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नियुक्तिपंचक सपो को मत मारो । नागकुल से निकलकर वह सपं तुम्हारा पुत्र होगा। उसका नाम नागदत्त रख देना।
वह क्षपक सर्प प्राण परित्याग कर उसी राजा का पुत्र हुआ। बालक का नाम नागवत रखा गया । वह छोटी अवस्था में ही प्रजित हो गया। परन्तु पूर्वभव में सियर होने के कारण उसे भूख बढ़त लगती थी। वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता ही रहता । वह अत्यन्त उपशांत और धर्म के प्रति अति आस्थावान था।
जिस गच्छु में वह था, उसमें चार क्षपक थे । वे चारों तपस्वी थे। उनमें से एक चातुमासिक तपस्या करता, दूसरा त्रैमासिक तप करता, तीसरा द्विमासिक तप और चौथा मासिक तप करता था | एक बार रात्रि में वहां एक देव बंदना करने आया । वहाँ सबसे आगे चातुर्मासिक तप करने वाला क्षपक बैठा मा । उसके पास क्रमशः मासिक द्विमासिक और एकमासिक तप करने वाले तीनों क्षपक बैठे थे । इन सभी के अन्त में वह नित्यभोजीक्षपक बठा था । देवता ने इन सभी तपस्वी क्षपकों का अतिक्रमण कर उस नित्यभोजी क्षुल्लक को बंदना की । यह देखकर सभी तपस्वी अपक कुपित होगा । टेरता जाने लगा तब चातुर्मासिक लपक ने उसके वस्त्र को पकड़ते हुए कहा-'हे कटपूतने ! हम तपस्वियों को वन्दना न कर. इस निस्वभोजी क्षपक को बंदमा करते हो, यह गलत है।' देवता बोला- 'मैं तो भाव-पक को वंदना करता हूं । जो शपक पूजा-सत्कार के इच्छुक हैं तथा अहंकार ग्रस्त हैं उन शपकों को वंदना नहीं करता ।
तत्पश्चात वे तपस्वी क्षपक उस नित्यमोजीक्षपक से ईष्या करने लगे । देवता ने सोचा'ये तपस्वी इस क्षल्लक की भत्सना न कर सकें इसलिए मुझे इस क्षगक के निकट ही रहना चाहिए । तभी मैं इनको बोध दे पाऊगा।'
दूसरे दिन बक्षस्लफ भिक्ष आज्ञा लेकर पय षित अन्न (बासी भोजन) लेने के लिए गया। भिक्षाचर्या से निवृत्त होकर वह अपने स्थान पर आया और गमनागमन की आलोचना कर आहार ग्रह्ण करने के लिए चातुर्मासिक तपस्वी को निमन्त्रण दिया । उसने अपफ के भोजन-पात्र में थूक दिया । शुल्लक मुनि ने हाथ जोड़कर कहा-'भंते ! मेरा अपराध क्षमा करे । मैं समय पर 'श्लेष्म पा' (थूकदानी) प्रस्तुत नहीं कर सका, इसलिए आपको इस भिक्षापात्र में थूकना पड़ा।' तब क्षुल्लक मुनि ने आहार पात्र में पड़े प्लेष्म को ऊपर से दूर कर श्लेष्म पात्र में डाल दिया। स्वयं पूर्ण समभाव में रहा । तत्पश्चात् उसने शेष तीनों तपस्वियों को आहार करने का निमन्त्रण दिया । तीनों क्षपकों ने पूर्ववत् आहारपात्र में थूका । क्षुल्लक मुनि श्लेष्म को श्लेष्म पात्र में हालता मया।
__अन्त में वह क्षुल्लक मुनि शान्त भाव से आहार-पात्र से कवस लेने के लिए तत्पर हुआ तब एक क्षपक ने उसकी दोनों भुजाओं को पकड़ लिया । उस समय भी यह शुल्लक मुनि प्रसन्न रहा । उसके परिणाम और लेश्याएं उत्तरोत्तर विशुद्ध होती गई । उस स्थिति में आवारक कर्मों के क्षीण होने पर उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।
___ सत्काल देवता ने प्रकट होकर क्षपकों से कहा-'तुम वन्दनीय कैसे हो सकते हो ? तुम निरन्तर क्रोधाविष्ट रहते हो, क्रोध से अभिभूत रहते हो।' यह सुनकर ये सभी तपस्वी क्षपक संवेग से ओतप्रोत होकर अपने कृत्य को निन्दा करते हुए बोले- 'अहो! यह क्षुल्लक मुनि फितना