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________________ १०७ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण के कारण इन्हें स्वतंत्र स्थान दिया गया है। गेय काव्य संगीतात्मक होता है अत: इसे काव्य की श्रेणी में रखना औचित्य की दृष्टि से ठीक है। गद्यकाव्य विश्वनाथ के अनुसार छंदत्वंधहीन शब्दार्थ गोडाको मद्य काम कहा जाता है। दमातेकालिकनिर्यक्ति में साहित्यिक दृष्टि से गद्यकाब्ध का स्वरूप प्रकट किया गया है। उसके अनुसार जो सूत्र आदि के विभाग से क्रमशः प्रथित, मधुर, हेतुमुक्त, पादविहीन..--चरण आदि से रहित, बिरामसंयुक्त, अंत में अपरिमित अर्थात् बृहद् आकार वाला तथा जिसका पाठ मृदु हो, वह गद्यकाव्य कहलाता है।' पद्यकाव्य छंद की दृष्टि से पद्यकाव्य के तीन भेद अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं –सम, अर्धसम और विषम ।' अनुयोगद्वारसूत्र में पद्य के स्थान पर वृत्त शब्द का प्रयोग मिलता है। जिसके चारों वरण समान अक्षर, विरान और मात्रा वाले हों, वह समपद्य कहलाता है। टीकाकार ने मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जहां चारों पादों में समान अक्षर हों, वह समपद्य कहलाता है। जिसके प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में समान अक्षर, विराम और मात्रा हो, बह अर्धसभपद्य कहलाता है।' विषम पद्य का अर्थ है—सभी पादों में अक्षर, मात्रा और विराम विषम-असमान हों। गेयकाव्य जो गाया जाता है, उसे गेम कहते हैं। आधुनिक काव्यशास्त्रियों ने गेयकाव्य की अनेक परिभाषाएं तथा अनेक भेद किए हैं। संगीत रत्नकर में दशांश लक्षणों से लक्षित स्वर सन्निवेश. पद, ताल एवं मार्ग इन चार अंगों से युक्त गान को गीत कहा है। नियुक्तिकार ने गेय काव्य के पांच भेद किए है" १. तंत्रीसम-वाद्यों के तारों पर अंगुलि-संचार के साथ गाया जाने वाला गीत। २. वर्णसम—जहां दीर्घ अक्षर आने पर गीत का स्वर दीर्घ, ह्रस्व अक्षर आने पर हस्व, प्लुत अक्षर आने पर प्लुत तथा सानुनासिक अक्षर आने पर गीत का स्वर सानुनासिक हो, वह वर्णसम कहलाता है। ३ तालसम-ताल-वादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत । ४. ग्रहसम-वीणा आदि द्वारा गृहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाल. गीत। ५. लयसम--वाद्यों को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत । १. साहित्यदर्पण ६/३३० ।। ७. दशअचू पृ.४० जस्स पहन ततिया बितिय चउत्था य पादा २. दशनि १४७। समक्खर-विराम-मत्ता तं अद्धसमं । ३. दशनि १४८। ८ दरअचू प्र. ४०; जस्स चसारि वि पाद। विसमा तं विसमं। ४. कनुदः ३०७/१०। ९. संगीत-पतलाकार, टीका पृ. ३३ । ५. दणअचू पृ.४०; तत्व चउसु वि पादेसु समक्खर- १०. दशनि १४९। विराममत्तं समा ११. श-जलाका से तत्री क. स्पर्श किया जाता है और नखों ६ दशहाटी प.८८: अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र से तार को दबाया जाता है, तब जो एक भिन्न प्रकार का देसु समान्यक्षरागि। स्वर उठता है, उसे 'लय' कहते हैं।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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