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________________ नियुक्तिपंचक्र भी विषय की इतनी विस्तृत व्याख्या नहीं की है तथा गाथा २१९ में २२८ जी गाथा के विषय का ही पुनरावर्तन हुआ है। २०. मंगलाचरण की कुछ माया बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं। इसका प्रमाण है आचारांगनियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा। यह माया केवल टीका एवं हस्तप्रतियों में मिलती है। चूर्णकार ने इस गाथा का न कोई संकेत दिया है और न ही व्याख्या प्रस्तुत की है। तीसरी गाथा के बारे में चूर्णिकार ने 'एसा बितियगाहा' का उन्लेख किया है। वैसे भी मंगलाचरण की परम्परा बहुत जाद की है अत: बहुत संभव है कि गह गाधः ताद के आचार्यों या द्वितीय भद्रबाहु द्वारा जोड़ी गयी हो। लेकिन वर्तमान में रह गाथ नियुक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है अत: हमने इसको नियुक्त्ति-गाथा के क्रम में जोड़ा है। २१. आधारांगनियुक्ति की अनेक गाथाओं का चूर्णि में कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है क्योंकि वह संक्षिप्त शैली में लिखी गयी है अत: अनेक स्थानों पर 'णवगाहा कंठ्या' अथवा 'निज्जुत्तिगाहाओ पडियसिद्धाओ' मात्र इतना ही उल्लेख है। इसलिए ऐसा अधिक संभव लगता है कि संक्षिप्तता के कारण चूर्णिकार ने अनेक सरल गयाओं के न संकेत दिए और न व्याख्य' ही की। पर हमने उनको निर्यक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। २२. उद्देशकाधिकार तथा अध्ययनगत विषय या शब्द की व्याख्या करने वाली गाथाओं के क्रम में कहीं-कहीं चूर्णि एवं टीका में कम-व्यत्यय है। आचारांग एवं सूत्रकृतांग निर्युक्ति के अंतर्गत चूर्णि में पहले उद्देशकों की विषय-वस्तु निरूपण करने वाली गाथाएं है तथा बाद में अध्ययन से संबंधित गाथाएं हैं। टीका में इससे उल्टा कम मिलता है। औचित्य की दृष्टि से हमने चूर्णि का क्रम स्वीकृत किया है, देखें सूनि . २९-३२ तथा ३६-४१। ऐसा अधिक संभव लगता है कि टीकाकार ने व्याख्या की सुविधा के लिए क्रम-व्यत्यय कर दिया हो। आचारांगनियुक्ति में एक स्थल पर टीका क. क्रम स्वीकार किया है लेकिन वहां भी चूर्णि का क्रन सम्यग् लगता है, देखें आनि गा. ३२९-३५ । __ गाथाओं के क्रम-व्यत्यय वाले स्थल में विषय की संबद्धता के आधार पर भी गाथा के क्रम का निर्धारण किया है, जैसे—अनि २९७ का संकेत चूर्णि में गा. ३८३ के बाद है पर औचित्य की दृष्टि से टीकः और हस्तप्रतियों का क्रम ठीक प्रतीत हुआ अत: हमने उसी क्रम को स्वीकृत किया है। २३. आचारांगनियुक्ति की गा. १९७ को हमने नियुक्ति के मूल क्रमांक में जोड़ा है पर वस्तुतः यह बाद में उपसंहार रूप में किसी आचार्य द्वारा प्रक्षिप्त की गयी है। इसका कारण यह है कि १९७ वीं गाथा में द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन है जबकि उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन तो आनि गा. १७३ में पहले ही किया जा चुका है अत: यह पुनरुक्त सी प्रतीत होती है। टीकाकार ने इस गाथा के लिए नियुक्तिकारो गाथयाचष्टे' का उल्लेख किया है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। आचारांगनिमुक्ति में २२८ से २३५ तक की गाथाएं भी बाद में जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं क्योंकि गा. २२७ के अंतिम चरण में स्पष्ट उल्लेख है कि 'सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती' अर्थात् यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। ऐसा उल्लेख करने के पश्चात् कथापरक इन सात गाथाओं का उल्लेख अप्रासंगिक सा
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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