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________________ नियुक्तिपंचक पापकर्म को जानकर उस पाप को नहीं करना प्रत्याख्यान परिक्षा है । ( दर्शाजचू. पू. ११६ ) पच्चक्खायपावकम्म — प्रत्याख्यात पापकर्मा । पच्चयखायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुषारो भण्णति । जो आस्रव द्वारों का निरोध कर देता है, वह प्रत्याख्यातपापकर्मा हैं। (दशजिचू. पू. १५४ ) पञ्चाजाति — प्रत्याजाति । जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणौ वि जह हवति जम्मं सा खलु पच्चाजाति..... । एक भव से च्युत होकर पुन: उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है। (दनि. १३२ ) पडिभा– प्रतिभा पभणांत वा पतिभा श्रोतॄणां संशयोच्छेत्ता । (सूचू. १ पृ. २३३) । जो श्रोताओं के संशय का उच्छेद करती है, वह प्रतिभा है। परिसेवणा- प्रतिसेवना। सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा सम्यक् आराधना के विपरीत जो आसेवना है, वह प्रतिसेवना है। ( उचू. पृ. १४४ ) पडिहषपावकम्मा - पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला। पडिहयपावकम्मी नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्पाणि पत्तेर्य जेण हयाणि सो पडियपावकम्मी । जिसने ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म का नाश कर दिया है, वह प्रतिहतपापकर्मा है। ( दशजिचू. पृ. १५४) जगम - पनकसूक्ष्म पणगर्म णाम पंचषण्णो पणगो वासासु भूमिकट्ठ उवगरणादिस तद्दव्वसमवण्णो पणगसुमं । वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली जो काई उत्पन्न होती है, वह पनक सूक्ष्म कहलाती है। (दशजिचू. पू. २७८) पण्णापरीसह - प्रज्ञापरोषह । प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्स प्रज्ञापरीषह । प्रज्ञा का गर्व करना प्रज्ञा परीषह है। (उ. पृ. ८२ ) पतिष्णा - प्रतिज्ञा । साहणीयनिद्देसी पतिष्णा । साधनीय का निर्देश प्रतिज्ञा है । ( दशअचू. पू. २०) पधारा - प्रारभारा (जीवन की एक अवस्था) । भाषिते चेष्टिते वा भारेण नत इव चिट्ठए पम्मारा । बोलते अथवा काम करते समय भार से नत व्यक्ति की भांति झुके रहने की अवस्था प्राग्भारा अवस्था है। (दचू- प. ३) परमर्दसि - परमदर्शी | मोक्खी वा परं परसतीति परमदेसी । जो मोक्षदर्शी है, वह परमदर्शी है। (आचू, पृ. ११४) परिनिष्युड – परिनिर्वृत । परिनिव्वुडा नाम जाइ जरा मरण- रोगादीहिं सव्वप्यगारेण वि विप्पमुक्क त्ति वृत्तं भवइ । ६४८ जो जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि से मुक्त हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते हैं। ( दशजिचू. पृ. ११७ ) ० परिनिव्वुता समंता णिव्वुता सव्यप्पकार घातिभवधारणकम्मपरिक्खते । जो प्रातिकर्मों का तथा भवधारणीय कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर देते हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते हैं (दशअचू. पृ. ६४ )
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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