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________________ निर्युतिपंचक ने कहा है कि जन्म- जरा और मरण से युक्त इस क्षणभंगुर संसार में कोई वस्तु स्थिर नहीं है। विशेषत: हमारा जीवन तो स्थिर हैं ही नहीं अतः आप मुझे भगवान् के पास श्रामण्य स्वीकार करने की अनुज्ञा दें। बलदेव ने उसके निश्चय को जानकर कहा-'ठीक है, तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो लेकिन विपत्ति में किसी भी प्रकार से तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' सिद्धार्थ ने स्वीकृति दे दी। वह अपने स्वजनों से पूछकर भगवान् के पास दीक्षित हो गया। घोर तपश्चर्या कर वह छह मास में ही दिवंगत हो गया। इधर कादम्बवन की गुफा के शिलाकुंडों में उंडेली हुई वह सुरा छह मास में पक्चरस वाली हो गयीं। वह स्वच्छ, स्वादु रस वाली, श्रेष्ठ, हृदय को सुख देने वाली और कर्केतन रत्न की आभा खाली हो गयी। शाम्बकुमार के पास रहने वाला मदिरालुब्ध पुरुष कादम्ब वन की गुफा के पास गया। उसने वहां वह सुरा देखी। प्रसन्न होकर वह उसे पीने लगा। स्वादिष्ट होने के कारण वह अंजलि से घूंट पीने लगा। मद्यपायी व्यक्तियों ने उसे देखा। वे भी शीतल, स्वच्छ और स्वादु मदिरा को पोकर निर्भय होकर क्रीड़ा करने लगे। वह व्यक्ति शाम्बकुमार के पास गया और मदिरा वाली बात बताई। शाम्बकुमार वहां आया। उसने वारुणी मंदिरा देखी। मदिरा पीने के बाद शाम्बकुमार ने चिंतन किया- 'कुमारों के बिना मैं अकेला मदिरा सुख का अनुभव नहीं कर सकता अत: कल मैं अपने साथ कुमारों को लेकर शान्त कुमारों को कादम्बरी गुफा के पास लेकर आया। उन्होंने श्रेष्ठ सुरा को देखा। उसने कर्मकरों की आज्ञा दी कि इस वारुणी शराब को लेकर आओ। आज्ञा प्राप्त कर वे शराब लेकर आ गए। वे विविध वृक्ष, कुसुम आदि से युक्त रमणीय उद्यान में आए। शाम्ब ने कहा- किसी भी प्रकार से छह मास से हमने यह सुरा प्राप्त की है अतः इच्छा के अनुसार सब पीओ।' सब मदिरा पीने लगे। वे उन्मुक्त होकर गाने, नाचने और परस्पर आलिंगन करने लगे । क्रीड़ा करते हुए वे पहाड़ के पास गये। वहां उन्होंने तप करते हुए द्वीपायन ऋषि को देखा। वे परस्पर बोलने लगे- 'यह वही दुरात्मा है जिसको भगवान् अरिष्टनेमि ने द्वारिका का विनाशक कहा है। इस पापी और निष्कारण वैरी को हम क्यों न मार डालें ?' तब वे रोषपूर्वक पैरों से, मुष्टि से तथा चपेटा के घात से निरपराध द्वीपायन ऋषि को मारने लगे। वह मरणासन्न जैसा धरती पर गिर गया। उसको पीटकर वे लोग द्वारिका आ गए। ५१० वासुदेव के निजी विश्वस्त पुरुषों ने सारी बात कृष्ण को बताई। कृष्ण ने सोचा- 'ये कुमार बहुत दुर्दान्त हैं । अहो ! यौवन की अदीर्घदर्शिता अब हम इन जीवन मात्र को धारण करने वाले कुमारों का क्या करें?' श्रीकृष्ण बलदेव सहित द्वीपायन ऋषि का अनुनय करने गए। उन्होंने कोप से कांपते हुए अधरों वाले द्वीपायन ऋषि को देखा। समयोचित सम्मान देकर वे बोले - भो महातापस ऋषि ! क्रोध सब गुणों का विनाश करने वाला है। महासत्व और दान्त मुनि क्रोध के वशवर्ती नहीं होते। अज्ञानवश मद्य प्रमत्त मूढ़ व्यक्तियों के अपराध पर महातपस्वी लोग ध्यान नहीं देते। इसलिए कुमारों ने जो दुश्चेष्टाएं की हैं उसके लिए हमें क्षमा कर दें।' इतना कहने पर भी द्वीपायन ऋषि ने जब रोष नहीं छोड़ा तो बलदेव ने कहा, भो नराधिप । अब प्रयत्न करना व्यर्थ है। जो इसने सोचा है वह उसे करने दो। क्या जिनेन्द्र की कही हुई बात अन्यथा हो सकती है? 'तब द्वीपायन ने कहा- 'मारे जाते हुए मैंने एक बड़ी प्रतिज्ञा की थी कि बलदेव और कृष्ण- इन दो को छोड़कर द्वारिका का कुत्ता भी विनाश से नहीं बच सकता। अतः न हो जिनेश्वर
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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