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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं सुखपूर्वक रहने लगे। कालान्तर में बलराम और केशव ने जरासंघ को मार दिया और वे अर्धभरत के राजा बन गए । अरिष्टनेमि युवा होने पर भी विषयों से पराङ्मुख रहते थे। वे सभी यादवों के प्रिय थे। एक बार आंटी कौतुक श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुंच गए। वहां उन्होंने अनेक देवाधिष्ठित आयुध देखें । अरिष्टनेभि ने दिव्य कालपृष्ठ उठाया। उसे देखकर आयुधशाला का रक्षक 'श्रीला ' कुमार ! यह क्या? स्वयंभूरमण समुद्र को भुजाओं से तैरने की भांति इस धनुष्य का संचालन आपके लिए अशक्य अनुष्ठान है। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तीनों लोक में कोई भी इस धनुष्य को संचालित करने में समर्थ नहीं है। हंसते हुए अरिष्टनेमि ने आयुधशाला - पालक की अवहेलना करते हुए उस अनुष की उठाकर प्रत्यंचा को आस्फालित किया। उसकी ध्वनि से पृथ्वी कांप उठी । पर्वत हिलने लगे। जलचर, थलचर और खेचर आदि पशु-पक्षी संत्रस्त होकर इधर उधर पलायन करने लगे। आयुधशाला रक्षक त्रिमित हो गया। रक्षकों द्वारा निषेध करने पर भी अरिष्टनेमि ने कालपृष्ठ धनुष को नीचे रखकर पञ्चजन्य शंख हाथ में उठाया और उसे कुतूहलवश बजा डाला। शंख के शब्द से सारा संसार बहरा जैसा हरे गया। देवता, असुर तथा मनुष्यों के हृदय भी कंपित हो गये । विशेषत: द्वारका नगरी सम्पूर्ण रूप से कांप उठी। कृष्ण ने सोचा- 'यह प्रलयंकारी ध्वनि कहां से उठी है?" आयुधपाल ने सारी बात श्रीकृष्ण को बताई। श्रीकृष्ण विस्मित हो गए। अरिष्टनमि के सामर्थ्य को जानकर श्रीकृष्ण ने बलदेव से कहा- यह बालक होते हुए भी इतना शक्ति सम्पन्न है. जब यह बड़ा होगा तो राज्य को खतरा हो जाएगा।' बलदेव ने कहा- 'तुम्हारी वह चिंता व्यर्थ है । केवली भगवान् ने कहा हैं कि अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर और तुम नौंवे वासुदेव बनोगे।' एक बार श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि से उद्यान में मिले और बोले-'कुमार! अपने-अपने बल की परीक्षा के लिए हम बाहुयुद्ध करें।' अरिष्टनेमि ने कहा-' इस निंदनीय बाहुयुद्ध को करने से क्या लाभ है? हम बागयुद्ध करेंगे। दूसरी बात यह भी है कि मैं आपसे छोटा हूं, यदि आपको हरा दूंगा तो इससे आपकी अपकीर्ति होगी। श्रीकृष्ण ने कहा- 'मनोरंजन के लिए किए जाने वाले युद्ध में कैसी अपकीर्ति?' अरिष्टनेमि ने अपनी वाम बाहु फैलाई और कहा कि यदि तुम इसे झुका दोगे तो ' तुम्म जीत जाओगे। श्रीकृष्ण बाहु को आंदोलित करना तो दूर किंचित् मात्र भी हिला नहीं सके। श्रीकृष्ण की राज्यहरण की चिंता दूर हो गयी । यौवन प्राप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण ने समुद्रविजय को कहा- 'कुमार का शीघ्र विवाह कर दिया जाए, जिससे यह शीघ्र ही भोगों में फंस जाए।' रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ने भी यथावसर कुमार से कहा- ' त्रिभुवन में आप जैसा रूप किसी का नहीं है। निरुपम सौभाग्य से युक्त स्वस्थ शरीर है अतः दुर्लभ मनुष्य जन्म एवं यौवन का लाभ लेने के लिए विवाह करो।' नेमिनाथ ने हंसते हुए कहा- 'तुच्छ काम भोगों से मनुष्यजन्म की सार्थकता नहीं होती । एकान्तशुद्ध, निष्कलंक एवं निरुपमसुख वाली शाश्वती सिद्धि से ही जीवन की सफलता है। मैं सिद्धि के लिए ही यत्न करूंगा।' श्री कृष्ण ने कहा - 'कुमार! ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने भी पहले विवाह किया। सन्तानोत्पत्ति के पश्चात् पश्चिम वय में प्रव्रजित होकर मोक्ष को प्राप्त किया अत: तुम भी दारसंग्रह करके ६०१
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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