया हूं। उपाध्याय के हितकारी उपदेश की अवहेलना करके तथा कुल के गौरव की अवमानना करके मैं एक स्त्री में आसक्त हो गया, यह मेरे लिए अच्छा नहीं हैं। ऐसा सोचते-सोचते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया और वह स्वयंबुद्ध हो गया। स्वयं ही पंचमुष्टि लोच कर देवता प्रदत्त उपकरणों को धारण कर मुनि का वेश पहन राजा के समक्ष उपस्थित हुआ ।
राजा ने कहा- 'तुमने क्या सोचा है?' कपिल बोला- 'जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। दो मासा सोने से होने वाला कार्य लोभ बढ़ने पर करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से
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नियुक्तिपंचक
भी
पूरा नहीं हो सका क्योंकि तृष्णा का कहीं अंत नहीं हैं।' राजा ने प्रसन्न मुखमुद्रा से कहातुम्हें करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं भी दे सकता हूँ।' लेकिन कपिल संबुद्ध हो चुका था अतः वह पापों का शमन करने वाला श्रमण वन गया। मुनि बनने के बाद कपिल छह मास तक छद्मस्थ अवस्था में
रहा।
५५८
राजगृह नगर के बाहर अठारह योजन लम्बी-चौड़ी अटवी में बलभद्र आदि पांच सौ चोर रहते थे। कपिल ने ज्ञान से जाना कि ये संबुद्ध होंगे। वे विहार कर उस अटवी में आ गए। चोरों ने देखा कि कोई हमें पराजित करने के लिए आ रहा है। वे श्रमण कपिल को पकड़कर अपने सेनापति के पास ले गए। सेनापति ने कहा--' इनको मुक्त कर दो।' चोरों ने कहा- 'हम इनके साथ खेलना चाहते हैं।' उन्होंने मुनि कपिल को कहा- आप नृत्य करें।' कपिल ने कहा कि कोई वादक नहीं हैं। तब वे पांच सौ चोर ताली बजाने लगे। कपिल मुनि भी गाने लगे
असासयम्मि, संसारम्मि
'अधुवे दुक्खपराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गई ण गच्छेज्जा ॥ *
अर्थात् इस अध्रुव, अशाश्वत और दुःख - बहुल संसार में कौन सा ऐसा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति को प्राप्त न करूं। यह ध्रुपद था। प्रत्येक श्लोक के अन्त में यह गाया जाता था। कुछ चोर प्रथम श्लोक से प्रतिबुद्ध हो गये। कुछ दूसरे श्लोक को सुनकर, कुछ तीसरे श्लोक को सुनकर । इस प्रकार पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर कपिल मुनि के पास प्रब्रजित हो गए।
४९. करकंडु
चंपानगरी में दधिवाहन नामक राजा था। चेटक की पुत्री पद्मावती उसकी पत्नी थी। जब वह गर्भवती हुई तब उसके मन में दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा के कपड़े पहनकर उद्यान, कानन आदि में विहरण करूं । दोहद पूरा न होने से उसका शरीर कृश होने लगा। राजा ने कृशः काय होने का कारण पूछा। रानी ने राजा को दोहद की बात बताई। यह सुनकर राजा और रानी जय नामक हाथी पर आरूढ़ हुए। राजा ने रानी के सिर पर छत्र धारण किया। वे दोनों उद्यान में गए। वर्षाऋतु होने के कारण मिट्टी की गंध से हाथी वन की ओर दौड़ने लगा। राजकीय लोग उस हाथी को रोकने में समर्थ नहीं हो सके राजा और रानी दोनों को लेकर हाथी अटवी में प्रविष्ट हो गया। राजा ने एक वटवृक्ष को देखकर रानी से कहा- 'जब हाथी इस वटवृक्ष के नीचे से गुजरे तब तुम इस वटवृक्ष की शाखा पकड़ लेना। रानी पद्मावती ने राजा की बात सुनी पर वह वृक्ष की शाखा को पकड़ने में असमर्थ रही। राजा दक्ष था अतः उसने तुरन्त शाखा पकड़ ली। अकेली रानी हाथी पर रह गई । राजा वृक्ष से नीचे उतरा और दुःखी मन से वापिस चंपा नगरी लौट आया। इधर हाथी रानी को निर्जन अटवी में ले गया। वहाँ हाथी को प्यास का अनुभव हुआ। उसने एक बड़ा तालाब देखा और उसमें उतरकर क्रीड़ा करने लगा। रानी भी धीरे-धीरे नीचे उतरी, तालाब से बाहर आई। वह अपने नगर की दिशा नहीं जानती थी।
१. उनि २४६ - ५२, उशांटी प. २८७-२८९, उटी.प. १२४, १२५
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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अहो! कर्मों की गति कितनी विचित्र है। मैं अकल्पित विपत्ति में फंस गई हूँ। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मेरी क्या गति होगी? ऐसा सोचते-सोचते वह रोने लगी। क्षण भर बाद उसने धैर्य धारण करके सोचा-'हिसक एवं अंगलो ३ओं तो युम इसकोणला में कुछ भी हो सकता है अत: हर क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए।' उसने अर्हत् आदि चार शरणों को स्वीकार किया। अनाचरणीय की आलोचना की और सकल जोव राशि के साथ मानसिक रूप से क्षमायाचना की। उसने सागारिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। वह नमस्कार पहामंत्र का जाप करतो हुई एक दिशा में प्रस्थित हुई। बहुत दूर जाने पर उसे एक तापस दिखाई पड़ा। तापस के पास जाकर
ने अभिवादन किया। तापस ने पछा-'माँ! आप यहां निर्जन वन में कहां से आई?' वह बोली-'मैं चेटक की पुत्री हूँ। राजा दधिवाहन की पत्नी हूँ | हाथी मुझे यहां तक ले आया'। वह तापस चेटक से परिचित था। उसने रानी को आश्वासन दिया कि तुम डरो मत। तापस ने भोजन के लिए उसे फल दिए और अटवी के पार पहुंचा दिया। तापस ने कहा-'यहां से आगे हल के द्वारा जोती हुई भूमि है अत: मैं आगे नहीं जा सकता। आगे दन्तपुर नगर है। वहां का राजा दन्तवक्र है।' वह चलकर अटवी से बाहर निकली और दंतपुर नगर में आर्याओं के पास प्रवजित हो गयी। पूछने पर भी उसने अपने गर्भ के बारे में कुछ नहीं बताया। कुछ समय पश्चात् महत्तरिका को यह ज्ञात हुआ। प्रसव होने पर नाममुद्रिका एवं कंबलरत्न से आवेष्टित कर बालक को श्मशान में छोड़ दिया । श्मशान में रहने वाले चांडाल ने उस बालक को उठा लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। उसका नाम अवकीर्णक रख दिया।
आयर्या पद्मावती ने उस चांडाल के साथ मैत्री स्थापित कर ली 1 अन्य साध्वियों ने उससे पूछा-'तुम्हारा गर्भ कहां है?' उसने कहा-'मृतक पुत्र पैदा हुआ था अत: उसे श्मशान में डाल दिया।' वह बालक बढ़ने लगा और बच्चों के साथ खेलने लगा। वह बच्चों से कहता-'मैं तुम सब का राजा हूं अतः तुम सब मुझे 'कर' दो।' एक बार उसे सूखी खाज हो गई। वह बालकों से कहता कि मेरे खाज करो। हाथ से खाज करने के कारण बच्चों ने उसका नाम करकंडु रख दिया। बालक करकंडु भी उस साध्वी के प्रति अनुरक्त हो गया। वह साध्वी भी भिक्षा में जो मोदक आदि अच्छी चीज मिलती, उस बालक को देती थी। बड़ा होने पर वह श्मशान की रक्षा करने लगा।
एक बार दो मुनि किसी कारणवश उस श्मशान भूमि से गुजरे। वहां ब्रांस के झुरमुट में एक डंडा देखा। एक मुनि दंड-लक्षणों का ज्ञाता था। उसने दूसरे मुनि से कहा-'जो इस डंडे को ग्रहण करेगा वह राजा बनेगा। लेकिन वह चार अंगुल और बढ़ने पर ही राज्य-प्राप्त कराने में योग्य बनेगा। तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।' बह बात उस मातंग सुत करकंडु एवं एक ब्राह्मण के पुत्र ने सुनी। ब्राह्मण पुत्र निर्जन समय में उस वंशदंड को चार अंगुल जमीन खोदकर बाहर निकाल रहा था तब मातंगपुत्र करकंदु ने उसे देख लिया। उसने उसको डरा-धमकाकर उसके हाथ से डंडा छीन लिया। वह ब्राह्मण उसको न्यायकर्ताओं के पास ले गया और कहा-'मेरा डंडा मुझे दिलवाओ।' करकंडु ने कहा-'श्मशान मेरा है अत: मैं इसे नहीं दूंगा।' ब्राह्मण- पुत्र ने कहा-'तुम दूसरा डंडा ले लो।' तब करकंडु बोला-'मैं इस इंडे के प्रभाव से राजा बनूंगा अतः यह हुंडा मैं नहीं दे सकता।' तब न्यायकर्ताओं ने हंसकर कहा-'जब तुम राजा बन जाओ तब इसको भी तुम
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नियुक्तिपंचक
एक गांव दे देना।' करकंडु ने यह बात स्वीकार कर ली। उस ब्राह्मण-पुत्र ने अन्य ब्राह्मण-पुत्रों को अपने पक्ष में कर लिया कि इसको मारकर हम इंडा ग्रहण कर लेंगे। यह बात करकंडु के पिता ने सुनी। उन्होंने उस गांव से पलायन की बात सोची। वे तीनों कांचनपुर पहुंचे।
कांचनपुर का राजा मर गया था। उसके कोई पुत्र नहीं था। राज-कर्मचारियों ने घोड़े को अधिवासित करके छोड़ा। वह घोड़ा नगर के बाहर सोए करकंडु के पास आया । वह करकंडु की प्रदक्षिणा करके खड़ा हो गया। नागरिकों ने देखा कि यह युवक लक्षणयुक्त है। उन्होंने जय-जयकार द्वारा उसको वर्धापित किया। नंदीतूर बजाया गया। वह भी जम्भाई लेते हुए खड़ा हुआ। वह विश्वस्त होकर घोड़े पर बैठ गया। उसने नगर में प्रवेश किया। यह चाण्डाल है' ऐसा सोचकर ब्राह्मणों ने उसको प्रवेश करने से रोका। तब करकंडु ने दंडरत्न हाथ में लिया। वह जलने लगा। जलते दंडे को देखकर ब्राह्मण भयभीत हो गए। उसने 'वाटधातक' चांडालों को ब्राह्मण बना दिया। उसका गृह माम अवकीर्णक था पर बाद में उसका नाम राजा करकंड प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन महाराज करकंडु के पास यह ब्राह्मणपुत्र आया और प्रतिज्ञा के अनुसार गांव की मांग की। करकंडु ने कहा कि जो तुम्हें रुचिकर हो वही गांव मैं तुम्हें दे सकता हूं। वह बोला--'मेरा घर चंपा जनपद में है अत: वहीं कोई गांव दे दीजिए।' तब करकंडु ने दधिवाहन को लिखा कि मुझे चंपा जनपद में एक गांव दे दें। मैं आपको इसके बदले अपने राज्य का यथेच्छित गांव या नगर दे दूंगा।' राजा दधिवाहन इस आज्ञापत्र से रुष्ट हो गए। उन्होंने सोचा यह दुष्ट मातंग अपनी शक्ति को नहीं पहचानता तभी उसने मुझे यह लेख लिखकर भेजा है, दूत ने सारा वृत्तान्त महाराज करकंडु को सनाया। यह बात सुनकर करकंड कुपित हो गया। उसने चंपा पर आक्रमण कर दिया। युद्ध प्रारम्भ हो गया।
साध्वी पद्मावती को जब युद्ध का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने सोचा कि व्यर्थ ही जनक्षय होगा अतः उसने युद्ध-भूमि में करकंडु को बुलाकर रहस्य खोल दिया कि तुम जिससे लड़ रहे हो वे तुम्हारे पिता हैं । करकंडु ने पालन करने वाले माता-पिता से पूछा तो उन्होंने यथार्थ बात बता दी। पता चलने पर भी करकंडु अभिमानवश युद्ध-भूमि से नहीं हटा तब साध्वी पद्मावती चंपानगरी में राजा दधिवाहन के प्रासाद में गई। ज्ञात होने पर दास-दासियां उनके चरणों में पड़कर रोने लगीं। राजा ने जब यह बात सुनी तो वह भी वहां साध्वी के पास आया और विधिवत् वंदना की। राजा ने गर्भ के बारे में पूछा तो साध्वी ने कहा- 'जो इस नगरी पर आक्रमण कर युद्ध कर रहा है, वही आपका पुत्र है।' राजा अपने पुत्र करकंडु के पास गया और प्रसन्नता से गले मिला। दोनों राज्य करकंड को देकर दधिवाहन प्रवजित हो गया। करकंड़ विशाल राज्य का सम्राट बन गया।
__करकंडु गोकुल प्रिय था। उसके पास अनेक गोकुल थे। एक बार शरदकाल में वह गोकुल में गया और एक श्वेत हृष्ट-पुष्ट बछड़े को देखा। उसने गोपालक को आदेश दिया कि इस बछड़े की मां को न दुहा जाए। जब यह बड़ा हो जाए तब अन्य गायों का दूध भी इसे पिलाया जाए। गोपालों ने यह बात ध्यान से सुनो और वे उस बछड़े का यथादेश लालन पालन करने लगे। थोड़े दिनों में वह बड़े सींगों वाला तथा हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला वृषभ बन गया। वह गुद्ध-कला में निपुण बन गया। एक बार राजा कार्यवश अन्यत्र गया। कुछ समय पश्चात् वह पुनः अपने राज्य में लौटा और गोशाला
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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देखने गया। राजा ने उस हृष्ट-पुष्ट बैल के विषय में पूछा। गोपाल ने राजा को वह वृषभ दिखाया। राजा ने उस महाकाय बैल को जीर्ण-शीर्ण अवस्था में देखा। उसकी आंखें धंस गई थीं। पैर लड़खड़ा रहे थे। वह छोटे-बड़े बैलों से सताया जा रहा था। राजा ने पूछा-'क्या यह वही वृषभ है?' गोपालक बोले-'राजन् ! यह वही वृषभ है। उसे देख राजा करकंडु विषण्ण हो गया। वह संसार की अनित्यता से संबुद्ध होकर प्रवजित हो गया।' ५०. हिर्मुख
भरतक्षेत्र में कांपिल्यपुर नामक नगर था। वहां हरिवंश कुल में उत्पन्न राजा का नाम जय और उसकी पटरानी का नाम गुणमाला या। एक बार रावा आस्थानमंडप में बैठा था। उसने दूत से पूछा-'ऐसी क्या वस्तु है जो अन्य राजाओं के पास है और मेरे पास नहीं है?' दूत ने कहा--'आपके राज्य में चित्रसभा नहीं है। राजा ने तत्काल बढ़ई को बुलाया और शीघ्र ही चित्रसभा के निर्माण की आज्ञा दी। बढ़ई ने कार्य प्रारम्भ कर दिया। पृथ्वी की खुदाई करते हुए पांचवें दिन रत्नमय देदीप्यमान महामुकुट निकला। कर्मकरों ने हर्ष के साथ राजा को यह सूचना दी। राजा ने प्रसन्न होकर नंदी वाद्य बजाकर मुकुट को धरती से ऊपर निकाली तथा कर्मकरों को वस्त्र आदि पुरस्कार में दिए। थोड़े ही दिनों में चित्रशाला का कार्य पूरा हो गया। शुभमुहूर्त में राजा ने चित्रशाला में प्रवेश किया। मंगल वाद्य-ध्वनि के साथ राजा ने मुकुट को अपने मस्तक पर धारण किया। उस मुकुट के प्रभाव से उसके दो मुख दिखाई देने लगे। लोगों ने उसका नाम द्विमुख रख दिया।
कुछ काल बीता। राजा के सात पुत्र हुए पर पुत्री एक भी नहीं हुई। पुत्री के अभाव में गुणमाला अधीर और उदास हो गई। उसने मदन नामक यक्ष की आराधना से वरदान प्राप्त किया। उसके एक पुत्री हुई, जिसका नाम मदनमंजरी रखा गया। क्रमशः मदनमंजरी यौवन को प्राप्त हुई। उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत ने जय राजा के द्विर्मुख होने की बात सुनी। उसने अपने दूत से इसका कारण पूछा। दूत ने उसे चमत्कारी मुकुट की बात बताई, जिसको धारण करने से राजा दो मुंह वाला बन जाता था। प्रद्योत के मन में मुकुट को प्राप्त करने का लोभ बढ़ गया। दूत ने द्विमुख राजा से कहा--'या तो आप अपना मुकुट चण्डप्रद्योत राजा को समर्पित करें अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाएं।' राजा द्विर्मुख ने कहा-'यदि चण्डप्रद्योत मुझे चार वस्तुएं दे तो मैं उसे मुकुट दे सकता हूं। (1) अनलगिरि हाथीं, (2) अग्निभीरू रथ, (3) रानी शिवादेवी, (4) लोहजंघ लेखाचार्य । ये चारों प्रद्योत के राज्य की निधियां थीं।
दूत उज्जयिनी गया और प्रद्योत को सारी बात बताई। प्रद्योत अत्यन्त कुपित हुआ और चतुरंगिणी सेना के साथ कांपिल्यपुर पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर दिया। उसके साथ दो लाख हस्तिसेना, दो लाख रथसेना, पचास हजार अश्वसेना तथा सात करोड़ पदातिसेना थी।
अनवरत चलते-चलते वह अपनी सेना के साथ पांचाल देश की सीमा पर पहुंच गया। प्रद्योत ने सेना का पड़ाव डाला। द्विर्मुख भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ नगर के बाहर आ गया
और पांचाल देश की सीमा पर पहुंचा। प्रद्योत ने गरुड़व्यूह की रचना की थी। उसके प्रतिपक्ष में १. उनि. २५९-६१, उशांटी.प, ३००-३०३, उसुटी. प. १३३-१३५ ।
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नियुक्तिपंचक
द्विमुख ने सागरव्यूह की रचना की। दोनों ही सेनाओं में युद्ध प्रारम्भ हो गया। मुकुट के प्रभाव से हिर्मुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना पलायन करने लगी। द्विमुख ने प्रद्योत को बंदी बनाकर नगर में प्रवेश कराया।
प्रद्योत कारागृह में बंदी था। एक दिन उसने राजकन्या मदनमंजरो को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया। कामाग्नि में जलते हुए चिंतातुर और संतप्त प्रद्योत की वह रात ज्यों-त्यों बीती। प्रात:काल द्विमुख प्रद्योत के स्थान पर गया। उसने प्रद्योत का म्लान और उदासीन मुखमंडल देखकर उसका कारण पूछा। पहले उसने कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में आग्रह करने पर नि:श्वास छोड़ते हुए उसने सारी बात बता दी। प्रद्योत ने कहा-'यदि मुझे मदनमंजरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कूद कर मर जाऊँगा। यदि मेरा कुशल-क्षेम चाहते हो तो मदनमंजरी का मेरे साथ विवाह कर दो।' द्विमुख ने शुभमुहूर्त देखकर प्रद्योत के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। कुछ दिन वहां रहकर प्रद्योत नववधू के साथ उज्जयिनी आ गया।
___ कांपिल्यपुर में इन्द्रमहोत्सव था। राजा को आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज को स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य-गीत होने लगे। सारे लोग मोद-मग्न थे। इसी प्रकार सात दिन बीते। पूर्णिमा के दिन महाराज द्विमुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की।
सात दिन बीतने पर लोगों में जज के आभूषण उतः शिर औ! काठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा द्विर्मुख उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज के काष्ठ को मलमूत्र में पड़ा देखा और देखा कि लोग उसका तिरस्कार करते हुए अतिक्रमण कर रहे हैं। संसार की अनित्यता देखकर उसे वैराग्य हो गया। वह प्रतिबुद्ध हो, पंच-मुष्टि लोच कर, प्रव्रजित हो गया।
५१. नमि राजर्षि
__ भरत क्षेत्र में अवन्ती जनपद के सुदर्शनपुर नामक नगर में मणिरथ नामक राजा राज्य करता था। उसका भाई युगबाहु युवराज था। उसकी पत्नी मदनरेखा अनुपम रूप और लावण्य से युक्त थी। वह सुदृढ श्राविका थी। उसके सर्वगुणसम्पन्न एक पुत्र था, जिसका नाम चन्द्रयश था।
एक दिन मणिरथ मदनरेखा को देखकर उसके रूप में आसक्त हो गया। वह सोचने लगा-'मेरा इसके साथ संयोग कैसे होगा? पहले मैं इसके साथ प्रीति बढ़ाऊं फिर इसके साथ रहकर इसके चित्त के भावों को जानकर यथायोग्य करूंगा'-ऐसा चिंतन करके उसने उसके साथ प्रीतिसम्बन्ध स्थापित करना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उसने पुष्प, कुंकुम, तंबोल, विविध वस्त्र एवं अलंकार भेजे। मदनरेखा के मन में कोई गलत भाव नहीं थे अतः उसने वे उपहार स्वीकार कर लिये।
समय बीतने लगा। एक दिन मणिरथ ने मदनरेखा से कहा-'सुन्दरी ! यदि तुम मुझे स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें सारे राज्य की स्वामिनी बना दूंगा।' उसने कहा-'नपुंसकत्व, स्त्रीत्व और पुरुषत्व पूर्व कर्मों ने प्राप्त होता है। तुमने पुरुषत्व प्राप्त किया है। यदि मैं तुम्हें स्वीकार न करू तो भी भाई १. उनि. २६२, २६२४१, उशांटी. प. ३०३, उसुटी.प. १३५. १३६ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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शQगा।
के युवराज की पत्नी हूं अतः मेरे राज्य के स्वामित्र का हरण कौन कर सकता है। जो सत्पुरुष होते हैं, वे मरना स्वीकार कर लेते हैं मगर इहलोक और परलोक के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करते? हिंसा, असत्य-भाषण, स्तेय, परस्त्रीगमन से जीव नरक में जाते हैं इसलिए महाराज दुष्टभाव को छोड़कर आचार-मार्ग को स्वीकार करें।' मणिरथ ने सोचा कि युगबाहु के जीवित रहते यह अन्य पुरुष की इच्छा नहीं करेगी अत: विश्वास में लेकर युगबाहु को मार दूं, फिर बलपूर्वक इसे अपनी बना सकता हूं। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता । समय बीतने लगा। एक दिन मदनरेखा ने चंद्र का स्वप देखा। उसने पति से इसका फल पूछा। युगबाहु ने कहा-'सकल पृथ्वीमंडल पर चांद के समान सुन्दर तुम्हारे एक पुत्र होगा।' वह गर्भवती हुई । गर्भ के तीसरे महीने उसको दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं तीर्थंकर और मुनियों की उपासना करूं तथा सतत तीर्थंकरों का चरित्र सन। उसका दोहद पूरा हआ। वह सखपूर्वक गर्भ का वहन करने लगी।
एक दिन बसन्त मास में युगबाहु मदनरेखा के साथ उद्यान में क्रीड़ा करने आया। वे दोनों भोजन-पानी में इतने मस्त हो गए कि सूर्य अस्ताचल में डूब जाने पर भी उन्हें भान नहीं हुआ। रात हो गई। सर्वत्र अंधकार व्याप्त हो गया । इसलिए युगबाहु उसो उद्यान में ठहर गया। मणिरथ ने सोचा-'यह अच्छा अवसर है। युगबाहु नगर के बाहर है, उसके पास सहायक भी कम हैं, रात्रि का समय है तथा सघन अंधकार है अतः वहां जाकर यदि मार दूं तो नि:शंक होकर मदनरेखा के साथ रमण कर सकूँगा।' ऐसा सोच वह शस्त्र लेकर उद्यान में आया। यगबाह भी रतिक्रीडा कर कदलोगृह में ही सो गया।
__ चारों ओर प्रहरी पुरुष बैठे थे। मणिरथ ने उनसे पूछा-'युगबाहु कहां है? उन्होंने बता दिया। मणिरथ ने कहा कि कोई शत्रु यहां युगबाहु का अभिभव न कर दे इस चिंता से मैं यहां
आया हूं । ऐसा कह वह कदलीगृह में प्रविष्ट हो गया। युगबाहु ससंभ्रम उठा और भाई को प्रणाम किया। मणिरथ बोला-'चलो, नगर चलते हैं यहां रहना ठीक नहीं हैं।' युगबाहु उठने लगा। उसी समय कार्य-अकार्य की चिंता किए बिना, जनपरिवाद को सोचे बिना, परलोक के भय को छोड़कर विश्वस्त हृदय से मणिरथ ने तीक्ष्ण खड्ग से युगबाहु की गर्दन पर प्रहार किया। तीक्ष्ण प्रहार की वेदना से उसकी आंखें बंद हो गई और वहीं धरती पर गिर पड़ा। मदनरेखा ने चीत्कार करते हुए कहा--'अहो ! अकार्य हो गया। उसकी आवाज सुनकर खड्गधारी पुरुष वहां आ गए और पूछा-'यह क्या हुआ?' मणिरथ ने कहा-'प्रमाद से मेरे हाथ से यह खड्ग गिर गया। हे सुन्दरी! अब भय से क्या?' आरक्षकं पुरुष मणिरथ की चेष्टा से उसके भावों को जानकर उसे बलपूर्वक नगर में ले गये। उन्होंने चन्द्रयश को युगबाहु का वृत्तान्त बताया। करुण विलाप करता हुआ वह उद्यान में आया। वैद्यों ने व्रण-चिकित्सा की। थोड़ी देर में उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई तथा नयनयुगल बंद हो गए। अंग निश्चेष्ट हो गए। खून का प्रवाह निकलने से उसका शरीर सफेद हो गया।
मदनरेखा ने मरणासन्न स्थिति देखकर पति के कान में मधुर शब्दों में कहा-'महानुभाव! आप मानसिक समाथि रखें। किसी पर द्वेष न रखें। सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखें और चतु: शरण की शरण स्वीकार करें। अपने पूर्वाचीर्ण अनाचारों की गर्दा करें और कर्मोदय से आए इस कष्ट को समता से सहन करें। जो कर्म किए हुए हैं, वे भोगने ही पड़ते हैं। दूसरा तो निमित्त
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यात्र होता है। इसलिए शुभचिंतनरूप परलोक के पाथेय को स्वीकार करें। आप समस्त मोह और आसक्ति से विलग हो जाएं। संसार में न कोई माता है, न पुत्र, न भाई और न कोई बंधु । दुःख-बहुल संसार में धन भी किसी का शरण नहीं बन सकता। एक मात्र जितेन्द्र देव का धर्म ही त्राण और शरण बन सकता है।' युगबाहु ने हाथ जोड़कर मस्तक से यह सब स्वीकार किया। शुभ अध्यवसाय से वह कुछ ही समय में देवगति को प्राप्त हो गया। चन्द्रयश विलाप करने लगा।
मदनरेखा ने सोचा-'इस प्रकार के अनर्थकारी मेरे इस रूप को धिक्कार है। वह पापी मेरी इच्छा के बिना भी अवश्य मेरा शील भंग करेगा अत: यहां रहना उचित नहीं है। किसी दूसरे स्थान पर जाकर इहलोक और परलोक को सुधारूंगी अन्यथा वह पापो मेरे गर्भस्थ पुत्र को भी मार सकता है।' ऐसा सोचकर वह आधी रात के समय ही उद्यान से बाहर निकली और पूर्वदिशा में प्रस्थित हो गई। एक भयानक अटवी में उसने रात गुजारी। दूसरे दिन चलते-चलते मध्याह्न तक वह पद्मसरोवर के पास पहुंची। वन के फलों से उसने अपनी बुभुक्षा शान्त की। रास्ते की थकान से खिन्न होकर सागारिक अनशन कर वह कदली-गृह में सो गई। रात प्रारम्भ हुई। वहां व्याघ्र, सिंह, वराह
आदि अनेक हिंस्र पशुओं की सनक कामें आने लगी : भदखा भाभा बढ़ा। वह नमस्कार महामंत्र का जप करने लगी। अचानक आधी रात को उसके पेट में प्रसव-वेदना हुई। अत्यन्त कष्टपूर्वक उसने सर्वलक्षणसम्पन्न एक बालक को जन्म दिया।
प्रात:काल बालक को कंबल-रत्न से आवेष्टित कर युगबाहु के नाम की मुद्रिका पहनाकर वह सरोवर पर गई। कपड़ों को धोकर वह स्नान के लिए सरोवर में उत्तरी । इसी बीच जल के मध्य स्नान करते हुए एक जलहस्ती ने उसे सूंड से पकड़ा और आकाश में उछाल दिया। नियतिवश नंदीश्वरद्वीप की ओर जाते हुए एक विद्याधर ने उसे देखा। यह रूपवती है, ऐसा सोचकर करुण क्रन्दन के साथ नीचे गिरती हुई मदनरेखा को विद्याधर ने पकड़ लिया। वह उसे वैतादय पर्वत पर ले गया। रोते हए मदनरेखा ने कहा-'भो महासत्त्व! आज रात्रि में वन के मध्य मैंने प्रसव किया है। अपने पुत्र को कदलीगृह में छोड़कर मैं सरोवर में स्नान के लिए उतरी थी। जलहस्ती ने मुझे सूंड से ऊपर उछाला। इसी बीच आपने मुझे झेल लिया। बालक को कोई वन्य पशु मार न दे अथवा आहार न मिलने पर वह स्वयं न मर जाए अत: आप मुझे अपत्यदान देने की कृपा करें, व्याघात न करें। हिंस्र पशुओं से उसे बचाएं। आप मुझे शीघ्र वहां ले चलें।' विद्याधर ने कहा-'यदि तुम मुझे पति के रूप में स्वीकार करो तो तुम्हारे आदेश का पालन कर सकता हूँ।' विद्याधर बोला-'गांधार जनपद के रत्नापथ नगर में मणिचूड़ नामक विद्याधर राजा था। उसकी पत्नी का नाम कमलावती था। मैं उसका पुत्र मणिप्रभ हूं। दोनों श्रेणियों के आधिपत्य का पालन कर मणिचूड़ कामभोगों से विरक्त होकर मुझो राज्य सौंपकर चारण श्रमण के पास दीक्षित हो गया। वह अनुक्रम से विहार करता हुआ कल यहां आया था। अभी चैत्यवंदन हेतु नंदीश्वर द्वीप गया है। उसके पास जाते हुए तुम मुझे दिखलाई दी। अत: है सुन्दरी! तुम्हें सब विद्यारियों की स्वामिती बना दूंगा। मुझे तुम अपना स्वामी स्वीकार कर लो।'
उसने आगे उसके पुत्र के बारे में बताते हुए कहा-'मिथिला का राजा शिकार के लिए निकला। अश्व उसे निर्जन अटवी में ले आया। अटवी में विचरण करने वाले मिथिला के राजा ने
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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तुम्हारे पुत्र को देखा। उसे लेकर उसने अपनी महादेवी को दे दिया। वह पुत्र की भांति उसका लालनपालन कर रही है। यह सारी बात मैंने अपने विद्याबल के उपयोग से जान ली है। इसलिए हे सुतनु ! उदवेग को छोडकर धीरज करो। अपने मन को प्रसन्न करो। अपनी यौवनश्री को मेरे साथ रमणकर आनंदित करो।' यह सुनकर मदनरेखा ने सोचा-'मेरे कर्मों की रेखा कितनी विचित्र है? मुझे नई विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। अब मुझे क्या करना चाहिये? कामदेव से ग्रसित प्राणी कार्य
और अकार्य का विवेक नहीं कर सकता। वह लोकापवाद की चिंता नहीं करता तथा परलोक का हित नहीं सोचता। इसलिए मुझे किसी भी अवस्था में शोल की रक्षा करनी चाहिए।' ऐसा सोचकर उसने विद्याधर से कहा-'आप मुझे नंदीश्वर द्वीप ले चलें। वहां जाकर मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगी।' विद्याधर ने प्रसन्नमन से श्रेष्ठ विमान की विकुर्वणा की। मदनरेखा को उसमें बिठाकर वह नंदीश्वरद्वीप ले गया। मणिप्रभ और मदनरेखा दोनों विमान से उतरे और उन्होंने ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिषेण आदि जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की। उन्होंने मणिचूड़ चारण मुनि को भी वंदना की और उनके पास बैठ गये। मणिचूड़ चार ज्ञान के धारक थे। उन्होंने अपने ज्ञान के बल से मदनरेखा का वृत्तान्त जान लिया और धर्मकथा से मणिप्रभ को उपशान्त किया। मणिप्रभ ने मदनरेखा से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी। मणिप्रभ ने कहा-'आज से तुम मेरी भगिनी हो । बोलो, अब में तुम्हा लिए नया सं: मया ने कहा--भागने मुझे नंदीश्वर तीर्थ दिखला दिया अत: बहुत उपकार किया है।' मदनरेखा ने मुनिप्रवर से कहा-'भगवन् ! आप मुझे अपने पुत्र का वृत्तान्त बतायें।'
मुनि ने कहा-'जंबूद्वीप के पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय में मणितोरण नामक नगर था। वहां अमितयश नामक चक्रवर्ती था। उसकी भार्या पुष्पवती से दो पुत्र उत्पन्न हुए-पुष्पसिंह और रत्नसिंह । वे दोनों चौरासी लाख पूर्व राज्य कर संसार के भय से उद्विग्न होकर चारण श्रमणों के पास प्रव्रजित हो गए। सोलह लाख पूर्व तक यथोचित श्रामण्य का पालन कर आयु-क्षय होने पर वे अच्युत कल्प में बावीस सागरोपम के आयुष्य वाले इन्द्र सामानिक देव बने। देव-ऋद्धि का सुख भोगकर वहां से च्युत होकर धातकीखंड के अर्द्ध भरत में हरिषेण बलदेव की पत्नी समुद्रदत्ता के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। एक का नाम सागरदेव तथा दूसरे का नाम सागरदत्त रखा गया। राज्यश्री को असार जानकर बारहवें तीर्थकर दृढ़ सुव्रत स्वामी के तीर्थ के अतिक्रान्त हो जाने पर आचार्य के पास दीक्षित हुए। दीक्षित होने के तीसरे दिन विद्युद्धात से वे दिवंगत हो गये। वे महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुए। सतरह सागरोपम तक देव-सुख का अनुभव किया। बावीसवें तीर्थंकर के कैवल्यउत्सव पर वे वहां गए। वहां उन्होंने भगवान से पूछा-'यहां से च्युत होकर हम कहां उत्पन्न होंगे। भगवान् ने कहा--"एक मिथिला नगरी के राजा जयसेन के पुत्ररूप में तथा दूसरा सुदर्शनपुर के युगबाहु राजा की पत्नी मदनरेखा के यहां पुत्र होगा। परमार्थत: वे पिता-पुत्र होंगे।' ऐसा सुनकर वे देव पुन: देवलोक में चले गये।।
एक देव वहां से च्युत होकर मिथिला नगरी के राजा जयसेन की पत्नी वनमाला के यहां उत्पन्न हुआ। उसका नाम पद्मरथ रखा गया। जब वह युवा हुआ तो पिता ने उसे राजा बना दिया
और स्वयं प्रव्रजित हो गया। उसकी पत्नी का नाम पुष्पमाला था। राज्य का पालन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया।
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इधर दुसरा देव देवलोक से च्युत होकर तुम्हारा पुत्र बना। वह पद्मरथ अविनीत घोड़े के द्वारा पथ से च्युत हो गया और अटवी में चला गया। आज प्रात: घूमते हुए उसने तुम्हारा पुत्र देखा। पूर्वभव के स्नेह के कारण उसने अत्यन्त प्रसन्न हृदय से उसे स्वीकार कर लिया। इसी बीच पैर के चिह्नीं से खोजते हुए सेना भी वहीं आ गई। वह हाथी पर चढ़कर अपने नगर चला गया। उसने वह बालक अपनी पत्नी पुष्पमाला को दे दिया : राज ने नमामारोत र ना। स यन्त स्नेह से उसका लालन-पालन हो रहा है। जब मुनि यह वृतान्त बता रहे थे तभी एक दिव्य देदीप्यमान विमान वहां उतरा । उसमें से श्रेष्ठ रत्नों का मुकुट पहने, चंचल मणिकुंडल धारण किए हुए. वक्षस्थल में हार पहने हुए एक देव निकला। वह तीन बार प्रदक्षिणा देकर मदनरेखा के चरणों में गिर पड़ा। उसके बाद वह मुनि के चरणों में बंदना कर धरती पर बैठ गया। तब विद्याभा ने देव का अविनय देखकर कहा
अनरेहि नरवरेहि य, परूविया हुँति रायनीईओ।
लुप्पति अत्य ते च्चिय, को दोसो तत्थ इयराणं? ॥ -देवता और राजा नीति का प्ररूपण करते हैं। यदि वे भी उसका लोप करते हैं तो दूसरों का तो कहना ही क्या?
'क्रोधादि दोष से रहित, पांच इन्द्रियों का दमन करने वाले, मद का नाश करनेवाले, श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, तप और संयम से युक्त इय धीर श्रमण को छोड़कर तुमने इस रमणी को पहले वंदना क्यों की?' देव ने कहा-हे विद्याधरराज ! तुमने जो कहा है, वह सत्य है । मैंने इसको प्रथम वंदना की, इसका कारण सुनो। सुदर्शनपुर में मणिरथ नामक राजा था। उसका भाई युगबाहु था। पूर्वभव के वैर के कारण बसंत मास में अपने भाई मणिरथ के द्वारा उसके गर्दन पर प्रहार किया गया। जब मैं मरणासन्न था तब इस मदनरेखा ने जिनधर्म का उपदेश दिया और वैर के अनुबंध को उपशान्त कर दिया। सम्यक्त्व आदि परिणामों से कालगत होकर मैं पंचम कल्प में दस सागर की आयुष्य वाला इंद्र सामानिक देव बना हूँ। यह मेरी धर्मगुरु है क्योंकि इस से मैंने सम्यक्त्व का मूल जिनधर्म स्वीकार किया है। कहा भी है
जो जेण सुद्धधम्मम्मि, ठाविओ संजएण गिहिणा वा।
सो चेव सस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाणाओ॥ जो संयमी साधु या गृहस्थ किसी को धर्म में स्थित करता है, वह उसका धर्मगुरु है इसलिए मैंने इसे पहले वंदना की। यह सुनकर विद्याधर ने सोचा-'अहो ! जिनधर्म का कितना सामर्थ्य है? संसार में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं, जो दुःख प्राप्त करते हैं पर जिनधर्म में प्रयत्न नहीं करते।'
देव ने मदनरेखा से कहा-'साधर्मिणो ! कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?' मदनरेखा ने कहा-'आप परमार्थ के अलावा मेरा और कोई प्रिय करने में समर्थ नहीं हैं। जन्म, जरा, मरण आदि से रहित मोक्ष-सुख ही मुझे प्रिय है। फिर भी हे त्रिदशेश्वर ! मुझे आप मिथिला ले जाएं, वहां पुत्र का मुंह देखकर मैं परलोक का हित-सम्पादन करूंगी।' तब देवता उसको तत्क्षण मिथिला ले गया। मिथिला तीर्थकर मल्लिनाथ और नमिनाथ की जन्म और अभिनिष्क्रमण भूमि है अत: तीर्थभूमि
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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है। वहां वे एक उपाश्रय में गए साध्वियों को वंदना की और उनके सम्मुख बैठ गये। साध्वियों ने उन्हें उपदेश दिया कि मनुष्य जन्म प्राप्त कर, धर्म और अधर्म को जानकर सकल सुख के कारण धर्म में प्रयत्न करना चाहिये। धर्मकथा की समाप्ति पर देवता ने कहा-'अब राजभवन चलते हैं। वहां तुम्हें तुम्हारे बेटे का मुंह दिखा दूंगा।' मदनरेखा ने कहा-'संसर बढ़ाने वाले स्नेह से क्या लाभ? मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूंगी।' तुम्हें जो रुचिकर लगे वह करो ऐसा कहकर देवता अपने कल्प में लौट गया। मदनरेखा ने साध्वियों के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर ली। उसका नाम सुव्रता रखा गया। वह दीक्षित होकर तप और संयम से स्वयं को भावित करने लगी।
इधर वह बालक पद्मरथ राजा के यहां सुखपूर्वक बढ़ने लगा। विपक्षी राजा पमरथ के प्रति विनम्र हो गए अतः राजा ने बालक का गुणनिष्पन्न नाम नमि रख दिया। वह पांच धाइयों से परिवृत होकर सुखपूर्वक बढ़ने लगा। जब वह आठ वर्ष का हुआ तभी सब कला-शास्त्र में निपुण हो गया। इक्ष्वाक कल में उत्पन्न देवांगनाओं के रूप को लज्जित करने वाली एक हजार आठ कन्याओं के साथ विषय--सुख का अनुभव करता हुआ वह समय बिताने लगा। पद्मरथ राजा भी संसार को अस्सारता को जानकर नमिकुमार को विदेह जनपद का राजा बनाकर स्वयं संयमश्री का वरण कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। नमिराजा राज्य का सम्यक् प्रकार से पालन करने लगे। इधर मणिरथ को उसी रात में सांप ने इस लिया। मरकर वह चौथी नारकी में उत्पन्न हुआ। सामंत और मंत्रियों ने चन्द्रयश को राजा बना दिया। चन्द्रयश राज्य का भलीभांति परिपालन करने लगा।
एक बार नमि राजर्षि के राज्य का प्रधान हाथी आलानस्तंभ को तोड़कर विध्य अटवी को ओर भाग गया। वह सुदर्शनपुर नगर के निकट से निकल रहा था। चन्द्रयश राजा की अश्वसेना ने जाते हुए हाथी को देखा। राजा को यह बात बताई गई। चन्द्रयश हाथी को पकड़कर नगर में लेकर आ गया। गुप्तचरों ने नमि राजा को सारा वृत्तान्त बताया। उन्होंने कहा–'धवल हस्ती को चन्द्रयश ने पकड़ लिया है अतः आप ही प्रमाण हैं। आज्ञा दें हम क्या करें?' नमि राजा ने चन्द्रयश के पास दूत भेजकर कहलवाया-'यह धवल हस्ती मेरा है अत: इसे वापिस भेजें।' नमि के दूत ने चन्द्रयश को यह बात बताई। चन्द्रयश ने कहा-'रत्नों पर किसी का नाम नहीं लिखा जाता। जो अधिक बलशाली है. वही उसका स्वामी है। नीतिकार कहते हैं :
को देइ कस्स दिज्जइ, कमागया कस्स कस्स व निबद्धा।
विक्कमसारेहि जिए. भुजह वसुहा नरिंदेहिं॥ वसुधा को कौन किसे देता है? क्रमागत यह वसुधा किस-किस के साथ निबद्ध नहीं हुई। जो पराक्रमी नरेन्द्र होते हैं, वे ही इसका उपभोग भी करते हैं।
तिरस्कृत और सम्मानित होकर दूत मिथिला नगरी में आ गया। चन्द्रयश की सारी बात राजा नमि को बताई गयी। कुपित लमि राजा ने सेनाबल के साथ चन्द्रयश पर आक्रमण कर दिया। इधर चन्द्रयश राजा नमि को आक्रमण के लिए आया जानकर सेना के साथ प्रस्थित हुआ। सामने अपशकुन देखकर वह रुक गया। मंत्रियों ने चन्द्रयश राजा को कहा कि नगरद्वार बंद करके हम दुर्ग में रह
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जाएं। उचित समय पर हम अन्य उपाय करेंगे। राजा ने मंत्रियों की बात स्वीकार कर ली। इधर नमि राजा ने आकर नगर को चारों ओर से घेर लिया। जनश्रति से साध्वी सव्रता के पास भी यह बात पहुंची। उसने सोचा---'जन और धन की हानि कर ये दोनों अधोगति में न जाएं इसलिए मैं जाकर उन दोनों को उपशान्त करूंगी।' मुखिया साध्वी की आज्ञा लेकर साध्वियों के साथ साध्वी सुव्रता सुदर्शनपुर गई । आर्या सुव्रता ने नमि राजा को देखा । नमि राजा ने आदरपूर्वक साध्वी को आसन दिया । सार्ध्व सुव्रता को बंद कर नमिरादा नाम पर बैठ गया। साध्वी सुव्रता ने निःसीम सुख के निमित्तभूत जिनधर्म की व्याख्या की। धर्म-कथा के अंत में साध्वी ने कहा-'राजन्! यह राज्य श्री असार है। विषय-सुखों का विपाक बहुत दारुण होता है। पापी व्यक्ति अत्यधिक दुःखप्रद स्थान नरक में उत्पन्न होते हैं इसलिए इस संग्राम से तुम निवृत्त हो जाओ। रहस्य की बात यह है कि ज्येष्ठ भाई के साथ कैसा संग्राम?' नमिराजा ने कहा-'क्या वह मेरा ज्येष्ठ भाई है।यह कैसे?' साध्वी सुव्रता ने अपना सारा वृत्तान्त सप्रमाण उसे सुना दिया। फिर भी अभिमानवश वह युद्धभूमि से उपरत नहीं हुआ। तब साध्वी सुव्रता एक छोटे दरवाजे से नगर में प्रवेश कर राजभवन में गई। जैसे ही उसने राजभवन में प्रवेश किया, परिजनों ने उसे पहचान लिया। चन्द्रयश राजा ने 'साध्वी माता को वंदना की। उनको आदरपूर्वक स्थान दिया और स्वयं धरती पर बैठ गया। अंत:पुर के सदस्यों ने आर्या के आगमन की बात सुनी। वे अश्रुपूरित नयनों से आए और सास्त्री सव्रता की चरण-वंदना की।
राजा चन्द्रयश ने साध्वी से कहा-'यह दुर्धर व्रत क्यों स्वीकार किया है?' आर्या सुव्रता ने अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाया । चन्द्रयश ने पूछा-'मेरा छोटा भाई अभी कहां है?' आर्या ने कहा--जिसने तुम पर आक्रमण किया है, वहीं तुम्हारा छोटा भाई है।' यह सुनकर हर्ष से रोमांचित होकर वह नगर से निकला। नमिराजा भी अपने बड़े भाई चन्द्रयश को आते देखकर दौड़ा और उनके चरणों में गिर पड़ा। बड़े आदर-सत्कार और हर्ष के साथ चन्द्रयश ने अपने छोटे भाई को नगर में प्रवेश करवाया। चन्द्रयश ने नमिराजा को सम्पूर्ण अवंती जनपद का राज्य देकर उसका अभिषेक किया फिर महाराजा चन्द्रयश श्रामण्य को स्वीकार कर सुखपूर्वक विहरण करने लगे। नमिराजा दोनों देशों पर नीतिपूर्वक राज्य करने लगा। उसका अनुशासन अत्यन्त कठोर था।
एक बार राजा नमि को दाहज्वर हो गया। उसने छह मास तक उसकी घोर वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बता दिया। दाहश्वर को शांत करने के लिए रानियां चंदन घिसती रहीं। चंदन घिसते हुए उनके हाथ के कंकण बज रहे थे। कंकण की आवाज से पूरा राजभवन गुंजित हो रहा था। कंकण को आवाज राजा के कानों को अप्रिय लग रही थी। राजा ने कहा कि इस आवाज से मेरे कानों पर आघात सा लगता है। सभी रानियों ने सौभाग्य चिह्न स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार दिये। कुछ देर बाद राजा ने मंत्री से पच्छा-'कंकण का शब्द क्यों नहीं बज रहा है?' मंत्री ने कहा-'राजन्! कंकण के घर्षण से होने वाली ध्वनि आपको अप्रिय लग रही थी अत: सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिये हैं। अकेले कंकण से घर्षण नहीं होता अत: घर्षण के बिना शब्द भी नहीं हो सकता। यह सुनकर राजा नमि ने परमार्थ का चिंतन किया--'सुख अकेलेपन में हैं। जहां द्वैत है, अनेक हैं, वहां दुःख है। राजा
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
का आत्ममंथन आगे चला। उसने संकल्प ग्रहण किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य प्रवजित हो जाऊंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन होकर सो गया। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा कि श्वेत नागराज मंदरपर्वत पर स्वयं चढ़ गया है। सवेरे नंदोघोष की आवाज से वह जागा । वह प्रसन्नमना चिंतन करने लगा कि मैंने श्रेष्ठ स्वप्न देखा है। पुन: वह गहराई से चिंतन करने लगा कि ऐसा पर्वत मैंने पहले कभी देना है। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मृति हो गई। उसने देखा कि इस जन्म से पूर्व मनुष्य भव में श्रामण्य का पालन करके मैं पुष्पोत्तर विमान में उत्पन्न हुआ था। नमि राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गया। ५२. नग्गति
भरतक्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर था। वहां का राजा जितशत्रु था। एक बार राजा ने चित्रसभा का निर्माण प्रारम्भ करवाया। उसने चित्रसभा का समविभाग कर विभिन्न चित्रकारों को उसे चित्रित करने के लिए कहा। अनेक चित्रकार उसमें लगे। चित्रांगक नामक एक वृद्ध चित्रकार उसमें चित्र करता था। वृद्ध चित्रकार की युवा पुत्री कनकमंजरो रोज उसके लिए भोजन लेकर आती थी। एक दिन वह भोजन लेकर अपने पिता के पास आ रही थी। जब वह जनसंकल राजमार्ग पर चल रही थी तब तीव्र गति से एक घुड़सवार वहां से गुजरा। वह भयभीत होकर एक ओर सरक गई। घुड़सवार के जाने पर वह अपने पिता के पास आई। चित्रांगक भोजन को आया देखकर शरीरचिंता के लिए चला गया। कनकमंजरी ने कौतुकवश पृथ्वी-तल पर रंगों से बने प्रतिरूप मोरपिच्छ को देखा। इसी बीच राजा जितशत्रु चित्रसभा में आ गया। चित्र देखते हुए उसने पृथ्वी पर मोरपिच्छ को देखा। यह सुन्दर है ऐसा सोचकर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। वेग के कारण उसके नखाग्रभाग टूट गए। वह चारों ओर दिग्मूढ होकर देखने लगा। कनकमंजरी ने हंसते हुए कहा-'तीन पैर से कोई भी आसंदक-कुर्सी नहीं ठहरती। चौथे मूर्ख पुरुष की खोज करते हुए आज तुम आसंदक के चौथे पैर मिल गए हो। राजा ने कहा-'कैसे? इसका परमार्थ बताओ।' उसने कहा-'आज मैं अपने पिता के लिए खाना लेकर आ रही थी तब राजमार्ग में एक पुरुष अश्व को बहुत तीव्र गति से चला रहा था। उसके मन में थोड़ी भी करुणा नहीं थी। उसने यह नहीं सोचा कि राजमार्ग से अनेक बाल, वृद्ध, स्त्री आदि गुजरते हैं, कोई भी असमर्थ व्यक्ति उस तीव्रगामी अश्व से कुचला जा सकता है। इसलिए वह महामूर्ख अश्ववाहक आसंदी का एक पैर था। दूसरा पैर है यहां का राजा, जिसने चित्रकारों को समविभाग में चित्रसभा बांटी है। एक-एक कुटम्ब में अनेक चित्रकार होते हैं। मेरा पिता अकेला है। उसके कोई पुत्र नहीं है। वह वृद्ध तथा निर्धन भी है। ऐसे व्यक्ति के लिए भी समविभाग किया है। तीसरा पैर मेरा पिता है, जिसने इस चित्रसभा को चित्रित करते हुए पूर्वार्जित सारा धन खा लिया। इस समय जैसे-तैसे मैं उनके लिए भोजन लाती हं। भोजन आने के बाद वह शरीर-चिंता के लिए जाता है। भोजन ठंडा हो जाता है। यह कैसा भोजन?' राजा बोला-'मैं चौथा पैर कैसे हूँ?' कनकमंजरी ने कहा-'तुम सब कुछ जानते हो। यहां मोर का १. उनि २६३-६७, उसुटी प. १३६-४१ ।
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आगमन कैसे हो सकता है? यदि मोर का आना संभव भी हो तो दृष्टि से अच्छी तरह देखना चाहिए।' राजा ने कहा-'सत्य है। मैं मर्ख इं. और आमंदो का चौथा पैर हूं।' राजा उसके वचनविन्यास और दह के लावण्य को देखकर उस पर अनुरक्त हो गया। कनकमंजरी भी पिता को भोजन खिलाकर अपने घर चली गयी।
राजा ने अपने सुगुप्त नामक मंत्री के माध्यम से चित्रांगक से कनकमंजरी को मांगा। चित्रांगक ने कहा-'हम दरिद्र हैं अत: विवाह के अवसर पर राजा का सत्कार आदि कैसे कर सकते हैं?' मंत्री ने राजा को आकर सारी बात कहीं। राजा ने धन, धान्य और हिरण्य से चित्रांगक का भवन भर दिया। प्रशस्त तिथि और मुहूर्त में वैभव के साथ राजा के साथ कनकमंजरी का विवाह हो गया। राजा ने उसके महल में अनेक दास-दासियों को रख दिया।
राजा जितशत्रु के अनेक रानियां थी अतः एक-एक रानी अपने क्रम के अनुसार राजा के शयनगृह में जाती थीं। उस दिन कनकमंजरी को बुलाया गया। वह अलंकारों से विभूषित होकर मदनिका दासी के साथ वहां गई । वह आसन पर बैठ गई। इसी बीच राजा वहां आ गया। राजा को देखते ही वह विनय-पूर्वक उठी। राजा शय्या पर बैठ गया। इससे पूर्व ही कनकमंजरी ने मदनिका को कह दिया कि राजा के बैठने पर मुझे आख्यानक सुनाने के लिए कहना जिससे राजा भी सुन सके। तब मदनिका ने अवसर देखकर कहा-'स्वामिनी ! जब तक राजा सो न जाए तब तक एक कथा सुना दो।' कनकमंजरी ने कहा-'मदनिका! जब राजा नोंद में सो जाएगा तब कथा कहूंगी।' राजा ने सोचा यह कैसी कथा कहेगी मैं भी इसकी कथा सुनूंगा अतः वह कपट-नींद में सो गया। मदनिका ने कहा-'स्वामिनी ! राजा सो गया है अतः अब आख्यानक सुनाओ।'
कनकमंजरी ने कथा सुनाना प्रारम्भ किया-'बसंतपर नगर में वरुण नामक सेठ रहता था। उसने एक हाथ प्रमाण पत्थर का मंदिर बनाया। उसमें चार हाथ प्रमाण देवता की मूर्ति बनवाई।' मदनिका ने कहा-स्वामिनी ! एक हाथ प्रमाण देवकुल में चार हाथ का देव कैसे समाएगा? कनकमंजरी ने कहा-'अभी राजा निद्राधीन है अतः कल कहूंगी।' 'ऐसा ही हो' कहकर मनिका अपने घर चली गयी। राजा को कौतहल उत्पन्न हो गया. ऐसा कैसे हआ? वह सो गई।
दूसरे दिन रात्रि को राजा ने कनकमंजरी को पुनः बुलाया। उस दिन भी मदनिका ने कहा-'स्वामिनी ! अब आधे कहे हुए कथानक को पूरा करो।' कनकमंजरी ने कहा-'वह देव चतुर्भुज था। उसके शरीर का प्रमाण इतना नहीं था। इतना ही आख्यानक है।' मदनिका ने कहा-'अन्य कोई आख्यानक कहें।' कनकमंजरी ने कहा-'हले ! एक बड़ी अटवी थी। उसके अन्दर विस्तृत शाखा-प्रशाखा वाला एक लाल अशोक का वृक्ष था। उसके छाया नहीं थी।' मदनिका ने कहा-'इतने बड़े वृक्ष की छाया कैसे नहीं थी'? कनकमंजरी ने कहा-'आगे की कथा कल कहूंगी। इस समय मैं नींद के पराधीन हो रही हूँ।' तीसरे दिन भी कौतुक वश राजा ने उसी को बुलाया। मदनिका के पूछने पर उसने कहा--उस पादप की अध: शाखा थी अर्थात् नीचे छाया पड़ती थी ऊपर नहीं।
अन्य कथा पूछने पर उसने कहना प्रारम्भ किया- एक सन्निवेश में एक ग्राम-मुखिया था। उसके पास एक बड़ा ऊंट था। वह स्वच्छंद विचरण करता था। एक दिन चरते हुए उसने पत्र, पुष्प एवं फल से समृद्ध बबूल का वृक्ष देखा। वह ऊंट उसके सामने अपनी गर्दन फैलाने लगा, लेकिन
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका। इसलिए वह बहुत देर तक क्लेश पाता रहा। फिर वह अच्छी तरह चारों ओर गर्दन फैलाने लगा। जब उसने किसी भी प्र.
कु क र बम दुनिल तो गया। उसने उसके ऊपर भूत्र और मल का विसर्जन कर दिया। मदनिका ने कहा-'उसने बबूल के वृक्ष पर मल और मूत्र का विसर्जन कैसे किया जब कि वह मुख से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता था।' कनकमंजरी ने कहा-'आगे कल कहूंगी।' दूसरे दिन उसने कहा-'वह बबूल का वृक्ष अंधकूप के गर्त के मध्य था इसलिए ऊंट कुछ भी खा नहीं सका।' इस प्रकार कनकमंजरी छह महीने तक अनेक आख्यानकों से राजा को मोहित करती रही 1 राजा का उसके प्रति अत्यधिक अनराग हो गया। राजा उसके साथ ही एकान्तरित समय बिताने लगा। उसकी सपत्नियां उस पर कपित हो गयीं और छिद्रान्वेषण करने लगीं। वे सपत्नियां कहने लगीं-इसने राजा पर वशीकरण-सम्मोहन कर दिया है, जिससे उत्तम कुल में प्रसूत हम सबको राजा ने त्याग दिया है । इस शिल्पो की कन्या में अनुरक्त राजा गुण और दोष का विचार भी नहीं करता है । राजा राज्य-कार्य में भी रस नहीं लेता है। इस मायाविनी के कारण धन का नाश होने पर भी राजा को चिंता नहीं होती।
___ इधर कनक मंजरी मध्याह्न बेला में अपने प्रासाद में जब अकेली रहती तब राजा के दिए हुए कपड़े, आभरण आदि उत्तार कर पिता के दिए कपड़े पहनती तथा पुष्प के बने अलंकारों को धारण कर स्वयं को संबोधित करतो –'हे जीव! तू ऋद्धि का गौरव और मद मत कर । तू अपने आपकी विस्मृति मत कर । यह समृद्धि राजा की है । तेरे पास तो केवल फटे-पुराने कपड़े और ऐसे आभरण हैं इसलिए तु उपशान्त रह, जिससे त चिरकाल तक इस समद्धि में सहभागी बन सकती है अन्यथा राजा एक दिन गर्दन पकड़कर बाहर निकाल देगा'। उसकी प्रतिदिन की इस प्रकार की चेष्टाओं को देखकर सपत्नियों ने राजा से कहा-'यद्यपि आप हम पर नि:स्नेह हो गए हैं फिर भी हम आपको अकुशल और अमंगल से बचाती हैं। नारी के लिए पति देवता होता है। वह आपको हृदयवल्लभा दयिता कोई क्षुद्रकर्म की साधना कर रही है। उसके वशीभूत होकर आप अपना अनर्थ भी नहीं देख पाते।'
राजा ने कहा-'कैसे?' सपत्नियों ने कहा-'मध्याह्न बेला में जब यह सब कार्यों से उपरत हो जाती है तब द्वार बंद करके कुछ समय तक मन ही मन में कुछ गुनगुनाती है। यदि आपको विश्वास न हो तो आप किसी आत्मीय व्यक्ति को भेजकर खोज कराएं।' यह सुनकर अपवरक में प्रविष्ट कनकमंजरी को देखने के लिए राजा स्वयं गया। द्वार पर स्थित होकर राजा ने वैसा ही देखा जैसा कहा गया था। राजा ने उसका आत्मानुशासन-स्व को संबोधित कर कहे गए वाक्य सुने। वह बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने सोचा इसमें कितना बुद्धि-कौशल है ! कैसा अभिमान का त्याग है ! कितना विवेक है ! सचमुच यह सकल गुणों की निधान है। मात्सर्य के कारण से सपत्नियां इसके गुण को भी दोष रूप में देख रही हैं। राजा ने प्रसन्न होकर उसे सारे राज्य की स्वामिनी बना दिया। उसे पट्टबद्ध रानी के रूप में मान्यता दे दी। उसे पटरानी बना दिया।
एक बार विमलचन्द्र आचार्य के पास राजा ने कनकमंजरी के साथ श्रावक धर्म अंगीकार किया। कालान्तर में कनकमंजरी मर कर देवी बनी। वहां से च्युत होकर वैताद्य पर्वत पर तोरणपुर नगर में दृढ़शक्ति विद्याधर राजा की पुत्री बनी। उसका नाम कनकमाला रखा गया। क्रमशः वह युवती
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बनी । एक बार उसके रूप से आकृष्ट हृदय वाले एक विद्याधर ने उसका अपहरण कर वैताढ्य पर्वत पर प्रासाद की विकुर्वणा करके उसमें रख दिया। उसने वेदिका की रचना की और सोचा यहां विवाह करूंगा। इसी बीच कनकमाला का ज्येष्ठ भ्राता कनकतेज वहां आ गया। दोनों रोषाग्नि में जलते हुए युद्ध करते हुए आपसी घात-प्रत्याघात से मृत्यु को प्राप्त हो गए। कनकमाला भी भाई के शोक से तीन विलाप करती हुई उसी प्रासाद में रहने लगी।
एक दिन व्यंतर/वाणमंतर जाति का एक देव वहां आया। उसने स्नेहपूर्वक कनकमाला से कहा-'वत्से! तुम मेरी बेटी हो।' जब वह देव उसे कह रहा था उस समय दृढशक्ति नामक विद्याधर अपने पुत्र और पुत्री की खोज करता हुआ वहां आ गया। देवमाया से व्यन्तर ने कनकमाला का रूप परिवर्तन कर दिया। उसने पुत्र, पुत्री और वासव के मृत शरीर को धरती पर पड़े हुए दिखाया। उन्हें देख दृढ़शक्ति ने सोचा-'मेरे पुत्र को वासव ने मारा है और कनकतेज ने वासव को मारा है। आपस में मारते हुए वासव के द्वारा कनकमाला मारी गयी हैं । धिक्कार है इस दुःख-बहुल संसार को। कौन
ना इस संसार में रहना चाहेगा? ऐसा चिन्तन करते-करते वह विरक्त हो गया और उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। घ्यन्तर ने अपनी माया को समेटा। कनकमाला और देव ने मुनि बने दृढशक्ति को वंदना की। साधु ने पूछा-'यह क्या है?' कनक्रमाला ने अपने भाई का वृत्तान्त उसे सुनाया। साधु ने कहा-'मैंने तीनों के मरे हुए शरीरों को देखा था।' देव ने कहा-'वह मेरी माया थी।' मुनि ने पूछा- 'ऐसा क्यों किया?' देव ने इसका कारण बताते हुए कहा
'क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु नामक राजा था। उसने चित्रांगक चित्रकार की लड़की कनकमंजरी के साथ विवाह किया। वह भी श्राविका बन गई। मरणासन्न अवस्था में उसने चित्रांगक को नमस्कार महामंत्र सुनाया, जिससे वह व्यन्तर जाति का देव बना। वह मैं हूँ। मैं इधर से आ रहा था। मैंने शोक-विह्वल कनकमाला को देखा। मेरे मन में इसके प्रति अत्यधिक स्नेह उमड़ पड़ा। मैंने सोचा कि क्या यह पूर्वभव में मेरी कोई परिचित बंधु रही है जो इतना स्नेह उमड़ रहा है। मैंने अवधिज्ञान से उपयोग लगाया तो पता चला कि यह कनकमंजरी पूर्वभव में मेरी पुत्री थी। यह मरकर विद्याधर की बेटी बनी है। इसी बीच आप आ गए। मैंने सोचा-'यह तुम्हारे साथ चली जाएगी।' इस विरह के भय से तुम्हें विमोहित करने के लिए माया रची और इसका मरा हुआ शरीर दिखाया। तुमने दीक्षा स्वीकार कर ली है। अब मैं खेद का अनुभव कर रहा हूँ कि यह महानुभाव अपनी पत्री से वंचित हो गया। इसलिए आप मेरी दश्चेष्टा के लिए मझे क्षमा करें।'साधने कहा-'तुम मेरे परम उपकारी हो क्योंकि तुम्हारे कारण मैंने धर्म स्वीकार किया है।' ऐसा कहकर वे विद्याबल से आकाश में उड़ गए और यथासमाधि विहरण करने लगे।
व्यन्तर सुर द्वारा सारी बात सुनकर उस पर चिन्तन करने से कनक्रमाला को भी जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपना पूर्वभव जान लिया कि मैं कनकमंजरी थी और यह देव मेरा पिता था। उसने अपने पिता से पूछा-'मेरा पति कौन होगा?' देवता ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर कहा-'तुम्हारे पूर्व जन्म का पति जितशत् राजा तम्हारा पति होगा। वह देव होकर वद्धसिंह राजा का पुत्र सिंहरथ के रूप में उत्पन्न होगा। वही तुम्हारा पति होगा।' कनकमाला ने पूछा-'मेरा उसके साथ संयोग कैसे होगा?' व्यंतर देव ने कहा-'एक दुष्ट घोड़ा उसका अपहरण कर यहां खींच
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
लायेगा इसलिए तुम यहां सुखपूर्वक रहो, उद्वेग मत करो। मैं तुम्हारे आदेश का पालन करूंगा।' वह देव उसी प्रासाद में उसके साथ रहने लगा। कनकमाला भी सुखपूर्वक उसके साथ रहने लगी।
एक बार देव मेरु पर्वत पर चैत्य-वंदन हेतु गया। उसी दिन मध्याह्न काल में विपरीत शिक्षा वाले घोड़े पर बैठा सिंहस्थ वहां आया। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। बारह योजन तक चलने पर राजा ने लगाम ढोली छोड़ी। घोड़ा भी वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष से बांध राजा वहां घूमने लगा। वह रात बिताने हेतु पहाड़ पर चढ़ा। वहां सप्तभौम प्रासाद देखा। राजा महल के अंदर गया। वहां उसने सुन्दर कन्या देखी। दोनों एक दूसरे को देखकर अनुरक्त हो गए। राजा ने उसका परिचय पूछा। उसने कहा-'पहले मेरे साथ विवाह करो फिर मैं अपना सारा वृत्तान्त सुनाऊंगी।' राजा ने अति उत्कंठा से उसके साथ विवाह किया। रात बीतने पर प्रात:काल कनकमाला ने सारी बात बताई। अपने वृत्तान्त को सुनकर सिंहरथ को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। इसी बीच देवांगनाओं के साथ वह व्यन्तर देव वहां आया। राजा ने उसको प्रणाम किया। देवता ने हर्षपूर्वक उसका अभिनंदन किया। कनकमाला ने अपने विवाह की बात देव को बताई। यह सुनकर वह बहुत हर्षित हुआ। बातचीत करते-करते मध्याह्न का समय हो गया। सजा ने अपनी पत्नी कनकमाला के साथ दिव्य आहार किया। एक मास तक वह वहीं रहा।
एक दिन राजा सिंहरथ ने कनकमाला से कहा-'मेरे न रहने से प्रतिपक्षी राजा मेरे राज्य में उपद्रव करेंगे अत: अब चलना चाहिये।' कनकमाला ने कहा-'जैसी आपकी आज्ञा । पर एक बात है, आपका नगर बहुत दूर है अत: वहां तक पैदल चलना कैसे होगा? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है। आप मेरे से प्रज्ञप्ति विद्या साध लें। कनकमाला ने राजा सिंहरथ को वह विद्या सिखा दी। कनकमाला से पूछकर वह अपने नगर पहुंचा। नागरिकों ने महोत्सव का आयोजन किया। सामंतों ने राजा से सारी बात पूछी। राजा ने सारा घटना-प्रसंग उनको सुनाया। सुनकर सभी लोग विस्मित हो गए। सामन्तों ने कहा-'पुण्यशाली जीव चाहे समुद्र में चला जाए या अटवी में, लेकिन अपने पुण्यों के प्रभाव से वहां भी आनन्द मनाता है।'
राजा पांच-पांच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से मिलने जाया करता था। कनकमाला के साथ कुछ दिन रहकर वह अपने नगर लौट आता था। लोग कहते राजा पर्वत पर जाता है। इसलिए उसका 'नम्गप्ति' नाम प्रसिद्ध हो गया।
एक बार नग्गति राजा घूमने के लिए पर्वत पर गया। व्यन्तर देव ने कहा-'यहां रहते हुए मुझे बहुत समय बीत गया है अत: स्वामी के आदेश से किसी कार्यवश मुझे जाना होगा। संभव है कुछ समय लग जाए। कनकमाला मेरे विरह में अधीर हो जाएगी अतः ऐसा उपाय करना जिससे यह अकेली न रहे।' ऐसा कह देव वहां से चला गया। राजा ने सोचा-इसके मन की शांति का और कोई उपाय नहीं है अतः उसी पर्वत पर एक नगर बसा दिया। प्रलोभन देकर वह अपनी बहुत सी प्रजा को वहां से लेकर आ गया। वहां उसने जिनभवनों का निर्माण कर दिया। उसमें प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवा दी। यात्रा- महोत्सव करते हुए तथा न्याय से राज्य की परिपालना करते हुए समय बीतने लगा।
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निर्युक्तिपंचक
एक बार घूमते हुए राजा ने पुष्पित आम्रवृक्ष देखा। राजा उसकी एक मंजरी तोड़कर आगे निकल गया। राजा के जाने बाद पीछे चलने वाली सेना ने उस वृक्ष की मंजरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प फूल, फल आदि सभी तोड़ लिए। आम्र का वृक्ष केवल ठूंठ मात्र रह गया। कुछ समय पश्चात् राजा उसी मार्ग से लौटा। राजा ने पूछा- 'वह आम्रवृक्ष कहां है?' मंत्री ने अंगुलि के इशारे से ठूंठ की ओर इशारा किया। राजा पूछा-' इसकी ऐसी अवस्था कैसे हुई ?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! आपने एक मंजरी तोड़ी। उसके बाद पूरी सेना ने एक-एक चीज तोड़कर इसकी ऐसी अवस्था कर दी।' नग्गति राजा ने सोचा- 'निश्चित ही जहां ऋद्धि हैं, वहां शोभा है परन्तु सारी ऋद्धियां स्वभावतः चंचल हैं' ऐसा सोचते-सोचते वह संबुद्ध हो गया।
चारों प्रत्येकबुद्ध क्षितिंप्रतिष्ठित नगर के चार द्वार वाले देवकुल में पहुंचे। पूर्व दिशा के द्वार से करकंडु ने, दक्षिण दिशा के द्वार से द्विर्मुख ने पश्चिम दिशा के द्वार से नमि ने तथा उत्तर दिशा के द्वार से गांधार अधिपति नग्गति ने प्रवेश किया। साधु के सामने दूसरी ओर मुंह करके कैसे रहूं इसलिए व्यंतर देव ने चारों और अपना मुंह कर लिया।
राजर्षि करकंडु के बालपन से ही खुजली का रोग था। उसने खाज करने वाले उपकरण द्वारा धीरे से अपने कान को खुजलाया। उस उपकरण को उसने एक स्थान पर छिपा दिया। छिपाते हुए उसे द्विर्मुख ने देख लिया। मुनि द्विर्मुख बोला- 'जब तुमने राज्य, राष्ट्र, नगर और अंतःपुर भी छोड़ दिया है तो फिर मुर्ति बनकर संजय क्यों को करकडु में इस बात का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। उस समय नमि राजर्षि बोले- 'जब तुम्हारे पिता का राज्य था। तब दूसरे के दोष देखने वाले अनेक कर्मचारी नियुक्त थे। तुमने दीक्षित होकर उस कार्य को छोड़ दिया फिर आज दूसरों के दोष देखने वाले कैसे बन रहे हो?' तब गांधारराज नग्गति बोले- 'जब तुमने सब कुछ छोड़कर आत्मकल्याण के लिए मोक्षमार्ग का रास्ता अपनाया है तो फिर दूसरों की निंदा, गर्हा क्यों करते हो?" यह सुनकर मुनि करकंडु बोले- 'मोक्ष मार्ग में संलग्न ब्रह्मचारी और मुनि यदि किसी के अहित का निवारण करते हैं तो उसे दोष दर्शन नहीं कहा जा सकता । कहा भी है
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रूसक वा परो भाषा, विसं वा परियत्तउ । भासियष्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥
- दूसरा चाहे रोष करे अथवा विष का भक्षण करे, साधक को सदा गुणकारी और हितकारी भाषा बोलनी चाहिए। करकंडु द्वारा की गई इस अनुशास्ति को सबने स्वीकार कर लिया। कालान्तर में वे चारों प्रत्येकबुद्ध मोक्ष को प्राप्त हो गए।
५३. गौतम की अधीरता
पृष्ठचंपा नामक नगरी में शाल नामक राजा राज्य करता था। युवराज का नाम महाशाल था। उसकी बहिन का नाम यशोमती और पति का नाम पिठर था। उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गागलि रखा गया। एक बार भगवान् महावीर राजगृह से बिहार कर पृष्ठचंपा पधारे। वहां १. उनि २५८-७२, उशांटी.प. २८७-३०५, उसुटी. प. १४१-४५ ॥
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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सुभूमिभाग उद्यान में ठहरे। राजा शाल भगवान् को वंदन करने गया। भगवान् का प्रवचन सुनकर वह विरक्त हो गया। उसने भगवान् से प्रार्थना की-'भंते ! मैं महाशाल का राज्याभिषेक करके दीक्षित होने के लिए सभी पापिस अः का हूं, मना और महाकाल से सारी बात कही। महाशाल ने कहा-'संसार के भय से उद्विग्न हूं अत: मैं भी प्रव्रजित होना चाहता हूं।' राजा ने अपने भानजे गागलि को काम्पिल्यपुर से बुलाया। उसे पट्टबद्ध राजा बना दिया। गागलि ने दो शिविकाएं तैयार करवाई। वे दोनों पिता-पुत्र प्रवजित हो गए । गागलि ने अपने माता-पिता को भी वहीं बुला लिया। यशोमती भी श्रमणोपासिका बन गई। उन दोनों श्रमणां ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया।
भगवान् महावीर पृष्ठचंपा से विहार करते हुए राजगृह गए। वहां से विहार कर चम्पा पधारे। शाल और महाशाल भगवान् के पास आए और बोले-'यदि आपकी अनुज्ञा हो तो हम पृष्ठचंपा जाना चाहते हैं। संभव है वहां किसी को प्रतिबोध मिले और कोई सम्यग्दर्शी बने।' भगवान् ने ज्ञान से जाना कि कुछ लोग संबुद्ध होंगे अत: अनुज्ञा दो और गौतम के साथ उन्हें वहां भेजा। वे पृष्ठचंपा गए। गौतम स्वामी का प्रवचन सुनकर गागलि, यशोमती और पिठर-ये तीनों संबुद्ध हुए। गागलि बोला-'मैं माता-पिता से आज्ञा लेकर ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा लूंगा।' उसकी बात सुनकर माता-पिता बोले-'यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो गए हो तो हम भी तुम्हारे साथ दीक्षा लेंगे।' वह अपने पुत्र को राज्य देकर माता-पिता के साथ दीक्षित हो गया। गौतम स्वामी उनको अपने साथ लेकर चंपा पहुंचे। मार्ग में चलते-चलते मुनि शाल और महाशाल के अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ी और वे केवली हो गये। गागलि और उसके माता पिता को भी केवलज्ञान हो गया।
वे सब महावीर के पास चंपा नगरी पहुंचे। महावीर को प्रदक्षिणा देकर तीर्थ को प्रणाम करके वे केवलिपरिषद् में बैठ गए। गौतम स्वामी ने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में वंदना की और उठकर उन पांचों से बोले-'कहां जा रहे हो? आओ, तीर्थकर को वंदना करो।' तब भगवान् महावीर ने कहा-'गौतम ! केवलियों की आशातना मत करो?' गौतम स्वामी ने पुनः लौटकर उनसे क्षमायाचना की और संवेग को प्राप्त हो गए।
गौतम स्वामी ने सशंकित होकर सोचा-'मेरी सिद्धि नहीं होगी।' इधर देवता परस्पर संलाप करते हुए कहने लगे-'जो अष्टापद पर्वत पर जाकर चैत्यों को वंदना करता है,वह उसी भव में सिद्ध हो जाता है।' यह सुनकर गौतम का मन उद्वेलित हो उठा। भगवान् महावीर ने गौतम के मन को जान लिया। यह भी जान लिया कि वहां जाने से तापसों को संबोध प्राप्त होगा तथा गौतम का मन भी शांत और स्थिर हो जाएगा। गौतम ने महावीर से पूछा-'मैं अष्टापद पर्वत पर जाना चाहता हूं।' भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर गौतम ने अष्टापद पर्वत की ओर प्रस्थान कर दिया।
जन-प्रवाद को सुनकर दत्त, कौडिन्य और शैवाल-ये तीनों तापस अपने पांच सौ शिष्यपरिवार के साथ अष्टापद पर चढ़ने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कौडिन्य तापस चतुर्थ भक्त-एकान्तर तप के पारणे में कंद आदि सचित्त आहार करता था। वह अष्टापद पर्वत के नीचे की मेखला तक ही पहुंच पाया। दत्त तापस पाठभक्त बेले-बेले की तपस्या के पारणे में नीचे गिरे हुए पाद्दुर पत्तों का आहार करता था। वह पर्वत की मध्य मेखला तक ही पहुंच पाया। शैवाल तापस अष्टमभक्त तेले-तेले की तपस्या के पारणे में शुष्क एवं गंदे शैवाल का आहार करता था। वह पर्वत की उपरितन मेखला तक ही चढ़ पाया। चढ़ते हुए वे तीनों परिश्रान्त हो गए।
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निर्युक्तिपंचक
गणधर गौतम का औदारिक शरीर अग्नि तथा बालसूर्य की किरणों के समान तेजस्वी था। गौतम स्वामी को आते देखकर वे आपस में बोले- 'हम महातपस्वी भी ऊपर नहीं चढ़ सके तो यह स्थूलकाय श्रमण पर्वत पर कैसे चढ़ पाएगा?" गौतम स्वामी जंघाचारण लब्धि से मकड़ी के जाले के तंतुओं के सहारे ऊपर चढ़ गए। तापसों ने देखा कि गौतम आए और अदृश्य हो गए। वे विस्मित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। गौतम स्वामी की ऋद्धि देखकर उन्होंने आपस में चिंतन किया कि जब ये नीचे उतरेंगे तब उनको गुरु रूप में स्वीकार कर लेंगे। वे तापस वहीं बैठ गए। गौतम स्वामी ने उत्तर-पूर्व दिशा में पृथ्वी शिला पट्ट पर अशोक वृक्ष के नीचे रात बिताई।
उसी समय लोकपाल वैश्रमण इंद्र अष्टापद चैत्यवंदन के लिए आया। इंद्र ने चैत्यवंदन करके गौतम स्वामी को वंदन किया। गौतम स्वामी ने अनगार के गुणों पर प्रवचन दिया। प्रवचन सुनकर वैश्रमण इन्द्र ने सोचा- भगवान् गौतम ने इस प्रकार के दुष्कर साधु-गुणों का वर्णन किया है। इनका स्वयं का शरीर तो देवताओं से भी अधिक सुकुमार है।' गौतम स्वामी ने उनके मानसिकआशय को जानकर पुंडरीक नामक अध्ययन की प्ररूपणा करते हुए कहा - 'पुष्कलावती विजय में पुष्करिणो नगरी में नलिनी गुल्म उद्यान थी। वहां महापद्म नामक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था। उसके पुंडरीक और कंडरीक नामक दो सुकुमार और सुन्दर पुत्र थे । कालान्तर मैं पुंडरीक युवराज बना। उस समय स्थविर मुनि नलिनीगुल्म विमान में समवसृत हुए। महापद्म प्रवचन सुनने गया। धार्मिक प्रवचन सुनकर वह बोला- 'हे देवानुप्रिय ! मैं पुंडरीक कुमार को राज्य देकर प्रब्रजित होना चाहता हूँ।' स्थविर मुनि ने कहा- 'जैसी इच्छा हो वैसा करें। पुंडरीक राजा और कंडरीक युवराज बन गया। एक दिन महापद्म राजा ने पुंडरीक राजा से दीक्षा की अनुमति ली। तब पुंडरीक ने शिविका तैयार करवाई और महापद्म राजा प्रव्रजित हो गया। दीक्षित होकर उसने चौदह पूर्वों का अध्ययन किया। बेले तेले आदि की तपस्या करते हुए उसने बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन किया और अंत में एक मास की संलेखना में शरीर को झोषकर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया।
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एक दिन वे स्थविर मुनि पुष्करिणी नगरी में समवसृत हुए। पुंडरीक राजा कंडरीक युवराज के साथ धर्म प्रवचन सुनने आया। राजा पुंडरीक ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। कंडरीक युवराज दीक्षित होने के लिए उत्कंठित हो गया। वह चार घंटों वाले अश्वरथ पर चढ़कर राजा पुंडरीक के पास आया और दीक्षा की अनुमति मांगी। राजा पुंडरीक ने उसे अनेक प्रकार का प्रलोभन दिया और साधु-जीवन के विविध शारीरिक-मानसिक कष्टों का विवेचन किया। लेकिन कंडरीक अपनी भावना पर दृढ़ रहा। राजा पुंडरीक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर महान् अभिनिष्क्रमण उत्सव मनाने के लिए कहा। कंडरीक प्रव्रजित हो गया। उसने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बेले-तेले आदि विविध प्रकार के तप के अनुष्ठान में अपने आपको लगा दिया।
अंत-प्रान्त भोजन करने से एक बार उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हो गया। कालान्तर में विहार करते हुए मुनि कंडरीक पुष्करिणी नगरी के नलिनी वन में समवसृत हुआ। राजा पुंडरीक अपने भाई मुनि कंडरीक के दर्शन करने आया और कंडरीक के पूरे शरीर को रोग से आक्रान्त देखकर उसने निवेदन किया कि मैं प्रासुक और एषणीय औषध भेषज से आपकी चिकित्सा करना चाहता
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हूं अत: आप मेरी यानशाला में पधारें। कंडरीक उनकी यानशाला में चिकित्सालाभ करने लगे। मनोज्ञ एवं सरस आहार करने से शीघ्र ही उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गया। स्वस्थ होने के बाद मुनि कंडरीक उस मनोज्ञ भोजन-पान में ब्लासक्त हो गये और पविकार जोड़कर नहीं रहने लगे। एक दिन राजा पुंडरीक ने उन्हें समझाने के लिए विविध दृष्टान्त दिए तथा संसार को नश्वरता एवं कामभोग के कटुविपाक का बोध कराया। संकोचवश कंडरीक ने वहां से विहार कर दिया लेकिन कुछ दिनों के बाद ही वह श्रामण्य से विचलित हो गया।
वह अपने आचार्य के पास से विहार कर पुन: पुष्करिणी नगरी में राजा पुंडरीक के भवन की अशोक वाटिका में आकर ठहरा। वहां पृथ्वीशिला पट्ट पर बैठकर चिंतन करने लगा। तभी राजा पंडरीक को धायमां वहां आई। उसने तत्काल मनि कंडरीक के आगमन की सुचना राजा पंडरीक को दी। राजा अपने अंत:पुर के साथ मुनि के दर्शनार्थ आया। राजा पुंडरीक ने देखा कि मुनि कंडरीक मुनिव्रत त्यागकर पुनः राज्य एवं कामभोग का उपभोग करना चाहता है। उसने तत्काल उसका राज्याभिषेक किया और स्वयं पंचमुष्टि लोच कर चातुर्याम धर्म को स्वीकार कर लिया। उसने दीक्षित होकर कंडरीक के भंडोपकरण ग्रहण कर लिए और यह अभिग्रह किया कि मैं स्थविर आचार्य के पास जाकर ही आहार ग्रहण करूंगा। इधर कंडरीक प्रणीत आहार को सम्यक् रूप से पचा नहीं सका अत: विपुल वेदना से अभिभूत हो गया। यह राज्य और अंत:पुर में आसक्त होकर अकाम-- मरण प्राप्त कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ।
मुनि पुंडरीक विहार करते हुए स्थविर आचार्य के पास पहुंचे और पुनः चातुर्याम धर्म स्वीकार किया। वे तेले-तेले की तपस्या करने लगे। अरस-विरस आहार से उनके शरीर में विपुल वेदना उत्पन्न हो गयी। अंत समय में आलोचना-प्रतिक्रमण करके उन्होंने समाधि-मरण प्राप्त किया
और सर्वार्थसिद्ध देवलोक में देव बने । आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। इस कथानक को सुनकर वैश्रमण देव परम संवेग को प्राप्त हुआ और गौतम को वंदना करके लौट गया।
प्रातः होते ही गौतम नीचे उतरे। तब तापसों ने कहा-'हम आपके शिष्य हैं और आप हमारे आचार्य हैं। गौतम स्वामी ने कहा-'तुम्हारे और हमारे आचार्य त्रैलोक्य गुरु भगवान् महावीर हैं। तापसों ने आश्चर्य व्यक्त किया-'क्या आपके भी कोई अन्य आचार्य हैं?' तब गौतम ने भगवान् महावीर का गुणकीर्तन किया और सभी तापसों को प्रव्रजित कर भगवान् की दिशा में चल पड़े। मार्ग में भिक्षावेला के समय गौतम ने पूछा-'मैं आपके लिए क्या लेकर आऊं।' उन्होंने दूध की इच्छा व्यक्त की। गौतम सब लब्धियों से सम्पन्न थे। पात्र में मधु संयुक्त दूध लेकर गौतम आए। गौतम को अक्षीणमहानस लब्धि प्राप्त थी अत: सभी तप्त हो गए। भोजन करते-करते शैवाल और उसके सभी शिष्यों को कैवल्य उत्पन्न हो गया। वे वहां से आगे चले । दत्त तथा उनके शिष्यों को भगवान् के छत्रातिछत्र अतिशय को देखकर कैवल्य उत्पन्न हो गया। कौडिन्य तथा उसके शिष्यों को भगवान् महावीर को देखते ही केवलज्ञान हो गया। सभी भगवान् के पास आए। गौतम ने महावीर की वंदनास्तुति की। वे सभी तापस-मुनि केवलिपरिषद् में चले गए। गौतम ने उन्हें भगवान् को वंदना करने के लिए कहा। भगवान् ने कहा- 'गौतम! केवलियों की आशातना मत करो।' गौतम ने 'मिच्छामि
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नियुक्तिपंचक
दुक' किया। गौतम का धैर्य टूट गया। भगवान् ने उसके मन की बात जान ली। भगवान् बोले'गौतम ! देवताओं के वचन प्रमाण हैं या जिनवर के?' गौतम ने कहा-'भगवन् ! जिनवर के वचन प्रमाण हैं। तब भगवान् ने चार कड़ों का दृष्टान्त दिया और कहा---'गौतम ! तुम्हारा मेरे ऊपर कंबल कड़ के समान स्नेहानुराग है इसीलिए तू मुझसे अत्यन्त निकट है, चिरसंसृष्ट है। गौतम! प्रशस्त राग भी यथाख्यात चारित्र का नाश कर देता है। यथाख्यात चारित्र के बिना कैवल्य उत्पन्न नहीं होता। केवल सरागसंयमी साधुओं के लिए अप्रशस्त राग का निवारण करने के हेतु प्रशस्त राग अनुमत है इसलिए तुम विषाद मत करो। शीघ्र ही तू और मैं-दोनों ही एक अवस्था को प्राप्त होंगे। दोनों में कुछ भी भिन्नता नहीं रहेगी। तब भगवान् ने गौतम को सम्बोधित कर द्रुमपत्रक अध्ययन की प्रज्ञापना की। ५४. हरिकेशबल
मथुरा नगरी में शंख नामक युवराज प्रवचन सुनकर विरक्त हो गया। वह स्थविर साधुओं के पास महान् विभूति के साथ दीक्षित हुआ। कालक्रम से वह गीतार्थ बन गया। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वह एक बार गजपुर-हस्तिनापुर पहुंचा और भिक्षा के लिए नगर की ओर निकला। वह घूमते हुए एक मार्ग के पास पहुंचा। वह मार्ग जलते अंगारे के समान अत्यन्त उष्ण था। वह मार्ग समाप्रबलिता या अतउसका लि हुतवह पड़ गया। जो भी उस मार्ग से गुजरता, वह भस्म हो जाता। मुनि मार्ग से अनभिज्ञ थे। उन्होंने गवाक्ष में बैठे एक व्यक्ति से मार्ग पूछा। ब्राह्मण ने कुतूहलवश उष्ण-मार्ग की ओर संकेतकर दिया। मुनि निश्छल भाव से उसी मार्ग पर चल पड़े। वे लब्धिसम्पन्न थे अत: उनके पादस्पर्श से मार्ग ठंडा हो गया। मुनि को अविचल भाव से आगे बढ़ते देख ब्राह्मण भी उस मार्ग पर चल पड़ा। मार्ग को बर्फ जैसा ठंडा देखकर उसने सोचा—'यह मुनि का ही प्रभाव है कि अग्नि जैसा मार्ग भी हिमस्पर्श वाला हो गया है।' उसे अपने अनुचित कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ। वह उद्यान में स्थित मुनि के पास दौड़ा-दौड़ा आया और अपने पाप को प्रकट कर क्षमायाचना करते हुए मुनि से पूछा-'मैं इस पापकर्म से कैसे मुक्त बनूं।' मुनि ने उसे संसार की अस्थिरता बताते हुए दीक्षा की प्रेरणा दी। मुनि के धार्मिक उपदेश को सुनकर उसके मन में विरक्ति के भाव उत्पन्न हुए। वह मुनि के पास प्रव्रजित हो गया। उसका नाम सोमदेव था। उसमें जाति और रूप का मद था। कारतक्रम से जातिमद से स्तब्ध मरकर वह देव बना। अवधिज्ञान से उसने पूर्वभव का वृत्तान्त जाना। वह देवांगमाओं के साथ भोग भोगने लगा। भोग करते-करते उसके अनेक पल्य बीत गए।
मृत गंगा नदी के तट पर हरिकेश का राजा बलकोट्ट नामक चांडाल रहता था। उसके दो पत्नियां थीं-गौरी और गांधारी। देव आयुष्य को पूरा कर सोमदेव का जीव जातिमद के परिपाक के कारण उस चांडाल के घर गौरी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। गर्भकाल में गौरी ने स्वप्न में बसन्त मास की छटा देखी तथा अनेक पुष्पित एवं फलित आम्रवृक्ष देखे। स्वप्नपाठकों ने स्वप्न का फल १. उनि.२७७-९९, उशांटी.प. ३२३-३३, उसुटी.प. १५३-१५९ । २, सुखबोधा टीका में मार्ग का नाम हुताशन है।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
बताते हुए कहा-'तुम्हारा पुत्र विशिष्ट और महान् बनेगर।' समय आने पर पुत्र का जन्म हुआ। रूप से वह अत्यन्त कुरूप था। उसका वर्ण कृष्ण था। बलकोट्ट के यहां जन्म लेने के कारण उसका नाम बल रखा गया। यही बालक हरिकेशबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बालक बल बहुत कलहप्रिय और असहिष्णु था। वह विपवृक्ष की भांति सबके लिए उद्वेगकारी था।
एक बार बसन्तोत्सव का समय था। सभी लोग उत्सव में मग्न थे। लोग भोज में आहार करके सुरापान कर रहे थे । बालकों ने बल को अप्रियकारी और क्रोधी मानकर उसको अपने खेल में सम्मिलित नहीं किया। दूसरे बालक खेलने लगे। वह केवल द्रष्टा ही बना रहा। इतने में वहां एक भर्यकर सर्प निकला। सहसा सब खड़े हो गए और उसे पत्थर से मार डाला। कुछ ही क्षणों बाद वहां एक निर्विष सर्प भेरंड निकला। लोग एक बार भयभीत हो गए पर उसे निर्विघ समझकर छोड़ दिया। बालक बल यह दृश्य देख रहा था। उसने मोचा-'प्राणी अपने दोषों से ही दुःख पाता है।' सर्प सविष था अतः वह अपने दोष से मारा गया। भेरुंड निर्विप था अतः लोगों ने उसे छोड़ दिया । यदि मैं भी भेरुंड की भांति निर्विष होता हूं तो कोई दूसरा मुझे क्यों सताएगा?: हा भी है
भदएणेव होयव्यं, पावति भद्दाणि भद्दओ।
सविसो हम्मती सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चति ॥ उसने सोचा-'अपने गुण और दोष के आधार पर ही सम्पत्ति और विपत्ति मिलती है। इसलिए दोषों को छोड़कर गुणों को स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। जातिमद के विपाक का चित्र उसके सामने आया। निर्वेद को प्राप्त होकर उसने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। उसका नाम हरिकेशबल हो गया।
दीक्षित होकर मुनि हरिकेशबल बेला -तेला यावत् चार मास का घोर तप करने लगे। एक बार वे पार्श्वनाथ की जन्मस्थली वाराणसी के तेंदुक उद्यान में ठहरे। वहां गंडीतिंदुक यक्ष का मंदिर था। वह यक्ष हरिकेश मुनि के गुणों से आकृष्ट होकर उनकी उपासना में रहने लगा। एक बार एक दूसरा यक्ष वहां आया। वह गंडीतिदुक यक्ष से बोला-'आजकल दिखाई क्यों नहीं देते?' उसने कहा-'ये महात्मा मेरे उद्यान में ठहरे हैं। सारा दिन इनकी ही उपासना में बीतता है।' वह आगंतुक यक्ष मुनि के चरित्र से प्रतिबुद्ध हुआ और बोला- 'मित्र! ऐसे उपशांत मुनि का सान्निध्य पाकर तुम कृतार्थ हो । मेरे उद्यान में भी कतिपय मुनि दहरे हैं। चलो, उन्हें वंदना कर आएं?' दोनों यक्ष वहां गए। उन्होंने देखा अनेक साधु विकथाएं कर रहे हैं। कुछ स्त्रीकथा में और कुछ जनपद-कथा में आसक्त हैं। उनका मन खिन्न हो गया।
एक बार वाराणसी के राजा कौशालिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने दासियों के साथ उद्यान आई। अक्ष की पूजा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर टिकी। मुनि के मैले कपड़े और कुरूप शरीर को देखकर उसके मन में घृणा हो गयी। आवेश में आकर उसने मुनि पर थूक दिया। यक्ष ने सोचा-'यह पापिष्णु है, जो इसने महान् तपस्वी मुनि की अवहेलना की है अतः इसका फल इसे मिलना चाहिए।' यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। राजकुमारी अनर्गल प्रलाप करने लगी। दासियां उसे राजमहल में ले गईं। अनेकविध उपचार किए गए पर सब
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व्यर्थ हो गए। तांत्रिकों और यांत्रिकों के प्रयास भी निष्फल हो गए। राजा विचलित हो गया। यक्ष ने कहा - 'इस कुमारी ने एक तपस्वी मुनि का तिरस्कार किया है। यदि यह उस तपस्वी के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार कर ले तो मैं इसे छोड़ सकता हूं, अन्यथा नहीं।' लाचार होकर राजा ने यक्ष की बात स्वीकार कर ली। महत्तरिकाओं के साथ अपनी पुत्री भद्रा की अलंकारों से विभूषित करके यक्षायतन में भेज दिया। रात्रि में महत्तरिकाओं ने भद्रा से कहा- 'जाओ. अपने पति के पास'। भद्रा यक्षायतन में प्रविष्ट हुई। मुनि ने ध्यान संपन्न किया और भद्रा को स्वीकार न करने की अपनी मर्यादा बताई |
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यक्ष ने मुनि का रूप बनाया और राजकन्या के साथ पाणिग्रहण किया। उसने मुनि को अच्छा कर कभी दिव्यरूप और कभी मुनिरूप बनाकर उसे ठगा । वह रात भर उस कन्या के साथ ऐसे ही विडम्बना करता रहा। प्रभात में यक्ष दूर हुआ और मुनि ने सही-सही बात कन्या से कही। वह दुःखी मन से राजा के पास गई और यक्ष द्वारा लगे जाने की बात बताई। राजा के पास बैठे पुरोहित रुद्रदेव ने कहा- 'राजन् ! यह ऋषि पत्नी हैं। मुनि द्वारा परित्यक्त है अतः इसे किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। राजा ने उसी पुरोहित को कन्या सौंप दी। कुछ समय बाद पुरोहित रुद्रदेव ने यज्ञ किया। भद्रा की ग्रज्ञपत्नी बनाया गया। दूर-दूर से विद्वान् ब्राह्मण और विद्यार्थी बुलाए गए। उन सबके आतिथ्य के लिए प्रचुर भोजन सामग्री एकत्रित की गयी। उस समय मुनि हरिकेशबल एक एक मास का तूप कर रहे थे। पारण के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी यज्ञ मंडप में जा पहुंचे। उसके बाद मुनि और ब्राह्मणों में जो वार्तालाप हुआ, वह उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन में संकलित है।"
५५,५६. चित्र - संभूत
साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग करते-करते उसका मन विरक्त हो गया। उसने मुनि सागरचंद्र के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के साथ देशान्तर जा रहा था। रास्ते में वह भिक्षा लेने गांव गया पर मार्थ से बिछुड़ गया और एक भयानक अटवी में जा पहुंचा। भूख और प्यास से व्याकुल मुनि को चार ग्वालपुत्रों ने देखा । उनका मन करुणा से भर गया । उन्होंने मुनि की परिचर्या की। मुनि ने स्वस्थ होकर चारों ग्वालपुत्रों को धर्म का उपदेश दिया। चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे सभी आनंद से दीक्षा पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें से दो मुनियों के मन में मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने लगी। चारों मरकर देवगति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों मुनि देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण की दासी यशोमती की कुक्षि से युगल रूप में जन्मे । क्रमशः वे युवा हुए 1
एक बार वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात को वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष की कोटर से एक सर्प निकला और एक को डस कर चला गया। दूसरा जागकर तत्काल ही उस सर्प की खोज में निकल पड़ा। वहीं सर्प उसे भी इस गया। दोनों गरकर
१. उनि ३१३-२१, उशांदी प. ३५५५७, उसुटी ५. १७३ १७५ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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कालिंजर पर्वत पर एक मृगो के उदर से युगल रूप में उत्पन्न हुए। एक बार दोनों हरिण आसपास में चर रहे थे। एक व्याध ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहां से मरकर वे गंगा नदी के तौर पर एक राज-हंसिनी के गर्भ में आए और गुगल रूप में जन्मे । युवा होने पर दोनों साथसाथ घूम रहे थे। एक बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार डाला।
उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति रहता था। उसका नाम भूतदत्त था। वह था। हं। म... ३९ र मुगल के रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम चित्र और संभूत रखा गया। दोनों भाइयों में अपर स्नेह था।
। उस समय वाराणसी नगरी में शंख राजा राज्य करता था । नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध पर राजा क्रुद्ध हो गया और उसके वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में छिपा लिया और कहा-'मंत्रिन् ! यदि आप तलघर में रहकर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन करना स्वीकार करें तो मैं आपका वध नहीं करूंगा।' जीवन की आशा में मंत्री ने बात मान लो । अब वह चाण्डाल के पुत्रों-चित्र औं संभृत को पढ़ाने लगा। चाण्डाल- पत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। अध्यापन कराते हुए कुछ काल बीता । नमुनि चाण्डाल-स्त्री में आसक्त हो गया। भृतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का विचार किया। चित्र और संभूत-दोनों ने अपने पिता के विचार जान लिए । उपकार के कारण गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहां से भागा-भागा हस्तिनापुर नगर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन गयां ।
चित्र और संभूत बड़े हुए ! उनका रूप और लावण्य आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। एक बार मदन-महोत्सव का अवसर आया। अनेक गायक-टोलियां पधुर राग में आलाप भर रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-संभूत की नृत्य-मंडली भी वहां आ गई। उनका गाना और नृत्य सबसे अधिक मनोरम था। उसे सुन देखकर सारे लोग उनकी मंडली की ओर चले आए। यवत्तियां मंत्र-मुग्ध सी हो गयीं। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों ने जब यह देखा तो उनके मन में इंष्या उभर आई। वे जातिवाद की आड़ ले राजा के पास गए और राजा को निवेदन किया कि ये मातंगपुत्र सबको भ्रष्ट कर रहे हैं। राजा ने दोनों मातंग-पुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गए।
एक बार कौमुदी महोत्सव के अवसर पर वे दोनों मातंग-पुत्र राजा की आज्ञा को अवगणना कर कौतूहलवश अपनी नगरी में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाले महोत्सव का आनंद ले रहे थे । चलतेचलते उनके मुंह से संगीत के स्वर निकल पड़े । उनका गाना सुनकर लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने सोचा---'किन्नर के समान कानी को अमृत रस के समान सुखद लगने वाली यह वाणी किसको है?' लोग दोनों के पास आए। अवगठन हटाते ही वे उन्हें पहचान गए। उनका रक्त ईष्या से उबल गया 'ये चाण्डाल पुत्र हैं'- ऐसा कहकर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने सोचा-'धिक्कार हैं हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल को। आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-सनूह दृषित हो रहा है । ऐसा जीवन जोने से लाभ ही क्या? उनका मन जीने से ऊब गया।
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वे आत्महत्या का दृढ़ संकल्प ले दक्षिण दिशा में चले गए। दूर से उन्होंने एक पहाड़ देखा। वे आत्महत्या के विचार से हार नई उन्मों ने देखा
यः । -- वे प्रसन्न होकर साधु के पास आए और बैठ गए। उन्होंने भक्तिपूर्वक साधुओं को वंदन किया। ध्यान पूर्ण होने पर साधु ने उनका नाम-धाम पूछा। दोनों ने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया। मुनि ने कहा- 'तुम अनेक कला-शास्त्रों के पारगामी हो। आत्महत्या करना नीच व्यक्तियों का काम हैं । तुम्हारे जैसे विमल.. बुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए यह उचित नहीं । तुम इस विचार को छोड़ो और जिनधर्म की शरण में आओ। इससे तुम्हारे शारीरिक और मानसिक-सभी दुःख उच्छिन्न हो जायेंगे।' उन्होंने सहर्ष, मुनि के वचन को शिरोधार्य किया और हाथ जोड़कर कहा-'भगवन् ! आप हमें दीक्षित करें।' मुनि ने उन्हें योग्य समझकर दीक्षा दी। गुरु-चरणों की उपासना करते हुए वे अध्ययन करने लगे। कुछ समय बाद वे गीतार्थ हुए। विचित्र तपस्याओं से आत्मा को भावित करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे।
एक बार वे हस्तिनापुर आए और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे । एक दिन मासखमण तप का पारणा करने के लिए मुनि संभूत नगर में गए। भिन्ता के लिए वे घर-घर घूम रहे थे। मंत्री नमुनि ने उन्हें देखकर पहचान लिया। उसकी सारी स्मृतियां सास्क हो गईं। उसने सोचा-'ग्रह मुनि मेरा सारा वृत्तान्त जानता है। यहां के लोगों के समक्ष यदि इसने कुछ कह डाला तो मेरी महत्ता नष्ट हो जाएगी।' ऐसा विचार कर उसने लाठी और मुक्कों से मारकर मुनि को नगर से बाहर निकालना चाहा। कई लोग मुनि को पीटने लगे पर मुनि शांत रहे। लोग जब अत्यन्त उग्न हो गए, तब मुनि संभूत का चित्त अशांत हो गया। उनके मुंह से धुंआ निकला और सारा नगर अंधकारमय हो गया। लोग घबराकर मुनि को शांत करने लगे। चक्रवती सनत्कुमार भी वहां आ पहुंचा। उसने मुनि से प्रार्थना की-भत्तं ! यदि हमसे कोई त्रुटि हुई हो तो आप क्षमा करें: आगे हम ऐसा अपराध नहीं करेंगे। आप महान् हैं अत: नगर-निवासियों को जीवन दान दें।' इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं हुआ। उद्यान में बैठे मुनि चित्र ने यह संवाद सुना और आकाश को धूम से आच्छादित देखा। वे तत्काल वहां आए और उन्होंने मुनि सम्भूत से कहा-'मुने ! क्रोधानल का उपशांत करो। महर्षि उपशम-प्रधान होते हैं। वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। तुम अपनी शक्ति का संवरण करो। जिस प्रकार दावाग्नि क्षण भर में वन को जला देती है वैसे ही कषाय--परिणत जीव अपने तप और संयम को नष्ट कर देता है।' जिनेन्द्र भगवान् की उपशम प्रधान वाणी रूपी जल से मुनि सम्भूत की क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे वैराग्य को प्राप्त हो गए। उन्होंने तेजोलेश्या का संवरण किया। अन्धकार मिट गया। लोग प्रसन्न हुए। दोनों मुनि उद्यान में लौट आए। उन्होंने सोचा- 'हम काय-संलेखना कर चुके हैं इसलिए अन्न अनशन करना चाहिए।' दोनों ने बड़े धैर्य के साथ अनशन ग्रहण किया।
चक्रवर्ती सनत्कुमार ने जब यह जाना कि मन्त्री नमुचि के कारण ही सभी लोगों को संत्रास सहना पड़ा है तो उसने मंत्री को बांधने का आदेश दिया। मंत्री को रस्सों से बांधकर मुनियों के पास लाए । मुनियों ने राजा को समझाया और उसने मंत्री को मुक्त कर दिया। चक्रवर्ती दोनों मुनियों के पैरों में गिर पड़ा। स्त्रीरत्न रानी सुनंदा भो साथ थी। वंदना करते हुए अकस्मात् ही उसके केश
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परिशिष्ट ६ : कथा
मुनि संभूत के पैरों को छू गए। मुनि संभूत को अपूर्व आनंद का अनुभव हुआ। उसने निदान करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञानशक्ति से यह जान लिया और सोचा- 'अहो ! मोहकर्म कितना दुर्जेय है? इन्द्रियां कितनी दुर्दान्त हैं ? विषयों का उन्माद कितना भयंकर है? इन कारणों से तप और चारित्र में संलग्न तथा जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का ज्ञाता यह मुनि सम्भूत युवती के केशों के स्पर्श मात्र से ऐसा अध्यवसाय कर रहा है। प्रतिबोध देते हुए मुनि चित्र ने कहा-'इस अशुभ अध्यवसाय से निवृत्त हो जाओ। ये कामभोग असार और दारुण विपाक वाले हैं। परमार्थतः ये दुःखरूप हैं। जैसे खुजली करने वाला बाद में दुःख पाता है वैसे ही मोहातुर व्यक्ति भी दुःख को सुखरूप मानता है।' मुनि चित्र ने आगे कहा-'तुम तो आगम के परमार्थ को जानने वाले हो अत: इसमें मूर्च्छित मत्त बनो।' इस प्रकार अनुशासित करने पर भी वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। मुनि सम्भूत ने निदान किया कि यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बन।
दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मरकर सौधर्म देवलोक में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव परिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पत्र बना और संभत का जीव कांपिल्यपूर में ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। रानी ने चौदह महास्वप्न देखें । बालक का जन्म हुआ। उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। बालक अनेक कलाओं को सीखते हुए बढ़ने लगा।
राजा ब्रह्म के चार मित्र थे-1. काशी देश का अधिपति कटक 2, गजपुर का राजा करेणुदत्त 3. कौशल देश का राजा दीर्घ और 4. चम्पा देश का अधिपति पुष्पचल। राजा ब्रह्म का इनके साथ अगाध प्रेम था। एक दूसरे का विरह न सहने के कारण वे सभी एक-एक वर्ष दूसरे के राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में समदित हो रहे थे। अचानक राजा ब्रह्म के असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। मंत्र, तंत्र, औषधि आदि के प्रयोग से भी वेदना में अंतर नहीं आया। स्थिति चिंताजनक बन गई। राजा ब्रह्म ने कटक आदि राजाओं को बुलाया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते हुए कहा-'इसका राज्य तुम्हें चलाना है। मित्रों ने स्वीकार कर लिया।
कुछ काल बाद राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गई। मित्रों ने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कौशल देश के राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब अपने-अपने राज्य की ओर चले गये। राजा दीर्घ राज्य की व्यवस्था करने लगा 1 सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। वह रानी चुलनी के साथ मंत्रणः करने लगा। उसका धीरे-धीरे रानी चुलनी के साथ प्रेमबंधन गाढ होता गया। दोनों नि:संकोच विषयवासना का सेवन करने लगे।
रानी के इस दुराचार को जानकर राजा ब्रह्म का विश्वस्त मंत्री धनु चिन्ताग्रस्त हो गया। उसने सोचा-'जो व्यक्ति अधम आचरण में फंसा हुआ है, वह भला कुमार ब्रह्मदत्त का क्या हित साध सकेगा?' उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध सम्बन्ध की बात अपने पुत्र वरधनु के द्वारा कुमार तक पहुंचाई। कुमार को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने एक उपाय ढूंढा। एक कौवे
और एक कोकिल को पिंजरे में बंद कर अन्त:पुर में ले गया और रानी चुलनी को सुनाते बोला-'जो कोई भी व्यक्ति अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजर में डाल दूंगा।' राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा-'कुमार ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है । मुझे कौवा
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और तुम्हें कोयल मान यह संकेत दिया है। अब हमें सावधान हो जाना चाहिए। मेरे रहते तुम्हारे अन्य संतान हो जाएगी। पर इसको अपने मार्ग से हटाना आवश्यक है।' चुलनी ने कहा-'वह अभी बालक है । जो कुछ मन में आता है, कह देता है।' राजा ने कहा-'नहीं, ऐसा नहीं है। वह हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सम्बन्ध नहीं निभ सकता।' चुलनी ने कहा-"जो आप कहते हैं, वह सही है किन्तु उसे कैसे मारा जाये, जिससे लोकापवाद न हो।' राजा दीर्घ ने कहा-'यह कार्य बहुत सरल है। जनापवाद से बचने के लिए पहले हम उसका विवाह कर देंगे।' विवाह के पश्चात् अनेक खम्भों वाले लाक्षागृह में सुखपूर्वक सोए हुए उसको अग्नि जलाकर मार देंगे। ऐसी मंत्रणा करके एक शभ वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हआ। उसके शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह बनवाया। इधर मंत्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की-'स्वामिन् ! मेरा पुत्र बरधनु मंत्री-पद का कार्यभार संभालने के योग्य हो गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होकर परलोक हित का कार्य सम्पादित करना चाहता हूं।' राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा-'तुम और कहीं जाकर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का पालन करो।' मंत्री ने राजा की बात मान लो। उसने नगर के बाहर गंगा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनवाई। वहां वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न पान देने लगा। दान और सम्मान के वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा रानी को यह बात ज्ञात नहीं हुई।
नववधू ने अनेक नेपथ्य और परिजनों के साथ नगर में प्रवेश किया। रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को नववधू के साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। रानी चुलनो ने शेप सभी जातिजनों को अपने
अपने घर भेज दिया। मंत्री का पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त गाढ़ निद्रा में लीन था । वरधनु जाग रहा था। अचानक लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा। कुमार जागा और दिग्मूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आकर बोला कि यह क्या हुआ? अब क्या करें? वरधनु ने कहा-'जिसके साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है वह राजकन्या नहीं है। इसमें प्रतिबंध करना उचित नहीं है। चलो हम चलें।' उसने कमार ब्रह्मदत्त को एक सांकेतिक स्थान लात मारने को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वे उसमें घुसे । मंत्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्योहि कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहां से चले और पचास योजन दूर जाकर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न होकर गिर पड़े। अब वे दोनों वहां से पैदल चलते-चलते कोष्ठग्राम में आए। कुमार ने वरधन से कहा-'मित्र! भूख और प्यास बहुत जोर से लगी है। मैं अत्यन्त परिश्रान्त हो गया हूं।'
वरधनु गाँव में गया। एक नाई को साथ में लाया । कुमार का सिर मुंडाया, गेरुए वस्त्र पहनाए और श्रीवत्सालंकृत चार अंगुल प्रमाण पट्ट-बंधन से वक्षस्थल को आच्छादित किया । बरधनु ने भी वेष-परिवर्तन किया। दोनों गाँव में गए। एक दास के लड़के ने घर से निकल कर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। वे दोनों उसके घर गए। पूर्ण सम्मान से उन्हें भोजन कराया गया। उस गृहस्वामी
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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के बंधुमती नाम की एक पुत्री थी। भोजन कर चुकने पर एक महिला आई और कुमार के सिर पर आखें (अक्षत) डाले और कहीं-"यह पधुनतो का परि है।' यह सुनकर वरधनु ने कहा-'इस मूर्ख बटुक के लिए क्यों अपने आपको नष्ट कर रहे हो?' उसने कहा-स्वामिन् ! एक बार नैमित्तिक ने हमें कहा था कि जिस व्यक्ति का वक्षस्थल पट्ट से आच्छादित होगा और जो अपने मित्र के साथ यहाँ भोजन करेगा, वही इस कन्या का पति होगा।' कुमार ने बंधुमती के साथ विवाह किया। दूसरे दिन वरधनु ने कुमार से कहा-'हमें बहुत दूर जाना है।' बंधुमती से प्रस्थान की बात कह वरधनु और कुमार दोनों वहाँ से चल पड़े।
चलते चलते वे एक गाँव में आए । वरधनु पानी लेने गया। शीघ्र हो आकर उसने कहा'कुमार ! लोगों में यह जनश्रुति है कि राजा दीर्घ ने ब्रह्मदत के सारे मार्ग रोक लिए हैं। अब हम पकड़े जाएंगे अत: कुछ उपाय ढूंढ़ना चाहिए।' दोनों राजमार्ग को छोड़ उन्मार्ग से चले और एक भयंकर अटवी में पहुंचे। कुमार प्यास से व्याकुल हो गया। वह एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। वर धनु पानी की खोज में निकला। घूमते-घूमते वह दूर जा निकला। राजा दीर्घ के सिपाहियों ने उसे देख लिया। उन्होंने उसका पीछा किया। वह बहुत दूर चला गया। ज्यों त्यों कुमार के पास आ उसने चलने का संकेत किया। कुमार ब्रह्मदत्त वहां से भागा। वह एक दुर्गम कान्तार में जा पहुंचा। भूख और प्यास से परिक्लान्त होते हुए तीन दिन तक चलकर उसने कान्तार को पार किया। वहाँ एक तापस को देखा। तापस के दर्शन मात्र से उसे जीवित रहने की आशा बंध गई। उसने पूछा'भगवन्! आपका आश्रम कहाँ हैं?' तापस ने आश्रम का स्थान बताया और उसे कुलपति के पास ले गया। कुमार ने कुलपति को प्रणाम किया। कुलपति ने पूछा-'वत्स! यह अटवी अपाय- बहुल है?' तुम यहाँ कैसे आए?' कुमार ने उनसे सारी बात यथार्थ रूप से कहीं। कुलपति ने कहा-'वत्स! तुम मुझे अपने पिता का छोटा भाई मानो। यह आश्रम तुम्हारा ही है। तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो।' कुमार वहाँ रहने लगा। काल बीतने पर वर्षा ऋतु आ गई। कुलपति ने कुमार को चतुर्वेद आदि महत्त्वपूर्ण सारी विद्याएं सिखाई।
एक बार शरद ऋतु में तापस फल, कंद, मूल, कुसुम, लकड़ी आदि लाने के लिए अरण्य में गए। कुमार भी कतहलवश उनके साथ जाना चाहता था। कलपति ने उसे रोका, पर वह नहीं माना और अरण्य में चला गया। वहाँ उसने अनेक सुन्दर वनखण्ड देखे। वहाँ के वृक्ष फल और पुष्पों से समृद्ध थे। उसने एक हाथी देखा और गले से भीषण गरिव किया। हाथी उसकी ओर दौड़ा। य
। यह देख कमार ने अपने उत्तरीय को गोल गेंद सा बना हाथी की ओर फेंका। तत्क्षण ही हाथी ने उस गेंद को अपनी सूंड से पकड़ कर आकाश में फेंक दिया। हाथी अत्यन्त कुपित हो गया। कुमार ने उसे छल से पकड़ लिया और अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से परिश्रान्त कर छोड़ दिया। कुमार उत्पथ से आश्रम की ओर चल पड़ा। वह दिग्मूढ़ हो गया था।
इधर-उधर घूमते-घूमते वह एक नगर में पहुंचा । वह नगर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसके केवल खण्डहर ही अवशेष थे। वह उन खण्डहरों को आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगा। देखतेदेखते उसकी आँखें एक ओर जा टिकीं। उसने एक खड्ग और चौड़े मुंह वाला बौंस का कुडंग
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देखा। उसका कुतूहल बढ़ा। परीक्षा करने के लिए उसने खड्ग से कुडंग पर प्रहार किया। एक ही प्रहार में झुरमुट नीचे गिर गया। उसके अन्दर से एक मुंड निकला। मनोहर सिर को देख उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने सोचा--' धिक्कार है मेरे व्यवसाय को।' उसने अपने पराक्रम को निन्दा को और बहुत पश्चात्ताप किया। बाद में उसने एक ओर ऊँचे बंधे हुए पाँव वाले कबंध को देखा। उसकी उत्सुकता और बढ़ी। आगे उसने एक उद्यान देखा। वहाँ एक सप्त भौम प्रासाद था। उसके चारों ओर अशोक वृक्ष थे। वह धीरे-धीरे प्रासाद में गया। वहां उसने एक सुन्दर स्त्री देखी। वह विकसित कमल के समान आंखों वाली तथा अत्यन्त सुन्दर थी। ब्रह्मदत्त ने पूछा-सुन्दरी ! तुम कौन हो?' सुन्दरी ने कहा-'महाभाग ! मेरा वृत्तान्त बहुत बड़ा है। तुम ही अपना परिचय दो कि तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?' कुमार ने उसकी मधुर वाणी को सुन कर कहा-'सन्दरी ! में पांचाल देश के राजा ब्रह्म का पुत्र हूं। मेरा नाम ब्रह्मदत्त है।' इतना सुनते ही वह महिला अत्यन्त हर्षित हुई। आनन्द उसकी आँखों से बाहर झाँकने लगा। वह उढ़ी और उसके चरणों में गिरकर रोने लगी। कुमार का हृदय दया से भीग गया। 'देवी! रुदन मत करो' यह कह उसने उसे उठाया और पूछा-'देवी ! तुम कौन हो?' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! मैं तुम्हारे मामा पुष्पचूल राजा की लड़की हूं। एक बार मैं अपने उद्यान में कुँए के पास वाली भूमि में खेल रही थी। नाट्योन्मत्त नाम का एक विद्याधर वहाँ आया और मुझे उठाकर यहाँ ले आया। यहाँ आए मुझे बहुत दिन हो गए। मैं परिवार की विरहाग्नि में जल रही हूँ। आज तुम अचानक ही यहाँ आ गए। मेरे लिए यह अचिंतित स्वर्ण-वर्षा हुई है। अब तुम्हें देखकर मुझे जीने की आशा भी बंधी है' कुमार ने कहा-'वह महाशत्रु कहाँ है? मैं उसके बल की परीक्षा करना चाहता हूँ।' स्त्री ने कहा-'स्वामिन् ! उसने मुझे पठितसिद्ध शंकरी नामक विद्या दी और कहा-'इस विद्या के स्मरण मात्र से यह विद्या सखी.दास आदि परिवार के रूप में उ होकर तुम्हारे आदेश का पालन करेगी। यह विद्या तुम्हारे पास आते हुए शत्रुओं का निवारण करेगी। उसे पूछने पर वह मेरी सारी बात बताएगी। मैंने एक बार उसका स्मरण किया। उसने कहा-'यह नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर है। मैं उसके द्वारा यहां लाई गई हूँ। मैं अधिक भाग्यशाली हूँ। वह मेरा तेज सह नहीं सका इसलिए वह मुझे विद्या निर्मित तथा सफेद और लाल ध्वजा से भूषित प्रासाद में छोड़ गया। मेरा वृत्तान्त जानने के लिए अपनी बहिन के पास विद्या को प्रेषित कर स्वयं वंशकुडंग में चला गया। विद्या को साध कर वह मेरे साथ विवाह करेगा। आज उसकी विद्या सिद्ध होगी।'
इतना सुनकर ब्रह्मदत्त कुमार ने पुष्पावती से उस विद्याधर के मारे जाने की बात कही। यह अत्यन्त प्रसन्न होकर बोली-'आर्य ! आपने अच्छा किया। वह दुष्ट मारा गया। दोनों ने गन्धर्व विवाह किया। कुमार कुछ समय तक उसके साथ रहा। एक दिन उसने दिव्यवलय का शब्द सुना। कुमार ने पूछा-'यह किसका शब्द है?' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! विद्याधर नाट्योन्मत्त की बहन खण्डविशाखा उसके विवाह के लिए सामग्री लेकर आ रही है। तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ से चले जाओ। मैं उसकी भावना जान लेना चाहती हूँ। यदि वह तुम में अनुरक्त होगी तो मैं प्रासाद के ऊपर लाल ध्वजा फहरा दूंगी, अन्यथा सफेद ।' कुमार वहां से चला गया। थोड़े समय बाद कुमार ने सफेद ध्वजा देखी। वह धीरे-धीरे वहाँ से चल पड़ा और गिरिनिकुंज में आ गया। वहाँ एक बड़ा सरोवर
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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देखा। उसने उसमें डुबकी लगाई। वह उत्तर-पश्चिम तीर पर जा निकला। वहाँ एक सुन्दर कन्या बैठी थी। कुमार ने उसे देखा और सोचा- 'अहो ! मेरे पुण्य की साक्षात् परिणति हैं कि यह कन्या मुझे दिखाई दी है।' कन्या ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से कुमार को देखा और वह वहां से चली गई। थोड़े ही समय में एक दासी वहाँ आई। उसने कुमार को वस्त्रयुगल, पुष्प, तंबोल आदि भेंट किए और कहा-'कुमार! सरोवर के समीप जिस कन्या को तुमने देखा था, उसी ने यह भेंट भेजी है और आपको मंत्री के घर में ठहरने के लिए कहा है। आप वहाँ चलें और सुखपूर्वक रहें।' कुमार ने वस्त्र पहने, अलंकार किया और नागदेव मंत्री के घर जा पहुँचा। दासी ने मंत्री से कहा-'आपके स्वामी की पुत्री श्रीकान्ता ने इन्हें यहाँ भेजा है। आप इनका सम्मान करें और आदर से यहाँ रखें। मंत्री ने वैसा ही किया। दूसरे दिन मंत्री कुमार को साथ ले राजा के पास गया। राजा ने उठकर कुमार को आगे आसन दिया और वृत्तान्त पूछा। भोजन से निवृत्त होकर राजा ने कहा--'कुमार! हम आपका और क्या स्वागत का । मकुमारी श्रीकान्त को आपके चरणों में भेंट करते हैं।' शुभ दिन में उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
एक दिन कुमार ने श्रीकान्ता से पूछा-'तुम्हारे पिता ने मेरे साथ तुम्हारा विवाह कैसे किया? मैं तो अकेला हूँ।' उसने कहा-'आर्यपुत्र! मेरे पिता पराक्रमी हिस्सेदारों द्वारा उपद्रुत होकर इस विषम पल्ली में रह रहे हैं। वे नगर, ग्राम आदि को लूटकर दुर्ग में चले जाते हैं। मेरी माता श्रीमती के चार पुत्र थे। उनके बाद मैं उत्पन्न हुई इसलिए पिता का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था। जब मैं युवती हुई तब एक बार पिता ने कहा-'पुत्री ! सभी राजा मेरे विरुद्ध हैं अतः जो घर बैठे ही तुम्हारे लिए उचित वर आ जाए तो मुझे कहना।' इसलिए मैं प्रतिदिन सरोवर पर जाती हूँ और मनुष्यों को देखती हूँ। आज मेरे पुण्यबल से तुम दिखलाई पड़े। यही सब रहस्य है।'
कुमार श्रीकान्ता के साथ विषय- सुख भोगते हुए समय बिताने लगा। एक बार वह पल्लींपत्ति अपने साथियों को साथ ले एक नगर को लूटने गया। कुमार उसके साथ था। गाँव के बाहर कमल सरोवर के पास उसने अपने मित्र वरधनु को बैठे देखा। वरधनु ने भी कुमार को पहचान लिया। असंभावित दर्शन के कारण वह रोने लगा। कुमार ने सान्त्वना दी और उसे गले लगाया। वरधनु ने कुमार से पूछा-'मेरे परोक्ष में तुमने क्या-क्या अनुभव किए?' कुमार ने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुमार ने कहा-'तुम अपना वृत्तान्त भी बताओ' । वरधनु ने कहा-'कुमार ! मैं तुम्हें एक वटवृक्ष के नीचे बैठे छोड़कर पानी लेने गया। मैंने एक बड़ा सरोवर देखा । मैं एक दोने में जल भर कर तुम्हारे पास आ रहा था। इतने में ही महाराज दीर्घ के सन्नद्ध भट्ट मेरे पास आए और बोले-'वरधनु ! बताओ ब्रह्मदत्त कहाँ है?' मैंने कहा--'मैं नहीं जानता।' उन्होंने मुझे बहुत पीटा तब मैंने कहा-'कुमार को बाघ ने खा लिया।' भट्टों ने कहा-'वह प्रदेश हमें बताओ, जहाँ कुमार को बाघ ने खाया था।' इधर-उधर घूमता हुआ मैं कपट से तुम्हारे पास आया और तुम्हें भाग जाने के लिए संकेत किया। मैंने भी परिव्राजक द्वारा दी गई गुटिका मुंह में रखी और उसके प्रभाव से बेहोश हो गया। मुझे मरा हुआ समझकर भट्ट चले गये। बहुत देर बाद मैंने मुंह से गुटिका निकाली
और मुझे होश आ गया। होश आते हो मैं तुम्हारी टोह में निकल पड़ा, परन्तु कहीं भो तुम नहीं मिले। मैं एक गाँव में गया। वहां एक परिव्राजक ने कहा-'मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूं। मेरा नाम
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नियुक्तिपत्र
वसुभाग हैं।' उसने कहा-'तुम्हारे पिता धनु भाग गए। राजा दीर्घ ने तुम्हारी माता को मांतगों के मुहल्ले में डाल दिया।' यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं काम्पिल्यपुर गया और कापालिक का वेश धारण कर उस मातंग बस्ती के प्रधान को धोखा दे माता को ले आया। एक गांव में मेरे पिता के मित्र ब्राह्मण देवशमां के यहां मां को छोड़कर तुम्हारी खोज में यहां आया हूं।
इस प्रकार दोनों अपने सुख-दुख की बातें कर रहे थे। इतने में ही एक पुरुष वहां आया। उसने कहा-'महाभाग ! तुम्हें यहाँ से कहीं अन्यत्र भाग जाना चाहिए। तुम्हारी खोज करते-करते राजा दीर्घ के मनुष्य यहाँ आ गए हैं।' इतना सुन दोनों-कुमार और वरधनु वहां से चल पड़े। गहन जंगलों को पार कर वे कौशाम्बी नगरी पहुंचे। वे गांव के बाहर एक उद्यान में ठहरे। वहां सागरदत्त
और बुद्धिल्ल नाम के दो श्रेष्ठी-पुत्र अपने अपने कुक्कुट लड़ा रहे थे। लाख मुद्राओं को बाजी लगी हुई थी। कुक्कुटों का युद्ध प्रारम्भ हुआ। सागरदत्त का कुक्कुट बुद्धिल्ल के कुक्कुट के साथ लड़ने में उत्साहित नहीं हुआ। सागरदन बाजी हार गया। इतने में ही दर्शक के रूप में खड़े वर धनु ने कहा-'यह क्या बात है कि सागरदत्त का कुक्कुट सुजाति का होते हुए भी हार गया? यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं परीक्षा करना चाहता हूं।' सागरदत्त ने कहा--'महाभाग! देखो-देखो भेरी लाख मुद्राएं चली गईं. इसका मुझे कोई दुःख नहीं है। परन्तु दु:ख इतना ही है कि मेरे स्वाभिमान की रक्षा नहीं हुई।
वरधनु ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को देखा। उसके पांवों में लोह की सूक्ष्म सूइयां बंधी हुई थीं। बुद्धिल्ल ने वरधनु को देखा। वह उसके पास आ धीरे से बोला-'यदि तू इन सूक्ष्म सूइयों की बात नहीं बताएगा तो मैं तुझे अर्द्धलक्ष मुद्राएं दूंगा।' वरधनु ने स्वीकार कर लिया। उसने सागरदत्त से कहा-'प्रेष्ठिन् ! मैंने देखा पर कुछ भी नहीं दिखा।' बुद्धिल्ल को ज्ञात न हो इस प्रकार वरधनु, ने आंखों में अंगुलि - संचार के प्रयोग से सागरदत्त को कुछ संकेत किया। सागरदत्त ने अपने कुक्कुट के पैरों में सूक्ष्म सूइयां बांध दी इससे बुद्धिल्ल का कुक्कुट पराजित हो गया। उसने लाख मुद्राएं हार दी। अब सागरदत्त और बुद्धिल्ल दोनों समान हो गए। सागरदत्त बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वरधनु को कहा-'आर्य! चलो, हम घर चलें।' दोनों घर पहुंचे। उनमें अत्यन्त स्नेह हो गया।
एक दिन एक दास आया। उसने नरधनु को एकान्त में बुलाया और कहा--'सूई का व्यतिकर न कहने पर बुद्धिल्ल ने जो तुम्हें अर्द्धलक्ष देने को कहा था, उसके निमित्त से उसने चालीस हजार का यह हार भेजा है।' यों कहकर उसने हार का डिब्बा समर्पित कर दिया। वर धनु ने उसको स्वीकार कर लिया। उसे ले वह ब्रह्मदत्त के पास गया। कुमार को सारी बात कही और उसे हार दिखाया। हार को देखते हुए कुमार की दृष्टि हार के एक भाग में लटकते हुए एक पत्र पर जा टिकी। उस पर ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था । उसने पूछा-'मित्र ! यह लेख किसका है? वरधनु ने कहा-'कौन जाने? संसार में ब्रह्मदत्त नाम के अनेक व्यक्ति हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है?' वरधनु कुमार को एकान्त में ले गया और लेख को देखा। उसमें यह गाथा अंकित थी
पत्थिज्जइ जइ वि जए, जणेण संजोयजणियजत्तेण ।
तह वि तुमं चिय धणिय, रयणवई मणई माणेउं । अर्थात् यद्यपि रत्नवती को पाने के लिए अनेक प्रार्थी हैं, फिर भी रत्नवती तुम्हारे लिए
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परिशिष्ट ६ कथाएं
समर्पित है। ब्रह्मदत्त ने सोचा मैं इसके भावार्थ को कैसे जानूं?' दूसरे दिन एक परिव्राजिका आई । उसने कुमार के सिर पर अक्षत तथा फूल डाले और कहा - 'पुत्र ! हजार वर्ष तक जीओ।' इतना कहकर को में ले गई और उसके साथ कुछ मंत्रणा कर वापस चली गई। कुमार नं वरधनु को पूछा- ' यह क्या कह रही थी?' वरधनु ने कहा- 'कुमार ! उसने मुझे कहा कि बुद्धिल्ल ने जो हार भेजा था और उसके साथ जो लेख था उसका प्रत्युत्तर दो।' मैंने कहा - ' वह ब्रह्मदत्त नाम से अंकित हैं। बताओ वह ब्रह्मदत्त कौन हैं?' उस परिव्राजिका ने कहा- ' 'सुनो, लेकिन यह बात किसी को बताना मत।' उसने कहा- 'इस नगरी में श्रेष्ठो पुत्री रत्नवती रहती हैं। बाल्यकाल से ही मेरा उस पर अपार स्नेह है। जब वह युवती हुई तब एक दिन मैंने उसे कुछ सोचते हुए देखा। मैं उसके पास गई। मैंने कहा- पुत्री रत्नवती! क्या सोच रही हो?' उसके परिजनों ने कहा- यह बहुत दिनों से इसी प्रकार उदासीन है। मैंने उसे बार बार पूछा पर वह नहीं बोली। तब उसकी सखी प्रियंगुलतिका ने कहा- 'भगवती ! यह लज्जावश तुम्हें कुछ नहीं बताएगी। मैं कहती हूं कि एक बार यह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गई थी। वहां इसके भाई बुद्धिल श्रेष्ठी ने लाख मुद्राओं की बाजी पर कुक्कुट लड़ाए थे। इसने वहां एक कुमार को देखा। उसको देखते ही यह ऐसी बन गई।' यह सुनकर मैंने उसकी काम व्यथा जान ली। परिव्राजिका ने स्नेहपूर्वक कहा कि पुत्री : यथार्थ बात बताओ तब उसने ज्यों-त्यों कहा कि तुम मेरी मां के समान हो। तुम्हारे सामने अकथनीय कुछ भी नहीं है। वह ब्रह्मदत्त कुमार यदि मेरा पति नहीं होगा तो मैं निश्चय ही प्राण त्याग दूंगी। यह सुनकर मैंने उसे कहा- 'धैर्य रखो। मैं वैसा ही उपाय करूंगी, जिससे तुम्हारी कामना सफल हो सके।' यह बात सुनकर कुमारी रत्नवती कुछ स्वस्थ हुई। कल मैंने उसके हृदय को आश्वासन देने के लिए कहा- 'मैंने कुमार को देखा है।' उसने भी कहा भगवती ! तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ अच्छा ही होगा। किन्तु उसके विश्वास के लिए बुद्धिल्ल के कथन के मिष से हार के साथ ब्रह्मदत्त नामांकित एक लेख भेज देना।' मैंने कल वैसा ही किया। आगे उस परिव्राजिका ने कहा- 'मैंने लेख की सारी बात तुम्हें बता दी। अब उसका प्रत्युत्तर दी।' वरधनु ने कहा-'मैंने उसे यह प्रत्युत्तर दिया
भदत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ त्ति माणिठं मणई । रथणवई रयणिवई, चंदो इव चंदणीजोगो ॥
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अर्थात् वरधनु सहित ब्रह्मदत्त भी रत्नवती का योग चाहता है, जैसे रजनीपति चांद चांदनी का। वरधनु द्वारा कही गई सारी बात सुनकर कुमार रत्नवती को बिना देखे ही उसमें तन्मय हो गया। उसको प्राप्त करने के उपाय सोचते-सोचते अनेक दिन बीत गए।
एक दिन वरधनु बाहर से आया और सम्भ्रान्त होता हुआ बोला- 'कुमार ! इस नगर में स्वामी कौशलाधिपति ने हमें ढूंढने के लिए विश्वस्त पुरुषों को भेजा है। इस नगर के स्वामी ने ढूंढरा प्रारम्भ कर दिया है, ऐसा मैंने लोगों से सुना है।' यह व्यतिकर जानकर सागरदत्त ने दोनों की भोहरे में 'छुपा दिया। रात्रि आने पर कुमार ने सागरदत्त से कहा- ' - ऐसा कोई उपाय करो, जिससे हम यहाँ से निकल जाएँ।' यह सुनकर सागरदत्त उन दोनों को साथ ले नगरी के बाहर चला गया। सागरदत्त उनके साथ जाना चाहता था। परन्तु ज्यों-त्यों उसे समझा कर घर भेजा और कुमार तथा वरधनु दोनों
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नियुक्तिपंचक
आगे चले गये। वे नगर के बाहर उद्यान में पहुंचे। उसमें एक यक्षायतन था। वहाँ वृक्ष के नीचे एक रथ खड़ा था। वह शस्त्रों से सज्जित था। उसके पास एक सुन्दर स्त्री बैठी थी। कुमार को देखकर वह उठी और आदर भाव प्रकट करती हुई बोली--'आप इतने समय के बाद कैसे आए?' यह सुनकर कुमार ने कहा-'भद्रे ! हम कौन हैं?' उसने कहा-'स्वामिन् ! आप ब्रह्मदत्त और वरधनु हैं।' कुमार ने कहा-'तुमने हमको कैसे जाना'? उसने कहा-'सुनो, इस नगरी में धनप्रवर नाम का सेठ रहता है। उसकी पत्नी का नाम धनसंचया है। उसके आठ पुत्र हैं। मैं उनकी नौवीं संतान हूँ। मैं युवती हुई पर मुझे कोई पुरुष पसन्द नहीं आया है। तब मैंने इस बक्ष की आराधना प्रारम्भ की । यक्ष भी मेरी भक्ति से संतुष्ट हुआ। वह प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोला-'बेटी! भविष्य में होने वाला चक्रवर्ती कुमार ब्रह्मदत्त तुम्हारा पति होगा। मैंने पूछा-'मैं उसको कैसे जान सकूँगी?' यक्ष ने कहा-'बुद्धिल्ल और सागरदत्त के कुक्कुट युद्ध में जिस पुरुष को देखकर तुम्हें आनन्द हो, उसे ही ब्रह्मदत्त जान लेना।' उसने मुझे जो बताया, वह सब यहाँ मिल गया। मैंने जो हार आदि भेजा, वह आप जानते ही हैं।' यह सुनकर कुमार उसमें अनुरक्त हो गया। वह उसके साथ रथ पर आरूढ़ हुआ और उससे पूछा-'हमें कहाँ जाना चाहिए?' रलवती ने कहा--'मगधपुर में मेरे चाचा सेठ
गर्थवाह रहते हैं। वे हमारा वृत्तान्त जान कर हमारा आगमन अच्छा मानेंगे। अत: आप वहीं चलें, उसके बाद जहाँ आपकी इच्छा हो।' रत्नवती के वचनानुसार कुमार मगधपुर की ओर चल पड़ा। वरधनु को साथि बनाया।
ग्रामानग्राम चलते हए वे कौशाम्बी जनपद को पार कर गए। आगे चलते हए वे एक गहन जंगल में जा पहुंचे। वहां कंटक और सुकंटक नाम के दो चोर-सेनापत्ति रहते थे। उन्होंने रथ और उसमें बैठी हुई अलंकृत स्त्री को देखा। उन्होंने यह भी जान लिया कि रथ में तीन ही व्यक्ति हैं। वे सज्जित होकर आए और उन पर प्रहार करने लगे। कुमार ने भी अनेक प्रकार से प्रहार किए। चोर सेनापति हार कर भाग गया। कुमार ने रथ को आगे बढ़ाया। वरधनु ने कहा-'कुमार ! तुम बहुत परिश्रान्त हो गए हो। कुछ समय के लिए रथ में ही सो जाओ।' कुमार और रत्नवती दोनों सो गए। रथ आगे बढ़ रहा था। वे एक पहाड़ी प्रदेश में पहुंचे। घोड़े थककर एक पहाड़ी नदी के पास जाकर रुक गये। कुमार जागा, वह जम्भाई लेकर उठा। उसने आस-पास देखा पर वरधनु दिखाई नहीं दिया। कुमार ने सोचा-'संभव है वह पानी लाने गया हो।' कुछ देर बाद उसने भयाक्रान्त हो वरधनु को पुकारा। उसे प्रत्युत्तर नहीं मिला। उसने रथ के अगले भाग को देखा। वह रक्त से सना हुआ था। कुमार ने सोचा कि वरधनु मारा गया। 'हा! मैं मारा गया। अब मैं क्या करूं?' यह कहते हुए वह रथ में ही मूर्छित हो गया। कुछ समय बोतने पर उसे होश आया। हा, हा भ्रात वरधनु!' यह कहता हुआ वह प्रलाप करने लगा। रलवती ने ज्यों-त्यों उसे बिठाया और समझाया। कुमार ने कहा--'सुन्दरी ! मैं स्पष्ट नहीं जान पा रहा हूँ कि वरधनु मर गया या जीवित हैं? मैं उसको ढूंढ़ने के लिए पीछे जाना चाहता हूँ । रनवती ने कहा-'आर्यपुत्र! यह पीछे चलने का अवसर नहीं है। मैं एकाकिनी हूँ। यहां भयंकर जंगल हैं। इसमें अनेक चोर और श्वापद रहते हैं। यहाँ की सारी घास पैरों से रौंदी हुई है इसलिए यहां पास में ही कोई बस्ती होनी चाहिए।' कुमार ने उसकी बात मान ली। वह मगध देश की ओर चल पड़ा। वह उस देश की सन्धि में संस्थित एक ग्राम में पहुंचा।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
%3A1चार घर
वसोट
ग्राम-सभा में बैठे हुए ठाकुर ने कुमार को प्रवेश करते हुए देखा। उसे विशेष व्यक्ति मानकर वह उठा। उसका सम्मान किया और अपने घर ले गया। उसने ब्रह्मदत्त को रहने के लिए मकान दिया। जब वह सुखपूर्वक बैठ गया तब टाकुर ने कुमार से कहा-'महाभाग ! तुम बहुत ही उद्विग्न दिखाई दे रहे हो। क्या कारण है?' कुमार ने कहा-'मेरा भाई चोरों के साथ लड़ता हुआ न जाने कहाँ चला गया? किस अवस्था को प्राप्त हो गया?' ठाकुर ने कहा-'आप खेद न करें। यदि वह इस अटवी में होगा तो अवश्य ही मिल जाएगा।' ठाकुर ने विश्वस्त आदमियों को अटवी में चारों ओर भेजा। वे आकर बोले-'स्वामिन् ! हमें अटवी में कोई खोज नहीं मिली। केवल एक बाण ही मिला है। यह सुनते ही कुमार अत्यन्त उद्विग्न और उदास हो गया। उसने सोचा-'निश्चय ही वरधनु मारा गया है।' रात आने पर कुमार रलवती के साथ सो गया। एक प्रहर रात बीतने पर गांव में
| कमार ने चोरों का सामना किया। सभी चोर भाग गये। गाँव के प्रमुख ने कुमार का अभिनन्दन किया। प्रात:काल होने पर ठाकुर ने अपने पुत्र को उनके साथ भेजा।
वे चलते-चलते राजगृह पहुंचे। नगर के बाहर एक परिव्राजक का आश्रम था। कुमार रत्नवती को आश्रम में बिठाकर गाँव के अन्दर गया। प्रवेश करते ही उसने अनेक खम्भों पर टिका हुआ, अनेक कलाओं से निर्मित एक धवल भवन देखा। वहाँ दो सुन्दर कन्याएं बैठी थीं। कुमार को देखकर अत्यन्त अनुराग दिखाती हुई वे दोनों बोली-'क्या आप जैसे महापुरुषों के लिए यह उचित है कि भक्ति से अनुरक्त व्यक्ति को भुलाकर परिभ्रमण करते रहो?' कुमार ने कहा-'वह कौन है, जिसके लिए तुम ऐसा कह रही हो? उन्होंने कहा-'कृपा कर आप आसन ग्रहण करें।' कुमार आसन पर बैठ गया। स्नान कर वह भोजन से निवृत्त हुआ। दोनों स्त्रियों ने कहा- महासत्व! इसी भरत के वैताढूय पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नाम का नगर है। वहाँ ज्वलनसिंह नाम का राजा राज्य करता है । उसकी महारानी का नाम विद्युतशिखा है। हम दोनों उनकी पुत्रियाँ हैं । हमारे ज्येष्ठ भ्राता का नाम नाट्योन्मत्त था। एक दिन हमारे पिता अग्निशिख मित्र के साथ गोष्ठी में बैठे थे। उन्होंने आकाश की ओर देखा। अनेक देव तथा असुर अष्टापद पर्वत के अभिमुख जिनेश्वर देव को वन्दनार्थ जा रहे थे। राजा भी अपने मित्र तथा बेटियों के साथ उसी ओर जाने लगा। हम सब अष्टापद पर्वत पर पहुंचे, जिनदेव की प्रतिमाओं को वन्दना की और सुगन्धित द्रव्यों से अर्चा को। हम तीन प्रदक्षिणा कर लौट रहे थे तभी हमने देखा कि एक अशोक वृक्ष के नीचे दो मुनि खड़े हैं। वे चारणलब्धि सम्पन्न थे। हम उनके पास बन्दना कर बैठ गए। उन्होंने धर्मकथा करते हुए कहा-'यह संसार असार है। शरीर विनाशशील है। जीवन शरद् ऋतु के बादलों की तरह नश्वर है। यौवन विद्युत् के समान चंदन है। कामभोग किंपाक फल जैसे हैं। इन्द्रियजन्य सुख संध्या के राग की तरह हैं । लक्ष्मी कुशाग्न पर टिके हुए पानी की बूंद की तरह चंचल है। दुःख सुलभ है, सुख दुर्लभ है। मृत्यु सर्वत्रगामी है। ऐसी स्थिति में प्राणी को मोह का बंधन तोड़ना चाहिए। जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में मन लगाना चाहिए।' परिषद् ने धर्मोपदेश सुना। लोग विसर्जित हुए। अवसर देख अग्निशिख ने पूछा-'भगवन् ! इन बालिकाओं का पति कौन होगा।' मुनि ने कहा-'इनका पत्ति भ्रातृ-वधक होगा।' यह सुन राजा का चेहरा श्याम हो गया। हमने पिता से कहा-'तात! मुनियों
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निर्युक्तिपंचक
ने जो संसार का स्वरूप बताया है, वह यथार्थ है। हमें ऐसा विवाह नहीं चाहिए। हमें ऐसा विषयसुख नहीं चाहिए। पिता ने हमारी बात मान ली, तब से हम अपने प्रिय भाई की स्नान - भोजन आदि की व्यवस्था में ही चिन्तित रहती हैं। हम अपने शरीर परिकर्म का कोई ध्यान नहीं रखतीं ।
एक दिन हमारे भाई ने घूमते हुए तुम्हारे मामे की लड़की पुष्पवती को देखा। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे हरण कर यहाँ ले आया। परन्तु वह उसकी दृष्टि सहने में असमर्थ था अतः विद्या को साधने के लिए गया। आगे का वृत्तान्त आप जानते हैं। हे महाभाग ! उस समय तुम्हारे पास से आकर पुष्पवती ने हमें भाई का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर हमें अत्यन्त शोक हुआ। हम रोने लगीं। पुष्पवर्ती ने धर्मदेशना दे हमें शान्त किया और शंकरी विद्या से हमारे वृत्तान्त को जानकर उसने कहा- ' 'मुनि के वचन को याद करो। ब्रह्मदत्त को अपना पति मानी। ' हमने अनुराग पूर्वक आपको अपने पति स्वीकार कर लिया। पुष्पवती के संकेत से आप कहीं चले गए। हमने आपको अनेक नगरों व ग्रामों में ढूंढा पर आप कहीं नहीं मिले। अन्त हम खिन्न होकर यहां आ गई। आज हमारा भाग्य जागा अतर्कित हिरण्य की वृष्टि के समान आपके दर्शन हुए। हे महाभाग ! पुष्पवती की बात को याद कर आप हमारी आशा पूरी करें।' यह सुन कुमार प्रसन्न हुआ। उसने उनकी बात स्वीकार कर उनके साथ गन्धर्व विवाह किया। रात वहीं बिताई। प्रात:काल होने पर कुमार ने कहा- 'तुम दोनों पुष्पवती के पास चली जाओ। उसके साथ तब तक रहना, जब तक मैं राजा न बन जाऊँ ।' दोनों ने बात मान ली। उनके जाने के बाद कुमार ने देखा कि न वहां प्रासाद है और न परिजन उसने सोचा कि यह विद्याधरियों की माया है अन्यथा ऐसा इन्द्रजाल-सा कौतुक कैसे होता ? कुमार को रत्नवती का स्मरण हो गया और वह उसको ढूंढने आश्रम की ओर चला । वहां न तो रत्नवती ही थी और न कोई दूसरा । किसे पूछें, यह सोच उसने इधर-उधर देखा पर कोई नहीं मिला। वह उसी की चिन्ता में व्यग्र था तभी वहाँ सौम्य आकृति वाला एक पुरुष दिखलाई पड़ा । कुमार ने पूछा - 'महाभाग ! क्या तुमने अमुक-अमुक आकृति तथा वेष धारण करने वाली स्त्री को आज या कल कहीं देखा है?' उसने पूछा- 'कुमार! क्या तुम रत्नवती के पति हो।' कुमार ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया।
उसने कहा- 'कल अपराह्न वेला में मैंने उसको रोते देखा था। मैं उसके पास गया और पूछा - 'पुत्री ! तुम कौन हो कहां से आई हो, तुम्हारे दुःख का कारण क्या है? तुम्हें कहां जाना हैं ?" उसने अपना परिचय दिया। मैंने उसे पहचान लिया और कहा- तुम मेरी धेवती हो।' मैंने उसका वृत्तान्त जाना और उसे उसके चाचा के पास ले गया। उसने उसे आदर पूर्वक अपने घर में प्रवेश कराया इसीलिए अन्वेषण करने पर भी वह तुम्हें नहीं मिली। तुमने अच्छा किया कि यहां आ गये।' इतना कहकर वह कुमार को सार्थवाह के घर ले गया। रत्नवती के साथ उसका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। वह विषय-सुख का भोग करता हुआ वहीं रहने लगा।
एक दिन उसे याद हो आया कि आज वरधनु का दिन हैं, वह सोच उसने ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। संयोगवश वरधनु ब्राह्मण के वेश में भोजन लेने वहीं आ गया। उसने एक नौकर से कहा- 'जाओ, अपने स्वामी से कहो कि यदि तुम मुझे भोजन दोगे तो वह उस परलोकवर्ती के मुँह और पेट में सीधा चला जाएगा, जिसके लिए तुमने भोज किया है।' नौकर
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
ने जाकर कुमार को सारी बात कही। कुमार बाहर आया। उसने ब्राह्मण वेश में वरधनु को पहचान लिया। दोनों ने परस्पर आलिंगन किया। दोनों अन्दर आ गए । स्नान- भोजन आदि से निवृत्त हो कुमार ने वरधनु से उसका वृत्तान्त पूछा। वरधनु ने कहा- 'उस रात आप दोनों रथ पर सो गए थे। मैं आगे बैठा था। एक चोर घनी झाड़ी में छुपा बैठा था। उसने पीछे से बाण मारा। मैं वेदना से पराभूत हो धरती पर गिर पड़ा। आप पर कोई आपत्ति न आ जाए इस भय से आवाज नहीं की। रथ आगे चला गया और मैं भी सघन वृक्षों को चीरता हुआ गाँव में पहुँचा, जहाँ आप थे । वहाँ के प्रधान से मैंने आपके विषय में सारी बात जान ली। मुझे अत्यन्त हुर्ष हुआ। ज्यों त्यों मैं यहां आया और आपसे मिलना हुआ।'
दोनों अत्यन्त आनंद से दिन बिता रहे थे। एक बार दोनों ने विचार किया कि कितने दिन तक हम निठल्ले बैठे रहेंगे। हमें कोई उपाय ढूंढ़ना चाहिए। मधुमास आया। मदनमहोत्सव की बेला
गर के सारे लोग क्रीडा करने उद्यान में गए। कतहलवश कमार और वरधन भी वहीं गए। सभी नर-नारी विविध क्रीड़ाओं में मग्न थे। इतने में हो मदोन्मत राज-हस्ती आलान से छूट गया। वह निरंकुश हो दौड़ पड़ा। सभी लोग भवभीत हो गए। भयंकर कोलाहल होने लगा। सभी क्रीड़ागोष्ठियाँ भंग हो गईं। इस प्रवृद्ध कोलाहल में एक तरुण स्त्री मत्तहाथो के भय से पागल की तरह दौड़ती हुई त्राण के लिए इधर-उधर देख रही थी। हाथी की दृष्टि उस पर पड़ी। चारों ओर हाहाकार होने लगा। स्त्री के परिवार वाले चिल्लाने लगे। कुमार ने यह देखा। उसने भयभीत तरुणो के आगे हो, हाथी को हांका । कुमारी बच गई। हाथी कुमारी को छोड़कर अत्यन्त कुपित हो, सूड को घुमाता हुआ, कानों को फड़फड़ाता हुआ कुमार की ओर दौड़ा। कुमार ने अपनी चादर को गेंद बना हाथी की ओर फेंका। हार्थी ने उसे रोष से अपनी सूंड में पकड़कर आकाश में उछाल दिया। वह धरती पर जा गिरा। हाथी उसे पुन: उठाने में प्रयत्नशील था कि कुमार शीघ्र ही उसकी पीठ पर जा बैठा और तीखे अंकश से उस पर प्रहार किया। हाथी उछला। तत्क्षण ही कमार ने मीठे वचनों से उसे संबोधित किया। हाथीं शान्त हो गया। लोगों ने यह देखा। चारों ओर से साधुवाद की ध्वनि आने लगी। मंगलपाठकों ने कुमार का जयघोष किया। हाथी को आलान पर ले जाया गया। कुमार ब्रह्मदत्त पास ही खड़ा रहा।
राजा आया। कुमार को देखकर विस्मित हुआ। उसने पूछा- 'यह कौन है?' मंत्री ने सारी बात बताई। राजा प्रसन्न हुआ। कुमार को साथ ले वह अपने राजमहल में आया। स्नान, भोजन, पान आदि से उसका सत्कार किया। भोजन के पश्चात राजा ने अपनी आठ पत्रियाँ कमार को समर्पित की। शुभ मुहूर्त में विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। कुमार कई दिन वहाँ रहा।
एक दिन एक स्त्री कुमार के पास आकर बोली-'कुमार ! मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ।' कुमार ने कहा बोलो, क्या कहना चाहती हो? उस स्त्री ने कहा-'इसी नगरी में वैश्रमण नाय का सार्थवाह रहता है। उसकी पुत्री का नाम श्रीमती है। मैंने उसको पाला-पोषा है । यह वहीं बालिका है, जिसको तुमने हाथी से रक्षा की थी। हाथी के संभ्रम से बच जाने पर उसने तुम्हें जीवनदाता मानकर तुम्हारे प्रति अनुरक्ति दिखाई है। तुम्हारे रूप, लावण्य और कला-कौशल को देखकर वह तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त है। तभी से वह तुम्हें देखती हुई स्तम्भित की तरह, लिखित मूर्ति की तरह, भूमि
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में गढ़ी कील की तरह निश्चल और भरी आंखों से क्षण भर वहां ठहरी । हाथी का संभ्रम दूर होने पर ज्यों-त्यों उसे घर ले जाया गया। वह वहाँ भी न स्नान करती है और न ही भोजन। वह तब से मौन हैं। मैं उसके पास गई। मैंने कहा-'पुत्री ! तुम बिना कारण हो क्यों अनमनी हो रही हो? मेरे वचनों की अवहेलना क्यों कर रही हो?' उसने मुस्कराते हुए कहा-'मां ! तुमसे मैं क्या छुपाऊँ? किन्त लज्जावश चुप हैं। यदि उस कुमार के साथ जिसने मुझे हाथो से बचाया है, मेरा विवाह नहीं हो जाता तो मेरा मरना निश्चित है।' यह बात सुन मैंने उसके पिता से सारी बात कही। उसने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। आप कृपा कर इस बालिका को स्वीकार करें।' कुमार ने उसे स्वीकार कर लिया। शुभ दिन में उसका विवाह सम्पन्न हुआ। वरधनु का विवाह अमात्य सुबुद्धि की पुत्री नन्दा के साथ हुआ। दोनों सुख भोगते हुए वहीं रहने लगे। चारों ओर उनकी कीर्ति फैल गई।
चलते-चलते वे वाराणसी पहुंचे। राजा कटक ने जब कुमार ब्रह्मदत्त का आगमन सुना तो वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। पूर्ण सम्मान के साथ कुमार ब्रह्मदत्त को नगर में प्रवेश कराया गया। उसने अपनी पुत्री कटकावतो से ब्रह्मदत्त का विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेजकर सेना सहित पुष्पचूल को बुला लिया। मंत्री धनु और करेणुदत्त भी वहां आ पहुंचे। चंद्रसिंह, भचंदत्त आदि और भी अनेक राजा उनके साथ मिल गए। उन सबने वरधनु को सेनापति के पद पर नियुक्त कर काम्पिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। इसी बीच राजा दीघं ने कटक आदि राजाओं के पास अपना दूत भेजा पर सबने उसका तिरस्कार किया। अनवरत प्रयाण से सेना काम्पिल्यपुर पहुंच गयी। चारों ओर से नगर को घेर लिया, जिससे नागरिकों का निर्गम और प्रवेश अवरुद्ध हो गया। राजा दीर्घ 'कितने दिन तक अंदर छिपकर बैठा रहूंगा' ऐसा सोचकर साहस के साथ सेना के सम्मुख आया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। अपनी सेना को पराजित होते देख साहस के साथ राजा दीर्घ युद्ध में उपस्थित हुआ। राजा दीर्घ को देखकर कुमार ब्रह्मदत्त ने रोष के साथ उस पर बाण छोड़ा। फिर गांडीव, खड्ग आदि से प्रहार करके उस पर चक्र छोड़ दिया। राजा दीर्घ का सिर धड़ से अलग हो गया। 'चक्रवर्ती की विजय हुई'- यह घोष चारों ओर फैल गया। देवों ने आकाश से फूल बरसाए। 'बारहवां चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है' यह आकाशवाणी हुई । नागरिकों ने अभिनंदन करते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का नगर में प्रवेश करवाया। सकल सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक किया। वह छह खंड का अधिपति बन गया। पुष्पवती प्रमुख सारा अंत:पुर काम्पिल्यपुर में आ गया।
राग्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना की-'मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन करना चाहता हूँ।' चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपराह्न में नाटक होने लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूलमालाएं लाकर राजा के सामने रखी
। उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हुआ कि ऐसा नाटक इसके पहले भी मैंने कहीं देखा है। वह इस चिन्तन में लीन हो गया और उसे पूर्व-जन्म को स्मृति हो आई। उसने जान लिया कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देखा था। इस स्मृति मात्र से वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। पास बैठे हुए सामन्त उठे, चन्दन का लेप किया। राजा की चेतना लौट आई। सम्राट आश्वस्त हुआ। उसे पूर्वजन्म के भाई की याद सताने लगी। भाई की खोज करने के लिए उसने एक
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
भार्ग ढूँढ़ा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट ने महामात्य वरधनु से कहा-'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा' इस श्लोकाद्धं को सन्त्र जगह प्रचारित करो और यह घोषणा करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट् अपना आधा राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्धश्लोक दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो गया।
इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत होकर पुरिमताल नगर में एक सेठ के घर जन्मा. युवा होने पर एक दिन उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वह वहीं काम्पिल्यपुर में आया और मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर रहा था। उसी समय रहट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहां बोल उठा-'आस्व दासौ मृगौ हंसो, मातंगावमसौ तथा।'
मुनि ने इस श्लोकार्ध को सुना और उसके आगे के दो चरण पूरे करते हुए कहा-'एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः रहट चलाने वाले उस व्यक्ति ने उन दोनों चरणों को एक पत्र में लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में वह दौड़ा-दौड़ा राज-दरबार में पहुँचा। सम्राट की अनुमति प्राप्त कर वह राज्य सभा में गया और एक ही साँस में परा श्लोक सम्राट को सुना डाला। उसे सुनते ही सम्राट् स्नेहवश मूर्छित हो गए। सारी सभा क्षुब्ध हो गयी । सभासद क्रुद्ध होकर उसे पीटने लगे। उन्होंने कहा–'टूने सम्राट् को मूर्छित कर दिया। कैसी तेरी श्लोक-पृर्ति?' मार पड़ने पर वह बोला- मुझे मत मारी । श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं की है।' 'तो किसने की है?' सभासदों ने पूछा तब उसने कहा-'मेरे रहट के पास खड़े एक मुनि ने की है।' अनुकूल उपचार पाकर सम्राट् सचेतन हुआ।
सारी बात की जानकारी प्राप्त कर वह परिकर सहित मनि के दर्शन करने के लिए उद्यान में चल पड़ा। मुनि को वंदना कर वह विनयपूर्वक उनके पास बैठ गया। मुनि ने धर्मदेशना दी। कर्म विपाक का वर्णन किया तथा मोक्षमार्ग का विवेचन किया। परिषद् विरक्त हो गयीं पर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भावित नहीं हुआ। पुन: पुनः प्रतिबोध देने पर भी ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध नहीं हुआ तब मुनि चित्र ने सोचा-'ओह ! अब मुझे समझ में आ गया कि ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध क्यों नहीं हो रहा है? पूर्वभव में चक्रवर्ती सनत्कुमार की स्त्रीरत्न दर्शनार्थ आई थी। वन्दना करते समय उसकी केशराशि का स्पर्श मुनि के चरणों से हुआ। चरण -स्पर्श से मुनि को अपार सुख की अनुभूति हुई। तब पुनि सम्भूत ने स्त्रीरत्न की प्राप्ति का निदान कर डाला। मैंने निदान करने का निषेध किया। परन्तु निषेध का असर नहीं हुआ। यही कारण है कि आज यह अपने राज्य के प्रति इतना आसक्त है। जैसे मृत्यु रूपी नाग से दष्ट व्यक्ति के लिए जिन-वचन रूपी मंत्र-तंत्र कार्यकर नहीं होता, वैसे ही इस पर धर्म-प्रतिबोध का कोई प्रभाव नहीं हो रहा है।' मुनि वहां से चले गए और साधना करते-करते मोक्ष को प्राप्त हो गए।
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सुखों का अनुभव करने लगा। कुछ काल बीता। एक बार एक ब्राहाण 'चक्रवर्ती के पास आकर बोला-'राजन् ! मेरे मन में एक अभिलाषा उत्पन्न हुई है कि मैं चक्रवर्ती का भोजन करूं।' चक्रवर्ती बोला-'द्विजोत्तम! मेरा अन्न तुम पचा नहीं पाओगे। यह अन्न मेरे अतिरिक्त कोई नहीं पचा पाता। यह अन्न दूसरों में सम्यक् परिणत नहीं होता ।' तब ब्राह्मण बोला-'राजन्!
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आपकी इस राज्यलक्ष्मी को धिक्कार है कि आप अन्नदान देने में भी इतना सोच रहे हैं।' तब राजा ने आक्रोश वश उसे भोजन की अनुमति दे दी। अनुमति पाकर ब्राह्मण अपने परिवार सहित चक्रवर्ती के प्रासाद में गया। वहां सभी ने भोजन किया। ब्राह्मण अपने परिवार के साथ घर आ गया। रात्रि में अन्न की परिणति के कारण सभी में उन्माद व्याप्त हो गया। सभी परिजन काम-वेदना से आविष्ट होकर संबंधों को भूलकर, एक दूसरे के साथ अनाचार का सेवन करने लगे। अन्न का पूरा परिणमन हुआ। प्रात:काल ब्राह्मण तथा सभी परिजन अत्यन्त लजा का अनुभव करने लगे। वे एक दूसरे को मुंह दिखाने में भी समर्थ नहीं रहे । ब्राह्मण घर छोड़कर नगर के बाहर चला गया। वन की ओर जातेजाते ब्राह्मण ने सोचा-'राजा के साथ मेरा कोई वैर नहीं था। फिर बिना किसी निमित्त के राजा ने मेरी ऐसी विडम्बना क्यों की?' उसका मन ईर्ष्या और क्रोध से भर गया। वह वन में घूमता र एक दिन उसने एक अजापालक को देखा, जो कंकरों से पीपल के पत्तों में छेद कर रहा था। कंकर ठीक निशाने पर लग रहे थे। 'यह मेरा विवक्षित कार्य करने में समर्थ है' यह सोचकर ब्राह्मण अजापालक के पास गया। सम्मान से दान-दक्षिणा देकर उसे प्रसना किया और उसको एकान्त में अपना अभिप्राय बता दिया। उसने तदनुरूप कार्य करना स्वीकार कर लिया।
एक दिन वह अजापालक एक भीत की ओट में छिपकर खड़ा हो गया। राजा ब्रह्मदत्त अपने प्रासाद से उसी मार्ग पर कहीं जा रहे थे। अचूक निशानेबाज अजापालक ने निशाना साधा और एक साथ कंकर से उनकी दोनों आंखें उखाड़ दी। अजापालक पकड़ा गया। राजा ने उससे पूरा वृत्तान्त जानकर ब्राह्मण को उसके पूरे परिवार सहित मरवा डाला।अन्यान्य ब्राह्मणों की घात करने के पश्चात् 'राजा ने मंत्री से कहा-'इन सबकी आंखें एक थाल में सजाकर मेरे सामने उपस्थित करो। मैं अपने हाथों से उन आंखों का मर्दन कर सुख का अनुभव करूंगा।' मंत्री ने सोचा-'राजा अभी क्लिष्ट कर्मोदय के वशीभूत है। मुझे कोई उपाय करना चाहिए।' उसने शाखोटक (सिहोड) वृक्ष के फलों को थाली में सजाकर राजा के सामने रखा। राजा क्रूर अध्यवसायों से अभिभूत था। वह उन फलों को मनुष्य की आंखें मानकर उनका मर्दन करता हुआ सुख का अनुभव करने लगा। कुछ दिन बीते। सात सौ सोलह वर्ष का आयुष्य पूरा कर, अत्यन्त रौद्र अध्यवसायों से मरकर वह सातवीं नरक में तेतीस सागर की आयुष्य वाला नैरयिक बना।
५७. भृगु पुरोहित
तेरहवें अध्ययन में वर्णित चित्र और संभूत के दो मित्र थे, जो ग्वाले थे। साधु के अनुग्रह से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। वे वहां से मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्यवन कर वे क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक सेठ के यहां उत्पन्न हुए। चार इभ्यपुत्र उनके मित्र थे। उन सबने युवावस्था में भोगों का उपभोग किया फिर स्थविर मुनि के प्रवचन से विरक्त होकर प्रजित हो गए। चिरकाल तक संयम का पालन कर वे भक्तप्रत्याख्यान अनशन द्वारा सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाले देव बने। दो ग्वालपुत्रों को छोड़कर शेष चारों मित्र वहां से च्युत हुए। उनमें एक कुरु जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नामक राजा बना तथा दूसरा उसी राजा की १. उनि.३२५-३५२, उसुटी.प. १८५-९७ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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पटरानी कमलावती बना। तीसरा उसी राजा का पुरोहित बना, जिसका नाम भृगु था तथा चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी वाशिष्ठगोत्री यशा बना। भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं था। संतान के लिए दोनों पति-पत्नी चिंतामग्न रहते थे। संतान के लिए वे विविध देवताओं और नैमत्तिकों से उपाय पूछते रहते थे।
एक बार उन दानां कालपुत्रों ने देवभत्र में अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगुपुरोहित के प होंगे। वे श्रमण का रूप बनाकर भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु पुरोहित और यशा-दोनों ने उ.. वंदना की। श्रमण दलों ने उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया। भृगु दम्पति ने श्रावक व्रत स्वीकार किए। भृगु ने पूछा-'भगवन् ! हमार कोई पुत्र होगा या नहीं?' श्रमण युगल ने कहा-'तुम्हारे दो पुत्र होंगे लेकिन व सामानस्था में ही दीक्षित हो जाएंगे। उनकी प्रव्रज्या में तुमको कोई बाधा नहीं पहचाना है। वे दीक्षित है कर घमशासन की प्रभावना करेंगे और अनेक लोगों को प्रतिबुद्ध करेंगे।' इतना कहकर वे दोनों श्रमण वहां से चले गए। कुछ समय बाद दोनों देव पुरोहित-पत्नी
गर्भ में आए। दीक्षा के भ्य से पुरोहित नगर को छोडकर व्रज गांव में जाकर बस गया। वहां पुरोहित- पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कुछ बड़े होने पर माता-पिता ने सोचा कि कहीं ये दीक्षित न हो जाएं अतः एक बार उसने कहा-'थे श्रमण धूर्त और प्रेत-पिशाच रूप होते हैं। ये सुन्दर सुन्दर बालकों को उठाकर ले जाते हैं और फिर उनका मांस खाते हैं अत: तुम कभी भी उनके पास मत जाना।'
एक बार वे दोनों बालक खेलते-खेलते गांव के बाहर चले गए। कुछ साधु उसी मार्ग से आ रहे थे । वे दोनों बालक भयभीत हो गए और दौड़कर एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी वक्ष की सघन छाया में ठहरे। महत भर विश्राम करके सभी साधु एक मंडली में भोजन करने लगे। बालकों को माता-पिता की शिक्षा स्मृति में आयो किन्तु उन्होंने देखा कि मुनि के पात्र में मांस जैसी कोई वस्तु नहीं है। साधुओं को अपने घर जैसा सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय क्रम हुआ। उन्होंने सोचा-'अहो ! हमने ऐसे साध अन्यत्र भी कहीं देखे हैं।' चिंतन करते-करते उन्हें जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे प्रतिबुद्ध हो गए। नीचे उतरकर उन्होंने साधुओं को वंदना की
और ये अपने माता-पिता के पास आए। उन्होंने माता-पिता से कहा-'मनुष्य जीवन अनित्य और विघ्नबहुल है, आयु छोटी है अत: हम दीक्षा स्वीकार करने की अनुमति चाहते हैं।' पिता ने उनको अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया। वार्तालाप में पिता ने उन्हें ब्राह्मण संस्कृति से परिचित कराने का प्रयत्न किया किन्तु दोनों बालकों ने विस्तार से उन्हें श्रमण संस्कृति का ज्ञान कराया। अंत में पुरोहित भी संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या हेतु तैयार हो गया। उसने अपनी पत्नी को समझाया तो वह भी प्रतिबुद्ध हो गयीं। इस प्रकार वे चारों-माता-पिता और दोनों पुत्र प्रवजित हो गए।
उस समय राज्य का विधान था कि जिसके कोई उत्तराधिकारी नहीं होता, उसकी सम्पत्ति राजा की मान ली जाती थी। भृगु पुरोहित का सारा परिवार दीक्षित हो गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने सारी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा। रानी कमलावती को जब यह बात मालम पड़ी तो उसने राजा से कहा-'राजन् ! वमन को खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन लेना चाहते हैं, यह वमन पीने जैसा है।'
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रानी ने काम भोगों की असारता पर मार्मिक प्रकाश डाला। राजा का मन विरक्त हो उठा। राजा और रानी दोनों दीक्षित हो गए। कालान्तर में उन छहों को कैवल्य उत्पन्न हो गया और वे निकी प्राप्त हो गए।
५८. राजर्षि संजय
काम्पिल्य नगर में संजय नाम का राजा राज्य करता था। एक बार वह मृगया के लिए, निकला। उसके साथ चारों प्रकार की सेनाएं थीं। वह घोड़े पर सवार होकर केशर उद्यान में गया। वह मृगों को खदेड़ कर अपने साथ ले गया। एकत्रित मृगों को वह रसलोलुप राजा संत्रस्त कर मारने लगा। उस उद्यान में गर्दभालि अनगार ध्यान कर रहे थे। राजा ने सोचा यहां के मृगों को मारकर मैंने मुनि की आशातना की है। वह तत्काल घोड़े से उतरा और मुनि के पास गया। मुनि के पास चद्धाञ्जलि होकर वह बोला-' भगवन् ! मुझे क्षमा करें।' मुनि मौन धारण किए हुए थे अतः कुछ नहीं बोले । राजा भयभीत हो गया। उसने सोचा- 'यदि मुनि क्रुद्ध हो गए तो वे अपने तेज से समूचे विश्व को नष्ट कर देंगे।' राजा ने पुनः कहा- 'मैं कांपिल्यपुर का राजा हूं। मेरा नाम संजय है । मैं आपकी शरण में आता हूँ। आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं।'
मुनि शांत भाव से बोले - 'राजन्! मैं तुम्हें अभयदान देता हूं। तुम भी अभयदाता बनो। पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर इस जीवन में अपने मरण को जानकर भी तुम हिंसा में क्यों आसक्त बन रहे हो?' राजा ने मुनि की धर्मदेशना सुनी और विरक्त हो गया । समग्र वैभव युक्त राज्य को छोड़कर उसने प्रत्रज्या स्वीकार कर ली। अनेक वर्षो तक तपश्चरण कर राजर्थि संजय सिद्ध, बुद्ध और मुक्त
हो गए।
५९. मृगापुत्र
सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम की राजा राज्य करता था। उसकी अग्रमहिषी का नाम मृगावती था। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बलश्री रखा गया। वह लोक में मृगापुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह बुद्धिमान, वज्रऋषभसंहनन वाला तथा तद्भवभुक्तिगामी था। युवा होने पर उसका पाणिग्रहण हुआ ।
एक बार वह पलियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा क्रीड़ा कर रहा था । राजमार्ग से लोग आ जा रहे थे। स्थान-स्थान पर नृत्य संगीत की मंडलियां आयोजित थीं। एकाएक उसकी दृष्टि राजमार्ग पर मंदगति से चलते हुए निर्ग्रन्थ पर जा टिकीं। मुनि श्रुत के पारगामी, धीर गंभीर एवं तप, नियम और संयम के धारक थे। मुनि के तजीदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्रों तथा तपस्या से कृश शरीर को वह अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। मुनि को देखकर 'पहले भी मैंने ऐसा रूप कहीं देखा है ' - यह विचार करते-करते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। जातिस्मृति से उसको अतीत की सारी स्मृतियां ताजा हो गयीं। उसने जान लिया कि पूर्वभव में वह श्रमण था। उसका मन संसार
१. उनि ३५६- ६६, उशांटी प. ३९५, ३९६, उलुटी. १. २०४ २०५ । २. उनि ३८८-३९८ ।
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परिशिष्ट ६: कथाएं
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से विरक्त हो गया। वह अपने माता-पिता के पास आकर बद्धाञ्जलि बोला-'पिन जी ! मैं प्रजिन होना चाहता हूं। यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, दुःख और क्लेशों का भाजन है। इसे आज या कल छोड़ना ही होगा। इन काम-भोगों को मैं अभी छोड़ना चाहता हूं।'
माता-पिता ने अनेक तर्कों से उसे श्रामण्य जीवन की कठोरता से अवगत कराया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि इसका संकल्प दृढ़ है तो उन्होंने कहा-'पुत्र! तुम धन्य हो, जो सुख सामग्री की विद्यमानता में विरक्त बने हो। तुम सिंह की भाति अभिनिष्क्रमण कर सिंह-वृत्ति से ही श्रामण्य का पालन करना। धर्म की कामना रखते हुए कामभोगों से विरक्त होकर विहरण करना । वत्स! तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम, नियम, क्षोति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना।' संवेगजनित हर्ष, से बल श्री ने माता-पिता के आशीर्वाद को स्वीकार किया। पवित्रता से श्रामण्य का पालन किया और अंत में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन गया। ६०. समुद्रपाल
चंपा नगरी में पालित नामक सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान महावीर का अनुयायो था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसकी दृढ़ श्रद्धा थी। वह सामुद्रिक व्यापारी था अत: दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। एक बार वह यानपात्र पर आरूढ़ होकर घर से निकला। वह गणिम-सुपारी तथा धरिम-स्वर्ण आदि से भरे जहाज को लेकर पिहुंड नगर पहुंचा। क्रय-विक्रय हेतु वह वहां कई दिनों तक रहा। नगरवासियों से उसका परिचय बढ़ा और एक सेठ ने अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया।
___कुछ दिन वहां रहकर वह पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा। उसकी पत्नी गर्भवती हुई। समुद्र-यात्रा के बीच ही उसने एक सुन्दर और लक्षणोपेत बालक को जन्म दिया। समुद्र में जन्म लेने के कारण उसका नाम समुद्रपाल रखा गया। पालित श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा। शिशु समुद्रपाल पांच धायों के बीच बड़ा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया। यौवन में प्रवेश कर वह अत्यधिक सन्दर दिखाई देने लगा। यवावस्था में पिता ने रूपिणी नामक कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। यह स्त्रियों के चौंसठ गुणों से युक्त तथा देवांगना के समान सुन्दर थी। समुद्रपाल रूपिणी के साथ पुंडरीक भवन में क्रीडारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठा नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा कि राजपुरुष एक वध्य को वधभूमि में ले जा रहे हैं। वह व्यक्ति लाल वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में लाल कनेर की मालाएं थीं। यह सब देख कमार का मन संवेग से भर गया। 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।' इस चिंतन से उसका मार्ग स्पष्ट हो गया। संबोध प्राप्त कर समुद्रपाल उत्कृष्ट वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीर्ति वाले उस कुमार ने माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा कर्मों का क्षय कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। १. उनि.४०२-४१५ ।
२. उनि,४२५-३६॥
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६१. रथनैमि-राजीमती
एक सनिवेश में ग्रामाधिपति के पुत्र का नाप धन था। गामा को पुत्र धनवतो इसको पत्नी वर्ग। एक बार ग्रीष्मकाल के मध्याह्न में वे किसी प्रयोजनवश अरण्य में गए। वहां उन्होंने भूख प्यास एवं परिश्रम से व्याकुल, कृश शरीर वाले एक मुनि को दरखा. जो पश्च भूल गए थे और पृच्छित मे पृथ्वी पर पड़े थे। इस दयनीय अवस्था में मुनि को देखकर दम्पत्ति ने सोचा कि यह कोई महातपस्वी है । करुणा से ओत-प्रोत धन जल के ही साले को हरी ५: क. हवा को। धन ने मुनि के शरीर का मर्दन भी किया। जब मुनि स्वस्थ हुए तत्र धन उन्हें अपने गांव लेकर आ गया। आहार आदि से उनकी सेवा की। मुंनि भी उसे 'उपदेश देते हुए बोले-'इस दु:ख प्रचुर संसार में दूसरों का हित अवश्य करना चाहिए। यदि शक्य हो तो तुम मांस, मद्य, शिकार आदि व्यसनों से निवृत्त हो जाओ क्योंकि ये दोपबहुल हैं ।' मुनि ने और भी अनेक प्रकार के त्यागप्रत्याख्यान की बात कही। धन को धर्म में स्थिर करके साधु ने वहां से बिहार कर दिया। वह भी साधु के द्वारा बताए अनुष्ठान का विधिपूर्वक पालन करने लगा। उसने तपस्वी के प्रति वात्सल्य से महान् पुण्य का बंध किया।
कालान्तर में धन एवं उसकी पत्नी ने यतिधर्म स्वीकार कर लिया। दिवंगत होकर धन सौधर्म देवलोक में सामानिक देव बना और उसकी पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां दिव्य सुख का अनुभव करके देवलोक से च्यवन कर धन वैताढ्य में सूरतेज विद्याधर राजा का पुत्र बगा। उसका नाम चित्रगति रखा गया। धनवती भी सूर राजा की रत्नवती कन्या बनी। कालान्तर में वह उसी की पत्नी बनी। मुनि धर्म का पालन कर चित्रगति माहेन्द्र देवलोक में सामानिक देव बना तथा उसकी पत्नी
सकी मित्र बनी। वहां से च्यूत होकर वह अपराजित नाम का राजा बना और वह उसकी पत्नो बनी, जिसका नाम प्रियमती था। श्रमण धर्म का पालन कर वे आरणक कल्प में देव बने और पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां से च्युत होकर वह शंख नामक राजा बना और वह यशोमती नाम से उसकी पत्नी बनी। शंख ने मुनि धर्म स्वीकार किया। अर्हद्-भक्ति आदि हेतु से उसने तीर्थंकर नाम गोत्र का बंधन किया तथा अपराजित विमान में उत्पन्न हुए। यशोमती भी साधुधर्म का पालन करने से वहीं उत्पन्न हुई।
सोरियपुर नगर में दश दशारों में ज्येष्ठ राजा समुद्रविजय राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र थे-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेपि और दृढ़नेमि । कार्तिक कृष्णा बारस को धन का जीव शिवा रानी के गर्भ में आया । गर्भकाल में माता ने 14 महास्वप्न देखे। उचित समय पर श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन शिषा देवी ने पुत्र-रत्न को जन्म दिया। दिग-कुमारियों ने जन्म-अभिषेक महोत्सव मनाया तथा राजा समुद्रविजब ने वर्धापनक समारोह का आयोजन किया। स्वप्न में रिष्ट रत्नमय नैमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। अरिष्टनेमि आठ वर्ष के हुए। इसी बीच कृष्ण ने कंस का वध कर दिया। महाराज जरासंध यादवों पर कुपित हो गए। जरासंध के भय से सभी यादव पश्चिमी समुद्र तट पर चले गए। वहां केशव द्वारा आराधित वैश्रमण देव द्वारा निर्मित, स्वर्णमयी, बारह योजन लम्बी एवं नौ योजन चौड़ी द्वारवती नगरी में वे
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
सुखपूर्वक रहने लगे। कालान्तर में बलराम और केशव ने जरासंघ को मार दिया और वे अर्धभरत के राजा बन गए । अरिष्टनेमि युवा होने पर भी विषयों से पराङ्मुख रहते थे। वे सभी यादवों के प्रिय थे। एक बार आंटी कौतुक श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुंच गए। वहां उन्होंने अनेक देवाधिष्ठित आयुध देखें । अरिष्टनेभि ने दिव्य कालपृष्ठ उठाया। उसे देखकर आयुधशाला का रक्षक 'श्रीला ' कुमार ! यह क्या? स्वयंभूरमण समुद्र को भुजाओं से तैरने की भांति इस धनुष्य का संचालन आपके लिए अशक्य अनुष्ठान है। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तीनों लोक में कोई भी इस धनुष्य को संचालित करने में समर्थ नहीं है। हंसते हुए अरिष्टनेमि ने आयुधशाला - पालक की अवहेलना करते हुए उस अनुष की उठाकर प्रत्यंचा को आस्फालित किया। उसकी ध्वनि से पृथ्वी कांप उठी । पर्वत हिलने लगे। जलचर, थलचर और खेचर आदि पशु-पक्षी संत्रस्त होकर इधर उधर पलायन करने लगे। आयुधशाला रक्षक त्रिमित हो गया। रक्षकों द्वारा निषेध करने पर भी अरिष्टनेमि ने कालपृष्ठ धनुष को नीचे रखकर पञ्चजन्य शंख हाथ में उठाया और उसे कुतूहलवश बजा डाला। शंख के शब्द से सारा संसार बहरा जैसा हरे गया। देवता, असुर तथा मनुष्यों के हृदय भी कंपित हो गये । विशेषत: द्वारका नगरी सम्पूर्ण रूप से कांप उठी। कृष्ण ने सोचा- 'यह प्रलयंकारी ध्वनि कहां से उठी है?" आयुधपाल ने सारी बात श्रीकृष्ण को बताई। श्रीकृष्ण विस्मित हो गए। अरिष्टनमि के सामर्थ्य को जानकर श्रीकृष्ण ने बलदेव से कहा- यह बालक होते हुए भी इतना शक्ति सम्पन्न है. जब यह बड़ा होगा तो राज्य को खतरा हो जाएगा।' बलदेव ने कहा- 'तुम्हारी वह चिंता व्यर्थ है । केवली भगवान् ने कहा हैं कि अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर और तुम नौंवे वासुदेव बनोगे।'
एक बार श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि से उद्यान में मिले और बोले-'कुमार! अपने-अपने बल की परीक्षा के लिए हम बाहुयुद्ध करें।' अरिष्टनेमि ने कहा-' इस निंदनीय बाहुयुद्ध को करने से क्या लाभ है? हम बागयुद्ध करेंगे। दूसरी बात यह भी है कि मैं आपसे छोटा हूं, यदि आपको हरा दूंगा तो इससे आपकी अपकीर्ति होगी। श्रीकृष्ण ने कहा- 'मनोरंजन के लिए किए जाने वाले युद्ध में कैसी अपकीर्ति?' अरिष्टनेमि ने अपनी वाम बाहु फैलाई और कहा कि यदि तुम इसे झुका दोगे तो ' तुम्म जीत जाओगे। श्रीकृष्ण बाहु को आंदोलित करना तो दूर किंचित् मात्र भी हिला नहीं सके। श्रीकृष्ण की राज्यहरण की चिंता दूर हो गयी ।
यौवन प्राप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण ने समुद्रविजय को कहा- 'कुमार का शीघ्र विवाह कर दिया जाए, जिससे यह शीघ्र ही भोगों में फंस जाए।' रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ने भी यथावसर कुमार से कहा- ' त्रिभुवन में आप जैसा रूप किसी का नहीं है। निरुपम सौभाग्य से युक्त स्वस्थ शरीर है अतः दुर्लभ मनुष्य जन्म एवं यौवन का लाभ लेने के लिए विवाह करो।' नेमिनाथ ने हंसते हुए कहा- 'तुच्छ काम भोगों से मनुष्यजन्म की सार्थकता नहीं होती । एकान्तशुद्ध, निष्कलंक एवं निरुपमसुख वाली शाश्वती सिद्धि से ही जीवन की सफलता है। मैं सिद्धि के लिए ही यत्न करूंगा।' श्री कृष्ण ने कहा - 'कुमार! ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने भी पहले विवाह किया। सन्तानोत्पत्ति के पश्चात् पश्चिम वय में प्रव्रजित होकर मोक्ष को प्राप्त किया अत: तुम भी दारसंग्रह करके
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नियुक्तिपंचक
दशारचक्र के मनोरथ को पूरा करो।' अरिष्टनेमि ने भवितव्यता जानकर श्रीकृष्ण की बात स्वीकार कर ली । दशारचक्र इस बात को मुनकर हर्पित हो गए। उन्होंने श्रीकृष्णा से कहा-'कुमार के अनुरूप कन्या की अन्त्रेपणा करो।'
भोज कुल के राजन्य उग्रसेन को पुत्री राजीमतो को अरिष्टनेमि के योग्य समझ विवाह का प्रस्ताव रखा। मूल धनवती का जीव अपराजित विमान से च्युत होकर राजीमती के रूप में उत्पन्न हुआ था। अनुरूप संबंध देखकर उग्रसेन ने अनुग्रह मानकर विवाह की स्वीकृति दे दी। दोनों कुलों में वर्धापन हआ। शुभ महल में विवाह-महोत्सव का आयोजन हुआ। विवाह से पूर्व के सारे कार्य सम्पन्न हुए। राजीपती को अलंकृत किया गया। कुमार भी अलंकृत होकर बारात के साथ मत हाथी पर आरूढ़ हुए। बलदेव, वासुदेव के साथ सभी दशार एकत्रित हुए। बाजे बजने लगे। शंख-ध्वनि होने लगी तथा मंगलदीप जलाए गए। चंवर डुलने लगे। जनसमूह के साथ वरयात्रा विवाह-मंडप के पास आई। राजीमती भी निगुनार को देखकर हावार हो गया।
उसी समय अरिष्टनेमि के कानों में क्रन्दन भरे शब्द सुनाई पड़े। उन्होंने सारथी से पूछा-'ये करुण क्रंदन युक्त शब्द कहां से आ रहे हैं?' सारथी ने कहा-'देव ! ये करुणा भरे शब्द पशुओं के हैं। ये आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले अतिथियों के लिए भोज्य बनेंगे।' अरिष्टनेमि ने कहा- यह कैसा आनन्द ! जहां हजारों मूक और दीन निरपराध प्राणियों का वध किया जाता है। ऐसे विवाह से क्या जो संसार- परिभ्रमण का हेतु बनता है?' ऐसा कहकर अरिष्टनेमि ने हाथी को अपने निवास स्थान की ओर मोड दिया। सारथी ने नेमिकुमार के अभिप्राय को जानकर प्राणियों को मुक्त कर दिया। नेमिकुमार को विरक्त और मुड़ते देखकर राजीमती मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सखियों ने ठण्डा जल छिड़का, पंखा झला। चेतना प्राप्त करके राजीमती विलाप करने लगी। सखियों ने समझाया कि विलाप करना व्यर्थ है अतः तुम धैर्य धारण करो। राजीमती बोली-'सखियों! आज स्वप्न में देव, दानवों से घिरा हुआ एक दिव्य पुरुष द्वार पर खड़ा दिखाई दिया जो ऐरावत हाथी पर आरूढ़ था। तत्क्षण वह सुपेरु पर्वत पर चढ़ गया और सिंहासन पर बैठ गया। अनेक लोग वहां आए. मैं भी वहां गयीं। वह शारीरिक और मानसिक द:खों को दूर करने वाले कल्पवक्ष के चार-चार फल सबको दे रहा था। मैंने कहा-'भगवान् ! मुझे भी ये फल दें। मुझे भी उन्होंने वे फल दिए। इसके बाद मेरी नींद खुल गयी । सखियों ने कहा-'प्रिय सखी! वतर्मान में कटु लगने पर भी यह स्वप्न परिणाम में सुन्दर फल देने वाला है।'
इधर इन्द्र का आसन चलित हुआ। लोकान्तिक देवों ने अरिष्टनेमि को प्रतिबोध दिया कि सब प्राणियों के हित के लिए आप तीर्थ का प्रवर्तन करें । नेमिकुमार अपने माता-पिता के पास गए
और प्रव्रज्या की आज्ञा मांगी। माता-पिता मोह से विलाप करने लगे। राजीमती के साथ पाणिग्रहण करने का आग्रह किया। अरिष्टनेमि ने अपने माता-पिता को समझाते हुए कहा—'तात ! आप मानसिक संताप न करें। यह यौवन अस्थिर है, ऋद्धियां चंचल हैं, संध्याघ्र के समान पिता, पुत्र एवं स्वजनों का संयोग क्षणभंगुर है अतः मुझे संसार रूपी अग्नि से बाहर निकलने की अनुमति प्रदान करें।' दशारचक्र ने बद्धाञ्जलि प्रार्थना की-'कुमार! कुछ समय प्रतीक्षा करो उसके बाद तुम प्रव्रज्या
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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स्वीकार कर लेना।' अरिष्टनेमि ने सांवत्सरिक महादान के निमित्त से एक वर्ष तक घर में रहना स्वीकार कर लिया। नेमिकुमार ने महादान प्रारम्भ कर दिया।
___ एक वर्ष पूरा होने पर माता-पिता की आज्ञा से श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सहस्राम्र वन के उद्यान में देव और मनुष्यों की परिषद् में बेले की तपस्या में अरिष्टनेमि ने स्वयं पंचमुष्टि लोच किया। वे तीन सौ वर्ष तक अगारवास में रहे।
अब रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगे। उन्होंने कहा-'सुतनु ! तुम विषाद मत करो। अरिष्टनेमि तो वीतराग हैं। वे विषयानुबंध करना नहीं चाहते। अब तुम मुझे स्वीकार करो। मैं जीवन भर तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा।' राजीमती ने उत्तर देते हुए कहा-'यद्यपि मैं नेमिनाथ के द्वारा परित्यक्ता हूं फिर भी मैं उनको नहीं छोड़ेगी। मैं उनको शिष्या बनना चाहती हूं इसलिए तुम इस अनुबंध का त्याग कर दो।'
कुछ दिनों बाद रथनेमि ने पुन: भोगों की प्रार्थना की। राजीमती का मन काम-भोगों से निर्विण्ण हो चुका था। उसे रथनेमि की प्रार्थना अनुचित लगी। उसे प्रतिबोध देने के लिए राजीमती ने मधु-घृत संयुक्त पेय पीया। फिर उसके सामने मदनफल खाकर वमन किया। वमन को एक स्वर्ण कटोरे में भर रथनेमि को उसे पीने के लिए कहा। रथनेमि ने कहा-'वमन किए हुए को मैं कैसे पीऊं?' राजीमती ने कहा-'क्या तुम इस बात को वास्तविक रूप में जानते हो?' रथनेमि ने कहा-'इस बात को तो एक बालक भी जानता है।' राजीमती ने कहा-'यदि यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं। मुझे स्वीकार करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें जो वान्त वस्तु को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।' रथनेमि जागृत होकर आसक्ति से उपरत हो गए। राजीमती दीक्षा की भावना से विविध प्रकार की तपस्या से शरीर को कृश करने लगी।
भगवान् अरिष्टनेमि ५४ दिन अन्यत्र विचरण करके रेवन्तगिरी के सहस्राम्र वन के उद्यान में आए। आसोज की अमावस्या को शुभ अध्यवसायों द्वारा तेले की तपस्या में भगवान् को कैवल्य उत्पन्न हो गया। राजीमती ने स्वप्न में जिस दिव्य पुरुष को चार फल देते हुए देखा, वह स्वप्न साकार हो गया क्योंकि उसे कल्पवृक्ष के चार फलों की भांति चार महाव्रत (चातुर्याम धर्म) मिल गए।
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि रेवतक पर्वत पर समवसृत थे। साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् को वंदना करने आई। अचानक रास्ते में भयंकर वर्षा प्रारम्भ हो गयो। साथ वाली साध्वियां इधर-उधर गुफाओं में चली गयीं । राजीमती भी एक शून्य गुफा में प्रविष्ट हुई। वर्षा के कारण नियतिवश मुनि रथनेमि पहले से हो वहां बैठे हुए थे। अंधकार के कारण राजीमतो को मुनि दिखाई नहीं दिए । राजीमती ने सुखाने के लिए अपने कपड़े फैलाए। राजीमती का निरावरण शरीर देखकर रथनेमि का मन विचलित हो गया। अचानक राजीमती ने रथनेमि को देख लिया। शीघ्र ही बाहों से अपने शरीर को ढंकती हुई वह वहीं बैठ गई। रथनेमि ने कहा- मैं तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त हूँ। तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता अतः अनुग्रह करके मुझे स्वीकार करो और मेरी मनोकामना पूर्ण करो। फिर मानसिक समाधि होने पर हम दोनों पुनः संयम मार्ग स्वीकार कर लेंगे।' राजीमती ने साहसपूर्ण शब्दों में कहा-'आप उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हैं। व्रत का इस प्रकार
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नियुक्तिपंचक
भंग करना क्या आपके लिए उचित है? महापुरुष अपना जीवन छोड़ देते हैं लेकिन प्रतिज्ञा का लोप नहीं करते। इसलिए मन में विषयों के दारुण विपाकों का चिंतन करके जीवन की अस्थिरता का चिंतन करो।' राजीमती के प्रतिबोध से रथनेमि संबुद्ध हो गया। उपकारी मानकर राजीमती का अभिनंदन कर वह अपने मांडलिक साधुओं के पास चला गया। राजीमती भी आर्यिकाओं के पास चली गयी। अरिष्टनेमि भगवान ने ५४ दिन कम ७०० वर्ष तक केवली पर्याय का पालन किया। अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोधित करके एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके आप शुक्ल अष्टमी की रेवतपर्वत पर एक मास की तपस्या में पांच सौ छत्तीस श्रगणों के साथ सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। रथनेगि और राजीमती भी सिद्ध हो गए।
६२. जयघोष - विजयघोष
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वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नामक दो ब्राह्मण काश्यपगोत्र थे। ये पट्कर्म में रत तथा चार वेदों के अभ्येता थे। वे दोनों युगल रूप में जन्मे। एक बार मुनि स्नान हेतु गंगा नदी के तट पर गया। वहां उसने सर्प द्वारा मंदक को निगलते देखा। इतने में मागरि कुरर पक्षी वहां आया और सर्प को खाने लगा। कुरर द्वारा पकड़े जाने पर भी सांप मेंड़क को खाने लगा। कम्पायमान सर्प को खाने में कुरर पक्षी आसक्त था। आपस के घात-प्रत्यावात को देखकर जयभोप मुनि प्रतिबुद्ध हो गया। गंगा को पार करके वह साधुओं के पास गया और वहां श्रमण बन गया । एक बार जयघोष सुनिने एकरात्री रतिर स्वीपर का विहरण करते हुए वे बनारस पहुंचे। उनके मासखमण का पारणा था अतः भिक्षा के लिए वे नगर में गए। उस दिन ब्राह्मण विजयघोष ने यज्ञ प्रारम्भ किया। दूर-दूर से बुलाए गए ब्राह्मणों के लिए विविध प्रकार की भोज्य सामग्री तैयार की गयी। मुनि जयघोष भिक्षा हेतु यज्ञवाट में पहुंचे। वहां उन्होंने भिक्षा की याचना की। विजयघोष ने कहा- तुम वेदों और यज्ञ - विधि को नहीं जानते अतः तुम्हें भिक्षा नहीं मिलेगो ।' जयघोष मुनि ने यह बात सुनी। भिक्षा हेतु निषेध करने पर भी मुनि समचित्त रहे। उन्होंने भिक्षा हेतु नहीं अपितु याजकों को सही ज्ञान कराने के लिए कई नए तथ्य प्रकट किए। ब्राह्मण शब्द के नए अर्थ किए। जयघोष की प्रेरणा से विजयघोष भी सम्बुद्ध हो गया और उनके पास प्रब्रजित हो गया।
आचारांग - नियुक्ति की कथाएं
१. जातिस्मरण ( क )
बसन्तपुर नगर का राजा जितशत्रु अपने पुत्र धर्मरुचि को राज्य सौंपकर तापस दीक्षा लेना चाहता था। धर्मरुचि ने माँ से पूछा- माँ ! पिताजी राज्यश्री को क्यों छोड़ रहे हैं ?' मां ने कहा- 'राज्य नरक आदि दुःखों का हेतुभूत हैं। इसे छोड़ तुम्हारे पिता शाश्वत सुख पाना चाहते हैं।' पुत्र ने कहा- 'यदि यह यथार्थ है तो मुझे इसमें क्यों फंसाया जा रहा है? मैं भी प्रब्रजित हो जाऊंगा।' वह
१. उनि ४४० - ४४, उसुटो, प. २७७-८२ ।
२. उनि ४६०-७६, उसुटी.प. ३०५ ।
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पारिष्ट ६ : कथाएं
पितः के साथ प्रजित होकर तापस बन गया और तापस क्रियाओं का यथावत् पालन करने लगा। एक दिन एक तापम ने आश्रम में घोषणा की कि कल अनाकुट्टी होगी इसलिए आज ही समिधा कुग्नुम, कन्द, फल एल आदि ले आएं। यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने अपने पिता तापस से पूछा-'तात : यह अनाकुटी क्या है? पिता तापस ने कहा-'अमावस्त्या आदि पन दिनों में कन्द फल आदि का छंदन नहीं करना चाहिए। यह हिंसायुक्त क्रिया है।' यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने सोचा कि यदि सदा के लिए अनाकुट्टी की जाए तो वह श्रेष्ठ है।
एक बार अमावस्या के दिन आश्रम के निकटवर्ती मार्ग से विहार करते हुए साधुओं को उसने देखा। उनको देखकर धर्मरचि नाग ने एला...' मा उपज अप अगः नहीं है? आज आप अटवी में क्यों जा रहे हैं? मुनि बोले-'हमारे तो यावज्जीवन ही अनाकुट्टी है।' यह कहकर मुनि आगे प्रस्थान कर गए। तापस धर्मरुवि ईहा, अपोह और विमर्श में निमग्न हो गया। चिंतन करतेकरते उसे जातिरमृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने जान लिया कि पूर्वजन्म में वह पापण्य का पालन कर देवलोक में सखों का अनभव कर यहां उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार उसने अपने जातिस्मरण ज्ञान से विशिष्ट दिशा से आगमन की बात जान ली। २. जातिस्मरण (ख)
गणधर गौतम ने भगवान से पूछा-'मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?' भगवान ने कहा-'तुम्हारा मुझ पर अतीव स्नेह है, इसलिए मैंनल्य का लाभ नहीं हो रहा है।' गौतम ने पूछा-'यह स्नेह क्यों है?' भगवान ने कहा-'गौतम अनेक जन्म से हम दोनों का संबंध रहा है, यही स्नेह का कारण है।' गौतम को तब विशिष्ट दिशा में आगमन का ज्ञान हो गया। यह तीर्थंकर के कथन से होने वाला जान हैं? ३. जातिस्मरण (ग)
मल्लिकुमारी ने विवाह के लिए समागत छह राजपुत्रों को जन्मान्तर का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा-'हम सभी एक साथ प्रजित हुए थे और एक साथ जयन्त विमान देवलोक में सुखानुभव किया था।' यह सुनकर वे छहों प्रतियुद्ध हो गए और उन्हें विशिष्ट दिशा से आगमन का विज्ञान प्राप्त हो गया। यह अन्य श्रवण से उत्पन्न ज्ञान का उदाहरण है।' ४. दृष्टि का महत्व
उदयसेन राजा के वीरसेन और सूरसेन नामक दो पुत्र थे। वीरसेन संभा था। उसने गान्धर्व (गायन) आदि कलाएं सीख लीं। सूरसेन धनुर्विद्या आदि कलाओं में निपुण हो गया तथा लोक में उसकी प्रसिद्धि हो गयी : यह सुनकर वीरसेन ने राजा को निवेदन किया कि मैं भी धनुर्विद्या का अभ्यास करूंगा। राजा ने उसके आग्रह को देखकर धनुर्विद्या सीखने की आज्ञा दे दी। उपयुक्त उपाध्याय के उपदेश तथा अपनी प्रज्ञा के अतिशय से वह शब्दवेधी धनुर्धर बन गया। युवावस्था प्राप्त होने पर उसने राजा से शत्रु--सेना के साथ युद्ध की आज्ञा मांगी। राजा ने अनुमति दे दी। वह शत्रु १-३.आनि.६४, आदी.पृ. १४
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नियुक्तिपंचक
सेना के साथ लड़ने निकल पड़ा। शत्रु सैनिकों ने बिना हो हल्ला किए उसे अंधा समझकर पकड़ लिया। वह शब्दवेधी धनुर्धर होने पर भी अंधत्व के कारण कुछ नहीं कर सका। सूरसेन को यह ज्ञात हुआ। उसने राजा से आज्ञा प्राप्त की और अपनी धनुर्विद्या के बल से शत्रु सेना को अवष्टम्भिव कर वीरसेन को मुक्त करा लिया। ५. सकुंडल या वयणं न व त्ति
पाटलिपुत्र नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम रोहगुप्त था। वह जैन दर्शन का अच्छा ज्ञाता था। एक बार राजा जब सभामण्डप में उपस्थित हुआ तब उसने सभासदों के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित किया कि कौन-सा धर्प सबसे अच्छा है? प्रश्न के उत्तर में सभी ने अपने-अपने धर्मों की प्रशंसा की। मंत्री अभी तक चुप बैठा था। राजा ने मंत्री से पूछा-'मंत्रिवर! आप अभी तक खुप कैसे बैठे हैं?' मंत्री ने कहा--'राजन्! जिस व्यक्ति को जो धर्म अच्छा लगता है, वह उस धर्म की प्रशंसा करेगा। इसलिए इससे किसी भी धर्म को अच्छाई का निर्णय नहीं किया जा सकता। यदि आपको इस जिज्ञासा का समाधान खोजना है तो स्वयं इसकी परीक्षा करें।' राजा को यह सुझाव पसंद आया। उसने "मकुंडलं वा वयणं न व ति" संस्कृत के इस एक चरण को लिखवाकर नगर के मध्य लटका दिया। इसके बाद सभी धर्मावलम्बियों को सूचित किया कि जो इस चरण की पूर्ति करेगा उसको राजा यथेप्सित पुरस्कार देगा तथा उसका भक्त बन जाएगा। सभी धर्मावलम्बी सातवें दिन राजा के समक्ष समस्या-पूर्ति को लेकर उपस्थित हुए। सर्वप्रथम परिव्राजक ने बोलना शुरू किया
भिक्खं पविडेण मएऽज्ज दिद, पमदामुहं कमलविसालनेत्तं ।
वक्खित्तचित्तेण न सुटू नाय, सकुंडलं वा वयण न व त्ति॥ राजा ने इस गाथा को सुनकर कहा कि यह वीतरागता को सूचक नहीं है अत: उसका तिरस्कार करके उसे बाहर निकाल दिया। उसके बाद तापस ने अपनी समस्यापूर्ति पढ़नी शुरू की
फलोदएणं हि गिहं पविट्ठो, तत्थासणत्था पमदा मि दिहा।
वक्खित्तचित्तेण न सुटु नार्य, सर्कुसल वा वयणं न व ति॥ उसके पश्चात् बौद्ध भिक्षु ने अपनी बात कहनी प्रारम्भ की
मालाविहारम्मि मएइज्ज दिवा, उवासिया कंचणभूसियंगी।
पक्खित्तचित्तेण न सुट्ट नायं, सकुंडलं वा वयर्ण न व ति॥ इस प्रकार और भी अनेक धर्मावलम्बियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से पाद पूर्ति की। जैन मुनि वहां उपस्थित नहीं थे। राजा ने अमात्य से पूछा कि जैन भिक्षु यहां उपस्थित क्यों नहीं हुए? मंत्री ने निवेदन किया-'राजन् ! मैं खोजकर आपके समक्ष जैन साधुओं को प्रस्तुत करूंगा।' मंत्री ने राजकर्मचारियों को आदेश दिया कि जैन मुनियों को खोजो। उसी समय एक आरतमुनि भिक्षा के १. आनि.२२०, आटी.पृ. ११८ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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लिए प्रविष्ट हुआ। बालमुनि को बद चरा बताया गया। उसने समस्या की पूर्ति करते हुए कहा
खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स।
किं मज्ज्ञ एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं न व ति॥ इस गाथा को सुनकर राजा मुनि की शांति और वीतरागता से बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने बालमुनि को निवेदन किया कि आप मुझे धर्म की शिक्षा दें। बालमुनि ने दो मिट्टी के गोले भीत को और फेंके।
राजा ने जिज्ञासा की कि इसका तात्पर्य क्या है? मुनि ने राजा को प्रतिबोधित करते हुए कहा-'राजन् ! मिट्टी के दो गोले सूखे और गीले को यदि भीत पर फेंका जाए तो गीला वहां चिपक जायेगा लेकिन सूखा गोला वापिस नीचे गिर जाएगा। इसी प्रकार कामभोगों के कीचड़ से जिसका मन आर्द्र है, वह कर्म-परमाणुओं को निरन्तर ग्रहण करता रहता है। इसके विपरीत जो वीतराग है, वह सूखे गोले की भांति कर्मरजों से लिप्त नहीं होता। धर्म का मर्म समझकर राजा ने श्रावकव्रत स्वीकार किए। धर्मबोध देकर मुनि वापिस लौट गए।
उसी समय मंत्री रोहगुस ने राजा से कहा-'राजन् ! जितने भी अन्य धर्मावलम्बियों ने समस्या-पर्ति की. उन सबके चित्त विक्षिप्त थे। किसी का भिक्षा के कारण तथा किसी का उपासिका के कारण क्योंकि उनकी वीतरागता की साधना नहीं सधी थी। जैन साधु वीतरागता की साधना करते हैं, परमार्थतः यही मोक्ष का मार्ग है।' राजा को अपने प्रश्न का समाधान मिल गया।' ६. आर्य वज्र का अनशन
एक बार आर्य वज्र स्वामी अपने कानों पर झूठ का गांठिया रखकर भूल गए। उन्हें अपने प्रमाद की अवगति हुई। उन्होंने जान लिया कि मरण सन्निकट है। वे उस समय शारीरिक शक्ति से सम्पन्न थे फिर भी उन्होंने "रथावर्त शिखरिणी" नामक प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर पंडितमरण का वरण कर लिया। ७. आर्य समुद्र का अनशन
आर्य समुद्र शरीर से कृश थे। जब उन्होंने देखा कि वे जंघाबल से क्षीण हो गए हैं तथा शरीर से जो लाभ होना चाहिए वह नहीं हो रहा है तन्त्र उन्होंने शरीर को छोड़ने की इच्छा से गच्छ में ही उपाश्रय के एक निश्चित स्थान में प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। ८. आचार्य तोसलि का अनशन
तोसलि देश में पैंसे बहुत होती थीं। एक बार आचार्य तोसलि वन्य भैंसों से उपद्रुत हुए। उनसे छुटकारा न देखकर आचार्य ने चारों आहार का परित्याग कर दिया और व्याघातिम मरण को प्राप्त किया। १. आनि.२२८-३४, आटी.पृ. १२५ ।
२. अनि.२८३, आटी-पृ. १७५ / ३. आनि.२८४. आटी.पृ. १७५ ।
४. आनि.२८५, आटी.पृ. १७५
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नियुक्तिपंचक
९. आचार्य की तीक्ष्ण आज्ञा
एक मुनि चारह वर्ष को संलेखना कर आचार्य के पास अनशन की आज्ञा लेने आया। आचार्य ने कहा-'कुछ काल तक और संलेखना करो।' साधु कुद्ध हो गया। उसने अपनी अंगुली को तोड़ कर दिखाते हुए कहा-'मेरे में क्या दोष है?' आचार्य बोले कि मेरे कहते ही तुमने अंगुली तोड़ दी, यही दोष है। देखो, एक राजा था। उसकी आँखें निस्पन्द रहती थीं। पलकें स्थिर रहती थीं। वैद्यों ने चिकित्सा की पर आंखें स्वस्थ नहीं हुईं। एक दिन एक वैद्य आकर बोला-'राजन्! मैं आपको स्वस्थ कर दंगा यदि आप वेदना को सहन कर सकें तथा वेदना से पीड़ित होकर मेरी घात करने की आज्ञा न दें। राजा ने इसे स्वीकार कर लिया। वैद्य ने चिकित्सा को। राजा भयंकर वेदना से अभिभूत हो गया। उसने जैद्य को मार डालन को आज्ञा दे दी। वह राजा की तीक्ष्ण आज्ञा थी। कुछ क्षणों बाद वेदना शांत हुई और राजा को आंखें स्वस्थ हो गई। राजा ने वैद्य की प्रशंसा की और अनेक उपहार देकर उसे प्रसन्न किया। इसी प्रकार आचार्य की प्रेरणात्मक आज्ञा पहले तीक्षण लगती है किन्तु परमार्थत: वह शीतल होती है।' १०. द्रव्यशय्या
एक अटवी में उत्कल और कलिंग नामक दो भाई रहते थे। वे चोरी से अपना निर्वाह करते थे। उनकी भगिनी का नाम वल्गुमती था। एक बार वहां गौतम नामक नैमित्तिक आया। दोनों भाइयों ने उसका स्वागत-सत्कार किया। वल्गुपती ने कहा-'मुझे लगता है कि इस नैमित्तिक का यहां रहना निरापद नहीं है। यह कभी न कभी इस पल्ली के विनाश का कारण बनेगा, इसलिए यह उचित है कि इसको यहां से निकाल दिया जाए। भगिनी की बात मानकर भाइयों ने उस नैमित्तिक को वहां से निकाल दिया। नैमित्तिक गौतम वल्गुमती पर रुष्ट हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि मेरा नाम गौतम नहीं है यदि मैं इस बल्गुमती के पेट को चीर कर उसके शव पर न सोऊं । वह गौतम वहाँ की भूमि में सरसों के दाने बो कर चला गया। वर्षाकाल में सरसों का पौधा विकसित हुआ। गौतम ने किसी दूसरे राजा को प्रेरित करके उस पल्ली को लूट लिया और पूरी पल्लो को जला डाला । गौतम ने वल्गुमती के पेट को चीर डाला। उसके प्राण अभी अवशिष्ट थे। वह उस वल्गुमती की देह पर सो गया। यह सचित्त द्रव्य शय्या है।
सूत्रकृतांग-नियुक्ति की कथाएं
१. अभयकुमार बंदी बना
महाराज चंडप्रयोल अभयकुमार को बंदी बनाना चाहते थे। उन्होंने इस कार्य के लिए एक गणिका को 'ना । गणिक ने सारी योजना बनाई। इस कार्य के लिए उसने शहर की दो सुन्दर और १. आनि.२८६. अटी.. १७६ ।
२. आनि.३२३, आटी.पृ. २४०
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परिशिष्ट : कथाएं
चतुर षोडशियों को तैयार किया। वे तीनों राजगृह में आईं और अपने आपको धर्मनिष्ठ श्राविकाओं के रूप में विख्यात कर दिया। प्रतिदिन मुनिदर्शन. धर्मश्रवण तथा अन्यान्य धार्मिक क्रियाकारों को करने का प्रदर्शन कर जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अभयकुमार भी उनकी धार्मिक क्रियाओं और तत्वज्ञान की प्रवणता को देखकर आकृष्ट हो गया।
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एक दिन अभयकुमार ने तीनों को भांजन के लिए आमन्त्रित किया। वे तीनों अभयकुमार के यहां गयीं। भोजन से निवृत्त होकर उन्होंने धार्मिक चच्ां की उन दोनों ने भी अभयकुमार को अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया। अभयकुमार टीक समय पर उनके निवास स्थान पर पहुंचा। तोनों ने भाव भरा स्वागत किया, सुस्वादु भोजन करवाया और चन्द्रहार सुरा के मिश्रण से निष्पन्न मधुर पेय पिलाया। मंदिरा के प्रभाव से अभयकुमार को तत्काल मूर्च्छा एवं नींद आने लगी। सुकोमल शब्या तैयार थी। अभयकुमार उस पर सो गया। वह बेसुध सा हो गया। गणिकाएं उसे रथ में डालकर अवन्ती ले गयीं। उसे प्रद्योत को सौंप कर गणिकाएं अपने घर चली गयीं। अभयकुमार का बुद्धिबल पराजित हो गया।'
२. चंडप्रद्योत
अभवकुमार चंडप्रद्योत से बदला लेना चाहता था। चंडप्रद्योत वीर था। उसके आमने सामने लड़कर पनि कर पाना असंभव था। पयकुमार ने गुप्त योजना बनाई। वह बनिए का रूप बनाकर उज्जयिनी आया। दो सुन्दर गणिकाएं उसके साथ में थीं। बाजार में एक विशाल मकान किराए पर लेकर वह वहीं रहने लगा। चंडप्रद्योत प्रतिदिन उसी मार्ग से अता जाता था। उस समय वे स्त्रियां गवाक्ष में बैठकर हावभाव दिखाती थीं। चंडप्रद्योत उनके प्रति आकृष्ट हुआ और अपनी दासी के साथ प्रणय प्रस्ताव भेजा। एक दो बार वह दासी निराश लौट आई। तीसरी बार गणिकाओं ने महाराज को अपने घर आने का निमन्त्रण दे दिया।
इधर अभयकुमार ने एक व्यक्ति को अपना भाई बनाकर उसका नाम प्रद्योत रख दिया। उसने उसे पागल का अभिनय करने का प्रशिक्षण दिया। लोगों में यह प्रचारित कर दिया कि यह पागल है और सदा कहता है कि मैं प्रधीत राजा हूं, मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जाया जा रहा है।
निर्धारित दिन के अपराह्न में चंडप्रद्योत गणिका के द्वार पर आया। गणिका ने स्वागत किया। चंडप्रद्यांत एक पलंग पर लेट गया। इतने में ही अभय के सुभटों ने उसे धर दबोचा। उसे रस्सी से बांधकर चार आदमी अपने कंधों पर उठाकर बीच बाजार से ले चले। उसका मुँह ढंका हुआ था। वह चिल्ला रहा था, 'मुझे बचाओ। मैं प्रद्योत राजा हूं। मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जा रहे हैं। लोग इस चिल्लाहट को सुनने के आदि से हो गए थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया।
उसे चंदो अवस्था में लाकर अभयकुमार ने श्रेणिक को साँप दिया। प्रद्योत का शरीरबल परास्त हो गया।" १. सूनि ५७ ।
२. सूनि ५७ ।
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नियुक्तिपंचक
३. कूलबाल
महाराज अजातशत्रु वैशाली के प्राकारों को भंग करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी प्रतिज्ञा सफल नहीं हो रही थी। एक व्यन्तरी ने महाराज से कहा-'राजन् ! यदि मागधिका वेश्या तपस्वी कूलबाल को अपने फंदे में फंसा ले तो आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है।' भागधिका वेश्या चंपा में रहती थी। महाराजा अजातशत्रु ने उसे बुला भेजा और अपनी बात बताई । वेश्या ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। कूलबाल तपस्वी का अता-पता किसी को ज्ञात नहीं था। गणिका ने श्राविका का कपट रूप बनाया। आचार्य के पास आने-जाने से उसका परिचय बढ़ा और एक दिन मधुर वाणी से आचार्य को लुभाकर तपस्वी का पता जान ही लिया।
वह तपस्वी कूलबाल अपने शाप को अन्यथा करने के लिए एक नदी के किनारे कायोत्सर्ग में लीन रहता था। जब कभी आहार का संयोग होता तो भो नन कर लेना अन्यथा तारणा करता रहता । गणिका उसी जंगल में पहुंची,जहां तपस्वी तपस्या में लीन थे। उनकी सेवा-शुश्रूषा का बहाना बनाकर उसने वहीं पड़ाव डाला। मुनि को पारणे के लिए निमंत्रित कर औषध-मिश्रित मोदक बहराए। उनको खाने से मुनि अतिसार से पीड़ित हो गए। यह देखकर मागधिका ने कहा-'मुनिवर ! अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आप मेरे आहार से रोगग्रस्त हुए हैं अत: मैं आपको स्वस्थ करके ही यहां से हटूंगी।' अब वह प्रतिदिन मुनि की वैयावृत्य, अंगमर्दन और भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा करने लगी। मुनि का अनुराग बढ़ता गया। दोनों का प्रेम पति-पत्नी के रूप में विकसित हुआ और मुनि अपने मार्ग से च्युत हो गए।' ४. पोंडरीक
एक रमणीय पुष्करिणी में अथाह जल था। स्थान-स्थान पर कीचड़ भी था। उसमें अनेक श्वेत शतदल जल से ऊपर उठे हुए थे। पुष्करिणी के बीच में एक विशाल रमणीय और विशिष्ट गंध, वर्ण, रस वाला पद्मवर पुंडरीक-श्वेत कमल खिला हुआ था। चार पुरुष चारों दिशाओं से आए। वे उस श्वेत कमल को पाने के लिए ललचाने लगे। एक-एक कर चारों पुरुष उस पुष्करिणी में उतरने लगे। वे स्वयं को कुशल एवं पारगामी समझते थे। पर वे उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गए। वे न तट पर आ पाए और न ही आगे बढ़ पाए। वे वहां कीचड़ में फंसे हुए खेद का अनुभव करने लगे और त्राण के लिए इधर-उधर देखने लगे। इतने में एक भिक्षु आया वह पानी में नहीं उतरा, तीर पर खड़े-खड़े ही उसने आह्वान किया--' हे पद्मवर पुंडरीक! ऊपर आओ, ऊपर आओ।' वह पद्मवर पुंडरीक ऊपर आ गया।' ५. आईक कुमार
प्रतिष्ठानपुर नामक नगर था। वहां सामयिक नामक गाथापति अपनी पत्नी के साथ धर्मघोष आचार्य के पास प्रव्रजित हुआ। वह साधुओं के साथ तथा उसकी साध्वी पत्नी साध्वियों के साथ विहरण करने लगी। ग्रामानुग्राम बिहरण करते हुए एक बार दोनों एक ही गांव में आ गए। सामयिक १. सूनि.५७, कथा सं. १-३ तक की तीन कथाएं सूत्रकृतांग की चर्णि और रीका में नहीं हैं। टीकाकार ने मूलादायश्यकादवगंतव्यानि का उल्लेख किया है। २. सूनि.१६२-६५।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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ने अपनी पत्नी साध्वी को भिक्षाचयों करते देखा। उस पूर्वभुक्त काम-क्रीड़ाओं की स्मृति हो आई
और वह उसमें पुनः अनुरक्त हो गया। मुनि ने अपने साथी मुनि से कहा-'यह मेरी पत्नी है। इसे श्रामण्य से च्युत कर दो। मैं इसे पुन: स्वीकार करना चाहता हूं।' मुनि साथी ने सोचा कि गलत कार्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उसने कहा-पुने ! मैं इस कार्य को आज ही कर दूंगा या मर जाऊंगा।' यह कहकर वह साध्वियों के उपाश्रय में गया और महत्तरिका को सारी बात बता दी। प्रवर्तनी ने साध्नी को जलाकर कह!.... तुम इस देश को छोड़कर दूसरे देश में चली जाओ।' साध्वी ने यह बात सुनकर प्रवर्तनी से कहा-'इस स्थिति में मैं अकेली किसी अन्य देश में नहीं जा सकती। वह वहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। मेरे लिए यही श्रेष्ठ है कि चरित्र भंग की अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान करके प्राण त्याग दूं।'
उस सार्थी मुनि ने विचलित और दृप्त मुनि को आकर कहा–'यहां तुम दोनों का मिलन दुष्कर है। अमुक दिन मिलना होगा, अन्यथा यह शक्य नहीं है। वह दृप्त मुनि वहीं रहा और दिन गिनने लगा। साध्वी ने उस दिन को निकटता को देखकर वैहानसमरण-फांसी लगाकर अपना शरीर त्याग दिया। मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुई। आचार्य को साध्वी के कालगत होने निवेदन किया गया। जब पति साधु ने यह बात सुनी तो उसके मन में संवेग उत्पन्न हो गया। उसने सोचा-'साध्वी ने प्रतभंग के भय से अनशनपूर्वक मृत्यु का आलिंगन किया है। मेरा मानसिक रूप से तो तभंग हो ही चुका है अत: इस अकार्य के प्रायश्चित्त हेतु मुझे भी अनशन कर लेना चाहिए।' वह मुनि अपने आचार्य के पास आया और उनकी अनुज्ञा लेकर अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण किया। वह भी देवलोक में उत्पन्न हुआ।
मुनि देवलोक से च्युत होकर अनार्य देश के आईकपुर नगर के राजा आईक राजा की पत्नी धारिणी के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम आर्द्रक कुमार रखा गया। उस कुल की यह परम्परा थी कि वहां उत्पन्न होने वाले सभी आद्रक ही कहलाते थे। वह साध्वी भी देवलोक से च्युत होकर बसन्तपुर के एक सेठ के यहां पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। आर्द्रक कुमार क्रमशः यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। एक बार महाराज आर्द्रक ने राजा श्रेणिक से मित्र-स्नेह प्रकट करने के लिए विशिष्ट उपहार भेजे । कुमार आर्द्रक को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने दूत से पूछा--'ये सारे बहुमूल्य उपहार कहां भेजे जा रहे हैं?' दूत ने कहा-'आपके पिता के परममित्र महाराजा श्रेणिक को ये सारे उपहार भेजे जा रहे हैं।' आईक कुमार ने पूछा-'क्या उनके कोई राजकुमार है?' दूत ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। आईक कुमार ने कहा- ये उपहार मेरों ओर से राजकुमार को भेंट कर देना और कहना कि राजकुमार आपसे प्रगाढ़ मैत्री का सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है।' दूत दोनों के बहुमूल्य उपहार लेकर मगध देश की ओर चला। वह राजगृह पहुंचा। राजाज्ञा से वह सभा में आया और प्रणाम कर राजा आर्द्रक द्वारा भेजे गए उपहार भेंट किए । राजा श्रेणिक ने दूत का याचित सम्मान किया।
दूसरे दिन वह राजकुमार अभय के पास गया और राजकुमार आर्द्रक द्वारा भेजे गए उपहार देकर प्रगाढ़ मित्रता की बात कही। उसने भी उपहार स्वीकार किए और दूत का सम्मान किया। अभय
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निर्युक्तिपंचक
कुमार ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि से जान लिया कि राजकुमार आर्द्रक भव्य और निकट भविष्य में मुक्ति जाने वाला है। अभय ने सोचा- 'वह मेरे साथ मित्रता करना चाहता है अतः मेरा परम कर्त्तव्य है कि मैं उसकी मुक्तिगमन योग्यता को उजागर करने जैसा उपहार भेजूं।' अभयकुमार ने आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ की प्रतिमा बनवाई। उसे एक बहुमूल्य मंजूषा में रखकर अन्यान्य और भी उपहार दूत को देकर अभयकुमार ने कहा- 'तुम्हारे राजकुमार से कहना कि इस मंजूषा को एकान्त में खोले। लोगों के समक्ष न खोले ।' दूत उपहार लेकर आर्द्रक नगर पहुंचा। राजा आर्द्रक को सारे उपहार दिए और श्रेणिक का संदेश सुनाया। राजा ने उसको सत्कारित किया। दूसरे दिन राजकुमार आर्द्रक के पास गया और अभयकुमार द्वारा प्रेषित उपहार और मंजूषा देते हुए अभय का संदेश सुना दिया। उसने भी दूत का सत्कार करके उसे विदा किया। राजकुमार आर्द्रक मंजूषा लेकर महारों में उत्पर गया। यहां लोगों को विसर्जित करके एकान्त में मंजूषा को खोला। आर्द्रक कुमार मंजूषा में ऋषभदेव की प्रतिमा को देखकर सोचने लगा- 'ओह ! यह रूप तो मैंने पहले कभी देखा है।' चिंतन करते-करते उसे जाति स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने सोचा कि अभयकुमार ने मुझ पर परम उपकार किया हैं। मुझे धर्म का सही प्रतिबोध दिया है। आर्द्रक कुमार के मन में संवेग उत्पन्न हो गया। उसने सोचा- 'मैं देव था तब मनोनुकूल भोग सामग्री उपलब्ध थी फिर भी मन की तृप्ति नहीं हुई। देवता के भोगों के समक्ष मनुष्य के कामभोग तुच्छ और अल्पकालिक हैं अतः मुझे इनमें आसक्त नहीं होना है।'
६.१२
राजकुमार आर्द्रक संसार से विरक्त हो गया। वह संसार में रहते हुए भी विरक्त जीवन जीने लगा। राजा को जब राजकुमार के विरक्त जीवन की बात ज्ञात हुई तो उसने परिचारकों से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा - ' राजन् ! जब से राजकुमार अभय कुमार द्वारा प्रेषित उपहार कुमार को प्राप्त हुए हैं तभी से वे विरक्ति का जीवन जी रहे हैं।' राजा उद्विग्न हो गया। उसने सोचा कहीं राजकुमार घर से पलायन न कर जाए। राजा ने पांच सौ कुमारामात्य पुत्रों को राजकुमार के संरक्षण का भार सौंप दिया और कहा- तुम पर राजकुमार के संरक्षण का दायित्व है। यदि वह कहीं पलायन कर गया तो तुम सबको मृत्युदंड दूंगा।' वे सब राजकुमार की सेवा और संरक्षण करने लगे ।
आर्द्रक कुमार का मन घर से विरक्त हो चुका था। वह पलायन करके अभिनिष्क्रमण करना चाहता था। उसने उपाय खोजा। एक दिन अश्ववाहनिका का बहाना बनाकर अपने रक्षक पांच सौ साथियों के साथ घूमने निकल पड़ा। बहुत दूर जाकर उसने अपने घोड़े को दूसरी दिशा में मोड़ दिया। जब पांच सौ कुमारामात्य रक्षकों को ज्ञात हुआ तो वे उसकी खोज में निकले पर वे उसे खोज नहीं पाए। आर्द्रक नगर से पलायन कर आर्द्रककुमार प्रब्रजित होने के लिए उद्यत हुआ। मित्र देव ने कहा कि अभी दीक्षा मत लो क्योंकि उपसर्ग उपस्थित हो सकते हैं। राजकुमार आर्द्रक ने देवता की बात पर ध्यान नहीं दिया और दीक्षा ग्रहण कर ली।
एक बार वह विहार करते-करते बसन्तपुर नगर में आया और साधु-प्रतिमा का पालन करते हुए कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। एक सेठ की पुत्री अपनी सहेलियों के साथ उद्यान में क्रीड़ा कर
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
रही थी । खेल-खेल में वह मुनि को देखकर बोली-'यह मेरा पति है।' यह सुनकर पास में अदृश्य रूप में स्थित देव ने मन ही मन सोचा कि लड़की ने अच्छा चिंतन किया। दिव्य प्रभाव से उसी समय साढ़े तेरह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि हुई । राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह स्वर्ण मुद्राओं को हस्तगत करने आया। उसी समय देव सर्प रूप में उपस्थित हुआ और राजा को कहा–'राजन् ! यह सारी सम्पत्ति सेठ की पुत्री की है। कोई दूसरा इस पर अधिकार करने की चेष्टा न करे।' लड़को का पिता आया और सारी सम्पत्ति सुरक्षित कर घर ले गया।
कायोत्सर्ग सम्पन्न होने के बाद आर्द्रककुमार ने सोचा कि अब मुझे यहां नहीं रहना चाहिए। वह तत्काल वहां से अन्यत्र चला गया। एक बार श्रेष्ठी-पुत्री से विवाह करने के इच्छुक कुछ युवक आए। कन्या ने अपने माता-पिता से कहा-'कन्या का विवाह जीवन में एक बार ही होता है, अनेक बार नहीं। मेरा तो उसके साथ विवाह हो चुका है, जिसका धन आपने एकत्रित किया है। वही मेरा पत्ति है।' पिता ने पूछा-'क्या तुम उसे पहचानती हो?' कन्या ने कहा कि उनके पैरों से मैं उन्हें पहचान लूंगी। भिक्षु की खोज हेतु सेठ ने भिक्षुओं को दान देना प्रारम्भ किया। अनेक प्रकार के भिक्षु भिक्षार्थ आने लगे। बारह वर्ष बीतने पर एक दिन भवितव्यता के योग से भिक्षुक बना राजकुमार आद्रक उसी बसन्तपुर नगर में आया । वह भिक्षार्थ उसी सेठ के घर पहुंचा। लड़की ने उसे पदचिह्न से पहचान लिया। कन्या ने अपने पिता से कहा-'यही मेरा पति है।' कन्या उस भिक्षुक के पीछेपीछे जाने लगी। भिक्षुक ने सोचा कि इस प्रकार तो मेरा तिरस्कार होगा। उसे देवता का वचन याद आया। कर्मों का उदय मान भिक्षु-वेश का त्याग कर वह श्रेष्ठी-कन्या के साथ रहने लगा। उसके एक पुत्र हुआ। उसके साथ रहते हुए बारह वर्ष बीत गए. एक दिन आईककुमार ने अपनी पत्नी से कहा कि अब तुम दो हो गए हो। मैं पुनः प्रवजित होकर अपना कल्याण करना चाहता हूं। कन्या ने प्रत्युत्तर नहीं दिया, वह रोने लगी।
एक दिन वह सूत बनाने के लिए कपास कात रही थी। इतने में उसका पुत्र उसके पास आया और बोला-'मां, तम यह क्या कात रही हो? यह काम तम्हारे लायक नहीं है।' उसने कहा-'तुम्हारे पिता प्रव्रज्या लेना चाहते हैं। तुम अभी छोटे हो अत: जीवन-निर्वाह हेतु मैंने यह कार्य प्रारम्भ कर दिया है।' बालक प्रतिभासम्पन्न और चंचल था। मां के द्वारा काता गया सूत लेकर वह पिता के पास पहुंचा। पिता को सूत से वेष्टित करते हुए वह बोला-'मेरे द्वारा बांधे जाने पर अब आप कहां जाएंगे?' आईक कुमार ने सोचा-बालक ने मुझे जितने तंतुओं से बांधा है, उतने वर्ष मुझे गृहवास में और रहना है, आगे नहीं। तंतु गिनने पर बारह निकले। वह बारह वर्षों तक घर पर रहा फिर घर से अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो गया।
आर्द्रक कुमार ने एकाकी विहार करते हुए राजगृह की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक भयंकर जंगल आया। उस जंगल में पांच सौ चोर रहते थे। ये वे ही संरक्षक थे, जिन्हें आर्द्रककुमार के संरक्षण के लिए नियुक्त किया था। जब आर्द्रक अपने घोड़े पर पलायन कर गया तब वे पांच सौ रक्षक राजाज्ञा की अवहेलना के भय से घर न जाकर जंगल में चले गए और वहां चोरी, लूट
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निर्युक्तिपंचक
खसीट करते हुए जीवन यापन करने लगे। आर्द्र कुमार ने उन्हें पहचान लिया। आर्द्रक मुनि ने पूछा कि 'तुम 'लोग चोर कैसे बन गए? उन्होंने राजभय की बात कहो। मुनि आर्द्रक ने उन्हें प्रतिबोध दिया। वे सभी संबुद्ध होकर मुनि बन गए।
पांच सौ को प्रव्रजित कर उन्हें अपने साथ लेकर आर्द्रककुमार महावीर के दर्शनार्थ राजगृह आया। नगर के प्रवेश द्वार पर गोशालक, हस्तितापस आदि विभिन्न दर्शनों के आचार्य मिले। सबने मुनि आर्द्रक को अपने धर्म में दीक्षित करने का प्रयत्न किया। वाद-विवाद में उन सबको पराजित कर मुनि आर्द्रक आगे बढ़ा। इतने में एक विशालकाय हाथी अपने बंधनों को तोड़कर मुनि आर्द्रक के चरणों में झुक गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई वह आर्द्रककुमार के पास आया और चरण- वंदना कर बोला- 'भंते! आपके दर्शनमात्र से यह उन्मत्त हाथी अपने बंधनों से मुक्त कैसे हो गया? आपका अचिन्त्य प्रभाव है। मुनि आर्द्रक बोले- 'राजन् ! मनुष्यों द्वारा निर्मित सांकलों द्वारा बंधे हुए हाथी का बंधनमुक्त होना आश्चर्य की बात नहीं है, यह दुष्कर भी नहीं हैं। कच्चे सूत की डोरी से बंधे हुए मेरा बंधन मुक्त होना दुष्कर है क्योंकि स्नेह-तंतु की तोड़ना अत्यन्त दुष्कर होता है।' राजा मुनि की स्तवना करता हुआ महावीर के समवसरण में चला गया।
६. आज्ञा का महत्व
नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान था। एक बार गणधर गौतम अनेक शिष्यों के साथ वहां समवसृत थे। तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा में दीक्षित श्रमण उदक जिज्ञासा के समाधान हेतु गौतम के पास आया। वह पेढाल का पुत्र और मेदार्य गोत्र वाला था। उसने गौतम से श्रावक के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। गौतम ने उनका समाधान किया। एक प्रश्न के समाधान में एक कथानक सुनाते हुए गौतम ने कहा
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'रत्नपुर नगर में रत्नशंखर नामक राजा था। एक दिन प्रसन्न होकर राजा ने अग्रमहिषी रत्नमाला आदि रानियों को कौमुदीप्रचार की आज्ञा दे दी। नागरिक लोगों ने भी अपनी स्त्रियों को कौमुदी महोत्सव में क्रीड़ा करने की अनुमति दी। राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि कौमुदी महोत्सव के प्रारम्भ हो जाने पर सूर्यास्त के बाद जो कोई व्यक्ति नगर में मिलेगा उसको बिना कुछ पूछताछ किए दंडित किया जाएगा। एक व्यापारी के पुत्र उस दिन क्रय विक्रय और व्यापार में इतने व्यस्त हो गए कि सूयांस्त हो गया। सूर्यास्त होते ही नगरद्वार बंद कर दिए गए। वे छहों ऋणिक्पुत्र समय के अतिक्रान्त हो जाने पर बाहर नहीं जा सके। वे भयभीत होकर नगर के मध्य में ही कहीं छुप गए। कौमुदी महोत्सव पूर्ण होने पर राजा ने आरक्षकों को बुलाकर आदेश दिया कि तुम अच्छी तरह देखो कि कौमुदी महोत्सव में नगर में कौन पुरुष उपस्थित था। आरक्षकों ने पूर्णरूपेण निरीक्षण कर छह वणिक् पुत्रों की बात राजा से कही। आज्ञाभंग के अपराध से राजा ने कुपित होकर छहों को मृत्युदण्ड दे दिया । पुत्र-शोक से विह्वल पिता ने राजा से कहा- ' आप हमारे कुल को नष्ट न करें। आप मेरी सारी सम्पति ले लें पर मेरे छहों पुत्रों को मुक्त कर दें। आप अनुग्रह करें।' राजा ने प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब वणिकू हताश होकर पांच, चार, तीन, दो और एक पुत्र की मुक्ति की प्रार्थना १. सूनि १८८ - २०१, सूचू.प. ४१४-१७, सूटी. पृ. २५८.२५९ ।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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करता रहा। राजा ने उसके निवेदन को स्वीकार नहीं किया। अंत में वणिक राजा के चरणों में गिर पड़ा और गदगद स्वरों में निवेदन करने लगा। राजा का मन करुणा हुआ और ज्येष्ठ पुत्र को मुक्त करने का आदेश दे दिया।'
गणधर गौतम और पाश्वापत्यीय श्रमण उदक की चर्चा लम्बे समय तक चानी । उदक का मन समाडित हो गया। चर्चा सन्न होने के बाद उदक बिना कतजता जापित किए ही जाने लगा। गौतम ने कहा-'उदक! तुम बिना कुछ कहे ही जा रहे हो।' तब उदक ने कहा कि आप क्या कहना चाहते हैं मैं समझ नहीं सका। गौतम ने शिक्षा देते हुए कहा कि लौकिक परम्परा में भी शिक्षागुरु के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है फिर परमार्थ का तो कहना ही क्या? यह सत्य है कि पूज्य व्यक्ति पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से दूर रहता है पर व्यवहार में यह अनिवार्य हो जाता है कि पूज्य के उपकार को बहुमान दिया जाए। तुमने इस चर्चा से यथार्थ को अवगति की है। कृतज्ञता ज्ञापित किए बिना तुम्हारा यों ही जाना क्या उचित है?
उदक को अपने प्रमाद का अहसास हुआ। वह बोला-'गौतम! तुम्हारे से मैंने परमार्थ का अवबोध किया है। मैं उस तत्त्व के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता हूं और चातुर्याम धर्म से पंचयाम धर्म स्वीकार करूं, अप्रतिक्रमण धर्म से सप्रतिक्रमण धर्म में आऊ तथा पाश्र्व को परम्परा से महावीर की परम्परा में दीक्षित बनूं, ऐसी मेरी भावना है।' गौतम उदक के साथ भगवान महावीर के पारस आए । उदक ने भगवान को वंदना की और पंचयाम धर्म में प्रजित होने की इच्छा व्यक्त की। भगवान महावीर ने उसे अपने शासन में सम्मिलित कर लिया।
दशाश्रुतस्कंध-नियुक्ति की कथाएं
१. क्षमादान : महादान (दुरूतक कुंभकार)
एक कुम्हार मिट्टी के भांडों से गाड़ी भरकर दुरूतक नामक अनार्य गांव में गया। उसके एक बैल का अपहरण करने की इच्छा से गांव के कुछेक लोग कहने लगे कि अरे! एक आश्चर्य देखो, यह गाड़ी एक बैल से चल रही है। यह सुनकर कुम्हार भी व्यंग्य में बोला-'देखो ! इस गांव का खलिहान जल रहा है।' कुम्हार जब कार्यवश इधर उधर गया तब गांव वालों ने उसके एक बैल का अपहरण कर लिया। कुम्हार के बैल मांगने पर उन्होंने कहा कि तुम एक ही बैल से गाड़ी चला रहे थे। जब उन्होंने बैल वापिस नहीं दिया तो वह कुम्हार प्रतिवर्ष उनका धान्य जलाने लगा। सात वर्ष तक लगातार यह क्रम चला। बाद में एक उत्सव के अवसर पर उस गांव के मुखिया ने घोषणा की- 'जिसका हमने अपराध किया है, उससे हम क्षमा चाहते हैं। इस प्रकार हमारा धान्य नष्ट मत करो।' यह सुनकर कुम्हार ने भी घोषणा की कि मेरा बैल वापिस कर दो। मैं धान्य नहीं जलाऊंगा। बाद में उन दोनों में समझौता हो गया। कुम्हार को बैल वापिस मिल गया। दोनों ने एकदूसरे को क्षमा कर दिया। १. सृनि.२०५.२०६, सूटी.पृ. २७६। २. दनि.९३, ९४. दचू.प. ६०.६१, निभा.३१८०, ३१८१, चू.पृ. १३९
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नियुक्तिपंचक
२. उद्रायण एवं प्रद्योत
चम्मा नपरी में ऊगमग स्वर्णकार 1ा या। वह स्त्रियों के प्रति बहुत आसक्त था। वह जिस कन्या को देखता,उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो उठता । बहुत सा धन देकर वह उससे विवाह कर लेता। इस प्रकार उसने पांच सौ कन्याओं के साथ विवाह किया। वह उनके साथ काम-भोगों में रत रहता। उसी समय पंचशील नामक द्वीप में विद्यन्माली नामक एक यक्ष का च्यवन हो गया। उसकी दो अग्रमहिषियां थीं-हासा और प्रहासा। भोग को बलवती भावना से प्रेरित होकर वे किसी सुन्दर पुरुष की खोज में निकलीं। उन्होंने अनंगसेन को देखा। विक्रिया के माध्यम से सुन्दर रूप बनाकर अशोक-वाटिका में वे अनंगसेन के समक्ष गर्यो । उनको कामपूरक चेष्टाओं को देखकर अनंगसेन चंचल और उन्मत्त होकर उनकी ओर हाथ फैलाने लगा। उसकी काम-विह्वलता देखकर देवियों ने कहा कि हमें पाने की पहली शर्त यह है कि पंचशील द्वीप में आओ। इतना कहकर वे अदृश्य हो गई।
__अनंगसेन उनके पीछे पागल हो उठा। उसने राजा को प्रेरित कर यह घोषणा करवाई कि जो अनंगसेन को पंचशैल द्वीप में पहुंचाएगा, उसे वह एक करोड़ मुद्रा देगा। एक बूढ़े नाविक ने उस घोषणा को स्वीकार कर कहा कि मैं पंचशील द्वीप में पहुंचा दूंगा। उसने एक करोड़ मुद्राएं ले लीं। पाधेय लेकर नौका पर आरूढ़ होकर दोनों ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूर जाने पर नाविक ने पूछा-'आगे जल के ऊपर कुछ दिखाई देता है?' अनंगसेन ने नकारात्मक उत्तर दिया। कुछ दूर जाने पर पुन: प्रश्न किया तो अनंगसेन के कहा कि मानव सिर के बराबर कोई कृष्ण वस्तु नजर आ रही है।
नाविक ने कहा-'यहीं पंचशैल की धारा में स्थित वटवृक्ष है। नौका इसके नीचे से जाएगी। इसके आगे जलावर्त है अत: तुम सावधान होकर इस वृक्ष की शाखा को पकड़ लेना। मैं नौका से जलावर्त में जाऊंगा। जब जल का वेग उतर जाए तब तुम पर्वत पर चढ़कर उस ओर उतर जाना। वहीं पंचशैल द्वीप है। फिर जहां जाना हो वहां चले जाना। संध्याकाल में बड़े-बड़े पक्षी पंचशील द्वीप से यहां आयेंगे और रात्रि-निवास करके वापिस लौटेंगे। तुम उनके पैर पकड़कर पंचशैल द्वीप चले जाना। इतने में नौका वटवृक्ष के पास जा पहुंची। वह शीघ्र वर पर आरूढ़ हो गया और नाविक आगे जलावत में चला गया।
नाविक के कथनानुसार अनंगसेन द्वीप में पहुंचकर दोनों अक्षिणियों से मिला और अपनी भावना व्यक्त की। दोनों देवियों ने नकारात्मक उत्तर दिया और कहा-'तुम्हारा यह अशुचि शरीर हमारे परिभोग के योग्य नहीं है । यदि तुम हमें चाहते हो तो बाल-तपस्या और निदान करके यहां जन्म लो तभी तुम हमारे लिए भोग्य और आदेय हो सकते हो।' देवियों ने अतिथि-धर्म का पालन करते हुए दिव्य पत्र, पुष्प, फल आदि से उसका आतिथ्य किया। थकान के कारण वह वहीं शीतल छाया में सो गया। नींद में ही देवियों ने उसे हाथ में उठाया और चम्पानगरी में उसके मकान को
१.दशा श्रुतस्कन्ध की चूर्णि में इस कथा का उल्लेख नहीं है अत: यहां निशीथ चूर्णि के अनुसार कथा का अनुवाद किया गया हैं।
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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छत्त पर छोड़ दिया। जागने पर उसने स्वयं को अपने ही घर में चारों ओर से स्वजन परिजनों से घिरा हुआ देखा। तब वह हासे ! प्रहासे ! कहकर प्रलाप करने लगा। लोगों के पूछने पर उसने पंचशैल में देखा हुआ सारा वृत्तान्त बताया। जब उसके मित्र नाइल श्रावक ने यह बात सुनी तो उसने अनंगसेन को जिनोपदिष्ट धर्म का उपदेश दिया और उस जीवन-वहार में उतारने के लिए प्रेरित किया। नाइल श्रावक ने कहा-'धर्म-पालन से तुम सौधर्म आदि स्वर्गों में दीर्घकालीन स्थिति वाली देवियों के साथ उत्तम भोग भोग सकते हो। उनके सामने इन अल्पकालीन व्यन्तर देवियों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है। नाइल के उपदेश का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। स्वजन-परिजनों द्वारा दी गयी सलाह की अवहेलना कर उसने निदान कर इंगिनीमरण द्वारा मरकर उसी द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में जन्म लिया। वह तीव्र भावना से हासा और प्रहासा से भोग भोगने लगा। नाइल श्रावक प्रवजित हुआ और श्रामण्य का निरतिचार पालन करता हुआ मर कर अच्युत देवलोक में देव बना। वह भी उसी पंचशैल द्वीप में आया।
__एक बार नंदीश्वर द्वीप में अष्टाहिक महोत्सव था। वहां इन्द्र द्वारा आज्ञापित देव अपनेअपने कार्यों में नियुक्त होकर परस्पर मिले। विद्युन्माली को बाजे बजाने का कार्य सौंपा गया। वह बोल बजाना नहीं चाहता था लेकिन आदेश का पालन भी आवश्यक था। इच्छा न होते हुए भी वह दूर बैठा ढोल बजा रहा था। नाइल देव ने उसे देखा। पूर्वस्नेह के कारण वह उसे प्रतिबोध देने उसके पास आया। विद्युन्माली उसके भव्य तेज को सहन नहीं कर सका और ढोल बजाना बीच में ही बंद कर दिया। नाइल देव ने पूछा कि क्या तुम मुझे जानते हो? विद्युन्माली देव पहचानने में असमर्थ रहा। वह बोला कि क्या तुम शक्र हो, इन्द्र हो? मैं तुम्हें नहीं जानता । नाइल देव बोला-'मैं पूर्वभन्न की बात पूछता हूं, देवत्व की नहीं। उसने कहा-'मैं तुम्हें नहीं जानता।'
तब अपना परिचय देते हुए नाइल ने बताया-'मैं पूर्वभव में चम्पानगरी में तुम्हारा मित्र नाइल था। उस समय तुमने मेरी बात नहीं मानी इसलिए तुम अल्पऋद्धि वाले देव बने हो। खैर, अब भी तुम जिनप्रणीत धर्म स्वीकार करो।' यह कह नाइल देव ने उसे धर्मबोध देकर जिनधर्म अंगीकार करवाया। विद्युन्माली ने पूछा-'अब मुझे क्या करना चाहिए?' अच्युतदेव नाइल ने कहा-'बोध के लिए तुम किसी स्थान पर जिन प्रतिमा का अवतरण कराओ।' तब विद्युन्माली ने अष्टाह्निक महोत्सव संपन्न होने पर चुल्ल हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदन लेकर दैविक प्रभाव से जिन प्रतिमा बनवाई। रत्न आदि विभिन्न आभूषणों से अलंकृत करके उसे गोशीर्ष चंदन की लकड़ी के बीच रख दिया। उसके बाद उसने चिंतन किया कि यह प्रतिमा अब मैं बाहर कैसे भेजूं?
इधर उसी समय समुद्र में एक वणिक् की नाव डगमगा रही थी। डोलते हुए नाव को छह मास बीत गए। वणिक् चिंतित हो उठा। वह धूप-दीप लेकर इष्ट देवता का स्मरण करने लगा। यह देखकर विद्युन्माली ने कहा--' अरे भाई! आज प्रात:काल तुम्हारी नौका वीतभय नगर के किनारे पहुंच जायेगी। तुम इस गोशीर्ष चंदन को लेकर जाओ और राजा उदयन को भेंट करके कहना कि इस लकड़ी से देवाधिदेव की प्रतिमा बनवाए, यह देवकथन है।' उसी रात देव-अनुग्रह से वह नौका वीतभय नगर पहुंच गयी।
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नियुक्तिपंचक
वणिक नगरी में पहुंचते ही अध्यं लेकर राजा के पास पहुंचा। पूर्व वृत्तान्त बताते हुए उस गोशीर्ष चन्दन से देवाधिदेव की प्रतिमा बनाने का निवेदन किया। सारी बात सुनकर राजा ने सभी चतुर लोगों को बुलाकर यह बात बतायी। राजा ने काष्ठकारों को बुलाया। उन्हें प्रतिमा बनाने के लिए कहा। उन्होंने प्रतिमा बनाने के लिए हथौड़ा उठाया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उस समय ब्राह्मणों ने कहा कि देवाधिदेव ब्रह्मा हैं अत: उनकी प्रतिमा बनवाओ। शिल्पो ने कुल्हाड़ी मारी लेकिन व्यर्थ चली गयी। किसी ने कहा कि देवाधिदेव विष्णु हैं, फिर भी चंदन-काष्ठ पर शस्त्र का असर नहीं हुआ। इस दृश्य को देखकर स्कन्द, रुद्र आदि देवों के नाम लेकर शस्त्र चलाया लेकिन वह प्रयास व्यर्थ ही हुआ। यह देखकर राजा बहुत दुःखी हुआ। उसी समय रानी प्रभावती ने राजा को भोजन के लिए बुलाया। राजा ने इन्कार कर दिया। भोजन-बेला का अतिक्रमण जानकर प्रभावतो ने दासी को पुनः राजा के पास भेजा।
दासी के निवेदन करने पर राजा ने सारी स्थिति दासी को बतायी । दासी ने रानी को यथार्थ स्थिति से अवगत कराया। सारी स्थिति जानकर रानी बोली--'अहो! मिथ्यादर्शन के कारण राजा देवाधिदेव को भी नहीं जानते हैं।' उसी समय रानी श्वेत वस्त्रों को पहन कर कौतुक मंगल आदि क्रिया से निवृत्त होकर राजा के पास आयी और बोलो--'देवाधिदेव महावीर वर्द्धमान स्वामी हैं, उनकी प्रतिमा बनवाओ।' महावीर का नाम लेकर काष्ठकार ने लकड़ी पर कुल्हाड़ी चलायी। एक बार में ही लकड़ी के दो टुकड़े हो गए। उसके अन्दर से सर्व अलंकारों से सुशोभित भगवान् महावीर की प्रतिमा निकली। राजा ने अपने निवास स्थल के पास देवायतन बनवाया और मूर्ति की स्थापना की। देवायतन में कृष्णगुटिका नामक दासी को नियुक्त किया। अष्टमी, चतुर्दशी के दिन रानी प्रभावती स्वयं वहां जाकर नृत्य आदि में भाग लेती थीं। राजा भी उसी के अनुरूप मृदंग बजाता था।
एक बार जब रानी प्रभावती नृत्य कर रही थी, तब राजा ने सनी के सिर की छाया नहीं देखी । अमंगल की चिन्ता से राजा के हाथ के वाद्य छूट गए। रानी प्रभावती इस बात से नाराज हो गयी। राजा ने कहा-'महारानी । तुम रुष्ट मत बनो । आज मैंने अमंगल देखा है अत: चित्त की विक्षिप्तता से मेरे हाथ से वाद्य छूट गया।' यह सुनकर रानी प्रभावती बोली-'जिन शासन में अनुरक्त व्यक्ति को मरने से नहीं डरना चाहिए।'
एक दिन रानी प्रभावती जब स्नान आदि से निवृत्त हो गयी तो दासी को श्वेत वस्त्र लाने के लिए कहा। दासी वस्त्र लाने गयी लेकिन देवकृत उपद्रव से वे वस्त्र बीच में ही लाल हो गए। दासी चकित हो गयी। दासी ने वस्त्र महारानी को दिए। उस समय महारानी दर्पण में अपना मुंह देख रही थी। रानी उन लाल वस्त्रों को देखकर क्रोधित हो गई। रुष्ट होकर वह बोली-'देवायतन में प्रवेश करते हुए तुमने यह अमंगल क्यों किया? क्या इस समय मैं शयनगृह में जा रही हूं, जो ये लाल वस्त्र लायी हो?' क्रोधावेश में व्यक्ति अंधा हो जाता है। रानी ने दर्पण से दासी के सिर पर प्रहार किया फलस्वरूप दासी उसी समय मर गई। उधर उसी समय वस्त्र पुनः स्वाभाविक स्थिति में आ गए। यह देखकर रानी ने आत्मालोचन किया कि मैने व्यर्थ ही निरपराध दासी की हत्या कर दी। चिरकाल से पालित मेरा स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत भंग हो गया। निश्चय ही यह बात
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परिशिष्ट ६ : कथाएं
मेरे लिए भावी अमंगल की सूचक है। रानी ने राजा को सारी स्थिति बतलाई और दीक्षा की अनुमति मांगती हुई बोली कि मैं संयम के बिना मरना नहीं चाहती ! रानी की तीव्र भावना देखकर राजा ने कहा कि यदि तुम मरकर मुझे सद्धर्म में प्रेरित करो तो तुम्हें दीक्षा की अनुमति दे सकता हूँ। अनुज्ञा मिलते ही रानी प्रभावती साध्वी प्रभावती बन गई। छह मास तक संयम का सम्यक् पालन कर अन्तिम समय में आलोचना प्रतिक्रमण कर रानी वैमानिक देव बनी।
प्रभावती देव ने अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव देखा। पूर्व अनुराग तथा प्रतिज्ञा की स्मृति से उसने राजा उदयन को अनेक रूपों में यतिधर्म का उपदेश दिया। राजा उस समय तापसों का परम भक्त बना हुआ था अतः उसने जिन धर्म स्वीकृत नहीं किया। प्रतिबोध देने हेतु देव प्रभावती ने तापस का रूप बनाया और फूल, फल आदि लेकर राजा के पास उपस्थित हुआ। तापस ने अत्यंत रमणीय फल राजा को समर्पित किया। वह फल गंध से सुरभित, रूप से मनोरम और स्वाद में रसयुक्त था। राजा ने उस अनुपम फल के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की। तापस रूप देव ने कहा कि यहां से निकट ही तापसों के आश्रम में ऐसे फल देने वाले अनेक वृक्ष हैं। राजा ने तापसाश्रम और उन वृक्षों को देखने की जिज्ञासा व्यक्त की। राजा उस देव तापम के साथ अकेला ही अनेक अलंकारों से विभूषित होकर गया। आश्रमद्वार में प्रवेश करते ही उसे दिव्य गंध की अनुभूति हुई।
राजा को देखते हो तापसों की आवाज सुनायी दी कि यह राजा अनेक अलंकारों को पहन कर आया है अत: इसे मारो, पकड़ो। राजा भय से पीछे सरकने लगा। यह देखकर साथ आने वाला तापस देव भी चिल्लाया कि अरे ! यह राजा भाग रहा है, इसे पकड़ो। आवाज सुनकर अनेक तापस दण्ड, कमण्डलु लेकर 'मारो, पकड़ो' की आवाज करते हुए पीछे दौड़ने लगे। भय विह्वल राजा ने एक वन-खण्ड देखा। वहाँ अनेक मनुष्यों की आवाज सुनायी दी। शरण लेने की इच्छा से राजा ने उस वन-खण्ड में प्रवेश किया। वहां चन्द्र की भांति सौम्य, कापदेव जैसा रूपवान् तथा बृहस्पति की तरह सर्व शास्त्रों के विशारद एक तेजस्वी श्रमण को देखा। उसके चारों ओर अनेक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं उपदेश सुनने बैठे हुए थे। उसी समय राजा 'शरण दो''शरण दो' की आवाज करता हुआ वहां आया। साधुओं ने अभय का उपदेश दिया। आश्वस्त होकर राजा वहीं बैठ गया। तापस भी 'यह हाथ से निकल गया' यह कहकर वापिस लौट गए। साधुओं ने राजा को धर्म का रहस्य बताया। प्रभावित होकर राजा ने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया। देव तापस ने भी अपनी माया समेट ली। राजा ने अनुभव किया कि मैं तो सिंहासन पर बैठा हूं न कहीं गया और न आया फिर यह घटना कैसे घटो? प्रभावती रूप देव ने आकाशवाणी करते हुए कहा-'राजन् ! यह सब माया मैंने तुमको प्रतिबोधित करने के लिए की। अब तुम धर्म में दृढ़ रहना और कभी आपत्ति का अनुभव करो तो मुझे याद कर लेना।' यह कहकर देव अन्तर्धान हो गया।
उसी समय गंधार जनपद में एक श्रावक दीक्षा लेना चाहता था। वह सभी तीर्थकरों को जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, कैवल्यभूमि और निर्वाण -भूमि को देखकर लौटा। उसने सुना कि वैताद्य पर्वत की गुफा में ऋषभ आदि तीर्थंकरों की रत्न-निर्मित स्वर्ण-प्रतिमाएं हैं। साधु के मुख से यह बात सुनकर उसके मन में वह स्थान देखने की भावना जागृत हुई। उसने देवता की आराधना करके प्रतिमा प्रकट करायी।
वह श्रावक वहां रहता हुआ अहर्निश भगवान् की स्तुति करने लगा। उसके मन में रल्लों
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नियुक्तिपंचक
और सोने के प्रति थोड़ा भी लोभ जागृत नहीं हुआ। उसका मानस अध्यात्म से पूर्णतया आपूरित था। श्रावक की निर्लोभता और अनासक्ति से देवताओं को बहुत आश्चर्य हुआ। प्रसन्न होकर देवता ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए श्रावक बोला-'देवानुप्रिय ! मैं अब भौतिक काम-भोगों से विरत हो गया हूं अत: अब वरदान से मुझे क्या प्रयोजन है?' देवता ने प्रसन्नता से कहा कि देवदर्शन निष्फल नहीं होते। देवता ने उसे आठ सौ गुटिकाएं दीं, जो मन इच्छित वस्तुएं दे सकती थीं। श्रावक ने वे अपने पास रख ली और वहां से प्रस्थान कर दिया।
कुछ दिनों पश्चात् उसने सुना कि वीतभय नगर में सर्व अलंकारों से सुशोभित देवों द्वारा अवतारित प्रतिमा है। वह उस प्रतिमा को देखने की इच्छा से वीतभष गया। कुछ दिन वहीं रहने की इच्छा से वह वहीं देवायतन में ठहर गया। किसी कारण से वह वहां रुग्ण हो गया। कृष्णगुटिका दासी वहीं रहती थी अतः उसने उसकी खुन सेवा की। श्रावक ने सोचा मैं तो दीक्षा लूंगा अतः गुटिकाओं से मेरा क्या प्रयोजन? यह सोचकर उसने कृष्णगुटिका को सेवा से प्रसन्न होकर सारी गुटिकाएं उसे देकर वहां से प्रस्थान कर दिया। दासी ने सोचा कि ये गुटिकाएं वास्तव में मनोरथ पूर्ण करने वाली हैं अथवा केवल कल्पना मात्र? उसने मन में चिंतन किया कि यदि ये प्रभावशाली हैं तो मैं उत्तप्त स्वर्ण जैसी वर्णवाली रूपवती और सुभगा गारो बन जाऊं। वह वैसी ही बन गई। लोगों ने उसके अद्भुत रूप को देवता का प्रसाद माना और उसे स्वर्णगुटिका कहने लगे। स्वर्णगुटिका को उन गुटिकाओं पर विश्वास हो गया। उसने दूसरी गुटिका मुख में रख कर चिंतन किया कि इस गुटिका के प्रभाव से राजा प्रधांत मेरा पति बने।
वीतभय से उज्जैनी नगरी केवल अस्सी योजन दूर थी। एक दिन सहसा प्रद्योत की राजसभा में कुछ अग्रणी पुरुषों ने कहा कि वीतभय नगरी में देवावतारित प्रतिमा की सेवा में रहने वाली कृष्णगुटिका दासी देवअनुग्रह से स्वर्णगुटिका बन गई है। वह अत्यन्त लावण्यवती है। उसके सौन्दर्य के पिपास अनेक व्यक्ति हैं। सारी बात सुनकर प्रद्योत ने एक दत राजा उद्रायण के पास भेजा और संदेश भिजवाया कि स्वर्णगुटिका को इस दूत के साथ भेज दो। दूत राजा उद्रायण के पास गया और स्वयं के आने का प्रयोजन बताया। उद्रायण ने दूत का तिरस्कार करके उसे वापिस भेज दिया। दूत ने सारी बात प्रद्योत को बतायी। कुछ दिनों बाद राजा प्रद्योत ने गुप्त रूप से एक दूत को स्वर्णगुटिका के पास भेजा और उसका अभिप्राय जानना चाहा। दुत ने पूछा-'यदि स्वर्णगुटिका राजा प्रद्योत से प्रेम करती है तो वह गुप्त रूप से उसके पास आ जाए।' दासी ने उत्तर दिया कि यदि देवावतारित प्रतिमा भी मेरे साथ जाए तो मैं जाने के लिए तैयार हूं अन्यथा मैं वहां नहीं जा सकती। दूत की बात सुनकर राजा प्रद्योत अनलगिरि हस्तिरन पर आरुढ़ होकर एक दिन में ही बीतभय नगरी पहुंच गया। प्रदोष-बेला में उसने स्वर्णगुटिका से गुप्तरूप से बात की।
। उसी समय बसन्त महोत्सव के अवसर पर लेप्यक उत्सव मनाया गया। प्रद्योत ने उस अवसर पर एक सुन्दर मिट्टी की प्रतिमा बनवायी। गीत, नृत्य, वाद्य आदि के साथ उसने वह प्रतिमा भी देवावतारित प्रतिमा के देवालय में रखवा दी। भाग्ययोग से छलपूर्वक मिट्टी की प्रतिमा उसी मन्दिर में रख दी गयी। लोग जब ढोल आदि बजा रहे थे तब उन्हीं के सामने स्वर्णगुटिका देवप्रतिमा को बाहर ले आई। लोगों ने सोचा कि मिट्टी की प्रतिमा बाहर लायी होगी। प्रद्योत स्वर्णगुटिका और प्रतिमा दोनों का हरण करके ले गया।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
जिस रात्रि में गंधहस्ती अनलगिरि ने वीतभय नगरी में प्रवेश किया, उसकी गंध से आलानस्तम्भ में बंधे हाथी पृथ्वी पर लुढ़कने लगे और स्तम्भों को तोड़ने का प्रयत्न करने लगे। मंत्रियों ने सोचा, अनलगिरि अपने खंभे को तोड़ कर यहां आ गया होगा अथवा कोई जंगली हाथी आया होगा। प्रात:काल यथार्थ वृत्तान्त ज्ञात हुआ । गुप्तचरों ने अनलगिरि का मल देखा अतः राजा को निवेदन किया कि रात्रि में राजा प्रद्योत आया था लेकिन वह वापिस चला गया। यह सुनकर राजा स्वर्णगुटिका दासी की खोज करायी। ज्ञात हुआ कि मध्यरात्रि में राजा प्रद्योत ने स्वर्णगुटिका दासी का अपहरण कर लिया है।
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देवावतारित प्रतिमा की यह विशेषता थी कि उस पर चढ़ाए गए फूल चंदन की शीतलता के कारण म्लान नहीं होते थे। राजा उद्रायण मध्याह्न में जब देवायतन गया तो फूलों को म्लान देखा। राजा ने चिंतन किया कि यह देवकृत उपद्रव है अथवा देव-प्रतिमा के स्थान पर दूसरी प्रतिमा रख दी है। फूलों को हटाने पर ज्ञात हुआ कि प्रद्योत ने प्रतिमा की भी चोरी की है। कुपित होकर राजा ने दूत के साथ संदेश भिजवाया कि तुमने दासी की चोरी की इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है लेकिन मेरी प्रतिमा वापिस कर दो। प्रत्युत्तर में राजा प्रद्योत ने कहा कि मैं प्रतिमा भी वापिस नहीं करूंगा। यह बात सुनते ही उद्रायण के रोष का पार नहीं रहा। राजा उद्रायण ने दस राजाओं के नेतृत्व में विशाल सुसज्जित सेना लेकर उज्जैनी की ओर प्रस्थान किया।
भयंकर ग्रीष्म ऋतु का समय था । मरुभूमि में पैदल चलने से तथा पानी के अभाव में सारी सेना तीसरे हो दिन व्यथित और दुःखी हो गयी। सेना की यह स्थिति देखकर राजा दुःखी हो उठा। बहुत चिंतन करने पर भी कोई समाधान नहीं मिला। अंत में राजा ने रानी प्रभावती का स्मरण किया। फलस्वरूप प्रभावती का आसन कंपित हुआ। प्रभावती देव ने अवधि ज्ञान से जाना कि राजा उद्रायण अभी आपत्ति में है। देव प्रभाव से खूब वर्षा हुई। कृत्रिम सरोवर बना दिए गए। शीतल वायु बहने लगी। यह देवकृत सरोवर है अतः वहां पुष्कर तीर्थ की स्थापना कर I
उद्द्रायण ने उज्जैनी पर चढ़ाई कर दी। अकारण ही अनेक लोगों की मौत को देखकर उद्रायण ने चण्डप्रद्योत से कहा - 'विरोध तो परस्पर हमारा है अतः हम दोनों ही लड़ेंगे। शेष निरपराध जनता को मारने से क्या लाभ?' प्रद्योत ने उद्रायण की बात स्वीकृत कर ली। दूतों के माध्यम से आपस में चिन्तन किया कि युद्ध हाथी से करें, रथ से करें अथवा घोड़ों से? प्रद्योत ने कहलवाया कि तुम्हारे पास श्रेष्ठ हस्ती नहीं है अतः रथ से ही युद्ध करेंगे। लेकिन युद्ध के दिन राजा प्रद्योत हाथी लेकर उपस्थित हुआ। उद्रायण रथ पर आरूढ़ था। शेष सेना दर्शक की भांति मध्यस्थ भाव से युद्ध का नजारा देख रही थी। उद्रायण ने चुनौती देते हुए कहा कि अपने वचन का पालन न करने वाले को जीने का कोई अधिकार नहीं है। प्रथम बार में ही क्षत्रिय शौर्य दिखाते हुए उद्रायण ने चक्रभ्रम की तरह तीर छोड़ा जिससे हाथी के चारों पांव बिंध गए। वह मृत होकर वहीं गिर गया। उद्रायण ने प्रधीत को हराकर बंदी बना लिया। उज्जैनी पर उद्रायण का अधिकार हो गया। स्वर्णगुटिका दासी को वहीं मार दिया गया। प्रतिमा देवाधिष्ठित थी अतः वहां से वापिस वीतभय ले जाना संभव नहीं हो सका। राजा उद्रायण ने प्रतिबोधित करने के लिए प्रद्योत के ललाट पर 'दासीपति' शब्द अंकित करवा दिया। उद्रायण अपनी सेना के साथ प्रद्योत को बंदी बनाकर ले गया। उस समय तक वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गयी थी। प्रतिदिन दसों मुकुटबद्ध राजा और उद्रायण के आहार करने के पश्चात् प्रद्योत को आहार करवाया जाता था।
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नियुक्तिपंचक
__एक बार पर्युषण काल में उद्रायण ने उपवास किया। उसने रसोइए को भेजकर प्रद्योत को पूछवाया कि आज तुम्हारे लिए क्या बनवाया जाए? प्रद्योत से जब उसकी इच्छा पूछी गयी तो उसका भन आशकिरा हो गया। उसने सोचा आज तक मुझसे यह प्रश्न नहीं पूछा गया आज ही यह बात क्यों पूछो गयी? निश्चित ही राजा विष मिश्रित भोजन देकर मुझे मारना चाहता है । तत्काल उसके मन में चिंतन उभरा कि संदेह नहीं करना चाहिए अत: इसी से पूछू कि वास्तविकता क्या है? पूछने पर रसोइए ने उत्तर दिया कि राजा श्रमणोपासक है अतः पर्युषण पर्व की आराधना के लिए उपवास किया है, इसलिए आपकी इच्छा जानने के लिए मुझे भेजा है। यह सुनते ही प्रद्योल को स्वयं पर बहुत ग्लानि हुई और वह अपने आपको धिक्कारने लगा कि आज मुझे पर्युषण का दिन भी याद नहीं रहा। फिर उसने कहा कि मैं भी भ्रमणोपासक हूँ अतः राजा से कहना कि मैं भी आज उपवास करूंगा। रसोइए ने जाकर सारी बात उद्रायण के सामने प्रकट की। आत्मचिंतन करते हुए उद्रायण ने सोचा-'मैंने अपने सार्मिक को बंदी बना रखा है अत: आज मैं उसे मुक्त किए बिना शुद्ध सामायिक नहीं कर सकता।' राजा उसी क्षण प्रद्योत के पास गया और उसके सारे बंधन खोलकर क्षमायाचना की। ललाट पर लिखित शब्दों को ढंकने के लिए उद्रायण ने प्रद्योत के सिर पर एक स्वर्णपट्ट बंधवा दिया। उसी दिन से राजा प्रद्योत पट्टबद्ध राजा के रूप में प्रसिद्ध हो गया। ३. दरिद्र किसान और चोर सेनापति
किसी गांव में उत्सव के अवसर पर धनवानों के घर खीर बनी। खीर देखकर एक गरीब के बच्चे भी खीर खाने का आग्रह करने लगे। बच्चों की इच्छा देखकर वह दरिद्र व्यक्ति मांग कर चावल और दूध लाया तथा अपनी पत्नी को खीर बनाने के लिए कहा।
वह सीमावर्ती गांव था। उस दिन चोरों को सेना वहां आ गयी। चोरों ने गांव को लूटना प्रारम्भ कर दिया। वे उस दरिद्र के घर भी आए और पात्र सहित खीर को ले गए। उस समय वह गरीब खेत पर गया हुआ था। खेत से घास आदि काटकर जब वह वापिस आया तो उसने चिंतन किया कि आज खीर बनी है अत: बच्चों के साथ ही खाना खाऊंगा। लेकिन जब वह घर पहुंचा तो बच्चों ने रोते हुए चोरों द्वारा खोर ले जाने को सारी बात बतायी। क्रोधावेश में घास के गट्ठर को वहीं छोड़कर वह चोरों की पल्ली में गया। वहां उसने सेनापति के सामने खीर का पात्र देखा। उस
चोर तो पुन: गांव लटने चले गए थे। सेनापति अकेला बैठा था। उसने तलवार से सेनापति का सिर काट लिया । नायक की मृत्यु पर चोर असहाय हो गए लेकिन उस समय मृतककृत्य करके सेनापति के छोटे भाई को अपना मुखिया बना दिया।
मुखिया बनने पर उसकी मां, बहिन और भाभो व्यंग्य में कहने लगी कि तुम्हारे जोवन को धिक्कार है,जो तुम अपने भाई के शत्रु से बदला लिए बिना सेनापति बन गए हो। परिजनों की बात सुनकर क्रोध में आकर वह चोर सेनापति उस गरीब को जीवित ही पकड़ कर ले आया। उसके हाथों में बेड़ियां डालकर परिजनों के सम्मुख उसे प्रस्तुत किया। चोर सेनापति ने तलवार हाथ में लेकर गरीब को संबोधित करते हुए कहा-'बोल, तेरा वध कहां करूं? तू मेरे भाई का घातक है।' गरोब ने दीन भाषा में कहा-'जहां शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारो।' उसके उत्तर को सुनकर सेनापति ने चिंतन किया कि शरणागत तो अवध्य होते हैं। उसने अपने परिजनों की ओर १. दनि ९५-९८, निभा ३१८२-८५, चू.पृ. १४०-४७ ।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
देखा। उन्होंने कहा - ' शरणागत का वध नहीं किया जाता।' यह सुनकर चोर सेनापति ने उस भ्रातृघातक को ससम्मान विसर्जित कर दिया।
४. क्रोध का दुष्परिणाम
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एक ब्राह्मण के पास एक बैल था। एक बार वह बैल को लेकर खेत जोतने के लिए गया। खेत जोतते हुए बैल थक गया और वहीं गिर गया। असमर्थता के कारण वह उठ नहीं सका। ब्राह्मण ने उसे चाबुक से मारा। चाबुक टूट गया लेकिन बैल उठ नहीं सका। अन्य कोई चीज न देखकर वह मिट्टी के ढेलों से बैल को मारने लगा। इस प्रकार एक-एक करके चार केदारों के ढेलों से उसे मारा फिर भी वह नहीं उठा तो ढेलों से मारते-मारते बैल के चारों ओर ढेलों का ढेर हो गया और वह बैल भर गया।
वह ब्राह्मण गोहत्या के पाप की विशुद्धि के लिए अन्य ब्राह्मणों के पास उपस्थित हुआ । उन्हें सारी घटना सुनायी। ब्राह्मण ने आत्मालोचन करते हुए कहा कि मुझे इतना क्रोध आया कि अभी भी क्रोध शांत नहीं हुआ हैं। ब्राह्मणों ने सारी बात सुनकर कहा- 'तुम अतिक्रोधी हो अतः तुम्हारी शुद्धि नहीं हो सकती। हम तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे। ऐसा कह उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया तथा वह लोगों की दृष्टि में निन्दा और घृणा का पात्र बन गया।
५. दिशा ही बदल गई (अत्वंकारीभट्टा )
क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी और मंत्री का नाम सुबुद्धि था। उसी नगर में धन नामक श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। सेठ के आठ पुत्रों के पश्चात् एक पुत्री हुई। सेठ ने उसका नाम भट्टा रखा। वह पारिवारिक जनों की अत्यन्त दुलारी थी अतः माता-पिता ने सभी से कह रखा था कि वह जो कुछ भी करे लेकिन इसे कोई 'चूं' तक न कहे, रोक-टोक न करे अत: उसका नाम अच्छेकारिय भट्टा - अत्वंकारी भट्टा पड़ गया। भट्टा बहुत रूपवती थी अतः अनेक लोग उससे विवाह करने के इच्छुक थे। जब वह यौवन की दहलीज पर पहुंची तो उसने संकल्प लिया कि वह उसी व्यक्ति को अपना जीवन साथी बनाएगी जो उसके सभी आदेशों का पालन करेगा तथा अपराध होने पर भी कुछ नहीं कहेगा।
एक बार उसके लावण्य से मोहित होकर मंत्री सुबुद्धि उसके साथ विवाह करने को तैयार हो गया। मंगल - बेला में दोनों विवाहसूत्र में बंध गए। मंत्री सदा उसकी आज्ञा का पालन करने लगा । मंत्री प्रतिदिन राजकार्य समाप्त कर एक प्रहर रात बीतने पर घर लौटता था। भट्टा ने मंत्री से कहा कि आप सायं घर शीघ्र आया करें। पत्नी के कहे अनुसार मंत्री शीघ्र ही राज्य के कार्य से निवृत्त होकर घर लौट आता था। एक दिन राजा ने चिंतन किया कि यह मंत्री इतनी जल्दी घर क्यों चला जाता है ? राजा के चिन्तन को जानकर अन्य राजदरबारियों ने कहा--'महाराज ! मंत्री बड़ा पत्नीभक्त है अतः वह उसकी आज्ञा का भंग नहीं कर सकता।'
एक दिन राजा ने कारणवश कुछ काम बताकर मंत्री को वहीं रोक लिया। मंत्री देरी से
१. दनि ९९, १००, द प. ६१, निभा ३९८६, ३१८७ चू. पू. १४७, १४८1 २. दनि १०५ दचू प. ६२. निभा ३१९३ चू. पू. १५० १
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६२४
नियुक्तिपंचक
घर पहुंचा। भट्टा अपने वायदे को अवहेलना सह न सकी अतः उसने द्वार नहीं खोले। मंत्री बाहर ही खड़ा रहा। जब अति विलम्ब हो गया तब मंत्री ने भट्टा से कहा--'मैं तो जाता हूं, अब तुम ही इस घर की स्वामिनी बनकर रहना।' यह सुनते ही भट्टा ने द्वार खोला और अभिमानवश अकेली ही जंगल में चली गयो । वह अनेक आभूषणों से विभूषित थी अत: रास्ते में चोरों ने उसे पकड़ लिया। चोरों ने उसके आभूषण उतार लिए और अपने सेनापति के समक्ष उसे उपस्थित किया। चोरों का मुखिया उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे विवाह-सूत्र में बंधने के लिए कहा लेकिन उसने वह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह उसे प्राप्त नहीं कर सका। अंत में सेनापति ने जलौक वैध्य के हार्थों उसे बेच डाला। उसने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा लेकिन वह शीलवती नारी थी अत: अपने धर्म से नहीं डिगी। अंत में उस जलौक वैद्य ने रोष में कहा कि जाओ मेरे लिए जलौका लेकर आओ। वह शरीर पर मक्खन चुपड़कर जल में अवगाहन करती और जौक पकड़ती। वह कार्य उसके लिए उपयुक्त नहीं था। वह वैसा करना भी नहीं चाहती थी परन्तु शीलरक्षा के लिए उसे वैसा करना पड़ रहा था। इस कार्य से उसका रूप और लावण्य नष्ट हो गया।
एक बार दूत कार्य में नियुक्त उसका भाई वहाँ अग्या। वहां उसने अपनी बहिन को पहचान लिया और उससे सारा वृत्तान्त जाना। भाई जलौक वैद्य से अपनी बहिन को मुक्त कराकर घर ले आया। वमन-विरेचन आदि प्रयत्नों से यह पूर्ण स्वस्थ हो गई। अमात्य ने उस पर विश्वास कर लिया। अपने घर लाकर उसे पुन: गृहस्वामिनी बना दिया। क्रोधपूर्वक अभिमान के दुष्परिणाम को देखकर उसने संकल्प किया कि मैं अब क्रोध और अभिमान नहीं करूंगी। अब उसका अभिमान मर चुका था। भट्टा के घर लक्षपाक तैल का निर्माण हुआ। एक मुनि ने अपनी व्रण-चिकित्सा के लिए भट्टा से वह तैल मांगा। भट्टा ने अपनी दासी को तैल का घट लाने को कहा। दासी जब घट उठाने लगी तो वह उसके हाथ से गिरकर फूट गया। इसी प्रकार दूसरा और तीसरा घट भी हाथ से गिरा और फूट गया। बहुमूल्य वैल-बटों के नष्ट हो जाने पर भी भट्टा को क्रोध नहीं आया। चौथी बार उसने स्वयं उठकर लक्षपाक तैल साधु को दिया। तीन घड़ों के फूट जाने से भी उसके मन पर कोई असर नहीं हुआ। ६. आराधक-विराधक (पांडुरा आर्या)
एक शिथिलाचारिणी साध्वी थी। उसका नाम 'पांडुरा' था। उसको शरीर और उपकरणों के प्रति आसक्ति थी अत: वह शरीरबकुश और उपकरणबकुश थी। वह प्रतिदिन स्वच्छ और सफेद वस्त्र धारण करती थी इसीलिए लोगों ने उसका नाम 'पादुरा आर्या' रख दिया। पांडुरा को अनेक विद्या, मंत्र, वशीकरण और उच्चाटन आदि की जानकारी थी तथा उसको अनेक विद्याएं सिद्ध थीं। वह उन विद्याओं का प्रयोग भी करती थी। इन विद्याओं का चमत्कार देखने अनेक व्यक्ति श्रद्धा से उसके पास आते और मस्तक झकाकर हाथ जोडे खडे रहते।
आधी उम्र बीतने पर उसे वैराग्य आया और उसने अपने आचार्य को निवेदन किया कि आप मुझे अकल्प्य वृत्तियों की आलोचना करवाएं। आलोचना के बाद उसने दीर्घकाल तक दीक्षापालन में अपनी असमर्थता व्यक्त की। आचार्य ने मंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करने का प्रत्याख्यान १. दनि १०६-१०९, दनू प. ६२, निभा ३१९४-९७, चू.पू. १५०, १५१ ।
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परिशिष्ट ६ कथाएं
कराकर संथारा दिला दिया तथा साधु-साध्वियों को निर्देश दिया कि यह बात लोगों को न कही जाए।
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भक्त प्रत्याख्यान के पश्चात् कुछ साधु-साध्वियों के अतिरिक्त वह एकाकी हो गयी। पहले वह बहुत लोगों से घिरी रहती थी। अब लोग उसके पास नहीं आते थे। कुछ समय पश्चात् उसे इस साधना से अरुचि पैदा हो गयी। उसने मानसिक रूप से पुनः विद्या का प्रयोग किया जिससे लोगों का आवागमन पुन: शुरू हो गया। लोग पुष्प, फल आदि भेंट लेकर वंदना करने आने लगे। आचार्य ने
साधु-- -साध्वियों से पूछा- 'क्या तुमने पांडुरा के बारे में लोगों को जानकारी दी है, जिससे इतनी भीड़ हो रही है।' श्रमणवर्ग ने नकारात्मक उत्तर दिया । आखिर पांडुरा से पूछा तो उसने यथार्थ बात बता दी। गुरु ने प्रतिबोध दिया और उसने उस दोष की आलोचना की। उसने ' 'पुन:' विद्या का प्रयोग छोड़ दिया अतः लोगों का आवागमन कम हो गया। एकाकीपन उसे खलने लगा। इस प्रकार तीन बार उसने विद्या का प्रयोग किया और पूछने पर सम्यक् प्रतिक्रमण और आलोचना की।
चौथी बार जब उसने विद्या का प्रयोग किया तो पुनः लोग आने लगे। पूछे जाने पर उसने माया का प्रयोग किया और कहा कि ये लोग पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं। इस दोष की आलोचना किए बिना ही वह काल-धर्म को प्राप्त हो गयी? मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावत की अग्रमहिषी बनी। उसके पश्चात् वह हथिनी के रूप में भगवान् महावीर के समवसरण में उपस्थित हुई। धर्मदेशना समाप्त होने पर भगवान के सामने वह जोर से विवाड़ने लगी वूड से प्रचंड छोड़ने भी यह देखकर गौतम स्वामी के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने भगवान से पूछा। भगवान ने उसके पूर्वभव को बतलाया और प्रेरणा देते हुए कहा कि जो कोई साधु-साध्वी इस प्रकार माया का सेवन करेगा उसे ऐसा ही परिणाम भोगना पड़ेगा। माया के परिणाम अत्यंत भयंकर होते हैं।" ७. करणी का फल (आर्य मंगु)
आचार्य मंग बहुश्रुत, आगमज्ञ और विरक्त आचार्य थे। वे अपनी शिष्य संपदा के साथ विहार करते हुए एक बार मथुरा नगरी पधारे। उनके वैराग्य को देखकर लोगों ने वस्त्र आदि से अभ्यर्थना की तथा प्रतिदिन दूध, दही, घी आदि स्वादिष्ट पदार्थों का दान देने लगे। आचार्य मंगु सुख और भोगों में प्रतिबद्ध होकर वहीं रहने लगे। वे विहार की चर्चा भी नहीं करते। शेष साधुओं की यह बात नहीं भायी। वे अन्यत्र विहार कर गये। आचार्य मंगु ने अन्तिम समय में अपने कृत्य पापों की आलोचना नहीं की अतः वे व्यन्तर जाति में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए। उस स्थान से जब कोई साधु विहार करते तब वे यक्ष-प्रतिमा में प्रवेश करके खूब लम्बी जीभ निकालते। साधुओं के पूछने पर वे कहते कि मैं जीभ के सुख में प्रतिबद्ध और आसक्त हो गया था अतः कम ऋद्धिवाला देव बना हूं। तुम लोगों को प्रेरणा देने यहां आया हूं। तुम जिह्वा सुख में प्रतिबद्ध मत होना। २ ८. आचार्य कालक और पर्युषणपर्व
'उज्जयिनी नगरी में बलमित्र और भानुमित्र नामक दो राजा थे। उनका भानजा आचार्य कालक द्वारा दीक्षित हुआ। राजाओं ने आक्रुष्ट होकर आर्य कालक को देश निकाला दे दिया। वे
१. दनि ११०.१११. ट्चू प. ६२,६३, निभा ३१९८, १९९, चू. पू. १५१. १५२ । २. दमि ११२, दचू प. ६३, निभा ३२०० चू. पू. १५२, १५३ ।
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नियुक्तिपंचक
प्रतिष्ठान नगर में गए। वहां शातवाहन नामक राजा श्रावक था। उसने 'श्रमणपूजा' नामक उत्सव प्रारम्भ किया। और अंत:पुर में कहा कि अमावस्या और अष्टमी आदि को उपवास करके पारणे में साधु को भिक्षा देकर पारणा करना चाहिए।
एक बार पर्युषणाकाल निकट आने पर शातवाहन को आचार्य कालक ने कहा कि भाद्रव शुक्ला पंचमी को पर्युषणा होती है। राजा ने कहा-'उस दिन मेरे यहाँ इन्द्र-महोत्सव होगा अतः मैं उस दिन साधु और चैत्य की पर्युपासना नहीं कर सकूँगा अतः षष्ठी के दिन पर्युषणा कर ली जाए।' आचार्य ने कहा-'पंचमी के दिन का अतिक्रमण नहीं हो सकता। राजा ने निवेदन किया कि फिर चतुर्थी को ही पर्युषणा कर ली जाए। आचार्य ने कहा कि ऐसा संभव है अत: चतुर्थी के दिन ही पर्युषणा की गयी। इस प्रकार कारण उपस्थित होने पर चतुर्थी को भी पर्युषण मनाया गया। ९. ईर्यासमिति की जागरूकता
एक साधु ईर्या समिति में उपयुक्त था। उसकी साधना के प्रभाव से इन्द्र का आसन चलित हो गया। इन्द्र ने देवताओं के मध्य उसकी प्रशंसा की। एक मिथ्यादृष्टि देव इस प्रशंसा को सह नहीं सका अत: वह उस साधु के निकट आया। उसने मक्खी जितने प्रमाण की मेंढ़कियों की विकुर्वणा की। पूरा मार्ग मेंढ़कियों से समाकुल हो गया। उसी मार्ग पर पीछे से एक हाथी दौड़ता हुआ आ रहा था। उसका भरा था पर मुनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वे ईर्यापूर्वक मार्ग में चलते रहे। हाथी निकट आया और उसने मुनि को सूंड से पकड़ ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्वों की हिंसा होगी इस दयाभाव में परिणत होकर वे ध्यानस्थ हो गए। १०. मनोगुति
एक श्रेष्ठीपुत्र अपनी पत्नी को छोड़कर प्रवजित हो गया। एक बार वह शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित था। उसकी पत्नी एक पारदारिक के साथ उसी शून्यगृह में आयी। अंधकार सघन था। वहां एक मंचक था । स्त्री ने मंचक को उठाया। न दीखने के कारण पंचक का एक हिस्सा (पाया) मुनि के पैर पर रख दिया। मुनि को मंचक के उस पाये को कोल की चुभन महसूस होने लगी। पर वे प्रतिमा में स्थित थे। पारदारिक ने उसके साथ रतिक्रीड़ा की। मुनि ने दोनों को अनाचार का सेवन करते देख लिया, जान लिया पर वे विचलित नहीं हुए। वे प्रतिमा में स्थिर रहे।
१. ३.
दनि ६८, दचू प. ५५।
२. दनि ९१, दचू प. ५९। दनि ९२, दचू प. ६०, दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की ८-१० इन तीन कथाओं का क्रमांक आगे अनुवाद के पादटिप्पण में नहीं लग पाया है अत: इनको क्रम की दृष्टि से अंत में रखा है।
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परिभाषाएं
अठगव - अयोगव । सुद्देण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ ।
शूद्र पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अयोगव कहलाती है । अंबट्ट - अम्बष्ठ । बंधणेणं वइस्तीए जाओ अंबट्टो ति बुच्चइ ।
ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहलाती है । अभ्स अकर्मा । कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो । जिसके सभी कर्म अपगत हो गए हों, वह अकर्माश है।
(उच्. ए. १४५ )
अकहा- अकथा | मिच्छतं वेदंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेति... सा अकहा देसिया समए । मिध्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अज्ञानी जो कथा करता है, वह विकथा कहलाती है F ( दर्शान. १८२ )
अकिंचन - अकिञ्चन । नत्थि बस्स किंचणं सोऽकिंचणी ।
अक्खेवणी - आक्षेपणी । जाए सोता रंजिघ्नति, सा अक्खेवणी ।
परिशिष्ट ७
जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अकिंचन है।
अकिंचणया - अकिंचनता अकिंचणया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं ति वुत्तं भवति । अपने शरीर के प्रति निःसंगता और निर्ममत्व अकिंचनता कहलाती है।
( आचू. पृ. ५ )
अगंधण - अगंधन अगंधणा णाम मरणं ववसंति, ण य वंतयं आदियंति । जो मरना पसन्द कर लेते हैं पर वान्त विष का पुनः पान नहीं करते, सर्प कहलाते हैं।
( आचू. पृ. ५)
अग्गबीय - अग्रबीज। जैसि कोटगादीणं अग्गाणि रूप्यंति ते अग्गबीया ।
(दशअचू. पृ. ११)
जिसको सुनकर श्रोता रंजित होते हैं, वह आक्षेपणी कथा है। ( दशअच्चू. पृ. ५५ ) • विज्जा-चरण- पुरिसकार समिति-गुत्तीओ जाए कहाए उवदिस्संति, सो कहाए अक्खेवणीए रसो ।
(दशजिचू. पू. १८)
जिस कथा में विद्या, चरण, पुरुषकार, समिति, गुप्तियां उपदिष्ट होती हैं, वह आक्षेपणी कथा का रस है । (दशअचू. पृ. ५६ )
वे अगंधन कुल के (दशजिचू. पृ. ८७)
जिसका अग्रभाग ही बीज है, जिसका अग्रभाग बोया जाता है, वह वनस्पति अग्रबीज कहलाती है, जैसे- कोरंटक आदि।
(दशअचू. पृ. ७५)
अग्गला - अगला । दुधारे तिरिच्छं खीलिकाकोडिये कट्ठे अग्गला । द्वार में तिरछे काष्ठ का अवष्टम्भन अर्गला कहलाती है। अचियत्त - अप्रिय । अचियत्ते त्ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति ।
( दशअचू. पू. १२७ )
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६२८
नियुक्तिपंचक
जिसको देखने से एवं जिसके साथ बातचीत करने से अप्रीति उत्पन्न होती है, वह अचियत्त-अप्रीतिकर है।
(उशांटी.प, ३४६) • अणिट्ठो पवेसो जस्स सो अचियत्तो
जिसका आना अनिष्टकर लगता है, वह अचियत्त-अप्रीतिकर हैं। (दशअचू. पृ. १०४) अच्चि-अर्चि। दीवसिहासिहरादि अच्ची। दीपशिखा के अग्रभाग को अर्चि कहते हैं।
(दशअचू.पृ. ८९) • दासप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः। दाह्य वस्तु से प्रतिबद्ध ञ्चाला-विशेष अर्चि कहलाती है। (आटी.पृ. ३३) • अच्ची नाम आगासाणुगयापरिच्छिन्ना अग्गिसिहा। आकाश की ओर ऊपर उठने वाली अपरिच्छिन्न अग्निशिखा अर्चि कहलाती है।
(दशजिचू,पृ. १५६) अच्छिन्नसंधना-अच्छिन्नसंधना । पसत्थेसु भावेसु बट्टमाणो अपुव्वं भावं संधेइ एसावि अच्छिन्नसंधणा।
प्रशस्त भावों में वर्तमान व्यक्ति जिन अपूर्व भावों का संधान करता है, वह अच्छिन्नसंधना कहलाती है।
(आचू. पृ. ४७) अण्झप्प-अध्यात्म। अप्माणमधिकरेऊण जं भवति तं अण्झप्प।
आत्मा को लक्ष्य कर जो लिया जाता है. वह गारा है। (रणयन पृ. २४१) अण्झयण-अध्ययन। अण्झप्पस्साणयणं, कम्माण अवचओ उपचियाणं ।
अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। अधिगम्मति व अत्या, इमेण अधिगं च नयणमिच्छति।
अधिगं च साहु गच्छति, तम्हा अण्झयणमिच्छति ।। अध्ययन का अर्थ है-अध्यात्म का आनयन। उपचित (संचित) कर्मों का अपचय और नए कमो का अनपचय, यह सारा अध्यात्म का आनयन है। यह अध्ययन हैं। जिससे अर्थ-बोध होता है, वह अधिगम अध्ययन है अथवा जिससे अर्थनीधि में अधिक गति होती है, वह अध्ययन है। इससे मुनि संयम के प्रति तीव्र प्रयत्न करता है, इसलिए (भव्य जन) अध्ययन की इच्छा करते हैं।
(दशनि.२६,२७, उनि.६,७) अट्ट आर्त । अट्टो णाम अट्टण्झाणीवगतो रागदोससहितो।
___ आर्तध्यान से युक्त तथा राग-द्वेष से प्रभावित व्यक्ति आर्त कहलाता है। (आचू.पृ. ८७) अट्ट-आर्तध्यान । ऋतं-दु:खं तन्निमित्तं दुरण्शवसातो अटै। दु:ख का निमित्तभूत दुर् अध्यवसाय आर्तध्यान है।
(दशअचू.पृ. १६) अणंतजीव-अनंत (काय) जीव।
चनागं भज्जमाणस्स, गंठी चुपणषणो भवे । पुढविसरिसभेदेणं, अर्णतजीवं वियाणाहि ॥ गूढसिराग पत्तै, सच्छोरं जंध होइ निच्छीरं । जे पुण पणष्ट्रसंघिय, अणंतजीवं वियाणाहि ।।
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६२९
-जिसके मूल, कंद, त्वक, पत्र, पुष्प, फल आदि को तोड़ने से समानरूप में चक्राकार टुकड़े होते हैं, जिसका पर्वस्थान चूर्ण-रजों से व्यास होता है अथवा जिसका भेदन करने पर पृथ्वी सदृश भंग होते हैं, वह अनन्तकाय वनस्पति कहलाती है। -जिसके पत्ते क्षीर मुक्त अथवा क्षीर शून्य तथा गूढ़ शिराओं वाले होते हैं, जिनकी शिराएं अलक्ष्यमाण होती हैं, जिनके पत्रार्ध की संधि दृग्गोचर नहीं होती, वे अनन्तजीव बनस्पति कहलाती हैं।
(आनि १३९, १४०) मणगार-साधु । गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहि, समिया समितीहिं संजया।
बयमाणमा सुविहिता, एरिसगा हॉति अणगारा॥ जो गुप्तियों से गुस, सभी समितियों से समित, संयत और यतना करने वाले होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं।
(आनि १०५) • अगारं-गह तं जस्स नस्थि सो अणगारो।
जिसके कोई अगार-घर नहीं है, वह अनगार कहलाता है। (दशअचू. पृ. ३७) अणाइल-अनाकुल। अगाइलेत्ति न धर्म देशमानो आतुरो भवति चोदितो या आकुलव्याकुलीभवति।
जो धर्म की देशना देता हुआ तथा प्रश्न पूछने पर आकुल-व्याकुल नहीं होता, वह अनाकुल है।
__ (सूचू १ पृ. २३५) • अणाइलो गाम परीवहीपसर्गः न: समुन्य नाऽऽकुल क्रियते। जैसे मगरमच्छ आदि जलजंतुओं से समुद्र आकुल नहीं होता, वैसे ही जो परीषहों और
उपसर्गों से आकुल नहीं होता, वह अनाकुल है। (सूचू १ पृ. ६३, ६४) अणरजीवी-अनाजीवी। अणाजीवी ण तषमाजीवति लाभ-पूपणादीहिं।। जो लाभ, पूजा आदि के लिए तप से आजीविका नहीं करता, वह अनाजीवी है।
(दशअचू पृ. ५३) अणायु-अनायु । अनायुरिति नास्यागमिष्य जन्म विद्यते आगमिष्पायुष्करधो वा।
जिसका आगामी जन्म नहीं होता, जिसके आगामी आयुष्य का बंध नहीं होता, वह अनायु होता है।
__ (सूचू १ पृ. १४४) • न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्वस्य स भवत्यनायुः। जिसके चारों प्रकार का (मनुष्य, देव, नरक और तिर्यञ्च) आयुष्य न हो, वह अनायु है।
(सूटी पृ. ९७) अणिदाण-अनिदान। माणुसरिसिनिमित्तं तव-संजमं न कुव्वा से अनियाणे।।
जो मनुष्य-सम्बंधी ऋद्धि को प्राप्त करने के लिए तप, संयम नहीं करता, वह अनिदान होता है।
(दशजिचू पृ. ३४५) • अणिदाणो ण दिव्य-माणुम्सएस कामभोगेषु आसंसापयोग करेति जो देवसंबंधी तथा मानुषिक कामभोगों की आशंसा नहीं करता, वह अनिदान है।
(सूचू १ पृ. ७६) मणिम्-अनिवृत । तत्तं पाणिवं पुणो सीतलीभूत आवशायपरिणाम जाति तं अपरिणय अणिव्युई।
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F30
नियुक्तिपंचक
गर्म पानी भी ठंडा हो जाने पर पुनः अप्काय के परिणाम (सचित्त जली वाला बन जाता हैं, वह अपरिणत और अनिवृत जल कहलाता है।
(दशअचू पृ. ६१) अणिह-अनिभ। अनिहो नाम परीषहोपसगैन निहन्यते तव-संजमेसु वा संतपरकम ण णिहेति।
जो परीषहों और उपसगों से पराभूत नहीं होता उपथवा जो तप और संयम में अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, वह अनिभ है।
(सूचू १ पृ. ५५) अणुक्कस-अनुत्कर्ष । अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानरुत्कर्ष गच्छति। जाति आदि मदस्थानों के आधार पर जो अहंकार नहीं करता, वह अनुत्कर्ष है।
(सूचू १. पृ. ४५) अणुमेहा-अनुप्रेक्षा। अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअट्टेइ, णो वायाए। अनुप्रेक्षा का अर्थ है-मानसिक जाप, इसमें वचन का सर्वथा विसर्जन होता है।
(दशहार्टी प. ३२) • सुतऽत्थाणं मणसाऽणुचितणं। सूत्रार्थ का मन ही मन अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
(दशअचू पृ. १६) अणुभाव-अनुग्रह और विग्रह का सामर्थ्य । अणुभावो णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम् ।
शाप देने और अनुग्रह करने का सामर्थ्य अनुभाव कहलाता है। (उचू पृ. २०८) अणुव्विाग–अनुद्विग्न । अणुष्विग्गो परीसहाणं अभीउ ति पुतं भवति।
परीषहों में अभीत रहने वाला अनुद्विग्न कहलाता है। (दजिच् पृ. १६८) अत्तगवेसि-आत्मगवेषी। अत्तगवेसगो णाम णरगेसु पडमाणं अत्तार्ण गवसतीति अत्तगवेसिणो।
जो नरक आदि दुर्गति में गिरती हुई आत्मा की गवेषणा करते हैं, वहां की उत्पत्ति के कारणों की मीमांसा करते हैं, वे आत्मगवेषी हैं।
(दशजिवू पृ. २९२) अत्तपण्ण-आत्मप्रज्ञ। जेहिं इह अप्पीकता पण्णा ते अत्तपन्ना।
जो प्रज्ञा को आत्मसात् कर लेते हैं, वे आत्मत्रज्ञ हैं। (आचू, पृ. २०१) अत्तय आत्मवान्। णाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अस्थि सो अत्तवं।
जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और बारित्रमय हो, वह आत्मवान् है। (दशअचू पृ. १९७) अत्यविणय-अर्थविनय। आत्थनिमित्तं रायादीण विणयकरणं अत्थविणयो।
धन के लिए राजा आदि का विनय करना अर्थविनय है। (दशअचू पृ. २०२) अदिधम्म- अदृष्टधर्मा। अदिट्ठधम्मे णाम सुतधम्म-चरित्तधम्मअजाणए भण्णइ ।
जो श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को नहीं जानता, वह अदृष्टधर्मा है। (दजिचू पृ. ३१७) अदीण-अदीन । अदीणो णाम जो परीसहोदए ण दीणो भवति अथवा रोगिवत् अपत्थाहारं अकामः
असंजमं वज्जतीति अदीनः, जे पुण हृष्यंति इव ते अदीणा। जो परीषह आदि में कभी दीन नहीं होता अथवा जैसे रोगी अपथ्य आहार को छोड़ देता है वैसे ही जो असंयम का परिहार करता है तथा जो सदा प्रसन्न रहता है, वह अदोन है।
(उचू पृ. १६५) अदीणवित्ति-अदीनवृत्ति । अदीणवित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलब्भमाणेसु नो दीणभाव गच्छद।
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६३१
जो आहार, उपधि आदि नहीं मिलने पर भी दीन नहीं बनता, वह अदीनत्ति हैं।
(दशजिवू पृ. ३२२) अदेसकालपलावि-क्षेत्र और समय को जाने बिना बोलने वाला। अदेसकालपलावी जाहे किंचि कर्ज
अतीतं ताहे भणति जति पकरेंतो सुन्दरं होतं, मए पुव्वं चैव चिंतितेलयं । अदेशकालप्रलापी वह होता है, जो कार्य सम्पन्न होने पर सोचता है कि यदि मैं यह कार्य
कर लेता तो कितना अच्छा होता। मैंने पहले ही यह सोच रखा था। (उच प. १९७) अपडिण्ण-अप्रतिज्ञ। अप्रतिज्ञः इह परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः अमूर्च्छित अद्विष्टो वा।
जो इहलोक और परलोक सम्बंधी कामभोगों में अमूर्छित और आकांक्षारहित होता है. वह अप्रतिज्ञ है।
(सूचू १ पृ. १८५) अप्पिच्छ-अल्पेच्छ । अप्पिच्छया णाम जो ण मुच्छ करेइ, ण वा अतिरित्ताण गिण्हइ।
प्राप्त पदार्थों में मूच्छा न करने वाला तथा आवश्यकता से अधिक न लेने वाला अल्पेच्छ होता है।
(दजिचू पृ. ३२०) • अप्पिच्छो णाम जो अस्स आहारो ताओ आहारपमाणाओ कणमाहारेमाणो अप्पिच्छो भवति । अपनी आहार की मात्रा से जो कम आहार लेता है, वह अल्पच्छ कहलाता हैं।
(दर्शाजचू पृ. २८२) अबुह-अज्ञानी । अबुहो णाम अप्रयुद्धन्द्रियो बालः।
जिसका इन्द्रिय ज्ञान विकल है, जो बाल है, वह अबुध है। (सूचू १ पृ. ३७) अब्भक्खाण-अभ्याख्यान । अब्भक्खाणं असम्भूताभिणिवेसो। अयथार्थ अभिनिवेश अभ्याख्यान कहलाता है।
(सूयू १ पृ. २४७) अब्भुट्ठाण-अभ्युत्थान । अब्भुट्ठार्ण गाम जं अन्भुवाणरिहस्स आगयस्स अभिमुहं उट्ठाण। अभ्युत्थान के योग्य व्यक्ति के आने पर उसके सम्मुख खड़ा होना अभ्युत्थान है।
(दजिवू पृ. २९५) अभिगम-विनयप्रतिपत्ति । अभिगमो नाम साधूणमायरियाणं जा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णइ । साधुओं तथा आचार्य के प्रति की जाने वाली विनवतिपत्ति को अभिगम कहा जाता है।
(दजिवू पृ. ३२४) अभिणिध्वुड-अभिनित । अभिनिर्वतो लोभादिजयामिरातुरः।।
अभिनित वह है, जो कषाय-विजय से अनातुर हो गया है। (सूटी पृ. ११७) अभिधारणा-अभिधारणा। प्रस्विनो पहिरवतिष्ठते वावागमनमार्गे साऽभिधारणा। पसीने से लथपथ हो जाने पर बाहर वायु के आगमन मार्ग में जाकर बैठना अभिधारणा है !
(आटो पृ. ५० अभिहड-अभिसत । अभिहडं जं अभिमुहमाणीतं उवस्सए आणेऊण दिण्ण।
सम्मुख लाकर उपाश्रय में दी जाने वाली भिक्षा अभिहत भिक्षा है। (दशअचू पृ. ६० . अयल-अचल मचलोत्ति थिरो नाणादिसु थिरचित्तो, ण य भज्जति अरतिरतीहि अणुलोमेहि पहिलो
य उवसग्गेहि।
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६३२
नियुक्तिपंचक
जो ज्ञान आदि में स्थिर चित्त वाला होता है तथा अनुलोम और प्रतिलोम उपसर्गों और रतिअरति से भग्नचित्त नहीं होता, वह अचल कहलाता है।
(दचू.प. ४३) अरह-अर्हत् । नास्प रहस्य विद्यत इति अरहा। जिनके लिए कोई रहस्य नहीं रहता, वे अर्हत् हैं।
(उचू.पृ. १४५) अलोलुय-अलोलुप। आहारदेहादिसु अपडिब अलोलुए। जो आहार और शरीर के प्रति अप्रतिबद्ध-अनासक्त होता है, वह अलोलुप हैं।
(दशअचू.पू. २५४) " अलोलुए नाम ठक्कोसेसु आहारादिसु अलुलो भवइ अहवा जो अप्पणो वि देहे अपडिबनो सो अलोलुओ भण्णा। जो अच्छे आहार आदि में लुब्ध नहीं होता, वह अलोलुप है अथवा जो अपने शरीर में भी अप्रतिबद्ध होता है, वह अलोलुप कहलाता है।
(दशजिचू.पू. ३२१) अबिहेडय-दूसरों को तिरस्कृत न करने वाला। अविहेडर णाम जे पर अक्कोस-तेप्पणादीहि न
विसयति। जो आक्रोश, ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता, उसे अविहेटक कहते
(दशजिचू.पृ. ३४३) • परे विग्महविकथापसंगे सुसमत्यो वि ण तालणादिणा बिहेडयति एवं अविहेहए। जो समर्थ होते हुए भी विग्रह और विकथा के प्रसंग में ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों का तिरस्कार नहीं करता, वह अविहेटक कहलाता है।
(दशअचू. पृ. २४०) असप्पलावि-असत्प्रलापी। असप्पलावी नाम जो असंतं उल्लावेति। जो असत् बात कहता है, वह असत्प्रलापी है।
(उचू,पृ. १९७) असम्भपलावि-असभ्य बोलने वाला। असमप्पलावी जो असम्म उमावेति खरफरस-अक्कोसादि
असमै पलवइ। जो कर्कश, परुष, आक्रोश आदि असभ्य वचनों से बोलता है, वह असभ्यप्रलापी है।
(उचू. पृ. १९७) असमिक्खियपलावि-बिना विचारे बोलने वाला। असमिक्खियपलावी असमिक्खिडं उल्लविति, जं
से मुहातो एति ते उपवेति । जो बिना सोचे-समझे बोलता है, जो मुंह में आता है,वहीं बोल डालता है, वह असमीक्ष्यप्रलापी
(उचू.पृ. १९७) अस्स-अश्व। अश्नाति अश्नुते वा अध्यानमिति अश्वः। जो मार्ग को खाता है, पार हो जाता है अथवा जो पथ में व्याप्त हो जाता है, वह अश्व
(उचू.प. १२२) आठर-आतुर । सारीरमाणसेहि दुक्खेहिं आतुरीभूतो अच्यत्यं तुरति आतुरो। शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर जो अत्यंत त्वरा करता है, वह आतुर है।
(आचू.पू. १०८)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६३३
मार्गतार-धर्मशाला। तत्र आगत्य आगत्यागास तिष्ठति त आगंवागारम्।
जहां आ-आकर पथिक ठहरते हैं, वह आगंतागार-धर्मशाला है। (आचू. पृ. ३४०) आगास-आकाश। आकाशम्ते-दीप्यन्ते स्वधमोंपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्।
अपने-अपने धर्मों से युक्त पदार्थ जहां दीप्त होते हैं, वह आकाश है। (दशहाटी.प. ६९) आणापाणु-आन -अपान । णासिकागतस्स वातस्स अंतो अणुप्पवेसणमाणू पाहिं निच्छुभणं आणापाणू। नासिकागत वायु को भीतर ले जाना 'आन' तथा बाहर निकालना 'अपान' है।
(दशअचू. पृ. ६७) आणारुइ-आज्ञारुचि। जा तित्यगराणं आणा त आणं महता संवेगसमावनी पसंसई एस आणारुई। जो तीर्थकरों की आज्ञा की तीव्र संवेग से प्रशंसा करता है, आदर करता है, वह आज्ञारुचि
(दजिचू.पू. ३३) आतजोगि-आत्मयांगी। आतजोगीण ति जस्स जोगा बसे वटुंति आप्ता वा यस्य जोगा। जिसके योग वशवों होते हैं अथवा जिसके योग आस हैं. वह आप्तयोगी कहलाता है।
(दचू.प. २७) आयंक-आतंक । फुसंति पावंति आगता अंगं संकामेन्ति आयंका।
जो बाहर से आकर शरीर का स्पर्श करते हैं, उसे प्राप्त करते हैं तथा उसमें सक्रांत होते हैं, वे आतंक-सद्योघाती रोग हैं।
(आचू. पृ. २०३) • सारीरमाणसेहि दुक्खेहि अप्पार्ण अंकेति आतंको। शारीरिक और मानसिक दुःखों से जो व्यक्ति को आतंकित करता है, वह आतंक है।
(आचू. पृ. ३८) आली-आलीढ, युद्ध को मुद्रा विशेष । तत्यालीढं दाहिणपादं अम्गहुत्तं काट वाम पादं पच्छतोहुर्त
ओसारेति, अंतर दोह धि पायाणं पंचपादा। धनुर्धर के खड़े रहने की एक अवस्थिति विशेष आलीट है, जिसमें दक्षिण पैर आगे और
वाम पैर पीछे रहता है। दोनों के मध्य पांच कदमों का अन्तर होता है। (दचू.प. ४) आवण-आपण। आवणं कयविकयत्थाणं। क्रय-विक्रय का स्थान आपण है।
(दशअचू. पृ. ११७) आवेसण-आवेसन । आगंतुं विसति जहियं आवेसणं । जहां आगंतुक आकर बैठते हैं, वह आवेसन है।
(आचू. पृ. ३११) आसायणा-आशातना। मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्य होंति सब्भूता।
तेसिं तु वितहपडिवजणाए आसायणा तम्हा।। सद्भूत अर्थ को मिथ्या प्रतिपत्ति के द्वारा वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है।
(दनि.१९) • आयं सादयति आसादणा। जो आय-लाभ का विनाश करती है, वह आशातना है।
(दचू. प. ११)
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F56
( उचू.पू. १८५)
आसीविस- आशीविष। दाढासु अस्स वि स आसीविसो भण्णति । जिसकी दाढ़ा में विष होता है, वह आशीविष है। आपण आशुप्रज्ञ आसुपणे ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एवं प्रजानीते आशुप्रज्ञः । प्रश्न करने पर जिसको चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ लेता है, वह आशुप्रज्ञ कहलाता है ।
(सूचू. १. पृ. १२६ )
• आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षणलवमुहूर्त्तप्रतिबुद्धयमानता ।
आशुप्रज्ञ वह है, जो प्रतिक्षण जागरूक तथा अप्रमत्त रहता है।
आशुप्रज्ञः न छद्मस्थवद् मणसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते ।
जो छद्मस्थ की भांति मन से पर्यालोचित कर पदार्थों का अवबोध नहीं करता, वह आशुप्रज्ञ
है ।
०
निर्युक्तिपंचक
आहेण आहेण आहेणं ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते ।
( सूटी. पू. १०१ )
आसूरिय - आसूर्य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधषा एगिंदियाणं सूरो णत्थि जाव तेईदिया असूरा वा भवति ।
आसूर्य अर्थात् जहां सूर्य नहीं होता, प्रकाश नहीं होता अथवा एकेन्द्रिय जीवों से त्रीन्द्रिय जीवों तक असूर्य होते हैं, उनके आंखें नहीं होतीं । ( सूचू. १. पृ. ७२, ७३)
( सूचू. १. पृ. २२९ )
इंगाल - अंगारा खदिरादीण णिड्डाण धूमविरहितो इंगालो ।
विवाह के बाद वधू के गृहप्रवेश पर वर के घर में जो भोज का आयोजन किया जाता है, वह आहेण (बडार का बहूमेला) कहलाता हैं। (आटी. पृ. २२३)
खदिर आदि लकड़ियों के जल जाने पर जो धूमरहित धगधगता कोयला होता है, वह अंगार है । (दशअचू. पृ. ८९ )
इंदियदम - इन्द्रियसंयम । इंदियदमी सोइंदिपपयारणिरोधो वा सहातिराग-दोसणिग्गहो वा । श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का निरोध अथवा शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष का निग्रह करना इन्द्रियदम है। (दश अचू. पृ. ९३ ) इतरेतरसंजोग — इतरेतरसंयोग। दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूर्ण । दो-तीन आदि परमाणुओं का संयोग होना इतरेतरसंयोग है। ( उचू. पू. १७) ठक्कोसणियंठ-- उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ जो ठक्कोसएसु संयमट्ठाणेसु बट्टति सो उक्कोसणियंठो भण्णति । जो उत्कृष्ट संयम-स्थानों में वर्तन करता है, वह उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ है । ( उचू. पू. १४६ ) लग्ग — उग्र । खत्तिएणं सुट्टीए जाती उग्गोत्ति युच्चय ।
क्षत्रिय पुरुष से शूद्र स्त्रो में उत्पन्न संतान उग्र कहलाती है । उज्जल – उज्ज्वलन | उज्जलणं नाम धीयणमाईहिं जालाकरणमुज्जलणं । पंखे आदि से अग्नि को उद्दीप्त करना उज्वलन है। उज्जु-ऋजु । ठज्जु रागद्दोसपक्खविरहितो ।
ऋजु वह होता है, जो राग-द्वेष के पक्ष से रहित है।
( आचू. पू. ५)
( दर्शजिचू. पू. १५६ )
( दशअचू. पृ. ६३ )
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
I
उण्हपरीसह — उष्णपरीषह । जे तिव्वपरीणामा परीसहा ते भवंति उण्हा उ । जो तीव्र परिणाम वाले परोषह हैं, वे उष्ण परीयह कहलाते हैं।
उदाहरण – उदाहरण । तद्धम्मभाषी दितो उदाहरणं ।
६३५
D
( आनि २०४ )
कथनीय धर्म का समर्थन करने वाला दृष्टान्त उदाहरण कहलाता है। (दशअचू. पृ. २०) तथोदाह्रियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दाष्टन्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम् । दाष्टन्तिक अर्थ को प्रबलता से प्रस्तुत करने वाला उदाहरण हैं।
(दशहाटी. प. ३४ )
उद्देसित - उद्दिष्ट उद्देसितं जे उद्दिस्स किज्जति ।
जो किसी को उद्दिष्ट कर बनाया जाए, वह उद्दिष्टकृत है। उब्धिय— उद्भिज | उब्भिया नाम भूमिं भेत्तूण पंखालया सत्ता उप्पज्जंति। पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंग आदि सत्व उद्भिज कहलाते हैं।
( दशजिच्र. पू. १४०) उवगरणसैजम—उपकरणसंयम । उषगरणसंजभो महाधणमोल्लेसु वा दूसेसु वज्जणं तु संजमो । (दशअचू. पृ. १२) महामूल्यवान् वस्त्रों के उपभोग का संग्रम उपकरणसंयम हैं। उवज्झाय — उपाध्याय । अविदिण्णदिसो गणहरपदजोग्गो उवज्झातो।
जो गणधर पद के योग्य है, किन्तु अभी तक पद प्राप्त नहीं हैं, वह उपाध्याय हैं। (दशअचू. पृ. १५)
(दश अचू. पू. ६ )
'ठवघाणष - उपाधनकर्त्ता । ठवधाणवं जो जो सुयस्स जोगो तं तहेव करेति । जिस-जिस सूत्र के वाचन में जितना तपोयोग का कथन है, वैसा करने वाला उपधानवान् ( उच्. पृ. १९८ )
है।
उवधि - उपधि । उवधी नाम अन्येर्षा वशीकरणम् ।
( सूचू. १ पृ. १०२)
दूसरों को वश में करने का साधन उपाधि है। उषमाण— उपमान। ठपमीयतेऽनेन दाष्टन्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । दृष्टान्तगत अर्थ को जो उपमित करता है, वह उपमान है। उववहण — उपबृंहण । तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम् । साधार्मिकों के सद्गुणों की प्रशंसा कर उनको वृद्धिंगत करना उपबृंहण है।
(दशहाटी. प. ३४ )
(दशहाटी. प. १०२ )
उपसंति — उपशान्ति । णवस्स कम्मस्स अकरणं पोराणस्स खवर्ण उवसंती बुच्चति ।
नए कर्मों का अबंध और बंधे हुए पुराने कर्मों का क्षपण उपशांति । (आनू. पृ. ९१ ) उवहाण—उपधान । उवहाणं णाम तवो जो जस्स अझयणस्स जोगो आगाढमणागाढो सहेब अणुपालेयध्यो । जिस आगम के लिए जो तप विहित है, उसका उसी रूप में पालन करना उपधान हैं। ( दशजिचू. पू. १००) उवेशासंजम - उपेक्षासंयम उवेहासंजनो-- संजमवंतं संभोइयं पमायंत चोर्देतस्स संजमो, असंभोइयं चोयंतस्स असंजमो, पावयणीए कज्जे चियत्ता वा से पहिचोयण त्ति अण्णसंभोइये पिचोपति, निहत्थे कम्मायाणेसु सीदमाणे उबेहंतस्स संजमो ।
सांभोजिक मुनि को प्रमाद के प्रति जागरूक करना, प्रवचन के प्रति होने वाली अवहेलना
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६.३६
नियुक्तिपंचक
को टालने के लिए असांभोजिक मुनि को जागरूक करना तथा कर्मादान से विषण्ण गृहस्थ को जागरूक करना उपेक्षा संयम है।
( दशअचू. पू. १२)
ठस्सूलग - खाई। उस्सूलगा णाम खातिओ उवाया जत्थ परबलाणि पडति । वह परिखा, जहां शत्रुसेना गिर पड़ती है, उसे उस्सूलक कहते हैं। एग - शुद्ध आत्मा। एगो नाम रागद्दोसरहितो ।
एक अर्थात् राग-द्वेष रहित शुद्ध आत्मा ।
एगचर - एकचर। एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति । जो अकेला चलता है, जिसका कोई सहयोगी नहीं होता, वह एकचर है।
शरद्काल की रात्रि में मेघोत्पन्न स्नेह विशेष को ओस कहते हैं। कंदण - क्रन्दन। कंदणं महता सद्देण विरवणं संपओग-विप्पओगत्थं ।
संयोग और वियोग के लिए जोर-जोर से चिल्लाना क्रन्दन है | कप्पित - कल्पित कम्पितं असन्भूतमवि अत्थसाहणत्यमुपपादिज्जति । असद्भूत अर्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न कल्पित है ।
( सूचू. १ पृ. १०६ )
ओगाहरुइ — अवगाढ़रुचि । ओगाहरुई नाम अणेगनयवायभंगुरं सुयं अत्यओ महता संवेगमावज्जइ एस ओगाहरूई ।
जो अनेक नय और वादों-विकल्पों से युक्त गंभीर श्रुत के अर्थ को तीव्र संवेग से ग्रहण करता है, वह अवगाद्रुचि कहलाता है। ( दर्शाजचू. पू. ३४)
ओय
- शुद्ध रागद्दोसविरहितं चित्तं ओअं ति धन्नति सुद्धं ।
जिसका चित्त राग-द्वेष से शून्य है, जो शुद्ध है, वह ओज कहलाता है। ( दचू.प. २७) ओस्सा - ओस । सरयादसि दिया
(दशअचू. पृ. ८८ )
• कब्बडं णाम धुलओ जस्स पागारो ।
वह गांव, जहां धूल का प्राकार हो, कर्बट कहलाता है। कम्मपुरुष — कर्मपुरुष । कम्मपुरुषो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करेति । कर्मपुरुष वह व्यक्ति है, जो अति पौरुषेय कार्य करता I
करग - ओला । बरिसोदगं कढिणीभूतं करगो ।
( उचू. पृ. १८२ )
( देश अचू. पू. २१)
कब्बड - छोटा गांव | कब्बडं कुणगरं जत्थ जलत्थलसमुब्भवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि । जहां जल और स्थल कहीं से भी क्रय-विक्रय नहीं होता, वह कर्यट कहलाता है। ( दर्शाजचू. पू. ३६० )
(उच्. पृ. ६६ )
कलह — कलह । कलाभ्यो हीयते येन स कलहः ।
जिससे सारी कलाएं क्षीण हो जाती हैं, वह कलह है ।
(दश अनू. पू. १७ }
(आचू. पृ. २८१ )
आकाश से गिरने वाले उदक के कठिन भाग को करक- ओला कहते हैं।
( सूचू. १ पृ. १०२ )
(दश अचू. पू. ८८ )
(उच्च्. पृ. १७१)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६३७
है।
कल्लाण-कल्याण, मुक्ति। कल्लं-आरोग्गं तं आगेइ कल्लाणं संसारातो विमोक्खण।
कल्य का अर्थ है-आरोग्य। जी आरोग्य या स्वास्थ्य प्रदान करता है वह है कल्याण । कल्याण का अर्थ है-संसार से मुक्त हो जाना।
(दशअचू पृ. ९३) कसायकुसील-कषायकुशील। फसायकुसौलो जस्स पंचसु णाणाइस कसारहिं विराहणा
कमजति सो कसायकुसीलोत्ति। जो ज्ञानादि पांच प्रकार के आकार में कषाय के द्वारा पिता cl:. है, या गोल
(उचू पृ. १४४) कहा-कथा । तव-संजमगुणधारी, जं चरणरया कहेंति सन्भावं।
सयजयजीवहिर्य, सा उ कहा देसिया समए॥ जो ताप, संयम आदि गुणों के धारक चारित्ररत श्रमण संसारस्थ प्राणियों को हितकर तथा
परमार्थ का उपदेश देते हैं, वह कथा (उपदेश) कहलाती है। (दशनि १८३) कागिणी-काकिनी । कागिणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो धीमोवगस्स चतुभागो। रुपए का अस्सीवां भाग तथा विसोपग (एक सिक्का) का चौथा भाग काकिनी है।
(उचू पृ. १६१) काम-काम। उक्कामयंति जीवं धम्मातो तेण ते कामा।
जो धर्म से उत्क्रान्त–दूर करता है, वह काम कहलाता है। • विविक्तवित्रम्भरसो हि कामः। एकान्त में शृंगाररस की बात करना काम है।
(सूचू १ पृ. १०५) • शब्द-रस-रूप-गन्ध-स्पर्शाः मोहोदयाभिभूतैः सत्वैः काम्यन्त इति कामाः। मोह के उदय से अभिभूत व्यक्तियों द्वारा जो इन्द्रियविषय काम्य होते हैं, वे काम कहलाते
(दशहाटी प. ८५) कायसंजम-कायसंयम। कापसजमो नाम आवस्सगाइजोगे मोत्तुं सुसमाहियपाणिपादस्स
कुम्मो इव गुतिदियस्स चिट्ठमाणस्स संजमो भवइ । आवश्यक आदि संयम-योग में की जाने वाली प्रवृत्ति को छोड़कर जो हाथ-पैर से सुसमाहित तथा कूर्म की भांति गुप्तेन्द्रिय होता है, उसके 'क्राय-संयम' होता है।
(दशजिचू पृ. २१) कासव-काश्यप। काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा ते इक्टुं पिबति तेन काश्यपा अभिधीयते।
'काश्य का अर्थ है-इक्षु । इक्षु का पान करने वाला काश्यप कहलाता है। (दशजिचू पृ. १३२) कित्ति-कीर्ति । परेहिं मुणसंसणं कित्ती। दूसरों द्वारा किया जाने वाला गुणकोर्तन कीर्ति है।
(दशअचू पृ. २२७) • सर्वदिग्व्यापी साधुवाद: कीर्तिः। सब दिशाओं में व्याप्त साधुवाद कोर्ति है।
(दशहाटो प. २५७) किमिच्छय-किमिच्छक । राया जो जं इच्छति तस्स तं देति एस रायपिडो किमिच्छतो। याचक जो चाहता है, राजा उसको वह देता है--यह राजपिंड किमिच्छक है।
(दशअचू पृ. ६०)
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६३८
नियुक्तिपंचक
कीतकड-क्रीतकृत । कीतकह ज किणिकण दिज्जति। जो खरीद क दी जाती है, २ मा जीत है।
दशअचू. पृ. ६०) कुंडमोय--पात्र विशेष । कुंडमोयो नाम हस्थिपदागिती संठियं कुंडमोय।
हाथी के पांव के आकार वाला बर्तन कुंडमोद कहलाता है। (दशजिचू. पृ. २२७) कुसल-कुशल। कुशलो हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणः।
जो अपने हितकारी कार्य में प्रवृत्त तथा अहितकारी कार्य से निवृत्त होने में निपुण होता है, वह कुशल है।
(सृटी. पृ. ८) कुसील-कुशील । कुत्सित शीलं यस्य पञ्चसु प्रत्येकं ज्ञानादिषु सो कुसीलो।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वीर्य--इन पांच प्रकार के आचारों के प्रति स्खलित आचरण वाला कुशील है।
(उचू.पृ. १४४) कोविदया-विचक्षण। कोविदात्मा ज्ञातव्येषु सर्वेषु परिचेष्टितः।।
जिसने सभी ज्ञातव्य तथ्यों का पारायण कर लिया, वह कोधिदात्मा है । (उचू. पृ. २३८) कोहण-क्रोधी। परं च संजलयति दुक्खसमुत्येण रोसेण संजलण इव कोहणो बुच्चति। जो दुःख से उत्पन्न रोष से दूसरों को प्रज्वलित करता है, वह संज्वलन की भांति क्रोधी
___ (दचू.पृ. ३९) खण-क्षण । खणमिति कालः सो य सत्तउस्सासणिस्सास थोयो एस एवं खणो भन्नति ।
'सात उच्छ्वास-नि:श्वास परिमाण काल को क्षण कहा जाता है। (उचू. पृ. २२४) खत्तिय-क्षत्रिय । सुदेण खत्तियाणीए जाओ खत्तिओत्ति भण्णइ ।
शूद्र पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान क्षत्रिय कहलाती है। (आचू. पृ. ६) खमा--क्षमा । कोहोदयस्स निरोहो कातव्यो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं एसा खमा। क्रोध के उदय का निरोध तथा उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण क्षमा है।
(दशअचू.ए. ११) खमावीरिय-क्षमावीर्य। क्षमावीय आवश्यमानोऽपि न क्षुभ्यति।
आक्रोश करने पर भी जो क्षुब्ध नहीं होता, वह क्षमावीर्य है। (सूचू.१ पृ. १६४) खलुक-दुष्ट, अविनीत । जे किर गुरुपहिणीया, सबला असमाहिकारया पाया।
अहिगरणकारगा वा, जिणषयणे ते किर खलुका॥ पिसुणा परोषतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवति।
निम्बय-निस्सील सढा, जिणवयणे ते किर खलुका ।। जो गुरु के प्रत्यनीक, शबल दोष लगाने वाले, असमाधि पैदा करने वाले, पापाचरण करने वाले, कलहकारी, पिशुन, परपीड़ाकारी, गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने वाले, दूसरों का परिभव करने वाले, व्रत और शील से रहित तथा शठ हैं-वे जिनशासन में खलुंक-अविनीत कहे जाते हैं।
(उनि.४८८, ४८९) बवण-कर्मक्षय करने वाला। भव चठप्पगार खमाणो खवणो भण्णइ।
अणं कम्म भण्णइ, जम्हा अणं खबइ तम्हा खवणी भण्णह।
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परिशिष्ट : परिभाषाएं
६३९
जो चार प्रकार को गतियों का क्षय करता है अथवा जो अण-कर्मों का क्षय करता है, वह क्षपण कहलाता है।
(दजिचू. पृ. ३३३, ३३४) खोतोदग-क्षोदोदक । खोतोदगं णाम उच्छुरसोदगस्स समुद्रस्य अधवा इहापि इक्षुरसो मधुर एव।
(सूच.१ पृ. १४८) • खोओदर इति इक्षुरस इवोदक यस्य इक्षुरसोदकः। जिस समुद्र का पानी इक्षु रस को तरह मोठा है, उसे क्षोदोदक कहा जाता है।
(सूटी, पृ. १००) गंधण- गंधन कुल का सर्प । गंधणा णाम जे डसिकण गया मंतेहिं आगच्छिया तमेव विसं वणमुपडिया
पुणो आविर्यति ते। जो सर्प इस कर चले जाते हैं तथा मंत्रों से आहूत होकर लौट आते हैं और इसे हुए स्थान पर मुंह रखकर वान्त विष को पुनः चूस लेते हैं, वे गंधनकुल के सर्प होते हैं।
(दशजिचू. पृ. ८७) गंभीर-गम्भीर । गंभीरो नाम न परीषदः क्षुभ्यते, दांतु वा कातुं वा णो उत्तुणो भवति।
जो परीषहों से क्षुब्ध नहीं होता तथा जो देने में तथा कार्य करने में उतावला नहीं होता, वह गंभीर है।
(सूचू.१ पृ. १६४) गणहर-गणधर । यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः।
जो आचार्य के समान होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विहरण करता है, वह गणधर है।
(आटी.पृ. २३६) गणावच्छेदय-गणावच्छेदका गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः। जो गण के कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है, वह गणावच्छेदक है।
(आटी.पृ. २३६) गाणंगणिय-गाणंगणिक । गाणंगणिए त्ति गणाद् गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक
इत्यागमिका परिभाषा। जो छह महीनों के भीतर एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, वह मुनि गाणंगणिक कहलाता है।
(उशाटी. प. ४३५, ४३६) गाधा-गाथा। मधुराभिधाणजुत्ता, तेण गाह ति णं ति ।
जो मधुर उच्चारण से युक्त होती है, वह गाथा कहलाती है। (सूनि. १३८) • गाधीकता या अत्था अधवा सामुहएण छंदेण। जहां बिखरे अर्थों को पिंडीकृत-एकत्रित किया जाता है अथवा जो सामुद्रिक छंद में निबद्ध होती है, उसे गाथा कहा जाता है।
(सूनि १३९) गाम-ग्राम। ग्रसति बुद्धिमादिणो गुणा इति गामो। जहां बुद्धि आदि गुण ग्रस्त हो जाते हैं, वह ग्राम है।
(दशअचू. पृ. ९९) गिल्लियान विशेष। पुरुषद्वयोत्क्षिता झोल्लिका।। दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वालो कपड़े की झोली।
(सूटी. पृ. २२०) गुत्त-गुप्त । गुत्तो गाम मणसा असोभर्ण संकप्पं वज्जयंतो वापाए कजमेत्तं भासतो।।
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नियुक्तिपंचक
जो मन से असत् संकल्प या चिन्तन नहीं करता तथा वचन से भी कार्यवश ही बोलता है, वह गुप्त कहलाता है।
(दशजिचू-पृ. २८८) गुरु-गुरु । गणंति शास्त्रार्थमिति गुरवः। जो शास्त्र के अर्थ को अभिव्यक्ति देते हैं, वे गुरु हैं।
(उचू. पृ. २) पेय-गेय । गेयं णाम यद् गीयते सरसंचारेण। स्वरया से .या जो माना गेर वा इलाका है।
(सूचू.१ पृ. ४) गोट्ठी-गोष्ठी । समवयसां समुदायो गोष्ठी। समान वय वालों का समदाय गोष्ठी है।
(दशहाटी.प. २२) गोल-गोत्र। प्रधानमप्रधानं वा करोतीति गोत्र।
जो व्यक्ति को प्रधान या अप्रधान बनाता है, वह गोत्र है। (उचू.पृ. २७७) गोयम-गोतमा गोतमा णाम पासंक्षिणो मसगजातीया, से हि गोणं णाणाविधेहि उवाएहि
दमिऊण गोणपोतगेण सह गिहे पाणं ओहारेंना हिति। मशकजातीय अन्यतीर्थिकों का एक समूह जो छोटे बैल के साथ घूम-घूमकर अनेक उपायों से घरों से धान्य एकत्रित करते हैं।
(सूचू.१ पृ. १५२) गोरहग-गोरथक । गाओ जे (रहजोग्गा) रहमिव वा पार्वति ते गोरहगा भण्णति।
रथयोग्य बैल जो रथ की भांति दौड़ते हैं, 'गोरथक' कहलाते हैं। (दशजिचू.पृ. २५३) गोव्वतिग-गोवतिक । गोबविगा वि धीयारप्राया एव, ते च गोणा इव णत्थितेल्लगा रंभायमाणा
गिहे गिहे सुप्पेहि गहितेहि भणे ओहारेमाणा विहरति। सांड की भांति गर्जते हुए जो छाज लेकर घर-घर में धान्य मांगते फिरते हैं, वे गोप्रतिक कहलाते हैं।
(सूचू.१ पृ. १५२) घसा-पोल । असा नाम जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सव्यो चलइ सा घसा भण्णइ। एक प्रदेश को आक्रान्त करने पर जहां सारे प्रदेश हिलने लगें, वह घसा-पोल कहलाती
(दशजिचू. पृ. २३१) जंगबेर-काष्ठपात्री। चंगबेर कट्ठमयं भायण भण्णा। काष्ठमयी पात्री को चंगबेर कहा जाता है।
(दशजि.पृ. २५४) चंडाल-चाण्डाल। सुदेण भणीए आओ घंडालोत्ति पषुच्चइ ।
शूद्र 'पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान चांडाल कहलाती हैं। (आचू. पृ. ६) चक्नुसंधण-चक्षुसंधान। चक्षुसंधणं णाम दिट्ठीए दिविसमागमो। आंख से आंख मिलाना चक्षुसंधान है।
(सूचू.१ पृ. १०५) परित्तविणीय चारित्रविनीत । अट्ठपि, कम्मचर्य, जम्हा रित्त करति जपमाणो।
नवमर्न च न अधति, परित्तविणीओ भवति तम्हा।। जो आठ प्रकार के कर्मचय को रिक्त करता है और नया कर्म नहीं बांधता, वह चारित्रविनीत
(दशनि.२९४)
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परिशिष्ट ७: परिभाषाएं
छठमत्यमरण— छद्मस्थमरण । भणपज्जवोहिनाणी, सुयमइनाणी मरंति जे समणा । छठमत्यमरणमेयं... मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी आदि भ्रमण जिस मरण को प्राप्त होते हैं, वह छद्मस्थमरण है।
(उनि. २१७)
जरा -- बुढ़ापा । णरो जिज्जति जेण सा जरा ।
प्राणी जिससे जर्जरित होता है, वह जरा है।
(आचू. पृ. १०७)
जरा-जरायुज । जराठया णाम जे जरवेट्ठिया जायंति जहा गोमहिसादि । जन्म के समय जो जरायु वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं।
( दर्शाजिचू. पू. १३९, १४० ) जाणणापरिण्णा – ज्ञपरिज्ञा । जाणणापरिण्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जागइ सा तस्स जाणणापरिण्णा भवति !
(दशजिचू. पू. ११६)
किसी वस्तु को जानना ज्ञपरिज्ञा है । जाला - ज्वाला । उद्दितोपरि अविच्छिन्ना जाला ।
प्रदीप्त अग्नि से संबद्ध या अविच्छिन्न अग्निशिखा ज्वाला हैं । जिइंदिय - जितेन्द्रिय । जिइंदिओ णाम जिताणि सोयाईणि इंदियाणि जेण सो जिईदिओ । जिसने श्रोत्र आदि इन्द्रियों को जीत लिया, वह जितेन्द्रिय कहलाता है ।
जीवत्थिकाय - जीवास्तिकाय जीवत्धिकायो सततमुषयोगधम्मी । जो सतत उपयोगधर्मा होता है, वह जीवास्तिकाय है।
६.४५
( दर्शजिचू- पृ. २८५ )
जिट्ठोग्गह – ज्येष्ठावग्रह । वरिसासु चत्तारि मासा एगखेत्तोग्गहो भवत्ति त्ति जिट्ठोग्गहो । वर्षाकाल में मुनिं चार मास एक ही क्षेत्र में रहते हैं, वह ज्येष्ठावग्रह कहलाता
I
( दचू.प. ५१ )
झाण— ध्यान । दढमज्झवसाणं झाणं ।
दृढ अध्यवसाय ध्यान है।
एगरगर्चितानिरोही झा
(दशअनू. पृ. ८९ )
जुद्ध - युद्ध । जुद्धं आयुहादीहि हणाहणी ।
शस्त्रास्त्रों से मरना - मारना युद्ध है।
(दशअनू. पृ. १०२)
जोगबखेम - योगक्षेम । अप्राप्तविशिष्ट धर्मप्राप्तिः प्राप्तस्य च परिपालनं योगक्षेमम् । अप्राप्त विशिष्ट धर्म की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा करना योगक्षेम है । ( उशांटी. प. २८३ ) जोगव -- योगवान् | जोगा वा जस्स वसे वट्टेति स भवति योगवान् ।
जिसके सभी योग प्रवृत्तियां वशवर्ती हैं, वह योगवान् हैं।
( सूचू. १ पृ. ५४,५५)
D
( दशअचू. पू. १०)
( दशअचू. पू. १६ )
( दशअचू. पृ. १६)
एकाग्रचिन्तन अथवा विचारों का निरोध ध्यान हैं । टंकण - टंकण । टंकणा णाम म्लेच्छजातयः पार्वतेयाः ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि अस्सबल वा
इत्यिबल या प्रारभन्ते आगलिन्ति ।
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६४२
नियुक्तिपंचक
पार्वतीय प्लेच्छ जाति विशेष,जो पर्वत पर रहकर बड़ी से बड़ी अश्वसेना और हस्तिसेना को भी पराजित कर देती है।
(सूचू. १ पृ. ९३) टाल-बिना गुठली का फल, कच्चा फल। टालाणि नाम अबदहिगाणि भण्णति ।
जिस फल में गुठली न पड़ी हो, उसे टाल कहा जाता है। (दजिचू. पृ. २५६) ठियप्पा-स्थितात्मा। ठितप्पा णाण-दसण-चरित्तेहिं ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित व्यक्ति स्थितात्मा कहलाता है। (सूचू.१ पृ. २४८) • स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्मषिगमात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से जो आत्मस्वरूप में स्थित हो गया है, वह स्थितात्मा है।
(सूटी, पृ. ९७) णाणविणीय-ज्ञानविनीत । नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि।
नाणी नवं न बंधति, नाणविणीऔ भवति तम्हा॥ जो ज्ञान को ग्रहण करता है, गृहीत ज्ञान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य सम्पादित करता है तथा नए कर्मों का बंधन नहीं करता, वह ज्ञान विनीत कहलाता है।
(दशनि. २९३) गाणि-ज्ञानो। णाणी णाम जो विसए जहाबाट पासांत।
जो विषय को यथावस्थित देखता है, जानता है, वह ज्ञानी है। (आचू. पृ. ११५) णात-ज्ञात। णजति अणेण अत्था णातं। जिससे अर्थ ज्ञात होते हैं, वह ज्ञात है।
(दशअन्तू. पृ. २०) ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्। जिससे दाष्टान्तिक अर्थ जाना जाता है, वह ज्ञात है।
(दशहाटी. ५.३४) णिग्गंध-निग्रन्थ । मण्झऽमंतरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गयो।
बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो अतीत है, वह निर्ग्रन्थ है। (सूचू.१ पृ. २४६ ) गिट्ठाण-निष्ठात्र । णिहाणं णाम जं सम्यगुणोमवेयं सव्वसंभारसंभिर्य तं णिहाणं भण्णा।
जो सर्वगुणसम्पन्न तथा सब प्रकार के उपस्कार से युक्त होता है, वह आहार निष्ठान कहलाता है।
(दशजिचू. पृ. २८१) णिसीहिया-नषेधिकी। णिसीहिया सज्झायथाणे। नषेधिकी का अर्थ है-स्वाध्याय का स्थान।
(दशअचू. पृ. १२६) णिह-निभ। जो अप्पाणे संजमतवेसु णिहेति सो णिहो।
जो स्वयं को संयम और तप में नियोजित करता है, वह निभ है। (आचू. पृ. ७०) णिह-वधस्थान । निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम्-आघातस्थानम्। जहां कर्म के वशवर्ती प्राणियों का वध किया जाता है, वह स्थान 'निह' कहलाता है।
(सूटी. पृ. १३७) णीरय-नीरज, कर्ममुक्त। णीरया नाम अट्ठकम्मरगडीविमुक्षा भणत्ति।
आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त आत्माएं नीरज कहलाती हैं। (दशजियू. पृ. ११७)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएँ
६४३
तज्जणा-तर्जना। प्रर्बना अंगुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा। अंगुलि दिखाकर या भौंहे चढ़ाकर तिरस्कार करना या डांटना तर्जना है।
(उशांटी.प. ४५६) दव-तप । तवो णाम तावयति अट्टविहं कम्मर्गठिं नासेति ति वुर्त भवइ। जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि को तपाता है, नष्ट करता है, वह तप है।
(दशजिचू. पृ. १५) तपरिणीय-तपविनीत। अवणेति तपेण तसं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाण।
तव विणय-निच्छितमती, तबोविणीओ हवति तम्हा ।। जो तपस्या से अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष के निकट ले जाता है, वह तपोविनीत कहलाता है।
(दशनि.२९५) तवस्सि-तपस्वी। तबस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ।
तपस्वी वह है, जो उग्र तपस्या के आचरण में रत रहता है। (दशहाटी. ३१) • तपस्सी णाम तवो बारसविधो सो जेसि आयरियाणं अस्थि ते तवस्मिणो।
जो बारह प्रकार के तप में रत रहता है, वह तपस्वी है। (दशअचू. पृ. २२३) तहामप-तथागत। तहागता णाम खीणरागदोसमोहा केवलजीवसभावस्था।
जिनके राग, द्वेष और मोह सर्वथा क्षीण हो गए हैं, जो केवल आत्मस्वभाव में लीन हैं, वे तथागत हैं।
(आचू, पृ. १२२) ताइ-त्रायी । संसारमहाभयादात्मानं त्रायतीति नायी।
संसार के महान् भय से आत्मा की रक्षा करने वाला त्रायी होता है। (उचू. पृ. १७१) वालपुड-तालपुट । तालपुहं नाम जेणंतरेण ताला संपुरिति तेणंतरेण मारयतीति तालपुई।
जितने समय में दोनों हाथों को हथेलियां बंद की जाएं, उतने समय में जो मार देता है, वह तालपुट विष है।
(दशजिचू. पृ. २९२) तावस-तापस । तवो से अस्थि तावसो। जो तप करता है, वह तापस--तपस्वी है।
(दशअचू. पृ. ३७) तिगुत्त-त्रिगुप्त। तिगुत्ता मण-धयण-कायजोगनिग्गहपरा। जो मन, वचन और काया के योग का निग्रह करते हैं, वे त्रिगुप्त हैं।
(दशअचू. पृ. ६३) तित्य-तीर्थ । निजति ज तेण तहिं या तरिब्बइ सि तित्थं । जिससे या जहां से तैस जाता है, वह तीर्थ है।
(सूचू.१ पृ. २) तित्यगर-तीर्थंकर । संसारमहाभयातो भवियत्रणमुपदेसेण प्रायन्तीति परतातिणो तित्थकरा। जो भव्य लोगों को अपने उपदेश से संसार के महान् भय से त्राण देते हैं, वे परत्राता-तीर्थकर
(दशअचू.प. ५१) तुंबाग-बीया। तुंबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं असो त्वम्लानं ।
तुंबाग नाम ज तयामिलाणं अभंतरओ अयं ।
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FXX
नियुक्तिपंचक
जिसकी त्वचा म्लान हो गयी हो और अंतर भाग अम्लान या आई हो, वह तुम्बाग कहलाता
(दशअचू. पृ. ११७, दशजिचू.पृ. १८४) थाषर-स्थावर । थावरो जो थाणातो न विचलति। जो अपने स्थान से नहीं चल पाता, वह स्थावर है।
(दशअचू.पृ. ८१) • जे एगम्मि ठाणे अवटिया चिटुंति ते पावरा भणति।
जो एक ही स्थान पर अवस्थित रहते हैं, वे जीव स्थावर कहलाते हैं । (दर्शाजचू.पू.१४७) थिग्गल-दिग्गल नाम जं परस्स दारं पुबमासी त पडिपूरियं ।
घर का वह द्वार, जो किसी कारणवश फिर से चिना हुआ हो। (दशजिचू.पृ. १७४) थिरीकरण-स्थिरीकरण । स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदता सर्ता तत्रैव स्थापनम् । धर्म में विषादप्राप्त लोगो को पुन: स्थापित करना स्थिरीकरण है।
(दशहाटी. पृ. १०२) पिरिल-~यानविशेष। थिल्लि सि वेगसराद्वयनिर्मितो यानविशेषः।
जो यान दो खच्चरों से चलता है, वह थिल्लो कहलाता है। (सूटी. पृ. २२०) थेर-स्थविर । थेरो जाति-सुय-परियारहिं वृद्धो जो वा गच्छस्स संथिति करेति।
जन्म, श्रुत तथा संयम पर्याय में वृद्ध तथा गच्छ में अस्थिरता प्राप्त मुनि को स्थिर करने वाला स्थविर कहलाता है।
(दशअचू. पृ. १५) पेरग-स्थतिर । थेरगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः। जो अंतिम दशा को प्राप्त है तथा जो लाठी के सहारे चलता है, वह स्थविर है।
(सूचू.१ पृ. ८४) दंत-दान्त। दंतो इंदिरहिं णोइदिएहि य ।
जो इंद्रियों तथा नोइंद्रियों का दमन करता है, वह दान्त है। (दशअचू. पृ ९३) दैतवक्क–दान्तवाक्य । दम्यन्ते यस्य वाक्पेन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः।
जिसके वचन मात्र से शत्रु दान्त हो जाते हैं, वह दान्तवाक्य कहलाता है। (सूचू.१ पृ.१४८ ) दसणविणय-दर्शनविनय । दव्वाप सव्यभावा, उवदिवा जे जहा जिणवरेहि।
ते तह सदति नरो, दंसणविणओ भवति तम्हा।। जिनेश्वर देव के द्वारा द्रव्यों की जितनी पर्यायें जिस प्रकार उपदिष्ट हैं, जो उन पर वैसी ही श्रद्धा करता है, वह दर्शनविनय है।
(दशनि.२९२) दविय-द्रव्य, शुद्ध । दविओ नाम रागहोसरहितो। राग-द्वेष रहित चेतना द्रव्य कहलाती है।
(सूचू.१ पृ. १०६) दवजिण-द्रव्यजिन। दवजिणा जे बाहिं वेरियं वा जिणंति । बाह्य शत्रुओं को जीतने वाले द्रध्यजिन हैं।
(दशअचू.पृ. ११) दव्वपमाद-द्रव्यप्रमाद। दव्यपमादो जेण भुत्तेण वा पीतेण वा पमत्तो भवति ।
जिस द्रव्य के खाने अथवा पोने से व्यक्ति प्रमत्त होता है, वह द्रव्य-प्रमाद है। (उचू.पृ.१०२)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
दव्वपूया - द्रव्यपूजा। ईसर- तलवर माईबियाण सिव- इंद-खंद-विण्हूणं । जा किर कीरड़ पूया, सा पूया दव्ती होई ॥
ईश्वर ( धनपति), तलवर (राजा आदि), माइम्बिक (जलदुर्ग का अधिकारी), शिव, इन्द्र, स्कन्ध, विष्णु आदि की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्यपूजा कहलाती हैं । ( उनि ३०८) दव्यभिक्खु - द्रव्यभिक्षु गिहिणो विसयारंभग, उज्जुप्पण्णं जणं विमग्गंताः ।
जीवणिय दीण - किविणा, ते विज्जा दव्वभिक्छु ति ॥ करणतिए जोगतिए, सावज्जे आयहेतु पर उभए । अट्ठाऽणडुपवत्ते, ते विजा दव्वभिक्खुत्ति ॥
जो गृहस्थ का जीवन-यापन करते हुए विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋजुप्रज्ञ (भोले ) व्यक्तियों के पास याचना करते हैं, वे द्रव्यभिक्षु हैं तथा जो आजीविका के निमित्त दीन-कृपण अर्थात् कापटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे भी द्रव्य भिक्षु हैं। जो तीन करण तीन योग से अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए प्रयोजनवश अथवा अप्रयोजनवश पाप कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, वे द्रव्यभिक्षु हैं। (दशनि. ३१२, ३१५ ) दित दृष्टान्त दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः ।
जो दृष्ट अर्थ को अंत तक ले जाता है, वह दृष्टान्त है । दितिय- दाष्टन्तिक । निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दार्शन्तिकः ।
जो निश्चय से दिखाता है, निरूपित करता है, वह दार्शन्तिक है। दुमद्रुम :- साहा ताओ जेसिं विज्जंति ते इमा ।
हु का अर्थ है शाखा । जो शाखायुक्त होते हैं, वे द्रुम कहलाते हैं। भूमीय आगासे य दोसु माया दुमा |
हैं।
जो भूमि और आकाश दोनों में समाते हैं, वे द्रुम देव - देव | दी आगासं तम्मि आगासे जे वसति ते देवा । जो दिव- आकाश में निवास करते हैं, वे देव हैं। दोगुदग— क्रीडाप्रधान देव। नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णति । जो सदैव भोग में रत रहते हैं, वे दोगुंदक देव कहलाते हैं । धम्म - धर्म । घारेति दुग्गतिमहापडणे पर्ततमिति धम्रो ।
०
६४५
(दशहाटी. प. ७५)
(दशहाटी. प. ३४)
धम्मत्थकाम - धर्मार्थकाम। धम्मस्स अत्थं कामयंतीति धम्मत्यकामा ।
धर्म के अर्थ की कामना करने वाले धमार्थकाम हैं।
( दशअचू. पू. ७)
( दशअचू. पृ. ७)
(दशजिचू. पू. १५) ( उशांटी. प. ४५१)
दुर्गति के महान् गढ़े में गिरते हुए को जो धारण कर लेता है, बचा लेता है, वह धर्म है। (दश अचू. पृ. ९)
धम्मका — धर्मकथा | धम्मकहा णाम जो अहिंसाइलक्खणं सव्वण्णुपणीयं धम्मं अणुओ या कहे एसा धम्मकहा।
जिसमें सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत अहिंसा धर्म का प्रतिपादन हो अथवा उसकी विशेष व्याख्या हो, वह धर्मकथा है। (दशहाटी. प. ३२)
(दशअचू. पृ. १३९)
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निर्युक्तिपंचक
I
धम्मत्यिकाय - धर्मास्तिकाय । धम्मस्थिकायो गतिपरिणयस्स गमणोषकारि त्ति गतिसभावो गतिलक्खणो । गति में परिणत जीव और पुद्गल की गति में उपकारी, गतिस्वभाव तथा गतिलक्षण वाला पदार्थ धर्मास्तिकाय हैं।
( दशअचू. पू. १० )
धारणा - धारणा । अतीतगंथधरण धारणा ।
(दशअचू. पू. ६७)
( सूचू. १ पृ. २१)
अतीत को धारण करना - स्मृति में रखना धारणा हैं। धीर-धीर । धीरो इति बुद्धादीन् गुणान् दधातीति धीरः । जो बुद्धि आदि गुणों से युक्त हैं, वह धीर है। धुयमोह - मोह जीतने वाला भुयमोहा नाम जितमोह त्ति वृत्तं भवइ । मोह जीतने वाले को धुतमोह कहा जाता है। ध्रुवजोगी - ध्रुवयोगी। धुवजोगी नाम जो खण-लब-मुहूर्त्त पडिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो भुवजोगी । जो क्षण, लव, मुहूर्त - प्रतिपल जागरूकता आदि गुणों से युक्त होता है, वह ध्रुवयोगी है।
( दर्शजिचू. पू. ११७)
( दशजिचू. पू. ३४१ )
( सूचू. १ पृ. १०९ )
(आचू. पू. २८१)
૬૪૬
ध्रुवमग्ग-ध्रुवमार्ग। धुवमग्गो णाम संजमो विरागमग्गो वा । संयम अथवा वैराग्य का मार्ग ध्रुवमार्ग है। नगर - नगर। ण एत्थ करो विज्जतीति नगरै ।
जहां कर नहीं लगता, वह नकर- नगर है। नरम-नरक । नयन्ते तस्मिन् पापकर्मा स्वकर्मभिरिति नारकाः । जिसमें पापी अपने कर्म से ले जाए जाते हैं, वे नरक हैं। नाग- नाग । न तेषां किञ्चिज्जल थलं वा भगम्यमिति नाग।
( उचू. पृ. १३८ )
जिनके लिए जल या स्थल कुछ भी अगम्य नहीं रहता, वे नाग (नागकुमार देव ) हैं । (सूचू. १ १. १४८ )
नाहियादि - नास्तिकवादी नास्त्यात्मा एवं वदनशीलः नाहियवादी । जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिकवादी है। ( दचू. पू. ३६) निगमण – निगमन, उपसंहार । पतिष्णाए पुणो वयणं निगमणं ।
प्रतिज्ञा का पुनर्वचन निगमन है।
(दश अचू. पृ. २०)
निण्हव - निह्नव । निण्हवो णाम पुच्छितो संतो सव्वा अवलवङ्ग । पूछने पर जो सर्वथा अपलाप करता है, वह निह्नव है। (दशजिचू. पृ. २८५) निषेसवत्ति - निर्देश का पालन करने वाला। निद्देसवत्तिमो नाम जमाणवेति तं सर्व्वं कुतीति निद्देसवत्तिणो । जो गुरु की आज्ञा का उसी रूप में पालन करते हैं, वे निर्देशवर्ती कहलाते हैं। (दर्शाजचू. पू. ३१४) निम्मम - ममत्वरहित। नास्य कलत्र- मित्र - वित्तादिसु बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु ममता विद्यते इति निर्मम । जिसको स्त्री, मित्र, धन आदि बाह्य वस्तुओं में तथा आभ्यन्तर परिग्रह में ममता नहीं है, वह निर्मम होता है । ( सूचू. १ पृ. १७६)
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परिशिष्ट ७ परिभाषाएं
नियाग- निल्लाग्ग्र नियागं प्रतिणियतं र्ज धिकरणं । प्रतिनियत तथा प्रतिबद्ध भिक्षा नित्याग्र है ।
निरास्य- आशा रहित । निग्गता आसा अपसत्या अस्स सी निरासए । जिसमें अप्रशस्त आशा नहीं होती, वह निराशक है। निव्वेयणी - निवेदनी कथा । पाषाणं कम्माणं, असुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्य य लोए, कहा उ णिब्वेयणी णाम ||
जिस कथा में इहलौकिक और पारलौकिक पाप कर्मों के अशुभ विपाक का वर्णन होता हैं, वह निर्वेदनी कथा है। ( दर्शान. १७४) निसग्गरुइ—निसर्गरुचि । निसग्गरुई ग्राम सिग्गो सहावी सहावेण चैव जिणपणीए भावे रोयइ बहुजणमज्झे
य महता संवेगसमावण्णो पसंसइ एस निसग्गरुई ।
जो स्वभावत: जिनप्रणीत भावों / पदार्थों में रुचि रखता है तथा तीव्र वैराग्य के कारण जनता से प्रशंसित होता हैं, वह निसर्गरुचि हैं। ( दशजिचू. पू. ३३)
( उचू. पृ. ९६ )
निसाद - निषाद । बंधणेण सुद्दीए जातो णिसादो ति युच्चति ।
ब्राह्मण पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न व्यक्ति निषाद कहलाता है । निसेच्या - निषद्या । निषद्या स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निषद्यते ।
Es
( दशअचू. पू. ६० )
(दशजिचू. पू. ३२८)
जहां बैठकर स्वाध्याय आदि किया जाता है, वह निषद्याभूमि / स्वाध्यायभूमि है।
( उशांटी - प. ४३४ )
पयोगकम्म — प्रयोगकर्म । जम्मि पओए वट्टमाणी कम्मपोग्गले गिम्हइ तं पओगकम्मे । जिस प्रयोग में प्रवृत्त होकर जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता हैं, वह प्रयोगकर्म हैं। पंक- पड्डू। पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः ।
( आचू. पृ. ४८ )
पसीने के साथ शरीर पर जमा हुआ मैल पंक कहलाता है। पंडिय - पंडित | पंडिता इति सा बुद्धिपरिकम्मिता जेसिं ते ।
( उचू. पृ. ७९ )
जिनकी बुद्धि परिकर्मित होती हैं, वे पंडित कहलाते हैं। पापाडीनः पण्डितः पण्डा वा बुद्धिः पण्डितः ।
( दशअचू. पू. ४८ )
जो पापों से रहित है, जिसकी बुद्धि पंडा - तत्त्वानुगा है, वह पंडित है। (उ.पू. २८) • पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परिजानंति पंडिया ।
जो त्यक्त भोगों के पुनः सेवन से होने वाले दोषों को जानते हैं, वे पंडित कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. १२)
पक्खपिंड -- पक्षपिंड । पक्खपिंडो दोहिं वि बाहाहिं उरुगजाणूणि घेत्तूण अच्छर्ण ।
दोनों हाथों से घुटनों एवं साथल को वेष्टित करके बैठना पचपिंड है। ( उचू. पृ. ३५ ) पगासभोइ – प्रकाशभोजी (दिन में भोजन करने वाला) । प्रकाशभोई दिवसतो भुंजति न रात्रौ । जो दिन में भोजन करता है, रात में नहीं, वह प्रकाशभोजी हैं। ( दधू.प. ४० ) पचक्खाणपरिण्णा - प्रत्याख्यानपरिज्ञा । पच्चक्खाणपरिण्णा नाम पार्व कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति ।
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नियुक्तिपंचक
पापकर्म को जानकर उस पाप को नहीं करना प्रत्याख्यान परिक्षा है । ( दर्शाजचू. पू. ११६ ) पच्चक्खायपावकम्म — प्रत्याख्यात पापकर्मा । पच्चयखायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुषारो भण्णति । जो आस्रव द्वारों का निरोध कर देता है, वह प्रत्याख्यातपापकर्मा हैं। (दशजिचू. पू. १५४ ) पञ्चाजाति — प्रत्याजाति । जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणौ वि जह हवति जम्मं सा खलु पच्चाजाति..... । एक भव से च्युत होकर पुन: उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है। (दनि. १३२ ) पडिभा– प्रतिभा पभणांत वा पतिभा श्रोतॄणां संशयोच्छेत्ता ।
(सूचू. १ पृ. २३३)
।
जो श्रोताओं के संशय का उच्छेद करती है, वह प्रतिभा है। परिसेवणा- प्रतिसेवना। सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा सम्यक् आराधना के विपरीत जो आसेवना है, वह प्रतिसेवना है। ( उचू. पृ. १४४ ) पडिहषपावकम्मा - पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला। पडिहयपावकम्मी नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्पाणि पत्तेर्य जेण हयाणि सो पडियपावकम्मी ।
जिसने ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म का नाश कर दिया है, वह प्रतिहतपापकर्मा है। ( दशजिचू. पृ. १५४)
जगम - पनकसूक्ष्म पणगर्म णाम पंचषण्णो पणगो वासासु भूमिकट्ठ उवगरणादिस तद्दव्वसमवण्णो पणगसुमं ।
वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली जो काई उत्पन्न होती है, वह पनक सूक्ष्म कहलाती है। (दशजिचू. पू. २७८) पण्णापरीसह - प्रज्ञापरोषह । प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्स प्रज्ञापरीषह । प्रज्ञा का गर्व करना प्रज्ञा परीषह है।
(उ. पृ. ८२ )
पतिष्णा - प्रतिज्ञा । साहणीयनिद्देसी पतिष्णा ।
साधनीय का निर्देश प्रतिज्ञा है ।
( दशअचू. पू. २०) पधारा - प्रारभारा (जीवन की एक अवस्था) । भाषिते चेष्टिते वा भारेण नत इव चिट्ठए पम्मारा । बोलते अथवा काम करते समय भार से नत व्यक्ति की भांति झुके रहने की अवस्था प्राग्भारा अवस्था है। (दचू- प. ३)
परमर्दसि - परमदर्शी | मोक्खी वा परं परसतीति परमदेसी ।
जो मोक्षदर्शी है, वह परमदर्शी है।
(आचू, पृ. ११४)
परिनिष्युड – परिनिर्वृत । परिनिव्वुडा नाम जाइ जरा मरण- रोगादीहिं सव्वप्यगारेण वि विप्पमुक्क
त्ति वृत्तं भवइ ।
६४८
जो जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि से मुक्त हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते हैं।
( दशजिचू. पृ. ११७ )
०
परिनिव्वुता समंता णिव्वुता सव्यप्पकार घातिभवधारणकम्मपरिक्खते ।
जो प्रातिकर्मों का तथा भवधारणीय कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर देते हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते
हैं
(दशअचू. पृ. ६४ )
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६४९
• परिणिध्वुतो णाम रागद्दोसविमुक्को। जो रागद्वेष से विमुक्त है, वह परिनिर्वृत है।
(उचू. पृ. १९३) परियट्टण-परिवर्तना, चितारना। परियट्टणं पुष्यपडितस्स अब्भसणं। पूर्व पठित का अभ्यास करना परिवर्तना है।
(दशअचू. पृ. १६) परियागववत्यषणा-पर्यायव्यवस्थापना। पयज्जापरियातो पज्जोसमणावरिसेहिं गणिज्जति वेण
परियागववत्थवणा भण्णति। प्रव्रज्या पर्याय को पर्युषणा कल्प से गिना जाता है, वह पर्याय व्यवस्थापना कहलाती है।
(दचू.प. ५१) परिवायग-परित्राजक। सव्यसो पार्य परिवज्जयंतो परिवायगो भण्णइ।
__ सर्वथा पाप का वर्जन करने वाला परिव्राजक कहलाता है। (दजियू, पृ. ७३, ७४) पलात्थिया-पर्यस्तिका, पालथी। पर्यस्तिका जानुजंघोपरिवस्त्रवेष्टनात्मिका।
घुटनों और जंघाओं के चारों ओर वस्त्र बांधकर बैठना पर्यस्तिका है। (उशांटी.प. ५४) पवा-प्रपा, प्याऊ। पवा जत्थ पाणितं पिज्जइ।
जहां पानी पिलाया जाता है, वह प्रपा है। पवियवखण-प्रविचक्षण। पविपक्षणा वापार वि परिगाहणसमत्था। कथन मात्र से अर्थ को ग्रहण कराने में समर्थ व्यक्ति प्रविचक्षण कहलाता है।
(दशअचू. पृ. ४८) पवइय-प्रव्रजित । पष्वदओ नाम पापाद्विरतो प्रव्रजितः। जो पाप से विरत है, वह प्रव्रजित कहलाता है।
(दशजिचू. पृ. ७३,) पाओवगमण-प्रायोपगमन । पाओवगमर्ण जे निडिकम्मो पायवो विष जहापडिओ अच्छति । वृक्ष की शाखा की भांति निश्चेष्ट तथा शरीर के प्रति निष्प्रतिकर्म रहना प्रायोपगमन अनशन
__(दशअचू. पृ. १२) पागार-प्राकार । प्रकण मर्यादया कुर्वन्ति तमिति प्राकाराः। जो विशाल तथा परिमाण--मर्यादा से निर्मित होता है, वह प्राकार है।
(उशांटी.प, ३११) पायच्छित्त–प्रायश्चित्त । पापं छिनत्तीति पापच्छित् अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुभमस्मिन्निति प्रायश्चित्तम्।
जो पाप का छेदन करता है, वह पापच्छित् अर्थात् प्रायश्चित्त है। अथवा जिसमें चित्त प्रायः
यथावस्थित होकर शुद्ध हो जाता है, वह प्रायश्चित्त है। (दशहाटी.प. ३०) पायव-पादप । पादेहिं पिबंति पालिजति वा पायवा। जो पैरों (जड़ों) से पीते हैं अथवा पालित होते हैं, वे पादप (वृक्ष) हैं।
(दशअचू-पृ. ७) पारगामि-पारगामी । जे पुण अप्पसत्यरतिविणियट्टा पसत्थरतिआठट्टा विमुत्ता ते जणा पारगामिणो। जो अप्रशस्त रति से विनिवृत्त और प्रशस्त रति में प्रवृत्त रहते हैं, वे पारगामी हैं।
(आचू.पृ. ५९)
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६५०
नियुक्तिपंचक
पाव-पाप। पभूतं पातयतीति पावं। जो बहुत नीचे गिराता है, वह पाप है।
(दशअचू पृ. १३३) पावग-पाप । पावर्ग नाम असुभकम्मोवचओ घण-चिकणो भण्णइ। ___ अत्यन्त स्निग्ध अशुभ कर्मों का उपचय पाप है।
(दशजिचू पृ. १५८) पावग-पावक, अग्नि । पावं व हव्वं सुराणं पावयतीति पावकः।।
जो हव्य को देवताओं तक पहुंचाता है, वह पावक (अग्नि) है। (उचू पृ. ९९) पार्सदि-पाषंडी। अविहकम्पपासादो घरपासादो वा होणे पासंडी। अष्ट प्रकार के कर्म रूपी प्रासाद में अथवा गृह प्रासाद में रहने वाला पाषंडी है।
(दशअबू पृ. ३७) पासणिय--प्राश्निक । प्रश्नेन राजादिकिंवृत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकः।
राजा आदि के इतिहास-ख्यापन तथा दर्पण, अंगुष्ठ आदि विद्या के द्वारा आजीविका चलाने वाला प्राश्निक कहलाता है।
(सूटी पृ. ४६) पासस्थ-पार्श्वस्थ । पावें तिष्यंतीति पार्श्वस्थाः।
जो ज्ञान आदि के पार्श्व में स्थित हैं, वे पार्श्वस्थ हैं। (सूचू १ पृ. ९७) पासाद-प्रासाद प्रसीदति अस्मिन् जनस्य नयनमनोमि इति प्रासादः। जिसको देखकर मनुष्य के नयन और मन प्रसन्न हो जाते हैं, वह प्रासाद है।
(उचू पृ. १८१) • पासादो समालको घरविसेसो। मंजिलों से युक्त गृह विशेष प्रासाद कहलाता है।
(दशअचू पृ. ११७) मिडोलग-पिंडोलक, भिक्षा में आसक्त संन्यासी। पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा।
जो दीयमान पिंड-भिक्षा में आसक्त होते हैं, वे पिंडोलक हैं। (उचू पृ. १३८) पिटुमंसिय-चुगलखोर । पिट्ठीमंस खार्यतीति पिट्ठमंसितो।
जो पीठ का मांस खाते हैं अर्थात् पीठ के पीछे अनर्गल बात कहते हैं, वे पृष्ठमांसी (चुगलखोर) होते हैं।
(दचू प. ३९) • पिद्विमंसितो-परमुहस्स अवण्णं बोलेइ अगुणे भासति णाणादिसु । जो परोक्ष में किसी का अवर्णवाद कहता है, ज्ञान आदि विषयक अगुण की उद्भावना करता है, वह पृष्ठमांसी-चुगलखोर है।
(दचू प. ७) पिसूण-पिशुन । प्रीतिशून्य इति पिशुनः। जो प्रोतिशून्य होता है, वह पिशुन है।
(उचू पृ. १३३) पुंडरीय-पुण्डरीक। तिरिच्छगा मणुस्सा, देवगणा चेव हाँति जे पवरा। ते होंति पोंडरीया
तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे पोंडरीक कहलाते हैं। (सूनि १४७) पुरिस-पुरुष। प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः। पूर्णो वा सुख-दुःखानामिनि पुरुषः। पुरि शयनाद्वा पुरुषः।
१. जो आत्मा को प्रीणित करता है, वह पुरुष है। २, जो सुख-दुःख से प्रतिपूर्ण है, वह पुरुष है।
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
३. जो शरीर में निवास करता है, वह पुरुष है।
(उचू. पृ. १४७) पुरेकम्म–पूर्वकर्म दोष (भिक्षा का दोष)। पुरेकर्म नाम जं साधूणं दगुणं हत्य भायण धोवइ तं
पुरेकम्म भण्णइ। साधु को देखकर भिक्षा देने के निमित पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना पूर्वकर्म दोष है।
(दजियू. पृ. १७८) पुलाग-पुलाक। णाण-दसण-चरितं निस्सारत्तं जो उवेति सो पुलागो। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निस्सार कर देता है, वह पुलाक (निर्ग्रन्थ) है।
(उचू. पृ. १४४) पुवादिसा-पूर्वदिशा। जस्स जओ आइच्चो उदेति सा तस्स होति पुष्वदिसा । जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिए पूर्वदिशा है।
(आनि.४७) • जत्थ य जो पण्णवओ, कस्स वि साहति दिसाण उ निमित्त । जत्तो मुहो य ठायइ मा पुया..। कोई प्रज्ञापक जहां स्थित होकर दिशाओं के आधार पर निमित-ज्योतिष् का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्वदिशा है।
(नि.५५) पूषणवि-पूजार्थी । पूयणही णाम पूया-सकारादि पत्थेति।
जो सत्कार-पूजा आदि को वांछा करता है, वह पूजार्थी है। (सूचू.१ पृ. २४८) पूषणा-पूतना। पातयन्ति धर्मात् पासयन्ति वा चारित्रमिति पूतनाः। जो धर्म से नीचे गिराती है अथवा चारित्र को बांध देती है, वह यूतना है।
(सूचू. १ पृ. ९९) पेसल-पेशल । पेसलो नाम पेसलवाक्यः अथवा विनयादिभिः शिष्यः गुण:प्रीतिमुत्पादयति पेशलः।
जो मृदुभाषी है,वह पेशल है। जो विनय आदि शिष्य-गुणों से प्रीति उत्पन्न करता है, वह पेशल है।
(सूचू.१ पृ. २२२) पोग्गलपरियट्ट-पुद्गलपरिवर्त। सबपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफास-अशनादीहिं फासिर्जति
सो पोग्गलपरियट्टो भवति। समस्त पुद्गल जितने काल में अशन आदि के द्वारा शरीर का स्पर्श करते हैं, वह पुद्गलपरिवर्त है।
(उचू.म. १८९) फलग-फलक । फलर्ग जत्थ सुम्पति। जिस पर सोया जाता है, वह फलक है।
(दशअचू.पृ. ९१) बवस-बकुश । सरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशकामाः सातागौरवाश्रिताः
अविविक्तपरिवायः छेदशबलचारितजुत्ता णिग्गेथा बठसा भणंति। शरीर और उपकरणों की विभूषा में रत रहने वाले, ऋद्धि और यश की कामना करने वाले, साता और तीन गौरवों में संलग्न, परिवार में आसक्त तथा शबल चारित्र से युक्त निर्ग्रन्थ बकुश कहलाते हैं।
(उचू. पृ. १४४)
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६.१२
मियुक्तिपंचक
बंध-बन्ध। कम्मयदव्वेहि सम, संजोगो होति जो उ जीवस्स। सो बंधो नायव्यो...। जीव का कर्म-पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हाना बंध है।
(आनि. २७९) • बंधौ णाम यदात्मा कर्मयोग्यपुद्गलानां स्वदेशः परिणमयति परस्परं क्षीरोदकवत् तदा बंधी भवति।
कर्मयोग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् लोलीभूत हो जाना बंध है ।(उचू. पृ २१) भ-ब्रह्म। बृहति बृहितो वा अनेनेति ब्रह्मः।
जो व्यापक है अथवा जिससे व्यापकता होती है, वह ब्रह्म है। (उचू. पृ. २०७) बंभण-ब्राह्मण। अट्ठारसविधो बंभ धारयतीति भणणे।।
अठारह प्रकार के ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण है। (दशअचू. पृ. २३४) बहुमाण-बहुमान। भाषओ नाणमंतेसु णेहपनिबंधो बहुमाणो।
ज्ञानियों के प्रति अंत:करण से स्नेहप्रतिबद्धता बहुमान है। (दशअचू. पृ. ५२) बहुस्सुत-बहुश्रुत । परिसमतपणिपिडगझयणस्सवणेण विसेसेण य बहुस्सुतो।
जो गणिपिटक–द्वादशांगी के अध्ययन और श्रवण-विशेष को परिसंपन्न कर लेता है, वह बहुश्रुत कहलाता है।
(दशअचू पृ. २५६) बोक्कस-क्किस। निसाएणं अंबट्ठीर जाती सो बोक्कसो भवति।
निषाद पुरुष से अंबष्ठी स्वी में उत्पन्न संतान बोक्कस कहलाती है। (उचू. पृ. ९६) • निसाएण सुदीए जातो सो वि बोक्कसो।
निषाद पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान भी बोक्कस कहलाती है। (आचू. पृ. ६) भगव-भगवान् । अत्थ-जस-धम्म-लच्छी-लव-सत्त-विभवाण छोई एतेसिं भग इदि णाम,
अस्स संति सो भण्णति भगवं। भग के छह प्रकार हैं- अर्थ, यश, धर्म, लक्ष्मी, रूप और सत्त्व। जिसको 'भग'-वैभव प्राप्त है, वह भगवान् है।
(उचू. पृ. ५१) भक्ति-भक्ति। पत्ती पुण अब्भुवाणाति सेवा। अभ्युत्थान आदि से सेवा करना भक्ति है।
(दशअचू. पृ. ५२) भवंत-भवान्त। भवमवि चतुष्पगारं खमाणो भवंतो भवति । नरक आदि चारों प्रकार के भव-संसार का क्षय करने वाला भवान्त कहलाता है।
(दशअचू. पृ. २३३) भवबीवित-भवजीवित । जस्स ठदएण गरगादिभषग्गहणेसु जीवति जस्स य उदएण नवातो भवं गच्छति
एतं भवजीवित। जिस कर्म के उदय से प्राणी नरक आदि भवों में जीता है, अथवा जिस कर्म के उदय से
एक भव से दूसरे भव में जाता है, वह भवजीवित कर्म है। (दशअचू. पृ. ६६) भवाव-भवायु । जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई। जाणाहि तं भवाट.... जिसके आधार पर जीव भव धारण करता है अथवा भवायुष्य संक्रमित होता है, वह भवायु
(दशअचू. पृ. ६६)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६५३
भारियकम्मा-भारीकर्मा । यो गुण निकाल सक्यो न लग सो खान पारियकम्मो। जो बिना प्रयोजन हो अति उत्कर्ष से कर्मबन्ध करता है, वह भारीकर्मा हैं।
(दबू.प. १२) भावगणि-भावगणी। भावगणी गुणसमंतितो गुणोवपेतो अटुविधाए गणिसंपदाए।
गुणों से तथा आठ गणि-संपदाओं से युक्त गणी भावगणी कहलाता है। (दचू.प. १६) भावचित्त-भावचित्त। अकुसलमणनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं। एयं तु भावचित्तं....॥
अकुशल योगों का निराध तथा कुशल योगों की उदारणा भावचित्त है। (दनि.३३११) पावझवण-भावक्षपण। अदुविई कम्मरयं, पोराणं जखवेइ जोगेहि।
एयं भावण्शवणं, यव्वं आणुपुबीए । जो बंधे हुए चिरन्तन आठ प्रकार के कर्म-रजों को विनष्ट करता है, वह परम्परा से भावक्षपण कहलाता है।
(उनि.११) मावतित्थ-भावतीर्थ । जतो णाणादिभावतो मिच्छत्त-ऽण्णाणा-ऽविरतिभवभावेहितो तारयति वेण भावतित्य
ति। अधवा क्रोध-लोभ-कम्मरप-दाह-तण्हाछेद-कम्ममसावणयणमेगतियमचंतियं च तेण कजति ति अतो भावतित्थे। जो ज्ञान आदि की भावना से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि भावों से बचाता है तथा क्रोध, लोभ, कर्म, दाह, तृष्णा तथा कर्ममल का ऐकान्तिक और आत्यन्तिक अपनयन करता है, वह भावतीर्थ है।
(सूचू.१ पृ. २) भावधुय-भावधुत । अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य।
जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं विपाणाहि ॥ जो देवता सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को सहन कर कर्मों का धुनन करता है, वह भावधुत है।
(आनि. २५२) भावपुलाय-भावपुलाक। भावपुलाए जेण मूलगुण-उत्तरगुणपदेण पडिसेविएण निस्सारो संजमो भवति
सो भावपुलाओ। मूलगुण और उत्तरगुण की प्रतिसेवना से जिसका संयम निस्सार हो जाता है, वह भावपुलाक
(दशजिघू.पृ ३४६) भावपूया--भावपूजा। तित्थगरकेवलीण, सिद्धायरियाण सव्यसाहूर्ण।
जा किर कीरइ पूया, सा पूया भावतो होइ॥ तीर्थंकर केवली, सिद्ध, आचार्य और समन साधुओं की जो पूजा की जाती है, वह भाव पूजा है।
(उनि.३०९) भावसत्थ-भावशस्त्र। भावसथं कायो वाया मणो य दुप्पणिहियाई। मन, वचन और काया का दुष्प्रणिधान भावशस्त्र है।
(आचू. पृ. ८) भावसुत्त-भावसुप्त । भावसुप्तस्तु ज्ञानादिविरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च। जो ज्ञान आदि से शून्य है-अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि और अचारित्री है, वह भावसुप्त है।
(सूचू.१ पृ. ५१)
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६५४
भिक्खु - भिक्षु । जो भिंदेह खुहं खलु सो भिक्खु ।
जो क्षुत् कर्म का भेदन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। भित्ति - भित्ति । नदितडीतो जवोषहलिया सा भित्ती भण्णति ।
मंगल - मङ्गल । मंग लातीति मंगले अथवा म गालयते भवादिति मंगलं ।
नियुक्तिपंचक
नदी के तट पर पानी के वेगवान् प्रवाह से पड़ी हुई दरार 'भित्ति' कहलाती है।
( दशजिचू. पृ २७५ )
( उनि ३६८ )
जो सांसारिक अपाय को दूर करता है, वह मंगल है ।
०
• सम्यग्दर्शनादिमार्गलयनाद्वा मंगलम् ।
मंग अर्थात् कल्याण । जो कल्याण को लाता है, वह मंगल है। जीवन से मा-विघ्न को
दूर करने वाला मंगल है।
( उच्च्. पृ. ४)
• शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मंगलं ।
शास्त्र ( की परिसमाप्ति) में कोई विघ्न न हो, वह मंगल है।
• मं संसारिकेभ्यो अपायेभ्यः गलतीति मंगलं ।
( उचू. पृ. ४)
(दशजिचू. पू. २)
सम्यग्दर्शन आदि के मार्ग में लीन करने वाला मंगल है।
( सूचू. १ पृ. २)
9
• मंग्यते हितमनेनेति मंगलम् मङ्गयते (अधिगम्यते) साध्यत इत यावत् । अथवा मंग:--- धर्म ला- आदाने मंगं लातीति मंगलम् ।
जिससे हित साधा जाता है अथवा प्राप्त किया जाता है, वह मंगल है। मंग का अर्थ है धर्म, जो धर्म को प्राप्त कराता है, वह मंगल है। ( सूचू. १ पृ. २)
मंजुल - मञ्जुल, मनोरम मणसि लीयते मनोऽनुकूलं वा मंजुलम् ।
I
जो मन में समा जाता है, वह मंजुल है। जो मनोनुकूल है, वह मंजुल है। (सूचू. १ पृ. १०६ ) मंद - मन्द । मंदा नाम मुख्यादिभिरपचिता ।
जो बुद्धि आदि से शून्य है, वह मन्द है ।
( उचू. पृ. १७३)
मंदबुद्धि - स्थूलबुद्धि । जस्स बूला बुद्धी सो मंदबुद्धी भण्णइ । जिसकी बुद्धि स्थूल है, वह मंदबुद्धि है।
(उच्. पृ. १७२ ) मंसखल - मांस सुखाने का स्थान मसखलं जत्य मंसा सुक्खाविंति सुक्खस्स वा कहवल्ला कता । जहां मांस सुखाया जाता है तथा सूखे मांस के टुकड़े किए जाते हैं, वह मांसखल हैं। (आचू. पू. ३३५)
मईब - मडम्ब । मबी जस्स अड्डाइज्जेहि गाउएहि णत्थि गामो ।
जिसके चारों ओर ढाई कोस तक कोई गांव नहीं होता, वह मडम्ब कहलाता है। (आनू. पू. २८१) मणविणय – मानसिक विनय । मणविणयो आयरियादिसु अकुसलमणवजणं कुसलमणउदीरणं । आचार्य आदि गुरुजनों के प्रति अमंगलकारी मन (भावना) का निरोध तथा मंगलकारी मन (भावना) की उदीरणा मानसिक विनय है। (दश अचू. पृ. १५)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
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मणि-मणि। मयते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः।।
जो उस-उस अलंकार को श्रेष्ठ बना देता है, वह मणि है। (उचू. पृ. १५१) मणोरम-मनोरम । मणोरमे मासि अत्र मनस्विना रमन्त इति मणोरमे भवति।
जो मनस्वी लोगों के मन में रमण करता है, वह मनोरम है। (सूचू.१ पृ. १४६) मच्छर-मात्सर्य। मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरो रोषः। जो अभिमानयुक्त रोष होता है, वह भात्सर्य है।
(सूचू.१ पृ. ७४) महवया-मार्दव । महवता जाति-कुलादीहिं परपरिभवाभावो।
जाति, कुल आदि के आधार पर दूसरों का परिभव न करना मार्दव है। (दशअचू-पृ. ११) मयगंगा-मृतगंगा। मतगंगा हेटाभूमीए गंगा अण्णमण्णेहिं मग्गेहि जेण पुष्य योदूर्ण पच्छा
ण वहति सा मतगंगा भण्णति। गंगा प्रतिवर्ष नए-नए मार्ग से समुद्र में जाती है। जो मार्ग चिरत्यक्त हो, बहते - बहते गंगा ने जो मार्ग छोड़ दिया हो, उसे मृतगंगा कहा जाता है।
(उचू. पृ. २१५) महिया-महिका, कुहरा। जो सिसिरे तुसारो पडह, सा महिया भण्णा।
शिशिर काल में जो तुषार गिरती हैं, वह महिका कहलाती है। (दशजिचू. पृ. १५५) • गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिकेत्युच्यते। गर्भमास आदि में सायं और प्रातः जो धूअर आती है, वह महिका कहलाती है।
(आटी. पृ. २७) • पातो सिसिरे दिसामंधकारकारिणी महिता। शिशिर में जो अंधकारकारक तुषार गिरता है, उसे महिका या कुहरा कहते हैं।
(दशअचू. पृ. ८८) महेसि-महान् की एषणा करने वाला। महानिति मोक्षो तं एसन्ति महेसियो।
जो महान् अर्थात मोक्ष की एषणा करता है, वह महेषी-महर्षि हैं। (दशअचू. पृ. ५९) मागह-मागध। वइस्सेण खत्तियाणीए जाओ मागहो त्ति भण्णा।
वैश्य पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान मागध कहलाती है। (आचू. पृ. ५) माण-सम्मान । भाणो अभुट्ठाणादीहिं गव्वकरण। अभ्युत्थान आदि से गर्व करना मान है।
(दशअचू.पृ. १३३) • जाति-कुल-रूप बलादिसमुत्थो गर्यो मानः। जाति, कुल, रूप, बल आदि से उत्पन्न गर्व मान है।
(आटी. पृ. ११४) माभग-ममकार करने वाला। मामको णाम ममीकार करोति देशे ग्रामे कुले वा एगपुरिसे वा। जो देश, ग्राम, कुल अथवा किसी पुरुष विशेष में ममकार करते हैं, वे मामक-मोही हैं।
(सूचू. १ पृ. ६७) माया-माया। परवञ्चनाध्यवसायो माया। दूसरे को ठगने की भावना माया है।
(आटी. पृ. ११४)
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६५६
माया - मात्रा । मीयतेऽसौ मीयते वाऽनयेति माया ।
जो मापा जाता है अथवा जिससे मापा जाता है, वह मात्रा है।
मार- कामदेव खाणे खणे मारयतीति मारो।
t
जो क्षण-क्षण में मारता है, वह मार / कामदेव है ।
माहण - माहन, अहिंसक मा इह सव्वसत्तेर्हि भणमाणो अहणमाणो य माइणो भवति । किसी सत्त्व का हनन मत करो, ऐसा कहने वाला माहन कहलाता है हनन नहीं करता, वह 'माइन' होता है। मीसियाकहा- मिश्रकथा धम्मो अत्यो कामो उवइस्सइ जत्थ सुत्त कव्येसु लोगे वेदे समए, साव कहा मीसिया नामं ॥
मुट्ठि मुष्टि। अंगुटुंगुलितलसंघातो मुट्ठी ।
अंगूठे और अंगुलि का संघात होना ष्ट है।
|
मुनि मुनि । मुणेति जगं तिकालावस्थं मुणी ।
जिन सूत्रों, काव्यों तथा लौकिक ग्रन्थों - रामायण आदि में, यज्ञ आदि क्रियाओं में तथा सामयिक ग्रन्थों— तरंगवती आदि में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का कथन किया जाता है, वह मिश्रकथा है।
( दर्शनि १७९)
(६चू-५. ३५)
( आचू. पृ. १०४ )
(उच्. पृ. २०३)
जो त्रिकालावस्थित जगत् को जानता है, वह भुनि हैं।
●
मनुते मन्यते वा धर्माधर्मानिति मुनिः ।
धर्म और अधर्म का मनन करने वाला मुनि होता है।
• सावज्र्ज न भासति ति मुणी ।
o
सावज्खेसु भोर्ण सेवति ति सुणी ।
जो सावध वाणी नहीं बोलता, वह मुनि है। मुक्त - मुक्त | बाहिरब्धंतरेहि गंधेहिं विप्यमुक्तो मुत्तो ।
बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से रहित मुक्त कहलाता है। 'ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः ।
ज्ञानावरणीय आदि कर्मबंधन से विमुक्त मुक्त कहलाता है।
0
मुम्मुर - मुर्मुर। करिसगादीण किंचि सिद्धो अग्गी मुम्मुरो ।
निर्युक्तिपंचक
6
• मुम्पुरो नाम जो छाराणुगओ अग्गी सो मुम्मुरो । कंडे की अग्नि या क्षारादिगत अग्नि-कण को मुर्मुर कहते हैं।
( उचू. पृ. १३३)
.
विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः ।
वह राख जिसमें विरल अग्निकण हो, मुर्मुर कहलाती है।
(आचू. पृ. १०८ )
( दशअचू. पृ. ३८, दशजिचू. पृ. ७४ )
अथवा जो किसी का
( सूचू. १ पृ. २४६ )
( दशअचू. पू. २३४)
( सूटी. पृ. ९७ )
(दशअचू पृ. ८९, दशजिचू. पू. १५६ )
(दशहाटी. प. १५४)
मुम्मुही - मुन्मुखी (जीवन की एक अवस्था)। विणओकमंतो मूक इव भाषते मुम्मुही। जिस अवस्था में व्यक्ति मूक की भांति बोलता है, वह मुन्मुखी हैं ।
(दचू.प. ३)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
मुहरी - मुखरी (वाचाल ), अटर्सट बोलने वाला भुखे अरिमावहतीति मुखरी ।
जो अंटर्सट बोलता है, मुख में शत्रुता को वहन करता है, वह मुखरी है। ( उचू. पृ. २८) मुहाजीवि - मुधाजीवी । मुहाजीवी नाम जं जातिकुलादीहिं आजीवणविसेसेहिं परं न जीवति । जो जाति, कुल आदि के सहारे नहीं जीता, उसे मुधाजीवी कहा जाता हैं।
( दशजिच्. पृ. १९० ) मुहाल - मुधालब्ध। मुहालद्धं नाम जं कोंटलवेंटलादीणि मोतूणमितरहा लद्धं तं मुहालद्धं । तंत्र, मंत्र और औषधि आदि के द्वारा हित-संपादन किए बिना जो मिले, उसे मुधालब्ध कहा जाता है। ( दशजिचू. पृ. १९० )
मूठ-मूढ । मूढो कजाकज्जमयायाणो ।
कार्य और अकार्य के विवेक से विकल व्यक्ति मूढ कहलाता है। ( सूच्. १ पृ. १७२ )
मूढा तत्त्वातत्त्व अजाणगा ।
०
मूढा हिताहितविवेचनं प्रत्यसमर्थाः ।
०
६५७
तत्त्व और अतत्त्व के ज्ञान से शून्य तथा हित और अहित के विवेक से विकल मूढ कहलाता है । ( उचू. पृ. १४९, उशांटी. प. २६२ )
मेधावि - मेधावी । मेधावि सि आशुग्रहणधारणसम्पन्नः ।
शीघ्र ग्रहण और धारण- इन दो बुद्धिगुणों से सम्पन्न व्यक्ति मेधावी कहलाता है।
( सूचू-२ पृ. ३१२)
मोक्ख - मोक्ष। अंधवियोगो मोक्खो भवति ।
कर्मबंधन का त्रियोग मोक्ष है ।
मोह-मोह। मोहो णाम हिताहिते निव्विसेसता ।
जो हित और अहित में निर्विशेष होता है, वह मोह हैं। मोहुषासक — मोहोपासक। कुप्पवयणं कुधम्मं, उधासए मोहुवासको सो उ । जो कुप्रवचन तथा कुधर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक रसणिज्जूढ रसनिढ रसणिज्जू णाम जं कदसर्ण ववगयरसं तं रसणिज्जू नीरस और विकृत आहार को रसनिर्यूढ कहते हैं।
हैं।
रसय - रसज। रसया नाम तक्कंबिलमाइसु भवंति ।
राग-राग रागो नाम तीव्राभिनिवेशः ।
तीव्र अभिनिवेश- आसक्ति को राग कहते हैं । रावधम्म — राजधर्म । रायधम्मो इट्वाणिट्टेसु दंडधरर्ण ।
(आचू. पृ. २४६ )
(आचू. पृ. ९१ )
(दनि. ३६)
भण्णइ ।
( दशजिचू. पृ. २८१)
छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्मशरीरी जीव रसज कहलाते हैं। ( दशजिचू. पू. १४० )
(दचू. पू. ३६ )
प्रिय या अप्रिय व्यक्ति का चिन्तन किए बिना अपराधी को दंड देना राजधर्म है ।
( दशअचू. पृ. ११)
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६५८
रायपिंड - राजपिंड । मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो । मूर्धाभिषिक्त राजा की भिक्षा लेना राजपिंड हैं। रायहाणी - राजधानी रायहाणी जत्थ राया वसई । जहां राजा रहता है, वह राजधानी है।
लक्खण-लक्षण | पच्चक्खमणुबलम्भमाणो जेणाणुमीयते अस्थि त्ति लक्खणं । जो प्रत्यक्ष में अनुपलब्ध हैं परन्तु जिस गुण से अस्तित्व का अनुमान लक्षण है।
लाइ - संयमी। लाकयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वात्मानं यापयतीति लाढः ।
वक्क सुद्धि वाक्शुद्धि । जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुप्झई न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभावो, तेण इदं वक्कसुद्धित्ति ॥
निर्युक्तिपंचक
( दशअचू. पू. ६० )
जो प्रासुक एषणीय आहार से अथवा साधु-गुणों के द्वारा जीवन यापन करता है, वह लाद (उशांटी.प. १०७)
कह
लोम-रोम । लुनाति लूयंते वा तानि लीयते वा तेषु यूका इति लोमानि ।
जिनको उखाड़ा जाता है, अथवा जिनमें जूं आदि रहते हैं, वे लोम-केश हैं। (उ. पृ. १४२ ) लोह - लोभ तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः ।
तृष्णा और परिग्रह का परिणाम लोभ हैं।
(आटी. पृ. ११४) वड्साह - वैशाख, योद्धा की मुद्रा विशेष वइसाई पहिओ अम्भितराहुत्तीओ समसेढीए करेति, अग्गिमतलो
जाहिराहुतो ।
बच्चा - वर्चस्, पाखाना। बच्चे नाम जत्थ वोसिरति कातिकाइसन्नाओ।
किया जाता है, वह
(दश अनू. पू. ६६ )
दोनों एड़ियों को भीतर की ओर समश्रेणी में रखकर अग्रिम तल को बाहर रखना वैशाखस्थान है। (दचू.प. ४)
(आचू, पृ. २८२)
जिस वाक्य को बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कलुषभाव नहीं आता, वह वाक्शुद्धि है । (दशनि. २६४ )
वच्छ - वृक्ष । पुत्ता इव रक्खिजति वच्छा ।
पुत्र की भांति जिनकी रक्षा की जाती है, वे वत्स (वृक्ष) हैं। वमभीरु — वज्रभीरु । वजभीरुणो णाम संसारभव्विग्गा थोवभवि पार्वणैच्छति ।
षण्ण- लोकव्यापी यश लोकव्यापी जसो वण्णो ।
लोकव्यापी यश वर्ण है ।
जहां भल और मूत्र का उत्सर्ग किया जाए, वे दोनों स्थान वर्चस् कहलाते हैं । (दशजिचू. पृ. १७७)
(दश अचू. पू. ७)
जो संसार के भय से उद्विग्न होकर थोड़ा भी पाप का सेवन नहीं करते, वे वज्रभीरु हैं। ( दशजिचू. पू. ९२ )
(दशअबू. पृ. २२७)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
वयसंजम-वाक्संयम 1 धयसंजमो णाम अकुसलवइनिरोहो कुसलपाइग्दीरणं वा।। अकुशल वचन का निरोध तथा कुशल वचन की उदीरणा वचन-संयम है।
(दजिचू पृ. २१) पलप-वलय। वलयं णाम एक्कदुवारो गापरिक्खेयो बलयसंवितो वलयं भण्णति । एक द्वार वाला गर्ता का परिक्षेप, जो वलय के आकार का होता है, वह वलय कहलाता
(सूचू १ पृ. ८८) वलायमरण-वलन्मरण। सेजमजोगक्सिण्णा, मरति जे तं वलायमरणं तु।
संयम-योगों से विषण्ण होकर मरना वलन्मरण कहलाता है। (इनि २१०) वसहमरण--वशार्त्तमरण। इंदियविसयवसगता, मरति जे तं वसट्टे तु ।
जो प्राणी इन्द्रिय विषयों के वशवर्ती होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उनका मरण वशान मरण कहलाता है।
(उनि २१०) वसट्टि-वशवर्ती । पश्येन्द्रियो वा यः स यशवट्टी गुरूणां वा वशे वर्तते इति वशवर्ती। जिसकी इंद्रियां स्ववश में हों अथवा जो स्वयं गुरु के वश में हो, वह वशवर्ती है।
(सूचू १ पृ. १०७) बसुहा-वसुधा । वसूनि निधत्ते इति वसुधा। जो वसु-रत्नों को धारण करती है, वह वसुधा है।
(उचू पृ. २०९) पाय-यादा पक्षाप्रतिक्षापरिग्रहः पादः ।। पक्ष और प्रतिपक्ष का प्रयोग करना वाद है।
(दचू प. २२) • वादो शाम छल-जाति-निग्रहस्थानवर्जितः। जिसमें छल, जाति और निग्रह-स्थान का कोई अवकाश नहीं होता, वह. वाद है।
(सूचू १ पृ. १३) वायणा-वाचना। सीसस्स अशावर्ण घायणा। शिष्य को पढ़ाना वाचना है।
(दशअचू पृ. १६) वायावीरिय-वाग्वीर्य। वायावीरियं णाम जो भणति ण य करेति । जो कहता है पर करता नहीं. वह केवल वाग्वीर्य है।
(सूचू १ पृ. १०९) पासावास-वर्षावास । परिसासु चत्तारि मासा एगस्थ अच्छतीति वासावासी।
वर्षाकाल में एक स्थान पर चार मास तक रहना वर्षावास कहलाता है। (दचू प. ५१) विकहा-विक्रथा। जो संजतो पमत्तो, रागहोसषसगओ परिकहेइ।
सा उ विकहा पवयणे, पण्णता धीरपुरिसेहि॥ जो संयमी मुनि प्रमाद तथा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कथा (धर्मोपदेश) करता है, वह विकथा कहलाती है।
(दशनि १८४) • जहा विणवसीला विसीला णारी एवं विट्ठाकहा विकहा। जैसे नारो का शील विनष्ट हो जाने पर वह विशीला कहलाती है वैसे ही जिस कथा का स्वरूप विनष्ट हो जाता है, वह विकथा है।
(दशअचू पृ. ५८)
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विक्खेवणी कहा - विक्षेपणो कथा । जा ससमयवज्चा खलु होइ कहा लोग-बेय-संजुत्ता। परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेषणी नाम ॥
जो कथा ( धर्मापदेश) स्वसिद्धान्त से शून्य तथा लौकिक कथाओं से संयुक्त है वह परसिद्धान्त का कथन करने वाली त्रिक्षेपणी कथा है। (दर्शनि १७० )
a
विविहं विण्णाण विसयादीहि खवति विक्खेवणी ।
जो कथा विविध उपायों से श्रोता को इन्द्रिय-त्रिषयों से दूर ले जाती है, वह विक्षेपणी कथा है ।
(दशअचू. पू. ५५)
विगमगेहि - विगतगृद्धि | बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य गेधी स भवति विगतयेधी । जो बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं के प्रति गृद्ध नहीं होता, वह विगतगृद्धि है।
विज्जल - विजल । विगयमात्रं जती जलं तं विज्जलं ।
जिस पंक में वितस्तिमात्र जल हो, वह विज्जल हैं। विष्णाण - विज्ञान | विविहेहिं महावोहादीहिं जेण उवलभति तं विष्णाणं । जी विविध ऊहा, अपोह आदि से जाना जाता है, वह विज्ञान है । वितह - वितथ। जं वत्युं न तेण सभाषेण अस्थि तं वितहं भष्णइ । अतद्रूप वस्तु वितथ कहलाती है । विभूसा - विभूषा । विभूसा नाम ण्हाण-हत्य-पाद-मुह वत्थादिधोषणं । स्नान करना, हाथ, पैर, मुंह, वस्त्र आदि धोना विभूषा है। विपक्खण - विचक्षण । वियक्खणो पराभिप्पायजाणतो ।
दूसरों के अभिप्राय का ज्ञाता विचक्षण कहलाता है। वियत - व्यक्त । व्यक्तो बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिः ।
नियुक्तिपंचक
( सूचू. १ पृ. १४९ )
a
( दशअचू. पू. १००)
(दश अचू. पृ. ६७ )
है ।
विरमण - विरमण विरति । विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् । सम्यग् ज्ञान और श्रद्धा पूर्वक सर्वथा निवर्तन करना विरमण हैं।
विरय - विरत । पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न वट्ट ति विरतो ।
विसय - विषय । विषीदन्ति-अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः । जहां प्राणी बंध जाते हैं, वे इंद्रिय विषय हैं।
( दशजिचू. पृ. २४६ )
( आचू. पृ. २८)
( दशअचू. पू. १०६ )
बालभाव को पार कर चुका है, जिसकी बुद्धि परिपक्व ही चुकी है, वह व्यक्त कहलाता ( सूटी. पृ. ८)
जो प्राणवध आदि आस्रव द्वारों में प्रवृत्त नहीं होता, वह विरत कहलाता है।
(दशहाटी. प. १४४ )
विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ ।
बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से निरत भिक्षु विरत कहलाता हैं ।
( दशजिचू. पू. ७४)
( दशजि. पू. १५४)
(दशहाटी. प. ८६ )
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
विसारय-विशारद । अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा। अर्थ ग्रहण करने में समर्थ अथवा प्रियवादी व्यक्ति विशारद कहलाता है।
(सूचू १ पृ. २२४) विहंगम-विहंगम। विहं-आगास, विहायसा गच्छत्ति त्ति विहंगमा।
जो विह-आकाश में विचरण करते हैं, वे विहङ्गम हैं। (दशअचू पृ. ३३) • विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते स्वसत्तां बिभ्रतीति विहङ्गमाः। जो आकाश में उड़ते रहते हैं, अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं, वे विहंगम हैं।
(दशहाटी प. ७०) विहुयकप्प-विधूतकल्प। विधूर्त वा जेण कम्म तेण तुल्यो विधूतकप्पो।
जिसने कर्मों को धुन डाला है, उसके तुल्य विधूतकलए होता है। (आचू पृ. २१७) वीससाकरण--विस्त्रसाकरण। खंधेसु य दुपदेसादिएस, अब्भेसु विजुमादीसु।
निष्फण्णगाणि हव्वाणि, जाणि तं धीससाकरण॥ द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अभ्र, विद्युत् आदि में परिणत पुद्गल-द्रव्य विसमाकरण कहलाता है।
(सूनि ८) वीससामेल-विस्तसामेल । विस्लमामेलो णाम दोण्हं तिण्हं चतुण्डं पंधण्हं वा वण्णाण संयोगविसेसेर्ण
उप्पजते। दो, तीन, चार अथवा पांच वर्गों के संयोग विशेष से जो उत्पन्न होता है, वह बिस्त्रसामेल
(सूचू १ पृ. १०) सीमंत-संयमी। वशे येषामिन्द्रियाणि ते भवति युसीम, घसंति वा साधुगुणेहि वुसीमंतः।।
जो जितेन्द्रिय अथवा मुनि-गुणों से युक्त हैं, वे वृषिमान्–संयमी हैं। (उचू पृ. १३७) वेणव-बेणव । वैदेहेणं खत्तीए जाओ वणनु ति वुच्चइ।
वैदेह पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान वेणत्र कहलाती है। (आचू पृ. ६) वेदवि-वेदवित्। दुवालसंग था प्रवचनं वेदो, ते जे वेदयति स वेदवी।। द्वादशांगी अथवा जिन-प्रवचन का अपर नाम वेद है। जो इसको जानता है, वह वेदविद्
(आचू पृ. १८५) वेदेह-वैदेह । वइस्सेण बंभणीए जाओ वेदेहो ति भण्णति ।
वैश्य पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान वैदेह कहलाती है। (आचू. पृ. ६) वोसट्टकाय-व्युत्सृष्टकाय । वोसट्ठकाए ति अपडिकम्मसरीरो उच्छूढसरीरो त्ति वुत्तं होति । जो शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, शरीर की सार-संभाल नहीं करता, वह व्युत्सृष्टकाय है।
(सूचू १ पृ. २४६) संखडी-जीमनवार। छह जीवनिकायाणं आउयाणि संखडिज्नति जीए सा संखडी भण्णा ।
जहाँ छह जीवनिकायों के प्राणियों का आयुष्य खंडित किया जाता है, जीव वध किया जाता है, वह संखडी (भोज, जोमनवार) है।
(दशजिवू पृ. २५७)
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नियुक्तिपंचक
संगाम--संग्राम। समस्त ग्रस्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति संग्रामः। जो सबको ग्रस्त कर देता है, खा जाता है अथवा जिसमें सब ग्रस्त हो आते हैं, वह संग्राम
(सूचू.१ पृ. ७९) संजम-संयम। संजमी पाणातिवायविरती। प्राणातिपात (प्राणहिंसा आदि) से विरत होना संयम है।
(दशअचू. पृ. ११) • सव्वावत्यमहिसोवकारी संजमो।
जो हा धाों में हिंसा का उपकारक है, वह संयम है। (दशअचू, पृ. १२) संजममधुवजोगजुत-संयमध्रुवयोगयुक्त संजमधुपजोगेण जुसो जस्स अप्पा, स भवति संजमधुवजोगजुत्तो।
जिसकी आत्मा संयम के ध्रुवयोगों से युक्त है, वह संयमनुवयोगयुक्त है। (दचू.पृ. २१) संबलण-क्रोध। संजालनं नाम रोषोद्गमो मानोदयो वा। संज्वलन अर्थात् क्रोध या मान का उदय ।
(उचू, पृ. ७२) संजलण-क्रोधी। संजलणो णाम पुणो पुणो रुस्सइ, पच्छा चरित्तसस्स हणति डाइ वा अग्गिवत्। जो बार-बार कुपित होता है और चारित्र रूपी शस्य को जला देता है, वह संज्वलन- क्रोध
(दबू. प. ७) संजय-संयत। संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे संजमे अवडिओ संजतो भवति।
सतरह प्रकार के संवम में भली-भांति अवस्थित साधक संयत है। (दशजिचू. पृ. १५४) • आसु पुढविकायादिस त्रिकरणएकभाषेण जता संजता। पृथ्वी आदि छह जीवनिकायों के प्रति जो मन, वचन और काया से उपरत रहता है, उनकी हिंसा नहीं करता, वह संयत कहलाता है।
(दशअचू. पृ. ६३) संडिम्भ-बच्चों का क्रीडास्थल । संडिन्भ नाम बालरूवाणि रमति घणुहि। जहाँ बालक धनुष्य आदि से खेलते हैं, वह स्थान 'संडिळभ' कहलाता है।
(दशजिचू. पृ. १७१, १७२) संथव--संस्तव। संथयो णाम उल्लव-समुल्लाया-ऽऽदाण-गहणसंपयोगादि।
परस्पर आलाप-संलाप करना, देना-लेना, परस्पर मिलना-संस्तव है ।(सूचू.१ पृ. १२०) संथार-संस्तारक । संथारो अड्डाइजहत्थो आयतो। हत्थं समचठरंगुलं वित्यिण्णो।
• संपारगो यडाइजहत्याततो समचतुरंगुल हत्थं वित्थिपणो। ढाई हाथ लम्बा और एक हाथ चार अंगुल चौड़ा बिछौना संस्तारक कहलाता है।
(दर्शाजचू. पृ. १५८, दशअचू. पृ. ९१) संदीण-संदीनद्वीप। संदीपो पाम जो जलेण छाडेजति।
जो जल से आप्लावित होता है, वह संदीनद्वीप कहलाता है। (उचू, पृ. ११४) संषि-सन्धि । संधी जमलपराणं अंतरे। दो घरों के बीच का अंतर संधि कहलाता है।
(दशअचू. पृ. १०३) संपसारग-संघसारक। संप्रसारकः देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारकः। देववृष्टि, अर्थकाण्ड आदि की सूचक कथा का विस्तार करने वाला संप्रसारक कहलाता
(सूटी.पृ. ४६)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
• संपसारगो णाम असंभताण असंजमकज्जेस साम छदेवि उवदेस वा। गृहस्थों के असंयममय कार्यों का समर्थन करने वाला तथा उनका उपदेश देने वाले को संप्रसारी कहा जाता है।
(सूचू.१ पृ. १७८) समुच्छिम-सम्मूच्छिम। सम्मुच्छिमा नाम जे विणा बीएण पुढविपरिसादीणि कारणाणि पप्प उति ।
जो उत्पादक बीज के बिना केवल पृथ्वी, पानी आदि कारणों से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूर्छिम कहलाते हैं।
(दशजिचू. पृ. १३८) संघर-संवर । संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भपणइ।
प्राणातिपात आदि आत्रवों के निरोध को संवर कहते हैं। (दजिचू. पृ. १६२, १६३ ) संवेयणी-संवेजनी । संवेग संसारदुक्खेहितो जणेति संवेदणी।
__संसार के दुःखों से संवेग प्राप्त कराने वाली कथा संवेजनी है। (दशअचू, पृ. ५५) संसय--संशय। संशय्यते च अर्घद्वयमानित्य बुद्धिरिति संशयः।
व्यर्थक शब्द के प्रति बुद्धि में जो विपर्यास होता है, वह संशय है। (उचू. पृ. १८३) संसार-संसार। अट्ठविहो जोणिसंगहो संसारेति पवुबइ।
आठ प्रकार का योनि संग्रह-उत्पत्ति-स्थल संसार कहलाता है। (आचू.पृ. ३६) • संसरति तासु तासु गतिष्विति संसारः। विभिन्न गतियों में संसरण करना संसार है।
(उचू. पृ. ९७) संहिता-संहिता। संहिता अविच्छेदेण पादो।
संहिता का अर्थ है-अव्यवच्छिन्न पाठ का उच्चारण। (दशअचू. पृ. ९) समार-संस्कार। शुभाऽशुभकर्म संस्कुर्वन्तीति संस्काराः।
जो शुभ-अशुभ कर्मों से वासित करते हैं, वे संस्कार कहलाते हैं। (सूचू.१ पृ. २९) सच्च-सत्य। सच्च-अणुवधायगं परस्स वयणं । दूसरे का उपघात न करने वाला वचन सत्य है।
(दशअचू.पृ. ११) सव-शठ। सो नाम अन्यथा संतमात्मानमन्यथा दर्शपति।
जो स्वयं को दूसरे रूप में प्रदर्शित करता है, वह शठ है। (उचू. पृ. १३३) सबल-शबल । सालको वा जयणार सेवंतो सबलो भवति। जो पुष्ट आलंबन से अथवा यतनापूर्वक अनासेव्य का सेवन करता है, वह शबल (चारित्री)
(दघू.प. ९) सण्णा-संज्ञा। पुष्यदिछमत्यमाझ्दिसंस्कारादि एसा सण्णा। ___ पूर्वदृष्ट अर्थ से संस्कारित होना संज्ञा है।
(दशअच्. पृ. ६७) सभा-सभा। सभा नाम नगरादीर्ण मणी देसे कौरति।
नगर आदि के मध्य में निर्मित जन-स्थान सभा कहलाता है। (आचू. पृ. ३११) सभिक्खु-सभिक्षु। अविध कम्मखुर, तेण निरुतं सभिक्खु ति।
आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने वाला सद्भिक्षु होता है। (दशनि,३१७)
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नियुक्तिपंचक
समण-समण। समेति व वाणी समणो।
जो अपने कथन के अनुसार चलता है, वह समण है। (आचू. पृ. २७१) • जह मम न पियं दुखं, जाणिय एमेव सब्य जीवाणं। • न हणति न हणावेति, य सममणई तेण सो समणो॥ जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है-ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समान व्यवहार करता है, वह समण है। (दशनि.१२९) • मित्ता-रिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो। जिसका शत्रु और मित्र के प्रति समान मन होता है, वह समन है। (सूचू. १ पृ. २४६) . तिथ य सि कोति वेसो, पिओ व सव्येसचेव जीवेस। एएण होति समणो.....|
जिसके लिए कोई प्रिय या अप्रिय नहीं होता, वह समण है। (दशअचू. पृ. ३६) समर--समर, युद्ध। समरं नाम जत्थ हेडा लोहयारा कम्मं करेंति आहवा सहारिभिः समरः।
जहां लोहकार कार्य करते हैं, वह समर है अथवा जहां शत्रुओं के साथ सामना होता है, वह समर (युद्ध) है।
(उचू.पृ. ३७) संखुडकम्मा-संयमी। मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा यस्य संवृता भवन्ति स संवृतकर्मा।
जिसके मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग संवृत होते हैं, वह संवृतकमां-संयमी कहलाता है।
(सूचू.१ पृ. ६९) समाहि-समाधि । समाधिर्नाम राग-द्वेषपरित्यागः। राग-द्वेष का परित्याग करना समाधि है।
(सूचू.१ पृ. ६७।) समाहितप्पा –समाहित आत्मा। नाण-दसण-चरित्तेसु सह आहितप्पा समाहितप्पा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अच्छी तरह स्थित व्यक्ति समाहित कहलाता है।
(दशअचू. पृ. २४१) समाहियच्च-समाहितार्च । जस्स भावो समाहिती स भवति समाहियच्चो। जिसके भाव समाधियुक्त होते हैं, वह समाधितार्च है।
(आचू. पृ. २८१) समिइ-समिति। सम्मं पवत्तर्ण समिती। सम्यक् प्रवर्तन करना समिति है।
(दशअचू.पृ. ५३) समुत्थिय-समुत्थित । मोक्षाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः।
मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यक् पुरुषार्थ करने वाले समुत्थित कहलाते हैं । (सूचू.१ पृ. ६७) सयग्घी-शतघ्नी। शतं जन्तीति शतघ्यः। एक साथ सौ को मारने वाला शस्त्र शतघ्नी है।
(उचू.पृ. १८२) सरण-शरण। जेण आवति तरतिजं अस्सिता णिभयं वसति तं सरणं । जहां आपदाओं से रक्षा होती है तथा जहां निर्भयतापूर्वक रहा जा सकता है, वह शरण है।
(आचू.पृ. ५३)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
सरीरबठस-शरीरबकुश। सरीराभिषक्तचित्तो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरबकुशः।
जो शरीर के प्रति आसक्त, विभूषा का उपर्थी (निरन्तर शरीर का परिकर्म करने वाला) तथा शरीर के प्रतिकूल तथ्य का प्रतिकार करने वाला होता है, वह शरीरचकुश कहलाता है।
___ (उचू पृ. १४५) ससणिक-जन से स्निाध। ससणिद्धं जं न गलति तितयं तं ससणि भण्णइ।
गीली वस्तु, जिससे जला-बिन्दु नहीं गिरते, उसे सस्निग्ध कहते हैं ।( दशजवू पृ. १५५) साहु-साधु । जेण कारणेण तस-थावराणं जीवाणं अप्पणो य हियत्थं भवइ तहा जयंति अतो य ते
साहुणो भण्णति। जो त्रस-स्थावर जोवों के तथा स्वयं के हित के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे साधु हैं।
(दशजिवू पृ. ७०) सिक्खग-नवदीक्षित। सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्यइओ। तत्काल प्रजित मुनि शैक्ष कहलाता है।
(दशहाटी प. ३१) सिक्खा -शिक्षा। शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम्।
शास्त्रों में तथा कलाओं में कुशलता प्राप्त करना शिक्षा है। (उचू पृ. १६५) सिणात-स्नातक। मोहणिज्जाझ्यातियचठकम्मावगतो सिणाती भण्णति। जो महिनीय आदि चार पती कर्मों का विनाश कर देता है, वह स्नातक निग्रन्थ है।
(उचू पृ. १४५) सिद्ध-सिद्ध। रागादिवासनामुक्त, चित्तमेव निरामयम्।
सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते॥ राग आदि की वासना से मुक्त, निर्मल चित्त वाले तथा सदा नियत स्थान में स्थित सिद्ध कहलाते हैं।
(दशहाटी प. १) सिला-शिला। सवित्यारो पाहाणविसेसो सिला। विस्तृत पाषाणखंड शिला कहलाती है।
(दचू प. ११) • सिला नाम विस्थिण्णो जो पाहाणो सा सिला। मूल से विच्छिपण पाषाण शिला कहलाती है।
(दशजिचू पृ. १५४) सीओदग-सचित्त जल । उदगं असत्यहर्य सजीवं सीतोदर्ग भण्णइ। जो जल शस्त्र प्रतिहत नहीं होता, वह शीतोदक (अप्रासुक जल) कहलाता है।
(दशजिचू पृ. ३३९) सीयपरीसह-शीतपरीषह । जे मंदपरीणामा परीसहा ते भवे सीया। मंद परिणाम बाले परीषह शीत परीषह कहलाते हैं।
(आनि २०४) सीलगुण-शीलगुण। सीलगुणो णाम अक्कुस्समाणो वि ण खुब्मति, अहषा सदादिएसु भइयपावएसु
ण रज्वति दुस्सति था। आक्रोश किए जाने पर भी क्षुब्ध नहीं होना, प्रशस्त इन्द्रिय-विषयों में अनुरक्त तथा अप्रशस्त इंद्रिय-विषयों में द्वेष नहीं करना शीलगुण है।
(आचू, पृ. ४५)
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नियुक्तिपंचक
सुंडिया-उन्मत्तता । जा सुरातिसु गेही सा सुंडिया भण्णति। सुरा आदि के प्रति गृद्धि सोंडिका कहलाती है।
(दशजिचू. पृ. २०३) सुत्तरुइ--सूत्ररुचि । सुत्तरुयी सुत्तं पढतो संवेगमावज्जति ।
सूत्र को पढ़ने से जो संवेग को प्राप्त होता है, वह सूत्ररूचि है। (दशअचू. पृ. १८) सुपणिहियजोगी-सुप्रणिहितयोगी। जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुभविषागं जाणइ। जो शुभ और अशुभ दिपाक को जानता है, वह सुप्रणिहितयोगी कहलाता है।
(दशजिच्. पृ. २७०) सुपण्णत्त-सुप्रज्ञप्त। सुपण्णत्ता महाबुद्धिसिस्साणं प्रज्ञापिता। शिष्यों को अपनी-अपनी योग्यता एवं बुद्धि के अनुसार प्रज्ञापित करना सुप्रज्ञाप्त है।
(दशअचू. पृ. ७३) सुभग-सुभग। अप्पिच्छित्तणेण सुभगो भवइ ।
जिसकी इच्छाएं अल्प हैं, वह सुभग कहलाता है। (दशजिचू.पृ. २८२) सुसंतुह-सुसंतुष्ट । जेण वा तेण वा आहारेण संतोसं गच्छ, सो सुसंतुट्टो भण्याइ। जो जिस किसी प्रकार के भोजन से संतोष प्राप्त कर लेता है, वह सुसंतुष्ट कहलाता है।
(दशजिचूपृ. २८२) सुसमाहिय-सुसमाहित । नाण-देसण-चरितेस सुलु आहिता सुसमाहिता। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् रूप से भावित होता है, वह सुसमाहित है।
(दशअचू. पृ. ६३) सुह-सुख । सरीरमनसोरनुकूल सुखमिति ।
शरीर और मन के जो अनुकूल होता है, वह सुख है। (आटी.पृ. १०१) सूय-सूत । खतिएणं बंभणीए जाओ सूओ ति भण्णति।
क्षत्रिय पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान सूत कहलाती है। (आचू. पृ. ५) सूर-शूर । शवत्यसौ युद्ध मुंचति वा तमिति शूरः।
जो युद्ध को श्मशान बना देता है, वह शूर है। जिसको सब छोड़ देते हैं कोई सामने नहीं आता, वह शूर है।
(उचू. पृ. ५९) सूरप्पमाणभोई-सूर्यप्रमाणभोजी। सूरप्पमाणभोई सूर एव प्रमाणं तस्य उदिते सूरे आरद्ध जाव ण
अस्थमेश ताव भ॑जति सज्झायमादी ण करेति, पडिनोदितो रुस्सति । जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता रहता है,स्वाध्याय आदि नहीं करता, प्रेरणा देने पर रुष्ट होता है, वह सूर्यप्रमाणभोजी है।
(दचू. प. ७,८) सोप-श्रोत्र । श्रृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रम् ।
जो भाषा रूप में परिणत पुद्गलों को सुनता है, वह श्रोत्र (कान) है। (आटी.पृ. ६९) सोयण-शोक । असुपुष्णनपणस्स रोयणं सोयणं । अश्रुपूर्ण नयनों से रूदन करना शोचन/शोक है।
(दशअचू. पृ. १७)
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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
६६७
सीबाग-श्वपाक । उग्गेण खत्तियाणीए सोयागो ति कुच्चइ।
उग्र पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान श्वपाक कहलाती है। (आचू. पृ. ६) हद-हढ। हदो णाम वणस्सइविसेसो, सो दह-तलागादिस छिन्नमूलो भवति तथा वातेण य आइद्धो
इओ-तओ य णिज्जा। द्रह, तालाब आदि में जो मूल रहित वनस्पति होती है तथा वायु के द्वारा प्रेरित होकर इधरउधर हो जाती है, वह हट वनस्पति कहलाती है।
(दशजिचू. पृ. ८९) हत्य-हस्त। हसति येनावृत्य मुख हेति वा हस्ताः। जिससे मुंह ढककर हंसा जाता है अथवा जिनसे घात की जाती है, वे हाथ हैं।
(उचू. पृ. १३२) हरतणु-हरतनु, भूमि भेदकर निकलने वाले जलकण। हरतनुः भुवमुद्भिध तृणाग्रादिषु भवति। भूमि का भेदन करके जो जलबिन्दु तृणान आदि पर होते हैं, वे हरतनु हैं।
(दशहाटी. प. १५३) • वर्षा-शरत्कालयोहरिताइकुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुभूमिस्नेहसम्पकोद्भूतो हरतनु शब्देनाभिधीयते। वर्षा और शरत्काल में हरितांकुरों के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु जो भूमि के स्नेह के संपर्क से उत्पन्न होता है, वह हरतनु कहलाता है।
(आटो. पृ. २७) हरियसुहम-हरितसूक्ष्म । हरितसुहमंणाम जो अहुट्टियं पुढविसमाणवपर्ण दुविभावणिज त हरियसाहुम। जो तत्काल उत्पत्रा, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय हो, वह अंकुर हरितसूक्ष्म है।
(दजिचू. पृ. २७८) हव्य-हव्य। ज हुयते घपादित हवं भण्णइ। घी आदि की आहति हव्य है।
(दजिचू. पृ २२५) हायणी-हायनी (जीवन की एक अवस्था)। हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षु वा हायणी।
जिस अवस्था में बाहुबल तथा आंखें कमजोर हो जाती हैं, वह हायनी अवस्था है। (दचू.प. २) हिंसा-हिंसा। पमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा। प्रमादवश प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है।
(दशअचू. पृ. १२) हिम-हिम, बर्फ। अतिसीतावत्यभितमुदगमेव हिम।
अत्यन्त सर्दी में जो जल जम जाता है, वह हिम है। (दशअचू. पृ. ८८) • हिमं तु शिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पर्काज्जलमेव फठिनीभूतम्।
शिशिरकाल में शीत पुद्गलों के सम्पर्क से जमा हुआ जल हिम कहलाता है। (आटी.पू. २७) होणपेषण-आज्ञा की अवहेलना करने वाला। होणपेसणं णाम जो य पेसण आयरिएहि दिन्नं द्र
देसकालादीहिं हीर्ण करेति त्ति होणपेसणे। जो आचार्य की आज्ञा को देश, काल आदि के बहाने से हीन कर देता है, वह हीनप्रेषण
(दजि . पृ. ३१७) हेठ-हेतु। हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टाननिति हेतुः।
जो जिज्ञासित धर्म के विशिष्ट अर्थों का ज्ञापक होता है, वह हेतु है ।(दशहाटी ए. ३३)
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सूक्त - सुभाषित
दवैकालिक नियुक्ति
देवा वि लोगपुज्जा पणमंति सुधम्मं । तसथावरहिंसाए जा अकुसला उलिप्यंति।
उकि मंगलं धम्मो ।
जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । उक्कामयंति जीवं धम्मातो तेण ते कामा ।
'कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेति खलु जंतू ।
इंदिय विसय कसाया, परीसहा वेषणा पमादा य । एए अवराहपदा, जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ॥ वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणतो । जइ विन भासति किंची, न चेव वइगुत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्तीकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणंती । दिवसमवि भासमाणी, अभासमाणो व वइगुत्तो ॥ पुवं बुद्धीइ पेहित्ता, ततो वक्कमुदाहरे। जस्स पुण दुष्पणिहिताणि, इंदियाई तवं चरंतस्स । सो हीरति असहीणेहि सारही इव तुरंगेहिं ॥ कोहं माणं मायं लोभं च महाभयाणि चत्तारि । जस्स विय दुप्पणिहिता, होंति कसाया तवं करेंतस्स । सो बालतवस्सी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुणति ॥ सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ नाणी नवं न बंधति ।
जो भिक्खू गुणरहितो, भिक्खं हिंडति न होति सो भिक्खू । audi जुत्तिसुवण्णगं व असती
गुणनिधिमि ॥
उत्तराध्ययन निर्युक्ति
जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए सो य दिप्पती दोवो । दीवसमा आयरिया, दिप्यंति परं च दीवेंति ॥ सुहिओ हु जो न बुज्झती ।
परिशिष्ट-ट
(८६)
(११)
(१२०/२)
(१२९)
(१४०)
( १४१ )
(१५१)
(२६६, २६७ )
(२६८)
(२७४)
(२७५)
(२७६, २७७)
(२९३)
(३३१)
(८)
(१३५)
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परिशिष्ट ८ : सूक्त-सुभाषित
(१४०)
(१६०)
(२४९) (३१९) (३४२)
(३९५)
(३९६) (४७१)
(५२०)
राईसरिसबमेत्ताणि, परछिद्दाणि पाससि। अप्पणो बिल्लमेत्ताणि, पासंतो वि न पाससि ।। माणुस्स-खेत्त-जाती, कुल-रूवारोग्ग-आउयं बुद्धी। सत्रणोग्गह-सद्धा संजमो य लोगम्मि दुलहाई ।। न लभइ सुई हियकरि संसारुत्तारिणिं जीवो। जहा लाभो तहा लोभो, लाभा लोभी पवड्दति । दोमासकर्य कजं, कोडीए वि न निट्टियं ।। भद्दगेणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भइओ। गहणं नदीकुडंग गहणतरागाणि पुरिसहिययाणि ॥ ..........जलबुब्बुयसन्निभे य माणुस्से। किं हिंसाए पसज्जसि, जाणतो अप्पणो दुक्खं ॥ सव्यमिणं चाऊणं, अवस्सं जदा य होई गंतव्वं । किं भोगेसु पसज्जसि, किंपागफलोवमनिभेसु॥ परमत्थदिट्ठसारो, नेव य तुट्ठो न वि य रुट्ठो। जेसिं तु पमाएणं, गच्छइ कालो निरस्थओ धम्मे। ते संसारमगतं, हिंइंति पमाददोसेणं ॥ आचारांग नियुक्ति अंगाणं किं सारो? आयारो। एगा मणुस्सजाई। सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरति । भावे य असंजमो सत्य। कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चए खिप्पं । जस्स कसाया वटुंति, मूलट्ठाणं तु संसारे। संसारस्स उ मूलं, कम्मं तस्स वि य होंति उ कसाया। माया मे त्ति पिया मे,भगिणि भाया य पत्त दारा मे। अस्थम्म चेव गिद्धा, जम्मणमरणाणि पावेंति। अभयकरो जीवाणं,सीयघरो संजमो भवति सीतो। अस्संजमो च उपहो। डज्झति तिव्वकसाओ, सोगाभिभूओ उदिण्णवेदो य। कामा न सेवियवा। सुत्ता अमुणिओ सया, मुणिओ सुत्ता वि जागरा होति । न हु बालतवेण मोक्खो त्ति।
(१६) (१९) (९४)
(१७८)
(१९०)
(१९६) (२०७) (२०७) (२०९) (२११) (२१२) (२१५)
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६७०
नियुक्तिपंचक
(२२२)
(२३३, २३४)
(२३५) (२४२)
(२४५)
(३०२)
कुणमाणोऽवि निवित्तिं परिच्चयंतो वि सयण-धण-भोए । दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छट्टिी न सिज्झइ उ ॥ दसणवओ हि सफलाणि होति तवनाणचरणाई। उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुठे, जो उयो सोऽत्थ लग्गती॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए। जह खलु झुसिरं कहूं, सुचिरं सुक्क लहुं डहइ अग्गी। तह खलु खवेंति कम्म, सम्मचरणट्ठिया साहू ॥ सारो हु नाण-दसण-तव-चरणगुणा हियट्ठाए । लोगस्स धम्मसारो, धम्म पि नाणसारियं बैंति। नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं॥ जह खलु मलिणं वत्थं, सुल्झइ उदगादिएहि दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण, सुज्झती कम्म अट्टविहं ।। किह मे होज्ज अवंझो, दिवसो? किं वा पभू तवं काउं। को इह दवे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे ॥ सूत्रकृतांग नियुक्ति तव-संजम-नाणेसु वि, जइ माणो वज्जिती महेसीहिं। अत्तसमुक्कसणटुं, किं पुण हीला नु अन्नेसिं? ॥ दीसंति सूरवादी, नारीवसगा न ते सूरा। धम्मम्मि जो दढमती, सो सूरो सत्तिओ य वीरो य। न हु धम्मनिरुच्छाओ, पुरिसो सूरो सुबलिओ वि।। सम्मपणीतमग्गो, नाणं तध दंसणं चरितं च। न करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणो वि संजम-तवेसु । तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेतव्यो जतिजणेणं ॥ दशावस्कन्ध नियुक्ति दसण-नाण-चरित,तयो य विणओ य होति गुरुमूले। आणं कोवेमाणो, हंतब्यो बंधियष्यो य। सज्झाय-संजम-तवे, धणिय अप्पा नियोतव्वो।
(३६२)
(४३)
(६०) (११२)
(२०)
(२२) (९८) (११४)
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परिशिष्ट-९
उपमा और दृष्टान्त
(८९/३)
(११८) (१२०/२)
दशवैकालिक नियुक्ति जह सीहसहु सीहे पाहण्णुवयारओऽन्नत्य। कुसुमे सभावपुप्फे, आहारंति भमरा जह तहेव। भत्तं सभावसिद्धं, समणसुविहिता गवसंति ॥ भमरोव्च अवहवित्तीहिं। उरग-गिरि-जलण-सागर-नभतल तरुगणसमो य जो होई। भमर-मिग-धरणि-जलरुह, रवि-पवणसमो य सो समणो॥ विस-तिणिस-वात-वंजुल, कणियारुप्पलसमेण समणेणं । भमरुंदर-मड-कुक्कुड, अदागसमेण भावतव्यं । फरिसेण जहा वाऊ ........... पत्थेण व कुडवेण व जह कोइ मिणेज सम्बधनाई। सारही इव तुरंगेहिं। अहवा वि दुप्पणिहिंदियो उ मजार-बगसमो होइ। सो बालतवस्सी वित्र गयोहाणपरिस्समं कुणति। मनामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामण्णं । निसिटुंगो व कंटइल्ले जह पडतो। सुक्कतिणाई जहा अग्गी। धणेणं जच्चसुबण्णगं व। जध नाम आतुरस्सिह... । उत्तराध्ययन नियुक्ति दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति। जह धातू कणगादी, सभावसंजोगसंजुया होति । इय संततिकम्मेणं, अणाइसंजुत्तओ जीवो ॥ चोल्लग पासग धन्ने, जूए रयणे य सुमिण चक्के या चम्म जुगे परमाणु, दस दिटुंता मणुयलंभे ॥ पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समनेति । एवं पुट्ठमबझे, जीवो कम्म समन्नेति ॥
(१३२, १३३)
(२०४) (२१०)
(२७४) (२७४/१)
(२७६) (२७७) (२८२) (२८३) (३३०) (३४१)
(८)
(३४)
(१६१)
(१७२/११)
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नियुक्तिपंचक
(२४१) (२६२/१)
(३०१) (३९५) (३९६) (४१२) (४३१)
(४८७)
(८५)
ओरब्भे य कागिणी अंबए य ववहार सागरे चेव। पंचेते दिटुंता........ बुड्दिं च हाणिं च ससीव दर्दू ,पूरावरेगं च महानईणं । जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्भं वि य होहिहा जहा अम्हे। अप्पाहेइ पड़तं, पंडुरपत्तं किसलयाणं ॥ जलबुब्बुयसन्निभे य माणुस्से। किंपागफलोवमनिभेसु ......३ सीहत्ता निक्लमिउं, सीहत्ता चेव विहरसू। अमरवणं सरिसरूवं। दोगुंदगो व देवो। दंसमसगस्समाणा, जलूक-विच्छुगसमा । आचारांग नियुक्ति अट्ठी जहा सरीरम्मि, अणुगतं चेयणं खरं दिटुं । एवं जीवाणुगयं, पुढविसरोरं खरं होति ॥ जह हस्थिस्स सरीरं, कललावत्थस्स अहुणोववनस्स । होति उदगंडगस्स य, रसुवमा आउजावारण । जह देहपरीणामो,रत्तिं खज्जोयगस्स सा उवमा। जरितस्स य जह उम्हा, एसुवमा तेउजीवाणं ॥ जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण वत्तिया वट्टी। पत्तेयः जह वा तिलसक्कुलिया, बहूहिं तिलेहिं मेलिया संती। पत्तेय ... । जह देवस्स सरीरं, अंतद्धाणं च अंजणादीसुं । एओवमा आदेसो, वाएऽसंतेऽवि रूवम्मि॥ जह सव्वपायवाणं, भूमीए पतिट्टियाणि मूलाणि । इय कम्मपायवाणं, संसारपइट्ठिया मूला॥ जह सुत्त-मत्त-मुच्छिय,असहीणो पावती बहुं दुक्खं । सीयधरो संजमो भवति सीतो। कमलविसालनेत्तं। जह खलु झुसिरं कट्ठ, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी। तह खलु खति कर्म, सम्मच्चरणट्टिया 'साह ॥ रपणो जह तिक्ख-सीयला आणा।
(११९)
(१३१,१३२)
(१६७)
(१८७) (२१३) (२०७) (२२९)
(२३५) (२८७)
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________________
परिशिष्ट ९ : उपमा और दृष्टान्त
६७३
(२८८) (३०२)
(३०६)
सउणी जह अंडगं पयत्तेणं। जह खलु मलिणं वत्थं, सुज्झइ उदगादिएहि दव्वेहि । एवं....| रुक्खस्स पव्ययस्स य जह अग्गाई तहेताई। सूत्रकृतांग नियुक्ति जध नाम मंडलग्गेण, सिरं छेत्तूण कस्सइ मणुस्सो। अच्छेज पराहुत्तो, किं नाम ततो न घिप्पेज्जा? ।। जध वा विसगडूसं, कोई घेत्तूण नाम तुण्हिको। अण्णण अपीलंक किनाम
मोजा? जह नाम सिरिघराओ, कोई रयणाणि नाम घेत्तूणं । अच्छेज्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो न घेप्सेज्जा ।। दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति जध गयकुलसंभूतो, गिरि-कंदर-कडग-विसम-दुग्गेसु । परिवहइ अपरितंतो, निययसरीरुग्गए दंते॥
(५२)
(३०)
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परिशिष्ट १०
दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य पूर्व ज्ञान के अक्षय भण्डार थे। लेकिन संहनन, धृति और स्मृति को कमजोरी से वे धीरेधीरे लुप्त होने लगे। इनका लोप देखकर आचार्यों ने कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों का नियूँहण किया। पूर्वज्ञान से निषूद रचना का प्रारम्भ धीर-निर्वाण के ८० वर्ष के बाद आचार्य शय्यंभव ने किया। उन्होंने अपने पुत्र मनक के लिए दशवकालिक सूत्र का नियूँहण किया। उसके बाद आचार्य भद्रबाहु आदि आचार्यों ने छेदसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का नि!हण किया। अंगविजा जैसा विशालकाय ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथ भी पूर्वो से उद्धृत है। यद्यपि दृष्टिवाद की विशाल श्रुतराशि आज हमारे समक्ष उपलब्ध नहीं है पर यह खोज का विषय है कि दृष्टिवाद का उल्लेख कहां-कहां किस रूप में मिलता है? कम्मप्पवायपुबे, सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुत्त। सणर्य सोदाहरणं, 'तं चेव इहं पिणातब्वं ।।
(उनि. ७०) परीसहा बारसमाओ अंगाओ कम्मप्पधायपुष्याओ णिज्जूढा ।
(उचू, पृ. ७) अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धृततया वस्तुतः सुधर्मस्वामिनैव जम्बुस्वामिनं प्रति प्रणीतत्वात् ।
('उशाटी. प १३२) आयप्पवायपुव्वा, निजूढा होइ धम्मपण्णत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा ॥
(दशनि.१५) सच्चप्पवायपुच्चा, निजूदा होति वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निग्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्यूतो ।।
(दशनि. १६) चरिमो चोद्दसपुब्बी अवस्सं निजूहति, चोद्दस (दस) पुवी वि कारणे। (दशअचू. पृ. ४,५) चोदसपुष्यी कहिं पि कारणे समुप्पण्णे निज्जूहइ, दसपुवी पुण अपच्छिमो अवस्समेव ।
('दशजिचू. पृ. ७) आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया ।
(आनि.३११) छट्टट्ठमपुव्बेसु आउवसग्गो ति सव्वजुत्तिकओ।
(दनि.१८) अट्ठविहं पि य कम्म, भणियं मोहो त्ति जं समासेणं । सो पुब्बगते भणिओ.....। (दनि, १२३) भद्दबाहुस्स ओसप्पिणीए पुरिसाणं आयु-बलपरिहाणिं जाणिऊण चिंता समुप्पण्णा । पुव्वगते बोच्छिण्णे मा साहू विसोधिं ण याणिस्संति ति काठं अतो दसाकप्पक्वहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुवातो।
(दचू. पृ. ४) दिट्टिवायातो नवमातो पुव्वातो असमाहिहाणपाहुडातो असमाधिट्ठाणं, एवं सेसाओ वि सरिसनामेहि पाहुडेहिं निज्जूढाओ। केण? भद्दबाहुहि।
(दचू.पृ. ६) सच्चप्पवायपुन्चे अक्खरपाहुडे तत्रादुपसर्गो वपर्यते । अट्ठमे कम्मप्पवाययुब्बे अट्ठम महानिमित्तं तत्थ स्वरचिंता तत्रापि आदुपसर्गो वर्ण्यते।
(दचू. पृ. १२) उवासगपडिमा थेरा गणधरा तेहिं अक्खातं णवमे पुन्चे।
(दचू. पृ. ३८)
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परिशिद ११
अन्य ग्रंथों से तुलना नियुक्ति संख्या अन्य अन्य
नियुक्ति गाथा अइसेस इड्डियायरिय अंबे अंबरिसी चेव अक्खीणं दिज्जतं अग्गबिय मूलबीया अज्झप्पस्साणयणं अण्झयणगुणी भिक्खू अटुविधं कम्मचर्य अभिग्गहिता भासा अणसणमूणोयरिया अणिगृहितबलविरियो अतसि हरिमंथ तिपुडग अपडिकमसोहम्मे अप्पिणह तं बाल अब्भुवगतगतवेरे अरती अचेल इत्थी अवणेति तवेण तम अवहंत गीण मरुए असिपत्ते धणुं कुंभे असिवादिकारणेहिं असिवे ओमोयरिए आमंतणि आणवणी आय-परसरीरगया आयारे क्वहारे आलस्स मोहऽवण्णा आसाढपुपिणमाए इंगाल अगणि अच्ची इंदग्गेयी जम्मा इंदियलद्धी निव्वत्तणा इच्छा-मिच्छा तहकारो
दशनि १५७/१ सूनि ६६ उनि २८४ आनि १३० उनि ६ दशनि ३२५ दशनि २९४ दशनि २५३ दशनि ४४ दानि ६६ दशनि २३० दनि १११ दनि ९४ दनि ११३ उनि ७६ दशनि २९५ दनि १०५ सूनि ६७ दनि ६७ दनि ७५ दशनि २५२ दशनि १७२ दशनि १६७ उनि १६३ दनि ६४ आनि ११८ आनि ४३ उनि १६२ उनि ४७८/१
निभा ३३ सम १५:१/१, भ. ३२५९/१ विभा १५६ मूला. तु. २१३ अनुहा६३१/१ पंव ११९१ मूला. तु. ५८९ प. ११:३७/२ उ. तु. ३०८ नि"। ४, पदभाद. १११६, मला ४१३ निभा १०३० निभा ३१९९ निभा ३१८५ निभा ३२०१ भ. ८/३२१/१ मूला. ५९० निभा ३१९३ सम.१५.१/२, भ. ३.२५९/२ निभा ३१५२, वृभा ४२८३ निभा ३१६१ प, ११/३७/१, मूला. तु. ३१५, भआ. ११८९ ठाणं तु. ४/२४९ ठाणं तु. ४/२४७
आवनि ८४१ निभा ३१४९, बृभा ४२८० मूला. तु. २११ भ. १०/४, १३:५१. ठाणं १०/३१ विभा ३२४८ ठाण १०/१०२/१.,भ.२५/५५५/१, अनुद्वा २३९/१, आवनि ६६६
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६७६
इय सत्तरी जहणणा इरि- एसण-भासाणं
उक्कलिया मंडलिया
उच्चार- पासवण खेल
बम तिरियमिय
उपवासाकप्पो
उदगसरिच्छा पक्खेण
उद्दिकडे भुंजति
उभओ वि अद्धजोयण
उरग- गिरि-जलण- सागर
उल्लो सुक्को य दो छूढा
उवसंपया य काले
ऊणातिरित्तमासा
ऊणातिरित्तमासे
कहाए पण्णत्तं
एगबइल्ला भंडी
एगस्स उ जं ग्रहणं
एगस्स दोण्ह तिन्ह व
एतेहिं कारणेहिं
एत्थ तु अणभिग्राहिय एत्थ तु पणगं पणगं
एमेव थंभकेयण
एवं लग्गंति दुम्मेहा ओदइयादीयाणं
ओहो जं सामण्णं
कहिऊण ससमयं तो
करकंडू कलिंगेसु
काइयभूमी संथार
काऊण मासकप्पं
कामं तु सव्वकालं
कारणओ उडुहि काले विणए बहुमाणे
कालो समयादीओ
कोल
कोहे माणे माया
दनि. ६९
दनि.८९
आनि. १६६
दनि. ८५
दनि, ७७
दनि. ११८
दनि. १०२
दशनि. ३३२
दनि. ७६
दशनि. १३२
आणि. २६२
उनि ४७८/२
दनि. ६३
दनि ५९
उनि, १७२ / १४
दनि. ९३
आनि. १३७
आनि . १४३
उनि १६४
दनि. ६६
दनि. ६८
दनि. १०४
आनि. २३४
दनि ५६
दशनि. २५/१,
दशनि. १६९
उनि २५७
दनि ५७२
दनि. ६०, ७०
दनि. ९०
दनि. ८४
दशनि. १५८
दनि ५८
उनि १०७
उनि २३५
निभा. ३१५४, बृभा. ४२८५
निभा. ३९७६
मूला. तु. २१२
निभा. ३१७२
निभा. ३१६३
निभा. ३२०६
निभा. ३१८९
पंच. १२०२
निभा. ३१६२
अनुद्धा. ७०८/५
३.२५,००
ठाणं १०/१०२/२, आवनि ६६७,
अनुद्वा. २३९ / २, भ. २५/५५५/२ निभा. ३१४८
निभा. ३१४४
विभा. ३०३३, निभा. ५६१०
निभा. ३१८०
प. १/४८/५४
प. २/४६/५७
आवनि. ८४२
वृभा. ४२८२, निभा, ३१५१
बृभा. ३१५३, बृभा. ४२८४
निभा. ३१९०
निर्युक्तिपंचक
उ. २५/४१
निभा. ३१४१
विभा. ९५८
ठाणं तु. ४/२४८
ठ. १८/४५
निभा. ३१५९
निभा. ३१४५, ४२८६, बृभा. ४२८६
निभा. ३१७७
निभा. ३१७१
निभा.८, मूला, २६९, ३६७, भआ. ११२ निभा. ३९४३
निभा. ४३९२
प. ११/३४/२ ठाणं १० / ९० बृभा. ८३१,
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परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से तुलना
६७०
खंती य महवाजव खद्धादाणिय गेहे गंगाए दोकिरिया गंधारगिरी देवय गावी महिसी उट्टी गूढसि. गोमेज्जए य रुयगे चठवीसं चउवीसं चउसु कसाएसु गती चंदप्पभ वेरुलिए चंपा कुमार नंदी चक्कागं भज्जमाणस्स चतुकारणपरिसुद्ध चोद्दसवासाई तदा चोद्दस सोलस वासा चोला पासग धन्ने जणवय सम्मय ठवणा
दशनि.२२५ दनि.९९ उनि.१६९ दनि.९७ दशनि.२३४ अनि. आनि.७५ दशनि.२२८ दनि.१०४/१ आनि.७६ दनि.९५ आनि.१३९ दशनि.३२७ उनि.१७२/१ उनि.१७१ उनि.१६१ दशनि.२४९
मूला. १०२२ निभा.३१८६
आवनि.७८०, विभा.२७८४ निभा.३१८४ निभा.१०३४ प.४३९, निभा.४८२७, बृभा.९६७ उ. ३६/७५, प. १/२०७३, मूला.तु. २०८ निभा.तु. १०२८ निभा,३१९२ उ. तु. ३६/७६ प. तु. १/२०/४, मूला.तु. २०९ निभा.३१८२, बृभा.५२२५ , ' प, १४१८/३८, निभा.४८२८ बुभा.९६८ पंव. ११९६ विभा २७८८, निभा,५६११ आवनि.७८२, निभा. ५६१८, विभा.२७८६ आवनि.८३२ टाणं १०/८९, प. ११३३/१, मूला.तु. ३०८ भआ.११८७ अनुद्वा.७/१ बृभा. ४२८७, निभा.३१५७ पंकभा. १९१५, व्यभा.१९४७ अनुद्वा.५६९/३ अनुद्वा.६४३११, चंदा.30 अनुद्वा.७०८/३. विभा.३३१५ प. १/४७/३, जी. १/७२/३ प. १/४७/२, जी. १:७२/२ उ.८१७ आवनि.८४३ बृभा.४१२ पंव. ११९९ पंव, १२०० निभा.५५९७ विभा.९५५ भ, २५/२७८/२ पंव.११६३, मूला.तु. १०१९ गोजी. १९०, प. १/४८.५१
जत्थ य ज जाणेज्जा जदि अस्थि पदविहारो जध गयकुलसंभूतो जह तुब्भे तह अम्हे जह दीवा दीवसयं जह मम न पियं दुक्खं जह वा तिलसक्कुलिया जह सगलसरिसवाणं जहा लाभो तहा लोभो जाणावरणपहरणे जीवाजीवाभिगमो जुत्तीसुवण्णगं पुण जे अज्झयणे भणिता जेट्ठा सुदंसण जमालि जेण सुहप्पज्झयणं जोगुवओग कसाए जोगे करणे सण्णा जोणिभूते बीए
आनि.४ दनि.७१ दनि.३० उनि.३०१ उनि.८ दशनि.१२९ आनि.१३२ आनि.१३१ उनि.२४९ उनि.१५५ दशनि.२१७ दशनि.३२९ दशनि.३३० उनि.१७२/२ उनि.२८/३ उनि.४२० दशनि.१५२ दशनि.२१५
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६७८
नियुक्तिपंचक
जो भिक्खू गुणरहितो दशनि.३३१ टवणाए निक्खेवो दनि.५५ डालच्छारे लेवे
दनि.८ णायम्मि गिण्हियचे दशनि.१२५ णिद्धस्स णि ण दुहाहिएण उनि, ४१/१ तं कसिणगुणोवेतं
दशनि.३२८ तम्हा जे अज्झयणे दशनि. ३३३ तह पवयणभत्तिगओ दनि.३१ तिपिण दुवे एगा वा दनि.७८ तो समणी जइ सुमणो दशनि.१३१ दसण-णाण-चरिते दशनि.२९१ दगघट्ट तिण्णि सत्त ब दनि.७९ दव्यं सत्यग्गिविसं दशनि.२१३ दवट्ठवणाहारे
दनि.८० दव्ये अद्ध अहाउय दशनि.१० दसपुरनगरच्छुघरे उनि.१७२/१० दासो दासीवतिओ
दनि.९८ धन्त्राणि चउवीसं
दशनि.२२९ धत्राणि रतण-थावर दशनि.२२७ धम्मकहा बोधव्वा
दशनि.१६६ ध्रुवलोओ उ जिणाणं दनि.८६ नत्थि य सि कोइ वेसो दशनि.१३० नदि-खेड-जणव उल्लुग उनि.१७२/६ नवबंभचेरमइओ
आनि.११ न वि अस्थि न वि य होही उनि.३०२ नाणं सिक्खति नाणी दशनि.२९३ नाणाविहसंठाणा
आनि.१३३ नाणाविहोवकरणं दशनि.२३५ नाम ठवणा दविए दशनि.८ नामं ठवणा पिंडो
दशनि.२१८ नामण-धोवण-वासण दशनि.१५५ नामादिचठब्भेयं
दशनि.२५/२ निक्खेवेगट्र-निरुत्त दशनि. निवचित विकालपडिच्छणा दनि. १०७ निस्संकिय निकंखिय दशनि.१५७
पंच-१२०१ निभा.३१४० निभा.३१७५ अनुहा.७१५/५ प. १३/२२१२ पंव.११९८ पंत्र.१२०४ पंकभा.१९१६, व्यभा.१९४८ निभा.३१६४ अनुद्वा.७०८/६, आवनि. ८६७, विभा.३३१७ मूला, ५८६ निभा ३१६५
आनि.३६, ठाणं तु. १०.९३ निभा.३१६६
आवनि,६६० निभा.५६०७, विभा.२९९२ निभा.३१८५ निभा.१०२९ निभा.तु . १०२८ ठाणं.तु. ४,२४६ निभा.३१७३
अनुदा.७०८/४, आवनि.८६८८, विभा.३६१६ निभा.५६०१, विभा.२९०७ निभा.१ अनुद्वा.५६९/४ मूला.३६८ जी.१७२/१, प. १/४७/१ निभा. तु १०३५ बृभा.५ पिनि.तु. ५ निभा.६ विभा.९५९ अभा.१४९ निभा.३१९५ प. १/१०१/१४, आवनि.१५६१, निभा.२३, मूला.२०१, उ. २८/३१
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परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से तुलना
६७९
नेच्छति जलूगवेजग पंचसया चुलसीया पंचसया जंतेणं पंचव आणुपुवी पक्खतिधयो दुगुणिता पच्चक्खाणं सेयं पच्छितं बहुपाणा पज्जीसमणाए अक्खराई पडिमापडिवन्नाणं पणिधाणजोगजुत्तो पण्णवण वेद रागे परियट्टिय लावणं परिवसणा पज्जुसणा पसथविगतिग्गहणं पायच्छित्तं विणओ पायसहरण छेत्ता पावाणं कम्माण पासस्थि पंडरज्जा पुट्ठो जहा अबद्धो पुढवी य सक्करा बालुगा पुरिमंतरंजि भुयगुह पुरिम-चरिमाण कप्पो पुवाधीतं नासति पुवाहारोसवणं बवं च बालवं चेव बहुरय जमालिपभवा बहुरय पदेस अप्वत्त बारसविम्मि वितवे
दनि.१०८ उनि.१७२ उनि.११४ उनि.७९ उनि.१९२११ उनि.१७२/१२, दनि.११४ दनि.५३ दनि.६२ दशनि.१५९ उनि, ४१९ उनि.३०० दनि.५४ दनि.८२/१,८३ दशनि,४५ दनि.१०० दशनि.१७४ दनि.११० उनि.१७२/११ आनि.७३ उनि.१७२॥ दनि.११५ दनि.११९ दनि.८१ उनि.१९० उनि.१६८ उनि.१६७ दशनि.१६०
निभा.३१९६
आवनि.७८३, विभा.२७८७, निभा.५६२१ निभा.३९६५ 5.८/३१९/१ विभा.३३४१ विभा.३०३४ निभा.३२०२ निभा.३१३८ निभा.३१४५ निभा.३५, मूला. २९७ भ. २५/२७८/१ अनुद्वा.तु. ५६९/२ निभा.३१३९ निभा.३१६९, तु. ३१७० उ. ३०/३०, मूला.तु. ३६० निभा.३१८७ ठाणं तु. ४/२५० निभा.३१९८ विभा.२९९९, निभा. ५६०८ उ.३६/७३, प, १/२०/१, मूला. २०६ निभा.५६०२, विभा.२९३४ निभा. ३२०३ निभा. ३२०७ निभा.३१६७ विभा, ३३४८ ठाणं ७/१४०, आवनि.७७९ आवनि.७७८, निभा.५५९६ निभा.४२, पंकभा.१२१४, पंद.५६२, भआ.१०६ ,मूला. ४०९, ९७२ ठाणं १०/१५४, निभा.३५४५, पंकभा.२५२,तंदुल.३१ निभा-३२०८ निभा.३१५०, बृभा.४२८१ विभा.३०३५, निभा.५६२० निभा.३१८३ भ. २५/२७८/३
बाला मंदा किड्डा
दशनि.९४१
दनि.१२० दनि.६५
बाले सुत्ते सूई बाहि ठिता वसभेहिं बोडियसिवभूतीए बोहण पडिमोद्दायण भव आगरिसे कालंतरे
उनि.१७२/१५
दनि.९६ उनि.४२१
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________________
नियुक्तिपंचक
भासणे संपातित्रहो भूमी घर-तरुगणा य मण-वयण-कायगुत्तो महुरा-मंगू आगम माणुस्स खेत्त जाती माया य रुहसोमा मिच्छादिट्ठी जीवो मिच्छापडिवत्तीए मिहिलाए लच्छिघरे मुणिसुव्वयंतवासी मोत्तुं पुराण भावित मोरी नउलि बिराली रयणाणि चतुव्वीस रहवीरपुरं नयरं
पशिहे गुणसिंग राया सप्पे कुंथू रुक्खा गुच्छा गुम्मा वंदामि भद्दबाहुं वणिधूयाचंकारिय वयछकं कायछक्क वाओदएण राई वासं व न उवरमती वासाखेत्तालंभे विगतिं विगतीभीतो विच्छुय सप्पे मूसग विसघाति रसायण मंगलत सउणि चउप्पय मार्ग संखो तिणिसाऽगरू संघातणा य परिसाडणा संजमखेत्तचुयाणं सम्महिटी जीवो सयगुणसहस्सपागं सब्बेसि पि नयाणं सामित्ते करणम्मि य सायत्थी उसभपुरं
दनि.९१ दशनि.२३३ दनि,९२ दनि.११२ उनि.१६० उनि.९७ उनि १६५ दनि.१९ उनि.१७२/५ उनि.११३ दनि.८७ उनि,१७२/९ दशनि.२३१ उनि.१७२/१३
२६ दनि.७३ आनि.१२९ दनि.१ दनि.१०६ दशनि.२४४ दनि.१०१ दनि.७४ दनि.६१ दनि.८२ उनि.१७२/८ दशनि.३२६ उनि.१९१ दशनि.२३२ उनि.१८६ दनि.११७ उनि.१६६ दनि.१०९ दशनि.१२६ दनि.५७ उनि.१७०
निभा.३१७८ निभा.१०३३ निभा.३१७९ निभा.३२०० आवनि.८३१ आवनि.७७५ भआ.३९ निभा.२६४८ विभा.२८७२, निभा.५६०० निभा.३९६४ निभा.३१७४ विभा.२९३६,निभा.५६०४ निभा.१०३१ विभा.३०३४, निभा.५६०९ विभा.२८१६, निभा.५५९८ निभा.३१५८ जी. १/६९/१ पंकभा.१ निभा.३१९४ सम.१८/३/१, जीतभा.५८७ । निभा.३१८८ निभा.३१६० निभा.३१४६ निभा.३१६८, पंव.३७० विभा.२९३५, निभा.५६०३ पंव.११९२ विभा.३३५० निभा.१०३२ निभा.१८०४ निभा.३२०५ भआ.३१ निभा.३१९७ अनुद्वा.७१५/६ निभा.३१४२ ठाण ७/१४२, आवनि.७८१, निभा.५६२२, विभा.२७८५
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________________
६८१
परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से तुलना
साहारणमाहारो सीसं उरो य उदरं सीहगिरि भगुत्तो सुत्ते जहा निबद्धं सुद्धोदगे य ओसा सेयवि पोलासाढे सेलट्ठि थंभ दारुय हरियाले हिंगुलए हित-मित-अफरुसभासी होति उवंगा कण्णा
आनि.१३६ उनि.१५३ उनि.९८ दनि.११६ आनि.१०८ उनि.१७२/४ दनि.१०३ आनि.७४ दशनि.२९९ उनि.१५४, १८२/२
पं. १/४८/५५, गोजा. १९२ निभा.५९३
आवनि.तु. ७७६ निभा.३२०४ मूला. तु. २१० विभा.२८३९, निभा.५५९९ निभा.३१९१ उ.३६/७४, प. १/२०/२, मूला. तु. २०७ मूला. तु. ३८३ निभा.५९४
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________________
अंक (मणि) अंगुलि (अवयव) अंजण (पृथ्वी काय )
अंतगघ (अवयव)
अंतरंज (नगरी)
अंतरा (ग्राम)
अंतिय (मरण)
अंतोसल्ल (मरण)
अंब (परमाधार्मिक देव)
अंब (फल)
अंबट्ठ (वर्णान्तर)
अंबट्ठी (वर्णान्तर)
अंबय (फल)
अग्गेय (दिव्य शस्त्र ) अग्गेयी (दिशा) अचकारियभट्टा (महिला)
आनि. २२, २३
आनि. २६
उनि २४१
अंबरिति (परमाधार्मिक देव) सूनि ६६, ६९
अकारगवाद (दर्शन)
अकिरियवादी (दार्शनिक )
सुनि. २९ सूनि. १९८ दशनि. १६६-१६८,
अक्खेवणी (कथा)
अच्छि (अवयव)
अच्छिवेयणा (रोग)
अजोगव (वर्णान्तर)
विशेषनामानुक्रम
आनि. ७५
उनि १८२/२
आनि. ७४
सूनि. ७१
उनि १७०, १७२/७
अज्जुणय (माली)
अट्ठमपुव्व (ग्रंथ)
अट्ठावय (पर्वत)
उनि ३४१, ३४३
उनि २०५
अणुक (धान्य)
अणुष्पवाय (ग्रंथ)
उनि २०५ सूनिं. ६६. ६८
उनि २५८
आनि. २२,२४
अज्जरक्खिय (आचार्य) उनि ९८, १७२/१०
उनि . १११ दनि. १८
उनि २८०, आनि ३५४,
१७७, १७८
सूनि ९८ अनि ४३
दनि. १०४, १०६
उनि. १८२/२ उनि . ८५
सूनि . ४१ दशनि. २२९ उनि. १७२/५
अणोज्जा (साध्वी)
ठनि. १७२/२
अण्णागिय (दर्शन) सूनि. ३०, ११८, ११९ दशनि २३०
अतसि (धान्य)
अद्द (राजा)
अद्दइज्ज (अध्ययन)
अग ( राजकुमार, मुनि) अद्दपुर (नगर)
अद्दय (मुनि)
अद्दसुत (राजकुमार)
अपरक्कममरण ( मरण)
अप्पमादस्य (अध्ययन)
अप्पमाय ( भावना)
अफलवाद (दर्शन)
अप्फोव (मण्डप)
अगि (दर्शन)
अब्भ (पृथ्वीकाय)
अभत्तछंद (रोग)
अभय (मंत्री)
.अभिधम्मा (दिशा)
अय ( तिर्यञ्च )
अय (पृथ्वीकाय )
परिशिष्ट १२
अगलपुर (नगर) अरहन्त्रय (मुनि) अरहमित्त (मुनि) अरिनेम (तीर्थंकर)
अवय (वनस्पति)
अवरउत्तर (दिशा) अवरदिसा (दिशा)
अवरा (दिशा)
अवहेडग (रोग)
सूनि. १८८
सूनि. १८८
सूनि. १८८, १९९
सूनि . १८८
सूनि १९३
सूनि. १८८
आनि. २८४
उनि ५०४
आनि. ३६१
सूनि . २९
उनि ३९०
उनि . १६७
आनि. ७४
उनि . ८५
दशनि. ५८, ७८, सूनि. ५७,
१९४ आनि. ५७
दशनि २३४
आनि. ७३
उनि. ९९
उनि ९३
उनि ९३
उनि ४४१, ४४२
आनि. १४१
आनि. ५६
आनि. ४७
आनि. ५६
उनि १५०
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________________
परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
अव्वत्तषाय (निहृववाद ) असगड (मुनि)
असि ( शस्त्र )
असि (परमधार्मिक देव)
असिपत्त (परमाधार्मिक देव ) असिपत्तणु (परमाधार्मिक देव)
अमिय ( शस्त्र)
असियग (शस्त्र) अस्स ( तिर्यञ्च )
अहालंद (विशिष्ट मुनि)
अहिं (तिर्यच)
अहिछत्ता (नगरी)
अहिमार (वृक्ष) अहोदिसा (दिशा)
आनि. १४९, सूनि ९८
दशनि. ६०, उनि ६५
दनि. ६२
उनि २६३
उनि ३४०, ३४३
उनि १५२ आनि ५८
उनि. २१५
उनि २०९, २२३
सूनि . १०३
उनि १५१
सूनि. २९
दर्शन. ३४१
उनि १७२/३ उनि. १५२ दर्शन. १५ उनि ३८, ४०, ४१ दशनि. १६७, आनि. १, ९, १०,३२,३०६, ३०७, ३११ सूनि २२, दनि २७, ४७
आनि १२ ३२ ३०७
आयारग्ग (ग्रंथ) आयारधर (विशिष्ट मुनि) आनि १० दनि. २७
आयारपकप्ण (ग्रंथ)
आइय (मरण) आइयंतिय (मरण) आघ (अध्ययन)
आदगम ( माप) आतच्छट्ट (दर्शन)
आमदोष (रोग)
उनि. १६७, १६८
उनि . १२१
आमलकप्पा (नगरी)
आमेलय (आभूषण ) आयप्पवायपुव्व (ग्रन्थ) आयय (संस्थान) आधार ( (ग्रंथ)
आलित (शस्त्र)
आवीय (मरण)
आवीचि (भरण) आस ( तिर्यञ्च )
सूनि ७२
सूनि ७६
सूनि ६७
सूनि. ७७ दनि. १००
आनि. ३११, ३१७,
आनि. ९५
उनि. २२२
उनि २०५, २१५ दर्शानं. २३४,
आनि. २६३
आसंदी (उपकरण)
दर्शान. २३४
आसतरग ( तिर्यञ्च )
आसमित्त (निह्नव)
उनि १६८, १७२/५
आसाढ (आचार्य) उनि १२३, १६८, १७२/४ उनि २०६, २२८, इंगिणिमरण ( मरण)
आनि २७४, २८१, दनि ९५ आनि. ४३
उनि ३३०
इंदा (दिशा)
इंदजसा (रानी)
इंद्रदत्त (पुरोहित)
इंदनील (मणि)
इंदपद (पर्वत)
इंदपुर (नगर)
इंदभूति ( गणधर ) इंदव (रानी)
इंदसिरी (रानी)
इक्कड (चोर की जाति )
इक्खु (धान्य)
इसिभासित (ग्रंथ)
इसिवुढि (रानी)
ईसाणा (दिशा)
उंदर ( तिर्यञ्च )
ठक्कल (व्यक्ति)
उक्कलिया (वायु) उग्ग (वर्णान्तर) उज्जित (पर्वत) उज्जेणी (नगरी)
उच्छु (वनस्पति)
६८३
उच्छुघर (स्थान विशेष ) उट्ट ( तिर्यञ्च )
उट्टी ( तिर्यञ्च )
उड्ढदिसा (दिशा) उत्तरज्झयण (ग्रंथ)
उनि ११९,२४६ आनि. ७५
दनि. ७७
उनि ३४४
सूनि . २०५ उनि ३३०
उनि ३३०
उनि २५१
दर्शन २३०
सूनि . १९०
उनि ३३५
आनि. ४३
दर्शन. १३३
आनि. ३२३
आनि. १६६
आनि. २२, २३, २६
आनि. ३५४
उनि ९०, ९१, ९५.
९९, १२० दशनि २७७, उनि १५१, १८८ उनि १७२/१०
दशनि. ८४
दशनि २३४
आनि. ५४, ५९
उनि ४, २७, ५५२
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________________
६८४
नियुक्तिपंचक
उत्तरदिसा (दिशा) आनि.४८, ५६ एलग (तिर्यञ्च)
दशनि, २३४ उदग (मुनि) सूनि, २०५, २०६ एलगच्छपह (मार्ग)
उनि. ९१ उदधि (सार्थवाह)
उनि ४१ ओह मयन्त्र) उनि.१८२/२, सूनि, '७७ उदयण (राजा) उनि.१४८ ओदण (धान्य)
दशनि. २१८ उदर (अवयव) उनि. १८२/१ ओय (आहार)
सूनि.१७१ उदहि (आचार्य)
आनि.२८४ ओरभिज्ज (अध्ययन) उनि.२४२ उद्दायण (राजा) दनि.९६ ओवाई (विद्या)
उनि.१७२.९ उप्पल (पुष्प) दशनि. १३३ ओसा (नगरी)
उनि.३३६ उर (अषयव)
उनि.१८२/१ ओसिर (वनस्पति) उनि.१४७ उरग (तिर्य) दशनि.१३२, उनि.१०० ओहि (मरण) उनि.२०५, २०९, २१५ उरब्भ (तिर्यच) उनि. २३८, २४० कंगु (धान्य)
दनि. २२९ उरभ (तिर्यश) उनि.२४० कंग (व्यक्ति)
उनि. ३५२ उवरिमदिसा (दिशा) आनि.५८ कंडु (रोग)
उनि.८५, १५० उवरुद्द (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ७३ ।। कंपिल्ल (नगर) उनि.३३४, ३३६ उवल (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ कंपिल्लपुर (नगर) उनि.३८८, ३९४ उवहाणपडिमा (प्रतिमा) दनि, ४६ कंस (कांस्य)
सूनि. १५१ उवहाणसुय (अध्ययन) आनि.२९५ कच्चाइणी (रानी)
उनि.३३२ उवासगपडिमा (प्रतिमा) दनि.४९ कड़ग (आभूषण)
उनि.१३९ उसभ (तीर्थंकर) उनि. २८१, आनि. १९, कडग/कडय (राजा) उनि. ३२८, ३४९ सूनि.४१ कड़वाद (दर्शन)
सूनि.३१ उसभ (राजा) उनि. ३३२ कणग (धातु)
उनि.३४, ४६० उसमपुर (नगर) उनि.१०१, १७० कणगमूल (वनस्पति) उनि.१४९ उसुयार (राजा)उनि. ३५३, ३५५, ३५९, ३६५ कणियार (वनस्पति) दशनि. १३३ उसुयार (नगर) उनि, ३५८ कणेरुदत्त (राजा)
उनि.३२८ उसुयारपुर (नगर) उनि. ३२७, ३६० कपण (अवयव) उनि.१८२/२, सूनि. ७७ उलुगी (विद्या) उनि. १७२/९ कण्ह (आचार्य)
उनि.१७२११३ उल्लुगातीर (नगरी) उनि. १७०, १७२/६ कत्थ (वनस्पति)
आनि. १४१ ऊरु (अवयव) सूनि.७३, ७७ कप्प (ग्रंथ)
दनि.१ ऊस (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ कप्पणी (शस्त्र) आनि. १४९, सूनि. ६९ एकप्पय (दर्शन)
कमल (पुष्प)
आनि.२२९ एगग्ग (भावना) आनि.३६१ कमलावई (रानी)
उनि. ३५१ एगराइय (प्रतिमा)
उनि. ४६८ कम्मप्पवायपुव्य (ग्रंथ) दर्शन. १५, उनि. ७० एगविहारपडिमा (प्रतिमा) दनि.४६ कर (अवयव)
सूनि,७३, ७७ रंड (वृक्ष)
आनि. २४० करकंडु (प्रत्येकबुद्ध) उनि.२५७, २५८
सूनि. २१
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________________
परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
६८५
कुक्कुड (तियंच)
उनि.३५१, दशनि.
करकय (शस्त्र)
सूनि. ८१ करमंदि (वनस्पति)
उनि. ४८६ करिस (माप)
उनि.१४७ करेणुदत्ता (रानी)
उनि. ३२१ करेणुपदिगा (रानी)
उनि. ३३५ करेणुसेणा (रानी)
उनि. ३३५ कलाय (धान्य)
दशनि. २३० कलिंग (व्यक्ति)
आनि, ३२३ कलिंग (जनपद)
उनि. २५७ कपिल (मुनि) उनि. २४३,२४५.२४६,२४७ कविला (दिशा)
आनि, ५७ कागिणी (मुद्रा) उनि. २४१,५३३ कागी (विद्या)
उनि. १७२।८ काल (परमाधार्मिक देव) सूनि. ६६.७४ कालखमण (आचार्य) उनि. १२० कालवेसिय (मुनि)
उनि. ११६ कालेज (अवयव)
सूनि.७१ कावलिक (आहा.)
सूनि. १७२ कास (रोग)
उनि.८५ कासव (पुरोहित)
उनि. २४६ कासव (गोत्र)
उनि.४६० कित्थुग्घ (करण)
सूनि.१२ किंपाग (फल)
उनि. ३९६ किंसुग्घ (करण)
उनि.१९१ किण्हय (वनस्पति)
आनि. १४१ कित्तिमई (रानी)
उनि.३३१ कित्तिसेण (राजा)
उनि. ३३१ किमि (तिर्यच)
दनि. १०३ किरियवादी (दर्शन) सूनि.११८, १२१ कुंजर (तिर्यञ्च)
उनि. ३५२ कुंजरसेणा (रानी)
उनि. ३३५ कुंडय (पात्र)
उनि.३५० कुंडल (आभूषण) उनि. १३९ कुंभी (परभाधार्मिक देव) सूनि.७४
कुकुरअ (वर्णान्तर)
आनि. २७ कृतियाणा (रोग।
उनि.८५ कुडव (माप)
दशनि. २१० कुद्दाल (शस्त्र) आनि.९५, १४९ कुरर (तिर्यञ्च)
उनि. ४६३ कुरु (जनपद)
उनि. ३५८ कुरुदत्त (व्यक्ति)
उनि. १०८ कुरुमती (रानी) उनि.३३५, ३५२ कुलत्थ (धान्य)
दशनि. २३० कुलल (तिर्यञ्च) उनि. ४६३, ४६४ कुलिय (कृषि उपकरण) दशनि.५७ कुसकुंडी (रानी)
उनि.३४३ कुसुंभ (रंग) उनि. १८७, २०२, दनि.१०३ कुसुंभय (रंग)
दनि. १०३ कुहाडि (शस्त्र)
आनि. १४९ कूलबाल (मुनि)
सूनि. ५७ केवलिमरण (मरण) उनि २०६, २१७ केस (अवयव) उनि. १८२/२, सूनि.८० केसर (उद्यान)
उनि.३८९, ३९० केसि (आचार्य) उनि.४४७, ४४८ कोंत (शस्त्र)
सूनि.७२ कोट्टवीर (शिष्य)
उनि.१७२/१५ कोडिन्न (तापस, मुनि) उनि.१७२/५,१५
२८६,२८९ कोणिय (राजा)
दशनि-७४ कोद्दव (धान्य)
दशनि-२२९ कोलय (करण) उनि. १९०, सूनि.११ कोल्लयर (नगर)
उनि. १०७ कोसंबी (नगर) उनि.१००, १०९,
११८, २४६, ३४०, खइर (वनस्पति)
आनि. २४० खंडरक्खा (आरक्षक) उनि.१७२१५
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________________
नियुक्तिपंचक
खंद (देव)
उनि. ३०८ खंदय (मुनि) उनि.११२, ११३ खंदसिरी (महिला)
उनि.१११ खंध (अवयव)
उनि. १८३ खज्जोय (तिर्यञ्च) आनि.११९ खत्त (वर्णान्तर) आनि.२२, २४ खत्ता (वर्णान्तर)
आनि.२६ खरस्सर (परमाधार्मिक देव) सूनि.६७, ८१ खलंक (तिर्यञ्च) उनि. ४८२-८५ खीर (खाद्य पदार्थ) उनि.२९३, दनि.९९ खेलेज्जा (दिशा)
आनि. ५७ गंग (निव) उनि.१६९, १७२४६ गंगा (नदी) उनि.१२१, १२५, ४६२, ४६५ गंडयजक्ख (यक्ष)
उनि.३२० गंडि (यक्ष)
उनि.३२० गंडितिदुगवण (उद्यान) उनि. ३१७, ३२० गंधार (श्रावक)
उनि.९५ गंधार (जनपद)
उनि. २५७ गंधार (पर्वत)
दनि.९७ गंधारी (महिला)
उनि. ३१८ गद्दभ (तियञ्च)
दशनि.२३४ गद्दभालि (मुनि)
उनि. ३९० गय (तिर्यश्च) दशनि, २७६, उनि. ४८६,
सूनि.२०१, दनि, ३० गयागपयय (पर्वत) आनि. ३५४ गयपुर (नगर) उनि.१०८, ३१५ गरादि (करण) उनि.१९०, सूनि.११ गारालि (राजा, मुनि) उनि.२७८ गावी (तिर्यञ्च)
दशनि.२३४ गाहा(छंद)
सूनि.१३९ गिद्धपिट्ठ (मरण) उनि.२०६, २१८,
आनि. २७३ गिरितडग (नगर)
उनि.३३६ १, दशार्णकूटवर्ती गजाग्रपद।
गिरिपुर (नगर)
उनि.३४० गुंजा (वायु)
आनि.१६६ गुड (खाद्य पदार्थ) दशनि. २१८ गुणसिलय (चैत्य) उनि. १७१/३ गो (तिर्यच)
दनि. १०३ गोट्ठमाहिल (निह्नव)
उनि.१६९ गोट्ठामाहिल (निव) उनि, १७२/१० गोण (तिर्यश) उनि.६५. ४८४, दनि. १२, गोतम (गणधर) उनि. २८४,२८७,२९२,२९४,
२९५,२९८,४४५,४४७,४४८,
नि.९०.२०६ दनि. १११ गोतम (नैमित्तिक)
आनि. ३२३ गोदत्ता (रानी)
उनि.३३५ गोधुम (धान्य)
दनि२२९ गोमेजय (मणि)
आनि,७५ गोयमस्सामी (गणधर) दशनि.७४ गोरी (महिला)
उनि.३१८ गोविंदवायग (आचार्य) दर्शान.७८. गोसाल (भिक्षु) सूनि.१९१, १९९ घणवाय (वायु)
आनि.१६६ घोडग (तिर्यश्च)
दशनि. २३४ चड्प्पय (करण) उनि.१९१, सूनि.१२ चउरंस (संस्थान) उनि.३८, ४० चंडवडिंसय (राजा)
उनि. ३२५ चंडाल (वर्णान्तर)
उनि. ३१६,
आनि. २२, २५ चंदपडिमा (प्रतिमा)
दनि.४७ चंदयभ (मणि)
आनि.७६ चंपपुरी (नगरी) ।
उनि.२७८ चंपा (नगरी) उनि.१४, ११८, २७९,
३३६, ३४५, ४२५, दनि. ९५ चक्क (शस्त्र) उनि. १६१, सूनि.९३ चमर (देव)
आनि,३५४
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परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
६८७
चरक (परिव्राजक) दशनि. १३४, ३०७/१ जसवई (रानो)
उनि. ३३२ चरण (अवयव)
सूनि. ७३.७७ जसा (पुरोहित पत्नी) उनि.२४६ चरित (भावना) आनि.३५१ जावग (हेत)
दशनि.८३, ८४ चाउत्थिा (रोग) उनि. २२० जिणपडिमा (प्रतिमा)
दनि.४१ चारित्तसमाहिपडिमा ( प्रतिमा) नि.४८ जियसत्तु (राजा) उनि.१९२, ३४३ चारुदत्त (राजा) उनि. ३३२ जीवपदेस (दर्शन)
उनि.१६८ चित्त (मुनि) उनि. ३२२, ३२४, ३४७, ३३१ जोहा (अवयव)
दनि. ११२ चित्तसंभूय (अध्ययन) नि. ३२४ ठाण (ग्रंथ)
दनि. ४७ चित्तसेणअ (राजा)
उनि.३३१ ईक (श्रमणोपासक) उनि.१७२/२ चुलणिदेवी (रानी) उनि.३३० दंढ (मुनि)
उनि.११५ चूतरुक्ख (वृक्ष) उनि.२६८ णंदिसर (द्वीप)
दनि.९५ चूयपादव (वृक्ष) उनि.३४९ णाया (ग्रंथ)
दनि.५ छठमत्थ (मरण) उनि.२०६, २१७ तय (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ छगल (तिर्यञ्च) उनि. १३८ तंब (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ छट्ट पुव्व (ग्रन्थ) दनि. १८ तंबोल (ताम्बूल)
आनि. २८७ छत्तय (उपकरण) दनि. १२० तंस (संस्थान)
उनि.३८, ३९ छलूग (निहव) उनि.१६१ तगरा (नगरी)
उनि.१३ जंघा (अवयव) सूनि, १६२,उनि. १८२१२ तज्जीवतस्सरीर (दर्शन) सूनि.२९ जंबू (आचार्य)
सूनि.८५ तब्भव (मरण) उनि.२०५, २१४, २१५ जंबुय (तिर्यञ्च) उनि.११६ तमा (दिशा)
आनि. ४३ जक्खहरिल (यक्ष) उनि.३३२ तमालपत्त (वनस्पति)
उनि.१४७ जगदग्गिजडा (वनस्पति) उनि.१४६ तव (भावना)
आनि. ३५१ जण्णदत्त (ब्राह्मण) उनि. १०९ ताल (वृक्ष)
आनि.१३३ जमालि (निहव) उनि.१६८, १७२/२, तालवंट (उपकरण)
आनि. १७० सूनि.१२५ तावस (श्रेष्ठी)
उनि.१०० जम्मा (दिशा)
आनि. ४३ तिदुग (उद्यान) उनि. १७२/२,३१७,३२० जयघोष (मुनि) उनि.४५९, ४६१, ४६२, तिणिस (वनस्पति) दशनि, १३३, २८६ ४६५, ४७०, ४७४, ४७६ तित्तिरी (तिर्यच)
दशनि.८५ जर (रोग) __ उनि. ८५ तिपुडग (धान्य)
दशनि.२३० जलकत (मणि) आनि.७६ तिमिर (रोग)
उनि.१५० जलूक (तिर्यञ्च) उनि. ४८७, दनि.१०८ तिल (धान्य) दशनि. २२९, उनि, ३५१, जलोय (तिर्यञ्च) दशनि. ३४
आनि.३४९ जन (धान्य)
दशनि. २२९ तिलसक्कुलिया (खाद्यपदार्थ) आनि.१३२ जसभद्द (आचार्य) दशनि. ३४९ तिसूल (शस्त्र)
सूनि.७२
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६८८
तीसगुप्त ( निह्नव)
तुंबत्रण (वन) तुरंग ( तिर्यञ्च )
तुरग ( तिर्यञ्च )
तुरी (धान्य)
तूर ( वाद्य )
तेइज्जग (रोग)
तेरासिय (निह्नववाद )
तोमर (रात्र)
तोसलि (आचार्य) तोसलिपुत्त (आचार्य)
थग्ग (अवयव)
थाल (उपकरण)
थावग (हेतु)
थूलभद्द (आचार्य)
धीविलोयण (करण)
दंडइ (राजा)
दंडगी (राजा)
दंसण ( भावना)
दक्खी (वनस्पति)
दक्खिणा (दिशा)
दक्खिणापरा (दिशा)
उनि १६८, १७२/३
उनि २८८
दशनि २७४
उनि ४६
दर्शन. २३०
उनि. १५२
दलनेमि (राजकुमार ) दत्त (मुनि)
दत्तिय ( शस्त्र)
उनि १५०
उनि १६९
सूनि ७२
आनि. २८५
उनि ९७
सूनि ७७
उनि ३५०
दशनि ८३, ८४
उनि १०१, १०५,
१०६, १२२
उनि १९०, सूनि ११
उनि. ११३
उनि . ११२
आनि. ३५१
उनि १५१
आनि. ५६
आनि. ५६ उनि - ४४९
उनि ९३, १०७
आनि. १४९
दसकालिय (ग्रंथ) दशनि ७, ११, १३, १४, २४ दसकालियनिज्जुत्ति (ग्रंथ)
दर्शन. १
दसण (अवयव)
दसण्ण (जनपद) दसपुर (नगर) दसवेयालय (ग्रंथ) दसारवग्ग (जाति)
१. तक्षशिला में स्थित धर्मचक्रस्थान |
सूनि ७७ उनि ३२७
उनि ९६,१७०, १७२/१०
दशनि. ६
दर्शन. ५२
दसासु (ग्रंथ)
दारुय (वणिक् ) दाहिणदिसा (दिशा)
दिडवाय (ग्रंथ)
दिन्न (तापस, मुनि)
दीवग (उद्यान)
दीवसिहा (रानी)
दीवायण (ऋषि)
दीह (राजा)
दुद्ध (खाद्य)
दुमपुफिया (अध्ययन)
दुम्ह (प्रत्येकबुद्ध)
दुरूतग (व्यक्ति)
दुरुयग (व्यक्ति) देवकुरु (क्षेत्र)
देवदत्त (व्यक्ति) देवदत्ता (दासी) देवी (रानी)
दोकिरिय (निह्नववाद ) दोगुंदा (देव)
धण ( श्रेष्ठी)
धणगिरि (श्रेष्टी) धणगुत्त (शिष्य) धणदेव (वणिक् )
धमित्त (मुनि) धणसम्म (मुनि)
श्रणसेट्ठि (श्रेष्ठ)
निर्युक्तिपंचक
दनि. १
उनि ३३३, ३५१
आनि. ४८, ५२ दर्शन. १६७
उनि. २८९
उनि. १७२/१३
उनि ३३३
दर्शान. ५२
उनि ३२८, ३४६
धागु (परमा धार्मिक देव)
धय (सेनापति ) श्रम्मघोस (आचार्य)
धम्मचक्क' (स्थान) धम्मपणत्ति (अध्ययन)
भायगी (वनस्पति)
सूनि ३५ दशनि. १८
उनि २५७, २५८
दनि ९४
दनि. ९२, ९४
आनि. १८२, सूनि १५३
दर्शन. ६०
उनि ९५, दनि ९६
उनि ३३२ उनि. १६९
उनि ४०५, ४३२
दनि. १०८
उनि. २८८
उनि. १७२/६ ठनि ३३३
उनि. ९१
उनि ९९
उनि २४६
सूनि ६७
उनि ३३०
उनि . ९४
आनि. ३५४
दशनि - १५
उनि. ९५१
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परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
६८९
धारिणी (रानी)
उनि. ११२ धुय (अध्ययन)
आनि. ३१० नग्ली (विद्या)
उनि.१७२/९ नंगल (कृषि उपकरण) दशनि.५७ नंद (सन्निवेश)
उनि. ३३६ नंद (राजा)
उनि.१०१ मंदण (भवन, प्रासाद) उनि.४०५ नंदी (वाद्य)
उनि.२६३ नंदी (द्वीप)
दनि.९५ नंदीसर (द्वीप)
आनि.३५३ नग्गति (प्रत्येकबुद्ध)
उनि. २५७ नदिखेड (जनपद)
उनि, १७२/६ नमि (राजर्षि) उनि. २५३, २५५, २५७,
२५८, २६३, २६४, २६६, २६७ नमि (तीर्थंकर) उनि.२६४, २६५ नया अपयन) नलदाम (व्यक्ति)
दशनि.७७ नलिणिगुम्म (विमान) उनि.१७२/४, ३४६ नह (अवयव)
उनि. १८२/२ नाग (करण) उनि.१९१, सूनि.१२ नागजसा (रानी)
उनि.३३१ नागदत्ता (रानी)
उनि.३३२ नाण (भावना)
आनि. ३५१ नाणवादी (दर्शन)
सूनि.३० नालंदइज्ज (अध्ययन) सूनि. २०५ नालंदा (उपनगरी) सूनि. २०४, २०५ नालिया (उपकरण)
दशनि.५८ नालिएर (वृक्ष)
आनि. १३३ नावा (धाहन) आनि.३३४, सूनि.१६२ नास (अवयव)
उनि.१८२/२ निप्फाव (धान्य)
दशनि. २३० नियतीवाय (दर्शन)
सूनि.३० निव्वेयणी (कथा) दशनि. १७४, १७५ निसादी (वर्णान्तर)
आनि.२७
निसाय (वर्णान्तर) आनि. २२, २३, २६ निसीह (ग्रंथ)
आनि, ३६६ नेरुती (दिशा)
आनि.४३ पउम (पुष्प)
सूनि. १६३, १६४ पउमगुम्म (विमान)
उनि.३५७ पंचाल (जनपद) उनि. २५७, २६२/१ पंडरज्जा (साध्वी) दनि. ११०, १०४ पंडिय (मरण) उनि. २०५, २१६ पंथक (राजा)
उनि.३३१ पक्खेव (आहार) सूनि.१७१, १७२ पडिसंलोण (प्रतिमा)
दनि. ४६ पच्चक्खाण (ग्रंथ, दृष्ट्रिवाद) आनि.३११ पज्जुण्ण (व्यक्ति)
उनि.३५२ पज्जुनसेण (राजा)
उनि.३३४ पज्जोत/पज्जोय (राजा) सूनि. ५७, दशनि.७८.
उनि.९५, ९६ पडलब्भ (पृथ्वीकाय)
आनि,७४ पड्डय (तियंञ्च)
उनि.२६१ पणय (वनस्पति)
आनि.१४१ पण्णत्ति (ग्रंथ)
दशनि.१६७ पण्णवित्ती (दिशा)
आनि.५७ पतिगा (रानी)
उनि.३३४ पत्थ (माप)
दशनि.२१० पस्थिव (दिव्य शस्त्र)
सूनि.९८ पभावई (रानो) उनि.९६, दनि.९६ पमायप्पमाय (अध्ययन) उनि.१७५ पयण (पात्र)
सूनि.७८ परसु (शस्त्र) उनि. ३७०, आनि.१४९
सूनि.३९,८१ परासर (वर्णान्तर)
आनि. २३ परिमंडल (संस्थान)
उनि.३८ परिमंडलग (संस्थान)
उनि.४१ परियाधम्मा (दिशा)
आनि.५७ पल (माप)
उनि.१४७
पिनसरी)
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६९०
नियुक्तिपंचक
पलियंक (उपकरण) दशनि २४४ पुव्वदक्खिणा (दिशा)
आनि ५६ पवाल (मणि) आनि ७४, सूनि १५१ ।। पुष्यदिसा (दिशा)
आनि ४७, ५६ पसेणई (राजा) उन २४६ पुव्युत्तरादसा (दिशा)
आनि ५६ पाईण (गोत्र)
दनि १ पुसमित्त (आचार्य) उनि १७२/१० पाओवगमण (मरण) उनि २०६ पोंडरीय (राजकुमार) उनि २८६, २८८ पाडल (पुष्प) उनि १२५ पोंडरीय (दृष्टान्त)
दशनि ६३ पाडलिपुत्त (नगरी) उनि १०१ पोंडरीय (पुष्प)
सूनि १४५ पाण (चांडाल जाति) उनि ३१६ पोट्टसाल (परिव्राजक) उनि १७२/७ पाद (अवयव) उनि १८२/२, सूनि ७६ पोत (राजा)
उनि ३३३ पायबंगमण (मरण) उनि २२८ पोयाई (विद्या)
उनि १७२१८ आनि २७४,२८३, पोलास (उद्यान)
उनि १७२/४ २८४, २९१ फागुरक्खिय (मुनि)
उनि ९७ पायस (खाद्य पदार्थ) दनि ९९, १०० फलिह (मणि)
आनि ७५ पारासर (कृषक) उनि ११५ फिग (अवयव)
सूनि ७७ पालक्क (पुरोहित) उनि ११३ फिफिस (अवयव)
सूनि ७१ पालिग (सार्थवाह) उनि ४२५ फुप्फुस (अवयव)
सूनि ७१ पालिय (सार्थवाह)
उनि ४२९ बइल्ल (तिर्यच) उनि ४८३, दनि ९३, ९४ पास (अवयव) सूनि ७६ बंभ (राजा)
उनि ३२८ पास (तीर्थकर) आनि ३५४ बंभच्चेर (ग्रंथ)
आनि १२ पासावच्चिज्ज (सम्प्रदाय) सूनि २०६ बंभथलय (नगरी)
उनि ३४० पिठड (खाद्य पदार्थ) उनि १७२/३ बंभदत्त (चक्रवर्ती) उनि ३२७, ३३०, पिंगल (संन्यासी) दशनि ७९
३५२, ३४५ पिंगला (रानी)
उनि ३३३ र्बभवती (परिव्राजक) सूनि १९१ पिंडेसणा (अध्ययन) दशनि २१९ बंभी (दार्शनिक)
सूनि १९९ पिट्टिचंपा (नगरी) उनि २७७ ग (तिर्यञ्च)
दशनि २७४/१ पिट्ठी (अवयव)
उनि १८२/१ बलकोट्ट (चाण्डाल-अधिपति) उनि ३१८ पिहुंड (नगर) उनि ४२६, ४२७ बलदेव (मुनि)
उनि ११५ पुंडरीय (भवन) उनि ४३२ बलभद्द (राजा)
उनि १७२/४ पुक्खर (तीर्थ) उनि ९६, दनि ९७ बलभद्द (चोर)
उनि २५१ पुण्णभद (चैत्य) उनि २७९ बलभद्द (मुनि)
उनि ४०३ पुष्फचूल (राजा) उनि ३२८ बलसिरी (राजा)
उनि १७२/७ पुप्फुत्तर (विमान) उनि २६६/१ बलसिरी (राजकुमार) उनि ४०२, ४०४ पुत्थी (रानी)
उनि ३३३ बव (करण) उनि १९०, सूनि ११ पुरंदरजसा (रानी) ___ उनि ११२, ११३ बसंतपुर (नगर)
सूनि १९२
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परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
विदा
बहुरय (निववाद) ठनि. १६७, १६८, १७२/१ भेरुंड (तिर्यञ्च)
उनि,३१९ बालपंडित (मरण) उनि २१६ भोयडपुर (नगर)
उनि.९० बालमरण (मरण) उनि. २०५, २१६ मंगु (आचार्य) दनि. १०४, ११२ बालव (करण) उनि.१९०, सूनि. ११ मंडलग्ग (शस्त्र)
सूनि. ५१ बालुगा (पृथ्वीकाय) आनि.७३ मंडलिया (वायु)
आनि. १६६ बालुय (पृथ्वीकाय)
आनि.७४ मंडुक्क (तिर्यश्च) उनि. ४६२, ४६४ बाहिर (चाण्डाल) उनि. ३१६ मंडुकिया (तिर्यश्च)
दशनि.५२ बाहा (अवयव) सूनि. १६२. उनि. १८२१ मंदर (पर्वत) दशनि. ३३५, उनि. २६३. बाहु (अवयव) सूनि. ७३, ७७
आनि. ४९, ३५३ बिराली (विद्या) उनि.१७२९ मंसु (अवबव)
उनि. १८२१२ बिल्ल (वनस्पति) उनि.१४० मगहापुर (नगर)
उनि. २७७ बुक्कस (वर्णान्तर) आनि.२६ मच्छ (तिर्यश्च)
दशनि. ५१ बोडियलिंग (मत) उनि. १७२११५ मज्जार (तिर्यच)
दशनि.२७४/१ बोडियसिवभूति (आचार्य) उनि. १७२:१४,१५ मणग (मुनि) दशनि.१४,१७, ३४८. भत्तपरिण्णा (मरण) उनि. २०६, २१९ ।। मणगपियर (आचार्य) दशनि. १३ आनि.२६३, २७३, २८१ मणिणाय (देव)
उनि. १७२/६ भद्द (राजकुमार) उनि. ११७ मणोरह (उद्यान)
सूनि.२०५ भद्दगुत्त (आचार्य)
उनि.९८ मणोसिला (पृथ्वीकाय) आनि.७४ भद्ददारु (वृक्ष) उनि.१४७ मतंग (नदी)
उनि. ३१७ भद्दबाहु (आचार्य) दनि. १, उनि.९२ मयंग (चाण्डाल जाति) उनि.३१६ भद्दा (साध्वी) उनि.९३ मधुकरो (नियंच)
दशनि. ११४ भद्दा (रानी) उनि.३३१ मय (तिर्यश्च)
दशनि. ९५ भमर (तिर्यच) दशनि,९२, ९६, १७, मयास (चाण्डाल जाति) ११४, ११५, ११७, ११९, मयूर (तिर्यश)
दशनि.३३५ १२०/२, १३३ मरगय (मणि)
आनि.७५ भरहपिउ (तीर्थकर) उनि.२८१ मरुग (श्रमण)
दर्शान. ३०७/१ भाणिय (वनस्पति)
आनि. १४१ मत्य (किसान) दनि.१०४, १०५ भावणा (चूला) आनि,३१०, ३१७ मलयवती (रानी)
उनि,३३४ भासज्जाय (अध्ययन) आनि.३०९ मल्लिया (पुष्प)
उनि. १४६ भिकुंडि (राजा) उनि.३४३ मसग (तिर्यश्च)
उनि.९४, ४८७ भिक्खुपडिमा (प्रतिमा) दनि,४५ 'मसारगल्ल (मणि)
आनि.७५ भिगु (पुरोहित) उनि.३५९, ३६६
मसूर (धान्य)
दशनि.२३० भुयगुह (चैत्य) उनि.१७२१७ महपंचभूत (दर्शन)
सूनि. २९ भुयमोयग (मणि)
आनि.७५ महाकाल (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ७५
उनि.३१६
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नियुक्तिपंचक
माना
महागिरि (आचार्य) उनि. १७२/५, १७२/६ मुग्ग (धान्य)
दशनि.२२९ महाघोस (परमाधार्मिक देय) सूनि.६७, ८२ मुग्गर (शस्त्र)
उनि.८८ महातव (पर्वत) उनि.१५१२४६ मुग्गरपाणि (यक्ष)
उनि.१११ महानियंठ ( अध्ययन) उनि. ४२१, ४२२ मुग्गसेलपुर (नगर)
उनि.११६ महापरिपप्या (अध्ययन) आनि.२६९.
उनि.३२५ २७०. ३१० मुणिमनग (दशैमा) उनि ११३ महावीर (तीर्थकर) उनि. २७९ मुत्तावलि (आभूषण)
आनि, ४६ महासाल (राजकुमार)
उनि.२७७ मुरिय (वंश)
उनि.१७२.४ महिंदफल (फल) उनि.१४९ मूसग (विद्या)
उनि.१७२१८ महिसी (तिर्यश्च) दशनि. २३४, आनि. २८५ मूसगावरद्ध (रोग)
उनि.१५० महु (खाद्यपदार्थ) उनि.१२७ मेरु (पर्वत)
आनि. ४९, ५० महुगरि (तिर्वञ्च) दशनि. ९६ मेस (तिर्यज्ञ)
दशनि.३४ महुयर (तिर्यञ्च ) दशनि. ९५, १२०.१, १२०४ मोत्तिय (पणि)
सूनि, १५१ महुरा (नगरो) उनि. ११६, ११९. ३१५, मोय (प्रतिमा)
दनि.४७ ३४०, ३४३ दान. ११२ मोयग (खाद्यपदार्थ)
दशनि.८५ मागह (माप) उनि.१५१ मोरी (विद्या)
उनि, १७२१९ मागह (वर्णान्तर) आनि.२२, २४ रखिय (आचार्य)
उनि.९८ मास (धान्य) दशनि. २२१ रमणबई (रानी)
उनि.३३२ मास (माप) उनि. २४९ रयाण (माप)
उनि.१४९ मिंढ (तिर्यश) दनि, १०३ रह (वाहन)
उनि.४६,३५० मिग (तियंञ्च) दशनि. १३२, आनि.९५ ।। रहनेमि (मुनि) उनि. ४३७, ४३९. मिगदेवी (रानी) उनि. ४०२
४४१, ४४२,४४३ मिगपुत्तिज्ज (अध्ययन) उनि.४०२ रहवीरपुर (नगर) उनि. १७०,५७२६१३,१४ मिगा (रानी) उनि. ४०३ रहापत्तनग (पर्वत)
आनि.३५४ मिगावई (साध्वी) दशनि.७२ राई (वनस्पति)
उनि.१४० मिगी (विद्या) उनि.१७२१८ राध (आचार्य)
उनि.११ मित्तसिरी (श्रमणोपासक) उनि. १७२/३ रायगिह (नगर) उनि. ९२, १०१, १११, भिय (तिर्थ) उनि.३८९
१७२/३-६, २५१, ३४०, भिहिला (नगरी) उनि.१७०, १७२/५,३४५
३४५, सूनि- १९९, २०४ मिहिलापति (राजर्षि। उनि, २६३ सयमती (साध्वी)
उनि.४४४ मीरा (उपकरण सूनि.७४ रायमास (धान्य)
दान.२३० मिहिलाहिब (राजर्षि) उनि, २६७ रालग (धान्य)
दशनि. २२९ मीस (बालपंडितमरण) उनि.२०५ राहक्खमण (आचार्य) उनि.९९ मुकुंद (वाद्य)
उनि, १५२ रुद (परमाधार्मिकदेव) सूनि.७२
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परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
रुद्दपुर (नगर)
उनि.३४४ रुद्दसोमा (व्यक्ति)
उनि.९७ रुप्य (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ रुयग (मणि)
आनि.७५ रूविणी (सार्थवाह-पत्नी) उनि.४३१, ४३२ रोह (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६ रोहगुत्त (शिष्य)
उनि. १७२/७ रोहगुत्त (मंत्री)
आनि. २२८ लच्छिघर (चैत्य)
उनि.१७२५ लवण (समुद्र)
आनि. ५० लाउयपात (अलाबुपात्र) दनि.११८ लोगसार (अध्ययन) आनि. २३९ लोणथ्योकाय,
अति ३ लोम (आहार) सूनि.१७१, १७२ लोहि (उपकरण)
सूनि.७८. लोहियख (मणि)
आनि.७५ वार (रत्न)
आनि.७३, २४० वइर (आचार्य)
आनि.२८३ वइरक्खमण (आचार्य)
उनि.९८ वंजुल (वनस्पति)
दशनि.१३३ वंस (वनस्पति)
दनि.१०३ वंसीपासाय (भवन)
उनि. ३३६ वक्कसुद्धि (अध्ययन) दशनि: १६ वग्गु (विमान)
उनि.२८८ वागुमती (महिला)
आनि.३२३ बग्घ (तिर्थञ्च)
उनि.१०३,२२८ वग्धी (विद्या)
उनि. १७२.९ वच्छो (रानी)
उनि. ३३२ वट्ट (संस्थान)
उनि.३८ वडथलग (नगर)
उनि.३४० वडपायव (वृक्ष)
उनि.३३७ वडपुरग (नगर)
उनि. ३४० वडपुरय (नगर)
उनि.३४१ वडकुमारी (महिला) दशनि. ५८
वणराइ (रानी)
उनि.३३४ वणिय (करण) नि.१९०, सूनि.११ वद्धमाण (तीर्थकर ) आनि. २९६, उनि, ५१९,
दनि.११५ वयम्गाम (ग्राम)
उनि.३६३ वयरोसभ (संहनन)
उनि.४०४ वरग (मंत्री)
दनि. १०६ वरधणु (मंत्री) उनि.३३०, ३३७ वरधणुग (मंत्री)
उनि. ३३७ वररुई (व्यक्ति)
उनि. १०१ वराहो (विद्या)
उनि.१७२४८ वलय (आभूषण) उनि.२५८, २६७
मरण (मरण) उनि. २०५, २१० ववहार (ग्रन्थ) दर्शन. १६७. दनि.१,४७ वसट्टमरण (मरण) उनि. २०५, २१० वसभ (तिर्यञ्च) उनि. २५८, २६०, २६१ वसह (तिर्यन)
उनि.२५९, २६५ वसु (आचार्य)
उनि. १७२१३ वसुमित्त (वणिक)
उनि.३३३ वाउ (दिव्यशस्त्र) वाघातिममरण (मरण)
आनि. २८५ वाणारसी (नगरी) उनि.३१७, ३४०,
४६०, ४६८ वाणीरा (रानी)
उनि. ३३४ वायव्या (दिशा)
आनि.४३ वायस (तिर्यच)
उनि.१३५ वारिभद्दग (दार्शनिक) सूनि.९० वारुण (दिव्यशस्त्र)
सूनि.९८ वारुणी (दिशा)
आनि.४३ वालु (परमाधार्मिक देव) सूनि.६७ वालूग (परमाधार्मिक देव) सूनि.७९ वासवदत्ता (राजकुमारी) उनि. १४८ वासि (शस्त्र)
आनि.१४९ वासिट्ठा (पुरोहित-पत्नी) उनि. ३५९, ३६६
सूनि. ९८
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________________
६९४
विक्खेवणी (कथा)
त्रिज्जुमती (रानी) विज्जुमाला (रानी)
विंझ (शिष्य)
त्रिच्छुग ( तिर्यञ्च )
विच्य (विद्या)
विजयघोस (मुनि)
विट्टि (करण) विणयसुत ( अध्ययन ) विण्डु (देव)
विदेह (जनपद)
विदेह (वर्णान्तर)
विमला (दिशा)
विमुत्ति (चूला) वियण (उपकरण)
विवित्तचरिया (चूला } विवेगपडिमा (प्रतिमा) विसाहदत्त (व्यक्ति)
वीयभय (नगरी)
वीरागसु ( अध्ययन ) वौर (तीर्थंकर)
दर्शन. १६६, १७०,
१७७, १७८
उनि ३३१
उनि ३३१
उनि ९७२ / १०
उनि ४८७
ठनि. १७२/८
उनि. ४५९, ४६१,
वेत्त (वनस्पति)
वेद (ग्रंथ)
वेदेह (वर्णान्तर)
४७४४७६
उनि १९०, सूनि. १९
उनि २८ उनि ३०८
उनि २५७, २६४
आनि. २६ आनि. ४३
वीरवर (तीर्थंकर)
वोहि (धान्य)
वेणइय (दर्शन)
वेणव (वर्णान्तर)
वैतरणी (परमा धार्मिकदेव )
वेयरणी ( परमाधार्मिकदेव )
वैतालिक (छंद)
आनि. ३१०, ३१७
आनि. १६९, १७०
दशनि २३
दनि ४६
उनि ३४४ उनि ९५
उनि ४९८
उनि २७७, २७८, सूनि. २५,८५,२००
उनि ४२५ दशनि २२९ सूनि. ११८, ११९
आनि. २६
सूनि ६७
सूनि. ८०
सूनि ४०
सूनि . १०८
आनि. ११
आनि. २२.२४
भारगिरि (पर्वत) वेय (पर्वत)
बेरग्ग ( भावना)
वेरुलिय (मणि)
वेसमण (इन्द्र)
वेहाणस ( मरण)
वेहास ( मरण)
सर्वाणि (करण)
संख (युवराज, मुनि) संख ( तिर्यञ्च )
संजइज्ज (अध्ययन)
संजत (राजा)
संजतपडिमा (प्रतिमा)
संजय (राजा)
संभूय (मुनि)
संवेणी (कथा)
नियुक्तिपंचक
उनि . ९२ उनि २८२
आनि. ३५१, ३६१
आनि. ७६
उनि २८५, २८७
उनि २०६, आनि २७३
उनि. २१८
उनि १९१, सूनि . १२ उनि ३१४, ३१५ उनि, १८६, सूनि. ७
उनि . ३८७
उनि. ३८८
दनि. ४१
उनि . ३८८
सक्करा ( पृथ्वीकाय )
सगड (वाहन) सगडाल (मंत्री) मन्त्रणेमि (राजकुमार )
सच्चपवायपुत्र्व (ग्रन्थ) सड्डीय (धान्य)
सतपुण्फ (वनस्पति) सत्ति ( शस्त्र) सत्यपरिण्णा (अध्ययन)
सपिण्णिय (वनस्पति) सप्प (विद्या)
सप्प ( तिर्यञ्च )
उनि ३२२, ३२४
दशनि. १७२, १७३
आनि. ७३
उनि . १८६, सूनि. ७
उनि. १०१ उनि ४४१, ४४२
दशनि. १६ दशनि २२९
उनि - १४७
सूनि ७२
आनि १२, १३,
३१०, ३१२, ३१६
उनि १४६ ठनि. १७२८
दर्शान. ३४, उनि १०३,
१०४. ३१८, ३१९, ४६२-६४
दनि. ७३ उनि १५०
उनि १२७
उनि . १४६
सप्पावरद्ध (रोग) सप्प (खाद्यपदार्थ)
सबरनियंसणिय (वनस्पति)
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________________
परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम
६.५
सबल (परमाधार्मिक देव) पनि.६६ साल (राजकुमार।
उनि २७७ सभिक्खुय (अध्ययन) दशनि.१८ सालि (धान्य)
दशनि.२२९ समकडग (नगर) उनि-३३६, ३३७ सालिभद्द (श्रेष्ठी)
उनि. २४६ समाधि (अध्ययन)
सूनि.१०३ सावत्थी (नगरी) उनि.११२, ११७, १७०, समाधिपडिमा (प्रतिमा) दनि.४६
१७२/१,२, २४६, ३४१, ३४५ समुच्छ (दर्शन) उनि.१६७ सावितो (दिशा)
आनि.५७ समुद्दपाल (सार्थवाहपुत्र) उनि.४२८ सास (रोग)
उनि.८५ समुद्दपालिज्ज (अध्ययन) उनि,४२४ सासग (पृथ्वीकाय)
आनि.७४ समुदविजय (राजा) उनि.४४० सिंधुदत्त (वणिक्)
उनि. ३३४ समूसण (औषधि) उनि.१४९ सिंधुसेण (वणिक्)
उनि.३३४ समोसरण (अध्ययन) सूनि. १२० सिंबलि (वृक्ष)
सूनि.८१ सम्मत्तपरकम (अध्ययन) उनि. ४९८ सिद्धपव्वत (पर्वत) उनि.२८२ सरल (वृक्ष) आनि. १३३ सियविया (नगरी)
उनि,१७० सरस (वनस्पति) उनि.१४९ सिर (अवयव)
सूनि.७३ सरिसव (वनस्पति)
उनि.१४० सिरिगुत्त (आचार्य) उनि.१७२१७ सव्वक्खरसन्निवाइ (लब्धिधारी मुनि)उनि,३१० सिरिय (शकड़ाल का पुत्र) उनि.१०१ सव्यक्खरसन्निवाय (लब्धि) सूनि. १८९ सिरोरोग (रोग)
उनि.१५० ससालमरण (मरण) उनि.२१२, २१३ सिला (रानी)
उनि. ३३२ सहस्सपाग (तैल) दनि.१०९ सिला (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ साएय (नगरी) उनि.३३६ सिलिंद (धान्य)
दशनि.२३० साकेय (नगरी) उनि.१०८ सिव (देव)
उनि.३०८ सागरखमण (आचार्य) उनि.१२० सिवदत्त (व्यक्ति)
उनि.३४४ सागरचंद (मुनि)
उनि.३२५ सिवभूइ (निलव) उनि.१७२।१३,१४ सागरदत्त (वणिक्) उनि.३३३ सिवा (रानी)
उनि. ४४० सागेत (नगरी)
उनि.३२५ सीओसणिज्ज (अध्ययन) आनि.२११ साणधण (चांडाल जाति) उनि.३१६ सीमंधर (राजा)
उनि.३६६ साम (परमाधार्मिकदेव) सूनि.६६ सीवण (उपकरण)
दशनि,३४१ सामइय (मुनि) सूनि.१९२ सीस (अवयव)
उनि.१८२११ सामाइय (ग्रन्थ) दशनि.११ सीसग (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ सामलि (पुष्प) उनि.१५२ सीह (तिर्यञ्च)
दशनि.८९/३ सामाझ्यसमाहिपडिमा (प्रतिमा) दनि. ४८. सीहगिरि (आचार्य)
उनि.९८ सामुच्छेद (दर्शन) उनि.१६८ सोही (विद्या)
उनि.१७२/९ सामुत्थाणी (दिशा) आनि.५७ सुंठय (पात्र)
सूनि,७४ सामुद्दय (छंद) सूनि. १३९ सुग्गीव (नगरो)
उनि.४०३
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________________
नियुक्तिपंचक
सुत्तकड (ग्रंथ)
सूनि.२ सुदंसण (श्रेष्ठी)
उनि. १११ सुदंसण (व्यक्ति) उनि. ३३३, ३५१ सुर्दसणा (महावीर की बहिन) उनि. १७२/२ सुद्द (वर्ण)
आनि.२४, २७ सुद्दी (वर्ण)
आनि.२६ सुखवाय (वायु)
आनि. १६६ सुधम्मा (गणधर) सुनन्द (श्रावक)
उनि. ११८ सुनन्दा (महिला)
उनि. २८८. सुपति? (नगर)
उनि.३४३ सुभद्दा (महिला, सती) दशनि. ६९ सुभद्दा (राजकुमारी)
उन. ३१७ सुपणुभद्द (मुनि)
उनि.९४ सुयसमाहिपडिमा (प्रतिमा) दनि.४८ सुवण्ण (पृथ्वीकाय)
आनि.७३ सुवण्णभूमि (जनपद) उनि. १२० सुसाणवित्ति (चांडालजाति) उनि.३१६ सुइय (शस्त्र)
सूनि.७२ सूई (उपकरण) आनि. २६२, दनि.१२० सूतगड (ग्रंथ)
सूनि.२ सूय (वर्णान्तर)
आनि.२२,२४ सूयगड (ग्रंथ) सूनि. १,२,१८,२०, १०२ सूयर (तियश्च)
उनि. १०० सूरकंत (मणि)
आनि.७६ सूल (शस्त्र)
सूनि.७२ सेजभव (आचार्य) दशनि, ११, १३, ३४९ सेयषि (नगरी)
उनि. १७२/४ सेयविया (नगरी)
उनि.१७२४ सेवाल (मुनि)
उनि.२८९, २५१ सेवाल (वनस्पति)
आनि.१४१ सोमदत्त (ब्राह्मणपुत्र) उनि.१०९ सोमदेव (आर्यवन के पिता) उनि.९७
सोमदेव (ब्राह्मणपुत्र) उनि. १०९ सोमभूइ (आचार्य)
उनि.१०९ सोमा (दिशा)
आमि.४३ सोमा (रानी)
उनि.३३४ सोरियपुर ( नगरी)
उनि. ४४० सोवाग (चांडाल जाति)
उनि.३१६ सोवाग (वर्णान्तर)
आनि.२६ सोहम्म (देवलोक)
दनि. १११ हड (वनस्पति)
आनि. १४१ हत्थ (अवयव) उनि. १८२/२, सूनि.७६ हत्थि (तिर्वश) दशनि.६०, २३४,आनि.११० हस्थिणपर (नगरी) उनि.३३६, ३४५ हत्थिणी (तियश्च)
दनि.१११ हत्थितावस (तापस) सूनि.१९१ हत्थिपुर (नगर)
उनि. ३४५ हत्थिभूइ (मुनि)
उनि.९० हत्थिमित्त (मुनि)
उनि.९० हत्थिय (तिर्यच) उनि.३४१, ३५० हय (तिर्यञ्च)
उनि.३८९ हरिएस (कुल)
उनि.३१६ हरिएस (चांडाल जाति) उनि.३१४ हरिएसा (रानी)
उनि.३३५ हरिमंथ (धान्य)
दशनि.२३० हरियाल (पृथ्वीकाय)
आनि.७४ हरेणुया (वनस्पति)
उनि.१४६ हल (उपकरण)
आनि.९५ हलिद्दा (वनस्पति)
दनि.१०३ हिंगुलय (पृथ्वीकाय)
आनि.७४ हिंगुसिव (व्यन्तर देव) दशनि.६३ हियय (अवयव)
सूनि. ७१ हिययसूल (रोग)
उनि.१७२।४ हिरिबेर (वनस्पति)
उनि.१४७
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________________
परिशिष्ट-१३
वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
अध्ययन अप्पमादस्य (उत्त. का उन्नीसवां अध्ययन)
उनि.५०४ आघ (सूत्रकृतांग का दसवां अध्ययन)
सूनि.१०३ धम्मपपणत्ति (दशवै, का चौथा अध्ययन)
दशनि.१५ पमायप्पमाय (उत्त. का चौथा अध्ययन)
उनि.१७५ वीयरागसुय (उत्त. का उनतीसवां अध्ययन)
उनि,४९८ अवयव पिट्ठी (पीठ)
उनि.१८२/१ फिग्ग (नितम्ब)
उनि, १८२१२ अंगुलि (अंगुलि)
सूनि.७५ अंजलि (अंजलि)
दशनि.२८८
फिफिस (उदरवर्ती आंत विशेष) सूनि.७१ अंतगय (आंत)
सूनि.७१ फुप्फुस (फेंफड़ा)
सूनि.७१ अच्छि ( ख)
उनि.१८२१२ बाहा (बाहु)
सूनि.१६२, उदर (पेट)
उनि.१८२११ बाहु (बाहु)
सूनि.७३ उनि१८२११ उर (हृदय)
मंसु (दाढ़ी)
उनि.१८२६२ सिर (शिर)
उनि.१८२/१ उरुय (जंघा)
सूनि.७३ सोस (शिर)
सूनि.७३ ऊरु (जंघा)
उनि.१८२५१ हत्थ (हाथ) उनि.१८२/२, सूनि.७७
आनि.१८२:२ ओट्ट (होठ)
हियय (हृदय) उनि.१८२१२
सूनि.७१ कण्ण (कान) कर (हाथ)
सूनि,७३ कालेज (कलेजा)
सूनि.७१ आसाढ (आषाढ) उनि.१२३, १६८,९७२/४ केस (केश) उनि.१८२४२ उदहि (उदधि)
आनि.२८४ खंध (कंधा) उनि.१८३ कण्ह (कृष्ण)
उनि.१७२/१३ चरण (पैर)
सूनि.७३, ७७ कालखमण (कालकाचार्य) उनि.१२० जंघा (जंघा) उनि.१६२ केसि (केशी)
उनि.४४७, ४४८ जीहा (जीभ)
दनि.११२ गोविंदवायग (गोविंदवाचक) दशनि.७८ थण (स्तन) सूनि.७७ जंबु (जंबू)
सूनि.८५ दसण (दांत)
जसभद्द (यशोभद्र)
दशनि.३४९ नयण (नयन) दशनि.२७ तोसलि (तोसलि)
आनि २८५ नह (नख)
उनि.१८२१२ तोसलिपुत्त (तोसलिपुत्र) उनि.९७ नास (नाक)
उनि.१८२/२ थूलभद्द (स्थूलिभद्र) उनि.१०१, १०५, पाद (पैर) उनि.१८२२
१०६, १२२. पास (पाच) सूनि ७६ धम्मघोस (धर्मघोष)
उनि.९४
आघार्य
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________________
६९८
उनि १७२/१०
पुसमित (पुष्यमित्र) बोडियविभूति (बोटिक शिवभूति) उनि १७२/
१५
उनि ९८
भद्दगुप्त (भद्रगुप्त )
दनि. ९,९२
भट्टबाहु (भद्रबाहु ) मंगु (मंगु)
दनिं. १०४, ११२ दर्शन. १३
मणगपियर ( शय्यंभव )
महगार (महागिरे )
'उनि. १७२/५, ६
रखियखमण (आरक्षित) उनि. ९८, १७२/१०
उनि . ९९
उनि ९९
राध ( राध)
राहमण (राधाचायं )
वइर (ख)
रक्खमण (आर्य वज्र )
वसु (वसु)
सागरखमण (आयं सागर )
सिरिंगुत्त (श्रीगुप्त ) सीहगिरि (सिंहगिरि)
सेज्जंभव (शय्यंभव)
सोमभूइ (सोमभूति)
आभूषण
आमेलय (शिर का आभूषण)
उनि . १७२/३
उनि . १२०
उनि. १७२/७
उनि . ९८ दर्शन. ११, १३, ३४९ उनि . १०९
कडग (हाथ का आभूषण)
कुंडल (कुण्डल) मुत्तावलि (मोतियों की माला)
वलय (वलय)
आहार
ओय (ओज)
कावलिक (कालिक )
रक्खेव (प्रक्षेप) लोम (लोभ)
आनि . २८३
उनि ९८
उनि . १५२
उनि १३९
उनि ९३९
आनि ४६
उनि २५८
सूनि. १७१
सूनि . १७२
सूनि . १७१
सूनि . १७१
उद्यान एवं चन
केसर (केसर) उनि ३८९, ३९० मंडितदुगवण (गंडितिंदुकवन ) उनि ३१७, ३२० तिंदुग (तिन्दुक) उनि १७०, १७२/२, ३१७.३२१ तंत्रवण (तुंबवन) उनि २८८
दीवग (दीपक) पोलास (पोलास) मणोरह (मनोरथ)
आसंदी (कुर्सी)
कंडु (पात्र)
छत (छत्र)
उपकरण
तालबंट (वालवृंद, पंखा )
नंगल ( लांगल)
नालिया ( समय जानने का यंत्र)
पण (कडाही)
पलियंक (पलंग) मीरा (चूल्हा )
लाउयपात (पात्रविशेष ) लोहि (पात्र विशेष)
वियण (व्यजन, पंखा ) सुंठय (पात्र विशेष ) हल (हल)
कथा
अक्खेवणी (आक्षेपणी)
नित्रेयणी (निर्वेदनी) विक्षणी (विक्षेपणी )
संवेयणी (संवेजनी)
किंत्युग्घ (किंस्तुघ्न ) किंसुर (किंस्तुध्न )
कोलत्र (कोलव) गरादि (गरादि)
नाग (नाग)
बव (ब)
बालव (बालव)
करण
नियुक्तिपंचक
उनि . १७२/१३ उनि . १७२/४
सूनि २०५
आनि. २६३
सूनि : ७८
सूनि . १०८
आनि. १७०
दशनि. ५७
दशनि. ५८
सूनि. ७८
दशनि. २४४
सूनि . ७४
दनि. ११८ सूनि. ७८.
अनि. १६९, १७०
सूनि. ७४ आनि. ९५
दर्शन. १६६-१६८. १७७, १७८
दशनि. १७४, १७५ दर्शन. १६६, १७०,
१७७, १७८ दशनि. १७२, १७३,
सूनि . १२ उनि १९१
उनि १९०, सूनि. ११
उनि . १९०, सूनि . ११
उन. १९१, सूनि. १२
'चउप्पय (चतुष्पद) श्रीविलोयण (स्त्रीविलोकन) उनि १९०, सूनि ११
उनि. १९१, सुनि. १२
उनि १९०, सूनि . ११
उनि १९०, सूनि. ११
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________________
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
६९९
ठनि.
क्षेत्र
वणिय (वणिज)
६,८,९,१०,३०, ३२, २१७, ३०७, विद्धि (विष्टि) उनि.१९०, सूनि.११
३११,३६६, सूरि.२२, दर्शन,२७, ४७ सउणि (शकुनि) उनि.१९१, सूनि,१२ आयारग्ग (आचारान) आनि. १२, ३२, ३०७
आयप्पवायपुख्ख (आत्मप्रवादपूर्व) दशनि.१५ देवकुरु (देवकुरु) आनि.१, सूनि.१५३, १८२ आयारपकप्प (आचारप्रकल्प) दनि.२७, आनि. खाद्य पदार्थ
३११,३१७ औदण (ओदण)
दशनि.२१/ सभासित (ऋषिभाषित) सनि.१९० खीर (खीर) उनि.२९३, दनि.९९ उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन) उनि.४, २७, ५५२ गुड (गुड़)
दशनि.२१८ कप्प (कल्प)
दनि.१ तिलसलिया (तिलपपड़ी) आनि.१३२ कम्मप्पवायपुच (कर्मप्रपादपूर्व) दशनि.१५, सूनि.३५
जनि.५० पायस (खोर)
दनि.९९,१०० छट्टपुल्व (सत्यप्रवादपूर्व) दनि.१८ पिठड़ (कूरपिंड) उनि.१७२३ ठाण (स्थानांग)
दनि.४७ महु (मधु) उनि.१२७ णाया (ज्ञाताधर्मकथा)
दनि.५ मोयग (लड्डु)
दशनि.८५ दसकालिय (दशर्वकालिक) दनि.७, ११, १३, लोण (नमक) दशनि.३६
१४, २४, ३०७ सप्पि (घी)
उनि.१२७
दसकालियनिज्जुति गणधर
(दशवैकालिकनियुक्ति) दशनि.१ इंदभूति (इन्द्रभूति)
सूनि.२०५ दसवेयालिय (दशवकालिक) दशनि.६ गोतम (गौतम) उनि.२८४, २८७, २९२, दसासु (दशाश्रुतस्कन्ध)
दनि.१ २९४, २९५, २९८, दिट्टिवाय (दृष्टिवाद) दशनि.१६७ निसोह (निशीथ)
आनि.३६६ सूनि.९०, २०६, दनि.१११ पच्चक्खाण (प्रत्याख्यानपूर्व)
आनि.३११ गोयमस्सामी ( गौतमस्वामी) दशनि.७४ पण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) दशनि.१६७ सुधम्मा (सुधर्मा) सूनि.८५ बंभच्चेर (आचारांग)
आनि.१२ गोत्र, जाति एवं वंश
ववहार (व्यवहार) दशनि.१६७, दनि.१, ४७ इक्कड (चोर की जाति) उनि.२५१ वेद (आचारांग)
आनि.११ कासव (काश्यप)
उनि.४६० सच्चप्पवायपुव्व (सत्यप्रवादपूर्व) दशनि.१६ दसारवाग (दशाहवर्ग) दशनि.५२ सामान्य (सामायिक) दशनि.११ पाईण (प्राचीन) दनि.१ सुत्तकड (सूत्रकृत)
सूनि.२ मुरिय (मौर्य)
उनि.१७२/४ सूतगड (सूत्रकृत)
सूनि,२ ग्रन्थ
सूयगड (सूत्रकृत) सूनि १, २, १८, २०, १०२ अणुप्पवाय ( अनुप्रवाद) उनि.१७२१५
चक्रवर्ती आयार (आचारांग) दर्शान,१६७, आनि. १, बंभदत्त (ब्रह्मदत्त)उनि,३२७, ३३०, ३५२, ३४५५
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________________
७००
नियुक्तिपंचक
उनि.९३
चाण्डाल जाति कलिंग (कलिंग)
उनि.२५७ पाण (पाण)
उनि.३१६ कुंभकारकड़ (कुंभकारकट) उनि.११३ बलकोट्ट (बलकोट्ट) उनि.३१८ कुरु (कुरु)
उनि.३५८ बाहिर (बाह्य) उनि 8 कोल्लयर (कोलकर)
उनि.१०७ मयंग (मातंग)
उनि, ३१६ कोसंबो (कौशाम्बी) उनि.१००, १०९, ११८, मयास (मृताश) उनि.३१६
२४६,३४० साणधण (श्वानधन) डॉन.३१६ धार गांधार)
उनि.२५७ सुसाणवित्ति (श्मशानवृत्ति) उनि. ३१६ गयपुर (गजपुर)
उनि.१०८, ३१५ सोवाग (श्वपाक) उनि.३१६ गिरितडग (गिरितटक)
उनि.३३६ हरिएस (हरिकेश) उनि.३१४, ३१६
गिरिपुर (गिरिपुर)
उनि.३४० चैत्य चंपपुरी (चम्पापुरी)
उनि.२७८ उच्छुधर (इक्षुगृह)
उनि.१७२/१०
चंपा (चम्पा) उनि.९४, ११८, २७९, ३३६, गुणसिलय (गुणशिलक) उनि.१७१/३
३४५, ४२५, दनि.९५
तगरा (तगरा) पुण्णभद्द (पूर्णभद्र)
उनि.२७९
दसण्य (दशाणं) भुयगुह (भूतगृह) उनि. १७२/७
उनि.३२७ लच्छिघर (लक्ष्मीगृह) उनि.१७२/५
दसपुर (दशपुर) उनि.९६, १००, १७२/१० नंद (नंद)
उनि.३३६ छंद नदिखेड (नदिखेट)
उनि.१७२/६ गाहा (गाथा)
सूनि.१३९
नालंदा (नालन्दा) सूनि.२०४, २०५ वेतालिक (वैतालिक)
सूनि.४०
पंचाल (पाञ्चाल) उनि.२५७, २६२/१ सामुद्दय (सामुद्रक)
सूनि,१३९
पाटलिपुत्त (पाटलिपुत्र) उनि.१०१ जनपद एवं नगरी पिट्ठीचंपा (पृष्ठिचंपा)
उनि.२७७ अंतरंजि (अंतरंजिका) उनि.१७०, १७२/७ पिहुंड (पिहुण्ड) उनि.४२६, ४२७ अंतरा (अन्तराग्राम) उनि.३४१, ३४३ बंभथलय (ब्रह्मस्थलक) उनि.३४० अद्दपुर (आर्द्रपुर) सूनि.१८८, १९३ बसतपुर (बसन्तपुर)
सूनि.१९२ अयलपुर (अचलपुर)
उनि.१९ ।। भोयडपुर (भोगकटपुर)
उनि.९० अहिछत्ता (अहिच्छत्रा) उनि.३४०, ३४३ मगहापुर (मगधपुर)
उनि.२७७ आमलकप्या (आमलकल्पा) उनि.१७२/३ महरा (मथुरा) उनि.११६, ११९, ३१५, ३४०, इंदपुर (इन्द्रपुर) उनि.३४४
३४३, दनि,११२ उज्जेणी (उज्जयिनी)उनि.९०, ९१, ९५, ९९, १२० । मिहिला (मिथिला) उनि.१७०, १७२१५, ३४५ उल्लुगातीर (उल्लुकातीर) उनि.१७०, १७२१६ मुग्गसेलपुर (मुद्गशैलपुर) उनि.११६ उसभपुर (ऋषभपुर) उनि.१०१, १७० । रहवीरपुर (रथवीरपुर)उनि.१७०, १७२/१३, १४ उसुयारपुर (इषुकारपुर) उनि.३२७, ३५८, ३६० रायगिह (राजगृह)उनि.९२, १०१, १११, १७२। एलगच्छपह (एडकाक्षपथ) उनि.९१
३-६, २५१, ३४०, ३४५, सूनि. ओसा (अवश्याय) उनि.३३६
१९९, २०४ कंपिल्लपर (काम्पिल्यपर)उनि.३३६, ३८८, ३९४ रुपर (रुद्रपूर)
उनि.३४४
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________________
७०१
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
वंसीपासाय (वंशीप्रासाद) उनि.३३६ किमि (कृमि) वडथलग (घटस्थलक)
उनि.३४० कुंजर (हाथी) वडपुरंग (वटपुरक) उनि.३४०, ३४१ कुंथु (कुंथु) वयग्गाम (व्रजग्राम)
उनि,३६३ कुकुड (मुर्गा) वाणारसी (वाराणसी)
उनि.३१७, ३४०, कुरर (कुरल)
४६०, ४६८ कुलल (कुरल) विदेह (विदेह)
उनि.२५७, २६४ खज्जोय (जुगनू) वीयभय (चीतभय)
उनि.९५
खलुक (दुष्ट बैल) समकडग (समकटक)
उनि.३३६, ३३७ गद्दभ (गधा) साएय (साकेत)
उनि.३३६
गय (हाथी) साकेय (साकेत)
उनि.१०८
गावी (गाय) सागेत (साकेत)
उनि.३२५
गो (गाय) सावत्थी (श्रावस्ती) उनि.११२, ११७. १७०,
गोण (बैल) १७२/१, २, २४६, ३४१, ३४५
घोड़ग (घोड़ा) सियविया (पायिका) पनि १
छगल (बकरा) सुग्गीव (सुग्रीव)
उनि.४०३
जंबुय (श्रृगाल) सुपति? (सुप्रतिष्ठ)
उनि.३४३
जलूक (जलौका) सुवण्णभूमि (सुवर्णभूमि) उनि.१२०
जलोय (जलौका) सेयवि (श्वेतविका)
उनि.१७२/४ सेयविया (श्वेतविका)
उनि.१७२/४
तुरंग (घोड़ा)
तुरग (घोड़ा) सोरियपुर (शौरिकपुर)
उनि.४४०
तित्तिरी (तीतर) हत्थिणपुर (हस्तिनापुर) उनि.३३६, ३४५ हत्थिपुर (हस्तिपुर)
उनि.३४५ षड्डय (बछड़ा, पाडा) तिर्य
बइल (बैल)
बग (क)
दशनि.६० अस्स (घोड़ा)
भमर (भ्रमर) अय (बकरा)
दशनि.२३४
भेरुड (निर्विष सर्प) अहि (सांप)
उनि.२६३
मंडुक्क (मेंढ़क)
दशनि.२३४ आस (घोड़ा)
मंडुकिया (मेंढ़की) आसतरग (खच्चर)
दशनि.२३४ लंदर (चूहा)
दशनि.१३३
मच्छ (मत्स्य)
मज्जार (बिलाव) उट्ट (ऊंट)
दशनि.८४ उद्री (ऊंटनी)
दर्शन, २३४ मधुकरी (भ्रमरी) उरग (सर्प)
दशनि,१३२ मय (मृग) उरम्भ (मेमना)
उनि.२३८ मयूर (मोर) एलग (भेड)
दशनि,२३४ मसग (मच्छर)
दनि.१०३ उनि.३५२
दनि.७३ उनि.३५१ उनि.४६२ उनि ४६३ आनि.११९ उनि.४८२ दशनि.२३४ दशनि.२७६ दशनि.२३४ दनि.१०३
उनि.६५ दशनि,२३४ उनि.१३८ उनि.११६ उनि,४८७ दशनि.३४ दशनि.२७४
उनि.४६ दशनि.८५ उनि.२६१
उनि.४८३ दशनि.२७४/१
दशनि.९२ उनि.३१९ उनि.४६२ दशनि.५२
दर्शन.५१ दशनि.२७४/१ दशनि.११४
दशनि.९५ दनि.३३५
उनि.९४
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________________
७०२
महिसी (भैंस)
महुगरि (भ्रमरी )
महुयर (भ्रमर)
मिंळ (मेंढा )
मिरा (मृग )
मिय (मृग ) मेस (मेंढा)
वग्ध (व्याघ्र)
वसभ (बैल)
बसह (बैल)
वायस (कौआ)
विच्छुग (बिच्छु )
संख (शंख)
सप्प (सर्प)
सीह (सिंह)
सूयर (सूकर)
हथि (हाथी)
हत्क्षणी (हथिनी ) हय (घोड़ा)
तीर्थ
पुक्खर (पुष्कर)
तीर्थंकर
अरिनेमि (अरिष्टनेमि) उसभ (ऋषभ) उनि २८१,
नमि (नमि)
पास (पाव)
भरहपिउ (ऋषभ ) महावीर (महावीर)
वीरवर (महावीर )
आनि. २८५
दशनि. ९६
दशनि. ९५
इनि. १०५
आनिं. ९५
तैल
सहस्सपाग (सहस्रपाक)
उनि . ३८९
दशनि. ३४
उनि. १०३
उनि २५८
उनि २५९
उनि १३५
उनि ४८७
उनि १८६/७
दशनि. ३४
दर्शन. ८९/३
उनि . १०० दर्शन. ६०
दनि. १११ उनि ३८९
उनि ९६, दनि ९७
उनि . ४४१, ४४२ आनिं. १९, सूनि . ४१
उनि ११३
मुणिसुव्वय (मुनिसुव्रत ) वद्धमाण ( वर्धमान ) आनि. २९६, ५१९ दनि. ११५ वीर (महावीर )
उनि २६४, २६५ आनि. ३५४ सूनि. २०६
उनि २८१ उनि २७९
उनि ४२५,
उनि २७७, २७८,
सूनि. २५, ८३, २०० आनि. ३०४
दनि. १०९
दर्शन एवं दार्शनिक
अकारगवाद (अकारकवाद ) अकिरियवादी (अक्रियावादी)
अण्णाशय (अज्ञानवाद) सूनि. ३०, अफलवाद (अफलवाद)
आतच्छद्र (आत्मषष्ठ )
एकप्पये (एकात्मवाद)
कडवाद (कृतवाद)
किरियवादी (क्रियावादी)
तज्जीवतस्सरीर (तज्जीवतत्शरीरवाद)
नाणवादी (ज्ञानवादी)
नियतीवाय (नियतिवाद)
महपंचभूत (पंचमहाभूत) वेणइयवादी (वैनयिकवादी)
दिव्य शस्त्र
अग्गेय (आग्नेय) पत्थिव (पार्थिव )
वाउ (वायव्य)
वारुण (वारुण)
दिशा
नियुक्ति पंचक
अग्गेयी (आग्नेयी) अभिधम्मा (अभिधर्मा) अवरउत्तर (पश्चिमउत्तर) अवरदिसा (पश्चिम दिशा) अहोदिसा (अधोदिशा) इंदा (ऐंद्री, पूर्व )
उदिसा (उर्ध्वदिशा) उत्तरदिसा (उत्तरदिशा )
उषरिमदिसा (उर्ध्वदिशा )
ईसाणा (ईशानी) कविला (कपिला) खेलेज्जा (खेलेज्जा) जम्मा ( याम्या, दक्षिण)
तमा (अधोदिशा)
दक्खिणा (दक्षिणदिशा)
सूनि. २९ सूनि. ११८
११८, ११९
सूनि २९
सूनि. २९
सूनि २९
सूनि . ३१
सूनि . ११८, १२१
सूनि. २९
सूनि. ३०
सूनि ३०
सूनि. २९
सूनि. ११८
सूनि. ९८
सूनि. ९८
सूनि. ९८
सूनि. ९८
आनि. ४३ आनि . ५७
आनि ५६
अनि, ४७, ५६
आनि. ५८
आनि. ४३
आनि, ५४, ५९
आनि, ४८, ५६
आनि. ५८
आनि. ४३
आनि ५७
अनि. ५७
आनि. ४३
आनि. ४३
आनि. ५६
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________________
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
७०३
दक्खिणापरा (दक्षिणपश्चिमदिशा) आनि.५६ बालु (बालु)
सूनि.६७ दाहिणदिसा (दक्षिणदिशा) आनि.४८, ५२ बालुग (बालुक)
सूनि.७९ नेरुती (नैऋती) आनि.४३ विण्हु (विष्णु)
उनि.३०८ पपणवित्ती (प्रज्ञापनी) आनि.५७ वेतरणी (वेतरणी)
सनि.६७, ८० परियाधम्मा (पर्याधर्मा)
आनि.५७ वेसमण (वैश्रमण) उनि.२८५, २८७ पुवदिसा (पूर्वदिशा) आनि.४५, ५६ सबल (शबल) सूनि.६६, उनि.७१ पुव्वदक्षिणा (पूर्वदक्षिणदिशा) आनि.५६ साम (श्याम)
सूनि.६६ पुबुत्तरदिसा (पूर्वोत्तरदिशा) आनि.५६ सिव (शिव)
उनि.३०८ वायव्वा (वायथ्या) आनि.४३ हरिल (हरिल)
उनि.३३२ वारुणी (वारुणी, पश्चिम) आनि. ४३ हिंगसिव (हिंगशिव)
दशनि.६३ विमला (विमला)
आनि.४३
देवलोक एवं देवविमान सामुत्थाणी (सामुत्थानी) आनि.५७ नलिणिगुम्म (नलिनिगुल्म) उनि.१७२/४, सावित्ती ( सावित्री) आनि.५७
उनि,३४६ सोमा (सोमा, उत्तर)
आनि.४३ पठमगुम्म (पद्मगुल्म)
उनि.३५७ देव एवं यक्ष पुप्फुत्तर (पुष्पोत्तर)
उनि.२६६/१ अंब (अम्ब) सूनि.६६
उनि.२८८
वागु (वल्गु) अंबरिसि (अंबरिसी) सूनि.६६ सोहम्म (सौधर्म)
दनि.१११ असि (असि)
सूनि.७६
द्वीप असिंपत्त (असिपत्र) सूनि.६७ णंदिसर (नंदीश्वरद्वीप)
दनि.९५ उवरुद्द (उपरौद्र) सूनि, ६६,७३ नंदि (नंदीश्वरद्वीप)
दनि,९५ काल (काल) सूनि,६६,७४ नंदिसर (नंदीश्वरद्वीप)
आनि.३५३ कुंभ (कुम्भ)
सूनि.६७
धान्य कुंभी (कुंभी)
सूनि.७४ अणुक (अणुक)
दशनि.२२९ खंद (स्कंद) उनि.२०८ अतसि (अलसी)
दशनि.२३० खरस्सर (खरस्वर) सूनि.६७, ८१ इक्छ (इक्षु)
दशनि.२३० गंडयजक्ख (गण्डकयक्ष) उनि.३२० ओदण (चावल)
दशनि,२१८ चमर (चमर) आनि.३५४ कंगु (कंगु)
दशनि.२२९ दोगुंदग (दोगुंदक)
उनि.४०५, ४३२ कुलत्थ (कुलथी)
दशनि.२३० धणु (धनु)
सनि.६७,७५ कलाय (कलाय, मटर) दशनि. २३० मणिणाय (मणिनाग) उनि.१७२/६ कोद्दव (कोद्रव)
दशनि. २२९ महाकाल (महाकाल) सूनि.६६, ७५ गोधुम (गेंहू)
दशनि.२२९ महाघोस (महाघोष) सूनि.६७, ८२ जव (जौ)
दशनि.२२९ मुग्गरपाणि (मुद्गरपाणि) उनि.१११ तिपुडग (त्रिपुटक)
दशनि.२३० सूनि.७२ तिल (तिल)
दशनि. २२९ रोद्द (रौद्र) सूनि.६६ तुवरी (अरहर)
दनि.२३०
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________________
७०४
नियुक्तिपंचक
दशाने २२९
निप्फात्र (निष्पाव)
दशनि २३० मसूर (मसूर)
दशनि २३२ मास (उड़द)
दशनि २२९ मुग्ग (मूंग)
दशनि २२९ रायमास (राजमाष)
दशनि २३० रालग (रालक) वीहि (व्रीहि)
दशनि २२९ सदीय (साठी चावल) दशनि २२९ सालि (शालि)
दशनि २२९ सिलिंद (मोठ)
दशनि २३० हरिमंथ (हरिमंथ)
दशनि २३० नदी एवं समुद्र गंगा (गंगा) उनि १२१, १२५, ४६२, ४६५ मतगंगा (मृतगंगा)
उनि ३१७ लषण (लवणसमुद्र)
आनि ५० निलव एवं निह्नववाद अबद्धिग (अबद्धिकवाद) उनि १६७ अव्वत्तवाय (अव्यक्तवाद) उनि १६७. १६८८ आसमित्त (अश्वमित्र) उनि १६८, १७२१५ गंग (गंग)
उनि १६९, १७२६ गोदुमाहिल (गोष्ठामाहिल) उनि १६९ गोदामाहिल (गोष्ठामाहिल) उनि १७२११० छलुग (षडुलूक)
उनि १६९ जमालि (जमालि) उनि १६८, १७२१२,
सूनि १२५ जीवपदेस (जीवप्रादेशिकवाद) उनि १६८ तीसगुप्त (तिष्यगुप्त) उनि १६८, १७२/३ तेरासिय (त्रैराशिक)
उनि १६९ दोकिरिया (द्वैक्रियवाद) उनि १६९ बहुरय (बहुरत) उनि १६७, १६८, बोडियलिंग (बोटिकलिंग) उनि १७२११५ समुच्छ (सामुच्छेदवाद) उनि १६७ सिवभूइ (शिवभूति) उनि १७२४१३, १४ सामुच्छेद (सामुच्छेदवाद) उनि १६८
परिव्राजक और संन्यासी गोसाल (गोशाल) सूनि १९१, १९९ चरक (चरक) दनि १३४, सूनि ११२ तिदंडिय (त्रिदंडी) सूनि १९१, १९९ दीवायण (दीपायन)
दशनि ५२ पिंगल (पिंगल)
दशांन ७९ पोट्टसाल ( पोदृशाल)
उनि १७२७ बंभवती (ब्रह्मवादी)
उनि १९१ बंभी (ब्रह्मवादी)
सूनि १९९ भिक्खु (बौद्ध भिक्षु)
सूनि १९९ मरुग (महक)
दशनि ३०७/१ वारिभद्दग (वारिभद्रक, शौचवादी) सूनि ९० हत्थितावस (हस्तितापस) सूनि १९१
पर्वत अट्ठावय (अष्टापद)उनि २८२. आनि ३.४. सूनि ४१ इंदपद (इंद्रपद)
दनि ७७ उज्जित (उज्जयंत)
आनि ३५४ गंधारगिरि (गांधारगिरि)
दनि ९७ गयागपय (गजानपद) आनि ३५४ मंदर (मंदर) दशनि ३३५, उनि २६३
आनि ४९. ३५३ महातव (महातप)
उनि १७२.६ मेरु ( मेरु)
आनि ४९, ५० रहावत्तनग (रथावर्त)
आनि ३५४ वैभारगिरि (वैभारगिरि)
उनि ९२ वेयङ्मु (वैताढ्य)
उनि २८२ सिद्धपव्वत (सिद्धपर्वत) उनि २८२
पुरोहित एवं ब्राह्मण इंददत्त (इन्द्रदत) उनि ११९, २४६ कासव (काश्यप)
उनि २४६ जण्णदत्त (यज्ञदत्त)
उनि १०९ पालक (पालक)
उनि ११३ भिगु (भृगु)
उनि ३५९, ३६६ वररुई (वररुचि)
उनि १०१ सोमदत्त (सोमदत्त)
उनि १०९ सोमदेव (सोमदेव)
उनि १०९
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________________
७०५
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
दनि ४६
पुष्प उप्पल (उत्पल)
दशनि १३३ कमल (कमल)
आनि २२९ धायगी (धातकी)
उनि १५१ पउम (पद्म)
सूनि १६३, १६४ पाडल (पाटल)
उनि १२५ पोंडरीय (पोंडरीक)
सूनि १४५ मल्लिया (मल्लिका)
उनि १४६ सामलि (शाल्मलि)
उनि १५२ पृथ्वीकाय अंजण (अंजन)
आनि ७४ अभपडल (अभ्रपटल)
आनि ७४ अब्भवालुय (अभ्रवालुक)
आनि ७४ अय (लोह)
आनि ७३ उवल (उपल)
आनि ७३ ऊस (ऊष)
आनि ७३ तउस (त्रपुष)
आनि ७३ तंब (तांबा)
आनि ७३ बालुय (बालुक)
आनि ७४ मणोसिला (मन:शिला)
आनि ७४ रुप्प (चांदी)
आनि ७३ लोण (लवण)
आनि ७३ सकरा (शर्करा)
आनि ७३ सुवण (स्वर्ण)
आनि ७३ सासग (शस्यक)
आनि ७४ सिला (शिला)
आनि ७३ सोसग (शीशा)
आनि ७३ हरियाल (हरताल)
आनि ७४ हिंगुलय (हिंगलु)
आनि ७४ प्रतिमा उवहाणपडिमा (उपधानप्रतिमा) दनि ४६ उवासगपडिमा (उपासकप्रतिमा) दनि ४९ एगराइय (एकरात्रिकी) उनि ४६८ एगविहारपडिमा (एकलविहारप्रतिमा) दनि ४६ चंदपडिमा (चन्द्रप्रतिमा)
दनि ४७
चारितसमाहिपडिमा (चारित्रसमाधिप्रतिमा)
दनि ४८ जिणपडिमा (जिनप्रतिमा) दनि ४१ पडिसंलोणपडिमा (प्रतिसंलीनप्रतिमा) दनि ४६ भिक्खुपडिमा (भिक्षुप्रतिमा) दनि ४५ मोयपडिमा (मोकप्रतिमा) दनि ४७ विवेगपडिमा (विवेकप्रतिमा) दनि ४६ संजतपडिमा (संयतप्रतिमा) दनि ४१ समाधिपडिमा (समाधिप्रतिमा) सामाइयसमाहिपडिमा (सामायिकसमाधिप्रतिमा) दनि ४८ सुयसमाधिपडिमा ( श्रुतसमाधिप्रतिमा) दनि ४८
प्रत्येकबुद्ध करकंडु (करकण्डु) उनि २५७, २५८ दुम्मुह (दुर्मुख)
उनि २५७, २५८ नग्गति (नग्गति)
उनि २५७ नमि (नमि) उनि २५३, २५५. २५७, २५८,
२६३. २६४, २६६, २६७.
प्रासाद नंदण (नंदन) पुंडरीय (पुण्डरीक) उनि ४३१, ४३२ वंसीपासाय (वंशीप्रासाद) उनि ३३६
फल अंब (आम)
उनि २५८ अंबय (आम)
उनि २४१ किंपाग (किम्पाक)
उनि ३९६ महिंदफल (माहेन्द्रफल) उनि १४९
भावना अप्पमाय (अप्रमाद)
आनि ३६१ एगग्ग (एकाग्र)
आनि ३६१ चरित (चारित्र)
आनि ३५१ तव (तप)
आनि ३५१ दसण (दर्शन)
आनि ३५१ नाण (ज्ञान)
आनि ३५१ वेरगा (वैराग्य)
आनि ३५१, ३६१
उनि ४०५
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________________
७०६
नियुक्तिपंचक
मंडप अप्फोव (अप्फोव)
उनि.३९०
मंत्री अभय (अभय)
दशनि.५८, ७८,
सूनि.५७, १९४ धणुय (धनुक)
उनि.३३० रोहगुत्त (रोहगुप्त)
आनि २२८ वरग (वरक)
दनि.१०६ परधणु घरघ)
उनि.३३०, ३३७ वरधणुग (वरधनुक)
उनि.३३७ सगडाल (शकडाल)
उनि.१०१ सिरिय (श्रीयक)
उनि,१०१
मणि अंक (पुलकमर्माण)
आनि.७५ इंदनील (इंद्रनील)
आनि.७५ गोमेजय (कर्केतन)
आनि.७५ चंदप्पभ (चन्द्रकान्त)
आनि. जलकत (जलकान्त)
आनि,७६ पवाल (प्रवाल) आनि.७४, सूनि.१५१ फलिह (स्फटिक)
आनि.७५ भुयमोयग (भुजमोचक) आनि.७५ मरगय (मरकत)
आनि.७५ मसारगल (मसारगल्ल)
आनि.७५ मोत्तिय (मोती)
सूनि १५१ रुयग (रुचक)
आनि.७५ लोहियक्ख (पद्मराग, लोहिताक्ष) आनि.७५ वेरुलिय (वैडूर्य)
आनि.७६ सूरकंत (सूर्यकान्त)
आनि.७६ मरण अंतिय (अत्यंत)
उनि २० अंतोसाल (अंतःशल्य)
उनि.२०५ अपरकम (अपराक्रम)
आनि.२८४ आइयंतिय ( आत्यन्तिक) उनि.२०९, २२३ आवीइय (आवीचि)
उनि.२२२ आवीचि (आवीचि) उनि.२०५, २१५
इंगिणि (इंगिनी)
उनि.२०६, २२८, __ आनि. २७४, २८१, दनि १५ ओहि (अवधि) उनि.२०५, २०९, २१५ केवलि (केवलिमरण) उनि.२०६, २१७ गिद्धपिट्ठ (गृद्धपृष्ठ) उनिः२०६, २१८, आनि.२७३ छउमत्थ (छद्यस्थ) उनि,२०६, २१७ तब्भव (तद्भव) उनि.२०५, २१४, २१५ पंडिय (पंडित)
उनि.२०५, २१६ पाओवगमण (प्रायोपगमन) उनि.२०६ पायवगमण (प्रायोपगमन) उनि.२२८, २७४,
२८१, २८३, २८४, २९१ बाल (बाल)
उनि.२०५, २१६ बालपंडित (बालपंडित) उनि.२९६ भत्तपरिण्णा (भक्तपरिज्ञा)उनि,२०६, २१९, २२८,
आनि.२६३. २७३, २८१ मोस (बालपंडितमरण) उनि.२०५ वलाय (क्लन्मरण)
उनि.२०५, २१० वसट्ट (यशार्स)
उनि.२०५, २१० वाघातिम (व्याधातिम)
आनि.२८५ वेहाणस (वैहानस) उनि.२०६, आनि.२७३ वेहास (वैहानस)
उनि.२१८ ससल (सशल्य)
उनि. २१२, २१३
महिला अचंकारियभट्टा (अत्वंकारीभट्टा)दनि.१०४,१०६ खंदसिरी (स्कन्दश्री)
उनि. १११ गंधारी (गांधारी)
उनि.३१८ गोरी (गौरी)
उनि.३१८ जसा (यशा)
उनि. २४६ देवदत्ता (दासी) उनि. ९५, दनि.९६ रुद्दसोमा (रुद्रसोमा)
उनि.९७ रूविणी (रूपिणी)
उनि.४३१, ४३२ वग्गुमती (वल्गुमती)
आनि.३२३ वडकुमारी (वृद्धकुमारी) दशनि.५८ वासिट्टा (वाशिष्ठा) उनि.३५९, ३६६ सुदंसणा (महावीर की बहिन) उनि.१७२१२
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परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
उनि . २८८
सुनंदा (सुनन्दा) सुभद्दा (सती)
दर्शन. ६९
आढगम (आढक)
करिस ( कर्ष)
कुडव (कुडव ) पत्थ (प्रस्थ )
पल (पल)
भाग (पलिका)
मागह ( मागध )
मास (मासा)
मणि (रत्न)
कागिणी
माप
उनि १५१
उनि १४७, ३३५
दशनि. २१०, आनि ८७, १४४
दशमि. २१०, आनि ८७, १४४
उनि १४७
(काकिणी)
ढंद (दण्ड) दत्त (दत्त) fear (Ger)
मुद्रा
मुनि
कोट्टवीर (कोट्टवीर) खंदय (स्कन्दक) गद्दभालि (गर्दभालि ) गागलि (गागलि ) चित्त (चित्र) जयधीस ( जयघोषं)
उनि १४७
उनि १५१
उनि २४९
उनि १४९
अग (आर्द्रक)
सूनि. १८८, १९९, २००
अक्षय (आई)
अरहन्नय (अर्हन्नक)
अरहमित (अर्हन्मित्र)
असगड (अशकट)
सूनि ९०३ उनि ९३ उनि . ९३ उनि १२१ सूनि २०५, २०६ उनि २४३, २४५ - २४९० सूनि . ५७ कोडिन (कौडिन्य) उनि. १७२/५, २८६, २८९,
उदग (उदक) कविल (कपिल) कूलबाल (कूलबाल )
उनि २४१, ५३३
१७२/१५ उनि. १७२/१५
उनि. ११२,११३
उनि ३९०
उनि २७८
उनि ३२२, ३२४, ३४७, ३३१
उनि ४५९, ४६१, ४६२, ४६५, ४७०, ४७४, ४७६
उनि. ११५ उनि ९३, १०७ उनि २८९
धणगुत्त (धनगुप्त )
भ्रणमित्त (धनमित्र)
धणसम्म (धनशर्मा) फग्गुरक्खिय ( फल्गुरक्षित) बलदेव (कृष्ण का भाई )
संख (शंख)
संभूय (संभूत) सागरचंद (सागरचन्द्र ) सामइय (मुनि)
मणग (मनक)
मुणिचंद (मुनिचन्द्र )
रहनेमि (रथनेमि ) उनि ४३७, ४३९, ४४१, ४४२, ४४३ उमि. १७२/७ रोहगुल (रोहगुप्त ) उनि ४५९, ४६१,
विजयघोस (विजयघोष )
सुमणुभद्द (सुमनुभद्र) सेवाल (शैवाल ) सोमदेव (आर्यत्रज के पिता)
हत्थिमित्त (हस्तिमित्र ) हत्थभूइ (हस्तिभूति)
रत्न
उनि . १७२/६ उनि ९१
उनि . ९१
उनि ९७
उनि . ११५
दर्शन. १४, १७, ३४८ उनि . ३२५
अगरु (अगरु )
आमिल ( ऊनी वस्त्र )
कट्ट (काष्ठ)
गंध (सौगंधिक द्रव्य )
७०७
४७४, ४७६,
उनि ३१४, ३१५ उनि ३२२, ३२४
उनि ३२५ सूनि . १९२ उनि ९४
उनि २४९, २९१
उनि ९७, १०९
उनि . ९०
उनि . ९०
चंदण (चन्दन)
चम्म (चर्म, सिंह आदि का )
लउ (कलई)
तंब (ताम्र ) तिणिस (तिनिश)
दंत ( दांत, हाथी आदि के ) दोसह (पीपर आदि औषधि) पवाल (प्रवाल)
पासाण (विजातीय रत्न)
बाल (चमरी गाय के बाल)
दशनि. २३२
दशनि. २३२
दशनि २३२
दशनि. २३२
दशनि. २३२
दर्शनि. २३२
दशनि २३१
दशनि २३१
दर्शन. २३२
दशनि २३२
दर्शन. २३२
दर्शन. २३१
दर्शन. २३१
दर्शन. २३२
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________________
७०८
मणि (मणि)
मोत्तिय (मुक्ता) रयम (चांदी)
लोह (लोहा)
वर (वज्र )
वत्थ (वस्त्र)
संख (शंख)
सीसग (सीसा)
सुवण्ण (स्वर्ण)
हिरण्ण (रुपया)
राजकुमार
अद्दसुत (आर्द्रककुमार) कालवेय (कालवैशिक)
दढनेमि (दृढ़नेमि) पोंडरीय (पुण्डरीक)
बलसिरी (बलश्री) भद्द (भद्र)
महासाल ( महाशाल) सच्चनेमि (सत्यनेमि ) साल (शाल)
अद (आर्द्र)
उदयण (उदयन)
उद्दायण (उद्रायण) उसभ (ऋषभ)
उसुयार (इषुकार) कंपिल (काम्पिल्य)
कडग (कटक)
राजा
कण्डय (कटक) कणेरुदत्त (कणेरुदत्त) कित्तिसेण (कीर्तिसेन)
कोणिय (कोणिक)
'चंडवर्डिसय (चन्द्रावतंसक )
दशनि २३१ दशनि २३१
दशनि २३१
दर्शन. २३१
दशनि. २३१
दर्शन. २३२
दर्शन. २३२
दशनि. २३१
दशनि २३१, ३२५ दशनि. २३१
चारुदत्त (चारुदत्त) चित्तसेअ (चित्तसेनक)
सूनि १८८ उनि. १९६
उनि ४४१
उनि २८६, २८८
उनि ४०२, ४०४
उनि ११७ उनि २७७
उनि . ४४१, ४४२
उनि २७७
सूनि. ९८८ उनि १४८
उनि ३५३, ३५५, ३५९
उनि ३६५ उनि . ३२८
दनि ९६ उनि . ३३२
उनि. ३२८, ३४९ उनि . ३२८
उनि ३३१
दशनि. ७४
उनि . ३२५
उनि ३३२
उनि ३३१
जियसत्तु ( जितशत्रु) दंड (दंडकी )
दंडगी (दंडकी)
नंद (नन्द)
दीह (दीर्घ)
पंथक (पन्थक)
पज्जुनसेण (प्रद्युम्नसेन )
पज्जोय ( प्रद्योत )
पण (प्रसेनजित् )
पुष्कचूल (पुष्पचूल) पोत (पोत)
बंभ (ब्रह्म)
बलभद्द (बलभद्र )
बलसिरि (बलश्री) भिकुंडि (निकुंडि) मिहिलापति (नमिराजा )
महिलाहित्र (नमिराजा )
विसाहदत्त (विशाखदत्त )
संजत (संजय)
संजय (संजय)
निर्युक्तिपंचक
'उनि. ११२, ३४३ उनि . ११३ उनि ११२
उनि १०१
उनि. ३२८, ३४६ उनि . ३३१ उनि ३३४
दशनि. ७८, उनि ९५ ९६.
सूनि . ५७, दनि ९२, ९७
उनि २४६ उनि . ३२८
उनि . ३३३
उनि ३२८
समुद्दविजय (समुद्रविजय ) सीमंधर (सीमन्धर)
रानी
इंदजसा (इंद्रयशा)
इंदव (इन्द्रवसु)
इसिवुद्धि (ऋषिवृद्धि) इंदसिरी (इन्द्रश्री)
कच्चाइणी (कात्यायनी )
कमलावई (कमलावती )
करेणुदत्ता (करेणुदत्ता)
करेणुपदिंगा करेणुपतिका )
करेणुसेणा (करेणुसेना)
कित्तिमई (कीर्तिमती)
कुंजरसेणा (कुंजरसेना)
उनि . १७२/४, ४०३ उनि. १७२/७
उनि ३४३
उनि २६३
उनि २६७
उनि ३४४
उनि ३८८, ३९४
उनि. ३८५, ३८६
उनि ४४०
उनि ३६६
उनि ३३०
उनि ३३० उनि ३३५
उनि ३३०
उनि ३३२
उनि . ३५९
उनि ३३५
उनि २३५
उनि ३३५
उनि ३३१
उनि ३३५
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________________
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
कुरुमती (कुरुमती) कुसकुंडी (कुसकुंडी)
उनि ३३५, ३५२ उनि ३४३
गोदत्ता ( गोदत्ता)
उनि ३३५
उनि ३३०
चलणि (चुलनी)
जसवई (यशोमती)
दीवसिहा (दीपशिखा )
देवी (देवी)
धारिणी ( धारिणी)
नागजसा (नागयशा)
नागदत्ता (नागदत्ता)
पत्तिया (पतिका) प्रभावई (प्रभावती) पिंगला (पिंगला)
पुत्थी (पुस्ती)
पुरंदरजसा (पुरन्दरयशा )
भद्दा (भद्रा)
मलयवती (मलयवती )
मिगदेवी (मृगादेवी)
मिया (मृगादेवी)
रयणवई (रत्नवती)
बच्छी (वत्सी)
वणराइ (वनराजि)
वाणीरा ( वानीरा) वासवदत्ता ( वासवदत्ता)
विज्जुमती (विद्युन्मती) विज्जुमाला (विद्युन्माला)
सिला (शिला)
सिवा (शिवा)
सुभद्दा (सुभद्रा)
सीमा (सोमा)
हरिएसा (हरिकेशा)
रोग
अच्छिवेयणा ( अक्षिवेदना)
अभत्तछंद (अजीर्ण)
अवहेडग (अर्धशिरोरोग)
उनि ३३२
उनि ३३३
उनि ३३२
उनि ११२
उनि. ३२१
उनि ३३२
उनि . ३३४
उनि ९६, दनि ९६
उनि ३३३ उनि ३३३
उनि. ११२ ११३
उनि . ३३१
उनि . ३३४
उनि ४०२
आमदोस (आमदोष)
कंडु (खाज)
कास (खांसी)
उनि . ८५
उनि . ८५
उनि १५०
कुच्छिवेयणा (कुक्षिवेदना) चाउत्थिग (ज्वरविशेष )
जर (ज्वर)
तिमिर ( आंख का रोग) तेइज्जग (ज्वर विशेष )
मूसगावरद्ध (चूहे का काटा हुआ ) सप्पावरद्ध (सांप का काटा हुआ) सास ( त्रास रोग) सिरोरोग (शिरोरोग)
हिग्सूल (हृदयशूल )
अवय (अवक)
उच्छु (इक्षु)
ओसिर (ओसीर)
उनि . ४०३
उनि . ३३२
उनि ३३२
उनि ३३४
उनि ३३४
उनि १४८
उनि ३३१
उनि ३३१
उनि ३३२
उनि ४४०
उनि ३१७
उनि ३३४ तिणिस (तिनिस)
उनि ३३५
लब्धि
सव्वक्खरसन्निवाय (सर्वाक्षरसन्निपात) सूनि . १८९
वनस्पति
कणगमूल (कनकमूल )
कणियार ( कनेर)
कत्थ (कल्थ)
करमंदि (करमर्दी, गुल्मविशेष)
किन्हय ( किण्त्र)
खर (खदिर)
जमदग्गिजडा ( जमदग्निजटा)
तंबोल (तंबोल)
तमालपत्र ( तमालपत्र )
दक्खा ( द्राक्षा)
धायगी (धातकी)
७०९
दशनि. ३४१
उनि.८५, १५० उनि . ८५
उनि ८५
उनि १५०
उनि. ८५
उनि . १५०
उनि . १५०
उनि १५०
उनि १५०
उनि . ८५
उनि . १५०
उनि . १७२/४
पणय ( पनक)
विल (बेल)
भाणिय (भाणिक)
आनि. १४१
दशनि २७७
दशनि. १४७
उनि . १४९
दशनि. १३३
आनि . १४१
उनि . ४८६
आनि. १४१
आनि. २४०
उनि . १४६
आनि. २८७
उनि . १४७
दर्शन. १३३
उनि १५१
उनि १५१
आनि. १४१
उनि १४०
आनि. १४१
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________________
नियुक्तिपंचक
वाद्य
तूर (तुर्य) नंदी (वाद्य) मुकुंद (मुकुन्द) संख (शंख)
उनि.१५२ उनि. २६
उनि.१५२
सूनि.७
वायु
राई (राई)
उनि.१४० वंस (बांस)
दनि.१०३ वेत (बांस)
सूनि.१०८ सतपुष्फ (शतपुष्प)
उनि.१४७ सपिण्णिय (तमालपत्र)
उनि.१४६ सबरनियंतणिय (शबरनिवसनक) उनि.१४६ सरस (आईक)
उनि.१४९ सरिसव (सर्षप)
उनि.१४० सेवाल (शैवाल)
आनि.२४१ हड (हट)
आनि.१४१ हरेणुया (प्रियंगु) हलिद्दा (हरिद्रा)
दनि.१०३ हिरिबेर (हीबेर)
सनि १४७ ___ वर्णान्तर अंबट्ट (अम्बष्ठ) आनि.२२, २३, २६ अंबट्टी (अम्बष्ठी)
आनि.२६ अजोगव (अयोगव) ___ आनि.२२, २४ उग्ग (उग्र)
आनि.२२, २३, २६ कुकुरअ (कुकुरक)
आनि २७ खत्त (क्षत्र)
आनि २२, २४, २६ खत्ता (क्षत्रिया)
आनि.२६ चंडाल (चाण्डाल) उनि.३१६, आनि.२२. २५ निसादी (निषादी)
आनि.२७ निसाय (निषाद) आनि.२२. २३, २६ परासर (पराशर)
आनि.२३ बुक्कस (बुक्कस)
आनि.२६ मागह (मागध)
आनि.२२, २४ वेणय (वेणव)
आनि.२६ विदेह (विदेह)
आनि.२६ वेदेह (वेदेह)
आनि.२२, २४ सुद्द (शूद्र)
आनि.२४, २६, २७ सुद्दी (शूद्री)
आनि.२६ सूय (सूत)
आनि,२२, २४ सोवाग (श्वपाक)
आनि.२६
उकलिया (उत्कलिका) आनि.१६६ गुंजा (गुंजा)
आनि.१६६ घणवाय (घनवात)
आनि-१६६ मंडलिया (मंडलिका)
आनि.१६६ सुद्धवाय (शुद्धवात)
आनि.१६६
वाहन नावा ( नौका)
आनि.३३४ रह (रथ)
उनि.४६ सगड ( शकट)
उनि.१८६ विद्याविशेष उलुगी (उलूकी, काकविद्या
की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ ओवाई (उल्लावकी, पोताक्रीविद्या
की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ कागी (काकीविद्या)
उनि.१७२/८ नउली (नाकुली, सर्पविद्या
की प्रतिपक्षी) उनि. १७२/९ पोयाई (पोताकीविद्या) उनि.१७२४८ बिराली (बिडाली, मूषकविद्या की प्रतिपक्षी)
उनि.१७२/९ मिगी (मृगीविद्या)
उनि.१७२८ मूसग (मूषकविद्या)
उनि.१७२१८ मोरी (मायूरी, वृश्चिकविद्या
की प्रतिपक्षी) उनि. १७२४९ बग्घी (व्याघ्री, मृगीविद्या
की प्रतिपक्षी) उनि.१७२४९ वराही (वराहीविद्या) उनि.१७२।८ विच्छुय (वृश्चिकविद्या) उनि.१७२८ सप्प (सर्पविद्या)
उनि.१७२८
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________________
परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम
सोही (सिंही, वराही विद्या की प्रतिपक्षी)
विशिष्ट मुनि
अहिमार (अभिमार)
एरंड (एरण्ड)
अहालंद (यथालंदक)
आयारधर ( आचारधर )
सव्वक्खरसन्निवाइ {सर्वाक्षरसन्निपाती)
वृक्ष
चूतरुक्ख (आम्रवृक्ष)
चूयपादव (आम्रवृक्ष)
ताल (ताड़)
नालिएर (नारियल)
भद्ददारु (देवदारु)
वंजुल (वझुल) घडपायव (वटवृक्ष) सरल (चीड़)
सिंबल (सिम्बल)
व्यक्ति
अज्जुणय (अर्जुनमाली)
उक्कल (उत्कल)
कंचुग (कंचुक)
कलिंग (कलिंग) गोतम (गौतम नैमित्तिक) दुरूतग (दुरूतग ग्रामीण)
देवदत्त (देवदत्त)
नलदाम (जुलाहा ) परासर (पाराशर कृषक)
बलभद्द (बलभद्र चोर) मरुय (मरुक किसान )
शस्त्र
उनि १७२/९
असि (तलवार)
असिय (तलवार)
असियग (तलवार)
आलित्त (आलित्रक)
दनि. ६२
आनि १०
३१०
उनि १५२
आनि. २४०
उनि . २६८
उनि ३४८
आनि - १३३
आनि. १३३
उनि १४७
दर्शन - १३३
उनि ३३७
आनि. १३३
सूनि. ८१
उनि . १११
आनि. ३२३
उनि ३५२
आनि ३२३
आनि. ३२३
दनि ९४
दशनि. ६०
दशनि - ७७
उनि ११५ उनि - २५१
दनि १०४, १०५
सूनि ७२ दनि. १००
आनि १४९
आनि. ९५
कप्पणी (करवत)
करकय (करवत)
कुद्दाल (कुदाल )
कुहाडि (कुठारी) कोंत (भाला)
चल (क)
तिसूल ( त्रिशूल )
तोमर (भाला)
दत्तिय (दांती )
परसु (परशु )
मंडलग्ग (मण्डलाग्र )
मुग्गर ( मुद्गर )
बासि (बसौला)
सत्ति (शक्ति, सांग)
सूइय (सूई)
सूल (शूल)
श्रमणोपासक
खंडरक्खा (खंडरक्षा ) गंधार (गान्धार)
ढंक (ढंक)
मितसिरी (मित्र श्री )
सुनन्द (सुनन्द )
कुरुदत्त (कुरुदत्त)
तावस (तापस)
दारुय (दारुक)
धण (धन)
धणगिरि (धनगिरि) धणदेव ( धनदेव )
पज्जुण्ण (प्रद्युम्न)
वसुमित्त (वसुमित्र )
श्रेष्ठी
सागरदत्त (सागरदत्त )
सालिभद (शालिभद्र)
सिंधुदत्त (सिन्धुदत्त)
सिंधुसेण (सिंधुसेन)
७११
आनि . १४९
सूनि. ८९
आनिं. ९५
आनि. १४९
सूनि ७२
उनि ९६१
सूनि ७२
सूनि ७२
आनि. १४९
उनि . ३७०
सूनि. ५१
उनि.८८
आनि. १४९
सूनि ७२
सूनि ७२
सूनि ७२
उनि . १७२/५
उनि ९५ उनि. १७२/२
उनि १७२/३ उनि १९८
उनि १०८
उनि १००
उनि ३३३, ३५१
उनि २४६, दनि. १०८
उनि . २८८ उनि ३३३
उनि ३५२
उनि ३३३
उनि ३३३
उनि २४६
उनि ३३४
उनि . ३३४
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________________
७१२
नियुक्तिपंचक
दशनि.७२ उनि.४४४
सिवदत्त (शिवदत्त वणिक्) उनि.३४४ ।। मिगावई (मृगावती) सुंदसण (सुदर्शन) उनि. १११, ३३३, ३५१ रायमती (राजीमती) संस्थान
सार्थवाह आयय (आयत) उनि-३८, ४०, ४१
उदधि (उदधि) चउरंस (चतुरस्त्र)
उनि.३८, ४०
पालिग (पालिक) तंस (त्र्यस्त्र)
उनि. ३८, ३९ परिमंडल (परिमण्डल)
पालिय (पालिक)
उनि.३८ परिमंडलग (परिमण्डल)
उनि.४१
समुद्दपाल (समुद्रपाल) वट्ट (वृत्त)
उनि.३८
हेतु साध्वी
जावग (यापक) अणोज्जा (अनवद्या)
उनि.१७२/२ थावग (स्थापक) पंडरवा (पाण्डुरा) दनि.११०, १०४ लूसग (लूषक) भद्दा (भद्रा)
उनि.९३ वंसग (व्यंसक)
उनि ४२९ उनि.४२५ उनि-४२९ उनि.४२८
दशनि.८३, ८४ दशनि.८३, ८४ दशनि.८३, ८५ दशनि.८३, ८५
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________________
परिशिष्ट १४
वर्गीकृत विषयानुक्रम
२०१
अकारकवाद अग्न अजीव अध्ययन
दशनि.६२ सूनि.१८८-२०१ दनि.१५-१९,२४ सूनि.१७०-७८ उनि.३५३ ६६ आनि.३२८-३३ आनि.३४४, ३४५ उनि.१.२ उनि.३,४, १३-२७, ५५२.
ईया
उत्तर
अनगार अनशन अनाचार अनुयोग अपकाय अप्रमाद
अर्ध
अलं अवग्रह अवयव अहिंसा आचार आचारांग
उनि.१४४-६२ सूनि-३४, ३५
आत्मा की आनि.३०५-३०७
परिणमनशीलता उनि.५४६, ५४७
आर्द्रक दशनि.२६, २७,३०,उनि.५- आशातना ७, ९, ११, २८८२, ४, ५.३८, आहार ५३९, सूनि.१४३,
इपुकार उनि.५४१, ५४२ आनि.२८७
उच्चार-प्रस्रवण दशनि.२४४ दशनि.३-५
उत्तराभ्ययन आनि.१०६-१५ उनि.४९१,५००
उदाहरण दशनि.२२६-३५
उपधान सूनि.२०२, २०३
उपसर्ग आनि.३३९-४२
उपासक दशनि.१२३-१२३/११
उपासक-प्रतिमा दशनि.४२, आनि.२२६, २२७ ।। उरभ्र दशनि.१५४.६१, उनि. १७९ कथा आनि. ७-१७, ३१-३५, कपिल १९७-९९, २१५, २१६,
करण २३६-३८, २५०, २५१, कर्म २५३-६३, २६७, २६८, २७१-७५, २९५,२९९
कषाय आनि.३०७-११, ३१७, ३२६, ३२७, ३३४, ३३५,
काम ३४३, ३६४ दर्शन. २८, उनि.८, कामगुण सूनि.१३०, १३१
कामलालसा दनि.१२९-३७, १४२ कुशील दशनि.७१, २०२
कोटि दशनि.५९-६१, ७३-७६, क्रिया
दशनि.४७-८२ आनि.३००-३०४ सूनि.४७-५० दनि-३५-३७, ३९ दनि.४४/१ उनि.२३८-२४२/१ दशनि.१६२-८८ उनि.२४३-५२ उनि.१७६-९७, सूनि.४-१६ उनि.५२२-२४, आनि.१९३१५, दनि. १२४-२६ दशनि. २७६-७८, आनि. १९२, दनि.१०१-१०४/१ दशनि.१३७-४१, २३६-३९, उनि.२०० आनि.१८६ आनि.२३३,२३४ सूनि.९० दशनि.२१९/१-२२१/१ सूनि.१६६, १६७
आचारान
आचार्य
आजाति/निदान आत्मकर्तृत्ववाद आत्मा
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________________
७१४
नियुक्तिपंचक
शुल्लक खलुक गद्यकाव्य गणी गति गाथा गुण गणश्रेणिविकास गेय गौतम
दशनि.७-२५,१८९,२८५, ३४८, ३४९ दनि.२-७ आनि.४०-६२ उनि.१९८, १९९ दशनि ३१, ३२, उनि २७३-७६ दशनि.३४ उनि-१९८, १९१ दशनि.२८२ दर्शान. ३६-४०,८६-९०, २२३-२५, २४१, सूनि.९९
ग्रंथ
चतुर्वर्ण
चरण
धुत
चारित्रआचार चित्त चित्र-संभूत
उनि.४१६
दशवैकालिक उनि,४८२-९० दशनि.१४७
दशा दनि. २५-२८, ३०, ३१ दिशा उनि. ४९५, ४९६
दीप सूनि.२३, १३७-४० आनि.१७९-८२
द्रुमपुष्पिका आनि.२२३, २२४
द्वीप दशनि.१४९
दुष्प्रणिहित उनि.२७७-३०२, ४४५-४७ धर्म उनि २३४.३६
आनि.१९ उनि. ३७७, ५०९, ५१०, धर्मप्राप्ति के आनि.२९, ३०
बाधक तत्व दशनि.१५२ दनि.३२-३३/१
नमि उनि.३२२-२७
नय दशनि.३३४-३६
नरक उनि.४६०-७६
मारकीय वेदना आनि.३३६
निक्षेप आनि.६३-६७
नित्यानित्यवाद दशनि. १९३-२०१, उनि. निर्ग्रन्थ ५४४, ५४५
निह्नववाद दशनि. १९९,२००
पंचभूतवाद दशनि.६६-६८ दशनि.१५८ सूनि.१२२-१२४
परमाधार्मिक देव दशनि. ४४, ४५, उनि.५०५, परिज्ञा ५०६, आनि. २०९.२९२, २९३, २९६,२९८
परीषह दशनि.१६० आनि.२९५-९७
पर्युषणा आनि.११६-२५ आनि.१५२-६३ दशनि.२२३-२४०४१ पुण्डरीक दशनि. १५७, १५७४१ पुष्प
जयघोष
जात
जातिस्मृति जीव
जीव के लक्षण जीवत्व-सिद्धि ज्ञान आचार तथ्य तप
उनि.१६३, १६४ आनि.२५१, २५२ उनि.२५३ ५५,२६३-६७ दशनि.१२५, १२६ सूनि.६२, ६३ सूनि.६५ आनि.४ दशनि.५५,५६ उनि.२३१-३३, २३७, ४१७ ४२२ उमि.१६७-१७२/१५ सूनि.३३ दशनि.१४२-५२ दशनि.१४८ सनि.६६-८२ आनि, ३७, २६७.६९, सूनि.१७९ उनि.६६-१४१, आनि-२०२२०४ दनि:५३-१००, १०५-२० उनि.३८०, ३८१ दशनि. २१७/१-२१९ सूनि.१४४-१६५ दशनि.३३
पद्य
तप आचार तीर्थकर तेजस्काय उसकाय त्रिवर्ग दर्शन आचार
पाप पिडैषणा
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________________
परिशिष्ट १४ : वर्गीकृत विषयानुक्रम
पुरुष
पूजा पूर्व पृथ्वीकाय
सूनि.५६ उनि.३०८-१० दशनि.१३६ आनि.६८-१०५ उनि.५२५-२८ दशनि.२६९-७५, २७९-८१ दनि. ४१,४२, ४६.५०,
महाव्रत
आनि.३१५, ३१६ माधुकरी भिक्षा दर्शन. ९२-१०५, ११३
१२०/४ मार्ग
उनि. ४९३. ४९४, सूनि.१०७
प्रकृति
११५
मिथ्यादृष्टि मित्रभाषा
मूल
प्रणिधि प्रतिमा प्रतिमाप्रतिपन्न के गुण प्रत्याख्यान प्रत्येकबुद्ध प्रमाद
मृगापुत्र मृषाभाषा मोक्ष
उनि.१६५, आनि.२२०, २२१ दशनि.२५१ आनि.१८३, १८४ उनि.३९९-४१५ दशनि.२५० उनि.४९१, ४९२ आनि.१८७-८९, दनि.१२१-२३ दनि.१२७, १२८ उनि.४५७-५९ दशनि. ३३७-३९, ३४१,
मोह
दनि.५१, ५२ सूनि.१८०, १८१ उनि.२५७-७२ उनि.१७३, १७४.५१७-२१,
५१४,५१५ उनि.४५२, ४५३ उनि.४५६ उनि.२५६ दनि.१३८-४१ उनि.३०३, ३०४ उनि.३७५, ३७६, आनि.१८,
मोहनीय स्थान यज्ञ
प्रवचन प्रवचनमाता प्रव्रज्या बंध बहु ब्रह्म
जति
ब्रह्मदत्त
रथनेमि लेश्या लोक लोकसार वनस्पतिकाय वर्णान्तर वाक्य वायुकाय विकथा विजयघोष
भद्रबाहु
भावना भाषा भाषाविवेक भिक्षु
उनि.४३७-४४ उनि.५२९-३७, ५४० दशनि.२१०, आनि.१७६-७० आनि. २४४, २४५ दशनि.२१५ आनि.१२६-५१ आनि.२०-२७ दशनि,२४५, २४६
आनि.१६५-७२ दशनि.१८०, १८२. १८४ उनि.४७०-७६ उनि.५११-१३ दशनि.२८६-३०३ उनि.५४८-५१, सूनि,६४ आनि.२७६-८१ दनि. १०७-१२ सूनि.९१-९७ दशनि.१६१ दशनि.२५२, २५३
उनि.३३०-५२ दनि.१ आनि.३४९-६३ दशनि.२४७-५८ दशनि.२६६-६८ दशनि.३०५-२५, ३३०-३२ उनि.३६७-७२ दशनि.४१ सूनि.४३, ४४ आनि. १९६ उनि.२०१-२९, आनि.२८२-८६ दशनि. १५३, उनि. २३०,
आनि. २६४-६६, सूनि.८३, १४२
विधि
मंगल
मद
ममत्व
मरण
विनय विभक्ति विमोक्ष विहंगम वीर्य वीर्याचार व्यवहार भाषा
महत्
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________________
७१६
शकल
शय्या
शस्त्र
शिष्य
शीत
शील
शीलवादी
शुद्धि
शूर
शैक्ष
श्रमण
श्रुत
संजय
संज्ञा
संपदा
संयम
संयोग
संलेखना
संसार
सत्यभाषा
समय
दनि. १२-१४
आनि. ३२१-२०
दशनि २१३, २९४, आनि. ३६,
सृनि. ९८
सूनि . १२७
आनि. २०० २०२, २०५ - २०७
सूनि. ८६, ८७
सूनि. ८९
दशनि २५९.६१
सूनि. ६०
सूनि . १२८, १२९
दशनि. १२८- ३५, २४३,
उनि ३८२-८४ आनि. २१०
१२, २२५
'उनि. २९, ३०५-३०७
५०१-५०३
उनि ३८५-९८
आनि. ३८, ३९
दनि. २९
दर्शन. ४३, आनिं. ३१३, ३१४
उनि. ३०.६४
आनि. २८८- ९१
आनि. १९२, १९२/१
दशनि २४९
सूनि, ३२
समवसरण
समाधि
समुद्रपाल सम्यक्चारित्र
सम्यक्त्व
सम्यग्दृष्टि
साधु
साधुचर्या
सम्माचारी
सार
सिद्धि
सुप्रणिहित
सूत्र
सूत्रकृतांग
स्तुति
स्त्री
स्थान
स्थावरकाय
में वेदना
स्वर्ण
हरिकेशबल
हेतु
निर्युक्तिपंचक
सूमि. ११६-- २० दशनि. ३०४, उनि ३७८, सूनि. १०४ - १०६,
दनि. ९, ३३ / २,३४
उनि ४२३ - ३६ आनि. २३५
आनि. २१७-१९
उनि १६६, आनि. २२२
दशनि. १२९, १२२
दशनि, ३४७
उनि ४७७-८९
आनि २४०४३
दशनि. ३४३
दर्शन. २८३
सूनि. ३
सूनि. २, १८ - २२, २४-३१
सूनि ८४
सूनि. ५५,५७-५९,६१
उनि ५१६, ३७९, आनि,
१८५, सूनि. १६८, दनि. १०
आनि. ९७, ९८
दशनि. ३२६-२८
उनि. ३११-२१
दर्शान. ८३-८५
Page #815
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________________
प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
ग्रन्थ नाम
| लेखक, संपा., व्या., अनु.] संस्करण
प्रकाशक
अणुओगदाराई
प्रसं. १९९६
| जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. आचार्य महाप्रज्ञ जिनदासगणी
अनुयोगद्धार चूर्णि
डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर पतञ्जलि
प्रसं. १९२८ | श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे.
संस्था, रतलाम | द्विसं १९९०
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली चसं. १९९२ रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़
अनुवाद कला अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति भाग १ अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति
| पताल
चसं १९८९ | श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट,
अमृतसर
| पं. दलसुखभाई मालवणिया | द्विसं. १९९० | प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
भाग-२ आगम युग का जैन दर्शन आचारांग चिंतामणि टीका आचारांग चूर्णि
जिनदासगणी
| प्रसं. १९४१ / श्रीऋषभदेव केशरीमल
श्वे संस्था, रतलाम | प्रसं १९७८ | मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली | प्रसं. १९९९ | जैन विश्द भारती, लाडनूं
आचारांग टीका आचारांग नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)
आचारांगभाश्यम्
प्रसं. १९९४ - जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
आचार्य शीलांक वा. प्र. गणाधिपति तुलसी प्रसंपा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा वा. प्र. गणाधिपति तुलसी भा, आचार्य महाप्रज्ञ संपा. शूबिंग वा. प्र. आवार्य तुलसी
संपा मुनि नथमल | जिनदासगणी
आचारांगसूत्रम् आयारो
प्रसं.वि. २०३१/ जैन विश्व भारती, लाडनूं
आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग)
आवश्यकचूर्णि (उत्तरभाग) जिनदासगणी आवश्यकनियुक्ति भाग १, २ | आचार्य भद्रबाहु
प्रसं. १९२८ | श्रीऋषभदेव केशरीमल
श्वे. संस्था, रतलाम प्रसं. १९२९ । वही प्रसं.वि. २०३८ श्री भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी,
धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई | प्रसं. १९२८ | आगमोदय समिति, बम्बई
आवश्यकनियुक्ति मलयगिरि | आचार्य मलयगिरि टीका
Page #816
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________________
-७१८
ग्रन्थ नाम
आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय
टीका
आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय
टीका
आवश्यक संग्रहणी
उत्तराध्ययन, भाग १
उत्तराध्ययन, भाग २
उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक
अध्ययन
उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका
ऋग्वेद संहिता
ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति द्रोणाचार्य टीका
कर्मग्रन्थ ( शतक)
कर्म प्रकृति कषाय पाहुड़ - भाग १
कामसूत्र
लेखक, संपा, व्या, अनु. संस्करण
आचार्य हरिभद्र
उत्तराध्ययन चूर्णि
उत्तराध्ययननियुक्ति (निर्युक्तिपंचक) उत्तराध्यमन शान्त्याचार्य टीका शांत्याचार्य
आचार्य हरिभद्र
वा. प्र. आचार्य तुलनी
| संपा. युवाचार्य महान
वा. प्र. आचार्य तुलसी
| संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ
वा. प्र. आचार्य तुलसी विवेचक मुनि नथमल
'जिनदासगणी
आचार्य भद्रबाहु
संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा
आचार्य नेमिचन्द्र
संपा. नारायण शर्मा
चिंतामणि शर्मा
आचार्य भद्रबाहु द्रोणाचार्य
व्या. मुनि श्री मिश्रीमल
आचार्य गुणधर चूर्णिकार यतिवृषभ
संपा. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री
वात्स्यायन
अनु. एस. सी. उपाध्याय
प्रसं वि २०३८ ! भेरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई
प्रसं. चि. २०३८ भेरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई
प्रसं. १९६८
द्विसं. १९९२ जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूंं जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं
द्विसं. १९९३
प्रसं. १९३३
प्रसं १९९९
प्रसं. १९१७
प्रसं. १९३७
प्रसं. १९४६
प्रसं. १९१९ प्रसं. १९१९
निर्युक्ति पंचक
प्रसं. १९७६
प्रकाशक
प्रसं. १९७४
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी
महासभा, कलकत्ता- ।
ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम जैन विश्व भारती, लाडनूं
देवचन्द्र लालभाई जैन
पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई पुष्पचन्द्र सेमचन्द्र वलाद
वैदिक संशोधन मण्डल, तिलक मैमोरियल, पूना- २ आगमोदय समिति, मेहसाणा देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूर
श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति ब्यावर
भा. दि. जैन संघ, चौरासी, मधुरा
तैरापुरावाला २१०, नौरोजी रोड, बम्बई
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________________
प्रयुक्त अन्य सूची
ग्रन्थ नाम
प्रकाशक
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
| लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण | स्वामीकुमार
| दृसं १९९० ।
श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास
कौटिलीय अर्थशास्त्र
ले चाणक्य संपा. वाचस्पति नैरोला संपलाई मालवणिया
चसं १९९१ | चौखम्जा विद्याभवन, वाराणसी सं. १९८२ | राजस्थान प्राकृत-भारती, जयपुर
गणधरवार
गीता
द्विसं.वि.२०५३ , गीता प्रेस, गोरखपुर
गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव | डॉ. सागरनल जैन और विकास
१९९२
पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी
गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गौतमधर्मसूत्राणि
चंदावेज्य पइण्ण्य
जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति (उवंगसुत्ताणि खण्ड-२)
जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति टीका
जयधवला
चामुण्डराय
प्रसं. १९७२ श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास | संपा. डॉ. उमेश्चन्द्र पाण्डेय | उसं १९६६ यौरवम्या संस्कृत सीरीज, वाराणसी
| प्रसं. १९८४ श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई वा.प्र. आचार्य तुलसी | प्रसं. १९८९ । जैन विश्व भारती, लाडनू संपा. युवाचार्य महान आचार्य शांतिचन्द्र प्रसं. १९२० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार
फण्ड, बम्बई संपा फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री | प्रसं. १९७४ वर्धमान मुद्रणालय गौरीगंज,
बाराणसी -१ अनु. भदन्त आनन्द द्विसं. १९८२ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग कौसल्यायन आ. सिद्धसेनगणी प्रसं १९२६ जैन साहित्य संशोधक समिति, संपा. जिनविजय जी
अहमदाबाद जिनभद्रगणी
बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, संग. मुनि पुण्यविजयजी
अहमदाबाद वा. प्र. आचार्य तुलसी | प्रभा १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ | डॉ. जगदीशचन्द्र जैन प्रसं. १९६५ चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी
जातक
जीतकल्पचूर्णि
जीतकल्पभाष्य
जीवाजीवाभिगम (उवंगसुत्ताणि खण्ड१) जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज जैन धर्म जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
चकैलाशचन्द शास्त्री | डॉ. देवीप्रसाद मिश्र
उसं.१९६६ भा. दि. जैन संघ, मथुरा प्रसं. १९८८ | हिन्दुस्तानी ऐकेडमी, इलाहाबाद
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________________
७२०
नितांत प.
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण
प्रकाशक डॉ. मोहनचंद
प्रसं १९८९ | इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास | डॉ. मोहनलाल मेहता भाग २
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन जैनसिद्धान्तदीपिका
आचार्य तुलसी
संपा. मुनि नथमल ज्ञाताधर्मकथा
41. प्र. आचार्य तुलसी (अंगसुत्ताणि भाग-३) संपा. मुनि नया
द्विसं. १९८२ | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध, संस्थान,
वाराणसी | चस: १९९६ आदर्श साहित्य संघ, चूरू
प्रसं. १९७४ |
जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)
ठाणं
वा.. अचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल
प्रसं गि.२०३३ || | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज)
| प्रसं. १९८४ | तृसं. १९८९
श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
संपा प्रो. महेन्द्रकुमार
तंदुलवेयालिय पइण्णध तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्टिक) भाग १ तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) भाग २ तत्त्वार्थश्रुटसागरीय वृत्ति
संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार
दिसं. १९९० भारतीय ज्ञानपीठ. नई दिल्ली
विसं. २००५भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
श्रुतसागरसूरि संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार
दक्षसंहिता
तत्त्वार्थसूत्र
द्विसं. १९८५
पाश्र्वनाथ विद्याश्रम पोध संस्थान, वाराणसी-५ जैन विश्व भारती. लाडनूं
दशवकालिक (नवसुताणि)
प्रसं. १९८७
आचार्म उम्गस्वाति व्या. पं. सुखलाल स्पी वा प्र आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी विवेवक-मुनि नथमल संपा. मुनि पुण्यविजय
दशकालिक: एक समीक्षात्मक अध्ययन
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकता
दशवकालिक अगस्त्यसिंह
प्रसं. १९७३
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद
चूर्णि
दशवैकालिक जिनदास चूर्णि
जिनदासगी
प्रसं १९३३
श्रीऋषभदेव केशरीमल श्वे संस्था, रतलाम जैन विश्व भारती, लाडनूं
प्रसं १९९९ ।
दशवकालिक नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)
आचार्य भद्रबाहु संपा. समणी कुसुमज्ञा
दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका
आचार्य हरिभद्र
देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार सूरत
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________________
प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
ग्रन्थ नाम
दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि
दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति (नियुक्तिपंचक)
दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति : एक
अध्ययन
दसवेआलियं
दसवे आलिय तह उत्तरज्झयणाणि देशीवशब्दकोश
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका
धम्मपद
धवला
नंदी
नंदीचूर्णि
नंदी मलयगिरि टीका
नंदी हारिभद्रीय टीका
; निशीथ चूर्णि भाग १-४
निशीथ भाष्य
पंचवस्तु
पचकल्प भाष्य
लेखक, संपा, व्या, अनु.
जिनदासगणी
आचार्य भद्रबाहु संपा. समणी कुसुम ज्ञा
डॉ. अशोककुमारसिंह
वा. प्र. आचार्य तुलसी
संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी
संपा. मुनि नथमल
वा. प्र. आचार्य तुलसी प्र. संग. युवाचार्य महाप्रज्ञ
संपा. मुनि दुलहराज आ. सिद्धसेन दिवाकर
संपा डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन
संपा. हीरालाल जैन
वा. प्र आचार्य तुल्सी
संपा. आचार्य महाप्रज्ञ
जिनदासगणी
संभा. मुनि पुण्यविजय
आ मलयगिरि
आचार्य हरिभद्र
संपा. मुनि विजय संना उपाध्याय अमरमुनि
मुनि कन्हैयालाल
संस्करण
प्रसं. २०११
प्रसं. १९९९
प्रसं. १९९८
द्विसं १९७४
विसं. २०२३
प्रसं. १९८८
असं १९७७
षसं. १९९३
प्रसं. १९४९
प्रसं. १९९७
प्रसं १९६६
प्रसं १९८०
प्रसं १९६६
द्विसं. १९८२
द्विसं. १९८२
वि २०२८
प्रकाशक
श्री मणिविजयजी गणी ग्रन्थमाला,
भावनगर
जैन विश्व भारती, लाडनूं
७२६
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान. वाराणसी
जैन विश्व भारती, लाडनूं
(राज.)
श्री जैन श्वे तेरापंथी महासभा,
कलकता
जैन विश्व भारती, लाडनूं
विजयलावण्यसूरि ग्रंथमाला ज्ञानोपासक समिति, बोयद बुद्ध भूमि प्रकाशन, नागपुर
जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती (बरार) जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद
आगमोदय समिति, महेसाणा
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
वही
आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, पारडी
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२२
नियुक्ति पंचक ग्रन्थ नाम | लेखक, संपा., व्या., अनु.| संस्करण प्रकाशक पंचसंग्रह पटजलिकालीन भारत डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री प्रसं. १९६३ | बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना पद्मपुराण
संपा. पन्नालाल जैन द्विसं. १९७७, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली परिशिष्ट पर्व आचार्य हेमचन्द्र प्रसं. १९८० | श्रीमती गंगाबाई जैन चेरिटेबल
ट्रस्ट, बम्बई पाणिनीकालीन भारतवर्ष वासुदेवशरण अग्रवाल | द्विसं. १९६९ | चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी पातञ्जलयोगदर्शनम्
हरिहरानंद आरण्य तृसं. १९८० | मोतीलाल धनारसीदास, दिल्ली पिंडनियुक्ति
आचार्य भद्रबाहु
प्रसं. १९१८ | देवचन्द्र लालभाई जैन पुरतकोद्धार,
बम्बई पिंडनियुक्ति टीका आचार्य मलयगिरि | प्रसं.१९१८ | देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार,
বই प्रभावकचरित
संपा. मुनि जिन विजयजी | प्रसं वि.१९९० सिंधी जैन ज्ञानपीठ प्रशमरतिप्रकरण
उमास्वाति
विस.२०४४| श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अमास
संना. पं. राजकुमारजी प्राचीन भारतीय संस्कृति प्रश्नोत्तर तरबोध
ध्वान आचार्य तुलसी । भ्रसं. १९८८ | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) प्रसंपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ
सं. मुनि मधुकर बृहत्कल्पभाष्य । सं मुनि चरविजय प्रसं. १९३६ | श्री आत्मानंद जैन सभा. भावनगर . बृहत्कल्पभाष्य टीका } मुनि पुण्यन्त्रिलय प्रसं. १९३६ | जैन आत्मानन्द सभा. भावनगर भगवई
वा. प्र. आचार्य तुलसी विसं. २०३१ | जैन विश्व भारती. लाडनूं (राज.) (अंगसुत्ताणि-२)
सं मुनि नथमल भगवती आराधना
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री सं. १९७८ | जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर भगवती टीका
आ. अभयदेव सूरि प्रसं १९१८ | आममोदय समिति, बम्बई भागवत महापुराण
पत् वि.२०२० गीता प्रेस, गोरखपुर भिक्षुन्यायकर्णिका आचार्य तुलसी
आदर्श साहित्य संघ. चूरू संपा. साध्वीप्रमुखा कनकनभः मज्झिमनिकाय
भिक्षु धर्म रक्षित द्विसं. १९६४ महाबोधि सभा, बनारस
सं. गोपालशास्त्री ने द्विस १९७० | चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी-१ मनोनुशासनम्
आचार्य तुलस वसं. १९८६ | आदर्श साहित्य संघ, चूरू महापुराण आचार्य जिनसेन प्ररं १९७५ | श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
शोलापुर महापुराणों में पुरुषार्थ चतुष्टय | डॉ श्री विलास गुडाकोटी | प्रा. १९९२ | इंडोविजन प्राइवेट लिमिटेड,
गाजियाबाद
वेदव्यास
मनुस्मृति
Page #821
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________________
प्रयुक्त ग्रन्ध सूची
७२३
प्रकाशक
ग्रन्थ नाम | लेखक, संपा., व्या., अनुः। संस्करण महाभारत भाग- २(वनपर्व) | रामचन्द्र शास्त्री किंजवडेकर द्विसं. १९७९ । ओरियण्टल बुक रीप्रिंट कारपोरेशन महाभारत भाग-३
ति. १९७९
वही
वही
महाभारत भाग- ४ (शांतिपर्व) | वही
द्विसं. १९७९ वही महाभारत भाग-६
वही
द्विसं. १९७९ | वही (अनुशासन पर्व) महाभारतकालीन समाज | सुखमय भट्टाचार्य प्रसं. १९६६ । लोक भारती प्रकाशन १५-ए,
महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद महाभाष्य भाग-२
व्या. युधिष्टर मीमांसक द्विसं.वि.२०४५ श्री प्यारेलाल द्राक्षादेवी न्यास, दिल्ली मूलाचार
आचार्य वट्टकेर द्विसं. १९९२ भारतीय ज्ञान पीठ. दिल्ली यजुर्वेद संपा. श्री रामशर्मा आचार्य | पंसं १९६९ | संस्कृति संस्थान ख्वाला कुतुब.
बरेली रयणसार कुन्दकुन्दाचार्य
वौनि.२५०० | वीर निर्माण ग्रन्थ प्रकाशन समिति संपा. डॉ. देवेन्द्रकुमार राजप्रपनीय
वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रसं १९८७ ] जैन विश्व भारती, लाडनं (उवंगसुत्ताशि, खंड १) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ विशेषावश्यक भाष्य
जिनभद्राणी क्षमाश्रमण वि.२०३९ | दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुंबई विशेषावश्यक भाष्य कोट्याचार्य | संपा. डॉ. नथमल टांटिया । प्रसं १९७२ । प्राकृत विद्यापीठ, वैशाली बिहार टीका विशेषावश्यक भाष्य मलधारी | मलधारी हेमचन्द्र । वि २०३१ | दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुंबई हेमचन्द्र टीका व्यवहार भाष्य
वा. प्र. आचार्य तुलसी प्र. संपा. आचार्य महाप्रज्ञ
संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा प्रसं. १९९६ लेन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं षट्खंडागम
ले पुष्पदंत भुतबलि प्रसं.१९४९ / जैन साहित्योद्धारक फंड, वीरसेनाचार्यकृत धवलाटीका
अमरावती (बरार) संपा. हीरालाल जैन षड्दर्शनसमुच्चय
डॉ. महेन्द्रकुमार जैन सं. १९८९ | भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली शौनक ऋक् प्रातिशाख्य समवाओ
वा प्र. आचार्य सुल्सी । प्रसं १९८४ ] जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)
संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ समवाओ प्रकीर्णक
वा. प्र. आचार्य दुलसी | प्रसं. १९८४ | जैन विश्व भारती लाडनूं, (राज.) संग युवाचार्य महाप्रज्ञ
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________________ 724 नियुक्ति पंचक ग्रन्थ नाम लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण प्रकाशक -- समवायांग टीका अभयदेवसूरि प्रो. सागरमल जैन सागर जैन विद्या भारती. भाग 2 प्रसं. 1938 / कातिलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद प्रसं. 1994 | पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी विसं 1996 | जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत पंसं. 1979 / चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी सामाचारी शतक समयसुन्दरगणी साहित्य दर्पण विश्वनाथ व्या. डॉ. सत्यव्रतसिंह सूत्रकृतांग चूर्णि (प्रथम श्रुतस्कंध) | संपा. मुनि पुण्यविजय सूत्रकृतांम चूर्णेि (द्वितीय श्रुतस्कंध) प्रसं. 1975 | प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद-९ प्रसं. 1941 ऋषभदेव केशरीमल श्वे संस्था, रतलाम प्रसं. 1978 | मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली प्रसं. 1999 / जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं सूअकृताग टीका आ.लांक संपा मुनि जम्बूविजय सूत्रकृतांगनियुक्ति (नियुक्तिपंचक)| वा. प्र. गणाधिपति तुलसी प्रसंपा. आचार्य महाप्रज्ञ समणी कुसुमप्रज्ञा सूयगड़ो - 1 वा प्र. आचार्य तुलसी संपा युवाचार्य महाप्रज्ञ सूपगड़ो - 2 वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ स्थानांग टीका आचार्य अभयदेव | प्रसं 1984 | जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रसं 1986 | जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रसं. 1937 हरिवंश पुराण आचार्य जिनसेन संपा, पन्नालाल जैन राममूर्ति चौधरी | सेठ माणकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद प्रसं. 1962 भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली / प्रमं. 1989 सुलभ प्रकाशन 16, अश्शेक मार्ग हरिवंश पुराणः एक सास्कृतिक अध्ययन Hiralal Rasikadas Kapadia Hiralal Rasikadas Kapadia A History of the Canonical literature of jaln's Uttaradhyayana sutra Jarl charpentier FIrad.1900 | Ajaya Book Service, Delhi History of Indian literature Maurice winternitz Volll Ssc ad 1993 Motilal Banarasidas, Delhi FO. Ad. 1980 Motilal Banarasidas, Delhi Sacred Books of the East, Hermann Jacobi Vol 1 xxii