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________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति ११९. मथुरा में इन्द्रदत्त पुरोहित । साधु का सेवक एक श्रेष्ठी। प्रासाद को विद्या से ध्वंस करना । इन्द्रकील द्वारा पादच्छेद।' १२०. उज्जयिनी में आचार्य कालक । उनके पौत्र शिष्य आचार्य सागर का सुवर्णभूमि में विहरण । इन्द्र ने आकर आयुष्क-शेष पूछा । (वृत्ति में निगोद जीवों के विषय में पूछा ।) इन्द्र द्वारा दिव्य चमत्कार । १२१. आचना सखिन्न । गंगा के कूल पर सफट कन्या का पिता । बारह वर्षों में 'असंवयं' अध्ययन (उत्तराध्यपन का चौथा अध्ययन) मात्र सीखना ।' १२२. स्थूलभद्र मुनि अपने अत्यंत प्रिय मित्र के घर गए । वहाँ जाकर कहा-यह ऐसा है। वह वैसा है । देख, यह कैसा हुआ? मुनि ज्ञान परीषह से पराजित हो गए।' १२३. मार्य आषाढ़ ने मुनि जीवन को छोड़ उत्प्रवजित होने का मानस बना लिया। उस समय वे व्यवहारभूमि हट्ट के मध्य थे। उनके शिष्य ने राजा का रूप बनाकर उन्हें प्रतिबोध दिया। १२४. सर्वप्रथम शिष्य ने पृथ्वीकाय का रूप बनाकर कहा-"जिससे मैं साधुओं को भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं, वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है । मोह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है ।' १२५,१२६. अप्काय ने उदाहरण देते हुए कहा-एक बहुश्रुत तथा नाना प्रकार की कथाओं को कहने वाला पाटल नामक व्यक्ति नदी के प्रवाह में बहा जा रहा था । एक व्यक्ति ने पूछा-अरे ओ ! बहने वाले ! क्या तुम्हारे सुख-शांति है ? जब तक तुम बहते बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो । उसने कहा- 'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं । ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है । १२७. तेजस्काय ने कहा-'जिस अग्नि को मैं रात-दिन मधु-घुत से सींचता रहा है, उसी अनि ने मेरी पर्णशाला जला डाली। ओह ! शरण से भय हो रहा है। १२८. व्याघ्र से भयभीत होकर में अग्नि की शरण में गया। अग्नि ने मेरे शरीर को जला डाला । मोह ! शरण से भय हो रहा है । १२९. बायकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-'मित्र ! तुम पहले कूदने-दौड़ने में समर्थ थे। अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीडित हो ?' १३०. वायु रोग से पीड़ित मित्र ने कहा-'जेठ और आषाढ मास में जो सुखद वायु चलती थी, उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया है । ओह ? शरण से भय हो रहा है।' १३१. जिस बायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं। उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा सारा शरीर टूट रहा है । ओह । शरण से भय हो रहा है। १. देखें-परि० ६, कथा सं० २१ ४. वहीं, कया सं० २४ २. वही, कथा सं०२२ ५. वहीं, कथा सं० २५ ३. वही, कथा सं० २३
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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