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परिशिष्ट-१
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जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि सयणासणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितमोई ॥ अप्फासुयकय-कारित-अणुमय उद्विभोइणो हंदि ! | तसपावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पति' ।। एसा हेउविसुद्धी, दिट्ठतो तस्स चेव य विसुबी । सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उ इयमन्ना ।। अग्गिम्मि हवी ह्यइ, आइच्चो तेण पोणिओ संतो। वरिसइ पयायिठें, तेजोसहिलो परोहंति ॥ किं दुम्भिक्खं जायइ ?, जई एवं अह मवे दुरिठं तु । कि पायइ सव्वत्या, दुन्भिक्त्रं अह भवे दो।। वासइ तो कि विग्छ, निग्धायाईहिं जायए तस्स ।
वाराह उत्समए, न वासई तो तणट्ठाए । कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महयरिंगणट्ठा ।। तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुष्वविहियस्स । उदएणं पुष्फफलं, निवत्तयंती इमं चन्न' ।। जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देति पुष्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददति गुरुराह अत एव ।। समणऽणुकंपनिमित्तं, पुण्णनिमितं च गिहनिवासी उ । कोई भणेज्ज पागं, करेंति सो भण्णइ न जम्हा ।। उवसंहारविसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुच्चंति साहणोत्ति य, जेणं ते महुयरसमाणा ॥ तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहि भमरोग्य अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ ति, उक्किळं मंगलं धम्मो ।। निगमणसुद्धी तित्यंतरावि धम्मत्यमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति ॥
१. मुद्रित टीका में ४१,२ ये दोनों गाथाएं २. ६-८ के लिए देखें टिप्पण दशनि ९५।३ ।
भाष्य २,३ के क्रमांक में है किन्तु दोनों ३. ९,१० के लिए देखें टिप्पण दशनि ९॥२॥ चूणियों में ये निगा के रूप में व्याख्यात है ४. ११ के लिए देखें टिप्पण दनि ९७१। (देखें टिप्पण दशनि ९१)।
५. १२ के लिए देखें टिप्पण पनि ९९।१।