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________________ नियमिपाक भाग्य साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं, उनमें नियंकि का दस स्थान है। प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ कराया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुजित्त के साथ सूत्र की ब्यारम्य' की जाती है तथ तीसरी व्याख्य! मैं निरवशेष—सवांगीण व्याख्या की जाती है। यहां निज्जुत्तिमीसओ का दुः२ः अर्थ ह भी संभव है कि दूसरी व्याख्या में शिष्य को सूत्रात अर्थ का अध्ययन कराय जाता है, जिसे अधरम कहा जाता है। विशेषाश्यक भाग्य की प्रस्त गाथा भवती २५/९७ में भी प्राप्त है, परन्तु भगवती में यह कालान्तर में प्रक्षिप्त हुई है, ऐसा प्रतीत होता है। नियुक्ति का प्रयोजन एक प्रश्न सहज उपस्थित होता है कि जब प्रत्येक सूत्र के साथ अर्थागम रांबद्ध है तब निर अलग से निथुकिा लिगने की आयश्यकता क्यों पड़ी इस प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार रच; कहते हैं--'तह विय इच्छावेइ विभासि सत्तारवाही' अवनि ८८)। सत्र में अर्थ नियुक्त होने पर भी मदति की विविध प्रकार से पार करके ो २.१ ६ लि. निरा की रचना के जा रही है। इसी गाथा की व्याख्या करते हुए विशेषावश्यक भाष्रकार कहते हैं कि श्रुतपरिमटी में ही अर्थ सिद्ध है अत. अभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले निर्युक्तमा आचार्य को अतओं पर अनुग्रह करने के लिए। कह श्रुत्तरिटी ही अर्थ प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है। उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैगे म.-चित्रकार अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को कहा है या शनका अथवा अंगुलि के साधन मे उसकी व्याख्या करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध करने के लिए सूत्रबद्ध अर्थो को निमित्तकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। जिन् भद्रगणि. क्षमाश्रमग ने 'इच्छायेइ' पान्द का दूसरा अर्थ या बाया कि मंदबुद्धि शिष्य ही सूत्र क सम्यग अर्थ नहीं समझने के कारण गुरु को प्रेरित कर सूत्र व्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करवाता है। आचार्य हरिभद्र ने में की व्याया की निष्कर्षतः हा जा सकता है कि निर्मुक्तियां जैन अगमों के विशेष शब्दों में प्यार। रतुत करने एवं अर्थ-निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रन है। नियुक्तियों की संख्या नियुक्तियों की संख्या के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि नंदी सूत्र में ज्हा प्रत्येक आगग का परिचय प्रार है, वहां ग्यारह अंगों के परिचय-प्रसंग में प्रत्येक अंग पर असंख्य १. विमः ५६६: तुत्ताधे बलू महतो, बीओ नितिमीसो भागो। त: निरलस्सो. स वि हो आओगे . २ विभा १७८८.तो सूपरिवरि इच्छवेड तर्मगम्छमण । नि वि तदत्ये. तु दगुग्गहहुए। ३. विभा १५८९; लयलिशिय पि मंलो गद पास:तानता। पार य पहलधुं. सुबह तह मि | ४ मा १०५६ इटार विमसिउं में, सुबारिवाडि न सुटा बुल्झामि । नाति ई वा सीसो, गुरमिच्छाविद चोत्तुं जे ।। ५ आवहाटी१८४५।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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