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________________ ५५० नियुक्तिपंचक ४१. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद (वीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात्) अंतरंजिका नायक नगरी में भूतगृह नामक चैत्य था। वहां आचार्य श्रीगुप्त का प्रवास था। उस नगर के राजा का नाम बलश्री था। आचार्य श्रीगुप्त का शिष्य रोहगुप्त दूसरे स्थान पर रहता था। एक दिन वह आचार्य को वंदना करने आया। वहां एक परिव्राजक रहता था जो पेट पर लोहपट्ट को बांधकर जंबू वृक्ष की शाखा हाथ में लेकर घूमता हुआ कहता था कि ज्ञान से मेरा पेट फूट रहा है इसलिए मैंने पेट पर लोहपट्ट बांध रखा है। इस जंबूद्वीप में कोई मेरे साथ प्रतिवाद करने वाला नहीं है इसलिए मैं हाथ में जंबू वृक्ष की शाखा रखता हूं। लोगों ने उसका नाम पोदृशाल रख दिया। रोहगुप्त ने उस चुनौती को स्वीकार किया और सारी बात आचार्य को सुनाई। आचार्य ने कहा-'वह परिव्राजक वृश्चिक, सर्प आदि सात विद्याओं में निष्णात है । मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी मायूरी, नाकुली आदि सात विद्याएं सिखा देता हूं. जिससे तुम अजेय बन जाओगे।' आचार्य ने उसे रजोहरण मंत्रित करके देते हुए कहा-'यदि परिव्राजक दूसरी कोई विघ्या का प्रयोग करे तो तुम रजोहरण घुमा देना। तुम अजेय हो जाओगे, इन्द्र भी तुम्हें नहीं जीत सकेगा।' रोहगुप्त इन विद्याओं को ग्रहण कर सभा में आया और परिव्राजक को बाद के लिए आमंत्रित किया। परिव्राजक ने सोचा इसकी इसी के सिद्धान्त से पराजित करना चाहिए इसलिए दो राशियों की स्थापना की। रोहगुप्त ने छिपकली की कटी पूंछ का उदाहरण देकर तीसरी राशि की स्थापना की। परिव्राजक निरुत्तर हो गया। उसने रुष्ट होकर अनेक विद्याओं का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने प्रतिपक्षी विद्याओं से उसको परास्त कर दिया। विजयी होकर रोहगुप्त अपने आचार्य के पास आया तब गुरु ने कहा-'जीतकर तुमने परिषद् में यह क्यों नहीं कहा कि यह अपसिद्धान्त है। तीसरी नोजीव राशि नहीं होती। इस प्रकार की प्ररूपणा तीर्थंकरों की आशातना है अत: तुम पुनः परिषद् में जाकर कहो कि यह हमारा सिद्धान्त नहीं है किन्तु मैंने इसे बुद्धि से पराभूत किया है।' गुरु के बहुत समझाने पर भी अपमान के भय से उसने गुरु की बात को स्वीकृत नहीं किया। वह गुरु के साथ विवाद करने लगा। आचार्य ने सोचा-'यह स्वयं नष्ट होकर दूसरों को भी नष्ट करेगा अतः मैं लोगों के समक्ष राजसभा में इसका निग्रह करूंगा, जिससे लोगों में मिथ्या तत्त्व का प्रचार नहीं होगा।' राजा बलश्री के समक्ष चर्चा प्रारम्भ हुई। चर्चा करते हए छह मास बीत गए। राजा ने कहा-'चर्चा से सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है, यह वाद कब समाप्त होगा?' आचार्य ने कहा-'मैंने जान-बूझकर इतना समय बिताया है। मैं कल ही इसका निग्रह कर वाद को समाप्त कर दूंगा।' दूसरे दिन प्रात: वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने कहा-'यदि तीन राशि होती है तो कुत्रिकापण में चलें, वहां सभी वस्तुएं मिलती हैं। राजा के साथ वे सभी कुत्रिकापण पहुंचे। वहां नोजीव को मांगा। अधिकारी देव ने कहा-'यहां जीव और अजीव है। नोजीव की श्रेणी का कोई पदार्थ विश्व में नहीं हैं।' इस प्रकार आचार्य श्रीगुप्त ने १४४ प्रश्नों के द्वारा रोहगुप्त का निग्रह कर उसे पराजित किया। राजा ने उसको देश निकाला दे दिया, निव समझकर उसे संघ से भी पृथक् कर दिया।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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