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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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अहो! कर्मों की गति कितनी विचित्र है। मैं अकल्पित विपत्ति में फंस गई हूँ। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मेरी क्या गति होगी? ऐसा सोचते-सोचते वह रोने लगी। क्षण भर बाद उसने धैर्य धारण करके सोचा-'हिसक एवं अंगलो ३ओं तो युम इसकोणला में कुछ भी हो सकता है अत: हर क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए।' उसने अर्हत् आदि चार शरणों को स्वीकार किया। अनाचरणीय की आलोचना की और सकल जोव राशि के साथ मानसिक रूप से क्षमायाचना की। उसने सागारिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। वह नमस्कार पहामंत्र का जाप करतो हुई एक दिशा में प्रस्थित हुई। बहुत दूर जाने पर उसे एक तापस दिखाई पड़ा। तापस के पास जाकर
ने अभिवादन किया। तापस ने पछा-'माँ! आप यहां निर्जन वन में कहां से आई?' वह बोली-'मैं चेटक की पुत्री हूँ। राजा दधिवाहन की पत्नी हूँ | हाथी मुझे यहां तक ले आया'। वह तापस चेटक से परिचित था। उसने रानी को आश्वासन दिया कि तुम डरो मत। तापस ने भोजन के लिए उसे फल दिए और अटवी के पार पहुंचा दिया। तापस ने कहा-'यहां से आगे हल के द्वारा जोती हुई भूमि है अत: मैं आगे नहीं जा सकता। आगे दन्तपुर नगर है। वहां का राजा दन्तवक्र है।' वह चलकर अटवी से बाहर निकली और दंतपुर नगर में आर्याओं के पास प्रवजित हो गयी। पूछने पर भी उसने अपने गर्भ के बारे में कुछ नहीं बताया। कुछ समय पश्चात् महत्तरिका को यह ज्ञात हुआ। प्रसव होने पर नाममुद्रिका एवं कंबलरत्न से आवेष्टित कर बालक को श्मशान में छोड़ दिया । श्मशान में रहने वाले चांडाल ने उस बालक को उठा लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। उसका नाम अवकीर्णक रख दिया।
आयर्या पद्मावती ने उस चांडाल के साथ मैत्री स्थापित कर ली 1 अन्य साध्वियों ने उससे पूछा-'तुम्हारा गर्भ कहां है?' उसने कहा-'मृतक पुत्र पैदा हुआ था अत: उसे श्मशान में डाल दिया।' वह बालक बढ़ने लगा और बच्चों के साथ खेलने लगा। वह बच्चों से कहता-'मैं तुम सब का राजा हूं अतः तुम सब मुझे 'कर' दो।' एक बार उसे सूखी खाज हो गई। वह बालकों से कहता कि मेरे खाज करो। हाथ से खाज करने के कारण बच्चों ने उसका नाम करकंडु रख दिया। बालक करकंडु भी उस साध्वी के प्रति अनुरक्त हो गया। वह साध्वी भी भिक्षा में जो मोदक आदि अच्छी चीज मिलती, उस बालक को देती थी। बड़ा होने पर वह श्मशान की रक्षा करने लगा।
एक बार दो मुनि किसी कारणवश उस श्मशान भूमि से गुजरे। वहां ब्रांस के झुरमुट में एक डंडा देखा। एक मुनि दंड-लक्षणों का ज्ञाता था। उसने दूसरे मुनि से कहा-'जो इस डंडे को ग्रहण करेगा वह राजा बनेगा। लेकिन वह चार अंगुल और बढ़ने पर ही राज्य-प्राप्त कराने में योग्य बनेगा। तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।' बह बात उस मातंग सुत करकंडु एवं एक ब्राह्मण के पुत्र ने सुनी। ब्राह्मण पुत्र निर्जन समय में उस वंशदंड को चार अंगुल जमीन खोदकर बाहर निकाल रहा था तब मातंगपुत्र करकंदु ने उसे देख लिया। उसने उसको डरा-धमकाकर उसके हाथ से डंडा छीन लिया। वह ब्राह्मण उसको न्यायकर्ताओं के पास ले गया और कहा-'मेरा डंडा मुझे दिलवाओ।' करकंडु ने कहा-'श्मशान मेरा है अत: मैं इसे नहीं दूंगा।' ब्राह्मण- पुत्र ने कहा-'तुम दूसरा डंडा ले लो।' तब करकंडु बोला-'मैं इस इंडे के प्रभाव से राजा बनूंगा अतः यह हुंडा मैं नहीं दे सकता।' तब न्यायकर्ताओं ने हंसकर कहा-'जब तुम राजा बन जाओ तब इसको भी तुम