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________________ ५७२ नियुक्तिपंचक बनी । एक बार उसके रूप से आकृष्ट हृदय वाले एक विद्याधर ने उसका अपहरण कर वैताढ्य पर्वत पर प्रासाद की विकुर्वणा करके उसमें रख दिया। उसने वेदिका की रचना की और सोचा यहां विवाह करूंगा। इसी बीच कनकमाला का ज्येष्ठ भ्राता कनकतेज वहां आ गया। दोनों रोषाग्नि में जलते हुए युद्ध करते हुए आपसी घात-प्रत्याघात से मृत्यु को प्राप्त हो गए। कनकमाला भी भाई के शोक से तीन विलाप करती हुई उसी प्रासाद में रहने लगी। एक दिन व्यंतर/वाणमंतर जाति का एक देव वहां आया। उसने स्नेहपूर्वक कनकमाला से कहा-'वत्से! तुम मेरी बेटी हो।' जब वह देव उसे कह रहा था उस समय दृढशक्ति नामक विद्याधर अपने पुत्र और पुत्री की खोज करता हुआ वहां आ गया। देवमाया से व्यन्तर ने कनकमाला का रूप परिवर्तन कर दिया। उसने पुत्र, पुत्री और वासव के मृत शरीर को धरती पर पड़े हुए दिखाया। उन्हें देख दृढ़शक्ति ने सोचा-'मेरे पुत्र को वासव ने मारा है और कनकतेज ने वासव को मारा है। आपस में मारते हुए वासव के द्वारा कनकमाला मारी गयी हैं । धिक्कार है इस दुःख-बहुल संसार को। कौन ना इस संसार में रहना चाहेगा? ऐसा चिन्तन करते-करते वह विरक्त हो गया और उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। घ्यन्तर ने अपनी माया को समेटा। कनकमाला और देव ने मुनि बने दृढशक्ति को वंदना की। साधु ने पूछा-'यह क्या है?' कनक्रमाला ने अपने भाई का वृत्तान्त उसे सुनाया। साधु ने कहा-'मैंने तीनों के मरे हुए शरीरों को देखा था।' देव ने कहा-'वह मेरी माया थी।' मुनि ने पूछा- 'ऐसा क्यों किया?' देव ने इसका कारण बताते हुए कहा 'क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु नामक राजा था। उसने चित्रांगक चित्रकार की लड़की कनकमंजरी के साथ विवाह किया। वह भी श्राविका बन गई। मरणासन्न अवस्था में उसने चित्रांगक को नमस्कार महामंत्र सुनाया, जिससे वह व्यन्तर जाति का देव बना। वह मैं हूँ। मैं इधर से आ रहा था। मैंने शोक-विह्वल कनकमाला को देखा। मेरे मन में इसके प्रति अत्यधिक स्नेह उमड़ पड़ा। मैंने सोचा कि क्या यह पूर्वभव में मेरी कोई परिचित बंधु रही है जो इतना स्नेह उमड़ रहा है। मैंने अवधिज्ञान से उपयोग लगाया तो पता चला कि यह कनकमंजरी पूर्वभव में मेरी पुत्री थी। यह मरकर विद्याधर की बेटी बनी है। इसी बीच आप आ गए। मैंने सोचा-'यह तुम्हारे साथ चली जाएगी।' इस विरह के भय से तुम्हें विमोहित करने के लिए माया रची और इसका मरा हुआ शरीर दिखाया। तुमने दीक्षा स्वीकार कर ली है। अब मैं खेद का अनुभव कर रहा हूँ कि यह महानुभाव अपनी पत्री से वंचित हो गया। इसलिए आप मेरी दश्चेष्टा के लिए मझे क्षमा करें।'साधने कहा-'तुम मेरे परम उपकारी हो क्योंकि तुम्हारे कारण मैंने धर्म स्वीकार किया है।' ऐसा कहकर वे विद्याबल से आकाश में उड़ गए और यथासमाधि विहरण करने लगे। व्यन्तर सुर द्वारा सारी बात सुनकर उस पर चिन्तन करने से कनक्रमाला को भी जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपना पूर्वभव जान लिया कि मैं कनकमंजरी थी और यह देव मेरा पिता था। उसने अपने पिता से पूछा-'मेरा पति कौन होगा?' देवता ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर कहा-'तुम्हारे पूर्व जन्म का पति जितशत् राजा तम्हारा पति होगा। वह देव होकर वद्धसिंह राजा का पुत्र सिंहरथ के रूप में उत्पन्न होगा। वही तुम्हारा पति होगा।' कनकमाला ने पूछा-'मेरा उसके साथ संयोग कैसे होगा?' व्यंतर देव ने कहा-'एक दुष्ट घोड़ा उसका अपहरण कर यहां खींच
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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