SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 700
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियुक्तिपंचक दशारचक्र के मनोरथ को पूरा करो।' अरिष्टनेमि ने भवितव्यता जानकर श्रीकृष्ण की बात स्वीकार कर ली । दशारचक्र इस बात को मुनकर हर्पित हो गए। उन्होंने श्रीकृष्णा से कहा-'कुमार के अनुरूप कन्या की अन्त्रेपणा करो।' भोज कुल के राजन्य उग्रसेन को पुत्री राजीमतो को अरिष्टनेमि के योग्य समझ विवाह का प्रस्ताव रखा। मूल धनवती का जीव अपराजित विमान से च्युत होकर राजीमती के रूप में उत्पन्न हुआ था। अनुरूप संबंध देखकर उग्रसेन ने अनुग्रह मानकर विवाह की स्वीकृति दे दी। दोनों कुलों में वर्धापन हआ। शुभ महल में विवाह-महोत्सव का आयोजन हुआ। विवाह से पूर्व के सारे कार्य सम्पन्न हुए। राजीपती को अलंकृत किया गया। कुमार भी अलंकृत होकर बारात के साथ मत हाथी पर आरूढ़ हुए। बलदेव, वासुदेव के साथ सभी दशार एकत्रित हुए। बाजे बजने लगे। शंख-ध्वनि होने लगी तथा मंगलदीप जलाए गए। चंवर डुलने लगे। जनसमूह के साथ वरयात्रा विवाह-मंडप के पास आई। राजीमती भी निगुनार को देखकर हावार हो गया। उसी समय अरिष्टनेमि के कानों में क्रन्दन भरे शब्द सुनाई पड़े। उन्होंने सारथी से पूछा-'ये करुण क्रंदन युक्त शब्द कहां से आ रहे हैं?' सारथी ने कहा-'देव ! ये करुणा भरे शब्द पशुओं के हैं। ये आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले अतिथियों के लिए भोज्य बनेंगे।' अरिष्टनेमि ने कहा- यह कैसा आनन्द ! जहां हजारों मूक और दीन निरपराध प्राणियों का वध किया जाता है। ऐसे विवाह से क्या जो संसार- परिभ्रमण का हेतु बनता है?' ऐसा कहकर अरिष्टनेमि ने हाथी को अपने निवास स्थान की ओर मोड दिया। सारथी ने नेमिकुमार के अभिप्राय को जानकर प्राणियों को मुक्त कर दिया। नेमिकुमार को विरक्त और मुड़ते देखकर राजीमती मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सखियों ने ठण्डा जल छिड़का, पंखा झला। चेतना प्राप्त करके राजीमती विलाप करने लगी। सखियों ने समझाया कि विलाप करना व्यर्थ है अतः तुम धैर्य धारण करो। राजीमती बोली-'सखियों! आज स्वप्न में देव, दानवों से घिरा हुआ एक दिव्य पुरुष द्वार पर खड़ा दिखाई दिया जो ऐरावत हाथी पर आरूढ़ था। तत्क्षण वह सुपेरु पर्वत पर चढ़ गया और सिंहासन पर बैठ गया। अनेक लोग वहां आए. मैं भी वहां गयीं। वह शारीरिक और मानसिक द:खों को दूर करने वाले कल्पवक्ष के चार-चार फल सबको दे रहा था। मैंने कहा-'भगवान् ! मुझे भी ये फल दें। मुझे भी उन्होंने वे फल दिए। इसके बाद मेरी नींद खुल गयी । सखियों ने कहा-'प्रिय सखी! वतर्मान में कटु लगने पर भी यह स्वप्न परिणाम में सुन्दर फल देने वाला है।' इधर इन्द्र का आसन चलित हुआ। लोकान्तिक देवों ने अरिष्टनेमि को प्रतिबोध दिया कि सब प्राणियों के हित के लिए आप तीर्थ का प्रवर्तन करें । नेमिकुमार अपने माता-पिता के पास गए और प्रव्रज्या की आज्ञा मांगी। माता-पिता मोह से विलाप करने लगे। राजीमती के साथ पाणिग्रहण करने का आग्रह किया। अरिष्टनेमि ने अपने माता-पिता को समझाते हुए कहा—'तात ! आप मानसिक संताप न करें। यह यौवन अस्थिर है, ऋद्धियां चंचल हैं, संध्याघ्र के समान पिता, पुत्र एवं स्वजनों का संयोग क्षणभंगुर है अतः मुझे संसार रूपी अग्नि से बाहर निकलने की अनुमति प्रदान करें।' दशारचक्र ने बद्धाञ्जलि प्रार्थना की-'कुमार! कुछ समय प्रतीक्षा करो उसके बाद तुम प्रव्रज्या
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy