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________________ ५८४ नियुक्तिपंचक और तुम्हें कोयल मान यह संकेत दिया है। अब हमें सावधान हो जाना चाहिए। मेरे रहते तुम्हारे अन्य संतान हो जाएगी। पर इसको अपने मार्ग से हटाना आवश्यक है।' चुलनी ने कहा-'वह अभी बालक है । जो कुछ मन में आता है, कह देता है।' राजा ने कहा-'नहीं, ऐसा नहीं है। वह हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सम्बन्ध नहीं निभ सकता।' चुलनी ने कहा-"जो आप कहते हैं, वह सही है किन्तु उसे कैसे मारा जाये, जिससे लोकापवाद न हो।' राजा दीर्घ ने कहा-'यह कार्य बहुत सरल है। जनापवाद से बचने के लिए पहले हम उसका विवाह कर देंगे।' विवाह के पश्चात् अनेक खम्भों वाले लाक्षागृह में सुखपूर्वक सोए हुए उसको अग्नि जलाकर मार देंगे। ऐसी मंत्रणा करके एक शभ वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हआ। उसके शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह बनवाया। इधर मंत्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की-'स्वामिन् ! मेरा पुत्र बरधनु मंत्री-पद का कार्यभार संभालने के योग्य हो गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होकर परलोक हित का कार्य सम्पादित करना चाहता हूं।' राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा-'तुम और कहीं जाकर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का पालन करो।' मंत्री ने राजा की बात मान लो। उसने नगर के बाहर गंगा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनवाई। वहां वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न पान देने लगा। दान और सम्मान के वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा रानी को यह बात ज्ञात नहीं हुई। नववधू ने अनेक नेपथ्य और परिजनों के साथ नगर में प्रवेश किया। रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को नववधू के साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। रानी चुलनो ने शेप सभी जातिजनों को अपने अपने घर भेज दिया। मंत्री का पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त गाढ़ निद्रा में लीन था । वरधनु जाग रहा था। अचानक लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा। कुमार जागा और दिग्मूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आकर बोला कि यह क्या हुआ? अब क्या करें? वरधनु ने कहा-'जिसके साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है वह राजकन्या नहीं है। इसमें प्रतिबंध करना उचित नहीं है। चलो हम चलें।' उसने कमार ब्रह्मदत्त को एक सांकेतिक स्थान लात मारने को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वे उसमें घुसे । मंत्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्योहि कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहां से चले और पचास योजन दूर जाकर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न होकर गिर पड़े। अब वे दोनों वहां से पैदल चलते-चलते कोष्ठग्राम में आए। कुमार ने वरधन से कहा-'मित्र! भूख और प्यास बहुत जोर से लगी है। मैं अत्यन्त परिश्रान्त हो गया हूं।' वरधनु गाँव में गया। एक नाई को साथ में लाया । कुमार का सिर मुंडाया, गेरुए वस्त्र पहनाए और श्रीवत्सालंकृत चार अंगुल प्रमाण पट्ट-बंधन से वक्षस्थल को आच्छादित किया । बरधनु ने भी वेष-परिवर्तन किया। दोनों गाँव में गए। एक दास के लड़के ने घर से निकल कर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। वे दोनों उसके घर गए। पूर्ण सम्मान से उन्हें भोजन कराया गया। उस गृहस्वामी
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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