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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं भार्ग ढूँढ़ा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट ने महामात्य वरधनु से कहा-'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा' इस श्लोकाद्धं को सन्त्र जगह प्रचारित करो और यह घोषणा करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट् अपना आधा राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्धश्लोक दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो गया। इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत होकर पुरिमताल नगर में एक सेठ के घर जन्मा. युवा होने पर एक दिन उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वह वहीं काम्पिल्यपुर में आया और मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर रहा था। उसी समय रहट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहां बोल उठा-'आस्व दासौ मृगौ हंसो, मातंगावमसौ तथा।' मुनि ने इस श्लोकार्ध को सुना और उसके आगे के दो चरण पूरे करते हुए कहा-'एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः रहट चलाने वाले उस व्यक्ति ने उन दोनों चरणों को एक पत्र में लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में वह दौड़ा-दौड़ा राज-दरबार में पहुँचा। सम्राट की अनुमति प्राप्त कर वह राज्य सभा में गया और एक ही साँस में परा श्लोक सम्राट को सुना डाला। उसे सुनते ही सम्राट् स्नेहवश मूर्छित हो गए। सारी सभा क्षुब्ध हो गयी । सभासद क्रुद्ध होकर उसे पीटने लगे। उन्होंने कहा–'टूने सम्राट् को मूर्छित कर दिया। कैसी तेरी श्लोक-पृर्ति?' मार पड़ने पर वह बोला- मुझे मत मारी । श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं की है।' 'तो किसने की है?' सभासदों ने पूछा तब उसने कहा-'मेरे रहट के पास खड़े एक मुनि ने की है।' अनुकूल उपचार पाकर सम्राट् सचेतन हुआ। सारी बात की जानकारी प्राप्त कर वह परिकर सहित मनि के दर्शन करने के लिए उद्यान में चल पड़ा। मुनि को वंदना कर वह विनयपूर्वक उनके पास बैठ गया। मुनि ने धर्मदेशना दी। कर्म विपाक का वर्णन किया तथा मोक्षमार्ग का विवेचन किया। परिषद् विरक्त हो गयीं पर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भावित नहीं हुआ। पुन: पुनः प्रतिबोध देने पर भी ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध नहीं हुआ तब मुनि चित्र ने सोचा-'ओह ! अब मुझे समझ में आ गया कि ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध क्यों नहीं हो रहा है? पूर्वभव में चक्रवर्ती सनत्कुमार की स्त्रीरत्न दर्शनार्थ आई थी। वन्दना करते समय उसकी केशराशि का स्पर्श मुनि के चरणों से हुआ। चरण -स्पर्श से मुनि को अपार सुख की अनुभूति हुई। तब पुनि सम्भूत ने स्त्रीरत्न की प्राप्ति का निदान कर डाला। मैंने निदान करने का निषेध किया। परन्तु निषेध का असर नहीं हुआ। यही कारण है कि आज यह अपने राज्य के प्रति इतना आसक्त है। जैसे मृत्यु रूपी नाग से दष्ट व्यक्ति के लिए जिन-वचन रूपी मंत्र-तंत्र कार्यकर नहीं होता, वैसे ही इस पर धर्म-प्रतिबोध का कोई प्रभाव नहीं हो रहा है।' मुनि वहां से चले गए और साधना करते-करते मोक्ष को प्राप्त हो गए। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सुखों का अनुभव करने लगा। कुछ काल बीता। एक बार एक ब्राहाण 'चक्रवर्ती के पास आकर बोला-'राजन् ! मेरे मन में एक अभिलाषा उत्पन्न हुई है कि मैं चक्रवर्ती का भोजन करूं।' चक्रवर्ती बोला-'द्विजोत्तम! मेरा अन्न तुम पचा नहीं पाओगे। यह अन्न मेरे अतिरिक्त कोई नहीं पचा पाता। यह अन्न दूसरों में सम्यक् परिणत नहीं होता ।' तब ब्राह्मण बोला-'राजन्!
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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