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________________ निर्युक्त साहित्य एक पर्यवेक्षण नियुक्ति होने की उरलेली है। संस्पेय शब्द के दो दर्गों में सगझा जा सकता है। प्रत्येक अंग पर अनेक निर्यगत्तयं लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिर्वी नित्य की । -मा निशिचत नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि रे निर्णय मय थीं? इसके सम्मान में एक मंभान यह की जा सका है कि सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियटयां लिली होंगी। इन निर्मुक्तिों को मात्र ऊर्धार म माहा : सशता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और आर्य में परस्पर नियोजन को निर्गनित कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जत्तीओ' क यह अर्थ अधिक संत लगता है कि सूत्रागन र स्वयं सूत्रकार में ऊर्थागम लिख, वे ही उस्त समय नियुक्तिमा लाहलाती थी। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांर और सूत्रकृतांग के परिचय में नदीकर ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की पाझरूपता होने के मा आ आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ पाउ जुड़ गया। अभी बनान में जो नियुक्ति साहित्य उसाल है, उनके साथ गंदी सूत्र में वर्णित नियुक्ति का कोई संबंध नहीं लगर । आवश्यकनियुक्ति में आचार्य द्रबाहु ने १. निर्मुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। उनका क्रम इस प्रकार है- १. आवश्यक २. दशकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६ वाश्रुतस्कंध १५ बृहत्कल्प ८ व्यबहर ९ सूर्यग्रज्ञप्ति १० ऋभिभाषित । हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्ररतत्र आदि की नियत का भी उल्लेख क्रिया है। वर्तमान में इन देस निर्युषित्तयों में केवल : नियुक्तियां ही प्रार हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस मन्तयां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन अनिवाक्यसी रचना ही कर सके। दूसरा संभावित विकता यह भी २५ है कि अन्य अग साहित्य की गांति फुछ नियुत्तियां भी काल के अंतराल लन्त होगीं। इस संदा में डा समारगलजस का मंत्व्य है-- लगता है सर्यप्रज्ञप्ति में जैन अचार-मदि के प्रतिकूल मुह उपर तथा ऋष्भिाषित में नारद, मलि गोशाक आदि जैन परम्पर के लिए विवादास्पद व्यनित्ये क उल्लेख देखकर आचार्थ भद्रबाह ने प्रतिज्ञा करने पर भी इस पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथा यह भी संभव है कि इन देन ग्रंथों ५. नियुक्ति लिखी गयी हैं पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से कतर रस गया हो. फलत: उपेक्षा के करण कालक्रम से ये दिलुप्त हो गयी हों। ___इसके अतिरिक्त पडनियुक्ति, ओघनिकित, पंचकल्पनियुक्ति और निशीनिमुक्ति अदि का स्वतंत्र अस्तित्व मिलर है। डा. धाटने के अनुसार ये ब्रमशः दशकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुकि बृहत्कल्पनेर्युषित्त और अचार नियुक्ति की पूरफ नियुक्तियं हैं। इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह कि ओघनियुक्ति, पिडनियुक्ति और निशीनियुक्ति की स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यक नियुकि १ नदी ८६९१। २. नि ८ ८५. अवरनगर सहित उत्रज्जामाबारे । सूरगड़ें निनांगे या तह. दहा च । कबरला य निरमोव परमागगररा। नरियागकं इसिभ लियाण च ।। ३. अवज्ञाटी ६४ऋमि पेताना च देशप्रस्तादी नियुक्ति . ४. सागर जैन नियाभरती. भाग १7 २.५
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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