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________________ आचारांग नियुक्ति १००. वे अनगारवादी- अपने आपको अनगार कहने वाले पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं । इसलिए वे निर्गुण हैं, गहस्थ तुल्य हैं। वे अपने आपको निर्दोष मानते हैं इसलिए मलिन- कलुषित हृदय वाले हैं। वे विरति - संयम से घृणा करते हैं, इसलिए मलिनतर हैं। ६. कुछ 41 पृ-बीनाग का बका है, तुच्छ दूसरों से उसका वध करवाते हैं और कुछ वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं। १०२. जो एथ्वीकाय का समारंभ-व्यापादन करता है यह अन्य जीवनिकाय का भी ज्यापादन करता है। जो अकारण या सकारण पृथ्वी के जीवों का व्यापादन करता है वह दृश्य या अदृश्य जीवों का भी ब्यापावन करता है। १०३. पृथ्वी की हिंसा करने वाला व्यक्ति उस पृथ्वी के आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर, पर्याप्त मा अपर्याप्त अनेक जीवों का हनन करता है। १०४,१०५. यह जानकर जो मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के मापादन से मन, वचन और काया से, कृत-कारित तथा अनुमति से यावज्जीवन के लिए उपरत होते हैं, वे तीन गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से युक्त, संयत, यतना करने वाले तथा सुविहित होते हैं। वे वास्तविक अनगार होते है। १०६. जितने द्वार (प्रतिपादन के विषय) पृथ्वीकायिक के लिए कहे गये हैं, उतने ही द्वार अष्कायिक जीवों के लिए है । भेद केवल इन पांच विषयों में है-विधान (प्ररूपणा), परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । १०७,१०८. अप्काम के जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और दादर । सूक्ष्म समूचे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर अप्कायिक जीव पांच प्रकार के हैं१. मुखोदक, २. अवश्याय (ओस), ३. हिम, ४. महिका', ५. हरतनु' । १०९. बादर अप्कायिक पर्याप्तक जीवों का परिमाण है-संवर्तित लोक-प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि प्रमाण । शेष तीनों-बादर अप्कानिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अकायिक पर्याप्तक तथा सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक. पथक-पृथक रूप से असंख्येय लोकाकाश प्रदेश राशि परिमाण जिसने हैं।' ११०. जैसे तत्काल उत्पन्न (सप्ताह पर्यन्त) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही सारे अकायिक जीव भी सचेतन होते हैं। यही अप्कायिक जीवों की उपमा है। १. तासाब, समुद्र, नदी आदि का पानी। असंख्येय मुना अधिक हैं। बादर पृथ्वीकाय २. गर्भमासादिषु सायं प्रातर्बा धूमिकापातो अपर्याप्तक जीवों से बाहर अप्कायिक महिका । (आटी पु २७) अपर्याप्तक जीव असंख्येय गुना अधिक है। ३. वर्षा तथा शरद ऋतु में हरिताकुरों पर स्थित सूक्ष्म पुथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक है। जलबिन्दु । सूक्ष्म पृथ्वीकाम पर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म ४. विशेष यह है-बादर पृथ्वीकाय पर्याप्तक अप्काय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक है। जीवों से बादर अप्काय पर्याप्तक जीव आटी पृ २७ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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