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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नामकरण नियुक्तिकर भद्रबाहु ने सूत्रकृतांग के तीन गुनिष्पन्न नाम बताए हैं- सानाई (सूत्रात सुत+5 (सूत्रकृत) सूचगड (सूचार) । टीकाकार शीलगंक ने इन तीनों नामों की सार्थकता पर विचार किया है। यह अर्थ रूप में तीर्थंकरों द्वारा लत जायन्न है तथा गणधरों द्वारा कृत-प्रधित है अत: इसका नाम सूतगड है। इत्तों सूत्र के अनुसार तब मोय किया जाता है अतः इसका नाम सूत्रकृत है। इसमें स्तममा और परसमण की सून' की अतः इसका नाता सूधाकृत है। आचार्य तुलसी ने इन तीनों गामों के अरे में अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सूर!, सुत्त और सूट. ये तीनों सूत्र के ही प्रकृत रू। हैं। आकारभेद होने के कारण हीन गुणात्मता नागों की परिकल्पन' की गयी है। सनी अंग मौलिक का से भगवः-: महावी' द्वारा प्रस्तुत तथा गणधर द्वारा ग्रंथ मुग में प्रपति हैं फिर फेवन प्रस्तुत आगन का नाग तृतकृत गयों। प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है। प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थपर्श आधार पसरा है क्योंकि प्रस्तुरा आगम में रतसमय और परसमय की तुलनात्मक सूचना के संदर्भ में आधार के प्रस्था:-'। की गयी है. इसलिए इसका संबंध सूचना ! है।' सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या करते र नियुकिाकर कहते हैं कि तीर्थंक में के गल—मातृकापद को सुनकर मणधरों ने योग और शुभ अवसायों से इस सूत्र की रचना की है इसलिाः यह सूत्रकृत कहलाया।' प्रकारान्तर से सूत्रकृत का निरुक्त करते हुए नियुक्तिकार कहते है कि अक्षरण से नतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों क परिशाटन इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई अत: यह सूत्रकृत है। टीकाकर इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते हैं, वैसे-वैले कर्म-निर्जरा होती है, जैसे-जैसे कर्म-निरा दी है, वैसे वैसे सूत्ररचना का उद्यम होता है। इसके प्रथम श्रुरास्वाध में सोलाई अध्ययन हैं अत: इसका एक नाग गाथाषोडशक (गाहासोलस") भी प्रसिद्ध है। व्यवहार में इस आगम का नाम प्रकृत में सूयगडंग तथा संस्कृत में सूत्रकृतांना अधिक प्रचलित है। दिगम्बर परम्परा में शौरसैनी भाषा में सुयड, सूदग्रड और सूदयद—रो टीन नाम मिलते हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल नियुक्तिकार ने सूत्रकृतांग के रचनाकार का नामोल्लेख नहीं किया है लेकिन ग्णधारी २'ब्द का प्रयोग गणधर की ओर संकेत करता है। सूत्रकृतांग के रचनाकर की कार्गिक अवस्था विशेष का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं—'रचनाकार गगधरों के कर्मों की स्थिति = उपन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मो का अभाव विपाक मंद था। बंधन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभव ले बंध करते हुए निकाचित तण नित्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्य स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को अल्प स्थिति वाली करते हुए, बंधने वाली उत्तर प्रकृतिय का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाली ? | १ जून २' २. सू सूरतमन्ना यातीय पत: कृतं नया गरेरित तक सूत्रकृमिति सूत्रावरण सम्वाददोधः बियतेऽस्मन्निर तथा सूचीकृतमिति स्वरसमगार्थाच्नं सूचा सास्मिन कृतेति। ३ नूगो भाग १. भूमिका राति १८ । सूनि २० । ६. सूटी पृ. ५'
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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