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________________ निर्वृक्तिपंचक ९६. आहार न मिलने के कारण भ्रमर और मधुकरीगण क्लांत न हो जाएं, क्या इसीलिए समय पर वृक्ष फलते-फूलते हैं ? 50 ९६।१. किसी की बुद्धि में यह बात भी आ सकती है कि प्रजापति ने हर प्राणी को आजीविका दी है अतः वृक्ष भी मधुकरी गण के लिए ही फलते-फूलते हैं। ९६ २. ऐसा नहीं होता, क्योंकि वृक्ष तो जन्मान्तरों में अर्जित नामगोत्रकर्म के उदय से फूलतेफलते हैं । दूसरा कारण यह है ९७. अनेक ऐसे वनखंड हैं जहां न तो कभी भ्रमर कहीं से आते हैं और न यहां निवास करते हैं, फिर भी उस वनखंड के वृक्ष फूलते हैं। फूलना - फलना वृक्षों की प्रकृति है । ९७ / १,९८. यदि वृक्षों की प्रकृति ही ऐसी है तो वे हर समय फल-फूल क्यों नहीं देते। वे समय पर ही फल-फूल क्यों देते हैं ? आचार्य ने कहा- क्योंकि वृक्षों को प्रकृति ही ऐसी है कि वे अनुकूल ऋतु में ही फूलते हैं और काल-परिपाक से ही फलवान् बनते हैं । ९९. आहार न मिलने के कारण श्रमण भगवान् क्लान्त न हो जाएं, क्या इसी उद्देश्य से गृहस्थ यथासमय श्रमणों के लिए आहार बनाते हैं ? १९११,१००,१०१. कोई यह कहे कि श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से गृहस्थ मुनि के लिए आहार बनाते हैं, यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महान् आतंक (महामारी) में भी पालन नहीं करते । तपस्वी श्रमण रात्रि में चारों प्रकार के आहार से विरत होते हैं। फिर भी गृहस्थ अत्यन्त प्रसन्नता से रात में भोजन क्यों पकाते हैं ? १०२. अनेक ग्राम और नगर ऐसे भी हैं जहाँ न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन तो पकाते ही हैं, क्योंकि गृहस्थों की यह प्रकृति है । १०३. गृहस्थों की यह प्रकृति है कि वे ग्राम, नगर और निगम में अपने लिए तथा परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं । १०४. वहां पर तपस्वी श्रमण संयम योगों की साधना के लिए परकृत ( परार्थ आरब्ध ), परनिष्ठित (परार्थ निष्पन्न) और विगतधूम (धूम, अंगार आदि आहार के दोषों से रहित) आहार की एषणा करते हैं। १०५. साघु अहिंसा की परिपालना के लिए नवकोटि से परिशुद्ध' तथा उद्गम, उत्पादन एवं एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करे। वह छह कारणों से आहार करे। १. नवकोटि परिशुद्ध भोजन के लिए न स्वयं हिंसा करे न करवाए और न अनुमोदन करे । भोजन न खरीदे, न खरीदाए, न खरीदने वाले का अनुमोदन करे। भोजन न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे । २. आहार करने के छह कारण ये हैं- क्षुधा की वेदना को शांत करने के लिए, सेवा के लिए, पंथगमन के लिए, संयम पालन के लिए, प्राणों को टिकाए रखने के लिए तथा धर्मचिन्ता के लिए |
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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