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________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३६१ १८, तीर्थंकरों के मत-मातृकापद को सुनकर गणधरों ने क्षयोपशम तथा शुभ अध्यवसायों से इस सूत्र की रचना की। इसलिए यह सूत्रकृत कहलाया। १९. तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की । अनेक योगों (लब्धियों) के धारक गणधरों ने अपने बचनयोग से जीव के स्वाभाविव गुण अर्थात् प्राकृतभाषा में उसको निरूपित किया। २०. अक्षरगुण से मतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों का परिशाटन-इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई, इसलिए यह 'सूत्रकृत' है।' २१. सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सुत्रित (पिरोए हुए) हैं, कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं। वे सभी अर्थ युक्ति युक्त हैं । आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त वे अर्थ प्रसिद्ध, स्वतः सिद्ध और अनादि २२. सूत्रकृतांग आगम के दो श्रुसस्कन्ध तथा तेवीस अध्ययन हैं (१६+७) । उसके तेतीस उद्देशन कारन हैं।' इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना है।' २३. (पहले श्रुतस्कंध का एक नाम है-गाथा षोडशक ।) 'गाथा' के चार निक्षेप हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा 'षोडशक' शब्द के छह निक्षेप है—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । 'श्रुल' तथा 'स्कन्ध' के चार-चार निक्षेप हैं। २४-२८. प्रथम तस्कंघ क. सोलाइ अायगनों का अधिकार (मिय) इस प्रकार है१. स्वसमय तथा परसमय का निरूपण । २. स्वसमय का बोध । ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना । ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन । ५, उपसगंभीरू तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात | ६. जैसे माहात्मा महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय प्राप्त करने के उपाय कहे हैं, वैसा प्रयत्न करना। ७. जो मुनि निःशील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्मों की सेवा करता है, वह शीलवान होता है। १. स्वाभाविक्रेन गुणेन--स्वस्मिन् भावे भवः ३. प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों के २६ स्वाभाविक: प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्त उद्देशक इस प्रकार है--पहले अध्ययन के ४, भवति । (सूटी ५. ५) दूसरे अध्ययन के ३, तीसरे अध्ययन के ४, २, अथवा वाग्थ्योग तथा मनोयोग से यह चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो तथा सूत्र कृत है, इसलिए सूत्रकूत है । अथवा शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशाक यह तस्मश्रुत से भावत का प्रकाशन है। जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों के हैं, वैसे-वैसे कर्म-निर्जरा होती है। जैसे-जैसे सात उद्देशक हैं। कर्म निर्जरा होती है, वैसे-वैसे सूत्र-रचना ४, आचारांग से दुगुना परिभरण अर्थात् छत्तीस का उपम होना है। (सूटी पृ. ५) हजार पद-परिमाण ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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