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परिशिष्ट १०
दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य पूर्व ज्ञान के अक्षय भण्डार थे। लेकिन संहनन, धृति और स्मृति को कमजोरी से वे धीरेधीरे लुप्त होने लगे। इनका लोप देखकर आचार्यों ने कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों का नियूँहण किया। पूर्वज्ञान से निषूद रचना का प्रारम्भ धीर-निर्वाण के ८० वर्ष के बाद आचार्य शय्यंभव ने किया। उन्होंने अपने पुत्र मनक के लिए दशवकालिक सूत्र का नियूँहण किया। उसके बाद आचार्य भद्रबाहु आदि आचार्यों ने छेदसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का नि!हण किया। अंगविजा जैसा विशालकाय ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथ भी पूर्वो से उद्धृत है। यद्यपि दृष्टिवाद की विशाल श्रुतराशि आज हमारे समक्ष उपलब्ध नहीं है पर यह खोज का विषय है कि दृष्टिवाद का उल्लेख कहां-कहां किस रूप में मिलता है? कम्मप्पवायपुबे, सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुत्त। सणर्य सोदाहरणं, 'तं चेव इहं पिणातब्वं ।।
(उनि. ७०) परीसहा बारसमाओ अंगाओ कम्मप्पधायपुष्याओ णिज्जूढा ।
(उचू, पृ. ७) अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धृततया वस्तुतः सुधर्मस्वामिनैव जम्बुस्वामिनं प्रति प्रणीतत्वात् ।
('उशाटी. प १३२) आयप्पवायपुव्वा, निजूढा होइ धम्मपण्णत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा ॥
(दशनि.१५) सच्चप्पवायपुच्चा, निजूदा होति वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निग्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्यूतो ।।
(दशनि. १६) चरिमो चोद्दसपुब्बी अवस्सं निजूहति, चोद्दस (दस) पुवी वि कारणे। (दशअचू. पृ. ४,५) चोदसपुष्यी कहिं पि कारणे समुप्पण्णे निज्जूहइ, दसपुवी पुण अपच्छिमो अवस्समेव ।
('दशजिचू. पृ. ७) आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया ।
(आनि.३११) छट्टट्ठमपुव्बेसु आउवसग्गो ति सव्वजुत्तिकओ।
(दनि.१८) अट्ठविहं पि य कम्म, भणियं मोहो त्ति जं समासेणं । सो पुब्बगते भणिओ.....। (दनि, १२३) भद्दबाहुस्स ओसप्पिणीए पुरिसाणं आयु-बलपरिहाणिं जाणिऊण चिंता समुप्पण्णा । पुव्वगते बोच्छिण्णे मा साहू विसोधिं ण याणिस्संति ति काठं अतो दसाकप्पक्वहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुवातो।
(दचू. पृ. ४) दिट्टिवायातो नवमातो पुव्वातो असमाहिहाणपाहुडातो असमाधिट्ठाणं, एवं सेसाओ वि सरिसनामेहि पाहुडेहिं निज्जूढाओ। केण? भद्दबाहुहि।
(दचू.पृ. ६) सच्चप्पवायपुन्चे अक्खरपाहुडे तत्रादुपसर्गो वपर्यते । अट्ठमे कम्मप्पवाययुब्बे अट्ठम महानिमित्तं तत्थ स्वरचिंता तत्रापि आदुपसर्गो वर्ण्यते।
(दचू. पृ. १२) उवासगपडिमा थेरा गणधरा तेहिं अक्खातं णवमे पुन्चे।
(दचू. पृ. ३८)