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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं की इच्छा को बहुमान देते हुए चन्द्रप्रभ नामक सुरा पी ली। लोगों ने जाना कि यह दूध पी रहा है। कोशा ने सारा वृत्तांत श्रीयक को बता दिया। एक बार राजा ने श्रीयक से कहा-'श्रीयक ! तुम्हारे पिता शकडाल मेरे बहुत हितैषी थे।' श्रीयक बोला-'हां, राजन् ! किन्तु इस मत्त वररुचि ने सारा अनर्थ कर डाला।' राजा बोला-'क्या वररुचि मद्यपान करता है?' श्रीयक बोला-हां। राजा ने पछा-कैसे ? श्रीयक बोला-'आप स्वयं उसे देखें।' इतने में ही वररुचि राजा के समक्ष आ गया। तब राजा ने एक व्यक्ति को मदनफल से भावित कमल पुष्य देकर कहा–'जाओ, यह पुष्प वररुचि को दे आओ और ये दूसरे फूल दूसरों को दे देना।' उस व्यक्ति ने सभा में आए वररुचि को पुष्प दे दिए। उसने उनको सुंघा। यह मद्यपान करता है, यह जानकर तिरस्कार करके उसे सभा से बाहर निकाल दिया। चतुर्वेद को जानने वाले ब्राह्मण ने उसको प्रायश्चित्त दिया। उसे गर्म शीशा पिलाया, जिससे वह मर गया। स्थूलिभद्र मुनि सम्भूतविजयजी के पास दीक्षित हो गए। वहां घोर तपश्चर्या करने लगे। एक बार विहार करते हुए उनका संघ पाटलिपुत्र पहुंचा। वहां तीन साधुओं ने अभिग्रह स्वीकार किए। पहले साधु ने आचार्य को निवेदन किया कि मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताऊंगा। दूसरे ने सर्प की बांबी पर तथा तीसरे ने कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास करने की प्रतिज्ञा ली। स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करने की प्रार्थना की। आचार्य ने चारों को स्वीकृति प्रदान कर दी। पहले साधु की साधना से सिंह उपशांत हो गया। दूसरे की साधना से दृष्टिविष सर्प शांत हो गया। तीसरे ने निर्भयता से कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास बिताया। स्थूलिभद्र को अपनी चित्रशाला में देखकर कोशा की प्रसन्नता का पार नहीं रहा। उसने सोचा-मुनि परीषह से पराजित होकर यहां आए हैं। कोशा वेश्या ने करबद्ध पूछा-'मैं आपको क्या सेवा करूं?' स्थूलिभद्र ने नीचे दृष्टि करके संयतवाणी में कहा--'मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास बिताना चाहता हूं अत: उद्यान में स्थान की अनुमति दो।' उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने उद्यान में स्थान की व्यवस्था कर दी। रात्रि में कोशा सोलह शृंगार कर उद्यान में मुनि के पास आयो । अनेक प्रकार के हावभाव से मुनि को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया लेकिन मुनि स्थूलिभद्र मेरु की भांति अपने संयम में अप्रकंप रहे । मुनि ने कल्याण की भावना से धर्म-वार्ता सुनायी। धर्म सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गयी तथा उसने श्रावक-व्रत स्वीकार कर लिए। उसने संकल्प लिया कि राजाज्ञा के अतिरिक्त पैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगी। चार महीनों का उपवास कर सिंह गुफावासी मुनि आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य ने कुछ उठकर कहा-'स्वागत है दुष्कर कार्य संपादित करने वाले तम्हारा और सर्प की बांबी पर चातर्मास सम्पन्न कर आए मुनि का।' जब स्थूलिभद्र चातुर्मास सम्पन्न करके आए तब आचार्य ससंभ्रम उठे और बोले- स्वागत है, स्वागत है, अति दुष्कर अति दुष्कर कार्य सम्पन्न करने वाले तुम्हारा !' उन मुनियों ने जब यह देखा तो सोचा कि आचार्य का मुनि स्थूलिभद्र पर अमात्य-पुत्र होने के कारण अधिक स्नेह है इसीलिए इसका इतना स्वागत किया है। आचार्य ने पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है। १. नियुक्तिगाथा तथा शान्त्याचार्य टीका में कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास करने वाले मुनि की बात नहीं है। केवल चूणि में यह प्रसंग मिलता है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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