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________________ ४८८ निर्युक्तिपंचक २९. गुरु का अपलाप एक गांव में एक नापित रहता था। विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षुरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह विद्याबल से अपने त्रिदंड को आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से बड़े-बड़े लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-' भगवन् ! यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय ?' उसने कहा - ' यह विद्या का अतिशय है।' राजा ने पुन: पूछा-' आपने यह विद्या किससे प्राप्त की?' परिव्राजक बोला-'मैं हिमालय में साधना के लिए रहा। वहां मैंने एक फलाहारी तपस्वी ऋषि की सेवा की और उनसे यह विद्या प्राप्त की।' परिव्राजक के इतना कहते ही आकाश स्थित वह त्रिदंड भूमि पर आ गिरा। उत्तराध्ययन निर्युक्ति की कथाएं १. अहं से अर्हम् (सनत्कुमार चक्रवर्ती) एक बार इन्द्र ने अपनी सभा में चक्रवर्ती सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा की। यह सुनकर दो देवताओं को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। वे ब्राह्माण का रूप बनाकर चक्रवर्ती के पास आए। देवताओं ने राजा को देखकर मस्तक झुकाया। राजा ने पूछा- 'पंडितजी ! आप क्यों आए हैं?" ब्राह्मण-रूप देवों ने कहा- ' हमने आपके रूप की प्रशंसा सुनी अतः देखने आए हैं। चक्रवर्ती ने सगर्व कहा - 'जब मैं स्नान कर, आभूषण पहनकर सभा मंडप में बैठूं तब आप मेरा रूप देखना ।' चक्रवर्ती सनत्कुमार स्नान से निवृत्त हो अनेक आभूषणों से सुसज्जित होकर सिंहासन पर बैठे और ब्राह्मण देवों की ओर देखने लगे। उन्होंने सोचा, अब ये शायद मेरी प्रशंसा करेंगे। ब्राह्मण रूप देव बोले- 'पहले आपका शरीर सुन्दर और अमृतमय था । अब विषमय बन गया है। सारा शरीर कीड़ों से व्याप्त हो गया है। आप पात्र में थूक कर देखें।' चक्रवर्ती ने थूका । उस पर मक्खियां बैठते ही मर गयीं। इस घटना से चक्रवर्ती का अभिमान टूट गया। वे विरक्त होकर प्रब्रजित हो गए। कालान्तर में उनके शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हो गए। वे उन्हें समभाव से सहने लगे। एक देव वैद्य के रूप में चिकित्सा के लिए आया। मुनि सनत्कुमार ने कहा- 'वैद्यराज ! आत्मा को अरुज करने में लगा हूं। शरीर का रोग तो मैं भी मिटा सकता हूं।' ऐसा कहकर उन्होंने अंगुलि पर थूक लगाया। कुष्ठ रोग से गलित अंगुलि कंचन के समान चमकने लगी । देव वैद्य आश्चर्यचकित रह गया । १. दशनि. १५८, अचू.पू. ५२, २६ से २९ तक की कथाओं का निर्देश आगे अनुवाद वाले टिप्पण में नहीं दिया है अत: क्रमांक में इन्हें सबसे अन्त में दिया है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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