SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निक्तिपंचक २०३. लोकिक, वैदिक तथा सामयिक विद्वानों का यह मानना है कि जीव नित्य है और वह शरीर से पृथक् है। २०४. देह से संस्पृष्ट वायु का जैसे स्पर्श से ज्ञान होता है, वैसे ही देह-संगत ज्ञान आदि से जीव का ज्ञान होता है। २०५. जीव इंद्रियग्राम गुणों से रहित है। वह मांसचक्षु-छद्मस्थ के द्वारा दुर्जेय है । सिद्ध और भागवत-देवशामा घमण ही उसे जानते-देखते हैं। २०६. कारणविभाग का अभाव तथा कारण विनाश का अभाव, बंध के हेतु का अभाव, विरुद्ध अर्थ की अनुत्पत्ति तथा सत् का अविनाश - इन कारणों से जीव का नित्यत्व सिद्ध होता है। नित्यत्व से अमूर्तत्व और अमूर्तत्व से शरीर से पृथक्त्न सिद्ध होता है । २०७. निरामय व्यक्ति आमययुक्त (रोगयुक्त) हो जाता है। बचपन में किए गए कार्यो की स्मृति होती है, उपस्थान-कृतको का फल भोगा जाता है, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उसका ग्रहण न होने पर भी स्वसंवेदन से उसको सिद्धि होती है। जाति-स्मृति ज्ञान तथा जन्मते ही बालक की स्तनपान की अभिलाषा भी आत्मा के नित्यत्व की साक्षी है। २०८. सर्वज्ञ द्वारा यह उपदिष्ट है कि आत्मा नित्य, स्वकर्मफलभोक्ता तथा अमूर्त है। अतः आत्मा का नित्यत्व, अमूर्तत्व तथा अन्यत्व स्वयं सिद्ध है। २०९. जीव का परिमाण विस्तार की अपेक्षा लोक जिलना है। उसकी अवगाहना सूक्ष्म तथा उसके प्रदेश असंख्येय हैं। २१०. यदि कोई व्यक्ति प्रस्थ' अथवा कडव' से सभी प्रकार के धान्यों का परिमाण करता है, इस प्रकार मापे जाने पर लोक अनन्त होते हैं। २११. निकाय (अथवा काय) पद के बारह निक्षेप है-नामकाय, स्थापनाकाय, शरीरकाय, गतिकाय, निकायकाय, अस्तिकाय, द्रव्यवाय, मातृकाकाय, पर्यायकाय, सग्रहकाय, भारकाय तथा मावकाय । २११/१. एक कांवरिया अपने कांवर में पानी से भरे दो घड़ों को रखकर जा रहा था । एक ही अप्काय दो धड़ों में विभक्त था। कांवरिये का पैर फिसला। एक घड़ा फूट गया। उसका अकाय मर गया। संतुलन न रहने के कारण दूसरा बड़ा भी नीचे गिर कर फूट गया। उसका अप्काम भी मर गया। मरे हुए अप्काय ने जीवित अफाय को मार डाला। मनुष्य ! बोल, इसका हेतु क्या है ? २१२. प्रस्तुत सूत्र में निकायकाय का प्रसंग है। शेष कायों का कथन उन्चरित अर्थ की सद्गता से है। २१३. शस्त्र के दो प्रकार हैं-द्रव्यशास्त्र तथा भावशस्त्र । अग्नि, विष, स्नेह, अम्ल, क्षार, लवण आदि द्रव्यशस्त्र हैं। दुष्प्रयुक्त वचन, दुष्प्रयुक्त काया तथा अविरति-ये भावशास्त्र है। १. लौकिक--इतिहासज्ञ । वैदिक विविध के २. केक्ली समुद्रात के चौथे समय की अपेक्षा से । शाता । सामयिक-बौद्ध आदि दार्शनिक- ३. प्रस्थ-चार कुडव प्रमाण । हाटी प० १२७ । ४. कुडव-चार सेतिका प्रमाण ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy