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________________ नियुक्तिपंचक आपकी इस राज्यलक्ष्मी को धिक्कार है कि आप अन्नदान देने में भी इतना सोच रहे हैं।' तब राजा ने आक्रोश वश उसे भोजन की अनुमति दे दी। अनुमति पाकर ब्राह्मण अपने परिवार सहित चक्रवर्ती के प्रासाद में गया। वहां सभी ने भोजन किया। ब्राह्मण अपने परिवार के साथ घर आ गया। रात्रि में अन्न की परिणति के कारण सभी में उन्माद व्याप्त हो गया। सभी परिजन काम-वेदना से आविष्ट होकर संबंधों को भूलकर, एक दूसरे के साथ अनाचार का सेवन करने लगे। अन्न का पूरा परिणमन हुआ। प्रात:काल ब्राह्मण तथा सभी परिजन अत्यन्त लजा का अनुभव करने लगे। वे एक दूसरे को मुंह दिखाने में भी समर्थ नहीं रहे । ब्राह्मण घर छोड़कर नगर के बाहर चला गया। वन की ओर जातेजाते ब्राह्मण ने सोचा-'राजा के साथ मेरा कोई वैर नहीं था। फिर बिना किसी निमित्त के राजा ने मेरी ऐसी विडम्बना क्यों की?' उसका मन ईर्ष्या और क्रोध से भर गया। वह वन में घूमता र एक दिन उसने एक अजापालक को देखा, जो कंकरों से पीपल के पत्तों में छेद कर रहा था। कंकर ठीक निशाने पर लग रहे थे। 'यह मेरा विवक्षित कार्य करने में समर्थ है' यह सोचकर ब्राह्मण अजापालक के पास गया। सम्मान से दान-दक्षिणा देकर उसे प्रसना किया और उसको एकान्त में अपना अभिप्राय बता दिया। उसने तदनुरूप कार्य करना स्वीकार कर लिया। एक दिन वह अजापालक एक भीत की ओट में छिपकर खड़ा हो गया। राजा ब्रह्मदत्त अपने प्रासाद से उसी मार्ग पर कहीं जा रहे थे। अचूक निशानेबाज अजापालक ने निशाना साधा और एक साथ कंकर से उनकी दोनों आंखें उखाड़ दी। अजापालक पकड़ा गया। राजा ने उससे पूरा वृत्तान्त जानकर ब्राह्मण को उसके पूरे परिवार सहित मरवा डाला।अन्यान्य ब्राह्मणों की घात करने के पश्चात् 'राजा ने मंत्री से कहा-'इन सबकी आंखें एक थाल में सजाकर मेरे सामने उपस्थित करो। मैं अपने हाथों से उन आंखों का मर्दन कर सुख का अनुभव करूंगा।' मंत्री ने सोचा-'राजा अभी क्लिष्ट कर्मोदय के वशीभूत है। मुझे कोई उपाय करना चाहिए।' उसने शाखोटक (सिहोड) वृक्ष के फलों को थाली में सजाकर राजा के सामने रखा। राजा क्रूर अध्यवसायों से अभिभूत था। वह उन फलों को मनुष्य की आंखें मानकर उनका मर्दन करता हुआ सुख का अनुभव करने लगा। कुछ दिन बीते। सात सौ सोलह वर्ष का आयुष्य पूरा कर, अत्यन्त रौद्र अध्यवसायों से मरकर वह सातवीं नरक में तेतीस सागर की आयुष्य वाला नैरयिक बना। ५७. भृगु पुरोहित तेरहवें अध्ययन में वर्णित चित्र और संभूत के दो मित्र थे, जो ग्वाले थे। साधु के अनुग्रह से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। वे वहां से मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्यवन कर वे क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक सेठ के यहां उत्पन्न हुए। चार इभ्यपुत्र उनके मित्र थे। उन सबने युवावस्था में भोगों का उपभोग किया फिर स्थविर मुनि के प्रवचन से विरक्त होकर प्रजित हो गए। चिरकाल तक संयम का पालन कर वे भक्तप्रत्याख्यान अनशन द्वारा सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाले देव बने। दो ग्वालपुत्रों को छोड़कर शेष चारों मित्र वहां से च्युत हुए। उनमें एक कुरु जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नामक राजा बना तथा दूसरा उसी राजा की १. उनि.३२५-३५२, उसुटी.प. १८५-९७ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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