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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२७ हो?" वायु रोग से पीड़ित मित्र ने कहा- 'जेठ और आषाढ़ मास में जो सुखद वायु चलती थी उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया। जिस वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा शरीर टूट रहा है।' इतने में पांचवां बालक वनस्पतिकाय आया। उसने कहा- 'भंते! जंगल में एक विशाल वृक्ष पर अनेक पक्षी विश्राम करते थे। उस पर पक्षियों के अनेक घोंसले थे। घोंसले में अनेक बच्चे । एक बार उसी वृक्ष के सहारे एक लता ऊपर उठी और पनपने लगी। धीरे-धीरे उसने सारे वृक्ष को आच्छादित कर दिया। एक दिन एक सर्प उस लता के सहारे चढ़ा और घोसले में स्थित सभी अंडों को खा गया। तब पक्षियों ने कहा- 'हम इस वृक्ष पर रहते थे तब यह निरुपद्रव था । किन्तु मूल से लता उठी और यह शरण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया।' आचार्य ने उसके भी आभूषण ले लिए और उसे छोड़ दिया। इतने में छठा बालक सकाय आया। ज्योंहि आचार्य उसके आभूषण उतारने लगे वह बोला- 'गुरुबर ! यह आप क्या कर रहे हैं? मैं तो आपका शरणागत हूँ। मैं आपको एक आख्यानक सुनाता हूं। एक नगर पर शत्रु सेना ने चढ़ाई कर दी। शत्रु सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतर रहने वाले लोगों ने बाहर वालों को भीतर घुसने नहीं दिया। अंदर वाले लोगों ने कहा- ओं मातंगो ! अब तुम दिशाओं की शरण लो। जो नगर शरणस्थल था, वहीं भय का कारण बन रहा है। दूसरा आख्यानक सुनाते हुए उसने कहा- 'एक नगर में राजा, पुरोहित और कोतवाल तीनों ही चोर थे। जनता उनसे संत्रस्त थी। लोगों ने कहा--' जहां राजा स्वयं चोर हो, पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को वन की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि शरण भयस्थान बन रहा है।' दो आख्यानक सुनने पर भी आचार्य ने जब उसे नहीं छोड़ा तो उसने तीसरा आख्यानक सुनाना प्रारम्भ किया एक ब्राह्मण के एक पुत्री थीं। बौवन प्राप्त होने पर वह अत्यन्त रूपवती दिखलाई पड़ती थी । ब्राह्मण पिता अपनी पुत्री में आसक्त हो गया। उस चिंता में उसका शरीर कृश हो गया। ब्राह्मणी ने इस बारे में पूछा। उसने सहजता से सारी बात बता दी। ब्राह्मणी ने कहा- आप अधीर न बनें। मैं ऐसा उपाय करूंगी, जिससे आपका मनोरथ पूरा हो जाए।' एक दिन ब्राह्मणी ने अपनी पुत्री से कहा--' पुत्री ! हमारे कुल की यह परम्परा है कि पुत्री का उपभोग पहले यक्ष करता है फिर उसका विवाह किया जाता है। इस मास की कृष्णा चतुर्दशी को यक्ष आएगा। तुम उसका अपमान मत करना। वहां प्रकाश भी मत रखना। लड़की के मन में यक्ष के प्रति कुतूहल जाग गया। कौतुकवश उसने दीपक पर ढक्कन दे दिया। रात को यक्ष के स्थान पर उसका पिता आया। वह उसके साथ रतिक्रीड़ा कर वहीं सो गया। लड़की ने कुतूहल- वश दीपक से ढक्कन उठाया। उसने अपने पास सोये पिता को देखा। उसने सोचा माता ने मेरे साथ छल किया है। जो कुछ होना है वह होने दो। इस समय यही पति हैं अतः लज्जा क्या लाभ? वे दोनों पुनः रतिक्रीड़ा में संलग्न हो गए। सूर्योदय होने पर भी वे जागृत नहीं हुए। मां ने मागधिका में एक गीत गाया- 'उदित होते सूर्य का चैत्य स्तूप पर बैठे कौए का तथा भींत पर आए आतप का सुख की बेला में पता नहीं चलता।' पुत्री ने उत्तर देते हुए कहा -'मां तुमने ही कहा था कि आए हुए यक्ष की अवमानना मत करना । यक्ष ने पिता का हरण कर लिया है अब दूसरे पिता का अन्वेषण करो।' ब्राह्मणी ने पुन: कहा - ' जिसको मैंने
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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