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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८१ कालिंजर पर्वत पर एक मृगो के उदर से युगल रूप में उत्पन्न हुए। एक बार दोनों हरिण आसपास में चर रहे थे। एक व्याध ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहां से मरकर वे गंगा नदी के तौर पर एक राज-हंसिनी के गर्भ में आए और गुगल रूप में जन्मे । युवा होने पर दोनों साथसाथ घूम रहे थे। एक बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार डाला। उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति रहता था। उसका नाम भूतदत्त था। वह था। हं। म... ३९ र मुगल के रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम चित्र और संभूत रखा गया। दोनों भाइयों में अपर स्नेह था। । उस समय वाराणसी नगरी में शंख राजा राज्य करता था । नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध पर राजा क्रुद्ध हो गया और उसके वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में छिपा लिया और कहा-'मंत्रिन् ! यदि आप तलघर में रहकर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन करना स्वीकार करें तो मैं आपका वध नहीं करूंगा।' जीवन की आशा में मंत्री ने बात मान लो । अब वह चाण्डाल के पुत्रों-चित्र औं संभृत को पढ़ाने लगा। चाण्डाल- पत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। अध्यापन कराते हुए कुछ काल बीता । नमुनि चाण्डाल-स्त्री में आसक्त हो गया। भृतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का विचार किया। चित्र और संभूत-दोनों ने अपने पिता के विचार जान लिए । उपकार के कारण गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहां से भागा-भागा हस्तिनापुर नगर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन गयां । चित्र और संभूत बड़े हुए ! उनका रूप और लावण्य आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। एक बार मदन-महोत्सव का अवसर आया। अनेक गायक-टोलियां पधुर राग में आलाप भर रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-संभूत की नृत्य-मंडली भी वहां आ गई। उनका गाना और नृत्य सबसे अधिक मनोरम था। उसे सुन देखकर सारे लोग उनकी मंडली की ओर चले आए। यवत्तियां मंत्र-मुग्ध सी हो गयीं। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों ने जब यह देखा तो उनके मन में इंष्या उभर आई। वे जातिवाद की आड़ ले राजा के पास गए और राजा को निवेदन किया कि ये मातंगपुत्र सबको भ्रष्ट कर रहे हैं। राजा ने दोनों मातंग-पुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गए। एक बार कौमुदी महोत्सव के अवसर पर वे दोनों मातंग-पुत्र राजा की आज्ञा को अवगणना कर कौतूहलवश अपनी नगरी में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाले महोत्सव का आनंद ले रहे थे । चलतेचलते उनके मुंह से संगीत के स्वर निकल पड़े । उनका गाना सुनकर लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने सोचा---'किन्नर के समान कानी को अमृत रस के समान सुखद लगने वाली यह वाणी किसको है?' लोग दोनों के पास आए। अवगठन हटाते ही वे उन्हें पहचान गए। उनका रक्त ईष्या से उबल गया 'ये चाण्डाल पुत्र हैं'- ऐसा कहकर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने सोचा-'धिक्कार हैं हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल को। आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-सनूह दृषित हो रहा है । ऐसा जीवन जोने से लाभ ही क्या? उनका मन जीने से ऊब गया।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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