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निर्मुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
आचारांग सूत्र और उसकी नियुक्ति
आचारांग सूत्र अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी सूत्रात्मक शैली में अध्यात्म के अनेक रहस्य छिपे पड़े हैं। वैदिक वाङ्मय में जिस प्रकार वेदों का स्थान सर्वोपरि है वैसे ही जैन आगम ग्रंथों में आचारांग का सर्वोच्च स्थान है। नियुक्तिकार के अनुसार आचारांग सभी अंगों का सार है।' इसका अपर नाम वेद भी मिलता है। टीकाकार आचार्य बीलांक इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ करते हुए कहते हैं कि इससे हेयोपादेय पदार्थों का ज्ञान होता है, इसलिए यह वेद है।' इसके अध्ययनों को ब्रह्मचर्य कहा गया है।* स्थानांग और समवऱ्यांग' में भी 'णवतंभचेरा पण्णत्ता' उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम श्रुतस्कंध का 'नेवब्रह्मचर्य' नान भी आचारांग नाम जितना ही प्रसिद्ध था इसीलिए नियुक्तिकार ने 'ब्रह्म और चर्य (चरण) शब्द की तम्बी व्याख्या की है। नियुक्तिकार ने आचारांग के दस पर्यायवाची नामों का किया है। नाम आयार ( आचार) के हैं पर आचार प्रधान ग्रंथ होने से उपचार से इनको आचारांग के पर्यायवाची भी मान लिया गया है। व्यवहार भाष्य में आचारांग का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गय है कि प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित श्रमण की उपस्थापन की जाती थी तथा इसके अध्ययन से ही श्रमण स्वतंत्र रूप से भिक्ष करने की योग्यता प्राप्त कर सकता था।" नियुक्तिकार के अनुसार इस ग्रंथ के अध्ययन से क्षांति आदि श्रमणधर्म ज्ञरा होते है अतः आचार्य को आचारधर होना आवश्यक है।
रचनाकार
आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध पंचम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा प्रणीत है क्योंकि ग्रथ के प्रारम्भ में वे कहते हैं--- सुयं मे आउस' इसका तात्पर्य है कि मूल अर्थरूप वाणी भगवान् महावीर की है और बाद में गणधरों ने सूत्र रूप में इसे ग्रथित किया। द्वितीय श्रुतस्कंध के बारे में अनेक मत प्रचलित है पर इतना निश्चित है कि आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध भाषा-शैली और विषय की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कंध जितना प्राचीन नहीं है। नियुक्तिकार के अनुसार स्थविरों ने शिष्यों पर अनुग्रह कर उनका हित-सम्पादन करने हेतु आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से आचाराग्र ( आधारचूला ) का निर्यूहण किया। चूर्णिकार ने रथवेर शब्द का अर्थ गणधर तथा वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्ववित् किया है।" कुछ विद्वान् स्थविर शब्द का प्रयोग आचार्य भद्रबाहु के लिए मानते हैं। नियुक्तिकार ने यह भी उल्लेख किया है कि कौन से अध्ययन से कौन सी चूला निर्यूढ है । उनके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्ययन लोकविजय के पांचवें उद्देशक और आठवें अध्ययन विमोक्ष के दूसरे उद्देशक से प्रथम चूलिका के पिंडेपणा, शय्य वस्त्रैषणा मात्रैष्णा तथः अवग्रहप्रतिमा आदि उद्देशक निर्यूह हैं। पांचवें अध्ययन लोकसार के थे उद्देशक से ई तथा छठे अध्ययन (धुत) के पांचवें उद्देशक से भाषाजात का निर्ऋहण किया गया। सातवें अध्ययन नहापरिज्ञा से
१ आनि १६ ।
२. आणि ११ ।
३. आटी पृ ४: विदन्त्यस्माद्धेोपादेति वेदः ।
४ अनि ११ ।
५. ठपं ९/२, सभ ९/३ ।
३७
६. आनि ७ ।
७. व्यभा १५३१, १५.३२ । ८. आनि १५ ।
९ अनि
१० आचू पृ ३२६ अटी पृ. २९३ ।