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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५९७ पटरानी कमलावती बना। तीसरा उसी राजा का पुरोहित बना, जिसका नाम भृगु था तथा चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी वाशिष्ठगोत्री यशा बना। भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं था। संतान के लिए दोनों पति-पत्नी चिंतामग्न रहते थे। संतान के लिए वे विविध देवताओं और नैमत्तिकों से उपाय पूछते रहते थे। एक बार उन दानां कालपुत्रों ने देवभत्र में अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगुपुरोहित के प होंगे। वे श्रमण का रूप बनाकर भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु पुरोहित और यशा-दोनों ने उ.. वंदना की। श्रमण दलों ने उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया। भृगु दम्पति ने श्रावक व्रत स्वीकार किए। भृगु ने पूछा-'भगवन् ! हमार कोई पुत्र होगा या नहीं?' श्रमण युगल ने कहा-'तुम्हारे दो पुत्र होंगे लेकिन व सामानस्था में ही दीक्षित हो जाएंगे। उनकी प्रव्रज्या में तुमको कोई बाधा नहीं पहचाना है। वे दीक्षित है कर घमशासन की प्रभावना करेंगे और अनेक लोगों को प्रतिबुद्ध करेंगे।' इतना कहकर वे दोनों श्रमण वहां से चले गए। कुछ समय बाद दोनों देव पुरोहित-पत्नी गर्भ में आए। दीक्षा के भ्य से पुरोहित नगर को छोडकर व्रज गांव में जाकर बस गया। वहां पुरोहित- पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कुछ बड़े होने पर माता-पिता ने सोचा कि कहीं ये दीक्षित न हो जाएं अतः एक बार उसने कहा-'थे श्रमण धूर्त और प्रेत-पिशाच रूप होते हैं। ये सुन्दर सुन्दर बालकों को उठाकर ले जाते हैं और फिर उनका मांस खाते हैं अत: तुम कभी भी उनके पास मत जाना।' एक बार वे दोनों बालक खेलते-खेलते गांव के बाहर चले गए। कुछ साधु उसी मार्ग से आ रहे थे । वे दोनों बालक भयभीत हो गए और दौड़कर एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी वक्ष की सघन छाया में ठहरे। महत भर विश्राम करके सभी साधु एक मंडली में भोजन करने लगे। बालकों को माता-पिता की शिक्षा स्मृति में आयो किन्तु उन्होंने देखा कि मुनि के पात्र में मांस जैसी कोई वस्तु नहीं है। साधुओं को अपने घर जैसा सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय क्रम हुआ। उन्होंने सोचा-'अहो ! हमने ऐसे साध अन्यत्र भी कहीं देखे हैं।' चिंतन करते-करते उन्हें जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे प्रतिबुद्ध हो गए। नीचे उतरकर उन्होंने साधुओं को वंदना की और ये अपने माता-पिता के पास आए। उन्होंने माता-पिता से कहा-'मनुष्य जीवन अनित्य और विघ्नबहुल है, आयु छोटी है अत: हम दीक्षा स्वीकार करने की अनुमति चाहते हैं।' पिता ने उनको अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया। वार्तालाप में पिता ने उन्हें ब्राह्मण संस्कृति से परिचित कराने का प्रयत्न किया किन्तु दोनों बालकों ने विस्तार से उन्हें श्रमण संस्कृति का ज्ञान कराया। अंत में पुरोहित भी संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या हेतु तैयार हो गया। उसने अपनी पत्नी को समझाया तो वह भी प्रतिबुद्ध हो गयीं। इस प्रकार वे चारों-माता-पिता और दोनों पुत्र प्रवजित हो गए। उस समय राज्य का विधान था कि जिसके कोई उत्तराधिकारी नहीं होता, उसकी सम्पत्ति राजा की मान ली जाती थी। भृगु पुरोहित का सारा परिवार दीक्षित हो गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने सारी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा। रानी कमलावती को जब यह बात मालम पड़ी तो उसने राजा से कहा-'राजन् ! वमन को खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन लेना चाहते हैं, यह वमन पीने जैसा है।'
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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