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________________ परिशिष्ट ६ नगरी छोड़कर उत्तरापथ में चले गए । कालमान की विस्मृति हो जाने के कारण वे बारहवें वर्ष मे ही द्वारिका पुन लौट आए। यादव कुमारों ने उन्हें अनेकविध कष्ट पहुंचाए रुष्ट होकर ऋषि ने निदान कर लिया। मरकर वे देव बने और उस नगरी का विनाश कर डाला। ४७३ ५. क्रोध का दारुण परिणाम एक क्षपक अपने शिष्य के साथ मिक्षाचर्या में गया। मार्ग में उसके द्वारा एक मेंड़की मर गई। शिष्य ने कहा- 'आपके द्वारा एक मेंढ़को मर गई है।' क्षपक बोला-रे दुष्ट शिष्य मैने कब मारी ? यह तो कब से ही भरी पड़ी थी। इसके बाद वे दोनों अपने स्थान संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय जब क्षपक ने मेंड़की की आलोचना नहीं की तो सचेष्ट करते हुए कहा- आप उस मेंढ़की की आलोचना करें ।' उसकी इस बात पर क्षपक रुष्ट हो गया और श्लेष्म शराब लेकर शिष्य को मारने दौड़ा दौड़ते हुए वह एक खंभे से टकराया और पृथ्वी पर गिरते ही मर गया। वहां से युत होकर वह दृष्टि विषस के कुल में दृष्टिविष सर्व के रूप में पैदा हुआ। एक दिन एक सर्प नगर में इधर-उधर घूम रहा था। उसने राजकुमार को काट लिया। सर्वविद्या विशारद एक सपेरे ने विद्याबल से सभी सप को आमंत्रित किया और विद्याबल से निर्मित मंडल में उनको प्रविष्ट कर बोला- 'अन्य सभी सर्प अपने-अपने स्थान पर चले जाएं। वही सर्प यहां ठहरे। जिसने राजकुमार को काटा है। सभी सर्प चले गए एक सर्प उस मंडल में ठहरा सवेरे ने उसको कहा- 'या तो तुम वान् विष को पी लो अन्यथा इस अग्नि में गिरकर भस्म हो जाओ। वह सर्प अगन्धन कुल का था। उसने अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्याग दिये परन्तु वान्त विष का पान नहीं किया। विष का अपहार न होने से राजकुमार की मृत्यु हो गई। राजा अत्यन्त कुपित हो गया । उसने राज्य में यह घोषणा करवाई कि जो कोई मुझे सर्प का शिर लाकर देगा, उसे प्रत्येक शिर क एक दीनार मिलेंगी। दीनार के लोभ में लोग सर्पों को मारने लगे । १. दर्शन ५२ हाटी प. ३६, ३० विस्तार हेतु देखें उनि कथा सं० १६ । पर पहुंच गए। शिष्य ने उन्हें अपक का जीव देवलोक से युत होकर जिस सपंकुल में जन्मा था, वह जातिस्मृतिज्ञान से सम्पन था । सर्प ने जातिस्मृति से अपना पूर्व जन्म देख लिया 'मेरे देखने मात्र से व्यक्ति भस्मसात् हो जाता है यह सोचकर वह दिन भर बिल में रहता और रात को बाहर घूमता एक बार कुछ सपेरे सांपों की खोज में रात को निकले। वे अपने साथ एक प्रकार का गंध द्रव्य ले गए जिससे रात्रि में निकलने वाले रूपों की खोज सुखपूर्वक हो सके। उन्होंने घूमते-घूमते उस क्षपक सर्प का बिल देखा। उन्होंने बिन-द्वार पर बैठकर औषधि का प्रयोग किया और सर्प को आह्वान किया। सर्प सोचने लगा- 'मैंने कोध का कटु परिणाम देख लिया है। मैं मुंह की ओर से बाहर निकलूंगा तो किसी को जला डालूंगा अतः पूछ से निकलना ही उचित है वह पूंछ की तरफ से बाहर निकलने लगा ? उसके शरीर का जितना भाग बाहर निकलता वे सपेरे उसको काट डालते। वह निकलता गया और सपेरे उसके टुकड़े करते गये। शिरच्छेद होते ही वह मर गया । ' यह सर्प देवता परिगृहीत था । देवता ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा - 'राजन् !
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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