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________________ ५२२ नियुक्तिपंचक . २०. जल्ल (मैल) परीषह (सुनंद) ___ चंपा नगरी में सुनन्द नामक वणिक् श्रावक रहता था। वह मैले-'कुचेलों से घृणा करता था। उसकी दुकान पर बहुविध वस्तुएं मिलती थीं । वह साधु को यथेच्छित वस्तुएं अवज्ञापूर्वक देता। औषध, भेषज आदि भी दान देता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में पसीने से लथपथ मैले शरीर वाले कुछ मुनि दुकान पर आए। मुनि के शरीर से इतनी दुर्गन्ध निकल रही थी कि सुगंधित चीजें भी उस दुर्गध के नीचे दब गयौं । सुनन्द ने मन में चिंतन किया-'साधुओं का सारा आचार अच्छा है। यदि मैल धारण न करते तो कितना अच्छा होता।' सुनंद उस चिंतन की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल-कवलित हो गया और कौशाम्बी नगरी में श्रेष्ठी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। धर्म के महत्व को जानकर काम-भोगों से विरक्त हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षित होते ही उसके पूर्वबद्ध कर्म उदय में आ गए। मुनि के शरीर से भयंकर दुर्गन्ध निकलने लगी। वे भिक्षा के लिए जाते तो लोग उपहास तथा अवमानना करते। इसलिए अन्य साधुओं ने उन्हें भिक्षा के लिए भेजना बंद कर दिया। परेशान होकर मुनि ने रात्रि में देवता की आराधना की, कायोत्सर्ग किया। देव प्रभाव से मुनि के शरीर में सुगंधित द्रव्यों की खुशबू आने लगी। लोग फिर अवमानना करने लगे कि यह मुनि होकर सुगंधित द्रव्यों का सेवन करता है। मुनि ने पुनः देवता की आराधना को इससे मुनि का शरीर स्वाभाविक हो गया।' २१. सत्कार-पुरस्कार परीषह (इन्द्रदत्त पुरोहित) चिरकाल से प्रतिष्ठित मथुरा नगरी में इन्द्रदत्त नामक पुरोहित रहता था। वह जैन धर्म का विरोधी था। जब कोई साधु उसके घर के नीचे से गुजरता तो वह अपने दोनों पैर लटका कर मानता कि मैंने साधु के शिर पर पैर रख दिए हैं। यह एक श्रावक ने देखा। उसे बहुत क्रोध आया कि यह साधुओं के ऊपर अपने पैर रखता है। उसने प्रतिज्ञा ली कि मैं अवश्य इस पुरोहित के पैर काटूंगा। वह उसका छिद्रान्वेषण करने लगा लेकिन उसे कोई मौका नहीं मिला। एक दिन वह श्रावक आचार्य के पास गया, वंदना कर उसने सारी बात कही। आचार्य ने शिक्षा देते हुए कहा-'मुनि को सत्कार-पुरस्कार परीषह सहन करना चाहिए।' श्रावक ने पुन: निवेदन किया-'गुरुदेव! मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं उसके पैर का छेदन करुंगा। जो व्यक्ति शासन की अवहेलना करे उसे दंड मिलना चाहिए इसलिए आप मुझे कोई उपाय बतायें।' यह सुनकर आचार्य ने पूछा कि इस पुरोहित का क्या अपना कोई घर है? श्रावक ने उत्तर दिया कि पुरोहित ने अभी नया प्रासाद बनवाया है। जिस दिन वह अपने प्रासाद में प्रवेश करेगा, उस दिन राजा को भोजन के लिए आमंत्रित करेगा। यह सुनकर आचार्य ने कहा-'राजा जब घर में प्रवेश करे तब तुम राजा का हाथ खींच कर उसे बाहर ही रख देना। मैं अपने विद्याबल से भवन गिरा दूंगा।' श्रेष्ठी मन ही मन प्रसन्न हुआ। उसने वैसा ही किया जैसा आचार्य ने निर्देश दिया। हाथ १. उनि. ११८, 'ठशांटी.प. १२३, १२४ उसुटी.प. ४८ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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