SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 692
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९४ नियुक्तिपंचक में गढ़ी कील की तरह निश्चल और भरी आंखों से क्षण भर वहां ठहरी । हाथी का संभ्रम दूर होने पर ज्यों-त्यों उसे घर ले जाया गया। वह वहाँ भी न स्नान करती है और न ही भोजन। वह तब से मौन हैं। मैं उसके पास गई। मैंने कहा-'पुत्री ! तुम बिना कारण हो क्यों अनमनी हो रही हो? मेरे वचनों की अवहेलना क्यों कर रही हो?' उसने मुस्कराते हुए कहा-'मां ! तुमसे मैं क्या छुपाऊँ? किन्त लज्जावश चुप हैं। यदि उस कुमार के साथ जिसने मुझे हाथो से बचाया है, मेरा विवाह नहीं हो जाता तो मेरा मरना निश्चित है।' यह बात सुन मैंने उसके पिता से सारी बात कही। उसने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। आप कृपा कर इस बालिका को स्वीकार करें।' कुमार ने उसे स्वीकार कर लिया। शुभ दिन में उसका विवाह सम्पन्न हुआ। वरधनु का विवाह अमात्य सुबुद्धि की पुत्री नन्दा के साथ हुआ। दोनों सुख भोगते हुए वहीं रहने लगे। चारों ओर उनकी कीर्ति फैल गई। चलते-चलते वे वाराणसी पहुंचे। राजा कटक ने जब कुमार ब्रह्मदत्त का आगमन सुना तो वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। पूर्ण सम्मान के साथ कुमार ब्रह्मदत्त को नगर में प्रवेश कराया गया। उसने अपनी पुत्री कटकावतो से ब्रह्मदत्त का विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेजकर सेना सहित पुष्पचूल को बुला लिया। मंत्री धनु और करेणुदत्त भी वहां आ पहुंचे। चंद्रसिंह, भचंदत्त आदि और भी अनेक राजा उनके साथ मिल गए। उन सबने वरधनु को सेनापति के पद पर नियुक्त कर काम्पिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। इसी बीच राजा दीघं ने कटक आदि राजाओं के पास अपना दूत भेजा पर सबने उसका तिरस्कार किया। अनवरत प्रयाण से सेना काम्पिल्यपुर पहुंच गयी। चारों ओर से नगर को घेर लिया, जिससे नागरिकों का निर्गम और प्रवेश अवरुद्ध हो गया। राजा दीर्घ 'कितने दिन तक अंदर छिपकर बैठा रहूंगा' ऐसा सोचकर साहस के साथ सेना के सम्मुख आया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। अपनी सेना को पराजित होते देख साहस के साथ राजा दीर्घ युद्ध में उपस्थित हुआ। राजा दीर्घ को देखकर कुमार ब्रह्मदत्त ने रोष के साथ उस पर बाण छोड़ा। फिर गांडीव, खड्ग आदि से प्रहार करके उस पर चक्र छोड़ दिया। राजा दीर्घ का सिर धड़ से अलग हो गया। 'चक्रवर्ती की विजय हुई'- यह घोष चारों ओर फैल गया। देवों ने आकाश से फूल बरसाए। 'बारहवां चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है' यह आकाशवाणी हुई । नागरिकों ने अभिनंदन करते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का नगर में प्रवेश करवाया। सकल सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक किया। वह छह खंड का अधिपति बन गया। पुष्पवती प्रमुख सारा अंत:पुर काम्पिल्यपुर में आ गया। राग्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना की-'मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन करना चाहता हूँ।' चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपराह्न में नाटक होने लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूलमालाएं लाकर राजा के सामने रखी । उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हुआ कि ऐसा नाटक इसके पहले भी मैंने कहीं देखा है। वह इस चिन्तन में लीन हो गया और उसे पूर्व-जन्म को स्मृति हो आई। उसने जान लिया कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देखा था। इस स्मृति मात्र से वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। पास बैठे हुए सामन्त उठे, चन्दन का लेप किया। राजा की चेतना लौट आई। सम्राट आश्वस्त हुआ। उसे पूर्वजन्म के भाई की याद सताने लगी। भाई की खोज करने के लिए उसने एक
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy