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________________ उत्तराध्ययन निर्मुक्ति २४२. उरन के विषय में आरम्भ-हिंसा, रसगृद्धि, दुर्गलिगमन और प्रत्यपाय को उपमा दी गई है । यह उरभ्रीय अध्ययन की नियुक्ति है। २४२१. मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है । बछड़े का शुष्क तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है। आठवां अध्ययन : कापिलीय २४३,२४४. कपिल शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेव है--आगमत: तथा नो आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद है-एफविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । २४५. कपिल के आयुष्य, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला भावतः कपिल होता है। भाव कपिल से समुस्थित यह कापिलीय अध्ययन है । २४६, कौशाम्बी नगरी । काम्यप पुरोहित । उसकी पत्नी यशा और पुत्र कपिल | श्रावस्ती नगरी में इन्द्रदत्त ब्राह्मण । शालिभद्र सेठ । धन श्रेष्ठी और प्रसेन जित् राजा । २४७. प्रतिदिन नियुक्त भक्तदासी से प्रेरणा पाकर आहार मात्र से संतुष्ट रहने वाला कपिल यो मासा सोना पाने के लिए रात्रि के समय ही घर से निकल पड़ा। २४८. दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए उसको आरक्षकों ने पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया । राजा ने उसकी स्थिति समझकर वरदान देते हुए कहा–'मैं तुझे क्या दं? तेरा प्रयोजन कितने अर्थ से पूरा होगा?' २४९, कपिल ने स्वयं को धिक्कारते हुए कहा-'जैसे लाभ होता है वैसे लोभ बढ़ता है। यो मासा सुवर्ण से पूरा होने वाला कार्य कोटि सुवर्ण से भी पूरा नहीं हो सका।' २५०. राजा प्रसन्न होकर बोला-'हे आर्य ! मैं तुम्हें एक कोटि सुवर्ण भी दे सकता हूं पर कपिल प्रतियुद्ध हो चुका था इसलिए वह कोटि सुवर्ण का त्याग कर पापों का शमन करने वाला श्रमण बन गया। २५१. कपिल मुनि छह महीने तक छुप्रस्थ रहा। राजगह नगर के समीप अठारह योजन की अटवी मैं इक्कडदास नाम के पांच सौ चोर रहते थे । उनका प्रमुख था बलभद्र । २५२, कपिल ने अतिशय ज्ञान से जाना कि ये प्रतिबुद्ध होंगे, ऐसा समझ उस अटवी के मार्ग से जाने का मन बनाया । वहां जाकर 'अधुवे असासयंमि संसारे....... 'इस गीत से उनको प्रतिबोध दिया । ये पांच सौ चोर प्रतिवृत होकर प्रवजित हो गए।" नौवां अध्ययन : नमिप्रव्रज्या २५३,२५४, नमि शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रष्य नमि के दो निक्षेप है—आगमतः नो-आगमतः । नो-आगमतः द्रध्य नमि के तीन प्रकार हैं-शशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनमि के सीन भेव है—एकविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । १ परि०६, कया सं०४८ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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