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________________ नियुक्तिपंचक २९४ (१) एक समय में पृथ्बीकाय से कितने जीवों का निष्कमण होता है ? (२) एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का प्रवेश होता है ? (३) विवक्षित समय में पृथ्वीकाम में परिणत जीव कितने होते है? (४) उनकी कायस्थिति कितनी है ? प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है (१-२) एक समय में असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण जीवों का निष्क्रमण और प्रवेश होता है। (३) पृथ्वीकाय में परिणत जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण हैं। (४) पृथ्वीकामिक जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण काल तक उसी योनि में उत्पन्न हो सकता है-यह उनकी कायस्थिति है। इस प्रकार क्षेत्र और काल की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण प्रतिपादित है। ९१. जिस आकाशप्रदेश में एक बादर पच्चीकायिक पर्याप्तक जीव अवगाहन करता है उसी आकाश प्रदेश में दुसरा बादर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर अवगाहन कर लेता है। यह परस्पर अवगाहन है। शेष अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव की निश्रा में उत्पन्न होते हुए उसी आकाशप्रदेश का अवगाहन कर लेते हैं। सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीव सारे लोक का अवगाहन करते हैं। ९२,९३. पृथ्वीकांय के आधार पर होन वाला मनुष्यों की उपभोग-विधि इस प्रकार हैचंक्रमण करना, खड़े होना, बैठना, सोना, कृतकरण, शौच जाना, मूत्र-विसर्जन करना, उपकरणों को रखना, आलेपन करना, प्रहरण करना, सजाना, क्रय-विक्रय करना, कृषि करना, पान आदि बनाना 1 ९४. मनुष्य इन कारणों से पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरों को दुःख देते हैं। ९५. (शस्त्र के दो प्रकार है-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । द्रव्यशास्त्र के दो प्रभेद हैसमास द्रव्यशास्त्र और विभाग द्रव्यशस्त्र ।) हल, कुलिक, विष, कुद्दाल, आलित्रक, मृगशृंग, काष्ठअग्नि, उच्चार तथा प्रस्रवण - ये समास - संक्षेप में द्रव्य शस्त्र हैं। ९६ (विभाग द्रव्यशस्त्र) कुछ स्वकायशस्त्र होता है, कुछ परकामशस्त्र होता है और कुछ उभय-दोनों होता है । यह सारा द्रव्यशस्त्र है । भावशस्त्र है--असंयम । ९७. पर, जंघा, उरू आदि शरीर के अंग-प्रत्यंगों के छेदन-भेदन से मनुष्यों को दुःख होता है, पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय के छेदन-भेदन से उसके जीवों को पीड़ा होती है। ९२. यद्यपि पृथ्वीकायिक जीवों के अंगोपांग नहीं होते, फिर भी अंगोपांग के छेवन-भेदन तुल्य वेदना उनके होती है । (पृथ्वीकाय का समारंभ करने वाले पुरुष) पृथ्बीकाय के कुछेक जीवों के वेदना की उदीरणा करते हैं और कुछेक के प्राणों का अतिपात करते हैं। ९९. कुछेक अपने आपको अनगार कहते हैं। किन्तु जिन गुणों में अनगार प्रवृत्ति करते हैं, उन गुणों में वे प्रवसित नहीं होते। जो पृथ्वी के जीवों की हिंसा करते हैं, वे वाग्मात्र से भी अनगार नहीं होते।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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