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________________ ३६५ नियुक्तिपंचक २०. वैतरणी नरकपाल नारकों को वैतरणी नदी में बहाते हैं। वह नदी पीब, मधिर, केश और हष्ठियों से भरी रहती है। उसमें खारा-गरम पानी बहता है। वह कलकलायमान जलबाली महाभयानक नदी होती है। ८१. खरस्वर परमाधार्मिक देव नारको शरीर को करक्तों से चीरते है तथा नारकों को परशुओं मे परस्पर छीलने के लिए प्रताड़ित करने हैं। थे उनको (वनमय भीषण कंटकों से समाकीर्ण) शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिए मजबूर करते हैं। २. जैसे पशुवध के समय पशु भयभीत होकर दौड़ते हैं तब नधक उनको वहीं रोक लेते हैं वैसे ही भयभीत होकर पलायन करने वाले नारकों को महाघोष नरकपाल चारों और से घेर कर वहीं रोक लेते हैं। पश्ययन ; नाराबोर सानि. ८३. महत् पाद प्राधान्य अर्थ में है। इसके छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।' वीर शब्द के चार निक्षेप हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव' । ४. 'स्तुति' शब्द के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । आगन्तुक की स्तवना, कटक, केयूर, चन्दन, माला आदि भूषणों से की जाने वाली स्तवना द्रव्यस्तुति है। विद्यमान गुणों का कीर्तन करना भावस्तुति है। ८५. जम्मू ने आर्य सुधर्मा से भगवान् महावीर के गुणों के विषय में पूछा तब आर्य सुधर्मा ने महावीर के गुण बताए और कहा- . महात्मा महावीर ने जिस प्रकार संसार पर विजय प्राप्त की तुम भी उसी प्रकार प्रयत्न करो । सातवां अध्ययन : कुशोलपरिभाषित ६६. 'शील' शम के वार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्यशील-फलनिरपेक्ष होकर आदतन उन-उन क्रियाओं में प्रवर्तन करना, जमे-प्रावरण का प्रयोजन न होने पर १. महावीरस्तव इत्यत्र यो महन्छन्दः स प्राधान्ये प्रधान होता है। वर्तमानो गृहीतः । (मुटी. पृ९५) ३. १. द्रव्यवीर-संग्राम में श्रर अथवा वीर्यवान २. द्रव्यमहत्-यह सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्य । नीयंकर, चक्रवती आदि का बल तीन प्रकार का होता है 1 सचित्त में तीर्थकर, अथवा विष आदि द्रव्यों का सामथ्र्य । अधिस में बेडयं आदि मणि तथा मिश्र में २. क्षेत्रवीर-जो जिस क्षेत्र में असाधारण अलंकृत विभूषित तीर्थकर 1 काम करने वाला है वह तथा जो जिस क्षेत्र क्षेत्रमहत्-सिद्धिक्षेत्र । धर्माचरण की अपेक्षा । में बीर माना जाता है। से महाविदेह तथा मुखों की दृष्टि से देवकुरु ३. कालवीर-जिस काल में जो चीर होता आदि क्षेत्र प्रधान होते हैं। है। वह । कालमहत्-काल की दृष्टि से एकान्त सुषमा ४. भाववीर-क्षायिक वीयं सम्पन्न व्यक्ति आदि काल प्रधान होता है। जो कषायों एवं उपसगों से अपराजिस होता भावमहत-पांचों भावों में क्षायिकभाष
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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