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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं हुए पैदल ही पूर्व दिशा की ओर चलने लगे। सौराष्ट्र देश को पारकर वे हस्तिनाकल्प नगरी के बाहर पहुंचे। कृष्ण ने बलदेव से कहा-'मैं भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा हूं।' तब बलदेव ने कहा-'मैं शीघ्र ही आपके लिए भक्तपान लाने के लिए जा रहा हूं। तुम भी जागरूक होकर यहां बैठे रहना। यदि मेरे इस नगरी में जाने पर कोई आपत्ति आई तो मेरा महाशब्द सुनकर तुम आ जाना।' ऐसा कहकर बलदेव हृदय में वासुदेव की स्मृति करता हुआ हस्तिनाकल्प नगर गया। वहां धृतराष्ट्र का पुत्र अच्छंदक' नाम का राजा राज्य करता था। बलदेव ने अपने श्रीवत्स को वस्त्रों से आच्छादित कर नगरी में प्रवेश किया। वहां लोकापवाद हो गया कि नगरी में अग्नि से बलदेव वासुदेव आदि सभी बंधु जल कर नष्ट हो गए हैं। बलदेव को प्रमाण से भी अधिक सुरूप देखकर लोग विस्मित होकर कहने लगे-'अहो रूपसंपदा', 'अहो चन्द्रमा के समान कांति और सौम्यता!' इस प्रकार स्लाबा को प्राप्त करता हु मालदेव भोजनाया । वहां अंगूठी बेचकर उसने भोजन और हाथ के कटक देकर मदिरा प्राप्त की। वह वहां से प्रस्थित होकर नगर-द्वार पर पहुंचा। उसे देखकर द्वार-आरक्षकों ने राजा को निवेदन किया-'कोई बलदेव जैसा पुरुष चोर की भांति दूसरों के चुराए हुए कटक और अंगूठी बेचकर भक्त-पान खरीदकर जा रहा है। तब अच्छंदक राजा सशंकित होकर अपनी सेना के साथ वहां गया और बलराम से लड़ना प्रारम्भ कर दिया । बलराम ने कृष्ण को जताने के लिए महाशब्द किया। यह युद्ध का सांकेतिक शब्द था। वह भक्त और पान को छोड़कर पास के हाथी पर चढ़कर अच्छंदक की सेना को विदीर्ण करने लगा। तब तक कृष्ण भी शीघ्र ही वहां आ गए। नगर-द्वार को तोड़कर अर्गला को हाथ में लेकर उन्होंने अच्छंदक की सेना को विदीर्ण कर दिया और अच्छंदक को अपने वश में कर लिया। उन्होंने कहा-'अरे! दुराचारिन् ! क्या तू हमारे बाहुबल को भी नहीं पहचान पाया? अच्छा, हम तुम्हें मुक्त करते हैं। तू अपने राज्य का स्वच्छंदता से उपभोग कर।' उन्होंने अपना व्यतिकर बताया और वे वनखंड से शोभित उद्यान में चले गए। वहां वे अश्रुपूरित नेत्रों से 'नमो जिणाण' कहकर लाए हुए अन्न-पानी को ग्रहण करने लगे। दोनों ने सोचा, पूर्वकाल में हम किस प्रकार से भोजन करते थे, उसका अनुभव करते हुए भी हमें आज इस प्रकार भोजन करना पड़ रहा है। सच है, क्षुधा और पिपासा को सहन करना अत्यन्त कठिन होता है। हमें ऐसा क्यों सोचना चाहिए? भगवान् ने स्वयं कहा है-'प्रत्येक जन्म में सभी भावों की अनित्यता होती है।' ऐसा सोचकर कुछ आहार- पानी करके वे लोग दक्षिण दिशा में जाने लगे। चलते-चलते वे कोसुंब नामक वन में पहुंचे। मद्यपान एवं लवण युक्त भोजन करने से ग्रीष्मकाल में अत्यधिक पसीना निकल जाने से, शोकाकुल होने से तथा पुण्य-क्षय होने के कारण वासुदेव को अत्यधिक प्यास की अनुभूति हुई। कृष्ण ने बलराम से कहा-'भातृवत्सल भाई बलराम ! प्यास से मेरा मुंह सूख रहा है। मैं शीतलवन तक जाने में भी समर्थ नहीं हूं।' यह सुनकर बलदेव ने कहा-'अति प्राणवल्लभ भाई ! तुम थोड़ी देर पेड़ की छाया में विश्राम करो तब तक मैं तुम्हारे लिए जल लेकर आता हूँ।' कृष्ण ने कौशेय वस्त्र से स्वयं को ढका और एक पैर को जानु के ऊपर रखकर सो गए। बलदेव ने कहा--'प्राणवल्लभ! तुम यहां जागरूक रहना।' बलदेव ने वन-देवताओं से कहा-'यह
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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