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________________ नियुक्तिपंचक उज्जयिनी नगरी में रूप लावण्य और विविध कलाओं से गर्वित देवदत्ता नामक प्रधान गणिका रहती थी। मूलदेव ने लोगों से सुना कि वह आत्मगर्विता गणिका किसी सामान्य व्यक्ति से प्रसन्न नहीं होती। मूलदेव ने कुतूहलवश गणिका को विचलित करने के लिए प्रात:काल उसके घर के समीप मधुर स्वरों में आरोह-अवरोह के साथ गायन प्रारम्भ कर दिया । देवदत्ता ने उस संगीत को सुना। उसने सोचा- 'अहो ! यह तो अपूर्व ध्वनि है, विशिष्ट ध्वनि हैं। यह कोई दिव्य पुरुष होना चाहिए। मनुष्य का स्वर नहीं हो सकता उसने अपनी वासियों को गायक पुरुष की खोज में भेजा। दासियों ने वामन रूप मूलदेव को देखा। उन्होंने सारी बात देवदत्ता को बताई । मूलदेव को बुलाने के लिए देवदत्ता ने मानवी नामक कुब्जा दासी को भेजा । दासी ने विनयपूर्वक मूलदेव से कहा- 'भो महासत्त्व! हमारी स्वामिनी देवदत्ता ने आपको संदेश भिजवाया है कि आप हमारे घर पधारने की कृपा करें।' मूलदेव ने उस निपुण कुब्जा दासी से कहा- 'नीतिकारों का वचन है कि विशिष्ट लोगों को वेश्याओं के साथ सम्पर्क नहीं रखना चाहिए अतः गणिका के यहां जाने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं है और न ही अभिलाषा हैं। कुब्जा दासी ने अपने वाक् कौशल से मूलदेव का चित्त प्रसन्न कर लिया और आग्रहपूर्वक हाथ पकड़कर घर ले जाने लगी। चलते-चलते वामन रूपधारी मूलदेव ने कला कुशलता और विद्याप्रयोग द्वारा हस्त- ताड़न से उस कुब्जा को स्वस्थ बना दिया। उसका कुब्जपना मिटा दिया। विस्मय से क्षिप्त चित्तवाली कुब्जा दम्मी मूलदेव को भवन में ले गई। देवदत्ता ने अपूर्व लावण्यधारी उस वामनरूप मूलदेव को देखा । देवदत्ता वेश्या ने त्रिस्थित होकर उसे आसन और ताम्बूल दिया। वह आसन पर बैठ गया। माधवी ने देवदत्ता को अपना परिवर्तित रूप बताया और पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर देवदत्ता अत्यन्त विस्मित हुई । अब देवदत्ता और मूलदेव दोनों में परस्पर मधुर और पांडित्यपूर्ण संलाप शुरू हो गया। मूलदेव ने उसके हृदय को आकृष्ट कर लिया । ५३६ इसी बीच एक वीणावादक वहां आया और वीणा बजाने लगा । देवदत्ता उसे सुनकर अत्यन्त अनुरक्त हो गयी। देवदत्ता ने कहा- 'अरे वीणावादक ! तुम्हारी वीणावादन की कला बहुत सुन्दर है।' मूलदेव ने व्यंग्य में कहा-'उज्जयिनी के लोग बहुत निपुण हैं, जो सुन्दर और असुन्दर का विवेचन कर सकते हैं।' देवदत्ता ने कहा- 'इसमें हानि क्या है ?' मूलदेव ने कहा - ' इस वीणा का बांस अशुद्ध है तथा तंत्री सगर्भा है।' देवदत्ता ने विस्मय से पूछा - ' यह तुमने कैसे जाना?' मूलदेव ने कहा—'मैं अभी दिखाता हूं।' देवदत्ता ने वीणा मूलदेव के हाथ में थमा दी। मूलदेव ने बांस से पत्थर के टुकड़े को निकाला। फिर तंत्री से बाल निकालकर वीणा बजाने लगा। मूलदेव ने परिजन सहित देवदत्ता को अपने अधीन कर लिया। पास में ही एक हथिनी बंधी हुई थी। वह सदा चिंघाड़ती रहती थी। वह भी वीणा के स्वर सुनकर उत्कर्ण हो गयी। देवदत्ता और वीणावादक - दोनों ही अत्यधिक विस्मित हुए। देवदत्ता ने सोचा- 'यह प्रच्छन्न वेश में विश्वकर्मा हैं।' देवदत्ता ने वीणावादक को पारितोषिक देकर भेज दिया। भोजन बेला आई। देवदत्ता ने कहा- ' अंगमर्दक को बुलाओ । हम दोनों - मैं और मूलदेव अपना अंगमर्दन करवाएंगे।' मूलदेव ने देवदत्ता से कहा- 'मुझे आज्ञा दें, मैं ही आपका अभ्यंगन करूं।' देवदत्ता ने पूछा- 'क्या तुम अंग-मर्दन भी जानते हो?' मूलदेव ने
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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