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________________ ७॥ निर्मुक्तिपंचक ५२. क्षेत्र अपाय का उदाहरण है-दशाई वर्ग का दूसरे क्षेत्र में अपक्रमण | काल अपाय में द्वैपायन ऋषि और भाव अपाय में क्षपक मेंढकी का उदाहरण ज्ञातव्य है। ५३. शैक्ष और अपेक्ष-दोनों प्रकार के मुनियों में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करने और उनके स्थिरीकरण हेतु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपाय का निदर्शन किया जा रहा है। ५४. विशिष्ट प्रयोजन से गहीत द्रव्य का प्रयोजन की नियत्ति हो जाने पर त्याग कर देना चाहिए । इसी प्रकार अकल्याणकारी क्षेत्र का परित्याग कर देना चाहिए। भविष्य में अनिष्ट की संभावना हो तो बारह वर्ष पहले ही उस स्थान को छोड़ देना चाहिए । यह क्षेत्र अपाय है 1 क्रोध आदि अप्रशास्त भावों का परित्याग करना भाव अपाय है। ५५. जो बादी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की दृष्टि से आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं उनके लिए सुख-दुःख, संसार और मोक्ष का सर्वथा अभाव हो जायेगा । ___५६: एकान्त नित्यवाद के पक्ष में सुख-दुःख का प्रयोग घटित नहीं होता। इसी प्रकार एकान्त उच्छेदबाद में भी सुख-दुःख की कल्पना संगत नहीं बैठती। ५७. उपाय के भी चार प्रकार होते हैं-द्रव्य उपाय, क्षेत्र उपाय, काल उपाय और भाव उपाय। द्रव्य उपाय में प्रथम अर्थात् लौकिक है-धातुवाद । उसमें सुवर्ण आदि धातुओं को विशेष प्रयोग से शुद्ध करना होता है। लांगल (हल), कुलिका आदि द्वारा क्षेत्र की शुद्धि करना क्षेत्र उपाय है। ५८. नालिका आदि साधनों से काल का शान किया जाता है, यह काल उपाय है। भाव उपाय में बुद्धिमान अभयकुमार का निदर्शन है। चोर को पकड़ने के लिए अभयकुमार नर्तक द्वारा खेल दिखाने से पूर्व जनता को वडकुमारी का कथानक कहता है। ५९. आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुपलब्ध है फिर भी सुख-दुःख आदि हेतुओं द्वारा उसके अस्तित्व का बोध होता है। ०१. जिस प्रकार देवदत्त नामक व्यक्ति की घोड़े से हाथी पर, ग्राम से नगर में, वर्षा ऋत से पारद ऋतु में और उदय भाव से उपशम भाव में संक्रांति होती है उसी प्रकार सत् जीव का ध्या, क्षेत्र. काल और भाव आदि में संक्रमण होता है। इस अपेक्षा से भी जीव का अस्तित्व प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से साधा जाता है। ६२, सत जीव का द्रव्य आदि में संक्रमण होता है । इस अपेक्षा से ही आत्मा के परोक्ष होने पर भी उसकी परिणमनशीलता प्रत्यक्षत: सिद्ध होती है। ६३. स्थापना कर्म के उदाहरण में दो दृष्टांत -पौडरीक तथा मालाकार। एक मालाकार मार्ग में शारीरिक बाधा से पीड़ित हो गया। उसने मलोत्सर्ग कर करतक में संगहीत पुष्प उस पर डाल दिए । लोगों ने कारण पूछा तो वह बोला-मैने प्रत्यक्ष देखा है कि यहाँ हिंगुशिव नामक व्यन्तर देव प्रगट हुआ है । उसकी पूजा करने के लिए मैंने ऐसा किया है। १. देखें--परि०६, कथा सं० ४। ३. देखें सूयगडो २०१६ २. देखें-परि० ६, कथा सं० ५। ४. देखें-परिः ६, कथा सं०७।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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