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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२३ खींचने का कारण जब राजा ने पूछा तो श्रेष्ठी श्रावक ने कहा- 'राजन् ! यह आपको मारना चाहता था। देखिये, वह भवन गिर गया है। राजा को उसकी बात पर विश्वास हो गया। राजा ने पुरोहित को सेठ को सौंप उचित दंड देने के लिए कहा। सेठ ने उसके पैरों में पहले इंद्रकील डाली फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पैर काट डाले। वह श्रावक सत्कार पुरस्कार परीषह सहन नहीं कर सका।" २२. प्रज्ञा परीषह (कालकाचार्य) उज्जयिनी में कालकाचार्य विहार कर रहे थे। वे चरण-करण की आराधना में तत्पर तथा बहुश्रुत थे। उनके शिष्यों में किसी को अध्ययन की रुचि नहीं थी। सभी शिष्य अविनीत और प्रमादी । वे सूत्रार्थ का अध्ययन नहीं करते थे। साधु की सामाचारी में भी आलस्य करते थे। मृदुवाणी में सारणा करने पर भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। भर्त्सना करने पर वे मन में वैर और कलुषता उत्पन्न कर लेते थे। आचार्य ने सोचा- 'इनको बार-बार अनुशासित करने पर मेरे सूत्रार्थ की हानि होती है और कर्मों का बंधन होता है।' आचार्य शिष्यों से परेशान हो गए। उन्होंने शय्यातर को अपना अभिप्राय बताकर सुवर्णभूमि की ओर विहार कर दिया। सुवर्णभूमि में उनके पौत्र शिष्य आर्य सागर विहार कर रहे थे। नहीं पहचानने के कारण आचार्य सागर और उनके शिष्यों ने उठकर अभिवादन नहीं किया। आचार्य ने पूछा- 'आप कौन हैं?' कालकाचार्य ने कहा- 'मैं उज्जयिनी से आया हूं।' आचार्य कालक आर्य सागर के साथ एक वृद्ध के रूप में रहने लगे। आचार्य सागर को अपनी प्रज्ञा पर बहुत अभिमान था। एक बार सागर क्षमाश्रमण नै आर्य कालक से पूछा- 'वृद्ध मुने ! क्या तुमको कुछ समझ में आता है?' आचार्य कालक ने स्वीकृति में सिर हिलाया। आर्य सागर अपने शिष्यों के साथ उन्हें भी वाचना देने लगे। I उधर उज्जयिनी में प्रभातकाल में जब शिष्यों ने आचार्य कालक को नहीं देखा तो वे खोज करने लगे। उन्होंने शय्यातर से पूछा । शय्यातर ने कहा- आप लोग ऐसे अकृतज्ञ, प्रमादी और दुर्विनीत हैं, जो अपने गुरु के इंगित का पालन भी नहीं कर सकते।' शय्यातर ने डांटते हुए वास्तविक बात शिष्यों को बतायी। शिष्यों को बहुत ग्लानि हुई। सभी शिष्यों ने सुवर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। मार्ग में लोग पूछते कि यह किस आचार्य का संघ जा रहा है? साधु उत्तर देते कि यह कालकाचार्य का संघ जा रहा है। जनश्रुति से यह संवाद आर्य सागर के पास पहुंचा। इससे उन्हें प्रसन्नता हुई। उन्होंने आर्य कालक से कहा- 'मेरे गुरु के गुरु आ रहे हैं।' कालकाचार्य ने उत्तर दिया- 'मैंने भी ऐसा सुना है लेकिन उन्होंने अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया । सभी आगंतुक साधुओं ने आचार्य सागर को वंदना करके अपने आचार्य के बारे में पूछा । आर्य सागर ने शंकित होकर कहा कि कुछ दिनों पूर्व एक वृद्ध मुनि यहां आए थे लेकिन मैं आर्य कालक को आकृति से नहीं पहचानता । साधुओं ने अपने आचार्य को पहचान लिया। वे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। सभी ने गुरु से क्षमायाचना की। आर्य सागर को जब वास्तविकता ज्ञात हुई तब उन्होंने कालकाचार्य के चरणों में प्रणिपात कर क्षमायाचना की तथा आशातना के लिए मिथ्या दुष्कृत किया । ९. उनि ११९, उशांटी.प. १२५, १२६ उसुटी.प. ४९ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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