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नियुक्तिपंचक
वणिक नगरी में पहुंचते ही अध्यं लेकर राजा के पास पहुंचा। पूर्व वृत्तान्त बताते हुए उस गोशीर्ष चन्दन से देवाधिदेव की प्रतिमा बनाने का निवेदन किया। सारी बात सुनकर राजा ने सभी चतुर लोगों को बुलाकर यह बात बतायी। राजा ने काष्ठकारों को बुलाया। उन्हें प्रतिमा बनाने के लिए कहा। उन्होंने प्रतिमा बनाने के लिए हथौड़ा उठाया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उस समय ब्राह्मणों ने कहा कि देवाधिदेव ब्रह्मा हैं अत: उनकी प्रतिमा बनवाओ। शिल्पो ने कुल्हाड़ी मारी लेकिन व्यर्थ चली गयी। किसी ने कहा कि देवाधिदेव विष्णु हैं, फिर भी चंदन-काष्ठ पर शस्त्र का असर नहीं हुआ। इस दृश्य को देखकर स्कन्द, रुद्र आदि देवों के नाम लेकर शस्त्र चलाया लेकिन वह प्रयास व्यर्थ ही हुआ। यह देखकर राजा बहुत दुःखी हुआ। उसी समय रानी प्रभावती ने राजा को भोजन के लिए बुलाया। राजा ने इन्कार कर दिया। भोजन-बेला का अतिक्रमण जानकर प्रभावतो ने दासी को पुनः राजा के पास भेजा।
दासी के निवेदन करने पर राजा ने सारी स्थिति दासी को बतायी । दासी ने रानी को यथार्थ स्थिति से अवगत कराया। सारी स्थिति जानकर रानी बोली--'अहो! मिथ्यादर्शन के कारण राजा देवाधिदेव को भी नहीं जानते हैं।' उसी समय रानी श्वेत वस्त्रों को पहन कर कौतुक मंगल आदि क्रिया से निवृत्त होकर राजा के पास आयी और बोलो--'देवाधिदेव महावीर वर्द्धमान स्वामी हैं, उनकी प्रतिमा बनवाओ।' महावीर का नाम लेकर काष्ठकार ने लकड़ी पर कुल्हाड़ी चलायी। एक बार में ही लकड़ी के दो टुकड़े हो गए। उसके अन्दर से सर्व अलंकारों से सुशोभित भगवान् महावीर की प्रतिमा निकली। राजा ने अपने निवास स्थल के पास देवायतन बनवाया और मूर्ति की स्थापना की। देवायतन में कृष्णगुटिका नामक दासी को नियुक्त किया। अष्टमी, चतुर्दशी के दिन रानी प्रभावती स्वयं वहां जाकर नृत्य आदि में भाग लेती थीं। राजा भी उसी के अनुरूप मृदंग बजाता था।
एक बार जब रानी प्रभावती नृत्य कर रही थी, तब राजा ने सनी के सिर की छाया नहीं देखी । अमंगल की चिन्ता से राजा के हाथ के वाद्य छूट गए। रानी प्रभावती इस बात से नाराज हो गयी। राजा ने कहा-'महारानी । तुम रुष्ट मत बनो । आज मैंने अमंगल देखा है अत: चित्त की विक्षिप्तता से मेरे हाथ से वाद्य छूट गया।' यह सुनकर रानी प्रभावती बोली-'जिन शासन में अनुरक्त व्यक्ति को मरने से नहीं डरना चाहिए।'
एक दिन रानी प्रभावती जब स्नान आदि से निवृत्त हो गयी तो दासी को श्वेत वस्त्र लाने के लिए कहा। दासी वस्त्र लाने गयी लेकिन देवकृत उपद्रव से वे वस्त्र बीच में ही लाल हो गए। दासी चकित हो गयी। दासी ने वस्त्र महारानी को दिए। उस समय महारानी दर्पण में अपना मुंह देख रही थी। रानी उन लाल वस्त्रों को देखकर क्रोधित हो गई। रुष्ट होकर वह बोली-'देवायतन में प्रवेश करते हुए तुमने यह अमंगल क्यों किया? क्या इस समय मैं शयनगृह में जा रही हूं, जो ये लाल वस्त्र लायी हो?' क्रोधावेश में व्यक्ति अंधा हो जाता है। रानी ने दर्पण से दासी के सिर पर प्रहार किया फलस्वरूप दासी उसी समय मर गई। उधर उसी समय वस्त्र पुनः स्वाभाविक स्थिति में आ गए। यह देखकर रानी ने आत्मालोचन किया कि मैने व्यर्थ ही निरपराध दासी की हत्या कर दी। चिरकाल से पालित मेरा स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत भंग हो गया। निश्चय ही यह बात