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________________ ५४८ नियुक्तिपंचक प्रतिलाभित किया। वह शिष्य परिवार के साथ अपने पूर्व दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके विहरण करने लगा। ३८. आचार्य आषाढ़ के शिष्य और अव्यक्तवाद (वीर-निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात्) श्वेतविका नगरी के पोलाषाढ़ उद्यान में आचार्य आषाढ वाचनार्थं समवसृत थे। वे आगाढ़योग से प्रतिपन्न अपने शिष्यों को वाचना दे रहे थे। एक बार वे अचानक विसूचिका रोग से ग्रस्त हो गये। वायु की प्रबलता के कारण वे निश्चेष्ट हो गए। उन्होंने किसी शिष्य को जागृत नहीं किया। वे दिवंगत होकर सौधर्म कल्प के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। अवधिज्ञान से उन्होंने अपने निश्चेष्ट शरीर और आगाढ़योग प्रतिपन्न शिष्यों को देखा। शिष्य उनकी मृत्यु से अनजान थे। तब देव उसी मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ और शिष्यों को जगाकर बोला-'वैरात्रिक करो।' दिव्य प्रभाव से अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया। जब शिष्य उस अध्ययन में निष्णात हो गए तब देव प्रकट होकर बोला-'श्रमणो! मुझे क्षमा करो। मैं असंयत होकर तुम सबसे वंदना आदि कराता रहा । मैं तो अमुक दिन ही काल-कवलित हो गया था। इस प्रकार क्षमायाचना कर देव चला गया। शिष्यों ने मृत शरीर का विसर्जन कर सोचा-'हमने इतने दिनों तक असंयत को वंदना की। यहां सब अव्यक्त है। कौन जाने कौन साधु है और कौन देव? कोई वंदनीय नहीं है। यदि वंदना करते हैं तो असंयमी को भी वंदना हो सकती है अत: अमुक संयमी है यह कहना मिथ्या है।' बहत समझाने पर भी शिष्यों ने अपना आशा कई छोटा सा स्थकि मुनियों में २७ २. १ कर दिया। . एक बार विहार करते हुए वे राजगृह नगरी में आए । राजा बलभद्र ने उनको यकड़वा लिया और कहा-'कौन जानता है साधु वेश में कौन चारिक है? कौन चोर है? आज मैं आपका वध करूंगा।' संतों ने कहा-'हम तपस्वी हैं, आप संदेह न करें। ज्ञान और चर्या के आधार पर साधु और असाधु की पहचान होती है। आप श्रावक होकर हम पर संदेह करते हैं?' राजा ने प्रत्युत्तर दिया-'जब आपको भी परस्पर विश्वास नहीं है तब मुझे ज्ञान और चर्या में कैसे विश्वास होगा? आप श्रमण हैं या नहीं? आप अव्यक्त हैं। आप श्रमण हैं या चारिक कौन जाने? मैं भी श्रमणोपासक हूँ या नहीं? आप इस संदेह को छोड़कर व्यवहार नय को स्वीकार करें।' इस प्रकार युक्ति से राजा ने संबोध दिया। उन्होंने राजा से क्षमायाचना की। वे बोले-'हम निःशंकितरूप से श्रमण-निर्ग्रन्थ हैं।' राजा बोला-'मैंने आपको उपालंभ दिया, आपका तिरस्कार किया, कठोर वचन कहे, मृदु वचन भी कहे । यह सारा प्रतिबोध देने के लिए किया। आप क्षमा करें।' वे पुन: गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गए। ३९, अश्वमित्र और समुच्छेदवाद (वीर-निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात्) मिथिला नगरी में लक्ष्मीगृह चैत्य था। वहां महागिरि आचार्य के शिष्य कौडिन्य रहते थे। कौडिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व के नैपुणिक वस्तु की वाचना दे रहे थे। छिन्न१. उनि.१७२/३, उशांटी. प. १५८-१६०, उसुटी. प. ७०,७१ । २. उनि.१७२/४ ठशांटी.प. १६०-६२, उसुटी. प. ७१।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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