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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
३. जो शरीर में निवास करता है, वह पुरुष है।
(उचू. पृ. १४७) पुरेकम्म–पूर्वकर्म दोष (भिक्षा का दोष)। पुरेकर्म नाम जं साधूणं दगुणं हत्य भायण धोवइ तं
पुरेकम्म भण्णइ। साधु को देखकर भिक्षा देने के निमित पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना पूर्वकर्म दोष है।
(दजियू. पृ. १७८) पुलाग-पुलाक। णाण-दसण-चरितं निस्सारत्तं जो उवेति सो पुलागो। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निस्सार कर देता है, वह पुलाक (निर्ग्रन्थ) है।
(उचू. पृ. १४४) पुवादिसा-पूर्वदिशा। जस्स जओ आइच्चो उदेति सा तस्स होति पुष्वदिसा । जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिए पूर्वदिशा है।
(आनि.४७) • जत्थ य जो पण्णवओ, कस्स वि साहति दिसाण उ निमित्त । जत्तो मुहो य ठायइ मा पुया..। कोई प्रज्ञापक जहां स्थित होकर दिशाओं के आधार पर निमित-ज्योतिष् का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्वदिशा है।
(नि.५५) पूषणवि-पूजार्थी । पूयणही णाम पूया-सकारादि पत्थेति।
जो सत्कार-पूजा आदि को वांछा करता है, वह पूजार्थी है। (सूचू.१ पृ. २४८) पूषणा-पूतना। पातयन्ति धर्मात् पासयन्ति वा चारित्रमिति पूतनाः। जो धर्म से नीचे गिराती है अथवा चारित्र को बांध देती है, वह यूतना है।
(सूचू. १ पृ. ९९) पेसल-पेशल । पेसलो नाम पेसलवाक्यः अथवा विनयादिभिः शिष्यः गुण:प्रीतिमुत्पादयति पेशलः।
जो मृदुभाषी है,वह पेशल है। जो विनय आदि शिष्य-गुणों से प्रीति उत्पन्न करता है, वह पेशल है।
(सूचू.१ पृ. २२२) पोग्गलपरियट्ट-पुद्गलपरिवर्त। सबपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफास-अशनादीहिं फासिर्जति
सो पोग्गलपरियट्टो भवति। समस्त पुद्गल जितने काल में अशन आदि के द्वारा शरीर का स्पर्श करते हैं, वह पुद्गलपरिवर्त है।
(उचू.म. १८९) फलग-फलक । फलर्ग जत्थ सुम्पति। जिस पर सोया जाता है, वह फलक है।
(दशअचू.पृ. ९१) बवस-बकुश । सरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशकामाः सातागौरवाश्रिताः
अविविक्तपरिवायः छेदशबलचारितजुत्ता णिग्गेथा बठसा भणंति। शरीर और उपकरणों की विभूषा में रत रहने वाले, ऋद्धि और यश की कामना करने वाले, साता और तीन गौरवों में संलग्न, परिवार में आसक्त तथा शबल चारित्र से युक्त निर्ग्रन्थ बकुश कहलाते हैं।
(उचू. पृ. १४४)