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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण उमास्वाति ने इन नामों का उल्लेख संयत के विशेषण के रूप में किया है अत: इन नामों को देखकर यह कहा जा सकता है उमास्वाति के समय तक गुणस्थान-सिद्धांत पूर्ण रूप से विकसित नहीं था पर उसकी मान्यता बीज रूप में प्रचलित हो रही थी। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं एवं गुणस्थान--इन दोनों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं निर्जरा की तरतमता बताने वाले स्थानों की और हमार, ध्यान आकृष्ट करती हैं। ये अवस्थाएं कमिक ही हों, यह आवश्यक नहीं है किन्तु गुणस्थानों में आत्मा की कमिक उज्ज्वलता का दिग्दर्शन है अत: वहां उत्तरोत्तर कृमिक अवस्थाओं का वर्णन है। भावनाएं चित्त को अच्छे विचारों से बार-बार भावित करना भावना है। मस्तिष्कीय धुलाई में भावना का नहत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने मुनि के लिए 'भावियप्पा' विशेषण का प्रयोग किया है। आचार्य हरिभः के. अनः : ध्यान के योग चेतना का निर्माण करने वाली ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है। प्रशस्त भावनाओं के रूप में अनित्य आदि बारह भावनाएं, पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं, मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएं जैन साधना-पद्धति में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। बारह भावनाओं पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई है। उत्तराध्ययन सूत्र में कांदी, किल्विणिकी आदि अप्रशस्त भावनाओं का वर्णन मिलता है।' नियुक्तिकार ने प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, भैथुन. परिग्रह, कोध, मान, माया तथा लोभ आदि की भावना को अप्रशस्त भावभावना माना है। नियुक्तिकार ने प्रशस्त भावना के रूप में उत्तराध्ययन सूत्र में संकेत मात्र से निर्दिष्ट ज्ञान आदि भावनाओं का स्वरूप स्पष्ट किया है। उन्होंने इसमें वैराग्यभावना का और समावेश कर दिया है। दर्शन भावना __ युगप्रधान आचार्य, केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि अतिशायी एवं ऋद्धिधारी भुनियों के अभिमुख जाना. वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन एवं स्तुति करना दर्शन भावना है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने ध्यान शतक में धर्मध्यान के साथ भावनाओं का संबंध जोड़ा है। उनके अनुसार जो अपने आप को शंका आदि दोषों से रहित तथा प्रशम स्थैर्य आदि गुणों से युक्त कर लेता है, उसकी दर्शन-विशुद्धि होने के कारण ध्यान में स्थिरचित्तता हो जाती है। ज्ञानभावना आपको ज्ञान से भावित करना ज्ञानभावना है। जीव आदि नवतत्त्व, बंध, बंधहेतु, १. दश ९/५०। २. आवहाटी २ पृ. ६२; भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः । ४. उ. १९/९४; एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य । भावणाहि य सुद्धाहि. सम्म भावितु अप्पयं ।। ५. आनि ३५२-५४। ६. आवहाटी २ पृ.६७. गा.३२ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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