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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४८९ मुनि सनत्कुमार अनेक लब्धियों से सम्पन्न थे। परन्तु उन्होंने अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उनका उपयोग नहीं किया। वे सात सौ वर्षों तक रोगों की असह्य वेदना को समभावपूर्वक सहते हुए अंत में निर्वाण को प्राप्त हो गए। 2. क्षुधापरीवह उज्जयिनी नगरी में हस्तिमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी अत्यन्त प्रिय पत्नी का अकाल में वियोग हो गया। उसके हस्तिभूति नामक एक पुत्र था। पत्नी का वियोग होने पर संसार की नश्वरता देखकर दोनों पिता-पुत्र प्रद्रजित हो गए। एक बार उन्होंने साधुओं के साथ उर्जायनी से भोगकट नगरी की ओर प्रस्थान किया। अटवी के मध्य पिता हस्तिमित्र के पैर में तीक्ष्ण कोल लगी। वेदना के कारण एक कदम चलना भी उनके लिए शक्य नहीं था। मनि ने अन्य साधओं को कहा- 'मैं तो अभी पैर की पीडा से पीडित हूं अतः चलने में असमर्थ हूं। लेकिन तुम सब लोग अटवी को पार कर यहां से चले जाओ। मेरे साथ रहने से भूख-प्यास से पीड़ित हो जाओगे तथा मारणांतिक कष्ट भी आ सकते हैं। मैं अब यहां भक्तप्रत्याख्यान कर पंडित-मरण की आराधना करूंगा।' साधुओं ने कहा-'आप विषाद न करें, हम आपको सेवा करेंगे क्योंकि ग्लान की सेवा करना निर्गन्ध-प्रवचन में सबसे बड़ा धर्म है।' मुनि हस्तिमित्र ने पुन: कहा-'मैं तो अवस्था प्राप्त हूं अतः तुम मेरे पीछे व्यर्थ ही कष्ट मत उठाओ।' ऐसा कहकर उसने सबसे क्षमायाचना की और गिरि कंदरा में एकान्त स्थान पर अनशन स्वीकार कर लिया। अन्य सभी साधुओं ने आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। हस्तिमित्र मुनि का पुत्र हस्तिभूति अपने पिता की सेवा में रहना चाहता था, लेकिन दूसरे साधु उसे बलपूर्वक अपने साथ ले गए। ___ कुछ दूर जाकर छोटा मुनि साधुओं को विश्वास दिलाकर लौट आया। वह पिता के पास गया। अपने पुत्र को देखकर पिता ने पूछा-'वत्स! तुम यहां वापिस क्यों आए? यहां रहने से तुम्हें भूख-प्यास की असह्य वेदना सहन करनी पड़ेगी।' भूख-प्यास की तीव्र वेदना से हस्तिमित्र मुनि का अनशन उसी दिन सम्पन्न हो गया। क्षुल्लक मुनि यह नहीं जान सका कि पिता मुनि की मृत्यु हो गई है। मुनि मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और सोचा कि मैंने क्या दान किया है और कौनसा तप तपा है? अवधि का प्रयोग करते-करते उन्होंने अपना मृत कलेवर और उसके पास बैठे पुत्र को देखा। अनुकंपावश देव अपने कलेवर में प्रवेश कर पुत्र से बोला-'वत्स! अब भिक्षा के लिए जाओ।' बाल मुनि ने जिज्ञासा की-मुनिवर ! यहां भिक्षा के लिए कहां जाऊं? यहां तो कोई घर भी नहीं है।' देव रूप मुनि ने कहा-'यहां धव और न्यग्रोध के वृक्ष हैं। यहां वृक्षों पर रहने वाले भोजन पकाते हैं। वे तुम्हें भिक्षा देंगे।' अपने पिता की बात सुनकर वह वृक्ष के पास गया और वहां धर्म-लाभ दिया। उसी समब वृक्ष से सुसज्जित एक हाथ निकला और उसने मुनि को भिक्ष दी। इस प्रकार वह बालमुनि प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करने लगा। १. उनि.८५, उशांटी, प. ७८ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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