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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं मेरे लिए भावी अमंगल की सूचक है। रानी ने राजा को सारी स्थिति बतलाई और दीक्षा की अनुमति मांगती हुई बोली कि मैं संयम के बिना मरना नहीं चाहती ! रानी की तीव्र भावना देखकर राजा ने कहा कि यदि तुम मरकर मुझे सद्धर्म में प्रेरित करो तो तुम्हें दीक्षा की अनुमति दे सकता हूँ। अनुज्ञा मिलते ही रानी प्रभावती साध्वी प्रभावती बन गई। छह मास तक संयम का सम्यक् पालन कर अन्तिम समय में आलोचना प्रतिक्रमण कर रानी वैमानिक देव बनी। प्रभावती देव ने अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव देखा। पूर्व अनुराग तथा प्रतिज्ञा की स्मृति से उसने राजा उदयन को अनेक रूपों में यतिधर्म का उपदेश दिया। राजा उस समय तापसों का परम भक्त बना हुआ था अतः उसने जिन धर्म स्वीकृत नहीं किया। प्रतिबोध देने हेतु देव प्रभावती ने तापस का रूप बनाया और फूल, फल आदि लेकर राजा के पास उपस्थित हुआ। तापस ने अत्यंत रमणीय फल राजा को समर्पित किया। वह फल गंध से सुरभित, रूप से मनोरम और स्वाद में रसयुक्त था। राजा ने उस अनुपम फल के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की। तापस रूप देव ने कहा कि यहां से निकट ही तापसों के आश्रम में ऐसे फल देने वाले अनेक वृक्ष हैं। राजा ने तापसाश्रम और उन वृक्षों को देखने की जिज्ञासा व्यक्त की। राजा उस देव तापम के साथ अकेला ही अनेक अलंकारों से विभूषित होकर गया। आश्रमद्वार में प्रवेश करते ही उसे दिव्य गंध की अनुभूति हुई। राजा को देखते हो तापसों की आवाज सुनायी दी कि यह राजा अनेक अलंकारों को पहन कर आया है अत: इसे मारो, पकड़ो। राजा भय से पीछे सरकने लगा। यह देखकर साथ आने वाला तापस देव भी चिल्लाया कि अरे ! यह राजा भाग रहा है, इसे पकड़ो। आवाज सुनकर अनेक तापस दण्ड, कमण्डलु लेकर 'मारो, पकड़ो' की आवाज करते हुए पीछे दौड़ने लगे। भय विह्वल राजा ने एक वन-खण्ड देखा। वहाँ अनेक मनुष्यों की आवाज सुनायी दी। शरण लेने की इच्छा से राजा ने उस वन-खण्ड में प्रवेश किया। वहां चन्द्र की भांति सौम्य, कापदेव जैसा रूपवान् तथा बृहस्पति की तरह सर्व शास्त्रों के विशारद एक तेजस्वी श्रमण को देखा। उसके चारों ओर अनेक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं उपदेश सुनने बैठे हुए थे। उसी समय राजा 'शरण दो''शरण दो' की आवाज करता हुआ वहां आया। साधुओं ने अभय का उपदेश दिया। आश्वस्त होकर राजा वहीं बैठ गया। तापस भी 'यह हाथ से निकल गया' यह कहकर वापिस लौट गए। साधुओं ने राजा को धर्म का रहस्य बताया। प्रभावित होकर राजा ने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया। देव तापस ने भी अपनी माया समेट ली। राजा ने अनुभव किया कि मैं तो सिंहासन पर बैठा हूं न कहीं गया और न आया फिर यह घटना कैसे घटो? प्रभावती रूप देव ने आकाशवाणी करते हुए कहा-'राजन् ! यह सब माया मैंने तुमको प्रतिबोधित करने के लिए की। अब तुम धर्म में दृढ़ रहना और कभी आपत्ति का अनुभव करो तो मुझे याद कर लेना।' यह कहकर देव अन्तर्धान हो गया। उसी समय गंधार जनपद में एक श्रावक दीक्षा लेना चाहता था। वह सभी तीर्थकरों को जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, कैवल्यभूमि और निर्वाण -भूमि को देखकर लौटा। उसने सुना कि वैताद्य पर्वत की गुफा में ऋषभ आदि तीर्थंकरों की रत्न-निर्मित स्वर्ण-प्रतिमाएं हैं। साधु के मुख से यह बात सुनकर उसके मन में वह स्थान देखने की भावना जागृत हुई। उसने देवता की आराधना करके प्रतिमा प्रकट करायी। वह श्रावक वहां रहता हुआ अहर्निश भगवान् की स्तुति करने लगा। उसके मन में रल्लों
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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